नेपाल सरकार और दूतावास की क्रूर उपेक्षा का शिकार भारतीय लॉकडाउन में फंसे नेपाली नागरिक

कोरोना लॉकडाउन में भारत में फंसे नेपाली नागरिक नेपाल सरकार और भारत में नेपाली दूतावास पर मदद के लिए आगे ना आने का आरोप लगा रहे हैं. नारायण महर्जन/ नूरफोटो/ गैटी इमेजिस

“आप मेरा जख्म देख नहीं सकेंगे”, नेपाल के पश्चिमी जिले बाजुरा के चक्र बहादुर केसी ने मुझे दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल से फोन पर अपना हाल सुनाते हुए कहा, “घाव तो लगभग सूख गया था लेकिन अब इतना बड़ा हो गया है कि देखते हुए डर लगता है.”

36 साल के कैंसर पीड़ित चक्र बहादुर और उनके 63 वर्षीय पिता दान बहादुर केसी को 5 मई को राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, ताहिरपुर (आरजीएसएसएच) से एम्बुलेंस में लाकर सफदरजंग अस्पताल के आपातकालीन वार्ड के सामने छोड़ दिया गया था. 8 मई को जब मैंने उनसे संपर्क किया तो चक्र ने मुझे बताया कि अस्पताल उन्हें “भर्ती नहीं कर रहा है और मंगलवार को करेंगे कह रहा है.” तीन दिन से दोनों अस्पताल के प्रतीक्षा कक्ष में रह रहे थे.

11 मई को दान बहादुर ने मेरा फोन उठाया. मैंने पूछा कि क्या वे बेटे को भर्ती कराने की व्यवस्था कर पाए हैं तो उन्होंने कहा, “गरेन हजुर. राजदूतावासले यो डक्टरलाई भेंट भन्यो त्यो डक्टरलाई भेट्योँ हामीले... उनले त के भन्या भने यहां हुंदैन तपाई घर जानुस.” (नहीं किया. दिल्ली स्थित नेपाली दूतावास ने जिस डॉक्टर से मिलने के लिए कहा था उनसे हमलोग मिले. उन्होंने कहा कि यहां कुछ नहीं हो सकता आप लोग घर लौट जाएं.)

दान बहादुर ने बताया कि नेपाली दूतावास के कहने पर चक्र को अस्पताल के मेडिकल ऑन्कोलॉजी विभाग के एचओडी डॉ. एस. पी. कटारिया ने देखा था और कहा कि चक्र को नेपाल ले जाऊं.

जब मैंने डॉ. कटारिया से चक्र का हाल पूछा तो उन्होंने बताया, “वह न्यूरोफाइब्रोमेटोसिस से पीड़ित हैं, जो शरीर की नसों की बीमारी हैं और उसके शरीर में नर्व शीथ का लो-ग्रेड ट्यूमर विकसित हो गया है जिसका इलाज सर्जरी है. दुर्भाग्य से कोविड आपातकाल और लॉकडाउन के चलते वह ट्यूमर बड़ा अलसर बन गया है जिसका शायद ऑपरेशन ना हो सके. उसे सर्जरी ओपीडी और कैंसर सर्जरी ओपीडी में देखा जा रहा है.”

मैंने डॉ. कटारिया से जानना चाहा कि क्या चक्र का आगे इलाज संभव है तो उन्होंने कहा, “वे लोग (दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान के डॉक्टर) ट्यूमर के आकार को रेडियोथेरेपी से कम करने का प्रयास कर चुके हैं लेकिन उसने काम नहीं किया. कोविड के कारण कैंसर की रूटीन सर्जरी नहीं हो रही है क्योंकि ओटी (ऑपरेशन थिएटर) बंद हैं.”

