दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में भी नहीं मिलती कश्मीरियों को जगह

अल्ताफ कादरी/एपी
20 November, 2019

दिल्ली के जामिया नगर इलाके में 12 अगस्त को, एक 23 वर्षीय कश्मीरी छात्र और उसके साथ रहने वाले दो अन्य कश्मीरी लड़कों को अपना तीन कमरों वाला फ्लैट खाली कर देने के लिए कह दिया गया. वह दो साल से वहां रह रहा था. हालांकि मकान मालिक ने बताया कि घर की मरम्मत कराने की वजह से उसे कमरा खाली करने को कहा गया लेकिन छात्र को शक था कि उसे इसलिए निकाला जा रहा है क्योंकि वह एक कश्मीरी है. अगले कुछ हफ्तों में जामिया नगर में किराए का नया कमरा न तलाश पाने ने उसके इस डर को सही सबित कर दिया कि उसका कश्मीरी होना ही असली पेरशानी थी.

5 अगस्त को भारत सरकार ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया था, जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त था. क्षेत्र में संचार सुविधाएं और इंटरनेट सेवा बंद होने के बीच यह कदम उठाया गया था. इसके बाद मानवाधिकार हनन की व्यापक खबरों के बीच सुरक्षा व्यवस्था चाकचौबंद कर दी गई.

1980 के दशक में कश्मीर में बढ़ते संघर्ष के बाद से, शेष भारत में रहने वाले सामान्य कश्मीरियों को अक्सर खतरों और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता रहा है. शेष भारत के कई निवासी अविश्वास के साथ कश्मीरियों को देखते रहे हैं. कश्मीरियों को शक है कि पहले भी उनकी पहचान के कारण उन्हें दिल्ली में रहने का ठिकाना देने से इंकार किया जाता रहा है. 5 अगस्त के बाद से यही सब फिर से दुहाराया जाना दिखाई देता है. कश्मीर एक ऐसा राष्ट्रीय ज्वलंत विषय बन गया, जिसके बारे में पूरे देश में अलग—अलग राय हैं. नाम न छापने की शर्त पर, कई कश्मीरी मुस्लिमों ने दिल्ली में किराए का मकान तलाशने में अपनी हाल की चुनौतियों के बारे में मुझसे बात की.

मकान मालिक द्वारा तीनों फ्लैटधारकों को फ्लैट छोड़ने के लिए कहने के बाद, उन्होंने जामिया नगर और उसके आसपास एक और अपार्टमेंट की तलाश के लिए एक ब्रोकर से संपर्क किया. जामिया नगर, दक्षिण दिल्ली में मुस्लिम बहुल इलाका है, जो उत्तर प्रदेश की सीमा के करीब है. इस ​इलाके में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कई छात्र रहते हैं, जिसमें कश्मीर सहित देश भर के कई मुस्लिम छात्र पढ़ते हैं.

तीनों फ्लैटमेट के पास नया फ्लैट ढूंढने के लिए दो हफ्ते का समय था. उन्होंने जामिया नगर, जाकिर नगर, गफ्फार मंजिल और ओखला विहार के आसपास के इलाकों में नया घर तलाशने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली. 23 वर्षीय छात्र ने बताया कि घर दिखाए जाने के बाद उन्हें घर देने से मना कर दिया जा रहा था. उन्होंने मुझे बताया "हम बेताब हो गए और दलालों से पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है. उन्होंने हमें बस यही बताया कि कश्मीरियों को यहां रहने की इजाजत नहीं है."

10 अक्टूबर को राजनीतिक हिंसा पर नजर रखने वाले दिल्ली के एक अकादमिक बशारत अली ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी. वे भी इसी तरह की परेशानी झेल रहे हैं. उन्होंने लिखा, "ओखला में जाकिर नगर, बटला हाउस, ओखला विहार जैसी दिल्ली की मुस्लिम बस्तियों में कश्मीरियों को किराए पर कमरा देने से इनकार किया जा रहा है. पिछले पांच सालों में मुझे इतने कश्मीरी और खासकर छात्र ​नहीं मिले जितना पिछले एक महीने में मिले, जिन्होंने बताया कि उन्हें किराए पर घर नहीं दिया जा रहा है."

