आज से ठीक एक साल पहले, एक आत्मघाती हमलावर ने पुलवामा में जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के एक काफिले में विस्फोटकों से भरी एक कार भिड़ा दी. इस हमले में 49 सुरक्षा कर्मी मारे गए. यह कश्मीर में हुआ अब तक का सबसे घातक आतंकवादी हमला था. इस घटना ने प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान में जान फूंक दी. उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनाव का प्राथमिक मुद्दा बना लिया. पार्टी समर्थकों ने राष्ट्रवादी और पाकिस्तान विरोधी बयानबाजी का अपना सुर बढ़ा दिया.
उस साल मार्च में, कारवां ने "पुलवामा हमले में मारे गए जवानों की जाति भी पूछिए," शीर्षक से पत्रकार एजाज अशरफ का एक लेख प्रकाशित किया. लेख में अशरफ ने शहीद जवानों की सामाजिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण किया था. अशरफ ने दिखाया कि सोशल मीडिया पर बढ़-चढ़कर राष्ट्रवाद का प्रचार करने वाले लोग अक्सर उच्च जाति और उच्च वर्ग के होते हैं और जिन सैनिकों ने मुख्य रूप से हमले में अपनी जान गंवाई वे दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसे हाशिए के समुदायों से आते हैं. उन्होंने तर्क दिया कि सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर खड़े समुदायों को अक्सर सत्ताधारी कुलीन वर्ग की देशभक्ति की कीमत चुकानी पड़ती है.
रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ जैसे दक्षिणपंथी मीडिया संस्थानों और अन्य कई लोगों ने इस लेख की आलोचना की और लेख को "देशद्रोही", "जातिवादी" और "शहीदों का अपमान" बताया. टाइम्स नाउ पर एक घंटे के कार्यक्रम में एंकर राहुल शिवशंकर ने शिकायत की कि जवानों के बलिदान की गरिमा को छलनी किया जा रहा है. शहादतों को जाति, धर्म और पंथ का रंग दिया जा रहा है." उन्होंने कहा कि "कुछ ऐसे संस्थान हैं जहां हम अपनी पहचान से ऊपर उठते हैं क्योंकि हम भारत की सेवा में हैं ... सेना के जवान भारतीय के रूप में सेवा करते हैं और शहादत देते हैं, न कि दलित, ब्राह्मण, ओबीसी, मुस्लिम के रूप में." अर्नब गोस्वामी ने रिपब्लिक टीवी पर एक घंटे के अपने कार्यक्रम में, लेख को "राष्ट्र-विरोधी" कहा और एक बेतुका दावा किया कि पाकिस्तान की सेना भारत पर हमला करने के लिए कारवां का इस्तेमाल कर रही है. उच्च जाति के इन दो एंकरों का, जो उच्च जातियों के लोगों से भरा न्यूजरूम चलाते हैं, इस कदर लेख पर भड़कना और वह भी बिना उस मुद्दे पर बात किए जिसे लेख में उठाने की कोशिश की गई थी, शायद ही चौंकाने वाली बात थी.
लेकिन नाराजगी बढ़ती ही गई. सीआरपीएफ के तत्कालीन उपमहानिरीक्षक मोसेस दिनाकरण ने लेख के जवाब में ट्वीट किया, “सीआरपीएफ में हमारी पहचान एक भारतीय के रूप में होती है. न इससे ज्यादा, न कम. जाति, रंग और धर्म का यह दयनीय बंटवारा हमारे खून में नहीं है. आपको शहीदों का अपमान करने से बचना चाहिए. वे आपके नीच और निरर्थक लेखन के लिए आंकड़े नहीं हैं.” यह देखते हुए कि सशस्त्र बलों में जाति और जातीयता आधारित रेजिमेंटों का एक लंबा इतिहास रहा है, जो कुछ जातियों को गौरवान्वित करता है, दिनाकरण का उपरोक्त दावा एक विचित्र तर्क था. कारवां कार्यालय में दिन और रात स्वयंभू राष्ट्रवादियों के फोन आते रहे. राष्ट्रवादी पूछते कि पत्रिका ने इस तरह का लेख प्रकाशित करने की हिम्मत कैसे की.
लेख के प्रति नाराजगी उस वास्तविकता से उपजी थी जो भारत की वर्चस्वशाली जातियों और वर्गों के लिए असंतोषजनक है कि उनके उन्मत्त राष्ट्रवाद की कीमत उत्पीड़ित समुदाय चुकाते हैं. पुलवामा हमला एकमात्र घटना नहीं है जो हाशिए के समुदायों से आने वाले सुरक्षा कर्मियों की दयनीयता को दर्शाता है.
अर्धसैनिक बलों और विद्रोहियों के बीच कई अन्य हिंसक मुठभेड़ों के मुख्य शिकार दलित, आदिवासी या ओबीसी हुए हैं. छत्तीसगढ़ में माओवाद प्रभावित क्षेत्र के एक आदिवासी होने के नाते, मैं अक्सर ही दोनों पक्षों की हिंसा में मारे गए लोगों की सूची देखता हूं और पाता हूं कि मरने वाले आदिवासी ही होते हैं. मडावी, मडकामी, नूरेती, पोडियम, गावडे इन नामों को बार-बार पढ़ना टीस पैदा करता रहा है. कुछ मेरे अपने कबीले के हैं या हमारे कोईतुर या गोंड समाज के अन्य कबीलों के हैं. कुछ मेरे ही परिवार के सदस्य रहे हैं.