चक्र छह महीने पहले दिल्ली में इलाज कराने आए थे. उन्होंने मुझे बताया कि नेपाल से दिल्ली आकर वे सबसे पहले दिल्ली के गुरु तेग बहादुर अस्पताल में भर्ती हुए. चार महीने तक वहां भर्ती रहने के बाद उन्हें दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान भेज दिया गया जहां उनके कैंसर का इलाज शुरू हुआ. अप्रैल के शुरू में उस अस्पताल के दो डॉक्टर और 16 नर्सों को कोरोना होने की बात सामने आने के बाद 7 अप्रैल को दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान को बंद कर दिया गया और चक्र सहित अन्य मरीजों को एक प्राइवेट अस्पताल धर्मशिला सुपरस्पेशियलिटी अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया. दान बहादुर केसी ने मुझे बताया कि तीन दिन बाद उन्हें यह कह कर कि चक्र में कोरोना के लक्षण दिखाई दे रहे हैं, सरकारी अस्पताल आरजीएसएसएच शिफ्ट कर दिया गया. आरजीएसएसएच में 12 अप्रैल को की गई जांच में चक्र बहादुर कोरोना पॉजिटिव पाए गए. बाद में 21 और 25 अप्रैल की जांच का परिणाम नेगेटिव आने के बाद 2 मई को उन्हें “वापस दिल्ली स्टेट कैंसर अस्पताल रेफर” कर दिया गया. लेकिन वह अस्पताल बंद था इसलिए तीन दिन बाद 5 मई को चक्र को सफदरजंग अस्पताल भेज दिया गया.

मुझे आरजीएसएसएच में कोविड-19 नोडल ऑफिसर डॉक्टर विकास डोगरा ने उस परिस्थिति के बारे में बताया जिसमें चक्र को सफदरजंग भेजा गया था. डॉक्टर डोगरा ने कहा, “दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान बंद था. वहां भेजना हमारे लिए और भी आसान होता क्योंकि उस अस्पताल के और हमारे डायरेक्टर एक ही हैं. इनके पास पैसे नहीं थे इसलिए सरकारी अस्पताल में ही भेज सकते थे. इसलिए हमने उन्हें सफदरजंग भेजा क्योंकि हमने सोचा वहां ऑन्कोलॉजी है और चक्र को ट्यूमर है और निकालना भी होगा तो वहां निकाल देंगे.” डॉ. डोगरा ने बताया, “हमारे पास दो-तीन बंदे ऐसे आए थे जिनके लिए कोई मिल नहीं रहा था कि कॉन्टेक्ट किससे करें. हमने एसएचओ और एनजीओ को सूचित किया लेकिन कोरोना में कोई आने को ही तैयार नहीं हो रहा था. इनको ट्रांसपोर्ट करने में बहुत दिक्कत आई क्योंकि कोई सुन नहीं रहा था और एनजीओ भी बंद हो गए थे, कह रहे थे कि कोरोना में नहीं आएंगे.” डॉ. डोगरा ने बताया कि उनके अस्पताल में 150 मरीज हैं और “एम्बुलेंस भी बड़ी मुश्किल से पहुंचती है. जिनके साथ कोई नहीं होता है उन्हें तो कोई पूछ भी नहीं रहा.

डॉक्टर डोगरा चाहते थे कि मैं उन्हें ऐसे एनजीओ के फोन नंबर दूं जो उन गरीबों की मदद कर सकें जिनके घर नहीं हैं. “हमारे लिए काम आसान हो जाएगा.”

लेकिन 5 मई से 8 मई के बीच चक्र को सफदरजंग में किसी डॉक्टर ने नहीं देखा था. उस रात करीब 11 बजे जब मैंने चक्र से पहली बार बात की तो उन्होंने बताया, “हमलोग यहां गेस्ट हाउस में हैं और हमें कुछ पता नहीं कि क्या चल रहा है.” उन्होंने मुझे बताया कि उनके शरीर का बायां भाग पूरी तरह सूज गया है. चक्र ने कहा कि परेशान होकर उन्होंने आरजीएसएसएच वापस जाने की कोशिश भी की लेकिन अब “वे लोग कह रहे हैं कि सफदरजंग से कागज लेकर आओ.”

