पूर्वोत्तर में देशज लिपि आंदोलनों के खिलाफ हिंदी का हमला

2021 में असम के बारपेटा जिले के एक सरकारी स्कूल में दसवीं कक्षा की छात्राएं. राज्य में हजारों मूलनिवासी अल्पसंख्यक छात्र असमिया और इसकी पूर्वी नागरी लिपि में शिक्षा पाते हैं, जो उनके घरों में इस्तेमाल नहीं होती है. डेविड तालुकदार/नूरफोटो/गैटी इमेजिस
08 July, 2022

7 अप्रैल 2022 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद की राजभाषा समिति की बैठक में बोलते हुए हिंदी को "भारत की भाषा" के रूप में वर्णित किया. उन्होंने कहा कि एक आधिकारिक भाषा हिंदी को "देश की एकता का महत्वपूर्ण हिस्सा" बनना चाहिए. उन्होंने कहा कि जब भारत में विभिन्न भाषाओं के बोलने वाले एक-दूसरे से बातचीत करते हैं तो "यह भारत की भाषा में होना चाहिए" और इसी भावना को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सरकार चलाने के लिए हिंदी का इस्तेमाल करते हैं. शाह ने सुझाव दिया कि देशज भाषाओं को नहीं बल्कि हिंदी को अंग्रेजी का स्थान लेना चाहिए. उन्होंने घोषणा की कि सभी आठ पूर्वोत्तर राज्य दसवीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य करने के लिए सहमत हुए हैं और बीस हजार से अधिक हिंदी शिक्षकों की भर्ती कर चुके हैं.

यह पहली बार नहीं है जब गृहमंत्री ने उन लोगों पर हिंदी थोपने की सरकार की मंशा की घोषणा की जो यह भाषा नहीं बोलते. 2019 में हिंदी दिवस पर शाह ने कहा था, "हर भाषा का अपना महत्व है लेकिन पूरे देश की एक भाषा का होना बहुत जरूरी है जो विश्व स्तर पर भारत की पहचान बने. अगर आज कोई भाषा देश को एक कर सकती है तो ऐसी बोली जाने वाली भाषा है हिंदी." उसी साल मोदी सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे के हिस्से के रूप में हिंदी को अनिवार्य बनाने पर जोर दिया लेकिन फिर बड़े पैमाने पर विरोध के बाद मसौदे से इस धारा को हटा दिया.

अपनी पिछली जिद की तरह, "एक राष्ट्र, एक भाषा" के लिए शाह के इस ताजा तरीन जोर ने पूर्वोत्तर के संगठनों में नाराजगी पैदा कर दी है. एक सामाजिक-राजनीतिक समूह, नार्थईस्ट फोरम फॉर इंटरनेशनल सॉलिडेरिटी -एनईएफआईएस, ने एक तीखा बयान जारी किया. इसने गृहमंत्री पर "अन्य समुदायों, खासकर हाशिए ​के समुदायों पर हिंदी अंधभक्ति थोपने" का आरोप लगाया. एनईएफआईएस ने इस मुद्दे को उठाया कि कैसे, देशज भाषाओं को औपचारिक मान्यता और समर्थन देने के बजाए, केंद्र हिंदी को हाशिए पर रहने वाले समूहों पर मजबूरन थोप रही है. इसने कहा कि यह "आकस्मिक नहीं बल्कि एक अभिमानी राज्य के ढीठ रवैये का दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा था जो किसी दंभी विजेता बतौर सीमांत समुदायों पर अपनी संस्कृति और भाषा को थोपने का विकल्प चुनता है." यह बयान भारत की अधिकांश जनजातियों की हताशा को दर्शाता है, जो दशकों से अपनी भाषाओं और अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कड़े संघर्षों में उलझे हुए हैं. त्रिपुरा में 56 देशज सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के समूह कोकबोरोक-चोबा के लिए रोमन लिपि ने भी इस कदम का विरोध किया.