राज्य की भूमिका को समझने के लिए ऐसी हिंसा के पीड़ितों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन जरूरी है. उन्हीं समुदायों से अर्धसैनिक बलों में भर्ती करने की सरकार की नीतियां, जहां से विद्रोही अपने सदस्यों की भर्ती करते हैं और इन बलों के संचालन का तरीका, यह दर्शाने के लिए काफी है कि जो लोग पहले से ही उत्पीड़ित हैं वे ही लोग इस हिंसा का सबसे ज्यादा सामना करते हैं.
पिछले कुछ दशकों में माओवादियों और सुरक्षाबलों के बीच कुछ प्रमुख मुठभेड़ों में मारे गए लोगों की पृष्ठभूमि इसकी एक साफ तस्वीर सामने लाती है.
15 मार्च 2007 को, 500 से अधिक माओवादियों के एक समूह ने बीजापुर जिले में रानी बोदली में एक पुलिस शिविर पर हमला किया, जिसमें 16 छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल और 39 विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) सहित 55 कर्मियों की मौत हो गई थी. नक्सलियों ने एक आश्रम स्कूल की इमारत में बने शिविर पर ग्रेनेड, पेट्रोल बमों से हमला किया और अंधाधुंध गोलीबारी की तथा शिविर से हथियार भी लूटे. स्कूल के एक हिस्से में 28 लड़कियां रहती थीं, जो घटना के वक्त वहां से बच कर भागने में सफल रहीं. वे एसपीओ ज्यादातर आत्मसमर्पण किए हुए माओवादी और बस्तर के मूल निवासी थे. मैंने मारे गए जवानों में से 36 की पहचान आदिवासी के रूप में और छह की ओबीसी के रूप में की. 13 अन्य लोगों की पृष्ठभूमि की पहचान नहीं की जा सकी. मारे गए कुल 55 कर्मियों में से कम से कम 42 यानी तीन चौथाई से अधिक उत्पीड़ित समुदायों के थे.
दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के जवानों पर 2010 में हुए हमले से भी ऐसी ही तस्वीर उभरती है. यह सुरक्षा कर्मियों पर अब तक किया गया सबसे बड़ा माओवादी हमला था. उसी साल 5 अप्रैल को, छत्तीसगढ़ पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों ने एक "कॉम्बिंग आपरेशन" किया था. सुरक्षाबलों को एक स्थान पर माओवादियों के छिपे हो सकने का संदेह था. आपरेशन से लौटते वक्त, रात भर की अपनी यात्रा थके जवान, आराम करने के लिए चिंतलनार गांव के पास रुके. अगले दिन तकरीबन 6 बजे, उन पर लगभग 400 माओवादियों ने हमला कर दिया. इस प्रतिहिंसा में, 75 सीआरपीएफ जवान, एक पुलिसकर्मी और पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के 8 विद्रोही मारे गए. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में विद्रोहियों की पहचान रुक्माति मडावी, वागल पोडियाम, सुद्रु उरसा, इंगल सोदी, राजू, रामल सल्लम, मंगू मदकम और रतन के रूप में की गई है. उनमें से छह के उपनामों से संकेत मिलता है कि वे बस्तर के आदिवासी थे, जबकि राजू और रतन अज्ञात हैं. मारे गए सुरक्षा कर्मियों में 17 दलित, 8 आदिवासी, 17 ओबीसी, दो मुस्लिम और 30 उच्च जातियों के थे. एक व्यक्ति की जाति की पहचान नहीं की जा सकी. मारे गए 76 जवानों में से अधिकांश का संबंध हाशिए के समुदायों से थे.
सेना द्वारा मारे गए लोग भी अक्सर उसी सामाजिक पृष्ठभूमि के होते हैं. 28 अप्रैल 2018 को, सुरक्षाबलों ने दावा किया कि उन्होंने दशक के "सबसे बड़े" सफल माओवादी-विरोधी अभियान को अंजाम दिया है. नक्सलियों से लड़ने के लिए राज्य पुलिस द्वारा बनाए गए महाराष्ट्र के सी-60 कमांडो के एक समूह ने 40 लोगों को मार डाला. सुरक्षाबलों ने दावा किया कि आपरेशन दो अलग-अलग जगहों पर किया गया था. 22 अप्रैल को गढ़चिरौली के कसनासुर गांव के पास गोलीबारी में 34 लोग मारे गए थे, जबकि अगले दिन राजाराम-खंडला जंगल के पास और छह लोग मारे गए. हालांकि, मई में समाचार वेबसाइट द वायर ने बताया कि पुलिस ने जिन 40 "नक्सलियों" को मारने का दावा किया था, उनमें से एक बच्चा था और 8 लोग टीनएजर्स थे जो एक शादी में शामिल होकर घर लौट रहे थे. मुठभेड़ में मारे गए लोगों में से एक- मंगेश मंडावी 16 साल का था और पास के कॉलेज में 11वीं कक्षा का छात्र था. रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने बाद में एक बयान जारी कर खुलासा किया कि मारे गए लोगों में से 22 पार्टी के सदस्य थे, जबकि अन्य 18 का विद्रोहियों से कोई संबंध नहीं था. बयान में यह भी दावा किया गया है कि पीड़ितों में से एक को जबरन सेना के कपड़े पहनाए गए थे. आपरेशन में मारे गए 22 माओवादी कैडर में से 18 और 18 निर्दोषों में से 17 आदिवासी थे. सी-60 कमांडो में भी ज्यादातर आदिवासी और क्षेत्र के दूसरे मूल निवासी थे.
