5 अगस्त को नरेन्द्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 को हटा कर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया. इसके बाद सरकार ने क्षेत्र में संपर्क पर रोक लगा दी जो फिलहाल जारी है. सरकार दावा कर रही है कि क्षेत्र में स्थिति सामान्य है और जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोग उसके फैसले से खुश हैं.
कारवां लेखों की अपनी श्रंख्ला “ये वो सहर नहीं” में पूर्ववर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले लोगों की आवाज को संकलित किया. इसी की चौथी कड़ी में पेश है मुंबई में शोध कर रहीं कश्मीरी छात्रा हफ्सा सईद का नजरिया.
5 अगस्त की घटना आघा शाहिद अली की कविता “द कंट्री विदआउट पोस्ट ऑफिस” में कही बातों जैसी थी. कश्मीर में खबरों पर पाबंदी लगी है और यह रोक नई मामूलियत बन गई है. बाहरी दुनिया से कश्मीर को जोड़ने वाले तार बेरहमी से काट दिए गए हैं.
5 अगस्त के आठ दिन बाद मैं कश्मीर में अपने परिवार से बात कर पाई. मेरे छोटे भाई ने पुलिस स्टेशन से मुझे फोन किया था लेकिन लफ्जों को बेहद कंजूसी से खर्च करते हुए उसने मुझसे कहा, “हम ठीक हैं, तुम अपना ख्याल रखना” और फोन काट दिया. इसके 12 दिनों बाद उनसे दुबारा बात हो पाई. अब बातचीत रुक-रुक कर होती है. अब अक्सर मुझे अंग्रेजी की एक कहानी याद आती है कि “जवाबी खत जब तक मिलता जज्बात बदल गए.” आज हम ऐसे ही एहसास को जी रहे हैं. हम अपने एहसासों को थाम कर रखने को मजबूर कर दिए गए हैं.
शुरुआती दिन बिखरे-बिखरे से थे. उनके एहसास का दर्द कम नहीं हुआ है लेकिन धीरे-धीरे हम बदली हुई हकीकत को “मानने” लगे हैं जिसमें शामिल है अपने घरवालों से बात न कर पाना भी. हमारे दिलों में जो गुस्सा है उसके साथ जीना सीखना होगा हमें.
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