कश्मीर में फासीवाद की दस्तक

अगस्त की शुरुआत में तालाबंदी के बाद श्रीनगर की सड़कों पर तैनात सुरक्षाकर्मी. अतुल लोक/द न्यूयॉर्क टाइम्स

15 अगस्त. भारत ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी की 73वीं वर्षगांठ मना रहा है और राजधानी दिल्ली के ट्रैफिक भरे चौराहों पर चिथड़ों में लिपटे नन्हे बच्चे राष्ट्रीय ध्वज और कुछ अन्य स्मृति चिह्न बेच रहे हैं, जिन पर लिखा है, ‘मेरा भारत महान’. ईमानदारी से कहें तो इस पल ऐसा कुछ महसूस नहीं हो रहा क्योंकि लग रहा है जैसे हमारी सरकार धूर्तता पर उतर आई है.

पिछले सप्ताह सरकार ने एकतरफा फैसला लेते हुए ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’, की उन मौलिक शर्तों को तार-तार कर दिया जिनके आधार पर जम्मू-कश्मीर की पूर्व रियासत भारत में शामिल हुई थी. इसकी तैयारी के लिए 4 अगस्त को पूरे कश्मीर को एक बड़े जेलखाने में बदल दिया गया. सत्तर लाख कश्मीरी अपने घरों में बंद कर दिए गए, इंटरनेट और टेलीफोन सेवाएं भी बंद कर दी गईं.

5 अगस्त को भारत के गृह मंत्री ने संसद में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त कर देने का प्रस्ताव रखा. यह अनुच्छेद ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’, में तय कानूनी दायित्वों को परिभाषित करता है. विपक्षी दल भी हाथ मलते रह गए. अगली शाम को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन एक्ट 2019 को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया.

इस एक्ट के माध्यम से जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जा समाप्त हो गया जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को अपना अलग संविधान और अलग झंडा रखने का अधिकार था. इस एक्ट के अनुसार जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनकर उसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया. पहला, जम्मू-कश्मीर जिसे केन्द्र सरकार द्वारा संचालित किया जाएगा, जिसके पास निर्वाचित विधानसभा तो होगी लेकिन उसके पास शक्तियां बहुत कम होंगी. दूसरा लद्दाख, इसे भी केन्द्र सरकार संचालित करेगी पर इसके पास अपनी विधानसभा नहीं होगी.

संसद में इस एक्ट के पारित होते ही, ब्रिटिश-परंपरा के अनुसार, मेज थपथपाकर इसका स्वागत किया गया. सदन में उपनिवेशवाद की बयार बह रही थी. हुक्मरान खुश हो रहे थे कि एक अक्खड़ उपनिवेश को, निसन्देह उसके अपने फायदे के लिए, आखिरकार शाही ताज के अधीन कर लिया गया है.

भारतीय नागरिक अब अपने इस नए अधिकार क्षेत्र में जमीन खरीद सकते हैं और वहां बस सकते हैं. इन नए प्रदेशों के दरवाजे व्यापार के लिए भी खुले हैं. देश के सबसे अमीर उद्योगपति- रिलायंस के मुकेश अंबानी ने शीघ्र ही कई नई घोषणाएं करने का वादा तक कर दिया है.

इस सबका असर लद्दाख और कश्मीर में स्थित हिमालय की नाजुक पारिस्थिकी, विशाल ग्लेशियरों वाले भूखंड, अत्यधिक ऊंचाई पर स्थित झीलों और वहां की पांच मुख्य नदियों पर क्या होगा- इसकी परवाह किसी को नहीं है.

प्रदेश के विशेष कानूनी दर्जे को खत्म करने से अनुच्छेद 35ए भी खत्म हो गया जिसके चलते वहां के निवासियों को वे हक और विशेषाधिकार प्राप्त थे जो उन्हें अपने प्रदेश का प्रबंधक भी बनाते थे. इसलिए, यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ‘व्यापार के लिए दरवाजे खोल देने’ का अर्थ वहां इजराइल की तरह बसावट या तिब्बत की तरह आबादी के तबादले के लिए दरवाजे खोल देना भी हो सकता है.

