महाराष्ट्र के पालघर में जुटकर आदिवासियों ने किया बुलेट ट्रेन परियोजना का विरोध

12 नवंबर 2016 को भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे टोक्यो स्टेशन से कोवे जाने वाली शिंकानसेन ट्रेन में सवार हुए. जापानी सरकार की निवेश एजेंसी जेआईसीए ने मुंबई-अहमदाबाद बुलेट-ट्रेन परियोजना में निवेश किया है जो 296 आदिवासी बहुल गांवों को उजाड़ देगी. पीआईबी
27 March, 2020

12 जनवरी को पश्चिमी और मध्य भारत के लगभग एक लाख आदिवासी महाराष्ट्र के पालघर में आदिवासी एकता परिषद (एईपी) के सालाना होने वाले सांस्कृतिक एकता महासम्मेलन में शामिल होने आए. इस वर्ष कार्यक्रम का 27वां संस्करण था. इस महासम्मेलन को हर साल एक अलग आदिवासी बहुल क्षेत्र में आयोजित किया जाता है.

एईपी ने इस साल के आयोजन के लिए पालघर को यूं ही नहीं चुना था. पिछले चार वर्षों से जिले के आदिवासी भारत सरकार की दो बड़ी बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं के खिलाफ संघर्षों की अगली कतारों में खड़े हैं. पहली परियोजना है मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल परियोजना, जो पूरी होने पर गुजरात और महाराष्ट्र में पांच जिलों से होकर गुजरेगी और दूसरी योजना वधावन बंदरगाह है, जो पालघर के दहानू तालुका में बनेगा.

रेल परियोजना मुंबई और अहमदाबाद को जोड़ने वाली एक प्रस्तावित हाई-स्पीड ट्रेन लाइन है- जिसे आमतौर पर बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट कहा जाता है- जिसे केंद्र सरकार ने 2017 में हरी झंडी दिखाई थी और अभी यह भूमि अधिग्रहण के चरण में है. यह परियोजना पालघर के 73 गांवों के आदिवासियों को विस्थापित करेगी. इसमें दो गांव ऐसे भी हैं जो पहले से ही एक बांध के निर्माण के चलते दुबारा बसाए गए थे. दो गांवों के विस्थापित परिवार अभी भी सरकार द्वारा किए गए स्कूल, अस्पताल और जायज आर्थिक मुआवजा के वादों के पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं. इस बीच, वधावन बंदरगाह दहानू तालुका के कुछ हिस्सों को जलमग्न कर देगा और अंततः इस क्षेत्र के आदिवासियों को विस्थापित कर देगा. बंदरगाह, जिसे केंद्र सरकार ने पहली बार 1997 में प्रस्तावित किया था और वर्तमान में निर्माणाधीन है, पारंपरिक रूप से आदिवासी समुदायों द्वारा उपयोग किए जाने वाले जल को भी प्रदूषित करेगा.  

भारत सरकार ने आदिवासी ग्राम सभाओं की सहमति के बिना दोनों परियोजनाओं की योजना बनाई है, जबकि कानून ऐसी किसी भी परियोजना के लिए ग्राम सभाओं की सहमति को अनिवार्य बनाता है. महासम्मेलन ने पूरे उपमहाद्वीप से आदिवासी समूहों को उसकी खिलाफत करने के लिए एकजुट किया जिसे समुदाय आदिवासी स्वायत्तता को कमजोर करने और उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल करने के प्रयास के रूप में देखता है. आयोजन में यह स्पष्ट था कि आदिवासी संस्कृति का दावा उनकी राजनीतिक स्वायत्तता और प्रतिरोध के दावे को भी दर्शाती है. इसमें आदिवासियों की अपनी पुश्तैनी जमीनों का विकास परियोजनाओं के लिए नियमित रूप से इस्तेमाल किए जाने के खिलाफ उनका प्रतिरोध भी शामिल है.