चक्र ने बताया कि उनके पिता और वह पहले भी दिल्ली के बाराखंबा में स्थित नेपाली दूतावास से संपर्क करने की कोशिश कर चुके थे लेकिन 9 मई को जाकर ही दूतावास से संपर्क हो पाया. उन्होंने कहा, “मैंने कई बार दूतावास में फोन किया लेकिन वहां कोई फोन ही नहीं उठाता था.” 5 मई को नेपाल के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने नेपाली राजदूत नीलांबर आचार्य को ट्विटर पर टैग कर चक्र की हालत की जानकारी कराई तो तीन दिन बाद 8 मई को आचार्य ने ट्वीट किया, “दूतावास ने संपर्क कर लिया है.”

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कोरोना लॉकडाउन के दौरान दिल्ली के नेपाली दूतावास का फोन ना उठाने और मदद के लिए प्रयास ना करने की शिकायत मुझसे कई नेपाली समाजसेवियों और नागरिकों ने की है. भारत में काम करने आने वाले अधिकांश नेपाली, खाड़ी और अन्य देशों में काम के लिए जाने वाले अपने नेपाली भाइयों से बहुत गरीब होते हैं. हाल के दिनों में सैनिक भर्ती के अलावा अन्य काम के लिए वही नेपाली भारत आते हैं जो इतने गरीब होते हैं कि खाड़ी मुल्कों में जाने का खर्च नहीं उठा सकते. इसलिए लॉकडाउन में भारत में फंसे नेपाली अन्य देशों में फंसे नेपालियों से ज्यादा गहरे संकट में हैं. इसके बावजूद नेपाल सरकार ने इनके लिए किसी प्रकार का विशेष प्रबंध नहीं किया है.

नेपाली समाचार पत्रों और वेबसाइटों ने भारत में नेपाली दूतावास और नेपाल सरकार के बीच तालमेल के आभाव वाले समाचार निरंतर प्रकाशित किए हैं. काठमांडू से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र नयाँ पत्रिका में 8 मई को प्रकाशित एक समाचार के अनुसार, “दूतावास ने ‘भारत में रह रहे नेपालियों को अब लौटने से रोका नहीं जा सकता’ और उनकी सुरक्षित वापसी की व्यवस्था किए जाने का सुझाव नेपाल के विदेश मंत्रालय को पिछले रविवार (3 मई) को ही भेज दिया था. फिलहाल दूतावास सरकार के निर्देश की प्रतीक्षा में है लेकिन मंत्रालय ने अब तक कोई जवाब नहीं दिया है.”

इससे पहले जब भारत ने लॉकडाउन को दूसरी बार बढ़ाया था तो एक साक्षात्कार में राजदूत आचार्य ने स्वीकार किया था कि नेपाली दूतावास के पास भारत भर में फैले नेपालियों की मदद करने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं हैं. जब उनसे पूछा गया कि उनका कार्यालय अपनी तरफ से क्या कर रहा है तो उनका जवाब था, “हम यहां के स्थानीय प्रशासन, राज्य और केंद्र सरकारों से अनुरोध कर सकते हैं. हम वही काम कर रहे हैं.”

आचार्य ने दावा किया, “मात्र भारत सरकार नहीं, यहां की विभिन्न संस्थाएं भी नेपालियों की मदद कर रही हैं. नेपाल और भारत के बीच बहुत सारी समानता है. भाषा, संस्कृति, रहन-सहन समान है. इसलिए यहां की संस्थाएं जब अपने मजदूरों को खाना देती हैं तो वे नेपालियों के साथ भेदभाव नहीं करतीं.” लेकिन 8 मई को नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबुराम भट्टराई ने अपने फेसबुक अकाउंट में एक वीडियो साझा किया जिसमें उत्तराखण्ड राज्य के हल्द्वानी शहर में क्वारंटीन किए गए नेपालियों को पुलिस की मौजूदगी में एक महिला क्वारंटीन केंद्र से चले जाने की धमकी दे रही है. एक बूढ़े नेपाली को वह महिला कह रही है, “बाबा एक बात बताइए आपको भारत सरकार पकड़ के तो नहीं लाई थी कि यहां आकर काम करो. पकड़ के लाई थी? नहीं लाई थी. आप यहां पैसा कमाने आए हैं. यहां 15-20 दिन रख दिया, खिला दिया. आपकी सरकार ले नहीं रही है. भारत सरकार के पास इतना पैसा थोड़ी है कि सब नेपालियों को खिलाती रहेगी फ्री में.”

