“अनुच्छेद 370 हटाना हमारे बुनियादी और संवैधानिक अधिकारों का कत्ल”, एक डोगरा हिंदू

5 अगस्त को नरेन्द्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 को हटा कर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया. इसके बाद सरकार ने क्षेत्र में संपर्क पर रोक लगा दी जो फिलहाल जारी है. सरकार दावा कर रही है कि क्षेत्र में स्थिति सामान्य है और जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोग उसके फैसले से खुश हैं.

कारवां लेखों की अपनी श्रंख्ला “ये वो सहर नहीं” में पूर्ववर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले लोगों की आवाज को संकलित किया. इसी की पांचवीं कड़ी में पेश है जम्मू की शोध छात्रा सुरभि केसर का नजरिया.

पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य के जम्मू क्षेत्र की हिंदू डोगरा होने के चलते हमारी परवरिश ऐसे माहौल में हुई जिसमें हम कश्मीर को अपनी जमीन तो मानते थे लेकिन कश्मीरी मुसलमानों को उसे हथिया लेने वाले लोगों की तरह देखते थे. हमें बताया जाता था कि हमारे पास आर्थिक अवसरों और राज्य में समाजिक योजनाओं की कमी के लिए कश्मीर, कश्मीरी मुसलमान और संविधान का अनुच्छेद 370 जिम्मेदार  हैं.  यह बातें तब भी होती थी जबकि हमारा राज्य प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक में सबसे ऊपर के राज्यों में से एक था. हाय! कितना आसान होता है लोगों के अंदर नफरत पैदा कर देना.

इन बातों असर जम्मू में पले-बढ़े मेरे जैसे अन्य लोगों के दिमाग पर भी हुआ.  मैं यह मानती हूं कि कश्मीरी लोगों के आत्म निर्णय के राजनीतिक अधिकार की मांग के सांप्रदायिक रंग ले लेने से जम्मू की जनता के अंदर कश्मीर विरोधी भावना पैदा होने में आसानी हुई. कश्मीरी पंडितों के खिलफ 1990 के दशक में हुई सांप्रदायिक हिंसा  ने इस भावना को और बल दिया.  एक हद तक मांग के सांप्रदायिक रंग ले लेने से भारत सरकार को राज्य के सैन्यकरण का मौका मिला. इसका परिणाम यह हुआ कि कश्मीरी मुसलमान विरोधी नैरेटिव को केवल जम्मू के लोगों ने ही नहीं बल्कि भारत की तमाम जनता ने राष्ट्र की अखंडता पर मंडरा रहे खतरे के रूप में देखा.

आज मेरे राज्य के पास अनुच्छेद 370 द्वारा प्रदान किया गया विशेष दर्जा नहीं है.  कर्फ्यू के बावजूद जम्मू के अधिकांश लोगों ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया. उनको लगता है कि अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिए जाने से उनकी आर्थिक समस्याएं खत्म हो जाएंगी और नौकरियां और आर्थिक समृद्धि आएगी. लोग यह क्यों नहीं समझते कि ऐसे राज्य जहां पर यह विशेष प्रावधान नहीं था वहां जम्मू-कश्मीर से ज्यादा गरीबी,  नौकरी की कमी और मानव  विकास सूचकांक नीचे है. इसकी गहराई से पड़ताल करने पर पता चलता है कि यह मामला  केवल आर्थिक तर्क-कुतर्क का मामला नहीं है.

इतिहास गवाह है कि राजनीतिक व्यवस्थाएं, समाज द्वारा उनसे सवाल पूछे जाने से बचने के लिए छद्म दुश्मन गढ़तीं हैं. यह बात हाल के घटनाक्रम में देखी जा सकती है. वर्तमान व्यवस्था ने लोगों की नाराजगी  के फट पड़ने से बचाव के लिए एक ऐसा झूठा दुश्मन तैयार किया है जो उसकी विफलता पर पर्दा डाल यथास्थिति बनाए रखता है. जम्मू-कश्मीर के मामले में  आत्म निर्णय की मांगों के सांप्रदायिक रंग ले लेने से ऐसे नकली दुश्मन को गढ़ने में मदद मिली. इससे राजनीतिक सत्ता के दुश्मन के खिलाफ लड़ने के दावे को मजबूती दी. यह तथाकथित कश्मीर मामले को पूर्व के दशकों में भी विभिन्न सत्ताधारी दलों ने राष्ट्रवादी भावना को भड़काने के लिए इस्तेमाल किया. अनुच्छेद 370 को हटाए जाने को, दुश्मन के खात्मे के लिए उठाए गए कठोर और निर्णायक फैसले की तरह दिखाया गया.

मैं सिर्फ अपनी बात कर सकती हूं. मैं नहीं कह सकती कि मैं डोगरा समुदाय की प्रतिनिधि हूं. लेकिन यह घटना मुझे खासतौर पर डराती है. निराशा होकर मैं सोचती हूं कि कैसे एक ऐसा नैरेटिव तैयार किया जा सका जिसके हवाले से पूरे क्षेत्र में एक महीने से अधिक समय से लगे घोषित या अघोषित कर्फ्यू का लोग जश्न मना रहे हैं. हम कैसे एक झूठे समृद्ध भविष्य का जश्न मनाकर स्वागत कर सकते हैं जबकि हमारे पड़ोसियों को खामोश किया जा रहा है?

मीडिया की सेंसरशिप भी इसके लिए एक हद तक जिम्मेदार है. जम्मू में बहुत से लोगों को लगता है कि कश्मीर में सब कुछ ठीक-ठाक है. लेकिन इस सबको केवल जम्मू के लोगों की मासूमियत या जहालत कहकर टाला नहीं जा सकता. यह डरावनी बात है क्योंकि यह इससे बहुत ज्यादा है. यह हमारे बुनियादी और संवैधानिक अधिकारों का कत्ल है. अगर कश्मीर में जो हुआ वह दमनकारी ताकत का प्रदर्शन है तो जम्मू इस सर्वसत्तावादी बिमारी का लक्षण. जम्मू से लेकर लद्दाख तक के हम कश्मीरी लोग एक लंबी राजनीतिक लड़ाई के मोहरे हैं जिनका इस्तेमाल दशकों से एक क्रूर खेल में किया गया.

ऐसा संभव है कि आने वक्त में जम्मू और भारत की जनता को यह महसूस हो जाए कि उन पर क्या लादा गया है. लेकिन मुझे इस बात की चिंता है कि जब तक हमें यह एहसास होगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी. हम उस उल्लू की तरह हैं जिसके बारे में जर्मनी के दार्शनिक हिगेल ने कहा था कि “जब रात हो जाती है तो वह अपने पंख खोलता है.”