महासम्मेलन तीन दिनों तक चला जिसमें महिलाओं, युवाओं और बच्चों पर सत्र आयोजित किए गए. वारली समाज के सदस्य और आदिवासी युवा शक्ति नामक पालघर के एक ग्रासरूट संगठन के संस्थापक सचिन सतवी ने मुझे बताया, "हमारा विचार यह था कि पूरे साल भर काम किया जाए और फिर मुद्दों पर चर्चा करने और उनके समाधान खोजने के लिए साल में एक बार मिला जाए." 14 जनवरी को दोनों परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के विरोध में लगभग पांच हजार आदिवासियों के मार्च के साथ दिन की शुरुआत हुई. उड़ीसा के एक आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता मुकेश बिरुआ ने कहा, "हमारे लिए, जल-जंगल-जमीन हमारी संपत्ति या 'संसाधन' नहीं हैं. यह हमारी पैतृक विरासत है."

पालघर रेलवे स्टेशन से महासम्मेलन के आयोजन स्थल तक रास्ता दिखाने के लिए सड़क किनारे एईपी और भूमि सेना के बैनर लगाए गए थे. दोनों की स्थापना वारली नेता कालूराम काकडिया धोदडे ने की थी. पोस्टर धोदडे की तस्वीरों से भरे पड़े थे. वारली समुदाय का एक पवित्र वाद्ययंत्र तरपा है. महासम्मेलन स्थल के प्रवेश द्वार पर एक दस फीट का तरपा रखा था इसके सा​थ ही आदिवासियों के घरों के मॉडल रखे थे जो आदिवासी ज्ञान, कृषि उपकरण, वागोबा जैसे पूर्वज देवता के एक पवित्र आश्रय स्थल के रूप को दर्शाते थे. वागोबा वार्लियों की सर्वोच्च देवता हैं.

वागोबा के आश्रय के दूसरी तरफ देवी आंदोलन को प्रदर्शित किया गया था, जिसका 1920 के दशक के दौरान दक्षिणी गुजरात में आदिवासी आबादी के बीच महत्वपूर्ण प्रभाव था. इतिहासकार डेविड हार्डिमन ने अपनी किताब द कमिंग ऑफ द देवी: आदिवासी एसर्शन इन वेस्टर्न इंडिया में सलाबाई नाम की एक आदिवासी औरत के नेतृत्व में एक जन आंदोलन की चर्चा की है. यह देवी आंदोलन के रूप में जाना जाने लगा. गांधीवादी राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित होकर सलाबाई ने आदिवासियों से शराब और मांस त्यागने, अहिंसा के मार्ग पर चलने और जमींदारों और पारसी शराब विक्रेताओं के आधिपत्य को चुनौती देने का आह्वान किया था. प्रवेश द्वार के बगल में एक झोपड़ी बनाई गई थी, जिसमें सलाबाई और उनके अनुयायियों को दिखाया गया था. सलाबाई को चित्रित करने वाली झोपड़ी के पीछे एक विशाल बैनर लगा था जिसमें देवी आंदोलन और उसकी शिक्षाओं का वर्णन था. ये प्रतीक और चिन्ह बता रहे थे कि किस तरह आदिवासी सांस्कृतिक दावा और गर्व आदिवासी सम्मेलनों का एक अभिन्न अंग है.

विभिन्न क्षेत्रों के आदिवासियों के बीच बातचीत का ऐसा अवसर अक्सर आदिवासियों को उपलब्ध नहीं हो पाता. पारंपरिक वेशभूषा ने एक दूसरे के लिए एक जिज्ञासा और एकजुटता पैदा की. कोई भी किसी आदिवासी को एक अन्य समुदाय के साथी आदिवासी के पास जाते हुए, अपने पारंपरिक नारे, "जोहार" से उनका अभिवादन करते और एक दूसरे से उनके समुदाय और परंपराओं के बारे में बातें करते हुए देख सकता था. लोगों ने एक दूसरे के पते-नंबर लिए, साथ-साथ तस्वीरें खिंचाई और एक दूसरे के इलाकों में आने का वादा किया.