संसदीय समिति में दिए अपने भाषण में, शाह ने कहा कि पूर्वोत्तर में नौ आदिवासी समुदायों ने अपनी बोलियों की लिपियों को देवनागरी में बदल दिया है, इसी लिपि में आमतौर पर हिंदी लिखी जाती है. उदाहरण के लिए, असम की सबसे बड़ी जनजाति बोडो अब अपनी भाषा लिखने के लिए देवनागरी का इस्तेमाल करती है. शाह का भाषण इस नतीजे के पीछे के जटिल इतिहास को समझ पाने में नाकामियाब रहा. देवनागरी कभी भी बोडो लोगों के लिए एक स्वाभाविक पसंद नहीं थी, न ही यह समुदाय के भीतर से उभरी थी. यह भारत में भाषाई राजनीति की व्यापक परस्पर क्रिया का जाहिर नतीजा थी.

आजादी के बाद कई जनजातियों की अपनी भाषा के लिए सबसे उपयुक्त लिपि चुनने के प्रयास बहुसंख्यकवादी राजनीति में उलझ गए. जनजातीय भाषाएं न केवल हिंदी को थोपने से बल्कि अपने राज्यों में बहुसंख्यकवादी भाषाओं से भी संकटग्रस्त हो गईं. असमिया राष्ट्रवादियों ने रोमन लिपि को अपनाने वाले देशज समूहों का लगातार विरोध किया, जो कई जनजातियों को आसान और उपयुक्त लगा. देशज भाषाओं के बचाव में राज्य के समर्थन की भारी कमी थी. इसने असम में आदिवासी भाषाओं को अपने बजूद के लिए असमिया या हिंदी जैसे प्रमुख माध्यमों पर निर्भर रहना अनिवार्य बना दिया. मैंने इसे अपने समुदाय, मिशिंग में होते हुए देखा है, जो अभी भी अपनी मातृभाषा में बुनियादी शिक्षा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

फिर भी, मुख्यधारा की मीडिया में लोकप्रिय परिचर्चा से यह बारीकियां गायब हैं, जो अक्सर केवल हिंदी के खिलाफ नकारात्मकता पर केंद्रित होती है. देशज-लिपि आंदोलनों को इस तरह से पेश करना भाषाई अल्पसंख्यकों, खासतौर पर पूर्वोत्तर में जोखिमों की पूरी सच्चाई को दर्ज कर पाने में विफल रहता है.

बोडो के मामले में यह कहीं भी स्पष्ट नहीं है. वे 1952 में अपनी भाषा की रक्षा के लिए अपना साहित्यिक संगठन बनाने वाले पहले मैदानी जनजातियों में से थे. 1960 के दशक तक, बोडो साहित्य सभा ने एक लिपि चुनने के मुद्दे पर चर्चा करना शुरू कर दिया था. असम में 1960 के दशक की शुरुआत में बोडो-माध्यम शिक्षा शुरू की गई थी, जिससे एक समुदाय-व्यापी लिपि की आवश्यकता हुई. उस समय तक, एक सामान्य लिपि के अभाव में बोडो ने रोमन लिपि या असमिया और बंगाली भाषाओं द्वारा उपयोग की जाने वाली पूर्वी नागरी लिपि, का उपयोग अपनी भाषा लिखने के लिए किया था.

जनवरी 1966 में, बीएसएस ने रोमन लिपि के उपयोग की व्यवहार्यता पर विचार करना शुरू किया. इसने पहली बार इस मुद्दे को देखने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया और 1968 में आखिरी सिफारिश करने के लिए एक उप-समिति बनाई. इतिहासकार रेडियन नार्ज़री ने दर्ज किया कि उप-समिति ने कई कारणों से रोमन लिपि के पक्ष में फैसला लिया. इनमें से एक था कि यह " जल्दी और आसानी से सीखने में फायदेमंद" थी क्योंकि इसमें केवल 26 अक्षरों की जरूरत थी, जबकि इसके उलट पूर्वी नागरी या देवनागरी में जरूरी मिश्रित अक्षरों और अन्य विविधताओं सहित सैकड़ों अक्षर हैं. इसके अलावा, उप-समिति ने महसूस किया कि रोमन लिपि ने आसान, सस्ती टाइपिंग और प्रिंटिंग के लिए सक्षम है और यह वैज्ञानिक या तकनीकी विषयों के लिए भी उपयुक्त थी. यह भी महसूस किया गया कि रोमन लिपि बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल और भूटान जैसे विभिन्न स्थानों में रहने वाले बोडो के बीच वर्तनी और उच्चारण में संबंध और एकरूपता बनाए रखने में मदद करेगी.

