तकरीबन पांच साल पहले लेबनान में एक बड़ी तब्दीली आई जो हर गुज़रते दिन के साथ बदतर होती गई. आज उस विरोध प्रदर्शन को ‘थावरा’ के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ ‘इंक़लाब’ होता है. माली हालत का डगमगाना, कोविड-19 महामारी, बेरूत के बंदरगाह पर अगस्त 2020 का धमाका, बैंकिंग व्यवस्था ढहना, सब कुछ एक साथ हुआ और आपस में यूं जुड़ा था कि एक को सुलझाए बगैर दूसरे को सुलझाना नामुमकिन हो गया. मैं उस जानिब पर थी जहां फ़र्क कर पाना मुश्किल था कि किस बात का मुझे ज़्यादा ग़म करना चाहिए. मैं यह भी नहीं जान पा रही थी कि कौन सी परेशानी मुझे बेहद बेचैन कर रही है.
तो, मैंने उस रास्ते पर जाना तय किया जो मेरा सबसे अपना था. बतौर फ़ोटोग्राफ़र और पत्रकार मेरी ज़िम्मेदारी थी उस वक़्त को कैमरे में कैद करना. लेकिन इससे परे बतौर शहरी, मैंने इसे समझने, असलियत बयां करने की कोशिश में तस्वीरें खींचीं. मैं तब तक यह नहीं जान पा रही थी कि मेरी आंखों के आगे चल क्या रहा था, जब तक कि मैंने उन पलों को कैद नहीं कर लिया और उन्हें अपने नज़रिए से फिर से नहीं देखा.
इस जहन्नुम में कुछ साल बिताने के बाद साल 2022 में मैं इन सारी तस्वीरों को एक प्रोजेक्ट में एक साथ रखने में कामयाब रही, जिसे मैंने 'टियर ऑफ़ ट्रॉमा' यानी 'सदमे के आंसू' नाम दिया. तीन साल तक सिलसिलेवार मुसीबतों में फंसने के बाद, मुझे लगने लगा था कि लेबनान उस मुक़ाम पर पहुंच चुका है जहां से वह सुधारों पर अमल शुरू कर सकता है, अपने भटके हुए निज़ाम को राह पर ला सकता है.