पेशे से दुकानदार 20 साल के रेहान अली को याद है कि 7 मार्च को दिल्ली पुलिस ने उनके परिवारवालों को कैसे गिरफ्तार किया, “वे बिना वर्दी के कम से कम दस से बारह आदमी थे. वर्दी में कोई नहीं था. उनमें से दो के पास बंदूक थीं. दरवाजे की घंटी बजाए बिना वे सीधे घर में घुस आए.” रेहान उत्तर दिल्ली के न्यू मुस्तफाबाद क्षेत्र के एक छोटे से इलाके मूंगा नगर में गली नंबर 4 में रहते हैं. उस शाम शाम 5 से 5.30 बजे के बीच, पुलिस ने उनके बड़े भाई रियासत अली और पिता लियाकत अली को फरवरी के अंतिम सप्ताह में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया. 7 मार्च तक दिल्ली पुलिस ने 693 मामले दर्ज किए थे और हिंसा के लिए 2193 व्यक्तियों को हिरासत में लिया या गिरफ्तार किया था. हिरासत में लिए गए या गिरफ्तार किए गए लोगों की धार्मिक पहचान का कोई आधिकारिक डेटा उपलब्ध नहीं है. हालांकि स्थानीय लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों ने बताया है कि बड़ी संख्या में मुस्लिम पुरुषों को हिरासत में लिया गया है.
बाबरपुर के कबीर नगर के रहने वाले और किराने की दुकान चलाने वाले मुस्तकीम ने 8 मार्च को मुझे बताया, "वे रोजाना हमारे इलाके से दो-चार लोगों को उठा रहे हैं." उनके भाई मोहम्मद शमीम को उस दिन उठा लिया गया था और शाहदरा में वेलकम पुलिस स्टेशन ले जाकर रात भर हिरासत में रखा गया. मुस्तकीम को अपने भाई को देखने या यहां तक कि पुलिस स्टेशन में घुसने तक की इजाजत नहीं दी गई और अगले दिन उनके परिवार को बताया गया कि शमीम पर क्षेत्र में हिंसा से संबंधित विभिन्न आरोपों के तहत मामला दर्ज किया जाएगा. अली के परिवार सहित हफ्ते भर जिससे भी मैंने बात की उसने वही कहानी दोहराई जो मुस्तकीम ने मुझे बताई.
जब मैं 7 मार्च को रात 8 बजे के करीब रेहान से मिला तो उन्होंने मुझे बताया कि पुलिस ने कहा था कि रियासत और लियाकत को "पूछताछ" के लिए उठाया गया है. परिवार को गिरफ्तारी के बारे में कोई भी जानकारी देने से इनकार कर दिया गया और एक अधिकारी ने उन्हें किसी जानकारी के लिए लगभग चौबीस किलोमीटर दूर आश्रम के पास स्थित सनलाइट कॉलोनी पुलिस स्टेशन जाने के लिए कहा. रेहान अपने पिता और चार बड़े भाइयों के साथ प्लास्टिक शीट का व्यवसाय चलाते हैं और दुकान के ऊपर की मंजिलों में उनका परिवार रहता है. उस दिन स्थानीय समुदाय के बुजुर्गों से लेकर किशोरों तक, कम से कम, 20 पुरुष वहां इकट्ठा थे. वे पुलिस से संपर्क करने और गिरफ्तार किए गए लोगों के बारे में पूछताछ करने की रणनीति बना रहे थे और उन्हें डर था कि अगर वे सनलाइट पुलिस स्टेशन गए तो उन्हें भी हिरासत में ले लिया जाएगा. अली परिवार के साथ नफीस नाम के इलाके के एक तीसरे व्यक्ति को भी उठाया गया था. लगभग बीस साल के नफीस उसी गली में रहते हैं और एक डेयरी में काम करते थे.