इस वीडियो को साझा करते हुए भट्टराई ने लिखा, “भारत में फंसे नेपाली बेहाल! सरकार सुन और कुछ कर!! देश में रोजगार ना दे पाने से मजबूरी में विदेश गए इन नेपाली नागरिकों को जो अपमान भोगना पड़ रहा है वह केपी ओली (प्रधानमंत्री) और हम सभी को देखना और सुनना चाहिए और हमें अपने आप से सवाल करना चाहिए कि क्या यही है हमारी राष्ट्रीय स्वाधीनता और स्वाभिमान? क्या अब भी हमें इस देश के नेतृत्व की कुर्सी पर बैठन और इसके लिए लड़ने का नैतिक अधिकार है?”

भट्टराई से पहले सत्तारुढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय सदस्य और पार्टी में विदेश विभाग के उपप्रमुख विष्णु रिजाल ने 5 मई को भारत में नेपाली “नागरिकों की पीड़ा को समझने वाला राजदूत” ना होने की शिकायत की थी. उनकी शिकायत के अगले दिन 6 मई को राजदूत आचार्य ने ट्वीट किया, “लॉकडाउन और नेपाल-भारत सीमा बंद रहने की वर्तमान अवस्था में भारत प्रवास में रह रहे नेपीली मजदूर, विद्यार्थी, पर्यटक और अन्य नेपालियों का जीवन कष्टदायक बन रहा है. विपदा की इस घड़ी में नेपाल लौटने की चाह रखने वालों के लिए सुरक्षित लौट सकने का वातावरण बनाना चाहिए. जब तक ऐसा नहीं होता हम कष्ट कम करने के प्रयासों को तेज करने के लिए सजग हैं.”

7 मई को नेपाल के राष्ट्रीय दैनिक कांतिपुर को दिए अपने साक्षात्कार में आचार्य ने नेपालियों की स्वदेश वापसी की जिम्मेदारी नेपाल सरकार पर डालते हुए माना कि सरकार को नेपाली नागरिकों को सुरक्षित नेपाल लौटाने का इंतेजाम करना चाहिए. उन्होंने कहा, “अभी भी 1200 के करीब नेपाली भारतीय भूमि में क्वारंटीन की अवस्था में हैं और ना जाने कितने होंगे जिनकी जानकारी हमारे पास नहीं है. नेपाल सरकार के लिए जरूरी है कि वह अपने नागरिकों को घर ले जाने के बाद स्वास्थ्य सुरक्षा देने की नीति बनाए. देश के बाहर रह रहे मजदूरों और अन्य लोगों के लिए सुरक्षित घर वापसी की व्यवस्था करना जरूरी लग रहा है.” अपने इंटरव्यू में आचार्य ने बताया कि दूतावास को नेपाल सरकार से निर्देश है कि वह लोगों को समझाए कि जो जहां है वहीं ठहरा रहे...हम अपने विवेक से काम नहीं कर सकते. हमारा काम सरकार का निर्देश सुनना और मानना है.”

