नकाब दर नकाब

कश्मीर में अति-राष्ट्रवादी विरोध कार्यक्रमों में भारतीय सेना की गुप्त भूमिका

23 दिसंबर 2021 को भारतीय सेना के जवान “आखिर कब तक” विरोध प्रदर्शन से पहले सेना के ट्रक से प्रदर्शन का बैनर उतारते हुए. राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञों के साथ-साथ सैन्य प्रतिष्ठान के सेवानिवृत्त सदस्यों ने चेतावनी दी कि यह बीजेपी के राजनीतिक हितों के साथ सेना के कामकाज का खुला घालमेल है. यह एक खतरनाक मिसाल है जिसके भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर नतीजे हो सकते हैं. शाहिद तांत्रे/कारवां
23 दिसंबर 2021 को भारतीय सेना के जवान “आखिर कब तक” विरोध प्रदर्शन से पहले सेना के ट्रक से प्रदर्शन का बैनर उतारते हुए. राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञों के साथ-साथ सैन्य प्रतिष्ठान के सेवानिवृत्त सदस्यों ने चेतावनी दी कि यह बीजेपी के राजनीतिक हितों के साथ सेना के कामकाज का खुला घालमेल है. यह एक खतरनाक मिसाल है जिसके भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर नतीजे हो सकते हैं. शाहिद तांत्रे/कारवां

23 दिसंबर 2021 की सर्द शाम को श्रीनगर के प्रताप पार्क में विरोध प्रदर्शन के लिए लगभग बीस कश्मीरी जुटे. सेना के दो ट्रक जल्द ही पास के रीगल चौक पर पहुंचे और उनसे उतरे दर्जनों सैनिकों ने पार्क को घेर लिया. कुछ सादे कपड़ों में थे और उनमें से दो ने मुझे बताया की कि वे भी भारतीय सेना में हैं. हालांकि प्रदर्शनकारी उनकी मौजूदगी से बेफिक्र नजर आ रहे थे. यह देखते हुए कि सेना आमतौर पर कश्मीर घाटी में प्रदर्शनकारियों के साथ कैसे पेश आती है, यह गैरमामूली दृश्य था.

कुछ मिनटों बाद वर्दीधारी दो जवानों ने ट्रक से एक होर्डिंग निकाली और उसे पार्क के अंदर सादे कपड़े वाले दो लोगों को सौंप दिया. होर्डिंग पर मोटे-मोटे तीन हर्फों में लिखा था : “आखिर कब तक”. इस लिखावट के पीछे खून के रिसते हुए धब्बे थे. नीचे, हैशटैगों की बाढ़ थी- #VoiceAgainstTerrorism (आतंकवाद मुर्दाबाद), #StopKillingKashmiris (कश्मीरियों को मारना बंद करो), #KashmirBadalRahaHai (कश्मीर बदल रहा है) और #KashmirForTiranga (कश्मीर चाहे तिरंगा). बैनर में "कश्मीर एकजुट हो" की अपील भी थी.

सैनिकों के होर्डिंग लगाने और उसके सामने मोमबत्तियां जलाए जाने के पंद्रह मिनट बाद, विरोध करने पहुंचने वालों में थे : भारतीय जनता पार्टी से जुड़े एक नेता और कुछ दूसरे छोटे समूहों के नेता, रिटायर सिविल सेवक, जिन्हें खराब सेवा रिकॉर्ड के लिए जाना जाता है और कुछ लोग जो पत्रकारिता और अति-राष्ट्रवादी बमबारी के बीच डोलते रहते है. सेना का एक अधिकारी ने, जिसने खुद को प्रादेशिक सेना की 125वीं बटालियन का कर्नल संजय भाले बताया, एक मशाल जलाई और प्रदर्शनकारियों में जो सबसे ज्यादा मुखर था उसे थमा दी. समूह ने पांच मिनट से भी कम समय के लिए आतंकवाद के खिलाफ कुछ नारे लगाए और पाकिस्तान को मटियामेट करने का दम भरा. इसके बाद उन्होंने दूरदर्शन, एशियन न्यूज इंटरनेशनल, एशियन न्यूज नेटवर्क और मुट्ठी भर स्थानीय वेब पोर्टलों के आस लगाए कैमरों को बाइट देने के लिए ब्रेक ले लिया.

पहला भाषण शाहीना भट ने दिया जो श्रीनगर नगर निगम की निर्वाचित सदस्य हैं. कर्नल ने खुद मशाल उन्हें सौंपी थी. "जब भी कोई हत्या या नाइंसाफी होती है तो हम अपनी आवाज उठाते हैं," शाहीना ने कहा. “बीजेपी ने कश्मीर में स्थिति को नियंत्रित किया है और मैं यहां हत्याओं को रोकने के लिए उनकी आभारी हूं. कश्मीर में विकास आ रहा है.'' आधे घंटे में पूरा मजमा निपट गया. एक चौथाई मोमबत्तियां छोड़ बाकी बुझा दी गईं. मीडिया जल्दी से निकल गया. सादे कपड़े पहने तीन जवानों ने होर्डिंग को नीचे उतारा और पास में ही सेना के एक ट्रक में महफूज रख लिया.

यह कार्यक्रम एसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स ऑफ डिसैपियर्ड पर्सन्स द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों का एक भौंडा नाट्य रूपांतरण जान पड़ रहा था. तीन दशकों से अधिक समय से, लापता हुए हजारों युवा कश्मीरियों की बीवियां जिन्हें हाफ विडो या आधी-बेवाएं कहते हैं और उनकी माएं, अपने खोए हुओं को याद करने और राज्य से जवाब मांगने के लिए हर महीने की 10 तारीख को प्रताप पार्क में इकट्ठा होती थीं. “आखिर कब तक” विरोध प्रदर्शन ने उसी खूनी पंजों का इस्तेमाल किया जो आमतौर पर एपीडीपी के पोस्टरों पर पाया जाता था.

