फोटो फीचर : इंडोनेशिया के बांदा द्वीप समूह का औपनिवेशिक इतिहास

डचों द्वारा बनाया गया फोर्ट कॉनकॉर्डिया. गांव को समुद्री लुटेरों से बचाने के लिए सबसे पहले 1630 में इस स्थान पर एक छोटा किला बनाया गया था. 1732 में इसे तीन अलग दुर्गों के साथ मिला कर बड़े किले से बदल दिया गया. औपनिवेशिक शासन समाप्त होने के बाद निर्माण साम्रगी निकाल कर आस-पास रहने वाले ग्रामीणों द्वारा इसे लूट लिया गया था. आज यह वैसा ही खड़ा है, केवल एक किला पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है.
बांदा नीरा के अपने पूर्व घर में लगा क्रिस्टोफर कोल का चित्र. उन्होंने भारी किलेबंद बांदा द्वीप समूह में डचों के खिलाफ ब्रिटिश नौसेना के एक सफल हमले का नेतृत्व किया. अंग्रेजों ने तब जायफल के कई पेड़ हटा कर उन्हें सीलोन, अब श्रीलंका, और अन्य उपनिवेशों में प्रत्यारोपित कर दिया. यह कार्रवाई जायफल व्यापार के पतन का बड़ा कारण बनी.
बांदा बेसर द्वीप में अपने वंशज पोंगकी वैन डेन ब्रोके के घर में पीटर वैन डेन ब्रोके के चित्र की प्रतिकृति. वह डच ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए बांदा आया था और जान पीटरजून कोएन के बाद बांदा द्वीप समूह के प्रमुख के रूप में कार्य किया. फ्रैंस हल्स द्वारा बनाई मूल पेंटिंग अब लंदन के केनवुड हाउस में लगी हुई है.
ऊपर की पहाड़ी से दिखाई देने वाला रहुन गांव. यहां मीठे पानी का कोई स्रोत नहीं है और एक छोटे से जनरेटर से बिजली शाम को कुछ घंटों के लिए ही चलती है. यह द्वीप अंग्रेजों और डचों के बीच विवाद का एक कारण था. 1667 में ब्रेडा की संधि करके मैनहट्टन के बदले में अंग्रेजों ने इसे डचों को सौंप दिया. आज रहुन में एक हजार से कुछ अधिक निवासियों में से ज्यादातर जायफल किसानों और मछुआरों के रूप में काम करते हैं.
जायफल के व्यापार की रक्षा के लिए बांदा में निर्मित फोर्ट बेल्गिका डचों द्वारा बनाया गया अब तक का सबसे मजबूत रक्षा ढांचा था. आज भी द्वीपों पर कम से कम छह बड़े किले देखे जा सकते हैं.
हालांकि जायफल अब उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है, जितना पहले हुआ करता था लेकिन बांदा से अब भी मसाले का निर्यात होता है. कई द्वीपवासियों के लिए अभी भी जायफल की खेती को उनकी आय का मुख्य स्त्रोत है.
बांदा नीरा में फोर्ट बेल्गिका के वॉच टावर के ऊपर दोपहर बिताते कुछ किशोर.
गुनुंग आपी बांदा ज्वालामुखी की ढलान पर मौजूद ज्वालामुखी चट्टानें.
रहुन में फर्श पर बिछी चटाई पर दोपहर की नींद लेता एक ग्रामीण. द्वीप पर रहने वाले लोगों की दिनचर्या में ज्यादातर जायफल के खेतों में काम करना या मछली पकड़ने के लिए खुले समुद्र में जाना शामिल होता है.