मैंने दूतावास की लाचारी और भारत में फंसे नेपालियों की स्थिति को समझने के लिए लंबे समय से भारत में सक्रिय मूल प्रवाह अखिल भारत नेपाली एकता समाज के वरिष्ठ कार्यकर्ता ठाकुर खनाल से बात की. 7 मई को उनके संगठन ने नेपालियों की स्थिति के बारे में नेपाल के विदेश मंत्रालय को दिल्ली स्थित दूतावास के द्वारा पत्र भेजा था.

खनाल ने मुझे बताया कि जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है वह तभी से दूतावास के लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि स्थिति गंभीर है लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है. उन्होंने कहा, “हमने उनसे कहा था कि भारत में सक्रिय नेपाली संगठनों की वीडियो कॉल के जरिए बैठक करिए ताकि टीम बना कर काम किया जा सके लेकिन उन्होंने इसे नहीं माना. फिर मैंने उन्हें सुझाव दिया कि छत्तीसगढ़ सरकार की तरह वह भी अपने नागरिकों के लिए हैल्पलाइन नंबर का विज्ञापन जारी करें, दूतावास ने वह भी नहीं किया. दूतावास का राहत काम भी दिख नहीं रहा है.” खनाल ने राजदूत आचार्य पर आरोप लगाया कि वह नेपाली मीडिया को गलत बता रहे हैं कि वह भारत में नेपाली नागरिकों की मदद कर रहे हैं. उन्होंने कहा, “उनके बयान से साबित होता है कि वह भारत की सही स्थिति की रिपोर्ट नेपाल सरकार को नहीं दे रहे हैं.”

खनाल ने कहा कि नेपाल की सीमा खोल कर नेपालियों को प्रवेश कराना ही एकमात्र विकल्प है क्योंकि “अभी जैसे हालात हैं उन्हें ठीक होने में नवंबर-दिसंबर तक का वक्त लगेगा और तब तक कम से कम छोटे-मिडिल क्लास होटल या रेस्त्रां नहीं खुलेंगे जिनमें नेपाली लोग प्रायः काम करते हैं. मुझे लगता है कि सरकार इस बारे में अभी भी गंभीर नहीं है.”

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कोरोना संकट में नेपाल सरकार और दूतावास की विफलता की गंभीर स्थिति को दिल्ली के मजनू का टीला (तिल्ला) के एक होटल में 16 मार्च से फंसे 14 नेपाली नागरिकों के हाल से समझा जा सकता है. ये लोग राजदूत आचार्य और नेपाली दूतावास से मदद ना मिलने और वहां फोन ना लगने से परेशान हैं. उस होटल में खाना बनाने वाले भारतीय राज्य सिक्किम के दो लोग- किरन राई और विवेक प्रधान- सहित कुल 24 लोग मदद के इंतजार में हैं. नेपाल के चितवन, रुकुम, जाजरकोट, सल्यान, हेटौडा और सिधुपालचोक जिलों से लद्दाख जाने के लिए 16 मार्च को ये लोग दिल्ली पहुंचे थे. इन लोगों को 21 और 22 तारीख को जहाज से लेह (लद्दाख) जाना था लेकिन उनको दिल्ली में रोक दिया गया और तभी से ये सभी लोग यहां हैं. लगभग 10 दिन पहले नेपाली संगठन नेपाली एकता समाज, भारत के एक कार्यकर्ता ने मुझे फोन पर इन लोगों के बारे में बताया था और मदद के लिए कहा था. उस कार्यकर्ता ने बताया था कि उसके संगठन ने जैसे-तैसे 4000 रुपए जोड़ कर इन लोगों को एक सप्ताह का खाने का सामान पहुंचा दिया है. एक सप्ताह बाद जब मैंने उस समूह के 42 साल के भीम बहादुर चंद से बात की, जिन्होंने एकता समाज के कार्यकर्ता से संपर्क किया था, तो उन्होंने बताया, “अब वह सामान भी खत्म होने लगा है. हमारे पास कल सुबह तक का ही सामान है.” मेरा फोन आने से भीम बहुत खुश थे क्योंकि उनके फोन का “बैलेंस खत्म हो गया था और वह कार्यकर्ता या अन्य किसी को फोन नहीं लगा पा रहे थे.” साथ ही उन्होंने बताया कि वह दूतावास को कई बार फोन कर चुके हैं लेकिन “वहां कोई फोन ही नहीं उठाता.”