उन्होंने आगे जोर देकर कहा कि मुस्लिम इलाकों में भी कश्मीरियों को घर नहीं दिया जा रहा है. "जबकि दिल्ली में गैर-मुस्लिम इलाके कश्मीरी किरायेदारों के लिए ज्यादा खुले नहीं थे और स्पष्ट कारणों से भी पसंद नहीं किए जाते थे, लेकिन दिल्ली में मुख्य रूप से मुस्लिम इलाकों में घर देने से इनकार करना उस समय को बयान करता है, जिसमें हम जी रहे हैं." उन्होंने कहा, "इस रुझान से यह भी पता चलता है कि ये स्थान भारतीय राज्य और कश्मीर के लोगों के बीच किसी भी तरह का युद्ध भड़क उठने के समय में कश्मीरियों के लिए सुरक्षित नहीं हैं.”

यह संदेश पोस्ट होने के बाद मैंने अली से बात की थी. उन्होंने कहा, "मैं यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि क्या यह भारत में कश्मीरियों के बढ़ते हुए अलगाव का नतीजा है या इस्लामोफोबिया के खतरे का, जहां 'अच्छे' मुसलमानों पर 'बुरा' मुसलमान होने का शक किया जाता है या ये दोनों ही बातें हैं. मुझे लगता है कि कुछ हद तक ये संदेह भारतीय नजर में एक कश्मीरी की छवि को कभी न खत्म होने वाले खतरे के रूप में गढ़ने से पैदा हुआ है."
जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में पीएचडी करने वाली 26 वर्षीय एक कश्मीरी छात्रा ने मुझे दिल्ली में घर देने से इंकार किए जाने के अपने अनुभव के बारे में बताया. जब मैंने अक्टूबर में उससे बात की तो वह जामिया नगर के सामने जुलेना इलाके में रह रही थी. इस इलाके में छह साल तक रहने के बाद, उसने कहा कि वह जामिया नगर में जाना चाहती है. उसने कहा "एक हद के बाद, आपका परिवार और रिश्तेदार ज्यादा सहज महसूस करते हैं कि आप किसी मुस्लिम बहुल क्षेत्र में रहें. हाल में जो कुछ हुआ उसे देखते हुए वे खास तौर से इससे बेहतर महसूस करेंगे." यह तब था जब उसने नए फ्लैट की तलाश शुरू की तब उसे आगे की चुनौती का एहसास हुआ.

अक्टूबर की शुरुआत में, जब वह एक अपार्टमेंट देखने जा रही थी, तो उसे अपने ब्रोकर का फोन आया, जिसने कहा कि मकान मालिक को अब उसे फ्लैट दिखाने में कोई दिलचस्पी नहीं है. जब उसने ब्रोकर से पूछा कि क्या हुआ, तो उसने बताया कि मकान मालिक "यह सुनकर हिचकिचा गया कि हम कश्मीर से हैं."

"ब्रोकर ने हस्तक्षेप करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया," 26 वर्षीय पीएचडी छात्रा ने कहा. "इसलिए मुझे लगा कि मैं किसी और जगह की तलाश करूं." इस बार, वह इंकार किए जाने से पहले अपार्टमेंट देख सकी थी. 26 वर्षीय छात्रा ने मुझे बताया, "जब हम पहुंचे और ब्रोकर को बताया कि हमें फ्लैट पसंद है, तो उसने मकान मालिक को फोन किया. मकान मालिक भी हमें फ्लैट देने के लिए तैयार था, कम से कम तब तक तो वह तैयार था ही जब तक ब्रोकर ने उसे नहीं बताया कि हम कश्मीरी हैं."

"ब्रोकर हमारे सामने ही मकान मालिक से बात कर रहा था, हम उसे कश्मीरी होने के बारे में मकान मालिक के साथ बहस करते सुन सकते थे. काश मुझे पहले पता होता कि यहां हमारे साथ ऐसा बर्ताव होगा. सालों से यहां रहते हुए हम कश्मीरी मुस्लिमों ने जो एक चीज सीखी है, वह ये कि हमें ऐसा लगता है कि हम भारतीय मुसलमानों से किसी एकजुटता की उम्मीद नहीं कर सकते.” उन्होंने कहा.

अली के अनुसार, भारतीय मुसलमानों की हमेशा से "अतिरिक्त जिम्मेदारी" रही है और "इसके चलते अपनी देशभक्ति को सरेआम साबित करने की दिशा में उनका झुकाव बढ़ता गया है." उन्होंने बताया हालांकि पहले "भारतीय मुसलमानों का कश्मीरियों के प्रति एक उदार रुख था क्योंकि इसे एक सेक्युलर काम समझा जाता था.” लेकिन भारतीय जनता पार्टी की सरकार के तहत, "राष्ट्रवादी के रूप में गिना जाना" उनके लिए अधिक अनिवार्य हो गया है.
अली ने कहा, "अनुच्छेद 370 और 35 ए के निरस्त होने के बाद और बीजेपी के तहत भारत की बदलती परिभाषाओं में, भारतीय मुसलमानों (भारतीय के रूप में) का कश्मीरियों (अब वह जगह और वहां के लोग “पूरी तरह हमारे अपने हैं”) के प्रति निर्बलता और सत्ता का अहसास इतना गहरा है कि उनकी कार्रवाई पूरी तरह से कश्मीरियों के खिलाफ हिंदुत्ववादी ताकतों के साथ खड़ी है."