आधे घंटे बाद जब मैं पुलिस स्टेशन के लिए रवाना हो रहा था, लियाकत के बहनोई, इलियास अली और एक पड़ोसी कामुरुद्दीन ने मेरे साथ चलने की बात कही. उन्होंने बताया कि एक पत्रकार की मौजूदगी में पुलिस से मिलने में आसानी होगी. सभी पुरुषों ने इस बात पर सहमति में सिर हिलाया. नफीस के परिवार में पुलिस का डर समाया हुआ है. स्थानीय निवासी और एक सामाजिक कार्यकर्ता यूनुस सलीम, जो समुदाय के साथ मेलजोल का काम करते हैं और जिन्होंने मुझे अली परिवार की स्थिति के बारे में सूचित किया था हमारे साथ चलने के लिए आश्वस्त थे. उन्हें भी पुलिस का डर था.
गली नंबर 4 में दिल्ली पुलिस का जो भय और अविश्वास एक नए सिरे से उभरा है, वही पैटर्न उत्तर पूर्वी जिले के मुस्लिम इलाकों में दिखता है. 1 से 9 मार्च के बीच मैंने मुस्तफाबाद, खजूरी खास, कर्दमपुरी, कबीर नगर, चांद बाग, जाफराबाद, मौजपुर, बाबरपुर और सीलमपुर के इलाकों का दौरा किया और इन सभी क्षेत्रों में स्थानीय लोगों ने बताया कि उन्होंने खुद दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा द्वारा दर्जनों लोगों को गिरफ्तारी किए जाते और कैद किए जाते देखा है.
लेकिन सिर्फ हिरासत और गिरफ्तारी की वजह से ही मुस्लिम निवासी खौफ के माहौल में नहीं हैं.
दिल्ली पुलिस द्वारा मनमाने तरीके से लोगों को हिरासत में रखना समुदायों के लोगों के लिए एक दुःस्वप्न बन गया है जो बमुश्किल अभी सामान्य स्थिति में लौट रहे हैं. पुलिस एक परिवार के एक पुरुष सदस्य को उठाकर दूसरे सदस्य को पुलिस के सामने पेश होने के लिए मजबूर करने जैसे हथकंडे अपना रही है. इसके अलावा पुलिस ने परिवारों, वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के साथ कोई भी विवरण साझा करने से इनकार किया है. सभी मामलों में यह बात आम थी कि लंबे समय तक कानूनी सहायता और परिवार के सदस्यों से मुलाकात करने की इजाजत नहीं दी जा रही. कुछ उदाहरणों में, पुलिस ने उन पुलिस थानों को बंद कर दिया जहां हिरासत में लिए गए लोगों को रखा जा रहा था और परिवारों को सूचित किए जाने से पहले सरकार समर्थक मीडिया घरानों के साथ जानकारी साझा की जा रही थी. निवासियों ने मुस्लिम समुदायों के पुरुषों की प्रोफाइलिंग किए जाने की शिकायत की. बातचीत में लोगों ने बताया कि पूर्वी दिल्ली में कम से कम तीन अन्य पुलिस स्टेशन- खजूरी खास, दयालपुर और वेलकम- में इसी तरह की रणनीति अपनाई जा रही थी.
27 फरवरी को दिल्ली पुलिस ने हिंसा से संबंधित सभी मामलों की जांच के लिए दो विशेष जांच दल बनाए. राजेश देव और जॉय तिर्की, दोनों पुलिस उपायुक्त एसआईटी का नेतृत्व संभाल रहे हैं. अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (अपराध शाखा) बीके सिंह एसआईटी देख रहे हैं. एसआईटी के संविधान के तहत दोनों की एक छोटी प्रोफाइल में, द वायर ने बताया कि देव और तिर्की को "अपनी जांच में सरकार समर्थक समूहों का समर्थन करने के लिए जाना जाता है." 15 दिसंबर 2019 को जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों पर पुलिस की कार्रवाई में भी देव जांच के प्रभारी हैं और तिर्की 5 जनवरी की रात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए हमले की जांच का नेतृत्व कर रहे हैं.