भीम और समूह के उनके साथी लेह में मजदूरी करते हैं. उन्होंने बताया कि वह 10-12 साल से लेह में मजदूरी करने जा रहे हैं. भीम के साथ उनकी पत्नी भी हैं. उनके चार बच्चे नेपाल में दादा के साथ हैं. उन्होंने बताया कि जिस होटल में वे लोग रुके हैं उसका मलिक तिब्बती है जिसे नेपाली नागरिक नीम: तमांग किराए पर लेकर चलाते हैं. भीम ने मुझे कहा, “इस वक्त हमलोगों को बास (सर पर छत) से ज्यादा गास (खाने के लिए रोटी) की जरूरत है. नेपाली मीडिया में दिल्ली का दूतावास कह रहा है कि हम लोग भारत में फंसे नेपालियों की मदद कर रहे हैं लेकिन मैं देख रहा हूं कि नेपालियों की मदद ना दूतावास और ना ही दूसरा कोई कर रहा है.” मैंने भीम से पूछा कि लॉकडाउन में क्या उन्हें होटल का किराया देना पड़ रहा है तो उन्होंने कहा, “अभी तो इस बारे में कोई बात नहीं हुई है. तमांग कह रहे हैं कि अगर तिब्बती मालिक उनका किराया माफ कर देगा तो वह हमारा भी किराया माफ कर देंगे.”

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चक्र और पिता दान से शुक्रवार 8 मई को बात करने के बाद मैंने भी अगले दिन नेपाल के दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की. लॉकडाउन के दौरान मदद करने के लिए नेपाली दूतावास ने तीन फोन नंबर (एक मोबाइल और दो लैंडलाइन) जारी किए हैं लेकिन मेरे कई बार प्रयास करने पर भी किसी ने फोन नहीं उठाया.

दूतावास ने सबसे पहले 28 मार्च को कोविड-19 हॉटलाइन नंबर जारी किया था. इससे पहले 23 और 24 मार्च को दूतावास ने जो सूचना जारी की थी उसमें कोविड-19 आपात स्थिति के लिए कोई फोन नंबर या संपर्क की बात नहीं थी जिससे साफ है कि लॉकडाउन में भारत में रहने वाले नेपाली नागरिकों को हो सकने वाली समस्या को लेकर दूतावास पूरी तरह बेखबर था. 23 और 24 मार्च के नोटिसों में नेपाली नागरिकों से “जो जहां हैं वहीं रहने की अपील” है. 24 मार्च से ही नेपाल ने भी देश में एक सप्ताह का लॉकडाउन लगा दिया था और भारत-नेपाल सीमा बंद कर दी गई थी.

लगता है कि 15 अप्रैल को जाकर ही, जब लॉकडाउन को भारत ने दूसरी बार बढ़ाया, नेपाली दूतावास को भारत में रहने वाले नेपालियों की स्थित की गंभीरता का एहसास होना शुरू हुआ. उस दिन जारी नोटिस में हॉटलाइन नंबर के अतिरिक्त दो लैंडलाइन नंबर जारी किए गए थे. जब लॉकडाउन तीसरी बार बढ़ाया गया तो 4 मई को दूतावास ने अपने नोटिस में कहा, “भारत में रहते हुए नेपालियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उसकी जानकारी दूतावास को है और समाधान के लिए दूतावास प्रयासरत है.”