बीएसएस ने फरवरी 1970 में औपचारिक प्रस्ताव के साथ रोमन लिपि को स्वीकार कर लिया. इतिहासकार बिजय कुमार दैमारी के अनुसार एक कार्यान्वयन उप-समिति ने सुझाव दिया कि बीएसएस अपने सभी परिपत्रों और नोटिसों के लिए रोमन लिपि का उपयोग करना शुरू कर दे और वर्णमाला के साथ बोडो को परिचित करने के लिए कक्षाएं संचालित करें. इसने सुझाव दिया कि बोडो लोग रोमन लिपि की पाठ्यपुस्तकों और प्राथमिक शिक्षा को लागू करने के लिए सरकारी अनुदान और समर्थन चाहते हैं.

हालांकि, राज्य में एक समानांतर असमिया पहचानवादी आंदोलन चल रहा था, जिसमें बोडो की पसंद शामिल हो गई थी. असम साहित्य सभा जैसे संगठनों ने असमियों के लिए जनजातियों के बीच एक संपर्क भाषा होने के लिए लगातार अभियान चलाया था - यानी देशज गैर-असमिया समुदायों के बीच संचार की एक आम भाषा. असमिया बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और अभिजात वर्ग ने भी इस मांग का प्रचार किया. इतिहासकार और नृवंश विज्ञानी जगदीश लाल डावर ने दर्ज किया है कि आजादी के बाद, एएसएस ने नागालैंड की जनजातियों और उत्तर-पूर्व सीमांत एजेंसी-जो बाद में अरुणाचल प्रदेश बन गई- के साथ-साथ चाय बागान मजदूरों को भी असमिया के भीतर लाने में रुचि लेना शुरू कर दिया. एक प्रख्यात असमिया कवि रत्नाकांत बरकाकती ने 1963 में एएसएस की एक बैठक में अपने अध्यक्षीय भाषण में "असम के साथ एनईएफए के तेजी से एकीकरण के लिए उत्साहपूर्वक अपील की". उन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों में असमिया भाषा और लिपि के इस्तेमाल की वकालत की.

1960 के दशक में, भाषा के साथ असमिया पहचान को परिभाषित करने की दिशा में एक राजनीतिक बदलाव आया, जिसके कारण असमिया को राज्य की आधिकारिक भाषा नामित करने वाला एक अधिनियम पारित हुआ. असम में ऐसे समूह जो असमिया नहीं बोलते थे - पहाड़ी जनजातियां, मैदानी जनजातियां और अन्य भाषाई अल्पसंख्यक - ने इस विकास का विरोध करना शुरू कर दिया और इसे एक अखंड पहचान बनाने का प्रयास बताया. डेमरी ने दर्ज किया कि जुलाई 1960 में सिलचर में अखिल असम गैर-असमिया भाषा सम्मेलन में एक आधिकारिक प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसने "असम राज्य के लिए आधिकारिक भाषा के रूप में असमिया को लागू करने के कदम" का विरोध किया और जोर देकर कहा कि "भारत के पूर्वी क्षेत्र की शांति और सुरक्षा को कायम रखने के लिए राज्य के आंतरिक रूप से बहुभाषी चरित्र पर आधारित यथास्थिति को बनाए रखा जाना चाहिए." 1966 में असम की सादा जनजाति परिषद ने भी एक अलग राज्य के लिए एक आंदोलन शुरू किया.

इतिहासकार सत्येंद्र कुमार सरमा ने दर्ज किया कि 1971 में, बीएसएस ने औपचारिक रूप से बोडो-माध्यम स्कूलों में मौजूदा असमिया लिपि को बदलने के लिए रोमन लिपि की मांग रखी थी. सरमा लिखते हैं कि राज्य सरकार ने इस प्रस्ताव को "विदेशी मूल के आधार पर" खारिज कर दिया. "ऐसा माना जाता था कि लिपि देश से शीघ्र ही गायब हो जाएगी." सरमा कहते हैं कि असम और केंद्र की सरकारें चिंतित हो गईं कि यह प्रस्ताव "राज्य के विखंडन" का कारण बनेगा. "1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बैठक में बोडो नेताओं को रोमन लिपि के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में इस्तेमाल होने वाली किसी भी लिपि को चुनने की सलाह दी थी."

