पत्रकारों और पड़ोसियों से भरे एक कमरे में हाजरा बानो बेबसी से अपने 19 साल के बेटे फिरोज अहमद गनई के बोलने का इंतजार करती रही. 22 सितंबर की दोपहर को सभी पत्रकार दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले के चंदगाम में गनई के घर इकट्ठा हुए थे. परिवार के मुताबिक, भारतीय सेना ने पिछले हफ्ते फिरोज को यातनाएं दी और परेशान किया था. जो कुछ हुआ था उसे ठीक-ठीक जाहिर करने में उसे काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही थी. यह देख उसकी 50 वर्षीय मां खुद ही बताने लगीं. बानो ने बताया कि 18 सितंबर को सेना की काउंटर-इंसर्जेंसी विंग राष्ट्रीय राइफल्स के सदस्यों ने उसके बेटे को गांव से कुछ किलोमीटर दूर तहाब सैन्य शिविर में यातनाएं दीं. "उन्होंने उसे एक कुर्सी से बांध दिया और कई बार उसके होंठों में सुइयां चुभोईं." इस दौरान फिरोज खामोशी से जमीन को घूर रहता रहा, उसका ऊपरी होंठ सूजा हुआ और बदरंग था और उसकी धंसी हुईं आंखें एकदम बेजान थीं.
बानो की 22 साल की बेटी ने बताया कि 14 सितंबर को वह अपने आंगन में बैठी थी और रोटियां बना रही थी, तभी सड़कों पर गश्त कर रहे सेना के जवान उनके गेट पर खड़े होकर चिल्लाने लगे और उन्होंने परिवार को बाहर आने को कहा. जब उसका बड़ा भाई इरफान अहमद गनई गेट पर गया, तो सशस्त्र बलों ने उसके साथ मारपीट की. फिर बानो ने कहा, "उन्होंने उसकी शर्ट उतारी और उसके सीने के बाल खींचे," यह बताते हुए वह सुबकने लगी. 22 वर्षीय बेटी ने हमें बताया कि वह तुरंत अपने भाई को बचाने के लिए गेट पर गई थी लेकिन "वे मुझ पर चिल्लाने लगे और मुझे अंदर भेज दिया." उसने कहा, "उसके बाद वे घर में घुस गए और मेरे भाई से उसके पहचान पत्र और फोन के बारे में पूछने लगे." सेना ने फिरोज के फोन और पहचान पत्रों को जब्त कर लिया. उसने आगे बताया "उन्होंने अगले दिन शिविर में आकर पहचान पत्र ले जाने के लिए कहा."
फिरोज बात करने से हिचकिचा रहा था लेकिन जैसे-जैसे रिपोर्टर उससे सवाल पूछते रहे, उसने साथ-साथ सिर हिलाया और घटना के बारे में खुलकर बताया. उसके हाव-भाव और चेहरे-मोहरे को देखकर यह समझा जा सकता था कि वह अभी भी इस घटना के आघात से उबरा नहीं है. उसने कहा, "मेरा पहचान पत्र उनके पास था इसलिए मुझे बार-बार वहां बुलाते." फिरोज के अनुसार, वह गांव के उन 8 आदमियों में से एक था, जिन्हें अपना पहचान पत्र लेने के लिए शिविर में बुलाया गया था. "हम सुबह 10 बजे जाते और शाम तक वहीं रुकते थे." फिरोज ने कहा कि जब वह 18 सितंबर को शिविर में गया तो उसे यातना दी गई. "उन्होंने मुझे एक कुर्सी से बांध दिया और मेरे साथ मारपीट की. मेरे होंठ में सुइयां चुभोईं." उसके बगल में ही बैठे फिरोज के पिता ने हमें बताया कि उन्हें शिविर से अपने बेटे को ले जाने के लिए कहा गया था. उन्होंने उस मंजर को याद करते हुए कहा, "जब मैं उसे सेना के शिविर से लाया, तो वह एक जिंदा लाश की तरह था."
चंदगाम के निवासियों के मुताबिक, सेना की कार्रवाई 11 सितंबर को तहाब शिविर में हुए एक ग्रेनेड हमले के जवाब में की गई थी. कोई इसके बारे में नहीं जानता था या इस बारे में कुछ भी बताने को तैयार नहीं था, लेकिन हमले के बाद संदिग्ध आतंकवादी कथित रूप से भाग गए थे. लोगों ने बताया कि तब से सुरक्षा अधिकारियों ने बेतरतीब ढंग से अपने पहचान पत्रों के लिए नौजवानों से पूछताछ शुरू कर दी और उन्हें शिविर में आने का हुक्म दिया. उन्होंने कहा कि नाबालिगों सहित लगभग एक दर्जन लोगों को बुरी तरह से पीटा गया था और गांव की कई औरतों ने परेशान किए जाने और डराने-धमकाने के बारे में बताया. "हम सारा-सारा दिन खौफ और बेचैनी में बिताते हैं. जब सेना गश्त करती है, तो हम सो नहीं पाते हैं," 22 वर्षीय महिला ने कहा.