पश्चिमी मानसून के मौसम में बांदा के ऊपर दिखता एक तूफानी बादल. यह वही मौसम है जिसने बांदा के लिए शुरुआती व्यापारियों और यूरोपीय लोगों को यहां तक लाया था.
फोर्ट हॉलैंडिया के पास इकट्ठा किशोर.
बांदा नीरा में एक गोदाम के ऊपर बनी जायफल की मूर्ति.
बांदा नीरा में तैनात एक पुलिसकर्मी लेवी नोया.
पोंगकी वैन डेन ब्रोके के स्वामित्व वाले एक स्मोकहाउस में जायफल को सुखाने के लिए रखा जाता है.
एक स्थानीय नृत्य समारोह के दौरान एक कलाकार का चित्र जिसे केकले के नाम से जाना जाता है. उनके पारंपरिक पहनावे में पुर्तगाली सेना के हेलमेट जैसी टोपी भी शामिल है.
जायफल के पेड़ पर फल लेने के लिए चढ़ते हुए एक किसान.
जायफल बांदा की चिलचिलाती धूप और भारी बारिश में असुरक्षित होता है. बड़े केनारी के पेड़ इसे प्राकृतिक सुरक्षा देते हैं.
बांदा नीरा में औपनिवेशिक युग की एक इमारत.
शफीरा उन युवा स्थानीय लोगों में से हैं जो बांदा द्वीप समूह के भविष्य को लेकर खुश नहीं हैं. बांदा नीरा के एक होटल में कुछ समय काम करने के बाद उन्होंने बाहर जाने का फैसला किया. वह अब बाली में काम कर रही है.
बांदा एली की निवासी दिवंगत मुस्तिका लातर अपने घर में. वह बांदा एली के उन लोगों में से थीं, जो समुदाय के इतिहास को बताने वाले पारंपरिक स्वदेशी बंदानी गीत गाते हैं.
बांदा में चीनी वास्तुकला की बची हुई इमारत, सन टिएन कोंग मंदिर. यह मंदिर 1500 के दशक में यूरोपीय लोगों के आने से पहले बनाया गया था जब चीनी व्यापारी इस क्षेत्र में आए थे.
रहुन द्वीप का एक मछुआरे ला माने, पकड़ी हुई एक येलोफिन टूना दिखाते हुए. कई द्वीपवासी जिनके पास जायफल का खेत नहीं है, वे अपने परिवार को चलाने के लिए मछली पकड़ते हैं. बांदा सागर में प्रचुर मात्रा में मिलने वाली टूना प्राय: जायफल के समान ही कीमती है.
बांदा नीरा में नीदरलैंड के राजा और लक्जमबर्ग के ग्रैंड ड्यूक विलेम तृतीय की एक पीतल की मूर्ति.
बांदा नीरा में रुमाह बुडाया संग्रहालय में डच काल की बोतलें संग्रह करके रखी गई हैं.
बांदा नीरा में रुमा बुदया संग्रहालय में रखी औपनिवेशिक युग की कलाकृतियां. दिन में काम शुरू करने के लिए मजदूरों को संकेत देने के लिए डच ने जायफल के बागानों में इस तरह की लोहे की घंटी का इस्तेमाल किया था.
बांदा में रहने वाले डचमैन पी शेलिंग का घर. यह बांदा द्वीप में औपनिवेशिक वास्तुकला का सबसे अच्छा उदाहरण है जो अभी भी कुछ हद तक बरकरार है. वर्तमान में यह घर किसी की निजी संपत्ति है.
बांदा में गुनुंग आपी के पास किनारे पर धोया गया लकड़ी का पोत.
एवाई द्वीप में जायफल बागान का गेट जिस पर एक डच शब्द "वेलवरन" लिखा है जिसका अर्थ समृद्धि है.