“आखिर कब तक” विरोध भारतीय सुरक्षा एजेंसियों और कश्मीर में उनकी कार्रवाइयों के इतिहास की पुनर्व्याख्या करता जान पड़ता है. इसके आयोजकों के साथ हुई बातचीत से यही समझ आया कि सेना घाटी में नेताओं और सत्ता के दलालों की एक नई पीढ़ी को स्थापित करने की कोशिश कर रही है, जो इस इलाके में बीजेपी की सोच से नाभीनाल जुड़े हैं और एक अंतरराष्ट्रीय दर्शकों के सामने इस तरह घाटी को पेश कर रहे हैं जैसे वहां सामान्य हालात बहाल हो गए हैं. 23 दिसंबर के विरोध और इसके जैसे अन्य विरोधों का इस्तेमाल खूनखराबा होने पर इल्जाम सशस्त्र बलों से हटाने के लिए और बाज मौकों पर सुरक्षा बलों की दूसरी शाखाओं से हटाने के लिए रणनीतिक रूप से किया जा रहा है. राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञों के साथ-साथ सैन्य प्रतिष्ठान के सेवानिवृत्त सदस्यों ने मुझे चेताया कि सेना के कामकाज को बीजेपी के राजनीतिक हितों के साथ जोड़ना एक खतरनाक मिसाल है, जिसके भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर नतीजे हो सकते हैं.

भट को 2018 के नगरपालिका चुनावों में पार्षद चुना गया था. तत्कालीन राज्य जम्मू और कश्मीर के दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, ने चुनावों का बहिष्कार किया था. इन चुनावों में इलाके के ​इतिहास का सबसे कम मतदान, महज चार प्रतिशत दर्ज किया गया था. कड़ी सुरक्षा, जो कश्मीर में चुनावों की एक आम खासियत है, के अलावा 2018 के चुनाव मतदान केंद्रों के स्थानों और यहां तक कि प्रतियोगियों की पहचान को गुप्त रखते हुए आयोजित किए गए थे.

जब मैं इस साल 12 जनवरी को भट से उनके दफ्तर में मिला, तो वह बहुत कुछ खुल कर बात करती थीं. "जब भी कोई “आखिर कब तक” कार्यक्रम तय होता है, सेना के अधिकारी मुझे बुलाते हैं और मैं बाकी लोगों के साथ कार्यक्रम में शामिल होती हूं," उन्होंने मुझे बताया. उन्होंने कहा कि प्रदर्शनकारी आमतौर पर लाल चौक, प्रेस एन्क्लेव, पुराना जीरो ब्रिज और डल झील, जैसे श्रीनगर की खास जगहों पर मोमबत्ती जला कर तिरंगा फहराते हैं. भट ने कहा, "बैनर, मोमबत्तियां, मशालें और बाकी सामान सेना उपलब्ध कराती है क्योंकि हम उन चीजों को अपनी जेब से नहीं खरीद सकते. “विरोध” में हम केवल यह संदेश देने के लिए अपने हाथों में झंडे लेते हैं कि हम भारतीय हैं और हम शांति से भारतीयों के रूप में मरेंगे. हम यहां पाकिस्तान की गंदी रणनीति को पनपने की इजाजत नहीं देंगे और हम आवाज उठाएंगे.''

भट ने मुझे बताया कि सेना के XV कोर के मेजर जनरल एसपीएस विश्वासराव- जो घाटी में सैन्य अभियानों के लिए जिम्मेदार हैं- “आखिर कब तक” अभियान की देख-रेख करते हैं. जम्मू और कश्मीर पुलिस की खुफिया शाखा में एक मध्य-रैंकिंग अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया कि हफ्ट चिनार स्थित 125इन्फैंट्री बटालियन, जो एक यातना स्थल के रूप में बदनाम है, और बादामी बाग स्थित 105 राष्ट्रीय राइफल्स प्रादेशिक सेना की विशिष्ट इकाइयां इसमें शामिल हैं. भट ने मुझे बताया, "जनरल विश्वासराव भी विरोध करने आते हैं लेकिन वह हमेशा अन्य अधिकारियों के साथ सादी वर्दी में रहते हैं. सेना के पास अपना कैमरापर्सन भी है."

भट ने बताया कि “आखिर कब तक” अभियान कोई पहला कार्यक्रम नहीं है जब सेना ने इस तरह के विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए राजनेताओं के साथ मिलकर काम किया हो. उन्होंने याद किया कि 2021 में गणतंत्र दिवस पर वह उन पांच नगरसेवकों में से एक थीं, जो बादामी बाग छावनी से सटे गुप्कर रोड स्थित एम5 सैन्य शिविर में राष्ट्रीय ध्वज फहराने में विश्वासराव के साथ शामिल हुए थे.. "सेना की उचित प्रोटोकॉल और सुरक्षा हमें मिली थी," उन्होंने मुझे बताया. “फिर हम चार चिनार गए जो डल झील के बीच में है. बाद में हम शंकराचार्य मंदिर गए और तीस हजार रुपए के पटाखे फोड़े गए.”

भट हाल ही में जम्मू और कश्मीर अपनी पार्टी में शामिल हुई हैं जिसके लीडर अल्ताफ बुखारी और गुलाम हसन मीर हैं. मीर को खास तौर से सेना के करीबी माना जाता है. 2013 में जब मीर उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस सरकार में कृषि मंत्री थे, सेना ने अपनी खुफिया शाखा के जरिए गुप्त धन के दुरुपयोग की जांच की थी. कथित तौर पर यह पाया गया कि मीर को राज्य में सरकार बदलने के लिए पूर्व सेना प्रमुख वीके सिंह के आदेश के तहत 1.19 करोड़ रुपए मिले थे. सिंह अगले साल बीजेपी में शामिल हो गए. 