जामिया नगर में काम करने वाले एक ब्रोकर ने मुझे बताया कि जहां इस इलाके में पहले ही कश्मीरियों को घर किराए पर देने के लिए मकान मालिकों को राजी कर पाना मुश्किल था, वहीं 5 अगस्त से हालत और बदतर हो गई है. "पहले मैं उन्हें राजी कर लिया करता था और उन्हें कहा करता था कि ये लोग शांत और अपने में रहने वाले लोग हैं, लेकिन अब वे नहीं सुनते," उन्होंने मुझे बताया. "मुझे किराए के बारे में कुछ ज्यादा भरोसा देना होगा." मैंने जिन मकान मालिकों से इस बारे में बात की उन्होंने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

मैंने जामिया मिलिया इस्लामिया से एमए की पढ़ाई कर रहे एक अन्य 24 वर्षीय कश्मीरी छात्र से बात की. उसने बताया कि वह जब तक अपनी पहचान छिपा सकता था, उसने अपनी पहचान छिपाई. वह अक्सर अपने मकान मालिकों को बताता कि वह लखनऊ से है, जहां उसके चाचा काम करते हैं. हाल ही में, उसने अपनी असली पहचान जाहिर करना शुरू कर दिया. उसने बताया, "मुझे नहीं पता कि मैं शक्ल से कश्मीरी लगता हूं लेकिन मुझे लगा कि अब और झूठ बोलना मुश्किल है इसलिए मैंने बता दिया कि मैं कश्मीर से हूं." उन्होंने मुझे अक्टूबर की शुरुआत में गफ्फार मंजिल में एक मकान किराए पर लेने की अपनी कोशिश के बारे में बताया. 24 वर्षीय छात्र ने ब्रोकर को आए फोन के बारे में बताते हुए कहा, "हम घर किराए पर लेना पक्का करने ही वाले थे कि उसे एक फोन आया और वह कमरे से बाहर चला गया. उसने कहा कि वह मुझे दो दिन बाद फोन करके बताएगा." उसका दुबारा फोन नहीं आया.

संचार सेवाओं की बंदी के चलते अपने परिवार वालों से बात न कर पाने से पहले से ही किराए के घर में रहने वाले छात्रों के लिए किराया देना मुश्किल हो गया है. 23 वर्षीय छात्र ने कहा, "हमारे पास अपने घर पर परिवार वालों से बात करने या यह जानने का कोई रास्ता ही नहीं था कि हमारा पैसा कब आएगा. यह एक बहुत मुसीबत का वक्त था." कई छात्रों ने मुझे बताया कि उन्हें किराया देने के लिए कुछ​ दिनों की मोहलत मांगनी पड़ी. कुछ ने यह भी कहा कि उन्हें स्वतंत्रता दिवस से ठीक पहले एक पुलिस स्टेशन में जाने और पुलिस सत्यापन फॉर्म भरने के लिए कहा गया था. 23 वर्षीय छात्र ने अक्टूबर में मुझसे कहा था कि “मैं आपको बता सकता हूं कि हमने ये सब कैसे संभाला लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में हमने जो तनाव झेला आप उसे नहीं समझ सकते. हमें भारतीय अधिकारियों के सामने हमेशा खुद को साबित करना होता है."

मैंने जितने कश्मीरियों से बात की लगभग सभी ने कहा कि अपने घर पर परिवार वालों से बात न कर पाने की वजह से उन्होंने बहुत चिंता और खीज महसूस की. एक 27 वर्षीय कश्मीरी फ्रीलांस पत्रकार ने संचार सेवाएं ठप्प होने का जिक्र करते हुए कहा, "सोशल मीडिया पर कोई भी हमदर्दी नहीं दिखाता. सोशल मीडिया पर लोग कहते रहते हैं कि यह बंदी हमारी अपनी भलाई और अपनी सुरक्षा के लिए है. हमें ही क्यों त्याग करना पड़ता है?" शेष भारत का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, "यहां किसी को कुछ साबित नहीं करना होता है. "