सितंबर 2007 में एक दिन स्कूल से लौटने पर मुझे पता चला कि मेरे भाई हेमंत मरावी, जो सुकमा में नगर निरीक्षक के रूप में तैनात थे, लापता हो गए हैं. वह मरावी कबीले के थे - जिसे मंडावी भी कहा जाता है. यह गोंड समाज के 750 कबीलों में से एक है और बस्तर में इसकी अच्छी खासी आबादी है.
हेमंत मेरी बुआ के सबसे बड़े बेटे थे. वह मेरे माता-पिता, खासकर मेरे पिता, जो उस समय शिक्षक थे, के बहुत करीब थे. मेरे पिता हेमंत को उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे. हेमंत ने कुछ साल की अपनी स्कूल की पढ़ाई हमारे साथ, हमारे गांव सुरगुजा में रहते हुए की थी. ग्रेजुएट होने और कंप्यूटर में डिप्लोमा पाने के बाद, हेमंत ने एक स्कूल में पढ़ाना शुरू किया.
2000 में जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तो हेमंत ने राज्य सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी शुरू की. उन्हें भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के लिए चुन लिया गया. मसूरी में प्रशिक्षण पूरा करने के बाद उनकी पोस्टिंग दिल्ली में हुई. 2004 में, वह छत्तीसगढ़ पुलिस में सब-इंस्पेक्टर बन गए और कोरबा आ गए. फिर 2006 में उनका तबादला बस्तर हो गया.
दंतेवाड़ा में तैनात होने के कुछ महीने बाद, हेमंत की अगुवाई में माओवादी शिविर पर एक हमले में कई विद्रोही मारे गए. उन्हें प्रमोशन देकर जगरगुंडा पुलिस स्टेशन में टाउन इंस्पेक्टर बना दिया गया. लेकिन इसके चलते वे माओवादियों के निशाने पर भी आ गए. अपने जीवन पर मंडरा रहे खतरे को भांपते हुए, अगस्त 2007 में हेमंत ने एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और जगदलपुर रेंज के प्रमुख आर. के. विज से अपने तबादले के अनुरोध के संबंध में मुलाकात की. लेकिन हेमंत के कार्यकाल में स्थानीय ग्रामीण खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे थे इसलिए गांववालों ने उनसे अनुरोध किया कि वह अपना तबादला न कराएं.
पंद्रह दिन बाद, 29 अगस्त 2007 को, हेमंत के नेतृत्व में एसपीओ और ग्रामीणों के साथ सुरक्षा कर्मियों का एक समूह चिंतलनार और दोरनापाल के बीच सड़क के निर्माण की देखरेख कर रहे थे. ताड़मेटला के पास वापस लौटते समय माओवादियों ने उन पर गोलियां चला दीं.
घटना में तीन सुरक्षा कर्मियों और आठ एसपीओ की जान चली गई. सभी 11 लोग आदिवासी थे. जब मैं स्कूल से लौटा, तो मुझे बताया गया कि हेमंत को माओवादियों ने जिंदा पकड़ लिया है और जंगल के अंदर ले गए हैं. हमें उम्मीद थी कि वे हेमंत को वापस भेज देंगे.
कुछ दिनों बाद, हेमंत के शरीर के हिस्से जंगल में बिखरे मिले. विज ने 2009 के एक लेख में लिखा था, ''जागरगुंडा पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर हेमंत मरावी की हत्या तब की गई जब वह सार्वजनिक परिवहन बहाल करने के लिए एक आंतरिक सड़क की मरम्मत करने में ग्रामीणों की मदद कर रहे थे. उनके पैर काट कर अलग कर दिए गए, नक्सली उनके जूते लेना चाहते थे."
इस घटना ने हमारे परिवार को हिला कर रख दिया. मेरे लिए यह बस्तर में जारी संघर्ष के बारे में लंबे अरसे तक सोचते रहने की शुरुआत थी. जो तथ्य मेरे साथ बना रहा और तब भी जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, वह यह कि जिन माओवादियों को हेमंत ने मारा था, वह शायद कोईतुर थे, जिस समाज के हेमंत खुद थे. उन्हें मारने वाले माओवादी भी शायद कोईतुर ही थे.
हेमंत के छोटे भाई को सब-इंस्पेक्टर की नौकरी दे दी गई लेकिन वह भी माओवाद प्रभावित क्षेत्र में तैनात होने के बारे में आशंकित थे. उन्होंने अपने भाई के हालिया निधन के मद्देनजर बस्तर में तैनात न करने का अनुरोध मुख्यालय से किया. उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया था और उन्हें बस्तर से ही अलग होकर बने कांकेर जिले में तैनात कर दिया गया.