सरकारी समर्थन की कमी से परेशान, बीएसएस ने मामलों को अपने हाथों में लेने का फैसला किया. 1974 में इसने सभी बोडो-माध्यम स्कूलों में इस्तेमाल के लिए रोमन लिपि में एक बिठोराई -प्राइमर पाठ्यपुस्तक- पेश की. राज्य सरकार ने इस एकतरफा फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया जताते हुए बोडो-माध्यम के स्कूलों को अनुदान रोकने और बोडो शिक्षकों की तनख्वाह रोकने के आदेश दिए.

नारजारी के मुताबिक, असमिया अभिजात वर्ग और एएसएस ने भी रोमन लिपि के इस्तेमाल का विरोध किया और "इसमें असमिया विरोधी भावना देखी." वह लिखते हैं कि सरकार द्वारा इस विकल्प का विरोध करने का एक और कारण शायद "सरकारी हलकों में व्यापक रूप से एक गलत धारणा का फैला होना है कि रोमन लिपि की मांग हमेशा ईसाई मिशनरी और भारत विरोधी नजरिए से पैदा होती है." सरमा ने माना कि एएसएस ने महसूस किया कि असमिया लिपि "असम में आदिवासी भाषाओं के सांस्कृतिक एकीकरण और विकास" के लिए "पर्याप्त और उपयुक्त" थी. डेमरी का कहना है कि रोमन लिपि के आंदोलन को "अलगाववादी रंग" दिया गया था.

अपनी भारी संख्या और पूर्वोत्तर में रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान पर अपनी उपस्थिति के कारण, बोडो को हमेशा अन्य जनजातियों की तुलना में राजनीतिक लाभ प्राप्त हुआ है. समुदाय ने रोमन लिपि की मान्यता के लिए एक पूर्ण अभियान शुरू किया, जो हजारों की संख्या में लोग विरोध और बहिष्कार के लिए सामने आए. लेकिन आंदोलन हिंसक हो गया. 1974 में पुलिस गोलीबारी में पंद्रह बोडो आंदोलनकारी मारे गए.

अगले साल, बीएसएस ने राज्य और केंद्र के साथ कई दौर की चर्चा की. लेकिन, डेमरी लिखते हैं, राज्य के साथ बातचीत कहीं नहीं पहुंची और एएसएस भी एक प्रस्ताव का सुझाव देने में विफल रही. इंदिरा गांधी सरकार ने अपनी ओर से, राज्य में समुदायों के बीच "निकटता" के लिए प्राथमिकता का उल्लेख किया. इससे बीएसएस पर दबाव बना. इसने असमिया को जारी रखने का सुझाव दिया, ऐसी यथास्थिति जिसे बहुसंख्यक अभिजात वर्ग भी पसंद करते हैं. केंद्र ने विकल्प के तौर पर देवनागरी को भी पेश करना शुरू कर दिया. डेमरी लिखती है, "बीएसएस आखिरकार दोनों सरकारों के दांतो तले पिस गई." अप्रैल 1975 में इसने देवनागरी लिपि को स्वीकार किया. हालांकि, यह कहा गया है कि अगर केंद्र सरकार ने संविधान की आठवीं अनुसूची में बोडो भाषा को शामिल नहीं किया, तो वापस रोमन लिपि को अपना लिया जाएगा, जिससे इसे आधिकारिक भारतीय भाषा का दर्जा मिल जाएगा.

लगभग तीन दशक बाद 2003 में बोडो भाषा को अंततः अनुसूची में जोड़ा गया. 2020 में केंद्र, असम सरकार और बोडो समूहों ने एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसने बोडो को राज्य में सहयोगी आधिकारिक भाषा बना दिया. समझौते ने शिक्षा में भाषा को अन्य सुरक्षा भी प्रदान की. हालांकि, एक विद्वान ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, "समस्या यह है कि कई पुराने समय के लोग जिन्होंने असमिया लिपि से शुरुआत की, देवनागरी को कठिन पाते हैं और देवनागरी का उपयोग करने वालों के लिए असमिया कठिन है और बहुत से लोग रोमन लिपि से चिपके रहते हैं क्योंकि यह बहुत आसान है.”