दिसंबर 2013 में विश्व मानवाधिकार दिवस के मौके पर एपीडीपी द्वारा आयोजित एक बैठक में गुमशुदा लोगों के रिश्तेदार शामिल हुए. “आखिर कब तक” विरोध ने अपने पोस्टरों में उसी खूनी हाथ का इस्तेमाल किया जो आमतौर पर एपीडीपी के पोस्टरों में पाया जाता था और सशस्त्र बलों के समर्थन वाले संदेश भी इसमें थे. यावर नजीर/गैटी इमेजिस

23 दिसंबर के विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए एक और शख्स जिसे जलती हुई मशाल थमाई गई 32 साल के जावेद बेग थे, जो उमर अब्दुल्ला के पूर्व जनसंपर्क अधिकारी और पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (सेक्युलर) के मौजूदा महासचिव हैं. यह फ्रंट पूर्व मंत्री हकीम यासीन के नेतृत्व वाला एक हा​शिए का राजनीतिक दल है. अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के हटने के बाद बेग को कड़े सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर वाराणसी में कैद कर दिया गया. उन्होंने मुझे बताया कि कश्मीर में एक स्थानीय अधिकारी, जो उनके साथ समझौता करना चाहता था, ने सारा मामला गढ़ा था. बेग ने कहा कि जेल में अधिकारियों ने उन्हें आतंकवादी कहा. उन्हें छह वाई छह फुट की एक अंधेरी कोठरी में तीन महीने तक रखा गया. अपनी रिहाई के बाद, उन्होंने दिसंबर 2020 में जिला विकास परिषद का चुनाव लड़ा. उन्होंने हंसते हुए कहा कि उनका सांत्वना पुरस्कार पीपुल्स एलायंस फॉर द गुप्कर डिक्लेरेशन के उम्मीदवार की हार थी. डिक्लेरेशन क्षेत्रीय स्वायत्तता और जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति की बहाली के लिए बना एक गठबंधन है.

बेग ने दावा किया कि “आखिर कब तक” पूरी तरह से उनकी अपनी पहल थी. "सेना केवल सुरक्षा प्रदान करती है," उन्होंने मुझे भरोसा दिया. इसके लगभग सभी विरोध श्रीनगर के सबसे ज्यादा किलेबंदी वाले इलाकों में हुए हैं, जो गहन निगरानी में होते हैं और जहां चौबीसों घंटे सैनिकों की भारी तैनाती रहती है. बेग ने कहा कि “आखिर कब तक” का विचार फरवरी 2021 में एक नामी रेस्टोरेंट मालिक के 22 साल के बेटे आकाश मेहरा की हत्या के बाद आया. सरकार ने किसी भी भारतीय नागरिक को इस क्षेत्र का अधिवास बनने की इजाजत देने वाले नए कानून को लागू करने के बाद यह गैर-कश्मीरियों पर दूसरा आतंकवादी हमला था. इस कानून से जनसांख्यिकीय परिवर्तन की आशंका है.

"कश्मीर में शांति एक लक्जरी है," बेग ने यह कहते हुए मुझे बताया कि आंदोलन ने केवल हत्याओं के लिए जवाबदेही की मांग की. "इस समाज के एक सदस्य बतौर मेरा मानना है कि हमें यह नैरेटिव तैयार करना होगा कि हम हत्याओं की निंदा करते हैं, पीड़ितों के साथ खड़े होते हैं." हालांकि, जब मैंने उनसे 18 साल के शाहिद ऐजाज की हत्या के बारे में पूछा, जिसे तीन महीने पहले केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल ने गोली मार दी थी, उनका जवाब लाग-लपेट वाला था.

सीआरपीएफ ने शुरू में दावा किया था कि एजाज, जो शोपियां से लौट रहा था, जहां वह सेब की फसल का काम कर रहा था, अज्ञात आतंकवादियों द्वारा पास के अर्धसैनिक शिविर में खुली गोलाबारी के दौरान मारा गया. बाद में यह कहा गया कि जिस सवारी में था, नाकेबंदी पर जब रोकने पर भी वह नहीं रुका तो उसे जबरन नाकेबंदी नांघने के चलते गोली मार दी गई. घटना के बारे में ईमेल से भेजे गए सवाल का जवाब न तो सीआरपीएफ और न ही जम्मू-कश्मीर पुलिस ने दिया मुझे.

"मैं सरकार के संस्थानों पर भरोसा करता हूं," बेग ने मुझे बताया. “सरकार एक बड़ी संस्था है और एक नागरिक के रूप में, सरकार जो कहती है हमें उस पर यकीन करना होगा. यहां कोई विकल्प नहीं है." उन्होंने कहा कि उनके लिए सेना और पुलिस पवित्र संस्थान हैं. "मैं उन पर उंगली नहीं उठा सकता. मैं व्यक्तियों पर उंगलियां उठा सकता हूं. ऐसे लोग हो सकते हैं जिन्होंने गलतियां की हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम उंगली उठाएं और इन संस्थानों पर शक करना शुरू कर दें. बेहतर है कि कश्मीर भारतीय संघ के साथ रहना सीख ले. पूरे देश में हमारे 25 करोड़ मुसलमान हैं.” जब मैंने उनसे पिछले कुछ सालों में देश के दूसरे हिस्सों में मुसलमानों पर हुए विभिन्न हमलों के बारे में पूछा तो उन्होंने दावा किया कि उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है.

एक अन्य पार्षद मुहम्मद आकिब रेंजुशा भी “आखिर कब तक” विरोध शुरू करने का पूरा श्रेय लेने को लेकर उतने ही उत्साहित दिखे. उन्होंने मुझे बताया कि अक्टूबर 2021 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर 1990 के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों की बेदखली की याद में इसी नारे के साथ मोमबत्ती जला कर प्रदर्शन आयोजित किया गया था. उन्होंने बताया, "मैं हैरान था जब उस विरोध को अंतरराष्ट्रीय प्रेस ने कवर किया. यह मेरे लिए एक जीत थी जब मेरे विचार को सभी ने अपनाया. इस तरह के कार्यक्रम भारत को विश्व स्तर पर यह दिखाने में मदद करते हैं कि कश्मीरी नई दिल्ली के शासन से खुश हैं.”

9 नवंबर को आयोजित “आखिर कब तक” विरोध में पूर्व नौकरशाह ख्वाजा फारूक रेंजुशाह भी मौदूज थे. जो गुलाम नबी आजाद सरकार में पूर्व सूचना निदेशक थे. उनके कश्मीरी मीडिया के विभिन्न वर्गों के साथ व्यापक संबंध हैं. एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया कि रेंजुशाह ने सूचना विभाग के लिए कई कैमरे खरीदे थे और यह सुनिश्चित किया था कि प्रेस उन्हें घाटी में लगभग एक मसीहा के रूप में चित्रित करे. पत्रकार ने कहा कि 2007 के एक सार्वजनिक समारोह में, रेंजुशाह ने आजाद के साथ मंच साझा किया था, जिन्होंने उनसे कहा था, "वे मेरी तस्वीरें ले रहे हैं लेकिन केवल आपकी ही छप रही है."