महासम्मेलन के पहले दिन मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 14 आदिवासी छात्रों से मुलाकात की. वे महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के साथ ही अन्य राज्यों से आए हजारों आदिवासियों में शामिल हुए जिन्होंने दिनभर वक्ताओं की बातें सुनी और बड़े में फैली कनात के नीचे रात बिताई. आयोजन स्थल पर आदिवासी उद्यमियों और खाद्य विक्रेताओं के स्टोर और स्टॉल लगे थे. आदिवासी भाषाओं के प्रकाशन घरों, देशज भाषाओं में किताबों और पत्रिकाओं के स्टाल आदि भी स्पष्ट रूप से देखे जा सकते थे.

महासम्मेलन में मिले एक भील छात्र सुनील चौहान भील निम्बाहेड़ा ने आयोजन में शामिल होने के लिए राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से पालघर तक लगभग 800 किलोमीटर की यात्रा की थी. उन्होंने कहा कि उन्होंने पहले चार सम्मेलनों में भाग लिया था. पिछले साल के महासम्मेलन के बारे में बताते हुए उन्होंने मुझसे कहा, "सभा में शामिल होने के लिए चित्तौड़गढ़ से आदिवासियों की एक पूरी बस दादरा और नागर हवेली गई थी." भील समुदाय की राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में आदिवासियों के बीच अपेक्षाकृत अधिक आबादी के कारण इन आयोजनों में महत्वपूर्ण उपस्थिति होती है. एईपी यहां मुख्य रूप से सक्रिय है. आयोजन में कई नौजवान और छात्र संगठनों ने भी भाग लिया.

आदिवासी समुदायों को समर्पित एक गुजराती मासिक पत्रिका आदिलोक के प्रकाशक विनायक जादव ने कहा कि वह 2008 में पत्रिका की स्थापना के बाद से एईपी कार्यक्रमों का दौरा कर रहे हैं. भील समुदाय से आने वाले और गुजरात विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान के सहायक प्रोफेसर आनंद वसावा, तब से पत्रिका के संपादक हैं. "आदिवासियों की समृद्ध संस्कृति और इतिहास है," जादव ने मुझे बताया. "उनके पास अनकही कहानियां हैं जिन्हें खुद को व्यक्त करने के लिए एक मंच की आवश्यकता होती है." उन्होंने कहा कि एक दशक से अधिक समय तक सफलतापूर्वक चलने के बाद, अब आदिलोक अपनी पहुंच बढ़ाने और एक हिंदी संस्करण प्रकाशित करने की योजना बना रहा है.

मध्यप्रदेश के आदिवासी छात्र संगठन के प्रदेश अध्यक्ष आकाश कुशराम 35 छात्रों के साथ महासम्मेलन में भी शामिल हुए थे. वह कोइतुर समुदाय से हैं, जिसे गोंड के नाम से भी जाना जाता है, जो मुख्य रूप से मध्य भारत के कई राज्यों में रहते हैं. कुशराम ने मुझे बताया कि महासम्मेलन उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि हर साल महासम्मेलन आयोजन स्थल पर एक मार्च करता है. मार्च के दौरान, समूह आदिवासी संस्कृति के महत्व और संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत संवैधानिक प्रावधानों के बारे में कार्यशालाएं आयोजित करने के लिए गांवों में रुकता है.

जनवरी में पालघर के सांस्कृतिक एकता महासम्मेलन में एक लाख से अधिक आदिवासी एकत्र हुए और शहर के बाहर एक मैदान में टेंट के नीचे रात बिताई. वे वाधवन बंदरगाह परियोजना और बुलेट-ट्रेन परियोजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के लिए एकत्र हुए थे जो आदिवासियों को उनकी पैतृक भूमि से विस्थापित कर देगा. नीलम केरकेट्टा