मैंने स्थानीय निवासियों और उन परिवारों से बातचीत की जिनके पुरुष सदस्यों को पिछले सप्ताह में कई बार गिरफ्तार या हिरासत में लिया गया और पूछताछ की गई. इनके अलावा सामाजिक कार्यकर्ता और वकील जो 26 फरवरी से सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों की मदद के लिए स्वेच्छा से काम कर रहे थे उनका भी साक्षात्कार लिया. लगभग सभी ने मुझे बताया कि अपराध शाखा बड़ी संख्या में मुस्लिम पुरुषों को हिरासत में ले रही है और गिरफ्तार कर रही है. 7 मार्च को मैंने पहली बार अली परिवार के डर, चिंता, अपमान और असहायता को देखा और उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने महसूस किया कि अगला नंबर उनका हो सकता है.
मैं रात 8 बजे के आसपास रेहान के घर पहुंचा. सलीम ने मुझे यह बताने के लिए फोन किया कि पुलिस ने इलाके के कुछ लोगों को उठाया है और निवासियों को पुलिस के पास जाने से डर लग रहा है. रेहान ने बताया कि पुलिस उनके पिता और सबसे बड़े भाई को ढूंढ रही थी. जब पुलिस आई उस वक्त लियाकत घर पर नहीं थे. वह नमाज अता कर रहे थे. रेहान ने कहा कि पुलिस पहले उनके भाई रियासत को ले गई और कहा था कि उसे पूछताछ के बाद छोड़ दिया जाएगा. उन्होंने बताया कि पुलिस ने उन्हें यह बताने से मना कर दिया कि पुरुषों को क्यों हिरासत में लिया गया. उसके बाद पुलिस रियासत को ताहिर हुसैन के घर ले गई. हिंसा के दौरान मारे गए एक खुफिया विभाग के कर्मचारी अंकित शर्मा की हत्या में कथित संलिप्तता के लिए क्राइम ब्रांच ने 28 फरवरी को आम आदमी पार्टी के स्थानीय पार्षद ताहिर हुसैन को गिरफ्तार किया था. हुसैन का घर, जिसे 26 फरवरी को ही सील कर दिया गया था, रेहान के घर से बमुश्किल 200 गज की दूरी पर है.
रेहान ने मुझे बताया कि रियासत को ले जाने के कुछ ही मिनटों बाद उसके पिता लियाकत घर लौट आए. रियासत को उठाने वाले दो पुलिस कर्मी वापस आए और लियाकत को भी ले गए. रेहान ने मुझे बताया कि वह गिरफ्तारियों से इतना हैरान था कि उन्हें होश संभालने और उन लोगों का पीछा करने में कुछ समय लगा, जो मूंगा नगर की तंग गलियों में उनके पिता को ले जा रहे थे. "24 और 25 फरवरी को दंगों के दौरान दो दिनों तक हम अपने घरों में बंद थे, जबकि दंगाई भीड़ हमारी लेन और मुख्य सड़क पर घूम रही थी," रेहान ने मुझे बताया. "मुझे नहीं पता कि पुलिस ने मेरे परिवार को क्यों उठाया." उन्होंने कहा कि जैसे ही वह मुख्य सड़क पर निकले, उन्होंने देखा कि उनके पिता और भाई को नफीस के साथ एक पुलिस वैन में धकेला जा रहा है. पुलिस नफीस के भाई की तलाश में आई थी, लेकिन वह उस समय आसपास नहीं था, इसलिए पुलिस ने नफीस को हिरासत में लिया, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उसका भाई पूछताछ के लिए खुद आ जाएगा. रेहान वैन के पीछे भागा लेकिन गाड़ी आगे बढ़ गई.
उस समय तक यह बात पड़ोस में फैल गई थी. अन्य निवासियों ने उसे बताया कि क्राइम ब्रांच का कार्यालय सनलाइट कॉलोनी पुलिस स्टेशन में भी था. उन्होंने बताया कि सादे कपड़े वाले कर्मचारी अपराध शाखा से थे.