चक्र के बारे में राजदूत आचार्य के 8 मई को संज्ञान लेने के बाद दूतावास ने क्या कदम उठाए, जानने के लिए मैंने 9 मई को दिनभर दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की. कभी फोन की घंटी बजती और कभी फोन व्यस्त बताता लेकिन कई बार कोशिश करने के बावजूद मेरी बात नहीं हो सकी. फिर मैंने दूतावास को ईमेल किया और पूछा कि भारत में फंसे नेपालियों की दूतावास किस प्रकार मदद कर रहा और क्या मेडिकल कारणों से भारत आए नेपालियों के लिए उसकी कोई विशेष व्यवस्था है? मुझे ईमेल का अब तक जवाब नहीं मिला है.

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चक्र के इलाज के बारे में पिता दान ने मुझे बताया कि गुरु तेग बहादुर अस्पताल में चक्र की तीन बार बायप्सी की गई थी. उन्होंने कहा, “पहली बार जब जांच हुई तो परिणाम सामान्य आया था. दूसरी बार मासूको टुक्रा (ऊतक) ले जाने के बाद 20-22 दिन बाद पता चला कि वह गुम हो गया है इसलिए तीसरी बार लिया गया और तभी से घाव (ट्यूमर) बढ़ना शुरू हुआ.”

दान बहादुर ने बताया कि दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान में बेटा ठीक होने लगा था. “वह टॉयलेट खुद जाने लाग था, खाना भी खाने लगा था और घाव भी छोटा हो गया था. उसके बाद कोरोना के कारण हमें यहां-वहां होना पड़ा. हमें दवा नहीं मिली. एक-डेढ़ महीना ऐसे ही रहना पड़ा.'' दान बहादुर ने बताया कि आरजीएसएसएच अस्पताल में कोरोना का इलाज तो हुआ लेकिन कैंसर की दवा नहीं की गई. उन्होंने कहा, “मैंने उनसे कितनी बार इसकी रिक्वेस्ट की. हमलोग आरजीएसएसएच में 22 दिन थे. हमें खाना दिया और रुकने दिया लेकिन कैंसर के बारे में कुछ नहीं किया बल्कि मैंने डॉक्टरों से 50 मर्तबा अनुरोध किया.”

2 मई को अस्पताल ने उन्हें डिस्चार्च कर दिया लेकिन अब तक दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान नहीं खुला था. दान बहादुर ने डॉक्टर से कहा कि बाकि के लोग तो अपने-अपने घर चले जाएंगे लेकिन हमारा तो कोई नहीं है. हम कहां जाएंगे. “मैंने उनसे कहा, ‘आप हमें बेटे का जहां इलाज हो रहा था उस अस्पताल में भेज दीजिए या नेपाल भिजवा दीजिए.’ तीन दिन तक तो हमें वहीं रहने दिया गया लेकिन फिर वे बोले, ‘हमने सरकार और संस्थाओं से बात की है लेकिन कहीं से कुछ नहीं हुआ. हमने आपको यहां से छुट्टी दे दी है आपको जहां जाना है चले जाइए.’ इसके बाद हमें एम्बुलेंस में लाकर सफदरजंग के इमरजेंसी में फैंक दिया.”

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12 मई की दोपहर को चक्र और पिता के साथ जो हुआ वैसा शायद नेपाली दूतावास ही अपने नागरिकों के साथ कर सकता है.

