मिजोरम में रहने वाले यहूदियों का जीवन और उनके रीति-रिवाज

म्यांमार के कलायम्यो में तलपियोट यहूदी प्रार्थना स्थल में प्रार्थना के दौरान मचिट्ज़ा के दूसरी तरफ से देखती महिलाएं, यह कुछ यहूदी मंदिरों में महिलाओं से पुरुषों को अलग करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पारंपरिक तरीका है. मेचिट्जा का उपयोग रूढ़िवादी यहूदी धर्म की उन परंपराओं में से एक था जो पूर्वोत्तर भारत और म्यांमार में “लुप्तप्राय जनजातीय” समुदायों द्वारा अपनाया गया था.
आइजॉल में खोवेइवे सियोन सिनेगॉग में रखी एक यहूदी प्रार्थना पुस्तक.
आइजॉल में खेई हुई जनजाति के एक सदस्य बेन त्ज़ियन फनाई का अंतिम संस्कार. मुझे बताया गया था कि मृत व्यक्ति की आंखों पर रखे गए सिक्के उस अनुष्ठान का हिस्सा थे जो इस क्षेत्र में अन्य यहूदियों द्वारा किया जाता था.
“लुप्तप्राय जनजाति” समूह के एक सदस्य बेन त्जियन फनाई को आइज़ोल में एक अंतिम संस्कार में दफनाया गया था. मिजोरम में इन समुदायों के कई सदस्यों की तरह फनाई का जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था और बाद में उन्होंने यहूदी धर्म अपना लिया.
मिजोरम की राजधानी आइजॉल में ईसाई आबादी बहुमत में है. इस क्षेत्र में यहूदी समुदाय में कई लोग ईसाई धर्म से परिवर्तित हुए हैं.
सब्बाथ थांगा (बाएं) आइज़ोल में शाब्बत सेवाओं के दौरान शालोम त्ज़ियन यहूदी प्रार्थना स्थल के अन्य सदस्यों के साथ एक प्रार्थना पुस्तक पढ़ते हुए. थंगा का जन्म म्यांमार में हुआ था और वह लॉस्ट ट्राइब मंडली से यहूदी धर्म की प्रथाओं को सीखने के लिए आइजॉल आया था.
कालायम्यो, म्यांमार में तलपियोट यहूदी प्रार्थना स्थल. मंदिर शहर के ठीक बाहर आसपास के खेतों के बीच स्थित था.
यांगून, म्यांमार में मुस्मेह येशुआ यहूदी प्रार्थना स्थल के प्रांगण के अंदर का दृश्य. मंदिर शहर के एक बार छोटे लेकिन संपन्न यहूदी समुदाय के लिए 1800 के अंत में बनाया गया था. आज यांगून में यहूदी समुदाय लगभग न के बराबर है और यहूदी प्रार्थना स्थल मुख्य रूप से एक पर्यटक आकर्षण और एक संग्रहालय बन कर रह गया है.
म्यांमार के यांगून में मुस्मेह येशुआ यहूदी प्रार्थना स्थल का बाहरी हिस्सा. यह क्षेत्र शहर के कुछ यहूदी समुदाय का घर हुआ करता था. वर्तमान समय में इसके पड़ोस में ज्यादातर मुस्लिम है और मंदिर व्यस्त सड़कों और व्यवसायिक दुकानों से घिरा हुआ है.
आइजॉल में शालोम सियोन यहूदी प्रार्थना स्थल के एक सदस्य के घर के अंदर शाब्बत रात्रिभोज के लिए रखा भोजन .
साप्ताहिक शबात अवकाश के अंत का प्रतीक हावदलाह समारोह मनाते हुए योनाहन खैम. म्यांमार में तलपियोट यहूदी प्रार्थना स्थल के कई अन्य सदस्यों की तरह खैम का जन्म ईसाई धर्म में हुआ था और जब वह वयस्क था तब यहूदी धर्म में परिवर्तित हो गया था.
मोशे हनमते (बीच में) आइज़ॉल में शालोम जियोन में यहूदी प्रार्थना स्थल के अंदर बैठे हैं. उनके बगल की दीवार पर पश्चिमी दीवार की तस्वीरें हैं, जो यरूशलेम में एक पवित्र स्थल है.
आइजॉल में शालोम जियोन में यहूदी प्रार्थना स्थल के भीतर का एक दृश्य.
आइजॉल में शब्बत सेवाओं के दौरान शालोम ज़ियोन प्रार्थना स्थल के सदस्य तोराह को छूते हैं, यह एक धार्मिक वस्तु है जिसमें दोनों तरफ बेलनाकार चीज लगी होती है. सभास्थल का निर्माण समूह के सदस्यों द्वारा चंदा एकत्रित करके किया गया था.
आइजॉल के बाहर एक कब्रिस्तान में समूह के सदस्य हना लालेंगमावी की कब्र. यहां ईसाई और यहूदी दोनों को दफनाया गया है.
मेजुजा को छूने के लिए रुकता एक आदमी. यह एक पारंपरिक यहूदी चर्मपत्र है जिसमें यहूदी भाषा में छंद एक सजावटी तरीके से लिखे होते हैं जो आमतौर पर यहूदी निवासों के द्वार पर लगाया जाता है. यहां यह म्यांमार के कालय्यो में तलपियोत प्रार्थना स्थल के सामने के दरवाजे के किनारे लटका हुआ है.
म्यामांर के कलामय्यो में तालपियोत प्रार्थना स्थल में शाब्बत प्रार्थना सेवाओं के दौरान प्रार्थना करतीं महिलाएं.
स्थानीय लोगों द्वारा बनाया गया हनुकियाह, एक पारंपरिक मोमबत्ती स्टैंड जिसका उपयोग हनुक्का अवकाश के दौरान आइजॉल में खोवेवी त्जियन प्रार्थना स्थल में किया जाता है.
आइजोल में सुबह शचरित प्रार्थना सभा के दौरान खोवेवी सियोन समूह का एक सदस्य.