2014 में फोटोग्राफर मोहम्मद फादली ने इंडोनेशिया में 12 द्वीपों के एक छोटे से द्वीपसमूह में से एक बांदा द्वीप का दौरा किया. 16वीं और 17वीं शताब्दी में इन द्वीपों को पश्चिमी औपनिवेशिक ताकतों ने इसके किनारे पर उगने वाले एक दुर्लभ मसाले, जायफल के लिए लड़ कर जीता था. कभी दुनिया में होने वाले मसाला व्यापार में एक महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले बांदा द्वीप को आज बड़े पैमाने पर बंजर छोड़ दिया गया है और लोगों की यादें से मिटा दिया गया है.

फादली और पत्रकार फाट्रिस एमएफ अपनी फोटोबुक दि बांदा जर्नल में लिखते हैं, “यूरोपीय ताकतों द्वारा सदियों तक शोषण किए जाने वाला यह दूरदराज द्वीप अब मानों अंधेरे में गुम हो गया हो, जैसे कि दुनिया के नक्शे से ही मिटा दिया गया हो." फोटोबुक दोनों की तीन साल की एक प्रोजेक्ट का परिणाम है, जिसमें दोनों ने द्वीप के अतीत के अवशेषों का पता लगाने और इसकी वर्तमान स्थिति का दस्तावेजीकरण करने के लिए बांदा की यात्रा की थी. सुमात्रा के मूल निवासी, फादली ने इतिहास की पुस्तकों में बांदा के बारे में थोड़ा बहुत पढ़ा था. लेकिन वह केवल द्वीपों के बार में सामान्य जानकारी थी. उन्होंने कहा, कि वह वास्तव में समझ गए थे कि दशकों के औपनिवेशिक शासन ने द्वीप के अतीत और वर्तमान को कैसे तैयार/परिभाषित किया था. उन्होंने महसूस किया कि यह एक दमदार कहानी थी जिसे बताया जाना चाहिए.

दि बांदा जर्नल में लिखा गया है कि, "ग्रेगोरियन कैलेंडर के उपयोग में आने से बहुत पहले से ही जायफल एक लाभकारी वस्तु थी जिसका महाद्वीपों के बीच व्यापार चलाता था." औद्योगिक युग के दौरान इसकी प्रसिद्धि शायद तेल और रबर के बराबर थी." 16वीं शताब्दी के यूरोप में जायफल उत्पादक को दी जाने वाली कीमत से 60000 गुना तक बेचा जाता था. हालांकि एक समय आया जब बांदा जायफल का एकमात्र उत्पादक नहीं रहा और मसाले का व्यापार भी उतना लाभदायक नहीं था. फादली ने कहा, "लोग बांदा के बारे में भूलने लगे और यह सिर्फ एक द्वीप बन कर रह गया." बांदा जर्नल का उद्देश्य बांदा में उपनिवेशवाद की छोड़ी गई छवि का दस्तावेजीकरण करना और इसके भूले हुए इतिहास को लोगों की नजरों में वापस लाना था. फादली ने बताया, "यहां तक ​​कि कई इंडोनेशियाई भी नहीं जानते कि ये द्वीप कहां हैं."

इस तरह का प्रयास क्यों महत्वपूर्ण है, इस पर विस्तार से बात करते हुए फादली ने कहा कि यह व्यक्तिगत और राष्ट्रीय पहचान दोनों का सवाल है. उन्होंने बताया, "इंडोनेशिया में बहुत सारे अलग-अलग द्वीप और वहां की अलग-अलग भाषाएं हैं, यहां का अतीत ही वास्तव में हमें एकजुट करता है. उपनिवेश होने का हमारा इतिहास ही हमें एकजुट करता है. यह एक राष्ट्र के रूप में हमारी पहचान से जुड़ा है. सामान्य आधार यहां का इतिहास है.” उन्होंने आगे कहा कि बांदा में जो हुआ वह उस राष्ट्र के इतिहास का "एक महत्वपूर्ण अध्याय" है. "मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से इसका लेना-देना मेरी खुद की एक इंडोनेशियाई के रूप में पहचान से है."

16वीं शताब्दी की शुरुआत में पुर्तगाली बांदा पहुंचने वाले पहले यूरोपीय थे लेकिन 17वीं शताब्दी में डचों ने पुर्तगालियों को भगा दिया और सैन्य बल के जरिए जायफल के व्यापार पर एकाधिकार जमाना शुरू कर दिया. इसके बाद अंग्रेजों ने भी व्यापार करने के लिए संघर्ष किया जिससे अंग्रेजों और डचों के बीच बांदा को उपनिवेश बनाने की होड़ मच गई.