रेंजुशाह एक मुस्लिम राजा का वंशज होने का दावा करते हैं जिसने कभी घाटी पर शासन किया था. 2013 में रिटायर होने के बाद से वह खिचड़ी किस्म के दबाव समूहों की लीडरी कर रहे हैं जिनमें कश्मीर सूफी सोसाइटी, कश्मीर सोसाइटी इंटरनेशनल, जमात ऐतकाद इंटरनेशनल, हजरत बुलबुलशाह इंटरनेशनल स्प्रीचुअल बोर्ड और कश्मीर डेवलपमेंट फ्रंट शामिल है. उनकी हालिया गतिविधियों, जिसमें हिंदू-राष्ट्रवादी छद्म इतिहास को आगे बढ़ाना शामिल है, ने अक्सर कश्मीर में धार्मिक संप्रदायों के बीच कोलाहल और विभाजन को जन्म दिया है. वह 11 किताबों के लेखक और सूफीवाद के विद्वान होने का दावा करते हैं लेकिन अक्सर अन्य इस्लामी संप्रदायों के अनुयायियों के लिए सांप्रदायिक गालियों का इस्तेमाल करते हैं. 2007 में, जब रेंजुशाह बडगाम के डिप्टी कमिश्नर थे, उन्होंने दावा किया कि हिंदू देवता राम अयोध्या से निर्वासन के दौरान सुथाहरण गांव में रहे थे. उन्होंने तत्काल सभी सरकारी अभिलेखों में गांव का नाम सीताहारण करने का हुक्म जारी कर दिया. रेंजुशाह ने यह भी मांग की कि श्रीनगर के प्रसिद्ध नेहरू पार्क का नाम बदल कर जीएम गुरु के नाम पर रखा जाए, जो झेलम नदी में पर्यटकों को बचाने के दौरान मारे गए थे. अप्रैल 2021 में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में रेंजुशाह के खिलाफ मामला दर्ज किया था. वह जल्द ही “आखिर कब तक” विरोध में आम चेहरा हो गए. रेंजुशाह ने विरोध प्रदर्शनों में अपनी संलिप्तता के बारे में मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया. 

30 जनवरी को श्रीनगर के ओल्ड जीरो ब्रिज पर आयोजित “आखिर कब तक” विरोध में शाहीना भट समेत कई प्रदर्शनकारी. “आखिर कब तक” विरोध भारत समर्थक नागरिकों का कश्मीर की एक वैकल्पिक तस्वीर पेश करने का प्रोपगैंडा प्रयास है. शाहिद तांत्रे/ कारवां

साजिद यूसुफ विरोध प्रदर्शनों का एक और चेहरा हैं. युसूफ की जिंदगी नियमित रूप से पत्रकारिता और सेना-पुलिस के प्रोपगेंडा के बीच झूलती रही है. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत बीजेपी नेता शेख खालिद जहांगीर के साथ काम करके की थी. (3 मार्च को, जहांगीर की किताब व्हाई आर्टिकल 370 हैड टू गो का विमोचन उस समय के कश्मीर के सबसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल डीपी पांडे ने किया था. इस कार्यक्रम में दिए भाषण का संक्षिप्त विवरण पांडे ने मीडिया से साझा किया. उन्होंने अपने लक्ष्य साफ रखे, जिनमें "कश्मीरी हिंदुओं की वापसी" भी शामिल है.) यूसुफ ने पाकिस्तान की आलोचना करने वाली टेलीविजन बहसों में लगातार भाग लेने से पहले, श्रीनगर स्थित एक दैनिक अखबार कश्मीर थंडर में कुछ समय के लिए काम किया था, जिसका मालिकाना रेंजुशाह के बेटे दानिश के पास है. 2019 में, उन्होंने न्यूज पोर्टल रियल कश्मीर न्यूज शुरू किया, जिसे हाल ही में आईटीवी नेटवर्क ने खरीद लिया है, जो न्यूजएक्स और कई क्षेत्रीय चैनलों का भी मालिक है. रियल कश्मीर न्यूज की प्रधान संपादक याना मीरचंदानी, बीजेपी-पीडीपी गठबंधन सरकार के दौरान कश्मीर में दिखाई दीं और बाद में उन्होंने अपना नाम बदल कर याना मीर कर लिया. अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद वह इस इलाके के बारे में भारतीय खबरिया पैनल शो में नियमित भागीदार बन गई हैं. वह “आखिर कब तक” कार्यक्रम में नियमित तौर पर शामिल होती हैं.

"पाकिस्तान पिछले तीस सालों से कश्मीर में लोगों को मार रहा है," यूसुफ ने 15 जून 2021 को “आखिर कब तक” विरोध में प्रेस को बताया. मौजूद तमाम खास लोगों की तरह, यूसुफ ने सेना से निकटता से जुड़े प्रचार स्टंट के अपने हिस्से में भाग लिया था. इस साल गणतंत्र दिवस पर उन्होंने लाल चौक स्थित प्रसिद्ध घंटाघर पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया. इस घटना का फुटेज, जिसे ड्रोन से शूट किया गया था, बाद में XV Corps के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर अपलोड किया गया. जुलाई 2021 से घाटी में ड्रोन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. एक ईमेल प्रश्नावली के जवाब में यूसुफ ने कहा कि वह “आखिर कब तक” कार्यक्रम में नियमित मौजूद नहीं रहते और गणतंत्र दिवस के दिन झंडा फहराने का ख्याल उनका और उनके दोस्त साहिल बशीर का था. “हम इसके लिए बहुत पहले से योजना बना रहे थे क्योंकि हमें लगा था कि लाल चौक से यह पैमाग दुनिया भर में जाएगा कि जम्मू-कश्मीर में भारत के विचार का समर्थन करने वाले कश्मीरी बहुतायत में हैं,” उन्होंने कहा. उन्होंने कहा कि सेना ने केवल विरोध प्रदर्शन के लिए सुरक्षा मुहैया कराई.