समाचार चैनल आजतक को देखते हुए रेहान के घर पर, कई युवा उनके फोन पर नजरें जमाए हुए थे. उनमें से कुछ ने मुझे बताया कि रियासत और लियाकत को हिरासत में लिए जाने के एक घंटे बाद, टेलीविजन चैनल ने एक टिकर चलाया था जिसमें कहा गया था कि उन्हें शर्मा की हत्या के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था. हफ्ते भर से आजतक हिंसा के फुटेज चला रहा था और प्रभावित इलाकों के मुस्लिम निवासियों के चेहरों को रोक-रोक कर दिखा रहा था. निवासियों ने कहा कि समाचार चैनल केवल मुसलमानों को पथराव करते हुए दिखा रहे थे लेकिन हिंदू भीड़ को नहीं दिखा रहा थे. उन्हें शर्म और अपमान की गहरी आशंका थी कि किसी दिन, उनके चेहरों को न्यूज चैनल पर दंगाइयों के रूप में दिखाया जाएगा. रेहान के घर पर मौजूद लोगों में से एक बुजुर्ग ने बताया, ''लियाकत साहब ताहिर के पिता के साथ कभी-कभी हुक्का पीते थे. हम सभी पड़ोसी हैं.” उन्होंने कहा कि इस नजदीकी का उपयोग समाचार चैनलों द्वारा स्थानीय निवासियों की छवि को दंगाइयों के रूप में विकृत करने के लिए किया जा रहा था. अधिकांश निवासियों ने मुझे यह विश्वास करने के लिए कहा कि जिन व्यक्तियों की तस्वीरें समाचार चैनलों पर दिखाई गई थीं, उन्हें इसी तरह फंसाया गया था.
जैसे ही मैं सनलाइट कॉलोनी पुलिस स्टेशन जाने के लिए तैयार हुआ, मुझे एक वकील का फोन आया जो हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में निवासियों को कानूनी सहायता प्रदान कर रही थीं. वह नहीं चाहतीं की उनकी पहचान उजागर हो ताकि जिन पुरुषों की वह मदद कर रही थीं उनको बचाया जा सके. उस रात, वह खजूरी खास पुलिस स्टेशन में थीं. खजूरी खास के एक बुजुर्ग को 7 मार्च की दोपहर को उठाया गया था और वह उनसे मिलने की कोशिश कर रही थीं. उन्होंने कहा कि पुलिस उनके बेटे की तलाश में आई थी, जो आसपास नहीं था, और उसके बजाय वृद्ध को हिरासत में ले लिया. वह लंबे समय से पुलिस स्टेशन में थीं लेकिन बूढ़े व्यक्ति से मिलने नहीं दिया जा रहा था. "पुलिस इतने दुश्मनाना ढंग से व्यवहार कर रही है कि ऐसा लगता है जैसे वे मुझे भी हिरासत में ले लेंगे. न तो वे मुझे कुछ बता रहे हैं, न ही वे मुझे अंदर जाने दे रहे हैं,” वकील ने मुझे फोन पर बताया.
सनलाइट कॉलोनी पुलिस स्टेशन में पहुंच कर स्थिति स्पष्ट हुई कि पहचान न उजागर करने का अनुरोध करने वाली वकील ने मुझे क्या कहा था. पुलिस स्टेशन को बंद कर दिया गया था और कम से कम आधा दर्जन वर्दीधारी पुरुष अंदर से बंद फाटक पर पहरा दे रहे थे. जो भी गेट के करीब आता था, उस पर चिल्लाया जा रहा था और गेट से कम से कम 200 गज दूर रहने को कहा जा रहा था. जब इलियास, कामुरुद्दीन और सलीम ने गेट तक पहुंचने और पुलिसवालों से बात करने की कोशिश की, उन्हें दुत्कार दिया गया. इलियास पुलिस से गुहार लगाता रहे थे कि उसके परिवार को अंदर बंद कर दिया गया है और वह उनसे मिलना चाहते हैं लेकिन उन्होंने एक न सुनी और उन सभी को कम से कम 100 गज दूर धकेल दिया. निचली अदालत में वकील सादुज्जमान इलियास की मदद करने आए थे. उन्हें भी बंद पुलिस स्टेशन से दूर जाने और 200 गज की दूरी पर रहने के लिए कहा गया. अंत में एक पुलिसवाले ने मुझे देखा, मेरे पास आया और मुझे चले जाने के लिए कहते हुए धमकी दी, "यह आपके लिए बेहतर होगा, यहां से दूर चले जाएं." जब मैंने उन्हें बताया कि मैं एक पत्रकार हूं, तो उन्होंने अपनी बात दोहराई. दो अन्य पुलिस वालों ने गेट के अंदर से मुझ पर चिल्लाना शुरू किया, "चले जाओ, बहस मत करो."
