य़ुद्ध और अशांति

मोदी के जंगी मंसूबे का सियासी गणित

वाघा बोर्डर पर होने वाली रस्म की शुरुआत 1959 में हुई थी. यह राष्ट्रवाद के नाम पर किया जाने वाला एक नाटक भर है. ((समीर सहगल/हिंदुस्तान टाइम्स)
वाघा बोर्डर पर होने वाली रस्म की शुरुआत 1959 में हुई थी. यह राष्ट्रवाद के नाम पर किया जाने वाला एक नाटक भर है. ((समीर सहगल/हिंदुस्तान टाइम्स)

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10 मई को भारत और पाकिस्तान ने सीज़फायर की घोषणा की. इस घोषणा से पहले, चार दिन तक चली सैन्य टकराहट में 200 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा. दोनों देशों ने एक-दूसरे पर मिसाइलें गिराईं और नियंत्रण रेखा पर भारी गोलाबारी के साथ ड्रोनों से हमले किए. सीज़फायर की घोषणा वाले दिन नरेन्द्र मोदी सरकार ने दावा किया कि भविष्य में किसी भी आतंकी हमले को युद्ध मान कर जवाबी कार्रवाई की जाएगी. राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने इसे भारत का नया दर्शन, ‘न्यू नॉर्मल’ बताया.

लेकिन फिर भी 13 मई को सुरक्षा बलों के साथ शोपियां में हुई एक मुठभेड़ में तीन कथित आतंकियों के मारे जाने की ख़बर आई. इस मुठभेड़ के दो दिन बाद ख़बर आई कि सुरक्षा बलों ने एक अन्य मुठभेड़ में दक्षिण कश्मीर के अवंतीपुरा में तीन लोगों को मौत के घाट उतार दिया है. इन घटनाओं से सरकार की सोच में अंतरनिहित विरोधाभास को साफ़ समझा जा सकता है. यदि उपर्युक्त दोनों मुठभेड़ें आतंकियों के साथ हुई थीं, तो उन्हें युद्ध क्यों नहीं माना गया? क्या केवल उन आतंकी घटनाओं को युद्ध माना जाएगा जिनमें सुरक्षा बलों की क्षति होगी? क्या आतंकी घटनाएं तब भी युद्ध मानी जाएंगी, जब इनमें आम नागरिकों की मौत होगी? यानी, पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध को आतंकी कृत्यों से नहीं, बल्कि सुरक्षाबलों की नाकामी से जायज ठहराया जाएगा.

पहलगाम हमले के संबंध में ऐसा ही हुआ. उस हमले में आतंकियों ने 26 लोगों की हत्या कर दी थी. उस हमले में आतंकियों ने लोगों का धर्म पूछ कर हत्या की इसलिए वह हमला अन्य हमलों से अधिक बर्बर है, यह कहना सही नहीं होगा, बल्कि सभी आतंकी हमलों को एक ही नज़र से देखने की आवश्यकता है. इसलिए यहां भी ज़रूरी है कि सभी ऐसे हमलों की गंभीर जांच हो. लेकिन स्थिति क्या है? आज भी हम आतंकियों के बारे उतना ही जानते हैं, जितना सरकार ने बताया है. अब तक हमले में शामिल किसी भी आतंकी को पकड़ा नहीं गया है. उक्त हमला एक व्यस्त पर्यटन गंतव्य में हुआ. दुनिया के सबसे सघन सैन्य उपस्थिति वाले क्षेत्र के इस इलाके में भी लोग सुरक्षित नहीं रह सके, लेकिन एक बात लगभग तय मानी जा सकती है कि हमें संभवतः कभी इन सवालों के जवाब न मिलें और कभी पता नहीं चले कि इतनी बड़ी सुरक्षा में चूक कैसे हुई. शायद इसलिए भी कि हमारे यहां एक ऐसी सरकार है जिसने अपनी ही नीतियों/तर्कों को धता बताते हुए सैन्य टकराहट को हवा दी.

भारत ने 7 मई को ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया. इस सैन्य कार्रवाई में दुश्मन को चौंका देने वाला तत्व गायब था, क्योंकि भारत ने अपने इरादे कार्रवाई से पहले ही जगजाहिर कर दिए थे. आज भी हम पूरे भरोसे के साथ यह नहीं कह सकते कि उस रात की कार्रवाई से हमने क्या हासिल किया? उस पूरी अवधि में भारतीय मीडिया मिथ्या प्रचार और ग़लतबयानी के दलदल में इस कदर डूब गया कि कुछ बेहद ज़रूरी जानकारियां दबा दी गईं. इनमें से एक है लड़ाकू विमान राफ़ेल के गिराए जाने के दावे का सच. अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस बारे में ख़बर प्रकाशित की, लेकिन भारत में इस संबंध में कुछ भी लिखने-बोलने पर सरकारी कोपभाजन का शिकार होना पड़ा.