स्थानीय अखबारों के पेज डिजाइनर समीर अहमद, जिनकी आंखें और हाथ श्रीनगर में छर्रों से घायल हो गए. अतुल लोक/द न्यूयॉर्क टाइम्स

कश्मीरियों का सबसे पुराना और असल डर यही रहा है. उनका सबसे डरावना ख्वाब है कि उनकी हरी-भरी घाटी में एक अदद मकान की इच्छा रखने वाले विजयी भारतीयों का तूफान उन्हें बहाकर ले जाएगा, और यह आसानी से सच भी हो सकता है.

जैसे ही इस एक्ट के पारित होने का समाचार प्रचारित हुआ, हर तरह के भारतीय राष्ट्रवादी झूम उठे. मुख्यधारा का मीडिया, ज्यादातर इस निर्णय के समक्ष नतमस्तक दिखा. लोग गलियों में नाच रहे थे और इंटरनेट पर भयानक स्त्रीद्वेषी माहौल था.

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने राज्य के विषम लिंगानुपात को सुधारने संबंधी अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए मजाक किया, ‘हमारे धनखड़ जी कहते थे कि हम बिहार से लड़कियां लाएंगे. अब कहा जा रहा है कि कश्मीर भी खुला है, वहां से भी लड़कियां ला सकते हैं.’

इस तरह के असभ्य उत्सव के शोर-शराबे से कहीं ज्यादा– गश्त लगाते सुरक्षाबलों से भरी और बैरिकेडों से बंद गलियों और उनमें रहने वाले कैद और कांटेदार तारों से घिरे, करीब सत्तर लाख अपमानित कश्मीरी, जिन पर ड्रोन से लगातार चौकसी की जा रही है और जो बाहर की दुनिया से कोई संपर्क साध पाने की स्थिति में नहीं हैं, के सन्नाटे की आवाज आज सबसे ज्यादा बुलंद है.

सूचना के इस युग में, कोई सरकार कितनी आसानी से एक पूरी आबादी को बाकी दुनिया से कैसे काट भी सकती है. इससे यह पता लगता है कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं.

कश्मीर के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह ‘विभाजन’ के अधूरे कामों में से एक है. ‘विभाजन’- जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप के बीच में अत्यंत लापरवाही से एक लकीर खींच दी और यह मान लिया गया कि उन्होंने ‘संपूर्ण’ को विभाजित कर दिया है. सच यह है की ‘संपूर्ण: जैसा कुछ था नहीं.

ब्रिटेन के अधीन भारत के अतिरिक्त ऐसे सैकड़ों आजाद रजवाड़े थे जिनसे अलग-अलग मोल-तोल किया गया कि वे किन शर्तों पर भारत या पाकिस्तान के साथ जाएंगे. जो रियासतें इसके लिए तैयार नहीं थीं, उनसे जबरदस्ती मनवा लिया गया.

एक और विभाजन और उसके दौरान हुई हिंसा ने उपमहाद्वीप को पीड़ा और कभी न भर सकने वाले जख्म दिए, वहीं दूसरी ओर उस दौर की हिंसा और बाद के सालों में भारत और पाकिस्तान में हुई हिंसा का, कई इलाकों के अनुकूलन की प्रक्रिया से वैसा ही वास्ता है जैसा विभाजन से.

राष्ट्रवाद के नाम पर अन्य प्रदेशों की इस सम्मिलन अथवा अनुकूलन परियोजना का सीधा-सीधा अर्थ यह है कि 1947 के पश्चात कोई भी साल ऐसा नहीं गया जब भारतीय सेना को भारत में ही ‘अपने लोगों’ के विरुद्ध तैनात न किया गया हो: और यह सूची बहुत लंबी है– कश्मीर, मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर, हैदराबाद, असम.

अनुकूलन की प्रक्रिया न सिर्फ अत्यंत जटिल एवं पीड़ादाई रही है बल्कि इसने हजारों जानें भी ली हैं. आज पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर की सीमा के दोनों ओर जो हो रहा है वह अधकचरे अनुकूलन का नमूना है.