“आखिर कब तक” की मीडिया कवरेज का ज्यादातर हिस्सा उदार और आलोचनात्मक रहा है. टाइम्स ऑफ इंडिया के सलीम पंडित ने अक्सर सेना की भागीदारी का जिक्र किए बिना और पत्रकारिता की सटीकता के लिए बहुत ही ढीली प्रतिबद्धता के साथ विरोधों पर रिपोर्ट की है. उदाहरण के लिए, पंडित की 10 मार्च की एक रिपोर्ट, लाल चौक के एक प्रदर्शन के बारे में कहती है कि "तीन दशकों में पहली बार जीवन के सभी क्षेत्रों के कश्मीरी" विरोध करने के लिए एक साथ आए हैं. पंडित इस साल जनवरी में कश्मीर प्रेस क्लब के कब्जे की कार्रवाई में शामिल थे, जिसके बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने इसका पंजीकरण रद्द कर दिया था. उन्होंने अक्सर अपने अधिग्रहण के आलोचकों को पाकिस्तानी एजेंट कहा है.

यहां तक ​​​​कि श्रीनगर स्थित कुछ सम्मानित प्रकाशनों ने भी “आखिर कब तक” पर रिपोर्टिंग करते समय सेना की भूमिका को छोड़ दिया है. राजनीतिक टिप्पणीकार इमाद मखदूमी, जो अक्सर सुरक्षा प्रतिष्ठान की स्थिति को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं, इन विरोधों और सेना के दूसरे कामों में लगातार नजर आते हैं. 9 मई को लेफ्टिनेंट-गवर्नर मनोज सिन्हा से मुलाकात के पांच दिन बाद मखदूमी ने ग्रेटर कश्मीर के सलाहकार संपादक के रूप में पदभार संभाला. उन पांच दिनों में, ग्रेटर कश्मीर को, जिसे 2019 से सरकारी विज्ञापन नहीं मिला था, अचानक फिर से सरकारी विज्ञापन मिलने लगा. मखदूमी की नियुक्ति के बाद इसकी संपादकीय नीति में एक बड़ा बदलाव देखा गया है. उनके शामिल होने के एक हफ्ते बाद ग्रेटर कश्मीर ने अपने पहले पन्ने पर तस्वीर के साथ तीन कॉलम की एक बड़ी खबर लगाई, जिसमें कुछ छोटे बीजेपी नेताओं ने सिन्हा के साथ मुलाकात की खबर थी. उसी दिन, तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों और कई पूर्व विधायकों के साथ एक प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत, गुप्कर गठबंधन के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ सिन्हा की बैठक की खबर को केवल एक छोटा कॉलम पर दिया गया था. न तो मखदूमी और न ही ग्रेटर कश्मीर ने सवालों का जवाब दिया.

एक स्थानीय पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया, "जब भी कोई विरोध होता है, तो वे हमें इसे कवर करने के लिए 500 रुपए देते हैं. ये स्थानीय पार्षद हमें पूछने के लिए लिखित सवालों की एक सूची के साथ बुलाते हैं. यह लगभग एक नाटक की तरह है, जिसके अपने अभिनेता और निर्देशक हैं. सेना ने नाटक तैयार किया और स्थानीय पार्षदों को उनके मुताबिक काम करने का हुक्म दिया. इसका मकसद कश्मीर और यहां की सेना की सकारात्मक तस्वीर पेश करना है.

“आखिर कब तक” विरोध भारत समर्थक नागरिकों के एक ऐसे पोटेमकिन गांव (माया महल) के रूप में कश्मीर की एक वैकल्पिक तस्वीर पेश करने की कोशिश करता है, जो सेना के प्रति निष्ठावान है. अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद भारत को मिली अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय निंदा और उसके बाद हुए लॉकडाउन और संचार ब्लैकआउट को देखते हुए यह सेना के लिए खास तौर पर महत्वपूर्ण रहा है. क्षेत्र के राजनीतिक प्रबंधन में सेना की बढ़ती भूमिका को छिपाने के लिए एक नागरिक चेहरे की जरूरत की वजह से “आखिर कब तक” विरोध की योजना बनाई गई.

इसके लिए सेना को विरोध प्रदर्शनों में अपनी भूमिका को गुप्त बनाए रखना होता है. ऐसा ही कुछ हुआ था दिसंबर 2021 के एक अन्य कार्यक्रम में जिसमें मैं भी शामिल हुआ था. भारत के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बिपिन रावत की 9 दिसंबर को हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मौत के बाद, “आखिर कब तक” के प्रचारकों ने लाल चौक में आयोजित एक जुलूस में भाग लिया. जल्द ही पांडे नामुदार हुए और इंतजार में बैठी मीडिया से कहा कि उन्हें कश्मीर के लोगों के बीच सैनिकों के समर्थन को देख कर खुशी हुई. उन्होंने कहा कि जुलूस की मीडिया कवरेज को देखने के बाद और रावत के निधन के बाद मिले शोक संदेश की बाढ़ ने उन्हें यहां आने के लिए मजबूर कर दिया. उन्होंने इस बात का कोई जिक्र नहीं किया कि जुलूस का आयोजन उनके ही आदमियों ने सादे कपड़ों में किया था. कार्यक्रम में मौजूद मीडिया ने पांडे से उनकी यूनिट के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के बारे में पूछने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

जब कारवां ने पांडे को “आखिर कब तक” के कार्यक्रमों में शामिल होने के बारे में प्रश्न भेजने के बारे में संदेश भेजा तो पांडे के पूर्व XV कोर के एक ब्रिगेडियर रूपेश मेहता ने हमें भारतीय सेना के अतिरिक्त जन सूचना महानिदेशक से संपर्क करने को कहा. न तो एडीजीपीआई, न ही कश्मीर और लद्दाख के लिए सेना के जनसंपर्क अधिकारी एमरॉन मुसावी ने “आखिर कब तक” कार्यक्रम में सेना की भूमिका के बारे में हमारे सवालों के जवाब दिए.