मैं वहां से चला आया और सादुज्जमान के साथ जा कर खड़ा हो गया. “यह किस तरह का कानून है? एक वकील भी पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ा नहीं हो सकता. वे जानते हैं कि वे हमें धमका सकते हैं क्योंकि इससे उन पर कोई असर नहीं पड़ेगा,” उन्होंने मुझे बताया. उन्होंने फिर से पुलिस से बात करने का फैसला किया. वह गेट तक गए और एफआईआर या गिरफ्तारी वॉरेंट की प्रति मांगी. “आप मुझे कुछ नहीं बता रहे हैं. कम से कम एफआईआर दें या मुझे गिरफ्तारी वॉरेंट दिखाएं. आपको पता है कि गिरफ्तारी वॉरेंट अनिवार्य है,” उन्होंने पुलिसवालों से कहा. एक बार फिर, सादुज्जमान को गेट से दूर भगा दिया गया. पुलिसवालों में से एक उन पर चिल्लाया, “तुम किस तरह के वकील हो? तुम कुछ भी नहीं जानते. क्या आरोपी को कभी एफआईआर सौंपी जाती है? यह दिया नहीं जाता है, गिरफ्तारी वॉरेंट भी नहीं दिया जाता है. यहां से चले जाओ.” उस रात तकरीबन 11.10 बजे तक सदुज्जमान और मैं थाने के बाहर खड़े रहे. रात भर उन्हें लियाकत या रियासत से मिलने या पुलिस से बात करने की इजाजत नहीं मिली.
टकराव के तुरंत बाद, इलियास और कामुरुद्दीन को लियाकत और रियासत से मिलने के लिए अंदर जाने दिया गया. सादुज्जमान को फिर से अंदर जाने से मना कर दिया गया. इस दौरान मैंने पुलिस को कम से कम तीन अन्य परिवारों को वहां से दूर हटाते देखा, जो अपने परिवार के सदस्यों के बारे में पूछ रहे थे, जिन्हें उसी शाम हिरासत में लिया गया था. तीनों समूहों में केवल महिलाएं शामिल थीं- परिवारों के पुरुष इस डर से दूर थे कि उन्हें भी गिरफ्तार किया जा सकता था. इन परिवारों में जुनैद अहमद भी शामिल थे. अहमद ने दुबई में काम किया था और हिंसा शुरू होने से दो हफ्ते पहले सनलाइट कॉलोनी में अपने घर लौट आए थे. सनलाइट कॉलोनी दक्षिण-पूर्वी दिल्ली में पड़ती है, जबकि हिंसा शहर के उत्तर-पूर्वी इलाके तक सीमित थी. अहमद की नजरबंदी उनके परिवार के लिए उतनी ही रहस्यपूर्ण थी जितनी कि पहले से ही वहां मौजूद अन्य लोगों के लिए.
अहमद की बहन शाहीन हुसैन ने मुझसे कहा, "अभी हमें कुछ भी पता नहीं है. पुलिस ने कहा कि वे उसे कोरोनावायरस के कारण उठा रहे हैं.” यूएई में कोविड-19 के पहले मामले का पता चलने पर दुबई 29 जनवरी से अलर्ट पर है. शाहीन एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उन्होंने नागरिक कार्यक्रमों के लिए कई अवसरों पर दिल्ली पुलिस के साथ समन्वय किया था. वह अपने भाई के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए सिस्टम में मौजूद अपने सभी संपर्कों को लगातार कॉल कर रही थीं. वह पुलिस से बात करने की कोशिश करती रहीं लेकिन उसे न तो अहमद से मिलने दिया गया और न ही यह बताया गया कि उसे क्यों हिरासत में लिया गया.
