अपने राज्यों में बेरोजगारी और पराए राज्यों में मालिकों के दुर्व्यवहार के बीच झूलते पूर्वोत्तर के कामगार

ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं जिसमें पूर्वोत्तर के कामगारों को उनके मालिकों ने सताया, भूखा रखा और घरों से निकाल दिया. अरुण शंकर के/ एपी फोटो

We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing

“मेरा एक सपना था कि इस साल मैं अपनी मेहनत के पैसे बचाकर अरुणाचल प्रदेश के अपने गांव में जमीन लेकर उस पर घर बनाऊं और अपने बच्चों के साथ वहां रहूं,” तमिलनाडु के तिरुपुर जिले में कपड़ा फैक्ट्री में काम करने वाली अनीता चकमा ने मुझसे कहा. अनीता ने बताया, “मेरा पति ड्रग्स लेता था और बहुत ज्यादा दारू पीता था और मुझे मारता था. जब हमारा लड़का हुआ तो उसने कहा कि अगर हमारी बेटी हुई तो वह मुझे मारना छोड़ देगा. ढाई साल बाद हमारी बेटी भी हो गई लेकिन उसने मारना नहीं छोड़ा.” अनीता ने बताया कि वह छह साल तक अपने पति की मार सहती रही लेकिन जब उसे पता चला कि उसके किसी औरत से अवैध संबंध भी हैं तो पानी सिर के ऊपर चला गया और उसने पति को छोड़ने का फैसला कर लिया. 2017 में काम की तलाश में अनीता तमिलनाडु के तिरुपुर आ गईं और अपनी चचेरी बहन के साथ कपड़ा फैक्ट्री में काम करने लगीं.

अनीता की मंशा थी कि वह अपनी कमाई जोड़कर अपने बेटे के लिए घर बना लेंगी जिसे अपने पिता के घर में बुरे हालत में रहना पड़ रहा है. लेकिन अनीता का यह सपना 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा ने चूर-चूर कर दिया.

अनीता जहां काम करती थीं उस कपड़ा फैक्ट्री ने उन्हें बस अप्रैल के उन दिनों का पैसा दिया है जब उन्होंने काम किया था. अनीता ने मुझे बताया कि अगर वह जल्दी अपने गांव नहीं लौटीं तो शायद भूख से मर जाएंगी. उन्होंने कहा, “अपने घरों में तो हम जंगल में भी सब्जियां खोज सकत हैं लेकिन यहां हर चीज बहुत महंगी है और हमारे पैसे खत्म हो रहे हैं.” अनीता जिस हॉस्टल में रहती हैं उसमें उनकी कंपनी की चार महिला कर्मचारी भी रहती हैं. उनके मालिक ने उन्हें मार्च में 5 किलो चावल, 2 किलो दाल, एक 1 किलो आटा और सिमोलिना दिया था लेकिन छह हफ्तों में वह सामान भी खत्म हो गया है और अब ये लोग अपनी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

अनीता की कहानी पूर्वोत्तर के उन हजारों-हजार प्रवासी मजदूरों की कहानी है जो काम की तलाश में मेनलैंड भारत आते हैं. ये लोग जिम, स्पा, रेस्त्रां और मॉल में काम करते हैं. और ये सभी जगहें ऐसी हैं जो लॉकडाउन में सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं. ये जगहें 24 मार्च को राष्ट्रव्यापी बंद से पहले ही बंद हो चुकी थीं और आशंका है कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी ये सबसे आखिर में खुलेंगी. मैंने पूर्वोत्तर भारत के जिन प्रवासी मजदूरों से बात की, वे ऐसी ही जगहों पर काम करते हैं. पूर्वोत्तर राज्यों के प्रवासी ऐसी जगहों पर, बेहद खराब स्थितियों में काम करते हैं और अक्सर अपने भोजन के लिए अपने मालिकों पर आश्रित होते हैं. कई बार तो उन्हें अपने मालिकों के घरों को ही किराए पर लेना पड़ता है.

ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं जिसमें पूर्वोत्तर के कर्मचारियों को उनके मालिकों ने सताया, भूखा रखा और घरों से निकाल दिया. लॉकडाउन में सरकारी मदद के आभाव में इनके पास पैसा और भोजन बहुत कम बचा है और ये लोग अपने घर लौटने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे लोग इस बात से भी डरे हुए रहते हैं कि वे घर जाकर क्या करेंगे क्योंकि वहां रोजगार के अवसर बहुत कम हैं और यदि उन्हें जाना ही पड़ा तो मुख्य भूमि भारत में कमाई से हाथ धोना पड़ेगा.