"प्रशिक्षण के दौरान, विविध समूहों के लोग बल में शामिल होते हैं," हेमंत के भाई, जो नाम नहीं बताना चाहते, ने मुझे बताया. “लेकिन पोस्टिंग के दौरान, व्यक्तिगत नेटवर्क और भ्रष्टाचार से ही सबके भाग्य का फैसला होता है. कई पुलिस अधिकारी ऐसे हैं जो ताउम्र बस्तर में ही तैनात रहते हैं, जबकि कई ऐसे हैं, जो कभी वहां तैनात नहीं हुए बावजूद इसके कि छत्तीसगढ़ पुलिस विभाग में सभी पुलिस कर्मियों के लिए माओवाद प्रभावित क्षेत्र में कम से कम तीन साल की सेवा देना अनिवार्य है.” प्रशिक्षण के दौरान उनके अधिकांश दोस्त और सभी आदिवासी, बाद में बस्तर में तैनात हुए. हेमंत के भाई ने मुझे बताया कि उनके गांव जमगाला से दो और आदिवासी पुलिस के सिपाहियों ने माओवादी हमलों में अपनी जान गंवाई.
सिर्फ पुलिस में ही ऐसा नहीं होता. विद्रोह-ग्रस्त क्षेत्रों में काम करने वाले हर बल में ऐसा होता है कि हाशिए के समूहों को सबसे अधिक खतरा उठाना पड़ता है. गृह मंत्रालय की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में सीआरपीएफ की कुल संख्या 303951 थी. सीआरपीएफ अंग्रेजी हकूमत का प्रतिनिधित्व करने वाली पुलिस का उत्तराधिकारी है, जिसे 1939 में, रियासतों में श्रमिकों की हड़ताल और किसानों के आंदोलनों को नियंत्रित करने के लिए औपनिवेशिक सरकार द्वारा गठित गया था. इस बल में अब कुल 242 बटालियन हैं. छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ सीआरपीएफ अधिकारी ने मुझे बताया कि प्रशिक्षण के बाद दो तरह की पोस्टिंग होती हैं : ऑफिस पोस्टिंग और फील्ड पोस्टिंग. फील्ड पोस्टिंग तीन क्षेत्रों में होती हैं : माओवाद प्रभावित क्षेत्र, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत. जैसा कि छत्तीसगढ़ पुलिस में नियम है, उसी तरह सीआरपीएफ में भर्ती हुए हर जवान को माओवाद प्रभावित क्षेत्र में तीन साल की सेवा देनी होती है, जिसके बाद ही उसे कार्यालय या कम जोखिम भरे क्षेत्र में तैनात किया जाता है. सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, "उच्च जाति समुदायों से संबंधित उम्मीदवारों के पास आमतौर पर कंप्यूटर, टाइपिंग और अन्य अतिरिक्त कौशल होते हैं जिसके कारण उनकी ऑफिस पोस्टिंग की संभावना अधिक होती है. एससी, एसटी, ओबीसी जैसे हाशिए के समुदायों के उम्मीदवारों की आमतौर पर इन कौशल की कमी के कारण फील्ड पोस्टिंग होती है."
छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल में कार्यरत और बस्तर में तैनात मेरे एक अन्य रिश्तेदार, चंद्रभान ने हेमंत की मृत्यु के बाद अपनी नौकरी छोड़ दी और जमगला लौट आए. गांव में कुछ वर्ष रहने के बाद, वह एक निजी नौकरी करने लगे.
चंद्रभान 2003 में छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल में शामिल हुए थे और अगले कुछ वर्षों तक दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा में तैनात रहे. उनके कार्यकाल के दौरान 2005 में राज्य सरकार ने माओवादियों से लड़ने के लिए सलवा जुडुम नाम की स्थानीय आदिवासियों की एक सशस्त्र मिलिशिया का गठन किया. अगले कुछ वर्षों में, इस क्षेत्र में माओवादी गतिविधियां तेज हो गईं. हजारों लोग विस्थापित हुए. सलवा जुडुम के कैडरों ने गांवों को जला दिए और लोगों को निर्धारित शिविरों में जाने के लिए मजबूर किया. 2008 में जब यह मिलिशिया भंग हो गई तो सलवा जुडुम या सुरक्षाबलों की सहायता करने वाले ग्रामीणों को माओवादियों द्वारा परेशान किया गया और उनके साथ मारपीट की गई. "वे कहां जा सकते हैं?" चंद्रभान ने मुझसे पूछा. “दोनों पक्षों से हिंसा झेलने के बाद, उन्हें शिविरों में ठूंस दिया गया. जो लोग कभी खुले आसमान के नीचे रहते थे, वे यहां फंसे हुए हैं, जिससे बाहर जाने की इजाजत भी नहीं है.”
चंद्रभान ने मुझे बताया कि जब हेमंत का जीवन खतरे में था, तो उन्होंने हेमंत को सुझाव दिया था कि वे सावधान रहें और जब तक उनका तबादला न हो जाए, माओवादियों के साथ किसी भी तरह की तकरार से बचें. "लेकिन वह जवान था, अपने कर्तव्य के बारे में भावुक था और दुर्भाग्य से खुद को बचा नहीं सका," उन्होंने कहा. "एक बार जब आप माओवादियों की सूची में आ जाते हैं, तो वे महीनों और सालों तक आपका पीछा करते हैं," उन्होंने बताया. "हेमंत इसका शिकार हो गया और आखिरकार उनके हमले में मारा गया."
