कश्मीर के नाबालिगों ने बताया गैरकानूनी हिरासत का हाल

एक रिपोर्ट के अनुसार, 25 सितंबर को जम्मू-कश्मीर पुलिस के प्रमुख द्वारा जेजेपी को सौंपी गई रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य पुलिस ने 5 अगस्त से 144 बच्चों को हिरासत में लिया है. सना इर्शाद मट्टो
22 November, 2019

6 अगस्त की रात श्रीनगर के बटमालू इलाके में रहने वाले 17 साल के नाबालिग किशोर के घर जम्मू-कश्मीर पुलिस ने छापा मारा. उस नाबालिग की मां ने बताया कि पुलिस ने घर को ऐसे घेरा “मानो किसी वांछित आतंकवादी को पकड़ने आई हो.” सातवीं कक्षा तक पढ़े इस नाबालिग ने मुझे बताया कि रात तकरीबन 1.30 बजे छापा मारने आए पुलिसवालों ने नकाब पहन रखे थे. उसने बताया कि वह गहरी नींद में सो रहा था तभी पुलिसवालों ने चिल्लाकर उसे जगाया. पुलिसवालों ने उसे लातों और घूंसों से मारा और उठा कर पुलिस की गाड़ी में डाल दिया. इसके तीन दिन बाद रात की ऐसी ही दबिश में पुलिस ने बटमालू के बाजार इलाके से 17 साल के एक अन्य लड़के को पकड़ लिया.

इन दोनों की तरह ही कई नाबालिगों को 5 अगस्त के बाद से गिरफ्तार किया गया है. हालांकि सरकार बार-बार कह रही है कि इस पूर्ववर्ती राज्य में हालात शांतिपूर्ण हैं लेकिन मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक भारत समर्थक और अलगाववादी सहित हजारों लोगों को बंधक बनाया या गिरफ्तार किया गया है.

ऐसी मीडिया रिपोर्टें भी प्रकाश में आईं हैं जो बताती हैं कि नाबालिगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर कई दिनों तक हवालात में रखा और यातना दी. हालांकि पुलिस नाबालिगों की अवैध गिरफ्तारी से इनकार कर रही है लेकिन पुलिस का ऐसा करना साफतौर पर जम्मू-कश्मीर जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन) कानून 2013 का उल्लंघन है जिसके तहत अगर किसी नाबालिग को गिरफ्तार किया जाता है तो उसे 24 घंटे के भीतर राज्य की बाल अदालत में पेश करना होगा. फिर अदालत तय करती है कि गिरफ्तार नाबालिग को जुवेनाइल होम या किशोर गृह भेजा जा सकता है या नहीं. कानून स्पष्ट रूप से बताता है कि नाबालिगों को पुलिस स्टेशन में नहीं रखा जा सकता.

17 साल के दो नाबालिगों के अलावा मैंने 16 साल के दो लड़कों से भी बात की जिन्हें गैरकानूनी रूप से पुलिस हिरासत में रखा गया था. चारों ने बताया कि उन्हें अदालत में पेश नहीं किया गया और किशोर गृह में नहीं रखा गया. 6 अगस्त को गिरफ्तार हुए 17 साल के नाबालिग ने बताया कि जिस गाड़ी से उसे थाने ले जाया जा रहा था उसमें छह और नाबालिग थे. उसने कहा कि उस रात पुलिस ने बहुत सारी गिरफ्तारियां की थीं और गिरफ्तार करने के बाद वह नाबालिगों को छापे के दूसरे स्थानों में साथ ले जाती थी. उसने बताया, “मुझे बटमालू पुलिस स्टेशन में 37 दिनों तक रखा गया. मैं बता नहीं सकता कि मुझ पर क्या बीती है. मैं उन दिनों को कभी नहीं भूल पाऊंगा.” उसने बताया कि जब पुलिस उसे गिरफ्तार कर रही थी तो उसकी मां ने बीच-बचाव करने की कोशिश की लेकिन पुलिसवालों ने मां को धमकाते हुए कहा, “खामोश हो जाओ वर्ना लड़के को मार देंगे.”