पिछले सप्ताह जो कुछ भारतीय संसद में हुआ वह ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ के अंतिम-संस्कार जैसा था. जटिल स्थितियों से उत्पन्न इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे पहले से ही भरोसा खो चुके हिंदू डोगरा राजा महाराजा हरि सिंह ने. उनकी अस्थिर और खस्ताहाल रियासत भारत और पाकिस्तान की नई सीमा के बीचों-बीच फंस कर रह गई थी.

1945 में उनके खिलाफ हुई बगावत ने जोर पकड़ लिया था और विभाजन की आग ने इसे और भड़का दिया. पुंछ के पश्चिमी पर्वतीय जिले के बहुसंख्यक मुसलमान, महाराजा की सेना और हिंदू नागरिकों से भिड़ गए और उधर दक्षिण स्थित जम्मू में महाराजा की सेना ने दूसरी रियासतों की फौज की मदद से मुसलमानों का कत्लेआम शुरू कर दिया.

इतिहासकारों और अन्य कई रिपोर्टों के अनुसार जम्मू और आसपास के शहरों की गलियों में 70000 से 200000 के बीच लोग मौत के घाट उतार दिए गए. जम्मू में हुए नरसंहार की खबर सुनकर उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेश के पर्वतों से उतरे पाकिस्तानी कबाइलियों ने कश्मीर घाटी में आगजनी और लूटपाट से हाहाकार मचा दिया.

कश्मीर में पाकिस्तानी सैनिकों से लड़ने के लिए आए भारतीय सैनिक. बैटमैन आर्काइव/गैटी इमेजिस

हरि सिंह कश्मीर से जम्मू दौड़े और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मदद के लिए गुहार लगाई. जिस दस्तावेज के तहत भारत की सेना कश्मीर में कानूनी रूप से दाखिल हो पाई, उसे ही ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ कहा जाता है. स्थानीय लोगों की मदद से भारतीय सेना ने पाकिस्तानी कबाइलियों को पीछे तो धकेल दिया, पर सिर्फ घाटी के मुहाने के पहाड़ों तक ही. इस तरह पूर्व डोगरा राज्य भारत और पाकिस्तान में बंट गया.

‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ नाम के इस दस्तावेज की, जम्मू-कश्मीर के लोंगों के बीच, एक जनमत संग्रह के माध्यम से उनकी राय लेकर पुष्टि की जानी थी. जिस जनमत संग्रह का वादा किया गया था वह कभी पूरा नहीं हुआ और इसी के साथ भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे अशिष्ट और खतरनाक राजनीतिक समस्या का जन्म हुआ.

तबसे बीते 72 साल में आई हर केन्द्र सरकार ने ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ की शर्तों के साथ तब तक खिलवाड़ किया जब तक यह सिर्फ दिखावे मात्र का नहीं रह गया. अब उस बचे-खुचे दिखावे को भी उठाकर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया है.

यहां तक आने में क्या जोड़-तोड़ हुए, उसका सार लिखने की कोशिश एक बेवकूफी ही होगी. सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि यह सब उतना ही जटिल और भयानक है, जितना 50 और 60 के दशक में अमेरिका ने दक्षिणी वियतनाम में अपने कठपुतली शासकों के साथ खेला था.

चुनावी जोड़-तोड़ के लंबे अध्याय के बाद 1987 में वह विभाजनकारी दौर आया, जब नई दिल्ली ने नीचता की हद तक जाकर राज्य के चुनावों में बड़े स्तर पर धांधली की. 1989 आते-आते आत्म-निर्णय की यह अहिंसक मांग पूरी तरह आजादी की एक लड़ाई में बदल गई. हजारों लोग सड़कों पर उतर आए और एक के बाद एक कत्लेआम के शिकार होने लगे.

जल्द ही कश्मीर घाटी, पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित और हथियारों से लैस करवाए गए कश्मीरी आतंकी- जिनमें सीमा के दोनों ओर के कश्मीरी थे- विदेशी लड़ाकों से भर गई, जिनका अधिकांश इलाके में कश्मीरी लोगों ने भी साथ दिया.