2017 में देश भर में यात्रा करते वक्त पहली बार मुझे भारत में रहने वाले यहूदी समुदायों के बारे में पता चला. असम के रहने वाले एक मित्र ने मुझे पड़ोसी राज्य मिजोरम की “लुप्तप्राय जनजाति” यहूदी के बारे में बताया. इस जनजाति के बचे हुए सदस्यों का मानना ​​है कि वे उन दस यहूदी जनजातियों के वंशज हैं जिन्हें लगभग 722 ईसा पूर्व में अश्शूर साम्राज्य द्वारा इजराइल पर विजय प्राप्त करने के बाद वहां से निर्वासित कर दिया गया था.

इससे पहले भी मैं दुनिया भर में गायब हुईं यहूदी जातियों के अस्तित्व के बारे में जानता था लेकिन सक्रिय रूप से इस पर ज्यादा विचार नहीं किया था. मेरा पालन-पोषण एक यहूदी परिवार में हुआ. मेरे माता-पिता यहूदी हैं लेकिन मैंने कभी भी इस धर्म को पूरी तरह से नहीं अपनाया. हालांकि मैं भारत में इन समुदायों के बारे में अधिक जानने के लिए उत्सुक रहता था जो यहूदी धर्म के साथ इतनी दृढ़ता से जुड़े थे लेकिन यह कुछ ऐसा था जिसे मैंने अपने जीवन में गंभीरता से नहीं लिया था.

मार्च 2017 में मैंने इन समुदायों से मिलने और उनके रीति-रिवाजों और दैनिक जीवन को जानने के लिए मिजोरम और म्यांमार के कुछ हिस्सों की यात्रा की. मैंने पहली तस्वीर आइजोल में एक यहूदी अंतिम संस्कार की खींची थी. अंतिम संस्कार के बाद जब मैंने अपना कैमरे को आराम दिया तब जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा हैरान वह थी लोगों से व्यक्तिगत बातचीत करना. मैंने अनुभव किया कि मेरी आगे की यात्रा का कैसा स्वरूप होगा. “लुप्तप्राय जनजाति” के सदस्यों ने गर्मजोशी और पूरे दिल से अपने घरों में मेरा स्वागत किया. मैं अब उनके रीति-रिवाजों का दस्तावेजीकरण करने वाला एक फोटोग्राफर भर नहीं था बल्कि बाहरी दुनिया का एक साथी यहूदी था, बाहरी दुनिया से जिस तरह उनका सीमित संपर्क था वे बड़ी उत्सुकता से मुझे देखते थे. वे मेरे पालन-पोषण के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे और उनके मन में कई सवाल थे कि इजराइल में जीवन कैसा है, जहां मैं कुछ समय के लिए रहा था. वहां के लगभग सभी ने इजराइल लौटने की इच्छा जताई.