पिछले 27 वर्षों में आदिवासी पहचान और अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करने में एईपी के राष्ट्रीय सम्मेलनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. निम्बाहेड़ा ने बताया, "हम कस्बों और शहरी इलाकों में रहने के बाद अपनी पारंपरिक संस्कृति को भूल रहे हैं. हमारे आसपास गैर-आदिवासियों के प्रभाव के कारण, हमारी संस्कृति विलुप्त होने के कगार पर पहुंच रही है. एईपी के आयोजनों का हिस्सा बनने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि हमें अपनी संस्कृति को खत्म नहीं होने देना चाहिए, और अपनी विरासत, रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों को संरक्षित करना चाहिए. ”

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पालघर एक आदिवासी बहुल जिला है, जिसमें 37 प्रतिशत जनजातीय आबादी रहती है, जिसमें कई ऐसी तालुकाएं हैं जिन्हें 5वीं अनुसूची क्षेत्रों के रूप में रखा गया है. संविधान की 5वीं अनुसूची मुख्यतः आदिवासी क्षेत्रों में भूमि अधिकारों के साथ-साथ स्वशासन पर आदिवासी नियंत्रण जैसे सुरक्षात्मक कानूनी प्रावधान प्रदान करती है. यह केवल इन क्षेत्रों के लिए विशिष्ट प्रयोजन वाले कानूनों का भी प्रावधान करती है. अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकार की मान्यता) अधिनियम, 2006 और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) अधिनियम, 1996, आदिवासी समुदाय की भूमि और संसाधनों तक पहुंच की रक्षा करते हैं. ये कानून किसी भी सार्वजनिक या निजी परियोजना हेतु भूमि अधिग्रहण के लिए समुदाय की पूर्व सहमति को अनिवार्य करते हैं.

पालघर के निवासियों ने सरकार के नेतृत्व वाली कई ऐसी विकास परियोजनाओं का उल्लेख किया जो उनकी पैतृक भूमि पर प्रस्तावित थीं. पालघर में स्थित एईपी के केंद्रीय कार्यालय के निदेशक सुनील परिहाद ने मुझे बताया, "पालघर जिले में 15 ऐसी 'विकास' परियोजनाएं चल रही हैं. दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के तहत कई छोटी परियोजनाएँ हैं. इसी तरह, बुलेट-ट्रेन परियोजना, वधावन बंदरगाह, रेलवे का समर्पित माल गलियारा, मुंबई-वडोदरा एक्सप्रेस-वे, ये सभी परियोजनाएँ, पालघर के अनुसूचित क्षेत्रों के अंतर्गत आती हैं.” उन्होंने कहा, "डीएमआईसी परियोजना गुजरात की सीमा की तरफ मुंबई के अंत में वसई से लेकर, दादर नगर हवेली, वलसाड और राजस्थान के डोंगरपुर और उदयपुर तक फैली हुई है, जिनमें से सभी 5वीं सूची के तहत अनुसूचित क्षेत्र का हिस्सा हैं." डीएमआईसी दिल्ली और मुंबई को मूलभूत ढांचागत रूप से जोड़ने वाली और साथ ही साथ दो शहरों के बीच के राज्यों में पड़ने वाले 24 औद्योगिक क्षेत्रों को जोड़ने वाली एक बड़ी योजनाबद्ध परियोजना है.

मुंबई-वडोदरा एक्सप्रेसवे, बुलेट-ट्रेन परियोजना और वधावन बंदरगाह ये तीन ऐसी बड़ी परियोजनाएं हैं जिनमें आदिवासियों की भूमि का सबसे अधिक अधिग्रहण होना है. एक अन्य औद्योगिक परिसर, दहानू थर्मल पावर स्टेशन, संयंत्र और राख के डंपिंग के लिए एक हजार एकड़ भूमि में फैला हुआ है. परिहाद ने मुझे बताया, "यह शुरू में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई थी, फिर रिलायंस में चली गई और अब अडानी के पास है."