एक बार फिर कश्मीर पूरे उपमहाद्वीप पर छाए राजनीतिक बवंडर में फंस गया– एक तरफ पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आया इस्लाम का कट्टर रूप, जिससे कश्मीरी संस्कृति का कभी कोई वास्ता नहीं रहा था और दूसरी ओर भारत में धर्मांध हिंदू राष्ट्रवाद. जो अपने उभार पर था.

इस विद्रोह की पहली बलि चढ़ा, सदियों पुराना कश्मीरी मुसलमानों और स्थानीय तौर पर कश्मीरी पंडित के नाम से जाना जाने वाले अल्पसंख्यक हिंदुओं का रिश्ता.

स्थानीय संगठन कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति (केपीएसएस) के अनुसार, जब हिंसा शुरू हुई तो आतंकवादियों द्वारा करीब 400 पंडितों को निशाना बनाकर उनकी हत्या कर दी गई. सरकारी अनुमान के मुताबिक 1990 के आखिर तक 25000 पंडित परिवार घाटी छोड़ कर चले गए.

कश्मीरी पंडितों से न सिर्फ अपना घर और जन्मभूमि बल्कि जो कुछ भी उनके पास था, सब छिन गया. अगले कुछ वर्षों में हजारों और लगभग सारे पंडित परिवार चले गए. संघर्ष जब और बढ़ा तो हजारों मुसलमानों के अलावा, केपीएसएस के अनुसार 650 पंडित भी मारे गए.

तब से बड़ी संख्या में पंडित जम्मू स्थित शरणार्थी शिविरों में अत्यंत विकट स्थितियों में रह रहे हैं. बीते 30 सालों में किसी भी सरकार ने उनको घर लौटाने का कोई प्रयास नहीं किया. उन्हें यथास्थिति में बनाए रख उनके गुस्से और कड़वाहट को कश्मीर के बारे में सबसे प्रभावी राष्ट्रवादी नैरेटिव के रूप में इस्तेमाल किया गया.

इस पूरी त्रासद-कथा के एक पक्ष पर हो-हल्ला मचाकर बड़ी चतुराई से बाकी पूरे भयावह कथानक पर पर्दा डाल दिया गया. आज कश्मीर दुनिया के सबसे बड़े सैन्य क्षेत्रों में से एक है– या शायद दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य क्षेत्र.

मुठ्ठी भर ‘आतंकवादियों’ को काबू करने के लिए पांच लाख सैनिक नियुक्त किए गए हैं, इस तथ्य को सेना ने भी स्वीकार किया है. पूर्व में भले ही इस बारे में संदेह भी रहा हो पर अब यह स्पष्ट हो गया है कि वास्तविक दुश्मन कश्मीरी लोग हैं.

भारत ने पिछले 30 वर्षों में कश्मीर में जो कुछ किया है वह अक्षम्य है. इस संघर्ष में अब तक करीब 70000 लोग, जिनमें आम नागरिक, आतंकी और सेना के जवान सभी शामिल हैं, मारे गए हैं. सैकड़ों लोग लापता हैं. हजारों लोग इराक की अबु-गरेब जेल जैसी पीड़ा से गुजरे हैं.

पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों किशोरों को पैलेट गन के छर्रों ने अंधा किया है. सुरक्षा संस्थानों के लिए पैलेट गन भीड़ को नियंत्रित करने का पसंदीदा हथियार है. कश्मीरी लड़ाकों में अधिकांश नौजवान हैं जिन्हें स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित किया जाता है और हथियार मुहैया कराए जाते हैं.

वे यह भली भांति जानते हैं कि हाथ में बंदूक लेने के बाद उनकी जिंदगी छह महीने से ज्यादा की नहीं है. जब भी कोई ‘आतंकवादी’ मारा जाता है तो हजारों कश्मीरी उसे एक शहीद के तौर पर सम्मान देते हुए उसके जनाजे में शामिल होते हैं.

तीस साल से सेना के कब्जे का यह मोटा-मोटा लेखा-जोखा है. बीते दशकों में इस कब्जे के क्या-क्या भयानक प्रभाव पड़े हैं, उन सबका ब्यौरा इस छोटे-से लेख में दे पाना नामुमकिन है.