बताया जाता है कि तहाब गांव का रहने वाला 15 साल का यवार अहमद भी उन लोगों में एक था जो सेना की क्रूरता का शिकार हुए थे. उसके परिवार वालों के मुताबिक, सेना द्वारा यातनाएं दिए जाने के बाद अहमद ने खुदकुशी कर ली. अपनी पहचान उजागर न करने वाली उसकी बहन ने कहा कि अहमद ने 16 सितंबर की रात को उसे बताया था कि सेना ने पिछले दिन उसे "पीटा और यातनाएं दी" और जैसा कि गनई के साथ हुआ था, उसे भी अपने दस्तावेजों को वापस लेने के लिए अगले दिन आने के लिए कहा था. अगले दिन अहमद ने अपने घर में पूरे दिन किसी से बात नहीं की. उस रात, जब उसे उल्टी होने लगी और उसकी तबीयत बिगड़ने लगी तो उसकी बहन ने परिवार को बताया कि शायद उसने जहर खा लिया है. दो दिन बाद श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में अहमद की मौत हो गई. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, सेना ने दावा किया कि आरोप "पूरी तरह से बेबुनियाद" थे और "लड़के को किसी भी तरह से हिरासत में नहीं लिया गया था और न ही यातनाएं दी गई थीं."
ग्रेनेड हमले के बाद चंदगाम में सघन गश्त चालू हो गई. गांव की कई औरतों ने हमें बताया कि उन्होंने अपने घरों के बाहर कदम रखना बंद कर दिया क्योंकि उन्हें अपनी सुरक्षा का डर था. 22 वर्षीय महिला ने हमें बताया कि सेना ने हमले के बाद के दिनों में इलाके के आदमियों से हर घर की औरतों के बारे में जानकारी मांगी थी. चंदगाम की रहने वाली 19 साल की राबिया जान ने कहा कि गांव की औरतों को सेना की यातनाओं का सामना करना पड़ता है. "सेना हमारे घरों में आती है और पूछताछ करती है. इस घर में कितनी औरतें हैं, वे क्या करती हैं, उनकी उम्र कितनी हैं?” जान ने आगे कहा, "अब हमारी सुरक्षा की गारंटी कौन दे सकता है?"
औरतें सितंबर के बाद से गांव के आसपास के सेब के बागों की कटाई करती हैं. 5 अगस्त के बाद से, जब भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म कर दिया और इस इलाके में नाकाबंदी कर दी, तो बागों पर जाने की गुंजाइश नहीं बची और चंदगाम के निवासियों के लिए ग्रेनेड हमले के बाद यह और भी कम हो गई. असल में, गांव के निवासियों में खौफ इस हद तक है कि औरतें यह देखने के लिए खिड़कियों से अक्सर झांकती हैं कि कहीं सेना के जवान घर में तो नहीं आ रहे. निवासियों ने आरोप लगाया कि सेना के लोग गश्त के दौरान उनके घरों के टीन के छप्परों और गेटों पर पत्थर फेंकते हैं. बानो ने कहा, "कोई भी यहां से पथराव नहीं करता है लेकिन वे हमें परेशान करने के लिए ऐसा करते हैं."
जान चंदगाम की उन दर्जनों औरतों में से एक हैं, जिन्होंने गांव में सेना की बढ़ती तैनाती के बाद से अपना घर नहीं छोड़ा है. "हम शाम को बाहर नहीं जा सकते," उसने कहा. “जब भी हम किसी चीज के बारे में बात करते हैं, तो वह सेना तक पहुंच जाती है. अगले दिन, वे आते हैं और हमसे पूछते हैं, तुमने ऐसा क्यों कहा था.” जान बारहवीं में पढ़ रही है और उसे इस साल बोर्ड परीक्षाओं में शामिल होना था. लेकिन फॉर्म जमा करने की आखिरी तारीख अगस्त में ही बीत गई और जान ने परीक्षाएं न देने का फैसला किया. उसने हमें बताया कि उसके पास कोई विकल्प नहीं था. जान ने कहा, “अगर मैं बाहर जाती हूं तो मुझे अपने भाई या पिता को साथ ले जाना पड़ता है, लेकिन वे भी सुरक्षित नहीं हैं. मैं अपने परिवार की जिंदगी को कैसे दांव पर लगा सकती थी? जब हम अपने पिता और भाइयों के बिना अकेले अपने घरों में नहीं बैठ सकतीं तो हम बाहर कैसे जा सकती हैं और परीक्षा फॉर्म जमा कर सकती हैं?"