2013 में रेल मंत्रालय ने बुलेट-ट्रेन परियोजना के लिए जापान अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एजेंसी के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए. 508 किलोमीटर से अधिक की यह परियोजना 296 गांवों से होकर गुजरेगी. जेआईसीए एक जापानी सरकारी एजेंसी है जो दुनिया भर में विकास परियोजनाओं के लिए सहायता प्रदान करती है. चार साल बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके जापानी समकक्ष शिंजो अबे ने एक लाख करोड़ रुपए की लागत वाली इस परियोजना की नींव रखी. यह परियोजना मुख्य रूप से महाराष्ट्र, गुजरात तथा दादरा और नगर हवेली में आदिवासी क्षेत्रों से गुजरती है. इसमें गुजरात के तीन और महाराष्ट्र के दो जिले शामिल हैं. इनमें से प्रत्येक जिले- नवसारी, वलसाड, सूरत, ठाणे और पालघर के पास कई तालुका हैं जो 5वीं अनुसूची के अंतर्गत आते हैं. परियोजना के चलते पालघर जिले में 73 गांवों को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा भूमि अधिग्रहण होगा. न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने पिछले साल नवंबर में रिपोर्ट दी थी कि क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा लगातार विरोध के कारण पालघर में लगभग 90 प्रतिशत भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सका है.

इंडिजिनस पीपुल्स प्लान मुंबई अहमदाबाद हाई स्पीड रेल शीर्षक से जेआईसीए की 2018 की रिपोर्ट कहती है, “गुजरात और महाराष्ट्र के अधिकांश क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के निवासियों की समग्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति और विशेष रूप से परियोजना प्रभावित आदिवासी घरों से पता चलता है कि वे मुख्यधारा के समाज का हिस्सा हैं.” रिपोर्ट कहती है, "प्रस्तावित परियोजना का आदिवासी आबादी की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक अखंडता पर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा और परियोजना उनके सामुदायिक जीवन को बाधित नहीं करेगी." रिपोर्ट में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा "मुख्यधारा" और आदिवासी समुदायों के बीच एक अंतर को दर्शाती है, जो उन्नत "मुख्यधारा" के विपरीत, आदिवासियों को फिर से पिछड़े या आदिम के रूप को फिर से प्रस्तुत करती है. इस रिपोर्ट में विभिन्न आदिवासी समूहों की धार्मिक पहचान "हिंदू" बताई गई है - ज्यादातर आदिवासी इस वर्गीकरण का विरोध करते हैं.

जबकि जेआईसीए की रिपोर्ट में तर्क दिया गया था कि वे "स्वतंत्र पूर्वगामी एवं सूचित सहमति" सुनिश्चित करेंगे, मैंने पालघर में जिन लोगों से बात की उन्होंने मुझे बताया कि अधिकांश गांवों ने जेआईसीए के सदस्यों को अपने गांवों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी है और परियोजना के लिए अपनी जमीन देने से इनकार कर दिया है. स्वतंत्र पूर्वगामी एवं सूचित सहमति आदिवासियों का एक अधिकार है जिसे आदिवासियों के अधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र घोषणा में मान्यता दी गई है. एफपीआईसी आदिवासियों के आत्मनिर्णय के लिए केंद्रीय है और आदिवासी समुदायों को प्रभावित करने वाली किसी भी परियोजना के लिए सहमति देने या वापस लेने की अनुमति देता है. सतवी ने मुझे बताया, “अतीत में, अधिकारियों ने भूमि सर्वेक्षण के लिए गांवों में घुसने की कोशिश की है लेकिन उन्हें घुसने नहीं दिया गया. भूमि सेना और आदिवासी एकता परिषद की मजबूत गोलबंदी और सक्रिय उपस्थिति के कारण यह गुजरात और महाराष्ट्र में आदिवासी क्षेत्रों में हुआ है. ”

जहां एक तरफ क्षेत्र के ग्रामीण को बेदखली के आघात का सामना कर रहे हैं वहीं पालघर जिले में चंद्रनगर और हनुमान नगर जैसे गांवों के निवासी पहले ही एकबार विस्थापन का दर्द झेल चु​के हैं. 30 साल पहले, इन दोनों गांवों के निवासियों को धामनी बांध के निर्माण के चलते बेदखल कर दिया गया था और उनके वर्तमान गांवों में बसाया गया था. अब, प्रस्तावित बुलेट ट्रेन इन दोनों गांवों से होकर गुजरेगी और लोगों को अपने घरों को फिर से खो देने का डर है.

