“8 अप्रैल को रात 10 बजे मेरी भाभी के दर्द शुरू हुआ,” अंबर मुझे उस रात के बारे में फोन पर बता रही थीं जब उनकी भाभी फौजिया शाहीन को प्रसव पीड़ा शुरू हुई थी. फौजिया और अंबर बनारस के मदनपुरा की रहने वाली हैं जो एक मुस्लिम बहुल इलाका है. पीढ़ियों से उनका परिवार बिनकारी पेशे से जुड़ा है जो बनारस को एक अलग पहचान देता है. यहां के बुनकरों की बुनी बनारसी साड़ियां पूरे भारत में मशहूर हैं.
अंबर ने बताया, “हमने यहां से लगभग 2 किलोमीटर गुरुधाम में स्थित डॉ. कविता दीक्षित के क्लीनिक में फोन पर भाभी की हालत की जानकारी दी तो वह डॉक्टर ने कहा, ‘आप उन्हें ले आइए’. वहां पहुंच कर मैंने दरवाजे की घंटी बजाई तो एक सिस्टर (नर्स) ने दरवाजा खोला और हमें अंदर आने से रोकने लगी. मैंने कहा ‘अभी-अभी कुछ समय पहले डॉक्टर से हमारी बात हुई है, आप उनसे बात कर लीजिए.’ वह बोली, ‘तुम लोग कोरोना लेकर आई हो. हमसे बहस मत करो और जाओ इनको बीएचयू (सर सुंदरलाल अस्पताल) ले जाओ.’ उन्होंने हमारी नहीं सुनी और जब हमने डॉक्टर को फोन लगाया तो उन्होंने रिसीव नहीं किया. हमने 108 नंबर (एम्बुलैंस सेवा का नंबर) पर फोन किया. जब एम्बुलैंस आई तो पुलिस ने हम चार लोगों में से सिर्फ तीन- भाभी, भैया और मुझे- उसमें जाने दिया. हमारे एक रिश्तेदार को लौटना पड़ा.”
अंबर अपने भाई के साथ भाभी फौजिया को लेकर वहां से 4 किलोमीटर दूर स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सर सुंदरलाल अस्पताल आईं और इमरजेंसी वार्ड से पर्ची कटा कर डॉक्टर से मिलीं. अंबर ने बताया कि फौजिया को देखने से पहले ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर ने पूछा कि वे लोग कहां से आए हैं और मदनपुरा सुनते ही गुस्से में आ गया. उसने उन लोगों को वहां से कम से कम 6 किलोमीटर दूर कबीर नगर चौराहा में स्थित शिव प्रसाद गुप्त मंडलीय जिला अस्पताल चले जाने को कहा. अंबर ने मुझे बताया, “मेरी भाभी का दर्द बढ़ता ही जा रहा था. वहां खड़ा गार्ड हम लोगों पर चिल्लाने लगा और हमें वहां से भगाने लगा. हम दोनों भाई-बहन ने सुंदरलाल के डॉक्टरों से मिन्नतें कीं लेकिन उन्होंने हमारी बिल्कुल नहीं सुनी. हमलोग एम्बुलैंस वाले के पास गए और उससे बोले कि ‘भाई, कबीर नगर चौराहा चलो’, तो वह बोला, ‘रैफर वाला पर्चा लाओ’. हम फिर डॉक्टर के पास गए. हमनें उनसे कहा कि वह हमें रैफर का पर्चा बना दें ताकि एम्बुलैंस वाला हमें वहां छोड़ सके लेकिन डॉक्टर ने मना कर दिया. उसने कहा, ‘हमनें आपकी भाभी को देखा ही नहीं तो रेफर कैसे बना दें?’”
फौजिया ने रात 2.30 बजे खुले आसमान के नीचे बच्चे को जन्म दिया. इस बीच फौजिया चीखती-चिल्लाती रही मगर “हमारी किसी ने नहीं सुनी. गार्ड हम लोगों को बार-बार डांट कर वहां से चले जाने को कह रहे थे. मैंने ही 3 बजे किसी तरह बच्चे की नाल काटी.”
अंबर ने बताया कि फिर उनके भाई का फोन डॉक्टर मुमताज को लग गया. मुमतात ने किसी को फोन किया जिसके बाद अस्पताल की एक नर्स आ कर फौजिया को जनरल वार्ड में ले गई. अंबर ने बताया, “उसने बच्चे को साफ किया और भाभी को एक टांका भी लगाया. भाभी जब दर्द से चिल्ला रही थी, तो वह नर्स बोली, ‘कुछ काम तो है नहीं सिवाए बच्चा पैदा करने के और यहां ले आई हो कोरोना फैलाने को.’ फिर वह बोली, ‘अब ले जाइए यहां से इनको’.”