चंद्रभान ने मुझे बताया कि जब हेमंत की मौत हुई तो उनके शरीर को घर पहुंचने में तीन दिन लग गए. चंद्रभान ने याद करते हुए कहा, "इस घटना ने मुझे झकझोर दिया और मैंने सोचा कि एक ऐसा इंसान जिसने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी, उसके शव के प्रति भी कोई सम्मान नहीं है. सेवा में रहते हुए ही लोग आपकी सराहना करेंगे. लेकिन मर जाने पर आपकी परवाह कोई नहीं करता.” अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने बस्तर में कई युवा सहयोगियों को अपनी जान गंवाते देखा. उन्होंने कहा, "मैंने बच्चों के साथ उनकी विधवाओं को हमारे दफ्तर के चक्कर काटते, इधर-उधर भागते हुए, मदद पाने के लिए संघर्ष करते हुए और एक प्रतिपूरक नौकरी के लिए आवेदन करते देखा. उन्हें इस हालत में देखने में मुझे तकलीफ हुई. इसलिए मैंने फैसला किया कि मैं गरिमा के बिना इस तरह की जिंदगी और नहीं जी सकता.”
चंद्रभान अक्सर ही आदिवासियों के बारे में अपने वरिष्ठ अधिकारियों के नजरिए को सुनते. सीआरपीएफ में ही तैनात उनके एक दोस्त ने उन्हें बताया कि कैसे नक्सल विरोधी अभियानों पर हमेशा आदिवासियों को भेजे जाने की संभावना रहती है. बस्तर स्थित एक पत्रकार तमेश्वर ने इसकी पुष्टि की. "सुरक्षाबलों द्वारा किसी हमले को अंजाम देने की सामान्य रणनीति होती है कि जिला रिजर्व समूह को सबसे आगे रखा जाए जबकि बाकी सब उसके पीछे होते हैं." जिला रिजर्व समूह आदिवासियों का स्थानीय रूप से गठित बल है.
चंद्रभान के नौकरी छोड़ने के बाद, उनके दो आदिवासी सहयोगियों ने, जो इसी तरह के आघात से गुजर चुके थे, भी नौकरी छोड़ने का फैसला किया. मेरे कई रिश्तेदार, जो अब तक बस्तर में तैनात हैं, वे अब भी तबादले और सुरक्षित वापसी का इंतजार कर रहे हैं.
माओवादियों ने 2010 के दंतेवाड़ा हमले की जिम्मेदारी ली. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के एक शीर्ष नेता गोपाल ने बीबीसी को बताया कि यह आपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ उनका जवाब था. आपरेशन ग्रीन हंट को भारत सरकार ने माओवादियों के खिलाफ ''आक्रामक'' ढंग से नवंबर 2009 में शुरू किया था. 2011 तक आपरेशन ग्रीन हंट के तहत, नक्सल प्रभावित राज्यों में सीआरपीएफ की 73 बटालियनों के लगभग सत्तर हजार जवान तैनात थे.
तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने माओवादियों को "देश की आंतरिक-सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा" बताया था. तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने उन्हें “सैवेज” कहा. यह एक नस्लवादी शब्द है जिसे ऐतिहासिक रूप से दुनिया भर के आदिवासियों और मूल निवासियों का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. यह ध्यान देने योग्य है कि चिदंबरम कभी वेदांता कंपनी की कानूनी टीम का हिस्सा थे. इस कंपनी पर खनन के लिए आदिवासी जमीन को जबरन अधिग्रहित करने और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का आरोप है, जिसके चलते लाखों आदिवासी प्रभावित हुए हैं. 2003 में, चिदंबरम ने कर चोरी मामले में वेदांता की सहायक कंपनी स्टरलाइट इंडस्ट्रीज का बचाव किया था.
चिदंबरम को पहली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में वित्त मंत्री बनने से ठीक पहले वेदांता रिसोर्सेज के बोर्ड में एक गैर-कार्यकारी निदेशक भी नियुक्त किया गया था. वेदांता जैसी बड़ी खनन कंपनियों के साथ उनके करीबी रिश्ते और आपरेशन ग्रीन हंट के मुख्य पैरोकार की उनकी भूमिका को साथ रख कर देखा जाना चाहिए. कई कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों ने तर्क दिया है कि बस्तर में विद्रोहियों के खिलाफ संघर्ष का मुख्य उद्देश्य आदिवासियों के संसाधनों का दोहन करने के लिए उनकी जमीन पर कब्जा करना है.
राज्य ने सोच समझकर अशांत क्षेत्रों में समुदायों को आपस में लड़ाने की रणनीति तैयार की है. 1990 में अजीत डोभाल, जो फिलहाल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं, ने कश्मीरी लोक कलाकार से विद्रोही बने कुका पर्रे को अत्मसमर्पण किए विद्रोहियों को आतंकरोधी इकाई इखवान-उल-मुसलमीन में भर्ती करने के लिए मना लिया.