प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी के पहले कार्यकाल में उनके कट्टर रुख के चलते कश्मीर में हिंसा की स्थिति बदतर ही हुई है. इसी साल फरवरी में, जब कश्मीर में एक आत्मघाती हमले में सुरक्षाबल के 40 जवान मारे गए तो भारत ने पाकिस्तान पर हवाई हमला कर दिया. पाकिस्तान ने भी ठीक उसी रूप में इस हमले का जवाब दिया.

इतिहास में यह पहली बार हुआ कि दो देश, जो न्यूक्लियर ताकतें भी हैं, ने एक दूसरे पर हवाई हमले किए हों. मोदी के दूसरे कार्यकाल के पहले दो महीने में सरकार ने अपनी सबसे खतरनाक चाल चल दी है और यह काम बारूद को चिंगारी दिखाने जैसा है.

हद तो तब हो गई जब इस सारे काम को बड़े सस्ते, धोखेबाजी और शर्मनाक तरीके से अंजाम दिया गया. जुलाई के अंतिम सप्ताह में किसी न किसी बहाने से कश्मीर में 45000 अतिरिक्त सुरक्षाबल तैनात कर दिए गए.

इस बात को सबसे ज्यादा उछाला गया कि अमरनाथ यात्रियों पर पाकिस्तानी ‘आतंक’ का साया मंडरा रहा है.

अमरनाथ यात्रा में हर साल लाखों हिंदु श्रद्धालु ऊंचे पहाड़ों के बीच से पैदल (या कश्मीरी पिट्ठू ढोने वालों की मदद से) अमरनाथ गुफा तक जाते हैं और प्राकृतिक रूप से बर्फ से निर्मित एक आकृति- जिसे वे शिव का अवतार मानते हैं- की पूजा करते हैं.

1 अगस्त को कुछ भारतीय टीवी चैनलों ने एक खबर प्रसारित की जिसके अनुसार, अमरनाथ यात्रा के रास्ते पर एक बारूदी सुरंग पाई गई है, जिस पर पाकिस्तानी निशान अंकित है. 2 अगस्त को सरकार ने एक नोटिस जारी किया और न केवल अमरनाथ यात्रियों को बल्कि सामान्य पर्यटकों को भी, जो अमरनाथ यात्रा के रास्ते से काफी दूर थे, तुरंत घाटी छोड़ने का आदेश दे दिया.

करीब दो लाख प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों की फिक्र किसी को नहीं थी. मेरे ख्याल से वे इतने गरीब थे कि उनकी परवाह कोई मायने नहीं रखती. 3 अगस्त शनिवार तक सभी तीर्थयात्री और पर्यटक चले गए और पूरी घाटी के चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाबल तैनात हो गए.

रविवार की आधी रात तक घेराबंदी कर कश्मीरियों को अपने-अपने घर तक सीमित कर दिया गया और संचार के सभी साधन ठप कर दिए गए. अगली सुबह हमें पता लगा कि जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूक अब्दुल्ला, उनके बेटे उमर अब्दुल्ला और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मुफ्ती को गिरफ्तार कर लिया गया है.

ये सब मुख्यधारा के भारत समर्थक राजनेता हैं जो मुश्किल हालात में भी भारत के साथ खड़े रहे हैं. अखबारों में खबर है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस से हथियार ले लिए गए हैं. जम्मू-कश्मीर के पुलिसकर्मी हमेशा किसी भी संघर्ष में अग्रणी पंक्ति में रहे हैं. उन्होंने फौज के लिए जमीनी काम किया, उसकी हर तरह से मदद की.

वे अपने मालिकों के निर्मम इरादों के मोहरे बने रहे और इसके बदले उनके हिस्से आई अपने ही लोगों की नाराजगी; यह सब इसलिए कि कश्मीर में भारतीय तिरंगा फहराता रहे और अब जब स्थिति एकदम विस्फोटक हो गई है तो उन्हें उग्र भीड़ के सामने बलि के बकरे के तौर पर छोड़ दिया गया है.

