पूर्वोत्तर में देशज लिपि आंदोलनों के खिलाफ हिंदी का हमला

08 जुलाई 2022
2021 में असम के बारपेटा जिले के एक सरकारी स्कूल में दसवीं कक्षा की छात्राएं. राज्य में हजारों मूलनिवासी अल्पसंख्यक छात्र असमिया और इसकी पूर्वी नागरी लिपि में शिक्षा पाते हैं, जो उनके घरों में इस्तेमाल नहीं होती है.
डेविड तालुकदार/नूरफोटो/गैटी इमेजिस
2021 में असम के बारपेटा जिले के एक सरकारी स्कूल में दसवीं कक्षा की छात्राएं. राज्य में हजारों मूलनिवासी अल्पसंख्यक छात्र असमिया और इसकी पूर्वी नागरी लिपि में शिक्षा पाते हैं, जो उनके घरों में इस्तेमाल नहीं होती है.
डेविड तालुकदार/नूरफोटो/गैटी इमेजिस

7 अप्रैल 2022 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद की राजभाषा समिति की बैठक में बोलते हुए हिंदी को "भारत की भाषा" के रूप में वर्णित किया. उन्होंने कहा कि एक आधिकारिक भाषा हिंदी को "देश की एकता का महत्वपूर्ण हिस्सा" बनना चाहिए. उन्होंने कहा कि जब भारत में विभिन्न भाषाओं के बोलने वाले एक-दूसरे से बातचीत करते हैं तो "यह भारत की भाषा में होना चाहिए" और इसी भावना को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सरकार चलाने के लिए हिंदी का इस्तेमाल करते हैं. शाह ने सुझाव दिया कि देशज भाषाओं को नहीं बल्कि हिंदी को अंग्रेजी का स्थान लेना चाहिए. उन्होंने घोषणा की कि सभी आठ पूर्वोत्तर राज्य दसवीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य करने के लिए सहमत हुए हैं और बीस हजार से अधिक हिंदी शिक्षकों की भर्ती कर चुके हैं.

यह पहली बार नहीं है जब गृहमंत्री ने उन लोगों पर हिंदी थोपने की सरकार की मंशा की घोषणा की जो यह भाषा नहीं बोलते. 2019 में हिंदी दिवस पर शाह ने कहा था, "हर भाषा का अपना महत्व है लेकिन पूरे देश की एक भाषा का होना बहुत जरूरी है जो विश्व स्तर पर भारत की पहचान बने. अगर आज कोई भाषा देश को एक कर सकती है तो ऐसी बोली जाने वाली भाषा है हिंदी." उसी साल मोदी सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे के हिस्से के रूप में हिंदी को अनिवार्य बनाने पर जोर दिया लेकिन फिर बड़े पैमाने पर विरोध के बाद मसौदे से इस धारा को हटा दिया.

अपनी पिछली जिद की तरह, "एक राष्ट्र, एक भाषा" के लिए शाह के इस ताजा तरीन जोर ने पूर्वोत्तर के संगठनों में नाराजगी पैदा कर दी है. एक सामाजिक-राजनीतिक समूह, नार्थईस्ट फोरम फॉर इंटरनेशनल सॉलिडेरिटी -एनईएफआईएस, ने एक तीखा बयान जारी किया. इसने गृहमंत्री पर "अन्य समुदायों, खासकर हाशिए ​के समुदायों पर हिंदी अंधभक्ति थोपने" का आरोप लगाया. एनईएफआईएस ने इस मुद्दे को उठाया कि कैसे, देशज भाषाओं को औपचारिक मान्यता और समर्थन देने के बजाए, केंद्र हिंदी को हाशिए पर रहने वाले समूहों पर मजबूरन थोप रही है. इसने कहा कि यह "आकस्मिक नहीं बल्कि एक अभिमानी राज्य के ढीठ रवैये का दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा था जो किसी दंभी विजेता बतौर सीमांत समुदायों पर अपनी संस्कृति और भाषा को थोपने का विकल्प चुनता है." यह बयान भारत की अधिकांश जनजातियों की हताशा को दर्शाता है, जो दशकों से अपनी भाषाओं और अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कड़े संघर्षों में उलझे हुए हैं. त्रिपुरा में 56 देशज सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के समूह कोकबोरोक-चोबा के लिए रोमन लिपि ने भी इस कदम का विरोध किया.

संसदीय समिति में दिए अपने भाषण में, शाह ने कहा कि पूर्वोत्तर में नौ आदिवासी समुदायों ने अपनी बोलियों की लिपियों को देवनागरी में बदल दिया है, इसी लिपि में आमतौर पर हिंदी लिखी जाती है. उदाहरण के लिए, असम की सबसे बड़ी जनजाति बोडो अब अपनी भाषा लिखने के लिए देवनागरी का इस्तेमाल करती है. शाह का भाषण इस नतीजे के पीछे के जटिल इतिहास को समझ पाने में नाकामियाब रहा. देवनागरी कभी भी बोडो लोगों के लिए एक स्वाभाविक पसंद नहीं थी, न ही यह समुदाय के भीतर से उभरी थी. यह भारत में भाषाई राजनीति की व्यापक परस्पर क्रिया का जाहिर नतीजा थी.

आजादी के बाद कई जनजातियों की अपनी भाषा के लिए सबसे उपयुक्त लिपि चुनने के प्रयास बहुसंख्यकवादी राजनीति में उलझ गए. जनजातीय भाषाएं न केवल हिंदी को थोपने से बल्कि अपने राज्यों में बहुसंख्यकवादी भाषाओं से भी संकटग्रस्त हो गईं. असमिया राष्ट्रवादियों ने रोमन लिपि को अपनाने वाले देशज समूहों का लगातार विरोध किया, जो कई जनजातियों को आसान और उपयुक्त लगा. देशज भाषाओं के बचाव में राज्य के समर्थन की भारी कमी थी. इसने असम में आदिवासी भाषाओं को अपने बजूद के लिए असमिया या हिंदी जैसे प्रमुख माध्यमों पर निर्भर रहना अनिवार्य बना दिया. मैंने इसे अपने समुदाय, मिशिंग में होते हुए देखा है, जो अभी भी अपनी मातृभाषा में बुनियादी शिक्षा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

मनोरंजन पेगु श्रम और आदिवासी समुदाय के मुद्दों तथा असम के मिशिंग समुदाय के बारे में लिखते हैं.

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