हनुमान नगर दहानू से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. 1989 में धामनी बांध के निर्माण के लिए लगभग 12 आदिवासी गांवों को विस्थापित किया गया था. एक किसान और हनुमान नगर के निवासी रमेश अहाड़ी ने कहा, "सरकार हमें इस गांव में ले आई और हमें अपने घर बनाने के लिए कहा. उस समय, कुछ लोगों को अपनी जमीन के लिए दो से तीन हजार रुपए मिले थे. हमें बेहतर अस्पताल, स्कूल और एक बाजार का वादा किया गया था, लेकिन उनमें से कोई भी अभी तक पूरा नहीं हुआ है.'' बांधों के कारण विस्थापित हुए कई आदिवासी गांवों के अनुभवों के समान, इस गांव को बांध से कोई भी पानी नहीं मिलता है क्योंकि पानी को  मुंबई और विभिन्न नई विकास परियोजनाओं के लिए भेजा जाता है.

हनुमान नगर सहित पालघर जिले के ग्रामीणों ने अधिकारियों को गांव में भूमि सर्वेक्षण करने की अनुमति नहीं दी है. अहाड़ी ने कहा, “26 जनवरी को, जापानी कंपनी के अधिकारियों ने फिर से गांव का दौरा किया और लोगों से दावा किया कि वे लगभग सोलह से सत्रह लाख रुपए का मुआवजा देंगे. हम जिस जमीन पर खेती कर रहे हैं, वह अभी भी हमारे नाम से नहीं है. ” महासम्मेलन आदिवासियों के लिए यह सुनने का एक अवसर था कि दूसरे लोग बुलेट-ट्रेन परियोजना से कैसे प्रभावित हुए थे, कैसे वे प्रत्येक क्षेत्र में इसका विरोध कर रहे थे, और सभी को खतरे में डालने वाली योजना के खिलाफ कैसे एकताबद्ध हुए थे.

महासम्मेलन में विरोध प्रदर्शन का अन्य लक्ष्य वधवन बंदरगाह परियोजना थी. इस साल की शुरुआत में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पालघर के दहानू तालुका में वधावन बंदरगाह को मंजूरी दी, जिसकी लागत 62,544.54 करोड़ है. पोर्ट को एक सार्वजनिक-निजी साझेदारी के आधार पर विकसित किया जा रहा है जिसमें जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट और महाराष्ट्र मैरीटाइम बोर्ड शामिल हैं. भारत सरकार ने एक प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया कि वाधवन बंदरगाह के साथ, “भारत दुनिया के शीर्ष 10 कंटेनर पोर्ट वाले देशों में शामिल हो जाएगा.” बयान में इस परियोजना का पांच हजार एकड़ में फैले होने का भी उल्लेख किया गया है.

यह बंदरगाह पहली बार 1997 में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन वाली महाराष्ट्र की सरकार द्वारा प्रस्तावित किया गया था. परिहाद ने कहा, "परियोजना आदिवासी समूहों के मजबूत प्रतिरोध के कारण आगे नहीं बढ़ सकी." केंद्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद इसे फिर से शुरू किया गया. उन्होंने कहा कि बंदरगाह "25 मीटर गहरा होगा और इससे लगभग 12 से 15 किलोमीटर भूमि डूब जाएगी." जब मैंने बंदरगाह के पास समुद्र के किनारे का दौरा किया, जहां बंदरगाह के लिए परियोजना का काम शुरू हो गया था, तो इसके प्रभाव प्रमुख रूप से दिखाई दे रहे थे. परियोजना के निर्माण से होने वाले प्रदूषण के कारण प्रस्तावित बंदरगाह, विशेष रूप से समुद्र तटों के आसपास के क्षेत्र में मैली काली मिट्टी को कोई भी देख सकता है.