फिर 2005 में सलवा जुडुम ने बस्तर में अपना काम शुरू किया. इस वक्त डोभाल गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक थे. वह 2006 में गठित योजना आयोग की विशेषज्ञों की उस समिति का भी हिस्सा थे जिसका काम माओवादी प्रभावित क्षेत्रों में विकास से संबंधित मामलों की रिपोर्ट तैयार करना था. इस समिति के अन्य सदस्य थे : बी. डी. शर्मा, सुखदेव थोराट, के. बालागोपाल, बेला भाटिया, दिलीप सिंह भूरिया और रामदयाल मुंडा. मेनस्ट्रीम सप्ताहिक में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक इस समिति के जिन दो सदस्यों ने सलवा जुडुम का समर्थन किया था उनमें से एक डोभाल थे. जम्मू-कश्मीर और बस्तर में भारतीय राज्य की रणनीतियां हैरान करने की हद तक एक जैसी हैं. 1990 के दशक में कश्मीर में जिस एसपीओ मॉडल को प्रयोग में लाया गया, उसे ही हूबहू बस्तर में लागू किया गया.
कांग्रेस पार्टी से जुड़े महेंद्र कर्मा को सलवा जुडुम की अगुवाई के लिए चुना गया. यह एक मजाक ही है कि गोंडी भाषा में सलवा जुडुम का अर्थ “शांति यात्रा” है. जुडुम के अपद्रवी समूहों में स्थानीय आदिवासी युवाओं और आत्मसमर्पित माओवादियों को ही शामिल किया जाता था. गैर-सरकारी संस्था फैक्ट फाइंडिंग एंड डॉक्यूमेंटेशन एंड एडवोकेसी की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडुम में 12000 से ज्यादा नाबालिगों को भर्ती किया गया. आधिकारिक तौर राज्य सरकार ने 4200 एसपीओ को 1500 रुपए मासिक आय पर भर्ती किया था. इसके बाद के सालों में इन एसपीओ पर बलात्कार, हत्या और गांवों को जला देने जैसे कई मानवाधिकार उल्लंघन के मामले दर्ज हुए. एक रिपोर्ट के अनुसार 2007 जनवरी तक, सलवा जुडुम के 20 “राहत शिविरों” में 47238 लोग रह रहे थे. दंतेवाड़ा के जो 1354 गांव सलवा जुडुम के हमलों से प्रभावित हुए उनमें 644 गांव आदिवासी बहुल गांव हैं.
2007 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सलवा जुडुम को अवैध करार दिए जाने के कई साल बाद 25 मई 2013 को छत्तीसगढ़ के दरभा घाटी में हुए माओवादी हमले में कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ महेंद्र कर्मा भी मारे गए.
जुडुम पर प्रतिबंध लग जाने के बाद राज्य सरकार ने आदिवासियों को हथियारबंद करने का नया रास्ता निकाल लिया. 2008 में राज्य सरकार ने जिला रिजर्व समूह (डीआरजी) का गठन किया जिसमें लगभग 2000 लोगों को भर्ती किया गया. 2013 में इसका विस्तार अन्य इलाकों में किया गया. इस समूह में स्थानीय आदिवासी युवाओं और आत्मसमर्पित माओवादियों की भर्ती की जाती थी. 2018 में बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक एसआरपी कल्लूरी ने कहा था, “ये लोग इलाके से भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं क्योंकि ये लोग यहीं के हैं. ये लोग यहां के लोगों की संस्कृति, मान्यताएं और भाषा को समझते हैं. आदिवासियों से संबंध होने के चलते ये लोग मानसिक रूप से उनसे निपटने की अच्छी स्थिति में होते हैं. ये लोग माओवादियों से प्रभावी रूप से इसलिए लड़ पा रहे हैं क्योंकि इनके भीतर लड़ने की प्रेरणा है.”
आत्मसमर्पित माओवादी जिन्हें अक्सर विद्रोही तंग करते हैं या मार डालते हैं, ऐसे समूहों के निशाने पर होते हैं. इन लोगों को सुरक्षाबलों से खतरा रहता है जो उन्हें माओवादी बताकर जेलों में डाल सकते हैं, इसलिए एसपीओ की तरह डीआरजी जवानों के पास भी सुरक्षाबलों में शामिल होने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता.
2017 में नरेन्द्र मोदी सरकार ने सीआरपीएफ की बस्तरिया बटालियन का गठन किया. बटालियन में केवल बीजापुर, दंतेवाड़ा, नारायणपुर और सुकमा के आदिवासियों की भर्ती की गई. इस बटालियन में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण के साथ शारीर की लंबाई जैसी पत्रताओं में राहत दी गई. गृह मंत्रालय कि एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि बस्तर क्षेत्र से “सीआरपीएफ में आदिवासियों की भर्ती से बेरोजगारी और असमानता को कम करने में मदद मिलेगी और इससे वामपंथी उग्रवाद के प्रति युवाओं का आकर्षण भी कम होगा.” पिछले सालों में आदिवासी समुदायों ने सरकार की इस नीति का कई बार विरोध किया लेकिन सरकार ने ध्यान नहीं दिया.