पहला नाबालिग घर का एकमात्र कमाने वाला है. पुलिस ने पत्थर मारने वालों की बनाई वीडियो के आधार पर उसकी पहचान की थी. उस लड़के और उसकी मां ने बार-बार कहा कि वह पत्थर मारने वालों में शामिल नहीं था. मां ने बताया कि उनका बेटा देखने वालों के हुजूम में शामिल था इसलिए वह पुलिस के कैमरे में आ गया. लड़के ने बताया कि वह बार-बार पुलिस को यही बात बताता रहा और कहता रहा कि “वे लोग वीडियो में देख सकते हैं कि वह पत्थर नहीं मार रहा है लेकिन पुलिसवालों ने मेरी बात नहीं मानी. देखिए न, उन लोगों ने मुझे 37 दिनों तक कैद में रखा.”

उसकी मां ने मुझे बताया कि जब भी परिवारवाले थाने में मुलाकात करने जाते थे तो वह रो-रो कर पूछता, “मां, मैं यहां क्यों हूं? कई बार वह अपना सिर लॉकअप की दीवार पर पटकने लगता.”

नाबालिग के अनुसार, लॉकअप में उसके साथ लगभग पंद्रह और नाबालिग बंद थे. उनकी गिरफ्तारी के लगभग तीन हफ्ते बाद, उनमें से 11 नाबालिगों को बटमालू पुलिस स्टेशन से लगभग दो किलोमीटर दूर करण नगर पुलिस स्टेशन जेल भेज दिया गया. करण नगर पुलिस स्टेशन काक सराय इलाके में है जिसे स्थानीय लोग आमतौर पर काक सराय थाना कहते हैं. उसने बताया, “हमें एक छोटी सी कोठरी के भीतर रखा गया था, चारों ओर अंधेरा था. वहां बहुत कम रोशनी आती थी. पास की लैटरीन जाम थी और बदबू मारती थी. हम बीमार पड़ गए.” उसने बताया कि जब उनके परिवारवालों ने तीन दिनों तक विरोध प्रदर्शन किया तो सभी 11 नाबालिगों को बटमालू स्टेशन वापस लाया गया. उसने बताया कि उसके पिता जो मनोरोगी हैं, को भी उससे मुलाकात करने के लिए दो दिन तक हवालात में रखा गया.

आखिरकार 11 सितंबर को इस किशोर को रिहा कर दिया गया लेकिन वह अभी भी पूरी तरह से आजाद नहीं हुआ है. उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज है इसलिए उसे हर सुबह "हाजरी" के लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन जाना पड़ता है. उसे 1932 की रणबीर दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत पकड़ा गया था- यह अनुच्छेद 370 के तहत राज्य में लागू होने वाली मुख्य आपराधिक संहिता थी- जो दंगा करने, सरकारी अधिकारियों के काम और कर्तव्य के निर्वहन में जानबूझकर खलल डालने जैसे अपराधों में लागू होती है.

9 अगस्त को हिरासत में लिए गए बटमालू बाजार इलाके के 17 वर्षीय नाबालिग की भी यही दास्तां थी. उसने मुझे बताया कि सुरक्षा बलों ने उनके घर के बाहर तिहरा घेरा डाला था. दसवीं कक्षा के इस छात्र ने कहा कि वह अपने घर के बाहर पुलिस की गाड़ियों के शोर से जाग गया था. इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, एक पुलिस वाले ने दीवार से छलांग लगा कर घर का मेन गेट खोल दिया. उसने बताया, "फिर उन्होंने निचले माले की खिड़की तोड़ दी और घर में दाखिल हो गए. मैंने सोचा कि उन्होंने घेरा डाला है और कोई मुठभेड़ होने वाली है, लेकिन वे हमारे घर के अंदर घुस आए और तभी अचानक मैंने देखा कि कमरे के अंदर लगभग आधा दर्जन पुलिस वाले मौजूद हैं. सैकड़ों पुलिस वाले आधी रात मुझे ऐसे हिरासत में ले रहे थे जैसे कि मैं कोई अपराधी हूं." उसे भी बटमालू पुलिस स्टेशन ले जाया गया. उसने मुझे बताया कि उसके माता-पिता को मिलने की इजाजत नहीं मिली और बटमालू पुलिस स्टेशन में हिरासत में लिए गए अन्य की तरह ही, उसके पिता को भी मिलने आने पर दो दिनों के लिए हिरासत में रखा गया.