दिल्ली पुलिस ने दिसंबर 2019 में दिल्ली में सीएए के खिलाफ प्रदर्शनों के जवाब में इसी तरह की रणनीति अपनाई थी. उस महीने दिल्ली के उत्तरी जिले के दरियागंज थाने में बंदियों के परिवारों और वकीलों की इसी तरह से नाकाबंदी की थी. आधी रात के बाद जब वकील मजिस्ट्रेट से आदेश लेकर आए तब जाकर उन्हें बंदियों के लिए पुलिस स्टेशन में प्रवेश करने और चिकित्सा सहायता प्राप्त करने की अनुमति दी गई. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले का संज्ञान लिया, विशेष रूप से उस रात दरियागंज पुलिस स्टेशन में हिरासत में लिए गए नाबालिगों के संदर्भ में, और दिल्ली पुलिस से जवाब मांगा. लेकिन जैसा कि सादुज्जमान ने कहा, शीर्ष अदालत के निर्देशों का पुलिस पर कोई असर नहीं पड़ा और उसने कानून की अवज्ञा करना जारी रखा है.
थोड़ी देर बाद इलियास और कामरुद्दीन थाने से बाहर चले गए. इलियास ने मुझे बताया कि उसने पुलिस की मौजूदगी में लियाकत से बात की. उन्होंने उन पर चोट का कोई निशान नहीं देखा, लेकिन उन्हें उस बुजुर्ग व्यक्ति को देखकर बुरा लगा. "मैंने उनसे कहा, वह बहुत बूढ़े हैं, वह दंगों में कैसे लिप्त होंगे," इलियास ने कहा कि उन्होंने अंदर मौजूद पुलिसवालों से पूछा. पुलिस ने जवाब दिया कि लियाकत और रियासत "उपद्रवी" थे, इलियास ने कहा. पुलिस ने इलियास को एफआईआर सहित किसी भी कागजी कार्रवाई को दिखाने या देने से इनकार कर दिया. "उन्होंने मुझे कुछ नहीं दिया. बस कहा, कल अदालत में आओ. हम आपको जमानत के समय एफआईआर देंगे.”
इससे पहले कि परिवारों को एफआईआर की प्रतिलिपि प्राप्त हुई होती या इस बारे में सूचना प्राप्त हुई होती कि लियाकत और रियासत को किस अपराध में गिरफ्तार किया गया है, एएनआई जैसी सरकार समर्थक समाचार एजेंसियों ने लियाकत और रियासत की गिरफ्तारी की घोषणा पहले ही कर दी. इलियास, कामरुद्दीन, सलीम और मैं आखिरकार 11.15 बजे के आसपास स्टेशन से चले आए. पुलिस स्टेशन में जब तक मैं वहां मौजूद रहा किसी भी व्यक्ति को पुलिस स्टेशन के अंदर जाने की अनुमति नहीं दी गई, चाहे कोई आपातकालीन स्थिति हो या शिकायत दर्ज करने के लिए कोई व्यक्ति आया हो. इलियास को अगले दिन दोपहर बाद एफआईआर की एक प्रति सौंपी गई. रियासत और लियाकत पर दंगा, आगजनी, अभद्रता, लोक सेवक पर हमला तथा अन्य आरोप लगाए गए थे और उन्हें जेल भेज दिया गया था.
8 मार्च का दिन भी उत्तर पूर्वी दिल्ली के मुस्लिम इलाकों के लिए अलग नहीं था. मैंने उस वकील को फोन किया जो अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहती थीं और खजूरी खास में पहले हिरासत में लिए गए लोगों के बारे में पूछा. उन्होंने मुझे बताया कि बुजुर्ग को पूरी रात हिरासत में रखा गया था और 8 मार्च की सुबह रिहा किया गया. उन्होंने कहा कि उन्हें हिरासत में रखा गया था क्योंकि पुलिस को उनका बेटा नहीं मिला था जिसकी तलाश वे कर रहे थे. उन्होंने कहा कि जब पुलिस ने उस सुबह बूढ़े व्यक्ति को रिहा किया तो उसी शाम उसे फिर से बुलाया गया.