तिरुपुर भारत के सबसे बड़े औद्योगिक केंद्रों में से एक है और यह जिला प्रवासी मजदूरों के श्रम पर बड़े हद तक निर्भर है. चेन्नई की लघु और मझौले उद्योग विकास संस्थान के एक सर्वे में पाया गया था कि इस जिले से भारत का 90 प्रतिशत कपास निर्यात होता है. अनुमान है कि यहां निर्यात का मूल्य 7500 करोड रुपए है. चेन्नई के दैनिक थांथी अखबार ने इस महीने खबर दी थी कि जिले में 130000 प्रवासी मजदूर हैं जो यहां के औद्योगिक श्रमशक्ति का बहुसंख्यक हिस्सा है.

ऑल इंडिया चकमा स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष दिलीप चकमा के अनुसार, तिरुपुर में भारत के पूर्वोत्तर से बड़ी संख्या में लोग काम के लिए आते हैं. उनका संगठन त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और असम के हिस्सों में फैले चकमा जनजाति समूह का प्रतिनिधित्व करता है. उन्होंने मुझे बताया की तिरुपुर में 1000 चकमा मजदूरी करते हैं. उनका संगठन चकमा समुदाय के ऐसे कई प्रवासी मजदूरों के संपर्क में है जिनके साथ उनके तमिल मकान मालिकों और फैक्ट्री मालिकों ने बुरा बर्ताव किया है.

तिरुपुर के अन्ना नगर में स्थित रितिका गारमेंट फैक्ट्री में काम करने वाली एक चकमा प्रवासी ने मुझे उनके कार्यस्थल में उनके समुदाय के लोगों के साथ किए जाने वाले बुरे व्यवहार के बारे में बताया. उन्होंने बताया कि फैक्ट्री में 9 महिला सहित 27 चकमा लोग काम करते हैं. 5 मई को रितिका गारमेंट फैक्ट्री के मालिक राजशेखर ने चकमा समुदाय के 7 कर्मचारियों के साथ मारपीट की. मालिक ने उनके आवास की बिजली काट दी क्योंकि वे लोग 5 मई को काम पर नहीं आए थे.

नाम ना छापने की शर्त पर एक चकमा प्रवासी ने मुझे बताया, “हम काम पर इसलिए नहीं गए थे क्योंकि हमें डर लग रहा था कि हमें वायरस का संक्रमण हो जाएगा क्योंकि हमने सुना था कि जिले में कुछ पॉजिटिव मामले मिले हैं.” 5 मई तक तिरुपुर जिले में 114 लोग कोविड-19 पॉजिटिव पाए गए थे. “हमने उनसे यहां तक कहा कि वे हमें मास्क दें लेकिन उन्होंने नहीं दिया. हमारी कंपनी के मालिक हमारे घर आए और बिना कुछ बोले हमें पीटने लगे. अरुणाचल प्रदेश चकमा स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष दृश्या मुनि चकमा ने मुझे बताया कि उन लोगों ने इस मामले की रिपोर्ट स्थानीय पुलिस से की थी जिसके बाद मालिक ने पीड़ितों से माफी मांगी और आश्वासन दिया कि भविष्य में दोबारा ऐसा नहीं होगा.

दृश्या ने मुझे बताया कि 3 मई से उनके संगठन को ऐसे कई चकमा प्रवासी मजदूरों के फोन आए हैं जिन्हें तिरुपुर एरिया में पीटा गया है."इन लोगों को कंटेनमेंट इलाकों में भी काम पर जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है. ऐसा बहुत सारी कंपनियों में हो रहा है." दृश्या के अनुसार, जो शिकायतें उन्हें मिली हैं उनमें ऐसे 40 लोगों की शिकायत है जिन्हें उनके काम की जगहों पर पीटा गया है. उन्होंने बताया कि वे इस मामले को पुलिस के समक्ष ले गए थे लेकिन कोई असर नहीं हुआ. दृश्या ने बताया कि आमतौर पर ऐसी शिकायतों का बस एक ही जवाब होता है कि ऐसा भारत में हर कहीं होता है और इसका कोई समाधान नहीं है.