लगभग दो बजे जब मैंने उन्हें फोन लगाया तो पिता दान बहादुर ने मुझे बताया कि दूतावास उनके लिए एम्बुलेंस भेज रहा है. उन्होंने बताया कि एक दिन पहले नेपाली दूतावास से उन्हें फोन आया था और उन्होंने डॉ. कटारिया के साथ अपनी बातचीत के बारे में बताया था और मांग की थी कि वह अपने बेटे को लेकर नेपाल जाना चाहते हैं. “मैंने उन लोगों से कहा कि आपने जिस डॉक्टर से मिलने को कहा था उनसे मैंने मुलाकात कर ली है और आपको यदि विश्वास नहीं है तो आप खुद उनसे पूछ लीजिए. जिसके बाद उन्होंने कहा कि वे मुझे घर भिजवा देंगे.” मुझे दान बहादुर ने बताया कि वे दिल्ली राज्य कैंसर अस्पताल के राहुल नाम के डॉक्टर से लगातार संपर्क में हैं और उन्होंने कहा था कि जैसे ही अस्पताल दुबारा खुलेगा वह फोन पर इत्तला देंगे. “आज राहुल का फोन आया था कि अस्पताल कल से खुल रहा है और मैं चक्र को लेकर आज शाम या कल सुबह वहां आ जाऊं. लेकिन मैंने उनसे कहा कि जब इतने बड़े डॉक्टर (कटारिया) ने बोल दिया है तो मैं बेटे को लेकर नेपाल चला जाता हूं. बेटा अपनी मां, बीवी-बच्चों से मिल लेगा.” उन्होंने कहा, “आज सफदरजंग आए हुए भी हमें 7 दिन हो गए लेकिन कोई दवा तो हुई नहीं इसलिए यहां रहने का भी कोई मतलब नहीं है.”

उन्होंने बताया कि दूतावास ने उन्हें फोन कर कहा है कि “मैं जहां हूं वहीं रहूं. अब एक घंटे में एम्बुलेंस वहां आ जाएगी.” दान ने बताया कि एम्बुलेंस उन्हें महेंद्रनगर बॉर्डर तक पहुंचा देगी. दान ने बताया कि उन्होंने बाजुरा में अपनी नगर पालिका से संपर्क कर लिया है जिसने उन्हें सीमा में प्रवेश दिलाने का आश्वासन दिया है.

पिछले कई दिनों से मैं उनसे बात कर रहा था इसलिए मैंने उनसे कहा कि जब वह एम्बुलेंस में बैठ जाएं तो मुझे फोन जरूर करें. पिता दान बोले, “जरूर बताउंगा.”

लेकिन शाम 5 बजे मुझे चक्र ने फेसबुक मैसेंजर में कॉल कर बताया कि एम्बुलेंस नहीं आ रही है क्योंकि “एम्बेसी वालों ने बताया है कि उन्हें जाने की अनुमति नहीं मिली.” मैंने खुद इस मामले को समझने के लिए उस मोबाइल पर कई बार फोन लगया जिससे चक्र को पहले एम्बुलेंस के आने की और बाद में अनुमति रद्द हो जाने की जानकारी दी गई थी लेकिन फोन नहीं उठा. फिर मैंने व्हाट्सएप्प में पूछा, “चक्र बहादुर को आपने एम्बुलेंस देने की बात की थी और आपने नहीं दी. वह आपका इंतजार कर रहे हैं.” मुझे जवाब नहीं मिला.

चक्र ने मैसेंजर पर मुझसे कहा था कि वह दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान में दुबारा भर्ती हो जाएंगे और क्या पता जल्दी ठीक भी हो जाएं. फिर बोले, “जो हो रहा है शायद अच्छे के लिए हो रहा.”

अगले दिन जब मैं इस खबर को पूरा कर रहा तो चक्र का नाम मेरे फोन की स्क्रीन पर चमकने लगा. मैंने फोन उठाया तो दूसरी ओर से दान बहादुर की आवाज आई, “हम लोगों को लेने एम्बुलेंस आ गई है. हम लोग घर वापस जा रहे हैं.” मैंने खुशी जाहिर की और चक्र से बात कराने को कहा. चक्र से मैंने पूछा कि अब उन्हें क्या लग रहा है तो वह बोले, “मैंने अभी तक हार नहीं मानी है. मुझे विश्वास है कि मैं ठीक हो जाऊंगा. बस इतनी सी ही बात है कि मेरे शरीर के बाहर मांस लटक रहा है लेकिन अंदर कुछ खराब नहीं है. मैं अब नेपाल जा रहा हूं और मां और पत्नी से मुलाकात करूंगा. बाद में मैं नेपाल में ही या दुबारा भारत आ कर इलाज कराऊंगा. मैं बिल्कुल हताश नहीं हुआ हूं.”