वृद्ध व्यक्ति की हिरासत के बारे में वकील ने जो कुछ मुझे बताया वह उसी पैटर्न पर आधारित था जिसके बारे में मुझे शोधकर्ता जया ने बताया था. जया सांप्रदायिक हिंसा के बाद गोकलपुरी पुलिस स्टेशन में हिरासत और गिरफ्तारियों का दस्तावेजीकरण कर रही हैं. जब मैंने 7 मार्च की दोपहर को उनसे बात की, तो जया एक मुस्लिम निवासी के साथ थीं, जो नष्ट कर दिए गए मदरसे के बारे में पुलिस में शिकायत दर्ज कराने से डर रहे थे. जया ने कहा कि पुलिस एक समुदाय विशेष को निशाना बना रही है और कानून के दायरे को लांघ कर ऐसा कर रही है. "क्योंकि वे किसी को भी कानूनी तौर पर 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रख सकते हैं, वे उस व्यक्ति को अंतिम क्षण में रिहा कर रहे हैं और फिर उसे दुबारा से उठा रहे हैं," उन्होंने मुझे बताया. उन्होंने यह भी कहा कि पुलिस यह पता लगाने लिए कि किसे हिरासत में लेना है मुस्लिम समुदाय के भीतर से ही मुखबिरों का इस्तेमाल कर रही है.
उस दिन मैं शाहीन के पास यह जानने के लिए पहुंचा कि उसके भाई जुनैद के साथ क्या हुआ था. शाहीन ने बताया कि वह और उनका परिवार पूरी रात अनिश्चितता और भय से पुलिस स्टेशन के बाहर खड़े रहे. "वे कहते रहे, 'हम उसे जाने देंगे, हम उसे जाने देंगे.' लेकिन सुबह उन्होंने हमें बताया कि जुनैद को अब उत्तर पूर्वी जिले की पुलिस को सौंप दिया जाएगा और हमें जाफराबाद जाना होगा,” शाहीन ने मुझे बताया. उन्होंने कहा कि इससे परिवार में घबराहट पैदा हो गई क्योंकि तब तक उन्होंने यह मान लिया था कि जुनैद को कोविड-19 के कारण संभावित तौर पर अलग-थलग करने के लिए हिरासत में लिया गया था. उन्होंने मुझे बताया कि वह जाफराबाद पुलिस स्टेशन गई. “वहां उन्होंने सभी फुटेजों का मिलान किया. फिर उन्हें जुनैद के खिलाफ कुछ भी नहीं मिला. जुनैद को आखिरकार 8 मार्च की शाम को रिहा कर दिया गया.
गिरफ्तारियां जारी रहीं. उसी शाम पुलिस ने बाबरपुर के कबीर नगर से मोहम्मद शमीम को उठाया. उनके भाई मुस्तकीम ने भी उसी तरह की घटनाओं का जिक्र किया जैसा अली परिवार ने बताया था. उन्होंने मुझसे कहा, “उन्होंने कुछ नहीं कहा. बस आए, हमें अपनी दुकान बंद करने को कहा और बोला कि हम आपसे बात करना चाहते हैं.'’ ये कहकर वे मेरे भाई को ले गए. मुस्तकीम ने मुझे बताया कि उनके भाई को वेलकम पुलिस स्टेशन में रखा गया था और वहां जाकर उसे देखने या स्टेशन में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी. वह भी इस बात से अनजान था कि शमीम को क्यों गिरफ्तार किया गया है. मुस्तकीम की मदद करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता साजिद मुजीब दिन भर पुलिस स्टेशन के बाहर खड़े रहे. उन्होंने मुझे बताया कि पुलिस ने उस दिन वेलकम स्टेशन पर कम से कम 12 लोगों को हिरासत में लिया था और उनमें से किसी को भी उनके परिवार या वकीलों से मिलने की अनुमति नहीं थी. शमीम पर अंततः वही आरोप लगाए गए थे जो अली परिवार पर लगाए गए थे और 9 मार्च को उन्हें जेल भेज दिया गया.