नरेन्द्र मोदी की सरकार द्वारा भारत के मित्रों के साथ- जिन्हें भारतीय शासन शैली ने बरसों तक सींचा है- विश्वासघात और उनका सार्वजनिक निरादर दरअसल अज्ञान और अभिमान की उपज है. अब जब यह सब हो ही गया है तो अब स्थिति सड़क बनाम सैनिक की सी हो गई है. सड़कों पर उतरे कश्मीरी नौजवानों के साथ इस स्थिति में जो होगा सो होगा, सैनिकों के लिए भी यह स्थिति बेहद खराब है.

कश्मीर की आबादी के उस उग्र वर्ग के लिए, जो आत्म-निर्णय अथवा पाकिस्तान की ओर जाने का समर्थक है, भारतीय कानून और संविधान की कोई अहमियत नहीं है. निसंदेह वे लोग खुश हो रहे होंगे कि चलो अब भ्रम से परदा उठ गया और जिन्हें सहयोगी समझा जा रहा था दरअसल वे दगाबाज निकले. लेकिन उनकी खुशी भी ज्यादा टिकने वाली नहीं है. क्योंकि अब नए भ्रम और परदे फैलाए जाएंगे. नए राजनीतिक दल आएंगे और नए खेल खेले जाएंगे.

8 अक्टूबर 1989 को जम्मू कश्मीर के अनंतनाग की एक मस्जिद के बाहर उदारवादी और कट्टरपंथी छात्रों के बीच होती बहस. रॉबर्ट निकल्सबर्ग/गैटी इमेजिस

कश्मीर की तालाबंदी के चार दिन बाद, नरेन्द्र मोदी, जाहिर तौर पर उत्सवरत भारत और कैद कश्मीर को संबोधित करने के लिए टीवी पर प्रकट हुए. वे एक बदले हुए व्यक्ति प्रतीत हो रहे थे. आमतौर पर अपने भाषणों में उग्र भाषा का इस्तेमाल और दोषारोपण करने वाले मोदी की वाणी में एक युवा मां जैसी कोमलता थी. यह अब तक का उनका सबसे डराने वाला अवतार था.

जब उन्होंने बताना शुरू किया कि अब जब कश्मीर को पुराने और भ्रष्ट नेताओं से मुक्ति मिल गई है, सीधे नई दिल्ली से शासन चलेगा और कैसी नई-नई सौगातें कश्मीर पर झमाझम बरसेंगी, तब उनकी आवाज में एक कंपन और आंखों में अनछलके आंसुओं की चमक थी.

वे भारतीय आधुनिकता के चमत्कारों के बारे में ऐसे बता रहे थे, मानो बीते समय की सामंती व्यवस्था से निकले किसानों को शिक्षित कर रहे हों. उन्होंने बताया कि कैसे फिर एक बार उनकी सब्ज घाटी में बॉलीवुड फिल्मों की शूटिंग हुआ करेगी.

जब वे अपना भावोत्तेजक भाषण दे रहे थे, तब उन्होंने यह नहीं बताया कि इस वक्त कश्मीरियों को घरों में बंद रखने और सभी संचार साधनों को काट देने की जरुरत क्यों पड़ी. उन्होंने यह भी नहीं बताया कि जिस निर्णय को लागू करके कश्मीर को काफी फायदा होने वाला है, उसे लेने से पहले उनसे राय क्यों नहीं ली गई.

उन्होंने यह भी नहीं बताया कि सेना के कब्जे के क्षेत्र में रहने वाले लोग भारतीय लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी सौगातों का आनंद कैसे ले सकते हैं. हालांकि चार दिन बाद आने वाली ईद की मुबारक देना उन्हें याद रहा. उन्होंने ऐसा भी कोई वादा नहीं किया कि यह तालाबंदी त्यौहार पर खत्म की जाएगी (और इसे खत्म किया भी नहीं गया).

अगली सुबह, भारतीय अखबार और कई उदारवादी टिप्पणीकार, जिनमें कुछेक नरेन्द्र मोदी के कटु आलोचक भी थे, उनके भावमयी भाषण से मंत्रमुग्ध थे. सच्चे उपनिवेशकों की तरह, भारत में बहुत लोग हैं जो अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के हनन के प्रति तो अत्यंत जागरुक हैं पर कश्मीर के लिए उनके मानदंड भिन्न हैं.