मई 2018 में सरगुजा जिले में आयोजित बस्तरिया बटालियन की पासिंग आउट परेड में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भाग लिया था. वहां उन्होंने कहा था कि “ब्लैक पैंथर” नाम की आदिवासियों की एक अन्य बटालियन बस्तर में तैयार की जाएगी जो आंध्र प्रदेश के ग्रेहाउंड के समान होगी और इन बटालियन में मुख्य रूप से आदिवासियों को शामिल किया जाएगा.
उस साल अगस्त में एक फैक्ट फाइटिंग दल के सदस्य के रूप मैंने बस्तर के गोमपाड़ और नुलकातोंग गांवों का भ्रमण किया था. यहां पुलिस ने दावा किया था कि उसने 15 माओवादी मार गिराया है. हमारी टीम के साथ आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी भी थीं. हमने पाया कि पुलिस का एनकाउंटर फर्जी था. वहां किसी तरह की क्रॉस-फायरिंग नहीं हुई थी और सुरक्षाबलों का कोई जवान घायल नहीं हुआ था. असल में वह 15 कोईतुर आदिवासियों का नरसंहार था. मारे गए आदिवासियों में दो नाबालिग थे. इन लोगों को सुरक्षाबलों ने घेर कर मारा था.
वहां एक गांववाले ने मुझे बताया, “यहां के लोग जिला रिजर्व गार्डों को आसानी से पहचान लेते हैं क्योंकि वे लोग उनके ही समुदायों से और आसपास के गांवों के लोग होते हैं.” एक अन्य गांववाले, जो हमें नरसंहार वाली जगह दिखाने ले गया था, ने बताया, “डीआरजी लोगों को पास के जंगल में खरगोश मिला था. उनके बगल में शव पड़े थे और वे लोग खरगोश का गोश्त पका कर खा रहे थे.” हमें एक अन्य गांववाले ने बताया कि मरने की हालात में एक गांववाले को डीआरजी के लोगों से पानी तक नहीं दिया और उसके सिर पर लोहे की छड़ से वार किया. गांववालों ने बाद में उस सिर के टुकड़े इकट्ठे किए.
आज आदिवासियों को इस हद तक अमानुषिक बना दिया गया है कि उनके अपने लोग उन्हें इंसान नहीं समझते. गरीबी इतनी भीषण है कि चंद पैसों के लिए अकल्पनीय हिंसा आम बात हो गई है. जो लोग हिंसा के बीच पलते हैं उनके लिए हिंसा बेहद मामूली बात हो जाती है. सरकार हत्याओं को पुरस्कृत करती है जिसके चलते राज्य की बर्बरता अंजाम देने वाले लोग पैदा होते हैं. डीआरजी के लोग अक्सर गांववालों को कहते हैं, “हम शिकार करने आए हैं और बिना किसी को मारे वापस नहीं जाएंगे.” एक आदिवासी को दूसरे आदिवासी का “शिकार” करने के लिए सरकार इनाम और प्रमोशन देती है. अंततः यह एक खेल में बदल जाता है.
बस्तरी होने के कारण डीआरजी के सदस्य अपनी इस नई ताकत का इस्तेमाल पुराने मामलों का बदला लेने के लिए करते हैं. जिस बर्बरता से यह लोग निर्दोष गांववालों को मारते हैं या आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं, उस बर्बरता को अक्सर उच्चाधिकारियों का वरदहस्त प्राप्त होता है.
सलवा जुडुम वाले सालों में बस्तर में नागा और मिजो भारतीय रिजर्व बटालियन तैनात की गई थीं. इन बटालियनों में मुख्य रूप से पूर्वोत्तर भारत के ट्राइबल होते हैं जिन्हें गुरिल्ला युद्ध का अभ्यास होता है. इनके खिलाफ मानव अधिकार उल्लंघन के कई मामले दर्ज हुए. चंद्रभान ने मुझे बताया, “गांववाले नागा बटालियन से खौफ खाते थे. ये लोग बेरहम थे. ये लोग किसी भी गांव में घुस जाते और वहां की मांओं और बेटियों से उठा लेते और ऐसे कृत्य करते जिनकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते. एक घटना में ये लोग एक ऐसे गांव में आए, जहां करीब 15 घर थे. नागा बटालियन ने उस गांव के 18 लोगों को मार डाला. दसवीं कक्षा में पढ़ने वाला एक लड़का जो छुट्टियों में गांव आया हुआ था, उसने छिप कर अपनी आंखों के सामने यह बर्बरता देखी. दूसरे दिन वह दंतेवाड़ा आया. उसने एक छड़ी उठाई और नागा बटालियन के जवानों को मारने लगा. वह पागल हो चुका था.”
कई गैर सरकारी संस्थाओं और कार्यकर्ताओं द्वारा नागा बटालियन के खिलाफ मानव अधिकारों के उल्लंघनों की शिकायत के बाद, 2008 में इस बटालियन को इलाके से हटा लिया गया. 2015 में रमन सिंह सरकार ने गृह मंत्रालय को पत्र लिख कर इस बटालियन को दुबारा तैनात करने की मांग की. 2017 में नागा भारतीय रिजर्व बटालियन को, जिसे “डेयरिंग नाइंथ” भी कहा जाता है, इन क्षेत्र में सेवा के लिए आंतरिक सुरक्षा सेवा पदक से सम्मानित किया गया.