पिछले दो दशकों में यहूदी-जायोनी समूहों ने निजी दाताओं और इंजील ईसाई संगठनों से आर्थिक मदद लेकर “लुप्तप्राय जनजाति” के सदस्यों को पूर्वोत्तर भारत से इजराइल में बसाने की सुविधा प्रदान की है. समुदायों को बन्नी मेनशे के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है मनश्शे के पुत्र, यह दस “लुप्तप्राय जनजातियों” में से एक है. इस समय भारत की “लुप्तप्राय जनजातीय” समुदायों के लगभग तीन हजार सदस्य इजराइल में रह रहे हैं. अन्य सात हजार भारत में रहते हैं और यहूदी धर्म का पालन करते हैं. जैसा कि इजराइली प्रेस में बताया गया है, बन्नी मेनशे को देश में दखिल होने के लिए इजराइल के विशेष सरकारी प्राधिकरण की आवश्यकता है. वे वापस आने के लिए यहूदी कानून का सहारा नहीं ले सकते हैं जिसके लिए उन्हें कम से कम एक यहूदी दादा या दादी का प्रमाण दिखाना होता है.

2005 में इजरायल के प्रमुख रब्बी ने आधिकारिक तौर पर घोषणा की कि बन्नी मेनशे मनश्शे की मूल जनजाति के वंशज हैं. इजराइल में आकर बसने की पूर्व शर्त के अनुसार उन्हें औपचारिक रूप से यहूदी धर्म में परिवर्तित होना होगा. कानून बनने के बाद इजराइल ने धर्मांतरण की सुविधा के लिए पूर्वोत्तर भारत में रब्बियों की एक टीम भेजी. हालांकि भारत सरकार द्वारा शिकायतों के बाद इस प्रक्रिया को रोक दिया गया था. 2007 में इजरायल सरकार ने कुछ समय के लिए बन्नी मेनाशे को वीजा देना बंद कर दिया लेकिन उसक बाद इस नीति को भी बदल दिया.

“लुप्तप्राय जनजाति” के समुदायों के साथ बातचीत करने पर मैंने पाया कि कई लोगों ने एक आदर्श दृष्टिकोण बनाया हुआ है कि यह इजराइल में रहना कैसा हो सकता है और ज्यादातर उन चुनौतियों से अनजान थे जिनका उन्हें उस देश में सामना करना पड़ सकता हैं. इजराइल जाने पर बन्नी मेनाशे कभी-कभी इजराइली सेना में शामिल हो जाते हैं. फिर भी नस्लीय भेदभाव और आर्थिक कठिनाई होने के कारण इजरायली समाज में पूरी तरह घुल-मिलना उनके मुश्किल बना हुआ है.

मैंने भारत में समुदाय की जो तस्वीरें खींचीं, मैं उनमें उन दृश्यों की तलाश करूंगा जो परिचित होने या किसी यहूदी का प्रतिनिधित्व करने वाली मेरी पहचान से अलग हो, जिसे मैं जानता था, जो स्वदेशी इतिहास और उन क्षेत्रों की स्थानीय व्यावहारिकताओं की अभिव्यक्ति हो जहां वे रहते थे. मैंने अपनी परियोजना के इस पहलू को सबसे दिलचस्प पाया क्योंकि यह इन जनजातीय समुदायों द्वारा पालन किए जाने वाले यहूदी धर्म की कोमलता को सामने लाया और कैसे यहूदी धर्म जैसा पुराना और स्व-निहित धर्म वास्तव में उतना अखंड नहीं है जितना माना जाता था. यह अभी भी कई तरीकों से विकसित हो रहा है कि इसे दुनिया भर के विभिन्न समुदायों द्वारा जीवित रखा गया है.