सेना प्रमुख बिपिन रावत ने दिसंबर 2018 में ऑपरेशन सद्भावना के तहत दौरे पर आए जम्मू-कश्मीर के छात्रों से मुलाकात की. सेना के खर्च पर "दिल और दिमाग जीतने" और छात्रों के लिए अखिल भारतीय दौरों तक और चुनिंदा स्थानीय लोगों के लिए इफ्तार पार्टियों से लेकर दावतों के आयोजन पर करोड़ों रुपए खर्च करने की परियोजना आज भी चालू है. कमल किशोर/पीटीआई

विरोध के लिए एक नागरिक मोर्चा सेना को इस बात का अवसर देता है कि यदि कभी हिंसक झड़प हो जाए तो वह जिस पर चाहे उसका दोष मढ़ सके. 17 नवंबर को, सेना, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और श्रीनगर पुलिस ने हैदरपोरा में एक सैन्य अभियान किया जिसमें चार लोगों की मौत हो गई. सेना ने शुरू में दावा किया कि चार लोग आतंकवादी थे लेकिन पीड़ितों में से तीन के परिवारों ने इससे इनकार किया. जल्द ही पूरे कश्मीर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. इनमें से सबसे बड़ा 18 नवंबर को श्रीनगर में एक मौन धरना था, जिसमें उमर अब्दुल्ला सहित क्षेत्र के ज्यादातर प्रमुख राजनेता शामिल थे. प्रदर्शनकारियों ने मांग की कि मारे गए नागरिकों के शवों को कब्रों से निकाल कर परिवारों को लौटाया जाना चाहिए और इसकी न्यायिक जांच की जानी चाहिए.

अगले दिन “आखिर कब तक” विरोध की एक और अजीब सी किस्त श्रीनगर में आयोजित हुई. जुलूस का नेतृत्व कर रहे भट ने कहा, "जिसने भी इन हत्याओं को अंजाम दिया, उसे न्याय का सामना करना चाहिए, चाहे वह पुलिस हो, सेना हो या आतंकवादी," भट ने यह बात तब कही जब इस पर लगभग सबकी सहमति थी कि चार लोगों को पुलिस और सेना ने गोली मारी थी. विरोध पर बेग का बयान भी उतना ही उलझा हुआ था. उन्होंने मांग की कि प्रधानमंत्री घटना की जांच कराएं क्योंकि जो हुआ वह अभी भी साफ नहीं है, लेकिन वह इस बात पर कायम रहे कि सेना पर इस घटना की कोई जिम्मेदारी नहीं डालनी चाहिए. "सेना और पुलिस पवित्र संस्थाए हैं," उन्होंने कहा, "लेकिन उनके बीच छिपे भेड़ियों को पहचानने और उन्हें उनके तार्किक अंजाम तक पहुंचाने की जरूरत है." बेग के उलट, भट ज्यादा साफ तौर पर पुलिस को दोषी मानती थीं. "हम पुलिस को चेतावनी दे रहे हैं," उन्होंने कहा, "अगर कोई मुठभेड़ हुई थी तो आपने उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया? अगर वे आतंकवादी थे, तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए था."

यह जल्द ही यह साफ हो गया कि प्रदर्शनकारी सेना का बमुश्किल जिक्र करते हुए पुलिस से सवाल क्यों कर रहे थे. मैंने विश्वासराव को विरोध के किनारे एक पार्षद से बात करते हुए देखा, जो जल्द ही आवेश में आ गए. 25 दिसंबर को, मैं पार्षद से मिला, जो गुमनाम रहना चाहते हैं, और उनसे पूछा कि वह कार्यक्रम स्थल से क्यों निकल गए. उन्होंने मुझे बताया कि विश्वासराव ने "मुझे पुलिस को दोष देने के लिए कहा था." उन्होंने मुझे बताया कि विश्वासराव ने उनसे भीड़ को यह बताने के लिए कहा था कि पुलिस ने उस मुठभेड़ के दौरान उचित एसओपी का पालन नहीं किया था. “जब सेना भी ऑपरेशन में शामिल थी तो मैं पुलिस को दोष क्यों दूंगा? मैं वहां से चल दिया क्योंकि मैं पुलिस के खिलाफ नहीं जाना चाहता था,” पार्षद ने कहा. विश्वासराव ने कारवां के कई संदेशों या कॉलों का जवाब नहीं दिया.

इन पार्षदों और बीजेपी के छोटे नेताओं को शामिल करना भारत सरकार द्वारा क्षेत्र के प्रमुख राजनीतिक दलों के अवैधीकरण का नतीजा है. पिछले सत्तर सालों में भारत सरकार और सेना ने नेकां और पीडीपी दोनों के प्रमुख सदस्यों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए. इन दलों ने सेना की मांगों को पूरा करने और कश्मीरी आबादी को कम से कम आंशिक रूप से भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के बीच एक अच्छी लाइन खींची. हालांकि, अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद, दोनों दलों के वरिष्ठ नेताओं को नजरबंद कर दिया गया था और मीडिया को हुक्म दिया गया था कि वह उनके बयानों को छापना बंद करे. कभी सरकार की स्थिति का समर्थन करने वाले नेताओं की पूर्ण अक्षमता और चुप्पी ने घाटी में जन प्रतिनिधियों के एक नए ब्रांड का उदय किया है. स्थानीय समर्थन के दबाव से मुक्त ये प्रतिनिधि, भारत सरकार और उसके सशस्त्र बलों के आख्यान को आगे बढ़ाने के लिए खुद को समर्पित कर सकते हैं.

"मूल रूप से, अगस्त 2019 के बाद, भारत सरकार ने यहां एक नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की. सरकार चाहती थी कि लोग इस पर यकीन करें कि मुख्यधारा की राजनीति, ज्यादा जरूरी तौर पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और दूसरे क्षेत्रीय दल, अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं," नेकां के राज्य प्रवक्ता इमरान नबी डार ने मुझे बताया. उन्होंने कहा, “हमने कई बार देखा है कि यहां के लोग टेलीविजन चैनलों पर बीजेपी की भाषा बोलने लगते हैं. वे यह नैरेटिव स्थापित करना चाहते हैं कि कश्मीर में स्थानीय राजनीति खत्म हो गई है.”