15 अगस्त, बृहस्पतिवार को लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अपने उद्बोधन में नरेन्द्र मोदी ने गर्व से कहा कि उनकी सरकार ने आखिरकार ‘एक राष्ट्र-एक संविधान’ का सपना साकार कर दिया है.

इस भाषण की पिछली ही शाम भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों, जिनमें से अधिकांश को पूर्व जम्मू-कश्मीर की तरह विशेष दर्जा हासिल है, के कुछ विद्रोही गुटों ने स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार करने का ऐलान किया था. जब लालकिले के श्रोता नरेन्द्र मोदी के भाषण पर तालियां बजा रहे थे, 70 लाख कश्मीरी तब भी बंद थे.

ऐसा सुनने में आ रहा है कि संचार-साधनों को अभी कुछ और दिन बाधित रखा जा सकता है. जब यह खत्म होगा, जो होना ही है तो इसके बाद कश्मीर में बुनी हिंसा निसंदेह भारत की ओर बहेगी.

इस हिंसा का इस्तेमाल भारतीय मुसलमानों के खिलाफ और भड़काने के लिए होगा; जिनका पहले से ही दानवीकरण कर दिया गया है, जिन्हें अलग-थलग कर आर्थिक रूप से नीचे धकेला जा रहा है और साथ ही उन्हें निरंतर भयानक मॉब-लिंचिंग का शिकार बनाया जा रहा है.

सरकार द्वारा इस मौके का अपने तरीके से इस्तेमाल किया जाएगा और वह उन सामजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, कलाकारों, छात्रों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों पर टूट पड़ेगी, जिन्होंने अत्यंत साहस से और खुले तौर पर इस कृत्य का विरोध किया है.

खतरा कई दिशाओं से आएगा. कट्टर दक्षिणपंथी और भारत के सबसे शक्तिशाली संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), जिसमें नरेन्द्र मोदी और उनके मंत्रियों सहित छह लाख से अधिक कार्यकर्ता हैं, के पास प्रशिक्षित स्वयंसेवी सेना है जिसकी प्रेरणास्त्रोत मुसोलिनी की ‘ब्लैक शर्ट्स’ वाली फौज है.

20 अगस्त को श्रीनगर में एक सुनसान सड़क पर गश्त करता हुआ एक भारतीय जवान. अदनान अबीदी/रॉयटर्स

हर गुजरते दिन के साथ, आरएसएस भारतीय गणराज्य की हर संस्था पर अपनी पकड़ मजबूत कर रही है. सच तो यह है कि इसकी ताकत इतनी बढ़ गई है कि यह अपने आप में ही सत्ता है. इस प्रकार की सत्ता की उदार छतरी के नीचे कई छोटे-बड़े हिंदू सतर्कता संगठन, हिंदू राष्ट्र के हमलावर दस्ते देश के कोने-कोने में न सिर्फ फल-फूल रहे हैं बल्कि अत्यंत धार्मिक भाव से इस घातक खेल को आगे बढ़ा रहे हैं.

बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है. मई के महीने में भारतीय जनता पार्टी द्वारा आम चुनाव जीतने के ठीक दूसरे दिन, आरएसएस के पूर्व प्रवक्ता और पार्टी के महासचिव राम माधव ने लिखा कि जिन ‘बचे-खुचे’, ‘छद्म धर्म-निरपेक्ष/लिबरल संगठनों का देश के बौद्धिक और नीतिगत संस्थानों पर अत्यधिक प्रभाव और नियंत्रण है उन्हें देश के शैक्षणिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक परिदृश्य से उखाड़ फेंकने की जरूरत है.’

1 अगस्त को इस ‘उखाड़ फेंकने’ की प्रक्रिया की तैयारी के लिए पहले से ही अत्यंत क्रूर कानून ‘अनलॉफुल एक्टिविटिज प्रिवेंशन एक्ट’ (यूएपीए) में संशोधन कर ‘आतंकवादी’ की परिभाषा का दायरा बढ़ाते हुए सिर्फ संगठनों को नहीं बल्कि व्यक्तियों को भी इसमें शामिल कर लिया गया है.