बांदा में वर्तमान का परिदृश्य इतिहास की कई नजर आने वाली निशानियों से भरा है. फादली ने कहा, "जब आप बांदा में होते हैं तो अतीत से बचना बहुत मुश्किल होता है. यह हर जगह है. आप पुरानी तोपों और किलों को देखते हैं और देखते हैं कि कैसे आज भी लोग जायफल पर निर्भर रहते हैं." द्वीपों को चारों ओर से देखने के बाद फादली ने डच युग के पुराने घरों, सोलहवीं शताब्दी के किलों, सैन्य चौकियों को तोड़ने और एक फुटबॉल मैदान के बाहर की एक पुरानी तोप का का वर्णन किया. तोप पर अभी भी "वीओसी" अक्षर लिखे थे जो वेरेनिगडे ओस्टिनडिश कॉम्पैनी या डच ईस्ट इंडिया कंपनी का एक संक्षिप्त नाम है. फादली ने कहा, "आप इस छोटे से क्षेत्र में बहुत सारे किले देखेंगे. छह किले आज भी खड़े हैं, एक किले से आप दूसरे को देख सकते हैं. डचों ने वास्तव में द्वीप पर कब्जा करने की कोशिश की क्योंकि यह उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण था. यह बहुत पैसा कमाने का जरिया था.”

जब फादली और फाट्रिस ने अपना शोध शुरू किया तब उन्हें 1621 के नरसंहार के बारे में और अधिक जानकारी मिली, जिसमें स्थानीय प्रतिरोध को कुचलने के लिए डचों ने 2000 से अधिक बंदानी मारे थे. फादली ने बताया, नरसंहार के बाद कई बंदानी लोगों को निर्वासित कर दिया गया था और कुछ बांदा एली नामक एक अन्य द्वीप में भाग गए थे. इसके बाद डचों ने इंडोनेशिया के अन्य हिस्सों से लोगों को यहां लाकर बसाया फिर उनसे गुलामों और गिरमिटिया मजदूरों की तरह जायफल के बागानों पर काम काराया. फादली ने कहा, "आज यहां रहने वालों में से कई लोग बाहरी हैं." उन्हें यह देखकर हैरानी हुई कि वे "यहां के मूल निवासियों के इतिहास को भी अच्छी तरह से नहीं जानते हैं." उन्होंने आगे कहा कि उनकी यात्रा का मुख्य आकर्षण बांदा एली का दौरा था, जहां स्वदेशी बंदानी के वंशज आज भी रहते हैं. "उपनिवेशीकरण के सबसे बड़े प्रभावों में से एक मूल बंदानी लोगों पर पड़ा है. हम उनसे मिले और उनकी मातृभूमि के बारे में उनके गाने सुने और उन्हें भी रिकॉर्ड किया. बंदानी की सामूहिक स्मृति उनके गीतों में मौजूद है."

बांदा द्वीप समूह में उपनिवेशीकरण का इतिहास कई तरह से स्थानीय परंपराओं में दिखाई देता है. फादली ने बांदा नीरा में कैकले नामक एक स्थानीय समारोह का वर्णन किया जो एक तरह का युद्ध कला से मिलता जुलता नृत्य था. उन्होंने आगे बताया कि कुछ स्थानीय लोग इन समारोहों के दौरान पुर्तगाली सेना के हेलमेट जैसे हेलमेट पहनते हैं, अपनी उस जीत को मनाने के लिए जब उनके प्रतिरोध ने पुर्तगालियों को पीछे धकेलकर उनके कुछ हथियार और उपकरण जब्त कर लिए थी. फादली ने बांदा के 44 गांव के बुजुर्गों की कहानी भी सुनाई, जिन्हें डचों ने मार कर उनके सिर को डंडों पर लगा दिया था. उन्होंने बताया, "आज भी बांदा में स्थानीय समारोहों के दौरान आप एक बांस के खंभे को देख सकते हैं जो इसका प्रतीक है."

अपने शोध के दौरान फादली और फात्रिस ने पाया कि बांदा पर मौजूदा कई कथाएं पश्चिमी नजरिए से लिखी गई हैं. फादली ने कहा कि उन्होंने पाया कि बांदा पर अधिकांश लिखित रिकॉर्ड यूरोपीय लोगों द्वारा तैयार किए गए थे, जबकि इंडोनेशियाई स्वयं अपने आख्यानों को मौखिक रूप से बताते हैं. उन्होंने आगे बताया, "पश्चिमी लेखको के नजरिए से मासाल व्यापार पर लिखी गई किताबें खोजना बहुत आसान है, जो औपनिवेशिक शक्तियों को "नाटकीय और ग्लैमराइज" करती है. हम स्थानीय लोगों के नजरिए से दृष्टिकोण से कहानी बताना चाहेंगे."