लगभग उसी समय जब बोडो लिपि आंदोलन शुरू हो रहा था, बोडो की तुलना में संख्यात्मक रूप से छोटा और कम प्रभावशाली समूह, मिशिंग ने भी एक लिपि आंदोलन शुरू किया. इसने एक अलग तरह का प्रक्षेपवक्र देखा. मिशिंग मुख्य रूप से ऊपरी असम में, धेमाजी, लखीमपुर, सोनितपुर, तिनसुकिया, माजुली और डिब्रूगढ़ जिलों में रहते हैं, इनमें से कई क्षेत्र अपेक्षाकृत पिछड़े हैं. लगभग पचास हजार मिशिंग अरुणाचल प्रदेश में भी रहते हैं. 1960 के दशक के अंत तक, मिशिंग लेखक मुख्य रूप से पूर्वी नागरी लिपि का इस्तेमाल भाषा लिखने के लिए कर रहे थे, कुछ रोमन पसंद करते थे. हालांकि मिशिंग लिपि आंदोलन का इतिहास अच्छी तरह से प्रलेखित नहीं है, हाल ही में एक किताब, मिशिंग भाक्सर लिपि अचोनी -प्रसिद्ध मिशिंग विद्वान नाहेंद्र पदुन द्वारा संपादित और समुदाय के साहित्यिक संगठन, मिशिंग अगोम केबांग द्वारा प्रकाशित - एक संक्षिप्त अवलोकन देती है.

1968 में, गौहाटी विश्वविद्यालय में एक शोध विद्वान पदुन और भाषाविद् तब्बू ताईद ने गुवाहाटी मिशिंग केबांग का गठन किया. इस समूह का उद्देश्य क्षेत्र में मिशिंग को एक साथ लाना था. लिपि अकोनी के अनुसार 1972 की जीकेएम बैठक बाद में एमएके के गठन की नींव बन गई, जिसने बाद में एक उपयुक्त लिपि की खोज की. पदुन ने महसूस किया कि वैज्ञानिक आधार के साथ कोई लिपि चुनना और बड़े मिशिंग समुदाय की सहमति होना बेहद जरूरी है. अगले कुछ सालों के लिए एमएके ने इस विषय पर व्यापक बहस की. पदुन और कुछ अन्य विद्वानों ने महसूस किया कि पूर्वी नागरी को मिशिंग भाषा लिखने के लिए संशोधित किया जा सकता है, जबकि टैड और अन्य ने रोमन को प्राथमिकता दी.

आखिरकार, 1974 में एमएके ने एक रु:सेग केबांग (RU :seg kebang) निर्णय समिति की स्थापना की, पदुन इसके सदस्य थे. रु:सेग केबांग ने देवनागरी, पूर्वी नागरी और रोमन लिपियों को माना. लिपि अचोनी का कहना है कि समिति ने देवनागरी लिपि के खिलाफ फैसला किया क्योंकि मिशिंग का हिंदी भाषा के साथ कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं था. तीन लिपियों और भाषाओं में से, हिंदी मिशिंग समुदाय के लिए सबसे अलग थी. समिति ने यह भी दर्ज किया कि देवनागरी और पूर्वी नागरी में एक ही मूल प्रणाली थी. इसने आखिरकार रोमन को चुना, इस बात पर रोशनी डाली कि लिपि के दूसरे फायदे भी थे. रोमन लिपि के ध्वन्यात्मकता पहले से ही मिशिंग जनजातियों के बीच उपयोग किए जाने वाले के समान थी. इसके अन्य कारण बीएसएस के समान थे: भाषा के अंतर्राष्ट्रीयकरण में आसानी और मौजूदा मानकों जैसे कि यूनिकोड और तकनीक जैसे कि कीबोर्ड और टाइपराइटर के साथ संगतता.