पिछले साल, लगभग पच्चीस गांवों ने बंदरगाह के विरोध में महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का बहिष्कार किया था. आदिवासी एकता परिषद के सदस्य अश्विनी ठाकारे ने मुझे बताया, "कालूराम काका के नेतृत्व में हम ऐसा कर पाए. सागर केवल कुछ किलोमीटर दूर है. वधावन बंदरगाह परियोजना समाप्त होने के बाद, हमारे गांव जलमग्न होने वाले हैं. लोग कहां जाएंगे?” विकास परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की जमीन का अतिक्रमण करने के खिलाफ पालघर के आदिवासियों के प्रतिरोध ने गैर-आदिवासी समुदायों के अन्य लोगों को संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित किया है. भूमि सेना और आदिवासी एकता परिषद की तरह, पारहाद और अन्य लोगों ने भीम पुरखा बचाओ आंदोलन शुरू किया, जिसमें नई परियोजनाओं से प्रभावित हो सकने वाले आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों शामिल थे.

राज्य सरकार ने इन परियोजनाओं से प्रभावित प्रत्येक गांव की ग्राम सभाओं से अनुमति नहीं मांगी है. लेकिन पीईएसए की धारा 4 और धारा 1 के अनुसार यह अनुमति अनुसूचित क्षेत्रों में किसी भी भूमि अधिग्रहण के लिए यह आवश्यक है. परिहाद ने मुझसे कहा, "सरकार पैसे का लालच देकर पिछले दरवाजे से लोगों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है. जबकि अधिकारियों ने बुलेट-ट्रेन परियोजना के लिए साहूकारों के स्वामित्व वाली निजी भूमि का सर्वेक्षण किया है, हमने उन्हें आदिवासी गांवों में सर्वेक्षण करने की अनुमति नहीं दी है." 2016 में, चंद्रनगर और हनुमान नगर गांवों की ग्राम सभाओं ने सर्वसम्मति से परियोजना को अस्वीकार कर दिया था. परिहाद ने मुझे समझाया कि औपनिवेशिक भू-राजस्व कानूनों के कारण, आदिवासियों द्वारा खेती की जाने वाली अधिकांश भूमि साहूकारों के नाम पर है. "इसलिए, यह आदिवासियों के लिए एक और नुकसान है, क्योंकि यह इन परियोजना के लिए मुआवजा साहूकार प्राप्त करेंगे."

पालघर में जमींदार औपनिवेशिक काल से आदिवासियों का शोषण करते रहे हैं. 1970 और 1980 के दशक के दौरान, साहूकारों और जमींदारों ने बेगारी को लागू किया था. जबरन और मुफ्त श्रम की इस यह प्रथा मुख्य रूप से रियासतों में प्रचलित थी. 1980 के दशक तक कई आदिवासी क्षेत्रों में बेगारी व्यवस्था जारी रही क्योंकि राजसी परिवारों ने उन क्षेत्रों पर अपना अधिकार बनाए रखा. "जमीनों की जुताई आदिवासी कर रहे थे लेकिन जमीन इन साहूकारों और जमींदारों के नाम पर ही थी और आदिवासियों को उत्पादन का एक निश्चित अनुपात दिया जाता था," सातवी ने बताया.

सातवी का संगठन वारली कला के लिए भौगोलिक संकेतक टैग प्राप्त करने में सहायक रहा है. टैग वारली कलाकारों के बौद्धिक संपदा अधिकारों और उनकी अनूठी पेंटिग शैली को सुरक्षा प्रदान करता है. "इस तरह के दमन के तहत, कालूराम काका और अन्य लोगों ने एक मजबूत प्रतिरोध शुरू किया और उनमें से कई को आदिवासी गांवों से निकाल दिया. उनके प्रतिरोध ने सरकारी कर्मचारियों को कुछ हद तक आदिवासियों को भूमि वापस करने के लिए मजबूर किया था."