भारतीय सेना से इस बारे में उनकी राय जानने के लिए भेजे गए ईमेल का कोई जवाब नहीं आया.
औरतों ने कश्मीर के अन्य इलाकों में यातनाएं दिए जाने और डराने की कहानियां भी सुनाईं. श्रीनगर के सौरा इलाके की 25 साल की फहमीदा वार ने हमें बताया कि 14 सितंबर को जब वह अपनी दो महीने की बेटी के लिए दवा खरीदने गई थी तो उसे 9 घंटे से ज्यादा समय तक हिरासत में रखा गया.
उस सुबह वह अपनी बहन और अपनी ननद के साथ दवाई लेने अस्पताल गई. अस्पताल में दवा न होने के चलते उन्होंने सौरा पुलिस स्टेशन के पास एक दूसरी दुकान में जाने का फैसला किया. उनके रास्ते में, वार और कुछ अन्य औरतों की एक सेब बेचने वाले के साथ बहस हो गई क्योंकि वह पिछली रात सौरा में हुई गिरफ्तारी के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराने के बजाय सेब बेच रहा था. जल्द ही, मौके पर भीड़ जमा हो गई और बहस के दौरान कुछ औरतों ने पास खड़ी गाड़ियों पर सेब फेंकना शुरू कर दिया.
"अचानक पुलिस मौके पर पहुंची और हमें पीटने लगी." उसने कहा कि उन्होंने उसकी ननद के पैरों पर डंडे से मारा और वह गिर गई. सभी भाग रहे थे कि एक पुलिस अधिकारी ने उसे पकड़कर खींच लिया, उसे पीटा और घसीटते हुए सौरा पुलिस स्टेशन ले गया. वार ने बताया कि पुलिस ने सभी औरतों पर हमला किया, लेकिन बस उसे ही हिरासत में लिया गया. वार ने यह भी बताया कि उसे पुरुष पुलिस अधिकारियों ने गिरफ्तार किया था और मर्दों के लॉक-अप में रखा गया जिसमें लगभग एक दर्जन मर्द मौजूद थे. वार की नन्हीं बच्ची को उसकी मां से अलग कर दिया गया था.
वार के मुताबिक, जब उसने पुलिस से अपनी बेटी को वापस करने की दरखास्त की या मिलने की ही इजाजत मांगी, तो उन्होंने उससे कहा, "अगर तुम्हारी बच्ची मर जाएगी तो उसे यहां ले आएंगे." वार ने बताया कि जब उसने विरोध किया तो उसे गंदी-गंदी गालियां दी गईं. पुलिस अधिकारियों द्वारा लॉक-अप में भी उसे पीटा गया. उसने कहा, "उन्होंने मुझे बताया कि वे मुझे किसी दूसरे राज्य में भेज देंगे."
वार के मुताबिक, जब उसकी ननद शगुफ्ता वार उसे बचाने और छुड़ाने के लिए थाने पहुंची तो पुलिस अधिकारियों ने उसे भी पीटा और "भद्दी-भद्दी गालियां" दीं. उसने हमें बताया कि उसकी बूढ़ी मां को भी एक पुलिस अधिकारी ने धक्का दिया. "तब से वह ठीक से चल नहीं पाती," वार ने कहा. सौरा के एंकर इलाके के काफी सारे स्थानीय लोगों ने जब इसके विरोध में थाने में हंगामा किया उसके बाद ही आखिरकार रात 8 बजे उसे छोड़ा गया. जम्मू-कश्मीर पुलिस ने इस पर अपनी राय बताने के लिए किए गए फोन कॉल और ईमेल का कोई जवाब नहीं दिया.
एंकर की कई औरतों ने हमें बताया कि जब भी उनके घरों में कोई मेडिकल इमरजेंसी होती है तो वे पुरुषों को घर पर रहने के लिए कहतीं हैं क्योंकि उन्हें डर लगता है कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा. फिर भी जैसा कि वार के साथ हुई घटना ने जाहिर किया, इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि औरतों को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा. सौरा की रहने वाली 30 साल की आबिदा वार ने मुझे बताया कि इस बार औरतों की भी अच्छी-खासी संख्या में गिरफ्तारी हुई और और उन्हें हिरासत में लिया गया. कश्मीर में पिछले सालों में हुई अशांति की घटनाओं के बीच यह एक नई चीज है. उन्होंने कहा, "सुरक्षा बलों को लेकर अब हमारे जेहन में एक अजीब तरह का खौफ है. हम हमेशा असुरक्षित महसूस करते हैं."