दूसरे 17 वर्षीय नाबालिग को भी करण नगर पुलिस स्टेशन ले जाया गया. उसने हिरासत में बिताए दिनों को याद करते हुए कहा, “मेरे जीवन का सबसे बुरा अनुभव है. हम बैरक में खड़े तक नहीं हो पाते थे और रात में रोते थे क्योंकि हमें जेल के अंदर घुटन महसूस होती थी.” उसे 12 सितंबर को रिहा कर दिया गया लेकिन उसे भी स्थानीय पुलिस स्टेशन में हर रोज “हाजरी” के लिए जाना पड़ता है. उसके खिलाफ बटमालू के अन्य नाबालिगों की तरह ही तीन एफआईआर दर्ज हैं. उसके खिलाफ दर्ज रिपोर्ट में कहा गया है कि उसे 10 अगस्त को गिरफ्तार कर उसी दिन रिहा कर दिया गया. पुलिस के इस दावे को नाबालिग गलत बताता है. उसने मुझसे कहा कि आजकल "जब भी शहर में कानून और व्यवस्था की स्थिति खराब होती है पुलिस उसे हिरासत में ले लेती है." उसने कहा कि रिहाई के बाद भी पुलिस ने उसे दुबारा उठा लिया था और बटमालू पुलिस स्टेशन में उसे रात बितानी पड़ी थी. लेकिन उसे दूसरी गिरफ्तारी वाला दिन याद नहीं आया.

16 साल के जिन दो नाबालिगों से मैंने बात की उनमें से एक बटमालू बाजार इलाके से मुश्किल से दो किलोमीटर दूर रहता है. उसे 16 अगस्त को हिरासत में लिया गया था. उसकी दादी ने मुझे बताया, “मैं ईमानदारी से बताती हूं कि उसने पथराव किया था लेकिन वह एक तरह की बीमारी का शिकार है और उसे घर के अंदर रखना नामुमकिन होता है.” दादी ने बताया कि हिरासत के बाद परिवार वाले बटमालू पुलिस स्टेशन गए थे. परिवार ने मुझे बताया कि लॉकअप में जब लड़का बेहोश हुआ तो 22 अगस्त को पुलिस ने उसे रिहा कर दिया. लड़के ने मुझे बताया कि पुलिस लॉकअप के अंदर एक सिपाही ने उसे बेरहमी से पीटा. उसका कहना था, ''मुझे अपनी पतलून उतारने के लिए कहा गया. एक सिपाही ने मेरे बाएं कंधे पर दांतों से काटा. उसके साथ लॉकअप में रहे एक आदमी ने बताया कि नाबालिग की हालत इतनी खराब हो गई थी कि वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था.” इस 16 वर्षीय नाबालिग के खिलाफ भी एक एफआईआर दर्ज है और 17 साल के उन दो लड़कों पर लगाए गए आरोप इस पर भी थोपे गए हैं. इसे भी रोज पुलिस स्टेशन जा कर हाजरी लगानी पड़ती है. लड़के की रिपोर्ट में कहा गया है कि उसे 20 अगस्त को गिरफ्तार किया गया था और उसी दिन रिहा कर दिया गया.

श्रीनगर के नाटीपोरा इलाके से 16 साल के एक और लड़के को इसी तरह गिरफ्तार कर हवालात में रखा गया. परिवार ने बताया कि लड़के को सितंबर की शुरुआत में गिरफ्तार किया गया था और 12 दिनों के लिए पुलिस हिरासत में रखा गया. लेकिन सदर पुलिस स्टेशन की एक पुलिस रिपोर्ट के अनुसार, लड़के को 25 अगस्त को उठाया गया और उसी दिन रिहा कर दिया गया. उसकी मां के मुताबिक उनका लड़का मानसिक रूप से बीमार है. "पुलिस जानती है कि वह मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं था लेकिन फिर भी उसे हिरासत में लिया गया और चनापोरा पुलिस स्टेशन में 12 दिनों तक सलाखों के पीछे रखा गया." मां ने कहा कि उसने स्थानीय पुलिस अधिकारी से निवेदन किया कि उसके बेटे को छोड़ दिया जाए. उसका दिमाग 10 साल के बच्चे-सा है. कभी-कभी वह बस कंडक्टरों के साथ चला जाता है, कभी पत्थरबाजों के साथ, कभी वह बॉलीवुड अभिनेताओं की नकल करता है.” उनके मुताबिक, बेटे को पुलिस के अलावा पत्थरबाजों ने भी पीटा था जो उसे पुलिस का मुखबिर मानते हैं.”