फादली ने कुछ मौजूदा साहित्य को "नस्लवादी" बताया. उन्होंने कहा, "हमने इस प्रोजेक्ट की क्षमता/महत्ता को महसूस कर लिया था जो बंदानी समुदाय और उसके संघर्षों को सामने लान वाला था ताकि पाठक देख सकें, जान सकें, परिचित हो सकें कि उनके पूर्वजों के साथ हुआ था." हालांकि, फादली ने जोर देकर कहा कि बांदा की कहानी का दस्तावेजीकरण करने वाले एक इंडोनेशियाई के रूप में वह खुद को "एक ही समय में एक अंदरूनी और बाहरी व्यक्ति" दोनों महसूस कर सकते थे.

जब उनसे उनकी तस्वीरों और उनके प्रति दृष्टिकोण के बारे में पूछा गया, तो फादली ने अपने विस्तृत नजरिए पर जोर देते हुए कहा, "कहानी दृश्यों से अधिक महत्वपूर्ण है." हम दृश्यों की तुलना में जानकारी देने में अधिक रुचि रखते हैं. दृश्य स्पष्ट होते हैं, मेरे कैमरे के सामने जो था मैंने उसकी फोटो खिंचीं थी. इससे भी मुश्किल यह है कि कहानी को एक साथ कैसे पेश किया जाए. एक पूरी प्रोजेक्ट में मैं एक समुदाय की कहानी बताना चाहूंगा."

हालांकि लोगों की एक सम्मानजनक तरीके से तस्वीरें निकालना और उन्हें यह निर्णय लेने देना कि खुद को तस्वीर में कैसे देखना चाहते हैं यह चीज फादली के तस्वीर लेना का नजरिए व्यक्त करती है. उन्होंने बताया, "इस प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले मैं एक फोटो जर्नलिस्ट के रूप में काम कर रहा था. आप लोगों को बिना बताए उनकी तस्वीरें लेते हैं, कभी-कभी आपके लिए तस्वीरें लोगों की तुलना में ज्यादा जरूरी हो जाती हैं. मुझे एहसास होने लगा कि यह फोटो खिंचने का सही तरीका नहीं है." इस प्रोजेक्ट पर काम करते समय उन्होंने लोगों से पूछा कि क्या वे फोटो खिंचवाने में सहज हैं. हम उन्हें फोटो खींचने का उद्देश्य भी बताते हैं. लोगों को यह जानने का अधिकार है कि हम फोटो के साथ क्या करेंगे. अगर वे सहमत होते हैं तो हम फोटो खींचते हैं."

फादली ने भी लोगों की इच्छाओं को माना. उन्होंने बांदा के एक गांव के एक बुजुर्ग की कहानी सुनाई जिसकी पहली बार उसके घर पर फोटो खींची गई थी. "उन्होंने मुझसे कहा, 'तुम्हें यहां रात भर रहना चाहिए क्योंकि कल गांव में हमारा एक पवित्र समारोह होगा. समारोह के दौरान मेरी तस्वीर लेना ज्यादा बेहतर होगा.' मुझे उनका घर पर लिया फोटो बेहतर लगा लेकिन उन्होंने दूसरे को पसंद किया इसलिए हमने इसे किताब के लिए चुना. कभी-कभी एक फोटोग्राफर के तौर पर आपको लगता है कि यह सबसे अच्छी तस्वीर है लेकिन लोगों का एक अलग नजरिया होता है और हमें उसका भी सम्मान करना होगा क्योंकि यह उनकी ही तस्वीर है.” फादली ने कहा कि उन्होंने प्रोजेक्ट के लिए एक एनालॉग कैमरे का इस्तेमाल किया और फोटो का तुरंत मूल्यांकन करने में असमर्थ होने के कारण उन्हें समुदाय के साथ और अधिक गहराई से जुड़ने में मदद मिली. उन्होंने बताया, "मैं सिर्फ अपने कैमरे और तस्वीर के साथ ही व्यस्त नहीं रहा, मैंने लोगों के साथ और जगह-जगह घूमने में अधिक समय बिताया."