तिरुपुर की एक फैक्ट्री में काम करने वाले 16 साल के प्रवासी कामगार ने मुझसे कहा, “मैं बहुत डरा हुआ हूं और मैं घर जाना चाहता हूं.” वह अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले के दियुन गांव से है. उसने बताया कि जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है किसी भी कामगार को वेतन नहीं मिला है. उसने बताया, “मेरे पास सिर्फ 3000 रुपए थे जो अब खत्म हो गए हैं. सरकार ने कहा है कि वह हमें पैसा देगी लेकिन हमें कुछ नहीं मिला है.” वह 16 साल का कामगार अरुणाचल प्रदेश सरकार के उस वादे की बात कर रहा था जिसमें सरकार ने अन्य राज्यों में फंसे कामगारों को आर्थिक सहायता देने का वादा किया था लेकिन जिन लोगों को यह सहायता चाहिए उन्हें अरुणाचल प्रदेश सरकार की वेबसाइट में जाकर फॉर्म भरना पड़ता है जो प्रवासियों के लिए आसान नहीं है.

ऑल इंडिया चकमा सोशल फोरम के महासचिव परितोष चकमा ने बताया कि अधिकांश चकमा प्रवासी मजदूर सरकार के दिए लिंक को नहीं समझते. “उन्हें नहीं पता कि फार्म कहां और कैसे भरना है. कई लोगों के तो बैंक खाते तक नहीं हैं. बैंक में खाता खोलने के लिए आपको अपना एड्रेस प्रूफ देना पड़ता है लेकिन ऐसे लोगों के पास अरुणाचल प्रदेश का एड्रेस प्रूफ भी नहीं होता क्योंकि ये लोग वोटर लिस्ट में नहीं होते.”

चकमा और हाजोंग समुदायों को 2014 में अरुणाचल प्रदेश में वोटिंग का अधिकार दिया गया था. ये दोनों समुदाय 1960 में पूर्वी पाकिस्तान के चिटगांव हिल ट्रैक्ट से यहां आए थे लेकिन हाल तक भी इनमें से कई लोगों को वोटिंग का अधिकार नहीं मिला है. बोरदुमसा दियुन क्षेत्र और म्याओ जिले के ताजा रिकॉर्ड के अनुसार, जहां चकमा और हाजोंग समुदायों का 90 फिसदी हिस्सा रहता है, वहां इन समुदायों के मात्र 4293 रजिस्टर्ड वोटर हैं. यह उनकी आबादी का बहुत छोटा अंश है. इनकी आबादी का अनुमान 2016 के राज्य के सर्वे में 65851 लगाया गया है.

तिरुपुर के अन्य हिस्सों के चकमा प्रवासियों ने भी ऐसी ही कठिन परिस्थितियों के बारे में बताया. मायासोना चकमा 20 साल की हैं और एक्मे एक्सपोर्ट नाम की कपड़ा फैक्ट्री में काम करती हैं. उन्होंने मुझे बताया कि कैसे उनके मालिकों ने अपने उन वादों का मान नहीं रखा जो उन्होंने काम पर रखते वक्त उनसे किए थे. “हमें कहा था कि हमें निशुल्क कमरा दिया जाएगा. लेकिन अब वे हमसे किराया मांग रहे हैं. जब हम अपने मालिकों से कहते हैं कि दूसरी कंपनियां अपने कामगारों को चावल और दाल दे रही हैं तो वह हमसे कहते हैं कि ‘तो जाओ उसी कंपनी में काम करो.’”

मायासोना ने बताया, “मैं पढ़ाई छोड़ कर काम करने इसलिए आई थी क्योंकि मेरे घर में काम करने वाला कोई नहीं था. पहले मैं अपने लिए 300 रुपए बचाकर बाकी सारे पैसे हर हफ्ते अपने मां-बाप को भेज देती थी लेकिन अब मेरे पास ही कुछ नहीं है तो मेरी मां ने 5000 रुपए उधार लेकर मुझे भेजे थे. वे पैसे भी अब खत्म हो गए हैं". उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें 2 अप्रैल से पैसा नहीं मिला है. “हम सिर्फ दिन में दो बार खाना खा रहे हैं क्योंकि हमारे पास चावल बहुत कम बचा है. अगर रेल शुरू हो जाती है तो मैं घर चली जाऊंगी. लेकिन मैं वापस आऊंगी क्योंकि मुझे अपने परिवार को पालना है."