दबाव बनाने के लिए नाबालिगों को हिरासत में रखना, घाटी में नई बात नहीं है. 2018 में, मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं के संघ, जम्मू-कश्मीर सिविल सोसायटी गठबंधन ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसका शीर्षक था- "जम्मू और कश्मीर के बच्चों पर हिंसा का असर." रिपोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में 2003 और 2017 के बीच में बच्चों के खिलाफ हिंसा के असर का अध्ययन किया. रिपोर्ट ने आरोप लगाया कि राज्य के बच्चे कानून का "शिकार" हुए हैं. सरकारों ने दमनकारी सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत नाबालिगों को अवैध रूप से हिरासत में रखा है. यह कानून किसी व्यक्ति को बिना किसी आरोप या मुकदमे के दो साल के लिए सुरक्षात्मक हिरासत में रखने की इजाजत देता है. रिपोर्ट के अनुसार, कश्मीर में बच्चों के साथ वयस्कों जैसा व्यवहार किया गया है और जम्मू-कश्मीर में बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने वाली कोई "कानूनी और मानक प्रक्रियाएं या प्रथाएं नहीं हैं.”

जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय की वकील मीर उर्फी ने मुझे बताया कि नाबालिगों के मामलों में, पुलिस कभी आयु-निर्धारक कारकों का पालन नहीं करती है. उर्फी ने मुझे बताया, "यहां वे उसके नाबालिग होने के पहले अधिकार का उल्लंघन करते हैं." वह बताती हैं, "जब कोई किशोर पकड़ा जाता है, तो प्रथम सूचना रिपोर्ट में पुलिस उसे बालिग या लगभग 18 साल का दिखाती है ताकि वे पीएसए के तहत उसे हिरासत में ले सकें." किशोर न्याय अधिनियम के अनुसार, एक नाबालिग को अन्य अपराधियों के साथ पुलिस लॉकअप में नहीं रखा जा सकता है. हालांकि, उर्फी ने कहा कि "कश्मीर घाटी में 10 जिलों के लिए केवल एक किशोर गृह है और आप उस पर पड़ने वाले दबाव को समझ सकते हैं." उन्होंने कहा कि जब किसी नाबालिग को बिना रिमांड के महीनों तक सामान्य पुलिस लॉकअप में रखा जाता है तो वह अपराधियों के संपर्क में आ जाता है और इस बात का उसके दिमाग में असर पड़ता है. उसके माता-पिता उसके सामने अपमानित होते हैं. इससे भी वह प्रभावित होता है. उसकी अपराध न करने की इच्छाशक्ति कम हो जाती है.” उन्होंने आगे कहा, "ऐसे मामले हैं जिनमें नाबालिगों को बिना किसी एफआईआर या प्रतिबंधात्मक हिरासत के महीनों तक रखा गया है. इसलिए पुलिस जुवेनाइल जस्टिस एक्ट का उल्लंघन कर रही है और कोई भी इस का संज्ञान नहीं लेता है.”

घाटी में पुलिस द्वारा बच्चों को अवैध रूप से हिरासत में लिए जाने की रिपोर्टें आने के बाद दो बाल अधिकार कार्यकर्ता, ईनाक्षी गांगुली और शांता सिन्हा ने सर्वोच्च न्यायालय में 14 सितंबर को जनहित याचिका दायर की और शीर्ष अदालत से कार्रवाई करने को कहा. सिन्हा राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग के पहले अध्यक्ष थे. जनहित याचिका में आरोपों के आधार पर 20 सितंबर को अदालत ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय से रिपोर्ट मांगी. बदले में उच्च न्यायालय ने एक किशोर न्याय समिति का गठन किया, जिसमें आरोपों पर गौर करने के लिए उच्च न्यायालय के चार सिटिंग जज शामिल थे. 1 अक्टूबर को जेजेसी ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी.