अंबर को समझ नहीं आ रहा था कि डिस्पेंसरी वाला दवा देने में इतना वक्त क्यों ले रहा है. अंबर ने बताया, “डिस्पेंसरी वाले ने आधा घंटा लगा दिया दवा देने में और गार्ड बार-बार हमलोगों को डांट रहा था कि ‘तुम लोग यहीं हो अभी तक, गए नही यहां से. जल्दी निकलो.’” इसके बाद, अंबर ने कहा, “हम लोगों ने एक प्राइवेट एम्बुलैंस की, लेकिन वह बोला कि मदनपुरा तक नहीं जा सकता और हमलोगों को सोनारपुरा छोड़ देगा” सोनारपुरा मदनपुरा से 500 मीटर दूर है जहां से तीनों नवजात शिशु के साथ पैदल घर आए. घर पहुंचते-पहुंचते सुबह के 5.30 बज गए थे.
इस घटना के बारे में मैंने सर सुंदरलाल अस्पताल के मेडिकल सुपरिंटेंडेंट डॉक्टर एस. के. माथुर से बात की तो उन्होंने ऐसी किसी भी घटना की जानकारी होने से इनकार कर दिया. उन्होंने मुझसे फोन पर कहा, “हमारे लोगों ने इनको एटेंड किया है. ऐसा कुछ भी नहीं है. हम लोग तो कोरोना के मरीजों को भी भर्ती कर रहे हैं. ऐसे समय में कोई ऐसा नहीं कर सकता है.” मैंने गुरुधाम क्लीनिक की डॉक्टर दीक्षित को भी उनके लैंडलाइन और मोबाइल फोन पर कॉल किया लेकिन लैंडलाइन उठा नहीं और मोबाइल स्विचऑफ था.
फौजिया और अंबर बनारस के कोतवा, लोहटा, बजरडीहा, लल्लापुरा, मदनपुरा, पीलीकोठी, आलमपुर, अल्लापुर और चंदूपुर जैसे इलाकों के उन लाखों बुनकरों में से हैं जो लंबे समय से आर्थिक मंदी की मार तो झेल ही रहे थे और अब कोराना काल के सांप्रदायिक प्रॉपेगैंडा ने उन्हें पूरी तरह से तोड़ दिया है. फिलहाल यह पेशा और इससे जुड़े लोग अपने सबसे बुरे वक्त से गुजर रहे हैं.
25 मार्च से भारत भर में जारी लॉकडाउन में इनकी हालत और भी खराब हो गई थी. फिर 29 मार्च से मीडिया में शुरू हुए तबलीगी प्रॉपेगैंडा के बाद हिंदूवादी नेताओं ने कोरोना महामारी को सांप्रदायिक रंग देना शुरू कर दिया और बनारस के बुनकरों, जो अधिकांश मुस्लिम हैं, के साथ सामाजिक भेदभाव तीव्र हो गया.
मदनपुरा के बुनकर अब्दुला अंसारी ने मुझे बताया कि बुनकरों की हालत बहुत खराब है. उन्होंने कहा, “रोजी-रोटी का संकट तो पहले से था ही अब इनके सामने धार्मिक और सामाजिक संकट भी आ गया है.” अंसारी ने बताया, “बनारस में मोदी किट नाम से राशन बट रहा है लेकिन वह सिर्फ हिंदुओं को मिल रहा है यहां के बुनकरों को नहीं दिया जा रहा है.” अल्लाईपुरा के बुनकर मुमताज अंसारी ने मुझे बताया कि पहले कुछ समाजसेवी उनके मोहल्ले में राशन देने आते थे लेकिन जब से तबलीगी जमात का मामला उछाला जा रहा है, वे लोग नत्थी घाट, गोलगड़ा और शैलपुत्री के हिंदू बहुल मोहल्लों तक ही आते हैं.
बनारस के स्वतंत्र पत्रकार अतीक अंसारी, जिन्होंने बुनकरों पर काम किया है, ने मुझे बताया कि बुनकर समाज लंबे समय से मंदी का शिकार है. नोटबंदी के बाद वह अपनी स्थिति से उभर नहीं पाया था और सरकार ने भी उनके हालात पर ध्यान नहीं दिया.
बनारस के बुनकरों की बड़ी आबादी दिहाड़ी मजदूरी करती है. नोटबंदी से पहले इन बुनकरों की दिहाड़ी 500 से 600 रुपए थी जो नोटबंदी के बाद घट कर 300 रुपए रह गई है. फिलहाल बुनकार समाज को लॉकडाउन ने डरा दिया है. अतीक ने मुझे बताया, “बुनकरों के पास लंबे समय तक काम नहीं होगा. दुबारा काम मिलने में दो महीने या साल भर भी लग सकता है.”