जिन लोगों से मैंने बात की उन लोगों ने जोर दिया कि पूर्वोत्तर राज्यों के कामगारों को लगता है कि बेरोजगारी की स्थिति लंबे समय तक रहने वाली है. चेन्नई में पूर्वोत्तर भारत कल्याण संगठन की महासचिव लालनुनथ्लुंगा कॉलनी ने मुझे बताया कि उन्हें पूर्वोत्तर राज्यों के कामगारों के भविष्य की चिंता है. उन्होंने कहा, “असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले पूर्वोत्तर भारत के बहुत से लोग इस दुविधा में है कि जिन जगहों में वह काम करते थे वह बंद हो चुकी हैं और उन्हें अपना वेतन भी नहीं मिला है.” उन्होंने कहा कि एक वित्तीय जानकार के अनुसार, सिनेमा हॉल, शॉपिंग मॉल, रेस्तरां, बार, स्पा और होटल कोविड-19 के बाद भी मुश्किलों का सामना करेंगे क्योंकि लोग फिल्म देखने नहीं जाना चाहेंगे. हो सकता है कि इनमें से बहुत से प्रवासी कामगार अपने गांव लौट जाएं और इससे उनकी गरीबी बढ़ेगी."

तमिलनाडु में बंद होने वाले सबसे पहले संस्थानों में जिम, स्पा, मॉल और रेस्तरां थे. मणिपुर की पावरलिफ्टर और बॉक्सर रिंगसोफी लुतखम लॉकडाउन से प्रभावित होने वाले लोगों में से हैं. वह एक जिम में पार्ट टाइम काम करती थीं और साथ में अपनी ट्रेनिंग कर रही थीं.

“मैं एक बॉक्सर हूं और इसलिए मुझे काम भी चाहिए था. मैं पढ़ना चाहती हूं और देश से बाहर जाकर बॉक्सिंग करना चाहता थी.” उन्होंने मणिपुर में मैरी कॉम बॉक्सिंग एकेडमी में ट्रेनिंग की है और मार्च 2016 में चेन्नई आ गईं यह सोच कर कि यहां उन्हें अपने कौशल को निखारने का मौका मिलेगा. 2019 में उनको चेन्नई पावरलिफ्टिंग एसोसिएशन की चैंपियनशिप में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ. लेकिन लॉकडाउन ने उनकी उम्मीदों पर अचानक ब्रेक लगा दिया है.

लॉकडाउन के चलते जिम बंद हो जाने की वजह से उन्हें अपना किराया देने में मुश्किल हो रही थी इसलिए वह एनआईडब्ल्यूए के एक शेल्टर होम में रहने लगी हैं जो तमिलनाडु सरकार की साझेदारी में चला रहा है. “मैं यहां रहना चाहती हूं क्योंकि यदि मैं वापस गई तो मेरा मकान मालिक मुझे रहने नहीं देगा और मेरे पास मणिपुर जाने के पैसे नहीं हैं क्योंकि मुझे मार्च में काम के पैसे नहीं मिले हैं. फिर भी अच्छा होगा कि मैं घर चली जाऊं. जब सब ठीक हो जाएगा तो मैं वापस आने की कोशिश करूंगी.”

चेन्नई में एनआई डब्ल्यूए के शेल्टर होम में रहने वाले एक 20 साल की मिजो युवक ने मुझे बताया कि उसने अप्रैल 2019 में एक होटल में ट्रेनी का काम शुरू किया था. वह उसका पहला काम था. “मैंने सोचा था कि एक साल एक्सपीरियंस लेने के बाद मैं अपना पासपोर्ट बना लूंगा और कैलीफोर्निया के प्रिंसेस क्रूज होटल में रिसेप्शनिस्ट के पद के लिए आवेदन कर दूंगा. अब वह होटल लॉकडाउन की वजह से बंद है और युवक अपना एक्सपीरियंस सर्टिफिकेट नहीं ले सकता जो क्रूज में आवेदन करने की जरूरी शर्त है.

इस 20 साल के नौजवान की योजना मिजोरम लौट जाने की है लेकिन इसके साथ ही उसे अपने भविष्य की भी चिंता है. उसने मुझसे कहा कि मैनेजमेंट लाइन के लोगों के लिए उसके राज्य में होटल नहीं हैं. उसने बताया, “जो थोड़े अच्छे होटल हैं, जैसे फ्लोरिया या रेजेंसी, उनमें वेतन बहुत कम है. यहां शहरों के रेस्तरां और स्पा में काम करने वाले लोग वापस घर नहीं लौटना चाहते और ना ही वे लोग अइजोल में काम करना चाहते हैं क्योंकि वहां वेतन बहुत कम है.”