पीडीपी के एक अतिरिक्त प्रवक्ता नजमु साकिब ने इस पर सहमति जताई. "इन भाड़े के लोगों की खेती एक दोतरफा संदेश है," उन्होंने मुझे बताया. “पहला, यह चेतावनी है कि अगर लोकप्रिय मुख्यधारा की पार्टियां लाइन में नहीं आती हैं, तो पहले से ही एक विकल्प तैयार किया जा रहा है. और दूसरा दुनिया को यह दिखाना है कि कश्मीर के हालात सामान्य हैं.” उन्होंने मुझे बताया कि विरोध प्रदर्शनों में सेना की भूमिका घाटी में सबकी जानकारी में थी. "यह बहुत स्पष्ट है कि उनकी फंडिंग कहां से आती है, वे कैसे काम करते हैं और उनका स्वरूप क्या है," उन्होंने कहा. “इन व्यक्तियों को ​जिनका अतीत संदिग्ध रहा है, खड़ा करने के पीछे का विचार लोकतंत्र के आखिरी अवशेषों को खोखला करना है. राजनीति की धार में अपने पैर डुबो कर, ये राष्ट्रीय संस्थान एक अनिश्चित रास्ते पर चल रहे हैं.”

कई रक्षा विश्लेषक और भारत के खुफिया समुदाय के पूर्व सदस्य घाटी की राजनीति में सेना की सीधी भागीदारी से चिंतित दिखे. "सेना का काम सीमाओं की रक्षा करना और नागरिक अधिकारियों की सहायता करना है," राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा की एक पत्रिका फोर्स के संपादक प्रवीण साहनी ने मुझे बताया. "तो, इंटेल के संबंध में जो कुछ भी करना है, वह नागरिक प्राधिकरण द्वारा किया जाना है. सेना केवल उन्हें मदद करने के लिए है. वे इन चीजों में सबसे आगे नहीं हो सकते. तो जाहिर सी बात है कि सेना अपना काम नहीं, किसी और का काम कर रही है. अगर आप किसी और का काम करते हैं, तो आपका राजनीतिकरण किया जाता है."

साहनी ने मुझे बताया कि, उनकी एक आने वाली किताब में, उनका तर्क है कि 2016 में पाकिस्तानी ठिकानों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 बालाकोट हमले के लिए सेना की प्रतिक्रिया मुख्य रूप से बीजेपी के राजनीतिक हित से प्रेरित थी, न कि सैन्य रणनीति से. उन्होंने कहा कि वह कश्मीर में बीजेपी नेताओं को खड़ा करने में सेना की मिलीभगत को लेकर खास तौर पर चिंतित हैं. उन्होंने कहा, “किसी पार्टी की मदद करना सेना के लिए जायज काम नहीं है. भारत का अर्थ बीजेपी नहीं है."

एक सेवानिवृत्त अधिकारी, जो भारत के सबसे वरिष्ठ खुफिया कार्यालयों में से एक में थे, ने मुझे बताया कि कश्मीर में सेना का नागरिक मामलों में भाग लेना नई बात नहीं. "मैं सद्भावना जैसे कार्यक्रमों के बारे में जानता हूं," उन्होंने कहा. 1997 में, नागरिकों को क्रूर और अंधाधुंध आतंकवाद विरोधी अभियानों के अधीन करने के बाद, सेना ने ऑपरेशन सद्भावना शुरू की, जो एक विद्रोह विरोधी मिशन था, जिसमें स्कूलों का निर्माण और नागरिकों को मुफ्त भोजन वितरित करना शामिल था. पश्चिम एशिया में एक असफल अमेरिकी मॉडल से प्रेरित, "दिल और दिमाग जीतने" की परियोजना आज भी चालू है, जिसमें सेना इफ्तार पार्टियों से लेकर छात्रों के लिए अखिल भारतीय दौरों और चुनिंदा स्थानीय लोगों के लिए दावतों के आयोजन पर करोड़ों रुपए खर्च करती है. दिल्ली स्थित एक थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार सद्भावना का सालाना बजट, जो शुरू में 4 करोड़ रुपए था, 2020 तक बढ़कर 550 करोड़ रुपए हो गया था.

सद्भावना अपने अमेरिकी समकक्षी योजना की तरह ही विफल साबित हुई है. शोपियां, पुलवामा, कुपवाड़ा, बारामूला और बांदीपोरा जिले, जहां सद्भावना कार्यक्रम सबसे अधिक सक्रिय थे, वहां पिछले पांच सालों में सबसे भयानक उग्रवाद देखा गया है. उदाहरण के लिए, हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के 2016 में मारे जाने के बाद, पूरी घाटी में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, उसके गृह जिले अनंतनाग में केवल 14 सशस्त्र बलों, नागरिकों और आतंकवादियों की मौत हुई. इस बीच, दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल के अनुसार, पुलवामा में 35, कुपवाड़ा में 85 और बारामूला में 62 लोग मारे गए.

पूर्व खुफिया अधिकारी ने मुझे बताया कि जबकि सेना ने पहले भी नागरिक मामलों में दखल किया है लेकिन पहले उसने उन बातों से बचने की कोशिश की थी जो स्पष्ट रूप से राजनीतिक लगती थीं. जब मैंने उनसे “आखिर कब तक” के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, "जब मैं कश्मीर में था, मैंने इस तरह की चीजें कभी नहीं देखी थीं. मैंने सुना है कि मेरे सहयोगियों की मदद से ऐसा हो रहा है, यह बहुत दुखद है. इन चीजों की जरूरत नहीं है. ये चीजें सेना को उसके असल मकसद और भूमिका से कमजोर और समझौता करेंगी." उन्होंने कहा कि सशस्त्र बलों और राजनीतिक दलों के बीच इस स्तर की मिलीभगत पहले कश्मीर में खुले या गुप्त रूप से नहीं हुई थी. इससे पहले कि मैं उनके साथ अपनी बातचीत खत्म करता, उन्होंने मुझे न केवल कश्मीर के लिए बल्कि पूरे भारत के लिए नागरिक जीवन में सेना की भूमिका के दीर्घकालिक प्रभावों के बारे में चेतावनी दी. "ये चीजें नहीं होनी चाहिए, क्योंकि सेना पर कोई नियंत्रण नहीं होगा," उन्होंने कहा. “भारत में ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं है जो चाहता है कि सेना देश पर शासन करे या मार्शल लॉ लगा दे. हम पाकिस्तान नहीं बनना चाहते ना?”