सबसे पहले दोनों ने वेबसाइट बना कर एक मल्टीमीडिया प्रोजेक्ट के रूप में काम करने पर विचार किया. फादली ने कहा, "बाद में हमारे पास इतनी सामग्री थी कि हमने इसको लेकर एक किताब बनाने का फैसला किया." पुस्तक के विकल्प को चुनने का निर्णय भी बड़े और अलग-अलग दर्शकों तक पहुंचने के उद्देश्य से किया गया था. उन्होंने बताया, "पुस्तक में अध्यायों के आगे बढ़ने के साथ ही बांदा का इतिहास भी आगे बढ़ता है. इसका दि बांदा जर्नल नाम रखने पर उन्होंने कहा, "हमारे पास यह विशेषज्ञता नहीं है कि इसे इतिहास की किताब होने का दावा कर सकें. हम यहां यह दावा नहीं करते कि हम इतिहासकार हैं. यह एक व्यक्तिगत यात्रा की तरह है. हमने जो देखा वह लिख रहे हैं. हम लोगों से बात करते हैं और उनके शब्दों को आवाज देते हैं."

फादली की एक तस्वीर में बांदा नीरा में एक गोदाम के ऊपर बनी जायफल के बीज की एक विशाल मूर्ति दिखाई देती है. फादली ने बताया, "मैंने इसकी तस्वीर लेने का फैसला किया क्योंकि यह लगभग जायफल के मंदिर जैसा है." उनके लिए यह इस बात को दर्शाता है कि जायफल बांदा के लोगों के जीवन के साथ कितना गहरा जुड़ा हुआ है. इसके साथ जुड़े विवादास्पद इतिहास के बावजूद यह लगभग पूज्य माना जाता है. उन्होंने कहा, "जायफल अभी भी बांदा में लोगों के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. कई अभी भी जायफल की खेती करके अपने घर और बच्चों की पढ़ाई का खर्च चलाते हैं." उन्होंने कहा अगर औपनिवेशिक शासन ने यहां सही तरह से निवेश किया होता तो बांदा में जायफल का कारोबार आज और अधिक समृद्ध हो सकता था. "डचों ने कभी द्वीप के विकास पर ध्यान नहीं दिया. उन्होंने बांदा से जायफल लिया लेकिन कभी कोई विकास का कार्य नहीं किया. बांदा को सिर्फ जायफल पैदा करने की जगह के तौर पर देखा जाता था.”

उन्होंने बताया कि जायफल के पौधे अंततः बांदा से निर्यात किए गए और एशिया के अन्य हिस्सों में लगाए गए. इन क्षेत्रों के आसपास जायफल से जुड़े अन्य व्यवसाय विकसित हुए, जैसे कि जायफल का तेल, बाम और कॉस्मेटिक उत्पादों का उत्पादन. लेकिन जायफल के मूल्य में गिरावट आने और उसे कम कीमत मिलने के बाद भी बांदा कच्चे जायफल के निर्यात पर निर्भर रहा.

फादली की एक और तस्वीर एवाई द्वीप पर जायफल के पुराने बागान के गेट को दर्शाती है जिस पर डच शब्द "वेलवरन" लिखा हुआ है जिसका अर्थ समृद्धि है. फादली ने कहा कि आज जो बांदा में घर नहीं खरीद सकते वे इसके परिसर में ही रहते हैं. तो यह एक मजाक ही है कि वेलवरन का अर्थ समृद्धि है. फादली कहते हैं, "मैं इधर-उधर घूम रहा था और गलती से इस गेट पर आ गया. यह शब्द बांदा की कहानी को सटीक तरीके से बताता है यानी डचों की समृद्धि, बांदा द्वीप के लोग नहीं.

(अनुवाद : अंकिता)