मिजोरम लौटना इस युवक के लिए कठिन होगा. उसने मुझे कहा कि वह और उसके दोस्तों को इस बात की चिंता है कि उनकी सारी बचत लॉकडाउन में खत्म हो गई है. उनकी लौटने की उम्मीद सरकारी सहायता पर टिकी है. डेक्कन हेराल्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 32 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में फंसे 5546 मिजो लोगो में से 3194 निजी क्षेत्रों में काम करते हैं. मिजो सरकार ने चेन्नई में फंसे जिन 884 लोगों के लिए रेल का इंतजाम किया था वे 15 मई को मिजोरम पहुंचे थे. तमिलनाडु में फंसे असम और पूर्वोत्तर के लोगों के लिए नोडल अधिकारी एसजे चिरु हैं. मैंने उनसे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन जवाब नहीं मिला.

पूर्वोत्तर राज्यों के प्रवासियों को देश के अन्य हिस्सों में भी इसी तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. गुजरात में नागालैंड के जुनहेबोतो जिले के इनालितो कोशे की बचत खत्म हो गई है. 20 साल की कोशे अहमदाबाद में इस्कॉन मेगा मॉल में काम करती हैं और लॉकडाउन शुरू होने के बाद से उन्हें वेतन नहीं मिला है. उनके माता-पिता किसान हैं और उनके 7 भाई-बहन हैं जिनकी वह मदद करती हैं. वह घर लौटने की सोच रही हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि वापस पहुंच कर भी घर का खर्चा चलाने में कैसे मदद कर पाएंगी. नागालैंड की सरकार प्रवासियों को सलाह दे रही है कि वे अपने काम के स्थानों पर बने रहें और ऐसा करने वाले नागरिकों को 10000 रुपए की पेशकश कर रही है. नागालैंड के 18000 से अधिक फंसे हुए लोगों ने अपने घरों में लौटने के लिए राज्य सरकार के ऑनलाइन पोर्टल पर अपना पंजीकरण कराया है.

प्रवासियों के लिए न्यूनतम सरकारी समर्थन के साथ पूर्वोत्तर राज्यों के समुदायों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाल संगठनों ने पूर्वोत्तर के लोगों के कल्याण को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बेंगलुरु में असमी लोगों के संयुक्त मंच दि असम एसोसिएशन के पूर्व महासचिव प्रणब ज्योति बोराह ने बताया कि उन्हें पूर्वोत्तर के विभिन्न हिस्सों से आए लोगों के एक हजार से अधिक कॉल आए हैं.

बोराह ने कहा, "लॉकडाउन के पहले चरण में लोगों ने फोन किए क्योंकि उनके पास खाने को नहीं था और उन्हें वेतन नहीं मिल रहा था. लॉकडाउन के दूसरे चरण में, उन्होंने घर का किराया और रोजगार ना होने को लेकर कॉल करना शुरू किया." उन्होंने कहा कि हाल ही में बेंगलुरु के इंदिरानगर इलाके में एक होटल के बंद होने के बाद असम के 20 लोगों की नौकरियां चली गईं. बेंगलुरु के शिवाजी नगर में, एक अन्य होटल के पूर्वोत्तर कर्मचारियों को भी बिना वेतन दिए निकाल दिया गया और उनसे आवास खाली कर देने के लिए कहा गया.

एसोसिएशन ने ऐसे मामलों में होटल और रेस्तरां मालिकों के साथ बातचीत करने का प्रयास किया है. कुछ लोगों ने तो सहयोग किया पर कई लोग अपने कर्मचारियों के खिलाफ अधिक दंडात्मक उपाय करने की बात करते हैं. बोराह ने कहा, "जब नियोक्ताओं से अपील की जाती है तो वे अपने कर्मचारियों को यह कह कर परेशान करने लगते हैं कि वे उनके खिलाफ शिकायत करते हैं. बेंगलुरु में सरकार की तरफ से पूर्वोत्तर के लोगों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और हम बहुत मदद नहीं कर सकते. हम बस इतना कर सकते हैं कि उनके दर्द को धैर्य से सुन लें."

 11 मई को प्रकाशित एनडीटीवी की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि असम के छह लाख से अधिक प्रवासी कामगार देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे हुए हैं. राज्य सरकार ने घोषणा की कि वे प्रवासियों को वापस लाने के लिए विशेष ट्रेनों की व्यवस्था करेगी. राज्य सरकार का कहना है कि अगले कुछ दिनों में बेंगलुरु, हैदराबाद और कोची से ट्रेन चलेंगी. असम के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून और व्यवस्था) जीपी सिंह, जो राज्य में प्रवासियों को लौटाने के नोडल अधिकारी हैं, ने फोन पर संपर्क करने पर प्रश्नों का जवाब नहीं दिया.