हालांकि जेजेसी रिपोर्ट की आलोचना हो रही है क्योंकि यह बिना किसी स्वतंत्र जांच के केवल राज्य पुलिस और राज्य प्रशासन की सूचना पर आधारित है. एक रिपोर्ट के अनुसार, 25 सितंबर को जम्मू-कश्मीर पुलिस के प्रमुख द्वारा जेजेपी को सौंपी गई रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य पुलिस ने 5 अगस्त से 144 बच्चों को हिरासत में लिया है. अपनी रिपोर्ट में, जेजेसी ने पुलिस प्रमुख के हवाले से कहा कि "किसी भी बच्चे को पुलिस अधिकारियों द्वारा अवैध हिरासत में नहीं रखा गया था या नहीं रखा गया है," और "किशोर न्याय अधिनियम का सख्ती से पालन किया गया है." रिपोर्ट में पुलिस के रुख को ही सच माना गया है कि हिसारत में लिए गए बच्चों को उसी दिन हिरासत से छोड़ दिया गया था. पुलिस रिपोर्ट ने नाबालिगों की अवैध हिरासत की सभी मीडिया रिपोर्टों को भी खारिज कर दिया क्योंकि ये रिपोर्टें "पुलिस को बदनाम करने के इरादे से बनाई गईं थीं और सनसनीखेज कहानी बनाई गईं. मीडिया में प्रकाशित रिपोर्टें हवाई थीं.”

16 अक्टूबर को, जेजेसी रिपोर्ट के जवाब में, गांगुली ने फिर से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और एक हलफनामा दायर किया, जिसमें कहा गया था, ''जेजेसी समिति केवल पुलिस महानिदेशक द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट की सामग्री और निष्कर्ष को बिना किसी जांच के आगे बढ़ा देती है. समाचार वेबसाइट द वायर द्वारा किए गए पुलिस रिपोर्ट के विश्लेषण में बताया गया है कि कैसे "कई बिंदुओं पर पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में बहुत खबरों को खारिज कर दिया. गांगुली की अपील पर प्रतिक्रिया देते हुए 5 नवंबर को शीर्ष अदालत ने इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि जेजेसी ने "इस मुद्दे पर पूरी तरह से अपना दिमाग नहीं लगाया है." अदालत ने समिति को 3 दिसंबर को अगली सुनवाई के लिए एक नई रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया.

जब मैंने कश्मीर जोन के पुलिस महानिदेशक स्वयं प्रकाश पाणी से संपर्क किया तो उन्होंने नाबालिगों की गैरकानूनी गिरफ्तारियों और हिरासत के दावों को गलत बताया. उन्होंने कहा कि सभी नाबालिगों के साथ कानून के अनुसार व्यवहार किया जाता है. पाणी ने कहा, “सवाल ही नहीं कि किसी नाबालिग को दो महीने तक गिरफ्तार रखा जाए. ये बेकार की बाते हैं.” उन्होंने आगे कहा, “जो लोग कह रहे हैं कि उन्हें महीनों तक हिरासत में रखा गया वे अदालत जा सकते हैं. उन्हें रोका किसने है?” उन्होंने बताया कि श्रीनगर में बाल बंदी गृह है और घाटी के सभी जिलों में बाल न्याय बोर्ड हैं. फिर उन्होंने मुझे बताया, “सभी नाबालिगों के मामलों को जिला जूवेनाइल अधिकारी देखते हैं और बोर्ड तय करता है कि बालक को किशोर गृह भेजना है या नहीं.” पाणी के अनुसार, जम्मू-कश्मीर पुलिस “उपयुक्त प्रक्रिया का पालन करती है.”


Auqib Javeed is a Srinagar based journalist and he tweets at @AuqibJaveed.