रु:सेग केबांग ने पूर्वाभास किया कि असमिया राष्ट्रवादी इस विकल्प को एक खतरे के रूप में देखेंगे. लिपि अकोनी के अनुसार, इसने सावधानी से लिखा, "एक समुदाय की पसंद की लिपि कभी भी समाज की एकता के लिए बाधा नहीं हो सकती है ... भले ही मिशिंगों ने रोमन लिपि को चुना है, फिर भी वे असमिया समाज का एक अभिन्न अंग बने रहेंगे." यह सुनिश्चित करने के लिए कि समिति के फैसले से "कोई गलतफहमी" न पैदा हो, समिति ने लिखा, यह एएसएस के साथ वार्ता शुरू करेगी. रु: केबांग की सिफारिशों को औपचारिक रूप से 1975 की शुरुआत में मिशिंग समुदाय के सबसे पुराने और सबसे बड़े संगठन मिशिंग बाने केबांग की बैठक में अपनाया गया था.

नाम न छापने की शर्त पर बात करते हुए, एमएके के एक पूर्व पदाधिकारी ने मुझे बताया कि हालांकि एएसएस ने औपचारिक रूप से इस कदम का विरोध नहीं किया लेकिन इसने मिशिंग को उनके प्रयासों में मदद करने के लिए कुछ नहीं किया. उन्होंने रोमन लिपि को विदेशी के रूप में नहीं देखा. उन्होंने कहा, "एक्सोमिया विद्वानों या सभा ने न तो मिशिंग भाषा सीखने का कोई प्रयास किया और न ही उन्होंने मिशिंग साहित्य और भाषा को विकसित करने के किसी भी प्रयास का समर्थन किया. दूसरी ओर, अंग्रेजों ने मिशिंग भाषा के शब्दकोश लिखे थे."

हाल ही में आई एक किताब, "मिशिंग भाक्सर लिपि अचोनी," मिशिंग लिपि आंदोलन का संक्षिप्त विवरण देती है. यह पूर्वी नागरी लिपि में असमिया में है. 1970 के दशक में, मिसिंगों ने अपनी भाषा के लिए रोमन लिपि को चुना. तब से वे निर्णय को लागू करने में राज्य के समर्थन के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

मिशिंग की पसंद का असमिया विरोध सूक्ष्म तरीकों से प्रकट हुआ. इसके गठन के बाद से एमएके और मिशिंग समुदाय बड़े पैमाने पर असम सरकार से दो प्रमुख मांगें उठा रहे थे कि उनकी भाषा को मिशिंग-बहुसंख्यक क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा के माध्यम के रूप में पढ़ाया और अपनाया जाए. ये मांगें केवल भाषा को संरक्षित करने का प्रयास नहीं हैं बल्कि समग्र रूप से समुदाय की प्रगति से जुड़ी हैं.

1980 के दशक में सरकार ने प्राथमिक विद्यालय में मिशिंग को एक विषय के रूप में पेश किया लेकिन तब से बहुत कम प्रगति हुई है. अभी मिशिंग भाषा के पर्याप्त शिक्षकों की नियुक्ति और भाषा में किताब का अनुवाद करना बाकी है. हर साल हजारों मिशिंग छात्र असमिया-माध्यम के सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते हैं. उन्हें एक विदेशी भाषा और लिपि में अध्ययन करने के लिए मजबूर किया जाता है जिसका वे घर पर इस्तेमाल नहीं करते हैं. इसके साथ ही मिशिंग-बहुसंख्यक क्षेत्रों में स्कूलों की स्थिति खराब है, बुनियादी ढांचा जर्जर है और शिक्षकों की घटती संख्या से स्थिति और खराब है. माहौल शाब्दिक और आलंकारिक दोनों रूपों में सीखने के लिए खतरनाक है. सालाना बाढ़, जैसा कि वर्तमान में अधिकांश असम को तबाह कर रही है, इन स्कूलों को महीनों के लिए बंद कर देती है या उन्हें राहत शिविरों में बदल देती है.

बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होने के लिए जाने जाने वाले जिले धेमाजी में पला-बढ़ा, मेरा परिवार ऐसी बाढ़ों का शिकार हुआ. कई अन्य मिशिंगों की तरह, मैंने नावें लीं और आस-पास के कस्बों और शहरों तक पहुंचने के लिए अस्थायी बांस के पुलों को पार किया. लगातार बाढ़ से बचने के लिए मेरे पिता हमारे परिवार को हमारे पुश्तैनी गांव मेजर देबेरा से, सिसी टोंगानी क्षेत्र में पास के एक शहर सिलापाथर में ले गए. मेरे रिश्तेदारों के लिए सिसी टोंगानी से सिलापाथर जाना और बाढ़ के मौसम में हमारे साथ रहना आम बात थी. मेरे चचेरे भाइयों की शिक्षा को तब तक रोक दिया जाना आम बात थी जब तक कि पानी कम न हो जाए.

यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि जब एक अनजान भाषा में छिटपुट शिक्षा प्राप्त होती है, तो मेरे गांव के युवा स्कूल छोड़ देते हैं. (जबकि समुदाय-वार स्कूल छोड़ने की दर उपलब्ध नहीं है, असम ने 2020 में प्राथमिक और माध्यमिक स्तरों पर भारत में सबसे अधिक स्कूल छोड़ने की दर दर्ज की.) कई लोग काम के लिए पलायन कर गए, बेंगलुरू, चेन्नई और कोच्चि जैसे मजदूरी वाले शहरों में चले गए.

लेकिन मिशिंग और अन्य जनजातियों के बीच शिक्षा के संबंध में चिंता शायद ही कभी सार्वजनिक बहस का विषय होती है. भाषाई राष्ट्रवाद ने आदिवासी आत्म-अभिव्यक्ति को मजबूरन एक कोने में धकेल दिया है, इसे असमिया या हिंदी के उपयोग के खिलाफ एक आंदोलन के रूप में चित्रित किया है. इस पुनर्रचना ने संरचनात्मक बाधाओं को किनारे कर दिया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के लिए हिंदी को लागू करने से वीडी सावरकर द्वारा निर्धारित "हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान" लक्ष्य में पूर्वोत्तर का सांस्कृतिक एकीकरण पूरा हो जाएगा. यह हजारों आदिवासी बच्चों को औपचारिक शिक्षा से वंचित कर सकता है, यह उनके चुकाने के लिए एक छोटी सी कीमत होगी.

लेकिन केंद्र की नवीनतम आकांक्षाएं अब असमिया राष्ट्रवादियों के साथ विरोधाभासी प्रतीत होती हैं. 9 अप्रैल 2022 को शाह के भाषण के बाद एएसएस ने एक सार्वजनिक बयान जारी कर पूर्वोत्तर राज्यों में दसवीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य करने के निर्णय की निंदा की. इसने दावा किया कि अगर हिंदी को अनिवार्य कर दिया गया, तो देशज भाषाओं और असमिया का "लिंक लैंग्वेज या जोड़ने वाली भाषा" के रूप में भविष्य खतरे में डाल देगा. हालांकि विभिन्न राष्ट्रवादी असमिया संगठनों के साथ एएसएस ने अनिवार्य असमिया शिक्षा के लिए लगातार संघर्ष किया है. ऐसा लगता है कि किसी अन्य के बजाय एक बहुसंख्यकवादी भाषा को थोपने में कोई समस्या नहीं है.

आदिवासी समुदायों का अपनी भाषाओं को संरक्षित करने का संघर्ष प्रभुत्व का प्रयास नहीं है बल्कि उनके ज्ञान, भाषा और विशिष्ट पहचान को जीवित रखने का प्रयास हैं. मेरे लिए मिशिंग भाषा को संरक्षित करने की जरूरत केवल इसका दस्तावेजीकरण करने के लिए नहीं है बल्कि देशज ज्ञान प्रणालियों को संरक्षित करने के लिए है जो पीढ़ियों से मेरे समुदाय के भीतर मौखिक रूप से बहती आई हैं. यह लिखित ज्ञान और साहित्य हमारे बाद आने वाली मिशिंग पीढ़ियों के लिए सुलभ होने का एक प्रयास है जो एक आसान लिपि और औपचारिक शिक्षा के बिना असंभव है.


Manoranjan Pegu is a writer who covers issues of labour and tribes. He is from the Mising community of Assam.