पुणे में पूर्वात्तर के लोगों के संगठन, नॉर्थईस्ट कम्युनिटी ऑर्गनाइजेशन पुणे, इतने बड़े संकट को संभालने का प्रशिक्षण ना होने की बात महसूस करता है. एनईसीओपी के सलाहकार एस. के. सोर्रियो हिटलर ने कहा, "पूर्वोत्तर के लोग बहुत सारी परेशानियां झेल रहे हैं. बहुत से लोग होटलों या असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं." उन्होंने बताया लोगों ने बताया है कि उन्हें मार्च महीने की तनख्वाह नहीं मिली है. हिटलर ने बताया कि उनके संगठन ने वेतन ना देने की मालिकों की करतूत के खिलाफ पुलिस से शिकायत नहीं की है.

उन्होंने बताया कि अधिकांश प्रवासी अब अपनी बची हुई तनख्वाह लेने की जगह घर जाने के प्रयास में हैं. एनईसीओपी द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, पुणे में पूर्वोत्तर राज्यों के ऐसे लगभग 500 प्रवासी हैं जिन्होंने घर लौटने के लिए अपना नाम लिखवाया है. असम पूर्वोत्तर का पहला राज्य था जिसने घर लौटने की इच्छा रखने वाले फंसे हुए नागरिकों की सूची प्रस्तुत बनाई थी. हिटलर ने कहा कि पूर्वोत्तर की राज्य सरकारों ने पुणे में उन प्रवासियों के लिए परिवहन की कोई व्यवस्था नहीं की जो लौटना चाहते हैं. उन्होंने कहा, "हमारे लिए पुणे से पूर्वोत्तर तक बस से जाना असंभव है."

प्रवासियों के साथ काम करने वाला एक और संगठन है बेंगलुरु ब्रू वेलफेयर एसोसिएशन या बीबीडब्ल्यूए. यह संगठन त्रिपुरा के ब्रू प्रवासियों का प्रतिनिधित्व करता है. बेंगलुरु में ब्रू समुदाय के लगभग 1000 लोग रहते हैं जो रेस्तरां और कपड़ा कारखानों में काम करते हैं. बीबीडब्ल्यूए के अध्यक्ष खखोम हेब्राल ने बताया, "ब्रू वेलफेयर एसोसिएशन को किसी भी सरकार से मदद नहीं मिली है और इसलिए हम उन गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम कर रहे हैं जो जरूरतमंदों को राहत प्रदान कर रही हैं." उन्होंने कहा कि त्रिपुरा सरकार की वित्तीय सहायता केवल कुछ प्रवासियों को ही मिली है जबकि अन्य बिना सहायता के जीने को मजबूर हैं. उन्होंने बताया कि कर्नाटक में ऐसे 4000 ब्रू लोग हैं जो त्रिपुरा लौटना चाहते थे. अंतरराज्यीय यात्रा के लिए कर्नाटक के नोडल अधिकारी मंजूनाथ प्रसाद ने फोन पर संपर्क करने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

मैंने बेंगलुरु में असम में बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन के चिरांग जिले के 32 वर्षीय निवासी से बात की. उन्होंने मुझे बताया कि वह अपनी पहचान साझा करने या अपनी समस्या के बारे में बोलने से डरते हैं क्योंकि जिस रेस्तरां में वह काम करते हैं वहां का मालिक शिकायत करने के खिलाफ धमकी दे रहा है. "मालिक मेरे ऊपर रहता है और मुझ पर गहरी नजर रख रहा है इसलिए मैं चुप बैठा हेँ," उन्होंने कहा. "हमें पैसे और भोजन की समस्या है. बेंगलुरु बोडो एसोसिएशन ने हमें भोजन दिया और असम सरकार ने हमें 2000 रुपए दिए जिसकी वजह से हम अब तक जिंदा हैं.” वह रेस्तरां से लगे एक कमरे में असम के 20 अन्य लोगों के साथ रहते हैं.

वह 2014 में बेंगलुरु आए थे और तब से इसी रेस्तरां में काम कर रहे हैं. असम सरकार ने घोषणा की है कि राज्य से फंसे प्रवासी एक सरकारी हेल्पलाइन नंबर पर मिस्सकॉल कर सकते हैं जो उन्हें "फंसे हुए निवासियों" की सूची में पंजीकृत देगा. 32 वर्षीय व्यक्ति ने पंजीकरण कराया है और असम वापस लौटने का इंतजार कर रहे हैं. उन्होंने कहा, ''अगर मैं असम वापस जाता हूं तो भी चीजें कठिन होंगी, लेकिन कम से कम मैं अपने परिवार के साथ रह सकूंगा.'' उन्होंने कहा, ''यहां अगर हम बीमार भी पड़ जाते हैं तो किसी डॉक्टर के पास नहीं जा पाते हैं. इसलिए मैं अपने गांव जाना चाहता हूं."