 

जुलाई 2021 में कारगिल युद्ध के 22 साल पूरे होने के जश्न में लेफ्टिनेंट जनरल डीपी पांडे और एमवी सुचिंद्र "ध्रुव कारगिल राइड" का नेतृत्व करते हुए. पांडे को अपनी कमान के तहत सैनिकों और असैन्य राजनीतिक जीवन के बीच की रेखाओं को धुंधला करने के लिए सशस्त्र बलों के भीतर से भी आलोचना का सामना करना पड़ा है. पीटीआई

घाटी की राजनीति में सेना की भागीदारी इस क्षेत्र में पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ प्रशासन की जारी कार्रवाई में इसकी भूमिका पर भी सवाल उठाती है. यह “आखिर कब तक” विरोध में सामान्य रूप से उपस्थित लोगों के साथ हुई कई बातचीत से साफ झलकता है. भट ने मुझे बताया, “अगर कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा हत्या की जाती है, तो हम अपना संदेश पहुंचाने के लिए विरोध करेंगे ही. एक पुलिसकर्मी को अपना कर्तव्य निभाने के लिए क्यों मारा जाना चाहिए? जब एक पुलिसकर्मी मारा जाता है तो यह हमारे लिए दुखदायी होता है." उन्होंने कहा कि कश्मीर के लिए मुख्य खतरा "सफेदपोश आतंकवादी" हैं. यह एक ऐसा राजनीतिक शब्द है जिसका इस्तेमाल सेना और सरकार समर्थक पत्रकार उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर हमला करने के लिए करते हैं जो कश्मीरी नागरिकों को निशाना बनाए जाने की घटनाओं पर आवाज उठाते हैं.

ऐसा जान पड़ता है कि सेना, पुलिस और बीजेपी ने ''सफेदपोश आतंकवाद'' शब्द के इर्द-गिर्द एक राजनीतिक रणनीति तैयार करने में मिल कर काम किया है. जनवरी में आर्मी मैनेजमेंट स्टडीज बोर्ड द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में, जिसमें पांडे के साथ ही पुलिस महानिदेशक दिलबाग सिंह और एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी और बीजेपी के नेता सुब्रत साह ने भाग लिया था, वक्ताओं ने "ओवरग्राउंड वर्कर्स" श​ब्द के बजाय, जिसका इस्तेमाल सेना पहले करती आई थी, सफेदपोश आतंकवादी शब्द का जिक्र किया.

पंडित जैसे पत्रकारों ने भी अपनी भूमिका निभाई है. 3 मार्च को कश्मीर में सेना के अधिकांश वरिष्ठ नेतृत्व ने बादामी बाग में XV कोर और इंटरनेशनल सेंटर फॉर पीस स्टडीज द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में भाग लिया. एक अधिकारी ने पंडित को "अलगाववादी लॉबी के छिपे हुए एजेंडे" को उजागर करने के लिए सेना के प्रिय संपादक के रूप में पेश किया. एक ओजपूर्ण भाषण में, पंडित ने "सफेदपोश आतंकवादियों" का जिक्र किया. उन्होंने तर्क दिया कि, देश के दुश्मनों को "सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर संस्थानों की छवियों को विकृत करके" परेशानी और अशांति पैदा करने का काम सौंपा गया है. उनकी थीसिस इस दावे पर खरी उतरी कि स्वतंत्र पत्रकारिता घाटी में आतंकवाद का "नया चरण" है. यह पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के एक पहले से ही उलझे हुए समूह के लिए अच्छा नहीं है, जो रोजमर्रा की हिंसा का खुलासा करने की कोशिश कर रहा है, जिन्हें कि “आखिर कब तक” जैसे कार्यक्रमों को व्यवस्थित करने और गैर-आलोचनात्मक रूप से रिपोर्ट करने वालों द्वारा अस्तित्व से बाहर कर दिया गया है. पंडित ने कारवां के सवालों का उत्तर नहीं दिया

9 मई को XV कोर के प्रभारी बतौर पांडे के आखिरी दिन, सेना ने कश्मीर में अपने इतिहास में एक अद्वितीय पर्व का आयोजन किया . पूरे दिन, उन्होंने वर्दी में और बेहतरीन नेहरू जैकेट दोनों में उनके साथ तस्वीरें खिंचवाईं, जिनके साथ वह प्रेरक के रूप में याद किया जाना चाहते थे और जिनके साथ उनके बेहद अच्छे संबंध हैं. युवा छात्रों के साथ उनकी तस्वीरें थीं, एक जनसांख्यिकीय जिसके बारे में उन्होंने अपने विदाई भाषण में विस्तार से बात की थी. "यह आपके लिए कार्यभार संभालने और भविष्य की पीढ़ियों के लिए सफलता, प्यार और खुशी के बीज बोने का समय है," उन्होंने कहा. "आप वह आशा हैं, मेरे प्यारे युवा दोस्तों, और मैं आपके अच्छे होने की कामना करता हूं." ग्रेटर कश्मीर ने इस बात की प्रशंसा की कि कैसे उन्होंने "गुमराह करने वाले युवाओं को कगार से वापस लाने के और उन्हें दूसरा मौका देने के लिए दृढ़ता से काम किया" और "कश्मीर में समस्याओं से परे सोचने के लिए दिमाग लगाया."

“आखिर कब तक” विरोध के लगभग सभी नियमित लोगों के साथ फोटो शूट भी हुए. बादामी बाग के बगीचे में बेग ने उन्हें शॉल पहनाई. दिन के उत्सव के सबसे अधिक फोटो खिंचवाने वाले क्षण में पांडे फूलों से सजी सेना की जीप में सवार हुए जिसे कई सैन्य अधिकारियों, साथ ही बेग और यूसुफ ने घसीटा. इस घटना की अन्य अधिकारियों ने व्यापक आलोचना की. एक सेवानिवृत्त मेजर जनरल बीएस धनोआ ने ट्वीट किया, "नागरिकों को सैन्य विदाई के अवसर पर पहले कभी नहीं देखा." इससे दो दिन पहले श्रीनगर में आतंकवादियों ने एक पुलिस कांस्टेबल गुलाम हसन डार की गोली मार कर हत्या कर दी थी. ज्यादातर सहायक कलाकार शुभकामाओं की तैयारी में व्यस्त होने के कारण डार की हत्या के विरोध में आयोजित छोटे कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सके.