1980 के दशक के उत्तरार्ध में धोदडे ने भूमि सेना की स्थापना की जिसने पालघर में भूमि पर आदिवासियों की दावे को पुन: प्राप्त करने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की. यह बेगारी के खिलाफ प्रतिरोध आंदोलन से उभर का आया था. भूमि सेना इस क्षेत्र के सबसे पुराने आदिवासी संगठनों में से एक है. सातवि ने बताया, "आदिवासी युवाओं ने ग्रामीण स्तर पर खुद को जुटाया और इस क्षेत्र में आंदोलन में तेजी आई. आंदोलन ने भूमि नियमन को कुशलतापूर्वक लागू करने के लिए जमींदारों, साहूकारों और भूमि प्राधिकरणों के अधिकारियों के हमलों का प्रतिकार किया." धोदडे बाद में क्रमशः अशोक भाई चौधरी और वहारू सोनवाने जैसे नेताओं के संपर्क में आए, दोनों क्रमशः गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में जमीनी स्तर के आंदोलनों में काम कर रहे थे और 1993 में आदिवासी एकता परिषद की शुरुआत हुई.

गुजरात के वड़ोदरा स्थित एक शोध संस्थान, सेंटर फॉर कल्चर एंड डेवलपमेंट के स्टैनी पिंटो ने सोशल मूवमेंट इन इंडिया नामक एक पुस्तक में एईपी के बारे में लिखा है. उन्होंने कहा कि आदिवासी एकता परिषद, '''आत्मसम्मान' और 'आत्मनिष्ठा' के लिए एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान आंदोलन के माध्यम से आदिवासी पहचान का दावा करती है.'' संगठन ने पिछले 27 वर्षों से आदिवासियों की एकता और स्वाभिमान और उनकी पहचान, इतिहास, कला और संस्कृति की दिशा में एक वैचारिक आंदोलन का नेतृत्व किया है. वर्ष 1993 में जब एईपी की स्थापना हुई थी, उसी वक्त संयुक्त राष्ट्र ने आदिवासियों के अधिकारों पर अपनी घोषणा का मसौदा (यूएनडीआरआईपी) तैयार किया था जिसे 1994 में अनुमोदित किया गया था. यूएनडीआरआईपी "सांस्कृतिक और औपचारिक अभिव्यक्ति, पहचान, भाषा , रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य मुद्दों के बारे में'' आदिवासियों के स्वामित्व के अधिकारों की पुष्टि करता है.”

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14 जनवरी को दो विकास परियोजनाओं के विरोध में कार्यक्रम स्थल से पालघर शहर के केंद्र तक एक बड़ी रैली निकाली गई. हालांकि रैली में केवल नारेबाजी ही नहीं की गई. इसके बजाय, रैली के दौरना लोगों ने भीली और वारली गीतों पर नृत्य किया. भूमि अधिकारों से संबंधित मुद्दे विशेष रूप से आदिवासी संस्कृति के लिए केंद्रीय मुद्दे रहे हैं और नृत्य हमेशा से आदिवासियों के लिए एक राजनीतिक कार्य रहा है. झारखंड के एक आदिवासी बुद्धीजीवि और सांसद, राम दयाल मुंडा ने एक बार कहा था, "नांची से बांची." यानी जीवन के लिए नाच.

महासम्मेलन ने आदिवासी भूमि के निरंतर शोषण के खिलाफ आदिवासियों के दावे और विरोध की निरंतर परंपरा को एकाकार कर दिया. आयोजन के अंतिम दिन आदिवासी भाषाओं और साहित्य को बढ़ावा देने की दिशा में काम करने वाली गुजरात स्थित “आदिवासी साहित्य अकादमी” के अध्यक्ष जितेंद्र वसावा ने सभा को संबोधित करते हुए कहा, “तुम जितना जोर से विकास चिल्लाओगे उतना जोर से तुम्हारे पहाड़ खोदेंगे, नदी बांधेंगे और जंगल काटेंगे.”