12 जनवरी को पश्चिमी और मध्य भारत के लगभग एक लाख आदिवासी महाराष्ट्र के पालघर में आदिवासी एकता परिषद (एईपी) के सालाना होने वाले सांस्कृतिक एकता महासम्मेलन में शामिल होने आए. इस वर्ष कार्यक्रम का 27वां संस्करण था. इस महासम्मेलन को हर साल एक अलग आदिवासी बहुल क्षेत्र में आयोजित किया जाता है.
एईपी ने इस साल के आयोजन के लिए पालघर को यूं ही नहीं चुना था. पिछले चार वर्षों से जिले के आदिवासी भारत सरकार की दो बड़ी बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं के खिलाफ संघर्षों की अगली कतारों में खड़े हैं. पहली परियोजना है मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल परियोजना, जो पूरी होने पर गुजरात और महाराष्ट्र में पांच जिलों से होकर गुजरेगी और दूसरी योजना वधावन बंदरगाह है, जो पालघर के दहानू तालुका में बनेगा.
रेल परियोजना मुंबई और अहमदाबाद को जोड़ने वाली एक प्रस्तावित हाई-स्पीड ट्रेन लाइन है- जिसे आमतौर पर बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट कहा जाता है- जिसे केंद्र सरकार ने 2017 में हरी झंडी दिखाई थी और अभी यह भूमि अधिग्रहण के चरण में है. यह परियोजना पालघर के 73 गांवों के आदिवासियों को विस्थापित करेगी. इसमें दो गांव ऐसे भी हैं जो पहले से ही एक बांध के निर्माण के चलते दुबारा बसाए गए थे. दो गांवों के विस्थापित परिवार अभी भी सरकार द्वारा किए गए स्कूल, अस्पताल और जायज आर्थिक मुआवजा के वादों के पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं. इस बीच, वधावन बंदरगाह दहानू तालुका के कुछ हिस्सों को जलमग्न कर देगा और अंततः इस क्षेत्र के आदिवासियों को विस्थापित कर देगा. बंदरगाह, जिसे केंद्र सरकार ने पहली बार 1997 में प्रस्तावित किया था और वर्तमान में निर्माणाधीन है, पारंपरिक रूप से आदिवासी समुदायों द्वारा उपयोग किए जाने वाले जल को भी प्रदूषित करेगा.
भारत सरकार ने आदिवासी ग्राम सभाओं की सहमति के बिना दोनों परियोजनाओं की योजना बनाई है, जबकि कानून ऐसी किसी भी परियोजना के लिए ग्राम सभाओं की सहमति को अनिवार्य बनाता है. महासम्मेलन ने पूरे उपमहाद्वीप से आदिवासी समूहों को उसकी खिलाफत करने के लिए एकजुट किया जिसे समुदाय आदिवासी स्वायत्तता को कमजोर करने और उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल करने के प्रयास के रूप में देखता है. आयोजन में यह स्पष्ट था कि आदिवासी संस्कृति का दावा उनकी राजनीतिक स्वायत्तता और प्रतिरोध के दावे को भी दर्शाती है. इसमें आदिवासियों की अपनी पुश्तैनी जमीनों का विकास परियोजनाओं के लिए नियमित रूप से इस्तेमाल किए जाने के खिलाफ उनका प्रतिरोध भी शामिल है.
महासम्मेलन तीन दिनों तक चला जिसमें महिलाओं, युवाओं और बच्चों पर सत्र आयोजित किए गए. वारली समाज के सदस्य और आदिवासी युवा शक्ति नामक पालघर के एक ग्रासरूट संगठन के संस्थापक सचिन सतवी ने मुझे बताया, "हमारा विचार यह था कि पूरे साल भर काम किया जाए और फिर मुद्दों पर चर्चा करने और उनके समाधान खोजने के लिए साल में एक बार मिला जाए." 14 जनवरी को दोनों परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के विरोध में लगभग पांच हजार आदिवासियों के मार्च के साथ दिन की शुरुआत हुई. उड़ीसा के एक आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता मुकेश बिरुआ ने कहा, "हमारे लिए, जल-जंगल-जमीन हमारी संपत्ति या 'संसाधन' नहीं हैं. यह हमारी पैतृक विरासत है."
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