“आप मेरा जख्म देख नहीं सकेंगे”, नेपाल के पश्चिमी जिले बाजुरा के चक्र बहादुर केसी ने मुझे दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल से फोन पर अपना हाल सुनाते हुए कहा, “घाव तो लगभग सूख गया था लेकिन अब इतना बड़ा हो गया है कि देखते हुए डर लगता है.”
36 साल के कैंसर पीड़ित चक्र बहादुर और उनके 63 वर्षीय पिता दान बहादुर केसी को 5 मई को राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, ताहिरपुर (आरजीएसएसएच) से एम्बुलेंस में लाकर सफदरजंग अस्पताल के आपातकालीन वार्ड के सामने छोड़ दिया गया था. 8 मई को जब मैंने उनसे संपर्क किया तो चक्र ने मुझे बताया कि अस्पताल उन्हें “भर्ती नहीं कर रहा है और मंगलवार को करेंगे कह रहा है.” तीन दिन से दोनों अस्पताल के प्रतीक्षा कक्ष में रह रहे थे.
11 मई को दान बहादुर ने मेरा फोन उठाया. मैंने पूछा कि क्या वे बेटे को भर्ती कराने की व्यवस्था कर पाए हैं तो उन्होंने कहा, “गरेन हजुर. राजदूतावासले यो डक्टरलाई भेंट भन्यो त्यो डक्टरलाई भेट्योँ हामीले... उनले त के भन्या भने यहां हुंदैन तपाई घर जानुस.” (नहीं किया. दिल्ली स्थित नेपाली दूतावास ने जिस डॉक्टर से मिलने के लिए कहा था उनसे हमलोग मिले. उन्होंने कहा कि यहां कुछ नहीं हो सकता आप लोग घर लौट जाएं.)
दान बहादुर ने बताया कि नेपाली दूतावास के कहने पर चक्र को अस्पताल के मेडिकल ऑन्कोलॉजी विभाग के एचओडी डॉ. एस. पी. कटारिया ने देखा था और कहा कि चक्र को नेपाल ले जाऊं.
जब मैंने डॉ. कटारिया से चक्र का हाल पूछा तो उन्होंने बताया, “वह न्यूरोफाइब्रोमेटोसिस से पीड़ित हैं, जो शरीर की नसों की बीमारी हैं और उसके शरीर में नर्व शीथ का लो-ग्रेड ट्यूमर विकसित हो गया है जिसका इलाज सर्जरी है. दुर्भाग्य से कोविड आपातकाल और लॉकडाउन के चलते वह ट्यूमर बड़ा अलसर बन गया है जिसका शायद ऑपरेशन ना हो सके. उसे सर्जरी ओपीडी और कैंसर सर्जरी ओपीडी में देखा जा रहा है.”
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