फिर भी बहुत से प्रवासियों के लिए पूर्वोत्तर वापस लौटना असंभव-सा है. नाम ना जाहिर करने का अनुरोध करने वाली 35 वर्षीय मिजो महिला ने कहा कि अगर वह मिजोरम लौटती हैं तो वहां उन्हें अपने भविष्य की चिंता सताएगी. वह पुणे में स्पा थेरेपिस्ट हैं. उन्होंने कहा है कि अगर वह लॉकडाउन खत्म होने के बाद शहर लौटती हैं तो उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी. उन्होंने कहा, "मैं शिक्षित नहीं हूं. मैंने केवल दसवीं कक्षा तक ही पढ़ाई की है इसलिए मेरे लिए मिजोरम में रोजगार पाने का कोई मौका नहीं है," उन्होंने कहा, "अगर मैंने अपनी शिक्षा पूरी कर ली होती तो कुछ मौके मिल सकते थे लेकिन अब जब पढ़े—लिखे लोगों को नौकरी नहीं मिल पा रही है तो मुझे सरकार से कोई उम्मीद नहीं है. यहां तक कि अगर मैं कोई व्यवसाय शुरू करना चाहूं भी तो मेरे पास पैसे नहीं हैं क्योंकि हम बहुत गरीब हैं. यहां कम से कम मेरे पास आय का एक स्रोत तो है.”

मानवाधिकार वकीलों और कार्यकर्ताओं के समूह मानवाधिकार कानून नेटवर्क के मिजोरम चैप्टर के वकील रोसलिन एल हमर ने बताया, “मिजोरम के बहुत से लोगों की हालत एक जैसी है. वह सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर एस. गिल के साथ मिल कर देशभर में फंसे मिजो लोगों से संपर्क कर रही हैं.

"नौकरियों की तलाश राज्य छोड़ने वाले युवाओं की तादाद को देख कर समझ सकते हैं कि सरकार को अपने युवाओं के लिए नौकरियां पैदा करने की जरूरत है," हमर ने कहा. "हमें बल लद्दाख, लक्षद्वीप, दादर और नागर हवेली में मिजो नहीं मिला. नौकरियों की तलाश में बहुत से युवाओं को राज्य से जाते हुए देखना मुझे दर्दनाक लगता है.” हमर और गिल ने देश भर के 100 से अधिक लोगों को भोजन और चिकित्सीय राहत प्रदान करने में मदद की है लेकिन उनका कहना है कि उनके साधन सीमित हैं और संकट काफी लंबा चलने वाला है. गिल ने कहा, "सामाजिक दूरी बरतने की सावधानियों के साथ, कोई समय सीमा नहीं है कि कब होटल, सौंदर्य से जुड़े और अन्य व्यवसाय खुलेंगे."

पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रोजगार के अवसरों की कमी के कारण भारत के प्रवासी कामगारों का एक बड़ा हिस्सा यहीं से आता है. सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय ने 2017-2018 में आवर्ती श्रमशक्ति सर्वेक्षण से निष्कर्ष निकाला है था कि छह पूर्वोत्तर राज्यों में बेरोजगारी दर लगातार पांच प्रतिशत के ऊपर बनी हुई है. बेरोजगारी की दर नागालैंड में 21.4 प्रतिशत, मणिपुर में 11.5 प्रतिशत, मिजोरम में 10.1 प्रतिशत, असम में 7.9 प्रतिशत, त्रिपुरा में 6.8 प्रतिशत और अरुणाचल प्रदेश में 5.8 प्रतिशत है.

लॉकडाउन की घोषणा के बाद बेरोजगारी की इस दर में और वृद्धि होने की आशंका है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल अप्रैल तक 12 करोड 20 लाख लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी थीं. अप्रैल में राष्ट्रव्यापी बेरोजगारी दर 23.5 प्रतिशत थी, जो 23 मई को बढ़कर 27.1 प्रतिशत हो गई. पूर्वोत्तर में, जो पहले से ही रोजगारी की समस्या झेल रहा है, बेरोजगारी दर अधिक होना तय है. सीएमआईई की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि छोटे व्यापारियों और दिहाड़ी मजदूरों, पूर्वोत्तर के प्रवासियों द्वारा अक्सर किया जाने वाला काम, को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है. रिपोर्ट के अनुसार मार्च से अप्रैल के बीच इन उद्योगों में 9 करोड़ से अधिक लोग कार्यरत थे.