“लुप्तप्राय जनजाति” के समूह के कब्जे वाली इमारत के अंदर स्थानीय लकड़ी से बने हनुकियाह की एक तस्वीर स्वदेशी संस्कृति के साथ यहूदी धर्म के सम्मिश्रण का एक उदाहरण है. हनुकियाह एक धार्मिक मोमबत्ती रखने का स्टैंड है जो यहूदी घरों और मंदिरों में देखी जाने वाली एक आम वस्तु है, लेकिन मैंने पहले कभी लकड़ी और बांस के मिश्रण से बना हुआ नहीं देखा था. बांस से बना हनुकिया पूरी तरह से इन समुदायों के सदस्यों के अपने क्षेत्र के वातावरण से उत्पन्न होने वाली प्रथाओं के साथ यहूदी शास्त्र और अनुष्ठान के मिश्रण का प्रतीक है.

कब्रिस्तान, जहां यहूदी और अन्य धर्मों के लोग दफन हैं, अंतरंग और विदेशी मिश्रण की एक और तस्वीर. दुनिया भर में ज्यादातर जगहों पर यहूदियों को अन्य धर्मों के सदस्यों के साथ नहीं दफनाया जाता है. ईसाई क्रॉस और यहूदी सितारे के प्रतीकों को कब्र के पत्थरों पर साथ में किसी अन्य स्थान के कब्रिस्तान में खोजना बहुत कठिन होगा, जैसा कि मैंने मिजोरम में देखा.

इन स्वदेशी बारीकियों के बावजूद जनजाति के सभी कार्य मुझे परिचित लग रहे थे क्योंकि वे लगभग उसी तरह से किए गए थे जिस तरह से मैंने उन्हें अनुभव किया था. हालांकि मैं दुनिया के एक अलग हिस्से में था, एक ऐसे समूह का दस्तावेजीकरण कर रहा था जिसका मैं सदस्य नहीं था, उनके कार्यों का मेरे अपने अतीत के साथ एक विशेष अनुनाद था. यह कुछ ऐसा था जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी.

“लुप्तप्राय जनजाति” समुदायों के सदस्यों की तस्वीरें खींचते समय मैंने यहूदी धर्म के साथ अपने संबंधों पर विचार करना शुरू किया. मैं और मेरा परिवार यहूदी छुट्टियां मनाते थे और हर शनिवार को शबात सेवा के लिए मंदिर जाते थे. जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ मैंने पाया कि मुझे अपने धर्म में कोई दिलचस्पी नहीं है और मैंने इसे अपनी पहचान का हिस्सा नहीं माना. इन जनजाति के सदस्यों के प्रार्थना करने के दौरान फोटो खींचने के लिए जाना मेरे लिए पहली बार था जब मैं कई वर्षों में यहूदी धार्मिक सेवा में गया था.

अपनी बातचीत और उनके साथ बिताए समय में मैंने इन समुदायों के सदस्यों को अपने विचारों और प्रथाओं में दृढ़ पाया. जिस तरह से वे एक दूर देश में यहूदी धर्म का समर्थन कर रहे थे उससे मैं विचलित हो गया. वे एक यहूदी जीवन शैली को मूर्त रूप दे रहे थे जो अनुष्ठान, बंधुत्व और पहचान की साझा भावना सहित कई पहलुओं पर आधारित थी. जिन लोगों से मैंने बात की उन्होंने कहा कि उन्हें कभी-कभी अपने मालिकों दफ्तरों से यहूदी रीति-रिवाजों और छुट्टियां मनाने के लिए समय मिलना मुश्किल लगता था. जनजाति के कुछ सदस्यों को यह समझाना विडंबनापूर्ण था कि मैंने सोचा था कि वे मुझसे से ज्यादा बड़े यहूदी थे, मेरे यहूदी परिवार में पैदा होने के बावजूद, क्योंकि वे सक्रिय रूप से एक यहूदी जीवन जी रहे थे, मैं दूर था. मैंने इस परियोजना को इन समुदायों के बारे में साजिश की भावना से शुरू किया. लेकिन जब तक मैंने आइज़ोल छोड़ा तब तक यह एक व्यक्तिगत आयाम भी ले चुका था, जिसने यहूदी धर्म के साथ मेरे अपने संबंधों के पुनर्मूल्यांकन का अवसर दिया.

(अनुवाद : अंकिता)