इस बीच, सलीम ने मुझे बताया कि 7 मार्च को, उसने चार लोगों को देखा था - एक चिकन की दुकान में काम करने वाला और दूसरा दिहाड़ी मजदूर और चारों चांद बाग से थे, जो खजूरी खास पुलिस स्टेशन में हिरासत में थे. 8 मार्च को उन्होंने मुझे फिर से बुलाया और मुझे बताया कि उस दोपहर, पुलिस ने मुस्तफाबाद में राजधानी स्कूल के प्रिंसिपल को उठाया था. दंगे के दौरान भीड़ द्वारा स्कूल को जला दिया गया था. मैं इन बंदियों को स्वतंत्र रूप से सत्यापित नहीं कर सका और वेलकम पुलिस स्टेशन से संपर्क करने के मैंने कई प्रयास किए जिनका मुझे कोई जवाब नहीं मिला.
उसी शाम, समाचार पत्र नेशनल हेराल्ड ने बताया कि दिल्ली पुलिस ने वेलकम स्टेशन पर जामिया के छह छात्रों को हिरासत में लिया है. जिस वक्त पुलिस ने छात्रों को उठाया उस वक्त वे कबीर नगर में एक फैक्ट फाइंडिंग अभियान पर थे. मैंने छात्रों में से एक शुमाइज नजर से बात की, जिन्होंने मुझे बताया कि जब पुलिस ने उन्हें मुस्लिम होने की वजह से हिरासत में लिया उस वक्त वे “दंगों के दौरान हुई क्षति की लागत का आकलन करने और लोगों के आघात को सुनने के लिए” चांद बाग जा रहे थे . नजर मास कम्यूनिकेशन के छात्र हैं. उन्होंने कहा कि उनका समूह मौजपुर मेट्रो स्टेशन पर उतरा और कबीर नगर की छोटी गलियों को नेविगेट करने की कोशिश कर रहा था - वे एक जंक्शन की तलाश कर रहे थे जहां से वे चांद बाग तक बैटरी रिक्शा ले सकें. उन्होंने कहा कि वह और उनके दोस्त केरल से थे और गलियों से अपरिचित थे, इसलिए वे गूगल मैप्स ऐप का इस्तेमाल कर रहे थे. उस समय, कम से कम आठ पुलिस कर्मी उनके पास गए और उन्हें वैन में डाल दिया.
छात्रों को वेलकम पुलिस स्टेशन ले जाया गया. "पुलिस स्टेशन में पुलिस ने हमारा मजाक उड़ाया क्योंकि हममें से कुछ इस्लामिक इतिहास पढ़ रहे हैं," नजर ने कहा. "वे हमारे कॉलेज की आईडी और आधार कार्ड भी ले गए." उन्होंने मुझसे कहा कि पुलिस के जवानों ने उनसे पूछा, "तुम्हें भी आजादी चाहिए क्या?" एक वकील के हस्तक्षेप के बाद शाम करीब 5 बजे छात्रों को रिहा किया गया. पुलिस ने समूह को फिर से क्षेत्र का सर्वेक्षण नहीं करने की चेतावनी दी. नजर जाकिर नगर में अपने दोस्तों के साथ एक अपार्टमेंट में रहते हैं. उन्होंने मुझे उस शाम लगभग 8 बजे बताया कि एक पुलिस कर्मी उनके फ्लैट पर आया और उनके मकान मालिक और पड़ोसियों से बात की कि वे वास्तव में छात्र हैं या नहीं.
मुजीब ने बताया कि दिल्ली पुलिस अपनी जांच में सलेक्टिव थी और केवल मुस्लिमों को गिरफ्तार कर रही थी. उन्होंने कहा कि आरोपी के कॉलम में "अज्ञात" भरकर कर दंगों की घटनाओं में दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज की गई कई एफआईआर को हजारों पुरुषों को गिरफ्तार करने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. मुजीब ने कहा, "जिस तरह से मैं इसे देखता हूं ... पुलिस हिरासत और गिरफ्तारी का इस्तेमाल मुस्लिमों पर अत्याचार करने के लिए कर रही है. वे उन्हें आधारहीन संदेह पर उठा रहे हैं, फिर उन्हें हिरासत में रखते हैं और उन्हें रिहा कर फिर से हिरासत में ले रहे हैं. एक तरह से यह पूरे मुस्लिम समाज को मानसिक यातना देने जैसा है.”