अतीक ने कहा, “बुनकर सोचते थे कि त्योहार आने पर बिक्री बढ़ जाएगी और उनके हालात बदल जाएंगे. ऐसा भी नहीं हुआ बल्कि आर्थिक मंदी और कोरोना के साथ उनको सांप्रदायिक उत्पीड़न भी झेलना पड़ रहा है.”
बनारस के लल्लापूरा के बुनकर तौसीफ रजा ने मुझे बताया कि बुनकरों के पास लंबे समय से कोई काम नहीं है. उनकी आमदनी में बड़ी गिरावट आई है और उनके भूखे मरने की नौबत आ गई है. “नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद हमलोगों को मिलने वाली बिजली सब्सिडी खत्म कर दी गई जिससे हालत और भी खराब हो गई है.” रजा कहते हैं, “बिनकारी के काम में कई स्तरों का श्रम विभाजन होता है. इस पेशे में दूसरों के यहां बिनकारी करने वाले मजदूर, दूसरों से माल ला कर अपने घर काम करने वाले लोग और बड़े पावर लूम वाले लोग होते हैं. इसके अलावा साड़ी की पॉलिस, डिजाइन, कड़ाई, उस पर प्लास्टर चढ़ने और उसे फोल्ड करने वाले लोग होते हैं.”
रजा ने बताया कि सरकार ने दो साल पहले बुनकरों के लिए 500 करोड़ का बजट बनाया था लेकिन यह बजट पूरे देश के बुनकरों के लिए पर्याप्त नहीं है. “अभी जीएसटी आने से और भी नुकसान हुआ है. कच्चे धागे पर 5 प्रतिशत की जीएसटी लगने लगी है और तैयार माल पर 12 प्रतिशत की जीएसटी लगने लगी. इस से व्यापार में बहुत कमी आई.”
इसके अलावा, उत्तर प्रदेश सरकार ने बुनकरों को मिलने वाली बिजली सब्सिडी हटाने का फैसला किया है. “इसके हटने से बुनकरों को और परेशानी होगी. बुनकर इस लॉकडाउन में बुरी तरह टूट चुके हैं और अब यह भी नहीं बता सकते कि कितने समय बाद काम मिलेगा.”
बड़ी बाजार में रहने वाले बुनकर माहे आलम ने भी बताया कि उनका पूरा काम बंद हो गया है. “पहले जिस काम की मुझे 600 रुपए मजदूरी मिलती थी, अब उसी काम के लिए 300 रुपए मिल रहे हैं. मेरे पास कोई जमा पूंजी भी नहीं है और लॉकडाउन ने भूखों मरने के कगार पर ला दिया है.” आलम ने बताया कि उनको सरकारी राशन मिल रहा है लेकिन “खाने के अलावा भी कुछ और जरूरतें होती हैं जैसे बच्चों की पढ़ाई का खर्च, बीमारी में दवा. ये सब कहां से आएगा अगर हमारे पास काम ही नहीं होगा. जब अपने ही मोहल्ले में निकलता हूं हालात देखकर आंख भर आती है.”
बनारस के बजरडीहा, जहां ज्यादातर बुनकरों की आबादी है, के रहने वाले अताउल मुस्तफा ने मुझे बताया कि उनका इलाका हॉटस्पॉट में आता है. हॉटस्पॉट ऐसे इलाके हैं जिन्हें सरकार संक्रमण के संभावित खतरे के मद्देनजर चिन्हित करती है. मुस्तफा ने बताया, “इस समय कोई घर से बाहर नहीं निकल सकता. लोगों के घर राशन-पानी भी नहीं पहुंच रहा है और स्थिति बदतर होती जा रही है.” उन्होंने बताया कि पहले कुछ समाजसेवी मदद कर रहे थे लेकिन हॉटस्पॉट चिन्हित कर दिए जाने से उनका आना भी बंद हो गया है. “अब लोगों के पास जरूरी चीजें भी नहीं पहुंच पा रही हैं. इस लॉकडाउन के बाद अल्लाह ही जाने क्या होगा”, उन्होंने कहा.
बनारस के जिन बुनकरों से मैंने बात की उन सभी का मानना था कि लंबे समय से मुसीबतों का सामना कर रहा बुनकर समाज कोरोना लॉकडाउन से और बड़ी परेशानी में फंस गया है. अल्लापुरा बनारस के मुमताज अंसारी ने मुझसे कहा, “हमारी पूरी पूंजी नष्ट हो जाएगी इस लॉकडाउन में और हम आगे माल खरीद कर तैयार भी नहीं कर पाएंगे.” उन्होंने कहा, “ज्यादातर लोग इस बिनकारी को छोड़ रहे हैं. कोई ऑटो चलाने लगा है, कोई रिक्शा या ई-रिक्शा. बहुत से बाहर कमाने चले गए है.”