इस संशोधन के बाद सरकार को किसी भी व्यक्ति को प्राथमिकी दर्ज किए, चार्जशीट दर्ज किए और मुकदमा चलाए बिना आतंकवादी घोषित करने का अधिकार मिल गया है.

किस तरह का व्यक्ति इस श्रेणी में आ सकता है– यह हमारे गृहमंत्री अमित शाह के संसद में दिए भाषण से स्पष्ट हो जाता है- ‘महोदय, बंदूक आतंकवाद को बढ़ावा नहीं देती. आतंकवाद की जड़ वह प्रचार है जो इसे फैलाता है… अगर ऐसे सभी व्यक्तियों को आतंकवादी घोषित कर दिया जाए तो मुझे नहीं लगता कि किसी भी संसद सदस्य को इस पर आपत्ति होगी.’

हममें से कईयों ने उनकी सर्द निगाहों को खुद पर घूरते महसूस किया. यह जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अपने गृह राज्य गुजरात में कई हत्याओं के मुख्य आरोपी के तौर पर वे कुछ समय सलाखों के पीछे भी रहे हैं.

उनके मुकदमे के जज ब्रजगोपाल हरकिशन लोया की मुकदमे के दौरान रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हो गई और आनन-फानन में एक नए जज को उनकी जगह नियुक्त किया गया, जिसने जल्दी ही अमित शाह को बरी कर दिया.

इस सबसे उत्साहित होकर देशभर के सैकड़ों न्यूज चैनलों के दक्षिणपंथी टीवी एंकरों ने अब असहमति रखने वाले लोगों पर न सिर्फ खुले तौर पर गंभीर आरोप लगाने शुरू कर दिए हैं बल्कि उन्हें गिरफ्तार करने का आह्वान तक किया जाता है. संभवतः ‘टीवी लिंचिंग’ नए भारत का नया राजनीतिक अस्त्र बनने को है.

दुनिया जब यह सब देख रही है, भारतीय फासीवाद शीघ्रता से अपना वास्तविक आकार ले रहा है. मैंने 28 जुलाई के लिए कश्मीर में कुछ दोस्तों से मिलने के लिए टिकट बुक करवाई थी. वहां पर समस्या और सुरक्षाबलों की तैनाती की आहटें आने लगीं थी. जाने के बारे में मन में दोनों तरह के ख्याल आ रहे थे.

एक मित्र और मैं मेरे घर बैठे इस बारे में चर्चा कर रहे थे. मेरे मित्र मुसलमान हैं और एक सरकारी अस्पताल में वरिष्ठ डॉक्टर हैं और उन्होंने अपना सारा जीवन जनसेवा में लगाया है. हमने इस नई प्रवृति के बारे में बात करना शुरू किया, जिसमें भीड़ लोगों, खासकर मुसलमानों को, घेरकर उनसे जबरदस्ती ‘जय श्रीराम’ का नारा लगवाती है.

अगर कश्मीर सुरक्षाबलों से भरा है तो भारत उन्मादी भीड़ से.

20 अगस्त को सुनसान सड़क पर जाता एक कश्मीरी परिवार. अदनान अबीदी/रॉयटर्स

उन्होंने कहा कि वह भी आजकल अक्सर इस बारे में सोच रहे हैं, क्योंकि उसे अपने परिवार, जो दिल्ली से कुछ घंटों की दूरी पर रहता है, से मिलने के लिए गाड़ी चलाकर जाना पड़ता है.

उन्होंने कहा, ‘मुझे आसानी से रोका जा सकता है.’

मैंने कहा, ‘तब तो तुम्हें यह नारा लगा ही देना चाहिए. जिंदा भी तो रहना है.’

‘मैं नहीं लगाऊंगा क्योंकि दोनों ही सूरतों में मुझे मार दिया जाएगा, जैसे उन लोगों ने तबरेज अंसारी को मार दिया.’

यह उस तरह की बातचीत है जो भारत में चल रही है, वहीं हम कश्मीर के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. और वह निश्चित तौर पर बोलेगा.

अनुवादः कुमार मुकेश