2014 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनने के बाद डोभाल ने बस्तर के कई दौरे किए. माना जाता है क्षेत्र में उग्रवाद विरोधी आपरेशन की योजना तैयार करने में उनका ही हाथ है. 2016 में कारवां में प्रकाशित एक साक्षात्कार में जगदलपुर कानूनी सहायता समूह के सदस्यों ने बताया था कि कार्यकर्ताओं को धमकाना और डराना 2015 के डोभाल के बस्तर दौरे के बाद की नई रणनीति है. यह कोई संयोग नहीं है कि दो बार की यात्रा के बाद उग्रवादरोधी रणनीति लागू की गई जिसका लक्ष्य बस्तर से माओवादियों को खत्म करना था. इस रणनीति को “मिशन 2016” नाम दिया गया.
अन्य अशांत क्षेत्रों के अपने अनुभवों से राज्य के सुरक्षा निकाय ने यह समझ लिया है कि भूभाग में अपना कब्जा बनाए रखने के लिए समुदायों को आपस में लड़ाना एक आसान तरीका है. बस्तर में एसपीओ, डीआरजी, बस्तरिया बटालियन, सी-60 और नागा और मिजो बटालियन जैसे आदिवासी और जनजाति बलों का इतिहास बताता है कि प्रभुत्वशाली जातीय संभ्रांत खुद पर किसी भी प्रकार के खतरे के बिना अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते रह सकता है. इन कुलीन जातियों के लिए उनकी ओर से लड़ने वाले और उनके खिलाफ बगावत करने वालों में कोई अंतर नहीं है. दोनों ही उनकी बलिबेदी पर निछावर करने के चीज हैं.
सरकार और विद्रोही, दोनों ही पक्षों में लड़ाकों का निर्माण, “विकास” के विमर्श को भी कटघरे में खड़ा कर देता है. विकास अक्सर लोगों से जमीन छीन लेने और उन्हें अपने घरों से बेदखल कर देना का हथियार बन जाता है. हालांकि भारत में आंतरिक विस्थापन की कोई सरकारी रिपोर्ट नहीं है, लेकिन कोलकाता की महानिर्बन कलकत्ता शोध समूह की 2007 की रिपोर्ट “कनफ्लिक्ट, वॉर एंड डिस्प्लेसमेंट : एकाउंट्स ऑफ छत्तीसगढ़ एंड बट्टीकलोआ” के अनुसार, दक्षिण छत्तीसगढ़ में द्वंद के कारण एक लाख से ज्यादा लोगों का विस्थापन हुआ है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सलवा जुडुम के अस्तित्व में आने के बाद से दंतेवाड़ा जिले के 1354 गांव में से आधे से ज्यादा खाली हो गए हैं. ये सारे गांव आदिवासी लोगों के हैं. रिपोर्ट को प्रकाशित हुए एक दशक से ज्यादा वक्त हो गया है और उपरोक्त संख्या में निश्चित रूप से बढ़ोतरी हुई होगी.
विस्थापना का जितना संबंध बहुमूल्य खनिज संसाधनों पर नियंत्रण करने से है, इसका उतना ही इसका संबंध हिंसा से भी है. 2015 में मेक इन इंडिया और मेक इन छत्तीसगढ़ परियोजनाओं के तहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में दंतेवाड़ा में 24000 करोड रुपए के समझदारी ज्ञापनों में हस्ताक्षर हुए. उसी साल छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रस्तावित निवेशों का अनुमान 36511 करोड रुपए लगाया. मुख्यमंत्री रमन सिंह ने ट्वीट किया, “हम संस्कृति के संरक्षण के नाम पर बस्तर जैसे इलाकों की जनता से उनके विकास और तरक्की के अफसरों को नहीं छीन सकते.” रमन सिंह की यह भाषा ऊंची जातियों के आधिपत्य वाली तमाम सरकारों की क्षेत्र के आदिवासियों के प्रति असंवेदनशील और दमनकारी रवयै की अभिव्यक्ति है. इस बीच बस्तर देश में सबसे सघन सैन्य उपस्थिति वाले इलाकों में से एक बन गया है. यहां प्रत्येक 40 लोगों पर सेना का एक जवान तैनात है. भारत में यह अनुपात प्रत्येक 1000 में एक सैनिक का है.
बस्तर में राज्य का युद्ध, न केवल माओवादियों के खिलाफ है बल्कि यह बस्तर के आदिवासियों के खिलाफ भी है और यह युद्ध उन प्राकृतिक संसाधनों के लिए है जिसकी हिफाजत पीढ़ियों से कोईतुर आदिवासी कर रहे हैं. कुछ साल पहले सोनी सोरी ने मुझे बस्तर के बदनाम आईजी कल्लूरी के बारे में यह बताया था कि उसने “स्वयं माना था कि बस्तर में होने वाली मौतें और हत्याएं उस जमीन और संसाधनों के कब्जे के लिए हैं जिन पर आदिवासी बसे हुए हैं.” उसने कहा था, “जमीन खाली कर दो, हिंसा रुक जाएगी.”