देश भर में फंसे कई प्रवासियों ने कहा कि अगर उन्हें अपने गृह राज्य में कुछ रोजगार मिल जाता तो वहां लौटने में खुशी होती. मेघालय के खेल और युवा मामलों के मंत्री बेंटिडोर लिंगदोह ने कहा, "अब सब कुछ ठहरावग्रस्त है लेकिन युवाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने की हम अपनी पूरी कोशिश कर सकते हैं." उन्होंने कहा, "हम कुछ भी वादा नहीं कर सकते क्योंकि सब कुछ सही नहीं चल रहा है और सरकार के लिए चीजें बहुत कठिन हो गई हैं. हम खनिज संसाधनों और कृषि क्षेत्र में समृद्ध हुए हैं. हम खाद्य प्रसंस्करण की संभावना वाले राज्य हैं. लोग उद्यमिता कार्यक्रम शुरू कर सकते हैं लेकिन इसमें बहुत समय लग सकता है.” मेघालय के उपमुख्यमंत्री प्रेस्टोन टिनसोंग के अनुसार, पूर्वोत्तर के राज्यों के बाहर मेघालय के 8000 से अधिक युवा हैं. 7 मई को टिनसोंग ने कहा कि उनके लिए 11 मई से लौटने की व्यवस्था की जाएगी.

मिजोरम की सरकार ने भी राज्य के भीतर रोजगार सृजन का वादा किया है. युवा विकास पर केंद्रित एक सरकारी एजेंसी, मिजोरम युवा आयोग के चेयरपर्सन वनलालतनपुइया ने कहा, ''हम किसी कंपनी के बराबर रोजगार अवसर तो नहीं दे सकते लेकिन हमने एक कोविड-19 योजना बनाई है जिसमें हमने नौकरी गंवानेवालों की प्रोफाइलिंग करने का फैसला किया है और फिलहाल उसकी नीतियां तैयार कर रहे हैं. इस डेटा के माध्यम से हमें कौशल विकास कार्यक्रमों और अन्य प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के जरिए युवाओं को प्रशिक्षित करने में मदद मिलेगे. डिजिटल कार्यक्रमों के माध्यम से कृषि और बागवानी में रोजगार के अवसर हैं."

अन्य राज्यों के अधिकारियों ने भी अस्पष्ट वादे किए. मणिपुर के शिक्षा, श्रम और रोजगार मंत्री, थोकचोम राधेश्याम सिंह ने कहा, "हमारी पहली प्राथमिकता लोगों का बचाव और सुरक्षा है. अब तक लॉकडाउन है इसलिए कौशल प्रशिक्षण और शिक्षा मुश्किल है. अभी रोजगार की बात करना उचित नहीं है. हमारे पास कोई योजना नहीं है लेकिन हम कृषि गतिविधियों में अधिक लोगों को लगाने की सोच रहे हैं. लॉकडाउन खत्म होने के बाद, हम राज्य की मांग के आधार पर कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर सकते हैं चाहे प्लंबर हो बढ़ईगीरी या अन्य थोड़ी अवधि के काम हों." त्रिपुरा में भी लौटने वाले प्रवासियों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने की कोई योजना नहीं है. श्रम निदेशालय के लिए त्रिपुरा के विशेष सचिव दीपा डी. नायर ने कहा, ''मुख्य सचिव के स्तर पर इस पर चर्चा की जानी है.  इस मामले पर अब तक चर्चा नहीं हुई है इसलिए मैं टिप्पणी नहीं दे सकता.”

पूर्वोत्तर और मेनलैंड भारत की सरकारें जिस धीमी गति से प्रवासियों को सहायता दे रही हैं उसने उनकी जिंदगी को अनिश्चितता में धकेल दिया है. छोटे और आर्थिक रूप से कमजोर सामुदायिक संगठन केवल कुछ वक्त के लिए प्रवासियों को आवास, भोजन और राहत प्रदान सकते हैं. “लोगों ने उम्मीद खो दी है. कुछ को दो महीने से वेतन नहीं मिला है. हम उन्हें कितने दिनों तक खाना खिला सकते हैं?” बीबीडब्ल्यूए के अध्यक्ष हेब्राल ने मुझे बताया, "अगर लॉकडाउन जारी रहता है और लोग चौथी-पांचवीं बार खाना मांगेंगे तो मैं मना कैसे करूंगा? मुझे भीख मांगनी पड़ेगी."

Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute