जम्मू से श्रीनगर को जोड़ने वाले चार लेन के नए राजमार्ग से उम्मीद की जाती है कि इससे समूची कश्मीर घाटी की यात्रा में कम समय लगेगा. लेकिन अगस्त में मैंने जितने सप्ताह वहां बिताए, हर बार जब भी मैंने दक्षिण कश्मीर जाने की कोशिश की तो मुझे नाकेबंदियों पर घंटे–घंटे भर रोका गया. मैं उस वक्त इसी राजमार्ग पर था जब इस साल फरवरी में पुलवामा में एक आत्मघाती हमलावर ने केंद्रीय सुरक्षा बल के एक काफिले पर हमला कर दिया था, जिसमें करीब चालीस सुरक्षाकर्मियों की मौत हो गई थी. धमाका उस जगह पर हुआ जहां सड़क की ढलान ऊपर की तरफ होती है और यातायात धीमा हो जाता है– हमलावर ने यह जगह शायद इसलिए चुनी हो, जिससे ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाया जा सके. हमले के बाद सरकार ने सशस्त्र बलों के काफिले को सहज रखने के लिए जम्मू में ऊधमपुर से उत्तरी कश्मीर में बारामुला तक हफ्ते में दो दिन नागरिकों के आने-जाने पर पाबंदी लगा दिया. हालांकि अब इस राजमार्ग की मरम्मत कर दी गई है लेकिन वहां से गुजरने वाले वाहन अब भी हिचकोले महसूस कर सकते हैं.
जब मैं वहां था तो शुक्रवार के अलावा इस राजमार्ग से हर दिन सेना के कई काफिले गुजरते थे. जब सेना का काफिला यहां से गुजरता तो तुरंत ही बाकी से सभी दूसरे यातायात ठप कर दिया जाता हैं. बख्तरबंद गाड़ियां और सुरक्षा बल रास्ता बंद रोक देते हैं, उनकी सीटियों की आवाज में आपातकाल का स्पष्ट भाव होता है. गाड़ियों का जमघट लग जाता है– यहां तक कि एम्बुलेंस को भी जाने की इजाजत नहीं होती. ज्यादातर यात्री बाहर निकलने की हिम्मत नहीं करते, लेकिन कुछ चैन से नहीं रह पाते और अपनी कारों से बाहर आ जाते हैं. वे बाहर खड़े सैनिक काफिले को देखते और ऐसी बातें करते रहते हैं जैसे मौसम के बारे में बातें कर रहे हों.
एक दिन अगस्त के आखिर में मैंने एक परिवार को अपने बीमार बच्चे के साथ गाड़ी आगे निकालने के लिए गलत दिशा से बढ़ते हुए देखा. बच्चा यात्री की गोद में बैठा था और ड्राइवर रास्ता देने के लिए गुलाबी रंग की मेडिकल रिपोर्ट खिड़की से बाहर निकाल कर सुरक्षा बल के जवानों की तरफ लहरा रहा था. वायरलैस रेडियो से इजाजत मिलने के बाद जवानों ने कार को जाने दिया. सैनिक काफिले में उस दिन अजीब ढंग से प्राइवेट बसें, ट्रक, छोटी वैन और यहां तक कि टवेरा गाडियां भी थीं. कुछ दाईं तरफ मुड़कर तराल और पुलवामा जनपदों की तरफ गईं तो बाकी श्रीनगर की ओर बढ़ती रहीं. इन गाड़ियों में बैठे ज्यादातर वर्दीधारी सैनिक सो रहे थे. देखने वाले उनकी वर्दियों से सुरक्षा बल के नाम का अंदाजा लगा रहे थे.
कभी न खत्म होने वाले सैनिक काफिले की बात होती रही, घाटी में कड़ी कार्रवाई की अटकल कश्मीर में फैल गईं – “माहौल शांतिपूर्ण है, वे और ज्यादा सैनिकों को क्यों ला रहे हैं”? – या पकिस्तान के साथ जंग. सड़क पर मेरे सामने खड़ा एक अधेड़ व्यक्ति कुछ कहने के लिए मुड़ा. जब उसे लगा कि मैं कश्मीरी नहीं हूं तो उसने कहा, “कश्मीरी को मारने के लिए इतनी सेना चाहिए क्या?” मुझे हैरानी हुई कि क्या पुलवामा को लेकर राज्य उतना ही डरा हुआ है जितना उसने लोगों को महसूस कराया है.
भारत सरकार के कश्मीर को संविधान में विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को रद्द करने और उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदलने के दूसरे दिन 6 अगस्त को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल कश्मीर पहुंचे. फिर इन्होंने घाटी में पूर्ण प्रतिबंध की शुरूआत कर दी. सड़कें बंद कर दी गईं, कर्फ्यू लगा दिया और इंटरनेट व फोन सेवाएं भी काट दी गईं. 1 अगस्त से भारत सरकार ने पहले से ही दुनिया के इस सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्र में अस्सी हज़ार से अधिक सैनिक और भेज दिए.
16 अगस्त को जब डोभाल राष्ट्रीय मीडिया में अपने चीयरलीडर्स की वाहवाहियों के बीच घाटी से लौटे उस समय वहां कड़ी कार्यवाही जारी थी. चुनिंदा पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि “कश्मीरी नौजवानों के लिए वे अधिक अवसर, बेहतर भविष्य, अधिक रोजगार देखते हैं. कुछ चिल्लाने वाले लोग है जो अल्पसंख्या में हैं वही इसका विरोध करते हैं. लोगों को ऐसा लगता है कि यह जनता की आवाज है. जरूरी नहीं है कि वह सही हो.”
डोभाल इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे यह उनकी अनंतनाग यात्रा की एएनआई द्वारा जारी एक वीडियो से परिलक्षित होता है. वह एक किशोर लड़के से पूछते दिखाई देते हैं, “खुश हो”? डोभाल की बगल में खड़ा एक बुजुर्ग आदमी जवाब देता है, “खुश कौन है? आप हमें बताएं यहां कौन खुश है.” डोभाल मुस्कुराते हैं और कहते हैं, “बच्चे खुश हैं.” बुजुर्ग व्यक्ति फिर कहता है, “कोई खुश नहीं है यहां.” डोभाल अगले व्यक्ति के पास जाते हैं और कैमरा भी वही करता है.
मेरी और एनएसए की कश्मीर यात्रा का समय एक ही था. मैं ईद से एक दिन पहले 11 अगस्त को पहुंचा और दो सप्ताह वहां रहा. मैंने दक्षिण में कुलगाम से लेकर उत्तर में उरी तक सघन यात्रा की. 1990 के दशक में संघर्ष का केंद्र रहे श्रीनगर में कथित सामान्य स्थिति की तस्वीरें हासिल करना पहले भी मुश्किल था जो अब और कठोर हो गया है. प्रतिबंधों के बावजूद कभी - कभी लोग ताजा हवा लेने के लिए घरों से बाहर निकलते हैं. एक दिन डलझील के पास से गुजरते हुए मैंने एक व्यक्ति को अकेले बैठे देखा जो मछली का शिकार करने में तल्लीन था. अगर मीडिया ने बसंत के आरंभ में सूर्यास्त की लालिमा के विपरीत उसका छायाचित्र प्रकाशित किया होता तो उसे रोजमर्रा के शांतिपूर्ण होने के सबूत के तौर पर देखा जाता. वास्तव में, वहां की यात्रा करने वाले अधिकांश पत्रकार उसी के समरूप चित्रों के साथ वापस आए.
भारत सरकार ने कश्मीर में सामान्य स्थिति की तलाश के लिए कुछ निश्चित संकेतों का आविष्कार किया है जैसे फिर से खुलने वाले प्राथमिक विद्यालयों की संख्या, अपने आसपास प्रतिबंधों में ढील देने वाले थानों की संख्या, मोबाइल के युग में सक्रिय लैंडलाइन फोन की संख्या. सहजतापूर्वक चुनिंदा गतिविधियों तक पूरी आबादी को सीमित कर इसने घोषित कर दिया कि केवल सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ों में होने वाली हिंसक मौतों को ही असामान्य माना जाएगा.
आज कश्मीर को समझने के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वहां लोग सामान्य जीवन किस प्रकार जी रहे हैं. घाटी में पृथककरण इतना प्रबल था कि देखकर आभास होता था कि कश्मीर समय से पीछे चला गया था. लोग पुराने रेडियो और डीवीडी प्लेयर और आसपास जाने के लिए साइकिल ला रहे थे. श्रीनगर के एक निवासी ने कहा, “कश्मीर में कोई चीज मत फेंको; यह बीस–तीस साल पीछे जा चुका है.” यह पूरी तरह मजाक नहीं था. अधिकांश अखबारों ने प्रकाशन बंद कर दिया. सबसे बड़ा अखबार ‘ग्रेटर कश्मीर’ केवल चार पेज छापता है, ऐसी कोई खबर नहीं होती जो सरकार द्वारा पेश की गई तस्वीर की आलोचना करती हो. इसके केवल वर्गीकृत पेज का इस्तेमाल ही रह गया है. जहां “कश्मीर में जारी हालात के कारण” शादियों और दूसरे आयोजनों के रद्द किए जाने का एलान होता है.
हालांकि सरकार का दावा है कि पाबंदियां धीरे-धीरे खत्म कर दी जाएंगी लेकिन कोई भरोसा नहीं करता. अधिकतर लोगों ने मुझे बताया कि पाबंदियां कम से कम सर्दियों तक जारी रहेंगी. विगत में सबसे प्रमुख अलगाववादी नेता सैयद अलीशाह गिलानी ने घाटी में विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व कर काम बंदियों का आह्वान किया था. लेकिन बच्चों को भी पता है कि इस बार गिलानी ने नहीं मोदी ने उन्हें छुटि्टयां दी थीं.
अलग-अलग समय में दूसरे देशों की कहानियों से इसको समझना ज्यादा आसान है. अमरीकी पत्रकार एन्निया सीजाडलो युद्धग्रस्त इराक और लेबनान पर अपनी किताब ‘डे ऑफ हनी’ में लिखती हैं, “हर युद्ध क्षेत्र में एक और युद्ध चलता रहता है, एक छिपा हुआ संघर्ष- जो पर्दे के पीछे खामोशी से भड़कता रहता है. आप इसके बारे में टेलीविजन या फिल्मों में बहुत कुछ नहीं देखते. इस छिपे हुए युद्ध में रोजमर्रा के नागरिक जीवन की धीमी लेकिन लगातार तबाही शामिल होती है. बच्चे स्कूल नहीं जा सकते, गर्भवती महिलाएं अस्पताल में शिशु को जन्म नहीं दे सकतीं, किसान अपने खेत नहीं जोत सकते, संगीतकार अपने गिटार नहीं बजा सकते, प्रोफेसर अपनी क्लास नहीं पढ़ा सकतीं. नागरिकों के लिए युद्ध खत्म न होने वाली मनाहियों का ढेर बन जाता है.”
दूरसंचार की जगह सुनी सुनाई बातें ले लेती हैं और पत्रकारिता बार बार सुनाई जाने वाली कहानियों में बदल जाती है. जब-तब पत्रकार प्रेस क्लब में नई अफवाहें लेकर आते हैं जिसके एक एक रेशे का विश्लेषण किया जाता है. ज्यादातर बातचीत युद्ध पर शुरु होकर इसी पर खत्म हो जाती है. एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे पूछा, “युद्ध की यह सब बातें, आप इनको क्या समझते हैं”? उन्होंने खुद अपने सवाल का जवाब दिया “तकदीर. उदासी”.
कुछ पत्रकारों के साथ यह मनहूस विचार उनके घर तक पहुंच गए और उन्होंने उनींदी में रातें बिताईं. कुछ अन्य ने कश्मीर के हर कोने में दुबकी इस स्याह जिंदगी में सुराख करते हुए इसे अपने साथियों के साथ खुशी बांटने के तौर पर ले लिया. दुर्भाग्य से यह स्थानीय पत्रकारों के परिवारों तक भी पहुंच गई. कुछ दिनों तक गायब रहे एक वरिष्ठ पत्रकार ने वापस आने पर मुझे बताया कि एक रात कैंसर की मरीज उनकी मां की तबीयत बिगड़ गई. फोन करने के लिए हताशा में उन्होंने नजदीकी सीआरपीएफ कैम्प का दरवाजा खटखटाया. पत्रकार खुद एक कहानी बन गए हैं.
370 को रद्द किया जाना 1947 के बाद घाटी में सबसे बड़ी राजनीतिक हलचल थी. इसकी व्यापकता ने कश्मीर को खुद के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया. कश्मीर का हर शख्स अलग तरह के राजनीतिक विचार का द्वीप है. लेकिन ये गौरतलब है कि रायशुमारी के किसी आधुनिक तरीके के बिना ही घाटी के विभिन्न भाग भारत सरकार के खिलाफ अपने विचारों, प्रतिक्रियाओं और भावनाओं में एकजुट थे. इसमें सबसे हैरान करने वाली बात सभी राजनीतिक हलकों सहित मुख्यधारा के उन राजनेताओं और उनके समर्थकों द्वारा उग्रवाद की सहज स्वीकार्यता है जो पहले भारतीय राज्य के प्रति वफादार रहे थे. भारत सरकार ने इस तथ्य को डर फैलाने वाला कह करकारिज कर दिया. लेकिन सरकार के खुद अपने कहे के पीछे छुपने के बावजूद घाटी शान्त ज्वालामुखी की तरह गहराई तक सुलग रही है.
त्रासदियां कश्मीर के अनापेक्षित क्षेत्रों में इंतजार में रहती हैं. सरकारी पूर्ण प्रतिबंध के 19वें दिन 23 अगस्त को 18 साल के आदिल हुसैन डार अपने दोस्तों के साथ श्रीनगर से करीब बीस किलोमीटर दूर जनपद बड़गाम में रेलवे लाइन की बगल में स्थित सेबदान गांव में क्रिकेट खेल रहा था. जब उन्होंने “दो किलोमीटर दूर” आंसू गैस के गोले छोड़े जाने की आवाज सुनी तो वे दौड़कर इधर-उधर भागने लगे. आदिल पटरियों की तरफ दौड़ा और ठोकर खाकर गिर गया. उसके दोस्त वाहिद ने मुझे बताया, “हमने उसे वहां पड़ा हुआ देखा. वह बहुत तकलीफ में था. उसके पेट का हिस्सा बहुत कठोर था”.
आदिल के तीन दोस्त उसे स्कूटर पर अस्पताल ले गए जहां उन्हें उसे जिला अस्पताल ले जाने के लिए कहा गया. वहां से उसे एसकेआईएमएस मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल बेमीना, श्रीनगर में और फिर अंत में शेरे कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, सौरा रेफर कर दिया. रास्ते में कई सुरक्षा बाधाएं थीं और रास्ते में पत्थरबाजी की घटनाएं हो रही थीं इसलिए उन्होंने लंबा रास्ता तय किया और रात में दस बजे सौरा पहुंचे. आदिल बेहोश था उसे ऑक्सीजन पर रखा गया था. फोन नहीं थे. आदिल के पिता मुहम्मद मुस्तफा डार श्रीनगर के एक सम्पन्न क्षेत्र हैदरपुरा में सिक्योरिटी गार्ड का काम करते हैं. उन्हें रात 9 बजे खबर दी गई कि आदिल के लीवर में घातक छेद हो गए हैं और बहुत ज्यादा खून बह चुका है. डॉक्टरों ने रात में साढ़े बारह बजे से ढाई बजे तक उसका ऑपरेशन किया. वाहिद ने अपने हाथों से फव्वारे का इशारा करते हुए कहा, “जब डॉक्टरों ने उसका पेट खोला तो खून तेजी से बह निकला. हमने उसे पांच बोतल खून दिया. डॉक्टरों ने कहा कि दो दिनों के बाद उन्हें लीवर के हिस्सों को जोड़ने के लिए एक और ऑपरेशन करना पड़ेगा लेकिन बचने की संभावना केवल बीस फीसदी है.
मुझे इस घटना के बारे में दूसरे दिन पता चला जब मैं हैदरपुरा में अपने एक दोस्त के घर यह जानने के लिए गया था कि हवाई टिकट कैसे बुक किया जाए. मैं आदिल के पिता और उसके दोस्तों से मिला. उसके चार दोस्त अस्पताल में रुके हुए थे. दो दिन बाद आदिल को होश आ गया लेकिन अब भी वह जिंदगी और मौत से लड़ रहा है.
आदिल की यह हालत भी कश्मीर की सतह की शांति को भंग नहीं कर पाई और उसके भरे-पूरे परिवार के सदस्य भी इससे अनजान रहे. इसके मामूली ब्यौरे भी मुश्किल से ही ओसैब और असरार खान की कहानियों से अलग थे – सिवाय अंत के.
श्रीनगर में पालपोरा का रहने वाला 17 साल का अल्ताफ अपने घर के पास दोस्तों के साथ फुटबाल खेल रहा था तभी सीआरपीएफ जवानों ने उनका पीछा किया. वे बचने के लिए फुटब्रिज पर चढ़ गए और जब उन्हें दोनों तरफ से घेर लिए तो वे झेलम नदी में कूद गए. अल्ताफ ने किनारे की झाड़ियों को पकड़कर लटकने की कोशिश की लेकिन सीआरपीएफ जवानों ने उसके हाथ पर मारा जिससे वह फिसल कर वापस नदी में गिर गया. उसे बीस मिनट बाद निकालकर अस्पताल ले जाया गया लेकिन वहां पर उसे मृत घोषित कर दिया गया. अल्ताफ के पिता उसे स्थानीय कब्रिस्तान में दफ्न करना चाहते थे लेकिन समुदाय के लोगों ने उसे शहीद घोषित कर, ईदगाह पर शहीदों के कब्रिस्तान में दफ्न किया.
श्रीनगर की इलाहीबाग बस्ती का 18 साल का असरार अपने पड़ोस के पार्क में क्रिकेट खेलते हुए जख्मी कर दिया गया. उसका एक्सरे बताता है कि उसे पैलेट गन से चोट लगी थी जो उसकी खोपड़ी और आंखों में रह गई थी. अपने घावों के कारण करीब एक महीना बाद वह मर गया. अतिरिक्त महानिेदेशक पुलिस ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि असरार की मौत प्रदर्शनकारियों द्वारा फेंके गए पत्थर लगने से हुई थी.
दो अन्य लोग – 35 साल की फहमीदा बानो और 55 साल के अय्यूब खान – आंसू गैस से दम घुटने के कारण मौत के मुंह में चले गए. उनके मृत्यु प्रमाणपत्र के मुताबिक दो बच्चों की मां बानो की मौत “अचानक हृदय गति रुक जाने” से हुई जबकि खान के परिवार को कोई प्रमाण पत्र नहीं दिया गया.
इस मौजूदा घेराबंदी में सरकार ने कश्मीर को भयानक त्रासदियों के कब्रिस्तान में बदल दिया है. सबको शक है कि क्या कश्मीर में, शहर में और घाटी के अन्य स्थानों पर इस तरह की और भी कहानियां हैं, लेकिन वे पूछते नहीं हैं कि कहीं ऐसा न हो कि संकट और ज्यादा बढ़ जाए.
सरकार के पूर्ण प्रतिबंध के ग्यारहवें दिन 16 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 1971 के बाद पहली बार कश्मीर पर चर्चा की. स्थाई सदस्य चीन ने बैठक के लिए पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया. बंद दरवाजे के पीछे बैठक हुई. श्रीनगर के कुछ भागों में किशोर लड़कों ने पटाखे फोड़े. बातचीत की ताजा जानकारी के लिए लोगों ने उत्सुकतापूर्वक टीवी पर पाकिस्तानी चैनल चलाए. इसी स्रोत पर उनको भरोसा था. भारत सरकार ने तत्काल केबल सुविधा काट दी.
दो दिन बाद श्रीनगर के मेहजूर नगर से पांच किशोरों को उठाया गया. बस्ती में कुछ परिवारों से मैं मिलने गया. पांच लड़कों में से तीन को पुलिस स्टेशन में रखा गया था और उनमें से दो को सुबह से शाम तक खड़ा करवाया गया था. उनमें किसी को कानूनी रूप से हिरासत में नहीं लिया गया था. उन्हें राजबाग पुलिस स्टेशन में रखा गया था क्योंकि नजदीकी पुलिस स्टेशन भगत पहले से ही भरा हुआ था.
मैं किशोरों में से एक के पिता से मिला. फैयाज अहमद लवे फल विक्रेता हैं. उनके 14 साल के बेटे जाहिद को आधी रात को उठा लिया गया था. लवे ने मुझे बताया, “उन्होंने दो बजे रात में छापा मारा. जाहिद मेरा सबसे छोटा बच्चा है. मैंने उन्हें अन्य बच्चों को दिखाया लेकिन वे जानते थे कि उन्हें कौन चाहिए. उन्होंने मुझे खामोश रहने की चेतावनी दी. उनके जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि शायद दूसरों को भी उठाया गया है.”
अगर वे बेटों को नहीं पाते हैं तो पिताओं को ले जाते हैं. जब मैं लवे से बात कर रहा था तो अन्य लोग भी शामिल हो गए. एक ने मुझे बताया कि एक पिता को ले जाया गया और बेटे के मिलने तक उन्हें हिरासत में रखा गया. एक अन्य व्यक्ति के दो बेटों को भी ले जाया गया था. एक व्यक्ति ने उन किशोरों से चर्चा शुरू कर दी जिन्हें ले जाया गया था. उसने कहा कि शायद बच्चे जानते थे कि “कश्मीर को बेचा जाएगा.” वह गुस्से में था और उसने चिल्लाना शुरू कर दिया. उसने कहा, “हरामजादों ने 370 को खत्म कर दिया. पत्थरबाजी और पटाखे फोड़ना अपराध क्यों है? आज उनके बच्चे हैं; कल मेरे हो सकते हैं. यह युद्ध है और यह जारी रहेगा.”
इस व्यक्ति ने मुझे बताया कि वह 2002 में गुजरात में सेबों का ट्रक चलाकर ले गया था जब गोधरा के बाद सामूहिक हत्या हुई थी. बहुत से कश्मीरी भारत सरकार की कार्रवाइयों से इतने आशंकित हैं कि उन्हें लगता है कि अगर पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मुद्दे को उठाना बंद कर देगा तो खामोशी से उनका सफाया कर दिया जाएगा. उस व्यक्ति ने कहा, “यह अल्लाह की रहमत है कि पाकिस्तान हमारे साथ है वरना गोधरा की तरह यहां भी नरसंहार होता. वे समझते हैं कि यह गुजरात का कोई मोहल्ला है. यह कश्मीर है. यह 370 या 35A का मसला नहीं है, इसका आधार हिंदू–मुस्लिम मुद्दा है.”
उत्तर कश्मीर के बांदीपोरा पुलिस स्टेशन में भी मैंने देखा कि कक्षा सात, आठ और नौ के विद्यार्थियों को लॉकअप में रखा गया था. एक कश्मीरी पत्रकार, जिसने उन विद्यार्थियों का इंटरव्यू किया था, उसे भी हिरासत में ले लिया गया और अपने नोट्स को मिटाने के बाद ही उसे जाने दिया गया. एक लड़के ने पत्रकार को बताया कि उनके एक शिक्षक, जिन्होंने अनुच्छेद 370 के गुण-दोष पर चर्चा की थी, को भी हिरासत में लिया गया.
वकील मीर उर्फी क्रूर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत हिरासत में रखे गए कश्मीरियों की ओर से कई मुकदमों में बहस करती रही हैं. कानून, सुरक्षा बलों को किसी पर भी बिना औपचारिक आरोप लगाए और मुकदमा चलाए दो साल तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है. मैं उर्फी से मिला, जो श्रीनगर जिला अदालत में यह मुकदमें कल्याणार्थ देख रही हैं. यह लगभग खाली था, कुछ लोगों के अलावा जो त्वरित मामलों के लिए मौजूद थे. उर्फी ने मुझे बताया, “बहुत सारे लोग एक सप्ताह पहले गिरफ्तार कर लिए गए हैं जिनमें कुछ पीएसए की एफआईआर के साथ और अन्य बिना एफआईआर के. कश्मीर मामले में पांच वकीलों को पीएसए के तहत गिरफ्तार किया गया है. जिला मजिस्ट्रेट को लोगों को हिरासत के लिए घाटी से बाहर भेजने का अधिकार नहीं है. इसलिए किसी व्यक्ति को पहले डीएम यहां श्रीनगर सेंट्रल जेल में 12 दिनों तक हिरासत में रखता है उसके बाद गृह विभाग उन्हें कश्मीर से बाहर भेजने का आदेश देता है.” कश्मीर के लोगों को उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में रखा जाता है. “वे पहले उन्हें गैरकानूनी गतिविधियां अधिनियम के तहत आरोपित करते हैं” जो उन्हें 6 महीने तक बिना मुकदमे के हिरासत में रखने की इजाजत देता है. उर्फी ने कहा, “जब यह पूरा हो जाता है, वे उसे पीएसए के अंतर्गत आरोपी बनाते हैं.”
उन्होंने मुझे कुछ कश्मीरियों के बारे में एक फालतू मुकदमे का उदाहरण दिया जिन्होंने वर्ल्ड कप में न्यूजीलैंड के खिलाफ भारत की हार का पटाखे फोड़कर जश्न मनाया था. उन्हें गैरकानूनी गतिविधियां (निरोधक) अधिनियम के तहत आरोपी बनाया गया था. डराने-धमकाने का मामला इतना व्यापक है कि जब राज्य बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मियां कय्यूम को गिरफ्तार किया गया था तो विरोध में बार के सदस्यों ने भी कोई बयान जारी नहीं किया. एक वरिष्ठ वकील नजीर अहमद रोंगा को भी हिरासत में लिया गया था. उन्हें अलगाववादी और पृथकतावादी होने के आरोप में हिरासत में लिया गया था. एक वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने हिरासत में लिए रोंगा को सम्बोधित एक औपचारिक दस्तावेज लिखा, और फिर मंजूरी के लिए उसे जिला मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया. फिर इसमें कहा गया, “आपकी काबिलियत की जांच इस तथ्य से की जा सकती है कि चुनाव बहिष्कार के दौरान आप मतदाताओं को बाहर निकलकर आने और बड़ी संख्या में वोट डालने के लिए समझाने में कितने काबिल हैं.”
शायद 5 अगस्त के बाद तहत के अंतर्गत हिरासत में रखे गए सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति फारूक अब्दुल्लाह हैं जो मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ के तौर पर जाने जाते हैं. सितंबर में खबर फैली कि 83 वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री को, जिन्हें पूर्ण प्रतिबंध के बिल्कुल शुरू में घर में नजरबंद रखा गया था, पीएसए के तहत हिरासत में लिया जा रहा है. पीएसए कानून 1978 में लागू किया गया था जब फारूक अब्दुल्लाह के पिता शेख अब्दुल्लाह मुख्यमंत्री थे. अब्दुल्लाह पर “सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी” करने का आरोप था, जो तीन महीने की हिरासत की अनुमति देता है.
जो कुछ मैंने सुना और जो रिपोर्ट की जा रही हैं उनसे लगता है कि हिरासत में लिए जाने वालों की संभावित संख्या आश्यचर्यजनक रूप से बहुत अधिक हो सकती है. रायटर्स के अनुसार, सुरक्षा बलों ने चार हजार के करीब लोगों को हिरासत में लिया है लेकिन वहां के ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह संख्या कई गुना अधिक है. तय कर पाना मुश्किल है. प्रशासन ने केस दर्ज किए बिना हिरासत में रखने के कई तरीके ईजाद किए हैं. उनमें से एक है ऐसे आंकड़ो को खारिज करना या उपलब्ध न करना. सितंबर के मध्य में एक्टिविस्टों ने कश्मीर में बच्चों की हिरासत के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की थी.
यातना दी जाने की भी कई रिपोर्टें हैं. अगस्त के आखिर और सितंबर के शुरू में भारत सरकार ने घाटी में हर तरफ शांति है जैसा झूठा दावा करने के लिए एक हफ्ते का समय लगाया था. बीबीसी, एसोसिएटेड प्रेस और एएफपी जैसे विदेशी मीडिया संगठनों के लिए काम करने वाले पत्रकार दक्षिण कश्मीर के गांवों में पहुंच सके और सुरक्षा बलों द्वारा रात के छापों के दौरान यातना देने की कहानियां प्रकाशित कीं. अत्याचार सैन्यकृत समाज में किया जाता है इसलिए इसकी खबरों से अधिकांश कश्मीरियों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ. न ही सरकार और सेना ने सभी आरोपों का तत्काल खंडन किया.
संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र कांग्रेस जैसी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने घाटी में मानवाधिकार उल्लंघनों पर चिंता जाहिर की है. अगस्त के आखिर में विेदेश मंत्री एस जयशंकर ने यही चिंता जाहिर करने पर यूरोपीय अधिकारियों से मुलाकात की थी. बाद में एस जयशंकर ने एक इंटरव्यू में कहा कि घाटी में सैनिकों की संख्या में कमी की जाएगी. मोदी सरकार जो कुछ कहती रही है यह उसी के मुताबिक है लेकिन धरातल पर अभी इसे प्रकट होना बाकी है.
मैंने संयुक्त राज्य की चिकित्सीय मानवविज्ञानी सायबा वर्मा से मुलाकात की जो कश्मीर संघर्ष और एक दशक से लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव पर अध्ययन कर रही हैं. वह 1 अगस्त को घाटी में पहुंच चुकी थीं. मनोवैज्ञानिक संदर्भों में वर्मा ने हालिया घेराबंदी का जिक्र “शरीर के बजाए आत्मा पर हमले की तरह” के तौर पर किया.
वर्मा ने मुझे बताया, “यह लोगों की हिम्मत को तोड़ देने के लिए है और सबसे बुनियादी सूचना तक को भी साझा न करने की इजाजत देने के जरिए उनकी आत्मा को तोड़ देने जैसा है.” हालांकि, उन्होंने आगे कहा कि इस तरह के संघर्ष के नतीजे में पैदा होने वाले अस्तित्ववादी रोष ने कश्मीरी लोगों को जल्द ही अपने दुखों से उभर जाने के काबिल बना दिया है. उन्होंने कहा, “आप देखें कि किस प्रकार समुदाय तत्काल परिस्थितियों के अनुकूल ढलने योग्य बन जाते हैं – जब कभी घेराबंदी होती है लोग जानते हैं कि कैसे रहना है चाहे खाना और दूध बांटने का रास्ता निकालना हो या बैतुलमाल (सामुदायिक अनुदान संचयन) से पैसे बांटना.
वर्मा ने संघर्ष का लोगों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक दबाव की इस प्रकार चर्चा की “अपने जीवन के बारे में सबसे बुनियादी फैसले लेने की भी असमर्थता जैसे किसी खास दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजें या न भेजें, यह बताए जाने के बावजूद कि यह सुरक्षित है लेकिन आपके अनुभव से हासिल ज्ञान आप से कहता है कि यह सुरक्षित नहीं है.” उन्होंने कहा कि इस प्रकार अनिश्चितताओं के साथ जीवन बिताना“आपके अंदर के मौलिक भाग को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है जिसे जीने के लिए एक बुनियादी स्थिरता और निश्चितता की जरूरत होती है.” हालांकि, उन्होंने कश्मीर को पीड़ित होने के चश्मे से देखने के खिलाफ चेतावनी दी. उन्होंने पोस्ट ट्रामेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर आघात के पश्चात तनाव के विकार का संदर्भ देते हुए कहा, “मीडिया में यह कहने की प्रवृत्ति है कि कश्मीरियों को आघात पहुंचाया जाता है, कश्मीरियों की पीटीएसडी दर वास्तव में बहुत अधिक है. इससे लगता है कि जैसे वे चिकित्सीय समस्याओं से पीड़ित हैं, जबकि उन चिकित्सीय समस्याओं की जड़ें राजनीतिक घोषणा और अस्तित्व की आवश्यक्ताओं और मांगों में निहित हैं.”
मैंने वर्मा से पूछा कि क्या घाटी में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों में आई कमी का सैन्य उपस्थिति में बढ़ोतरी से कोई संबंध है. उन्होंने कहा, “कश्मीरियों पर हमेशा अपनी इंसानियत को जाहिर करने के लिए बहुत दबाव होता है. उन्होंने आगे कहा कि राज्य उन पर आतंकवादी, अपराधी, अमानवीय और हिंसक होने का ठप्पा पहले ही लगा चुका है, और उस हिंसा या उस आपराधिकता के संकेत की फिराक में है ताकि वास्तव में उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई कर सके. मैं समझती हूं कि कश्मीरी इसे जानते हैं कि हर लम्हा उनका इम्तीहान लिया जा रहा है.”
उत्तर कश्मीर में वूलर झील के किनारे पहाड़ी क्षेत्र बंदीपुरा की यात्रा के दौरान सदरकूट बाला नामक गांव के एक युवक ने मुझे बताया कि वे “नागरिक कर्फ्यू” के बारे में सोच रहे हैं जहां लोग अपनी मर्जी से बंदी लागू करें, इसकी शुरूआत 18 अगस्त से हो रही है. उसने कहा कि गिलानी ने नागरिक कर्फ्यू का आह्वान किया है. जब मैंने उससे पूछा कि सूचना उसके पास कैसे पहुंची तो उसने कहा, “बस हम इसे जानते हैं.” मैं हैरान था और मैंने उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया. अगले दिन मैं दक्षिण कश्मीर में अनंतनाग गया. यहां के निवासी पहले से ही नागरिक कर्फ्यू का पालन कर रहे थे. लेकिन एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा कि अगले दिन से इसका और सख्ती से पालन किया जाएगा.
नागरिक कर्फ्यू का पहला दिन प्राथमिक विद्यालयों के खोले जाने के निर्णय से मेल खाता था. सरकार की यह पहली चाल विफल हो गई. स्कूलों में उपस्थिति बहुत कम थी और जो स्कूल खोले गए थे वे सेना की छावनियों के क्षेत्र में थे. उस दिन मैं श्रीनगर में एक मध्यम स्तर के पुलिस अधिकारी से मिला जो संचार नाकेबंदी के बावजूद नागरिक कर्फ्यू लागू होने पर अपना सिर खुजला रहा था.
उसने कहा, “दस दिनों से अधिक समय तक कोई कार्रवाई नहीं हुई. अब उत्तर से दक्षिण तक छुट-पुट प्रदर्शन और नागरिक कर्फ्यू भी है. यह एक मिलजुलकर किया हुआ सोचा समझा उभार है. हम आश्चर्यचकित हैं.” एक प्रोफेसर ने मुझे बताया, “राज्य लोगों को हैरान कर सकता है लेकिन लोग भी राज्य को हैरत में डाल सकते हैं.”
एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया, “कश्मीरियों को अपने पेट के जरिए से सोचने पर मजबूर किया जाता है.” उन्होंने कहा कि संघर्ष क्षेत्र में रहने के कारण कश्मीरी, चालाक और जटिल हो गए हैं. “अगर वे अपनी जीविका से जुड़ी गतिविधियों के लिए बाहर निकलते हैं तो यह कश्मीर के हालात सामान्य होने के रूप में दर्शाता है इसलिए लोग जिंदा रहने के लिए तिकड़मी हो गए हैं.”
वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे यह भी बताया कि देर-सवेर, आंशिक या पूर्ण रूप से, कश्मीर में अफवाहें सच साबित होती हैं. अगस्त के मध्य में कई अफवाहें फैलीं कि लोगों को गुलमर्ग के प्रसिद्ध हिल स्टेशन तक जाने से रोका जा रहा है; किसी को उरी के सीमावर्ती कस्बे के रास्ते में स्थित शीरी गांव से आगे जाने की अनुमति नहीं है. बादामीबाग सेना छावनी और हवाई अड्डे पर काम करने वाले सभी कश्मीरी कर्मचारियों को लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया है. श्रीनगर में शंकराचार्य पहाड़ी पर विमान भेदी तोपें लगा दी गई हैं. किसी समाचार या संचार की गैर मौजूदगी में अफवाहें डर और केवल एक ही निष्कर्ष तक पहुंचती हैं : युद्ध.
दो अन्य पत्रकार और मैंने उरी जाकर खुद देखने का निर्णय लिया. दस बजे सुबह एक मेडिकल स्टोर और एक–दो सब्जी बेचने वालों के अलावा उरी का मुख्य बाजार बंद था. पहले तो कोई पत्रकारों से बात करने को तैयार नहीं था. एक व्यक्ति ने मुझे बताया, “आज जो भी सच बोलेगा वह अंदर जाएगा.” थोड़ा भरोसे में लेने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि बाजार 1990 के दशक के उग्रवाद के दौरान भी बंद नहीं हुआ था. एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने मुझे बताया, “हम इसे पास की सीमा पर गोलाबारी होने के बावजूद भी खोलते थे.” उसने कहा कि 5 अगस्त को क्षेत्र में कर्फ्यू लगाए जाने के बाद उरी में बड़ी संख्या में सीमा सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया गया. “उनके जाने के बाद हमने अपने ऊपर खुद नागरिक कर्फ्यू लागू कर लिया.” मैं सौ किलोमीटर दूर कुपवाड़ा में काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों से मिला. वह तीन दिन से बीच रास्ते से वापस लौट रहा था क्योंकि उसे कोई यातायात का साधन नहीं मिला था.
दवाखाना मलिक मेडिकल हॉल के मालिक ने मुझे बताया कि उनके भंडार का तीन चौथाई भाग खत्म हो चुका था जिसमें मधुमेह और उच्च रक्तचाप से सम्बंधित दवाएं भी शामिल थीं. उसने कहा, “ये जीवन रक्षक दवाएं हैं, एंटीबॉयोटिक्स बदली जा सकती हैं और उनका विकल्प होता है लेकिन इंसूलिन जैसी चीजों का नहीं होती. हमारे पास पाउडर वाला दूध भी खत्म हो रहा है.” सरकार और प्रशासन ने बार–बार जोर देकर कहा है कि कश्मीर में दवाओं की कमी नहीं है. दुकान मालिक ने मुझे बताया, “मैं यह दुकान तीस साल से चला रहा हूं और ऐसा पहली बार हुआ है. कम से कम उन्हें स्थानीय सरकारी अस्पताल में यह सब उपलब्ध कराना चाहिए था.”
एक छोटी चाय की दुकान खुली थी हालांकि इसके दरवाजे बंद थे. हम अंदर गए और वहां लोगों से बातें करने लगे. उनमें से एक गांव का सरपंच निकला. उसने कहा, “मैं कट्टर हिंदुस्तानी हूं, खून में कुत्ते दौड़ते हैं (खून खौलता है) जब हिंदुस्तानी मीडिया बात करता हैं.” उसने कहा, “उरी में नब्बे प्रतिशत लोगों ने वोट दिया. हम पाकिस्तान के तौर-तरीके जानते हैं क्योंकि हम सीमा पर रहते हैं. हम भारत के साथ थे. लेकिन अब भारत ने पुल तोड़ दिया है. अगर उन्होंने 370 खत्म किया तो उन्हें इसी तरह हिमाचल प्रदेश और अन्य स्थानों से 371 भी खत्म करना चाहिए था. (संविधान का अनुच्छेद 371 कई भारतीय राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात को विशेष अधिकार प्रदान करता है.)
फारुक अब्दुल्लाह की नजरबंदी को संदर्भित करते हुए सरपंच ने कहा, “भारत के लिए सत्तर साल तक लड़ने के बाद फारुक अब्दुल्लाह को देखो. फारुक, माता के मंदिर गया और टीका लगाया.” उस समय तक हममें से कोई नहीं जानता था कि अब्दुल्लाह को पीएसए के अंतर्गत पकड़ा जाएगा. उसने फारुक अब्दुल्लाह की भारत समर्थन की राजनीति की ओर संकेत करते हुए आगे कहा, “देखिए उनके साथ क्या हुआ? क्या आप समझते हैं हमारे साथ क्या होगा?”
सरपंच ने मुझे बताया कि बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीदना मुमकिन बनाने से वह बहुत चिंतित है. उसने कहा, “इसका प्रभाव जम्मू पर अधिक पड़ेगा. दुनिया की कोई ताकत नहीं है जो लोगों की मर्जी के बिना कश्मीर में कॉलोनी बना सके. “हमारे अंदर” आजादी का एक भूत है उसने मुझे बताया कि उरी के लोग कुछ करने के लिए श्रीनगर की तरफ देख रहे हैं. “श्रीनगर हमारा दिल है. अगर यह खत्म हो जाता है तो हम भी खत्म हो जाएंगे. उन्हें यहां आने और बताने की जरूरत नहीं है. लेकिन हम उनके मार्गदर्शन के लिए उनकी ओर देख रहे हैं.”
मुझे पता चला कि उरी मार्केट एसोसिएशन के अध्यक्ष और कांग्रेस ब्लॉक अध्यक्ष 85 वर्षीय हाजी असदुल्लाह खान को पुलिस ने नजरबंद किया है. मैं उनके बेटे असदुल्लाह और अन्य लोगों से मिला जो बंद दुकानों के बाहर बैठे बातें कर रहे थे. अब्दुल्लाह ने पहले भारतीय मीडिया का मजाक उड़ाया लेकिन आखिर में बातचीत शुरू कर दी. उसने कहा, “पुलिस ने उन्हें तीन दिन तक थाने में रखा, उनको आक्सीजन की समस्या है और वे सांस लेने के लिए मशीन का प्रयोग करते हैं, इसलिए उन्हें घर भेज दिया. स्थानीय पुलिस ने कहा कि उनको ऊपर से आदेश है. कोई गिरफ्तारी वारंट नहीं दिखाया गया था.”
समूह में से एक ने फौरन आगे कहा, “वे ऐसा किसी अन्य राज्य में करके दिखाएं.” अब्दुल्लाह ने स्पष्ट नहीं किया कि उसके पिता को घर में नजरबंद रखा गया था. उसने अपना पता देने से भी इनकार किया. मैं इसकी जांच करने के लिए उरी पुलिस स्टेशन गया. पुलिस अधिकारी हैरान और थोड़ा परेशान दिखे. लेकिन उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया.
स्थानीय लोगों का मानना है कि जब गोलाबारी होती है तो यह भटकाव का काम करती है जिससे घुसपैठियों को क्षेत्र में प्रवेश करने का अवसर मिलता हैं. उरी के निवासियों ने मुझे बताया कि पिछले हफ्ते उन्होंने काफी गोलाबारी की आवाजें सुनी थीं. सिलीकोट गांव, जो नागरिकों के जाने के लिए पड़ाव है और जिसको केवल नदी का एक पार पाकिस्तान से अलग करता है में राष्ट्रीय रायफल के मराठा रेजीमेंट के दो लोगों ने मुझे बताया कि पाकिस्तान की तरफ से वहां कोई गोलाबारी नहीं हुई थी. कुछ छुटपुट फायरिंग हुई थी जो होती ही रहती है लेकिन कोई गंभीर बात नहीं है, ऐसा उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया. उन्होंने कहा कि शायद मैंने कोई अफवाह सुनी है.
वापसी में बारामूला से पांच किलोमीटर पहले वीरवान नामक एक जगह है जहां कश्मीरी पंडितों की एक कॉलोनी है. वे प्रधानमंत्री पुनर्वास पैकेज के अंतर्गत 2010 में घाटी में वापस लौटे थे. 130 मकानों में 154 परिवार रहते हैं और उनमें अधिकांश अध्यापक हैं. गेट पर सुरक्षा कैबिन में दो पुलिस वाले थे, उन्होंने हमें अंदर आने की इजाजत दी. वीरवान निवासियों में से एक सुनील पंडित ने मुझे बताया, “बीस परिवारों के अलावा सभी जम्मू चले गए हैं क्योंकि स्कूल बंद हैं. जब चीजें सामान्य हो जाएंगी तब वे वापस आ जाएंगे.”
उन्होंने कहा कि स्कूल खुले हुए थे लेकिन यातायात की कमी के कारण वे स्कूल जाने में असमर्थ थे. उन्होंने मुझे बताया, “सबसे बड़ी समस्या यह है कि फोन काम नहीं कर रहे हैं, लैंडलाइन भी नहीं. हालांकि सरकार कहती है कि वे काम कर रहे हैं. मेरे परिवार के दो सदस्य नब्बे साल से अधिक के हैं. हम उन्हें अस्पताल नहीं ले जा सकते या आपात स्थिति में मदद की गुहार नहीं कर सकते. किसी को सूचना नहीं दी जा सकती. हम यहां भगवान भरोसे बैठे हैं.”
पंडित अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने से बहुत उत्तेजित नहीं लगते. जो लोग इसका स्वागत कर रहे हैं उनके हवाले से वे कहते हैं, “जो लोग अच्छे से कमा-खा रहे हैं वह कुछ भी कह सकते हैं.” अनुच्छेद 370 रहता है या नहीं “उससे हमारे जैसे कश्मीरी पंडितों को कोई मतलब नहीं है जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं.” उन्होंने आगे कहा, “हमारा पुनर्वास भी ढंग से नहीं हुआ, इसलिए हम किसी और चीज के बारे में नहीं सोच सकते. हमारे यहां पानी की सप्लाई तक नहीं है – हम पानी बारामुला कस्बे से लाते हैं. सरकार के बड़े-बड़े दावे हैं लेकिन जमीनी स्तर पर इनका कोई मतलब नहीं है.”
उन्होंने मुझे बताया कि उनका विश्वास है कि जो भी उद्योग इस क्षेत्र में आएंगे वे जम्मू में आएंगे. अनुच्छेद 370 का खत्म किया जाना, “मुस्लिमों और हिंदुओं को समान रूप से प्रभावित करेगा.” उन्होंने कहा, “मुख्य चिंता बेरोजगारी है, उसी कारण से उग्रवाद भी होता था. यहां करने के लिए कुछ और नहीं है. अगर बाहरी यहां आते हैं तो और संकट होगा. अगर 370 से समृद्धता आती है तो अच्छा है, लेकिन मैं नहीं समझता कि यहां ऐसा होने जा रहा है.”
जैसे ही हमने बारामुला में प्रवेश किया मैंने देखा सीआरपीएफ की एक बख्तरबंद गाड़ी मुख्य मार्ग को पुराने कस्बे से जोड़ने वाले पुल को रोके खड़ी थी. सड़क के दाईं ओर दो बड़ी गाड़ियां थी जिनमें पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन्स ग्रुप के कुछ जवान भीड़ लगाए हुए थे.
एसओजी के जवानों ने अभी फौरन ही एक सफल घेराबंदी और तलाशी अभियान सम्पन्न कर एक उग्रवादी को मार गिराया था. समूह दोपहर में कश्मीरी वाजवान का भोजन करने की तैयारी कर रहा था. पुलिस उपाधीक्षक ने, जो उस मुठभेड़ का नेतृत्व कर रहे थे, मुस्कुराते हुए कहा, “कल दोपहर से हमने कुछ नहीं खाया है. वह थकावट की तुलना में उत्तेजित ज्यादा लग रहे थे. दूसरे पुलिस वाले उसके पास आकर गले मिलते और बधाई देते. डीएसपी अपनी मुस्कान नहीं रोक सके और अल्लाह की रहमत को याद करते रहे. खाना खत्म करने तक हमने उनका इंतजार किया, उसके बाद उन्होंने हमें ऑपरेशन का विवरण दिया.
आतंकवादी मोमिन गोजरी स्थानीय निवासी था. पुलिस को उसकी मौजूदगी की खबर एक दिन पहले मिली थी और 7.30 बजे शाम को क्षेत्र की घेराबंदी कर दी गई. मौके पर भारी पत्थरबाजी के कारण ऑपरेशन में देरी हुई लेकिन अंत में वे सुबह 5.30 बजे सफल हो गए. डीएसपी ने मुझे बताया कि वह एसओजी बारामुला, सीआरपीएफ और राष्ट्रीय रायफल की छियालिसवीं बटालियन का संयुक्त ऑपरेशन था. “मेरे आदमियों में से एक, बिलाल की मौत हुई है और एक अन्य अमरदीप घायल है.”
उन्होंने गर्व से कहा कि बारामुला के पुराने कस्बे में 1997 और घाटी में 5 अगस्त के बाद से वह पहली सफल मुठभेड़ थी. गोजरी करीब इक्कीस साल का था. डीएसपी ने कहा, “पहले वह एक कुख्यात पत्थरबाज था. उसके बाद जमीनी स्तर पर सक्रिय कार्यकर्ता (ओजीडब्ल्यू) बन गया. ओजीडब्ल्यू, सक्रिय उग्रवादी की तुलना में अधिक खतरनाक होता है. हमने ओजीडब्ल्यू के रूप में उसको निगरानी में रखा और उसे भी इसका आभास हो गया था. तब वह सक्रिय आतंकवादी बन गया. यह कह पाना मुश्किल है कि उसका संबंध हिज्ब या लश्कर से था. डीएसपी ने क्षेत्र में सक्रिय दो आतंकवादी संगठनों हिजबुल मुजाहिद्दीन और लश्कर–ए–तैयबा का हवाला देते हुए यह बात कही. “लंबे समय से बारामुला में स्थानीय उग्रवादी नहीं बचे थे.”
मैंने डीएसपी से पूछा कि गोजरी कितने समय से सक्रिय उग्रवादी था. उन्होंने मुझे बताया, “इक्कीस दिनों से.” उनके हावभाव में मुझे किसी तरह का पछतावा नहीं महसूस हुआ कि एक युवा जिसे मुश्किल से ही कोई अनुभव था एक पुलिस अधिकारी को मारने और एक अन्य को गंभीर रूप से घायल करने में सफल रहा. उनके बयान से घाटी में उग्रवाद के एक महत्वपूर्ण आयाम का रहस्य खुला. अधिकतर उग्रवादी कैद और प्रताड़ित किए गए पत्थरबाज होते है. इसे बर्दाश्त न कर पाने की स्थिति में मैंने कई ऐसे युवकों के उग्रवादी बनने की कहानियां पढ़ी हैं.
जब मैंने डीएसपी से पूछा कि क्या अनुच्छेद 370 के रद्द किए जाने के बाद गुस्से का उभार घाटी में उग्रवाद को और बढ़ावा देगा, उन्होंने कहा, “अगर उग्रवादी अनुच्छेद 370 और 35ए के खत्म किए जाने पर प्रतिक्रिया देते हैं तो वे भी उन राजनेताओं की तरह हैं जिन्होंने भारतीय संविधान को स्वीकार कर लिया.” उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “उग्रवाद का घटना या बढ़ना क्षेत्रवार होता है. 2016 तक उग्रवाद वास्तव में बहुत कम था. फिर यह प्रवृत्ति उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ गई. लेकिन अब दक्षिण में अपराध दर बढ़ रही है और अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही है. प्रत्येक क्षेत्र में आंदोलन संभालने की अपनी क्षमता होती है. हो सकता है कि यह प्रवृत्ति फिर पलट जाए.” जब मैंने उनसे कश्मीर में जनसांख्यिकीय परिवर्तन के भय के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “आप दिल्ली के रहने वाले हैं. आप यहां स्थाई रूप से रहने से पहले सौ बार सोचेंगे. कोई यहां आसानी से समायोजित नहीं हो सकता इसलिए जनसांख्यिकीय परिवर्तन आसान नहीं है.”
डीएसपी के दृढ़ विश्वास के बावजूद घाटी में जनसांख्यिकीय परिवर्तन को लेकर व्यापक असुरक्षा का भाव है. जहां आम जनता पूर्व सैनिकों की सैनिक कॉलोनी की संभावना की बात करती थी, मैंने जिन शिक्षाविदों और वरिष्ठ पत्रकारों से बात की उन्होंने “डोभाल के स्पेन फार्मूले” का उल्लेख करते हुए पुनर्विजय का हवाला दिया. गौरतलब है कि पंद्रहवी शताब्दी में मुसलमानों को स्पेन से निकाल दिया गया था जहां वे आठ सौ साल तक शासक थे. एक प्रोफेसर ने मुझे बताया, “आरएसएस के कुछ विचारकों का मानना है कि इसे भारत में दोहराया जा सकता है, मुसलमानों को अपनी पहचान खत्म करने या शुद्धीकरण करने पर विवश किया जा सकता है.”
संदर्भ का दूसरा बिंदु चीन का झिंजियांग प्रान्त था, जहां हान चीनियों को तुर्क नस्ल के उइगुर मुस्लिम अल्पसंख्यक की बहुसंख्या वाले क्षेत्र में बसाया जा रहा है. यह संदर्भ मैंने पहली बार घाटी में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से सुना जब वह युवा कश्मीरी पत्रकारों को चेतावनी दे रहा था. अधिकारी इस तुलना का उपयोग यह समझाने के लिए कर रहा था कि जो कुछ हो रहा है पत्रकारिता उसे रोकने में सक्षम नहीं होगी. उसने कहा, “देखो झिंजियांग में क्या हुआ. तुम लोग वहां क्या कर सकते थे?”
एक पत्रकार मित्र के पिता ने मुझसे कहा, “मैं तुम से कुछ समझना चाहूंगा.” उन्होंने कहा, “कश्मीरी शांति प्रिय हैं और वास्तव में चरमपंथी धार्मिक विचारों को स्वीकार नहीं करते. मिसाल के तौर पर जमात–ए–इस्लामी न यहां और न ही पाकिस्तान में कभी लोकप्रियता या सत्ता प्राप्त कर सकी.” उन्होंने रूढ़िवादी सामाजिक–धार्मिक संगठन, जिसका घाटी में गहरा प्रभाव है, का हवाला देते हुए कहा, “हिंदुस्तानी आरएसएस की अतिवादी विचारधारा में कैसे फंस गए?”
अगला पड़ाव सोपोर नगर था जो अपने सेब और अलगावाद के लिए जाना जाता है. यहां एशिया की दूसरी सबसे बड़ी फल मंडी भी है. सेब का सीजन शुरू हो गया था लेकिन बाजार सुनसान थे. ट्रक कतार में इस तरह खड़े थे जैसे कारखाने में खड़े हों लेकिन लोग दिखाई नहीं देते थे. मुझे एक कोने में बैठे कुछ ड्राइवर और क्लीनर मिल गए. उनमें से एक ने कहा, “ट्रक वाले, दुकानदार, सेब उगाने वाले, सब रो रहे हैं.” उसने आगे कहा कि कुछ खरीदार आए लेकिन जा नहीं पाए क्योंकि उन्हें पर्याप्त भंडार नहीं मिल सका. पंजाब में गुरुदासपुर के एक ट्रक ड्राइवर ने मुझे बताया, “मैं 3 अगस्त को आया था और कल खाली हाथ वापस जा रहा हूं. 6 दिनों के लिए दस टायर वाले ट्रक को किराए पर लेने का खर्च एक लाख रुपया है.”
एक दुकानदार जिसने बताया कि वह हफ्तों से बेकार बैठा है. उसने कहा, “यह रजाकवारी, लाल स्वादिष्ट और नाशपाती जैसी कुछ प्रजातियों का समय है. “पिछले साल एक पेटी 750 रुपए में बिकी थी लेकिन अब 150 रुपए में बिक रही है. कुछ लोग उन्हें फेंक रहे हैं क्योंकि इसमें लाभ नहीं है. जो दो ट्रक जाने में सफल रहे हैं उनके बारे में हमें कुछ पता नहीं क्योंकि हम उनसे फोन पर बात नहीं कर सकते.”
बाजार में होटल चलाने वाले इछपाल सिंह कहते हैं कि उन्होंने ऐसी काम बंदी पहले कभी नहीं देखी, जब 2016 में उग्रवादी कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद घाटी में अशांति फूट पड़ी थी तब भी नहीं. एक स्थानीय निवासी ने पूछा, “इन नुकसानों की भरपाई कौन करेगा? मोदी? वे यह सब सीजन के दौरान ही क्यों करते हैं?” मैं पुंछ से ट्रक लेकर आए मोहम्मद इलियास नामक एक खरीदार से मिला. उसने कहा, “सामान्य तौर पर यह बाजार इस समय इतना भरा रहता है कि खड़े होने की भी जगह नहीं मिलती. मुझे वापस जाने के लिए 1300 पेटियों की जरूरत है. चार दिन हो गए हैं लेकिन मुझे सफलता नहीं मिली. मैं दस दिन और प्रतीक्षा करूंगा और देखूंगा.”
विशाल बाजार के एक कोने में खरीदार संघ के कार्यालय में कुछ दिग्गज बैठे हुए थे, वे उदास लग रहे थे. उनमें से एक ने मुझे बताया, “जब सीजन अच्छी तरह चल रहा होता था तो हर दिन तीन लाख पेटियां भेजी जाती थीं. लेकिन अब मुश्किल से सत्तर हजार से एक लाख पेटियां गई हैं. रजाकवारी जैसी कुछ किस्मों को उनके गंतव्य पर 24 से 36 घंटे में पहुंचना होता है, और उनको स्टोर नहीं किया जा सकता. लेकिन हम यह जान पाने में सक्षम नहीं हैं कि मांग कितनी और कहां है. हम अंधों की तरह सभी ट्रकों को जो दिल्ली जाने में सफल हो रहे हैं, भेज रहे हैं.
खरीदारों ने मुझे बताया कि पिछले साल नाशपाती 750 रुपए प्रति पेटी बिकी थी लेकिन अब उसे दो सौ रुपए में बेच रहे हैं. जोखिम के कारण मजदूरी 60 रुपए प्रति पेटी से बढ़कर दोगुनी 120 रुपए प्रति पेटी हो गई है. एक युवा खरीदार ने मुझे बताया, “मेरे अनुभव में, जब भी उन्होंने (भारत सरकार) कुछ बड़ा किया है तो सीजन के दौरान किया है. ऐसा जानबूझकर हमें सजा देने के लिए है क्योंकि सत्तर प्रतिशत लोग फल के व्यापार पर निर्भर हैं.”
एक अन्य सामान्य व्याख्या यह है कि सरकार इस समय का चयन इसलिए करती है ताकि लोग विरोध प्रदर्शन करने के बजाए बाहर आकर अपना काम करने के लिए विवश हों. फल पैदा करने वालों ने माना कि हालांकि दक्षिण कश्मीर में शोपियान, जो उग्रवाद का एक अन्य अड्डा है, बेहतर गुणवत्ता वाला सेब पैदा करता है लकिन सोपोर अधिक ऊंचाई पर होने की वजह से अधिक मात्रा में पैदावार देता है.
सेब के बाग और व्यापार कभी-कभी राजनीतिक प्रतियोगिता का क्षेत्र बन जाते हैं. सरकार संदेह करती है कि इस व्यापार से लाभ का कुछ भाग अलगावाद की निधि में जाता है– लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि ऐसा करने से उसका यह दावा संकट में पड़ जाएगा कि ऐसे प्रयास पूरी तरह पाकिस्तान के सहयोग से होते हैं. सितंबर के मध्य में मोदी सरकार ने भारत के राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ को सेब की फसल खरीदने का अधिकार दे दिया. लेकिन सेब उगाने वालों ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, इसके बजाए उन्होंने इसे कहीं भी भेजने का चयन किया जहां उसे भेजा जा सकता था ताकि सरकार को सामान्य स्थिति दर्शाने के लिए एक और फोटो दिखाने का अवसर न मिले. सरकार बाजार खोलने के लिए दबाव बनाने का प्रयास करती रही है, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
बारामुला से गुलमर्ग का रास्ता बहुत खुबसूरत है, जो सेब और नाशपाती से लदे हुए बागों से भरे हुए हरी पहाड़ियों और नालों से छितराया हुआ है. मैं सड़क के किनारे खाली पड़ी सेब की पेटियों के ढेर देख सकता था. रास्ते भर मेडिकल स्टोरों को छोड़कर दुकानें बंद थीं. एक छोटे से कस्बे क्रीरी के अलावा कहीं सशस्त्र बल मौजूद नहीं थे. लेकिन जैसे ही हम गुलमर्ग का गेट कहे जाने वाले तंगमर्ग पहुंचे तो इलाका अधिक से अधिक सैन्यीकृत दिखाई देने लगा. मुख्य सड़क खाली थी, और हमें सूर्यास्त से ठीक पहले गुलमर्ग पहुंचने के लिए मात्र एक वाहन मिला.
हिल स्टेशन भूतों का शहर बन गया था हालांकि यह अपने नाम के अनुरूप था, फूलों के मैदान की तरह एरीगॉन के सफेद और गुलाबी फूल पूरी पहाड़ी ढलानों पर लहलहा रहे थे. इन ढलानों पर कुछ जंगली घोड़े चर रहे थे. वहां हम केवल लोगों के एक छोटे से समूह को देख पाए जो आराम से टहल रहा था. बाद में हमें पता चला कि वे गुलमर्ग विकास प्राधिकरण के कर्मचारी थे. कुछ दूरी पर बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे. केवल एक होटल ‘मलिक ढाबा’ खुला हुआ था क्योंकि चार दिनों बाद उसका मालिक यह देखने आया था कि सब ठीक है या नहीं. उसने कहा कि वह हमें केवल मैगी और चाय दे सकता है. ढाबा मालिक ने हमें बताया कि वह 1996 से ढाबा चला रहा है लेकिन इतनी बुरी स्थिति पहले कभी नहीं देखी. उसने मुझे बताया, “एक दुकान पर एक व्यक्ति रहने की कोशिश कर रहा है लेकिन सभी दुकानें बिखरी पड़ी हैं. यहां तक कि अगर कोई मर जाए तो दूसरों को जानने में एक सप्ताह लग जाएगा.”
पास में दुकान करने वाला एक अन्य व्यक्ति भी बातचीत में शामिल हो गया. जब मैंने उससे पूछा कि क्या गुलमर्ग आने वालों को रोका जा रहा था, उसने बताया कि सेना के कुलियों को 48 घंटे के लिए ऊंचे स्थानों से जहां वे काम करते थे वापस भेजा जा रहा है. उसने मुझे बताया, “अफवाह है कि एक मेजर समेत दस से पंद्रह सैनिकों के सिर काट लिए गए हैं.” यह बताते हुए कि 17 और 18 अगस्त की पूरी रात हेलीकॉप्टर की कहानियां चल रही थीं, उसने कहा, “हम नहीं जानते क्या हुआ. हम सोचते थे कि पाकिस्तान से युद्ध हो सकता है.” हम गुलमर्ग से जवाब से अधिक सवाल लेकर वापस लौटे. वापस आते हुए प्रवेश बिंदु पर तैनात दो पुलिस वालों ने पुष्टि की कि सेना के कुलियों को 48 घंटों के लिए वापस भेज दिया गया है.
जब मैं दिल्ली वापस लौटा तो सीमाओं के बारे में आंशिक रूप से कुछ अफवाहों की पुष्टि हो गई. लेफ्टीनेंट जनरल केजेएस ढिल्लन और एडीजीपी मुनीर खान ने 4 सितंबर को श्रीनगर के बादामीबाग छावनी में एक प्रेस कांफ्रेंस को सम्बोधित किया. ढिल्लन ने बताया कि गुलमर्ग और आसपास तीन सौ से अधिक ऑपरेशन किए गए. उन्होंने कहा, “जैसा कि आप जानते हैं कि पर्यटन और अन्य चीजों की वजह से गुलमर्ग आतंकवाद मुक्त क्षेत्र है.” सितंबर के मध्य में इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने दोहराया कि कोई घुसपैठ नहीं हुई है हालांकि कोशिशें कई बार हुई हैं. ढिल्लन ने कहा, “पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में लांचपैड भरे हुए हैं जिनमें लश्कर–ए–तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल और अल बद्र (संगठन के आतंकी) शामिल हैं. कई बार वे पाकिस्तानी पोस्टों तक आते हैं, हर दिन फायरिंग होती है. पुंछ, राजौरी और जम्मू क्षेत्रों में भी घुसपैठ के प्रयास होते हैं.”
मैंने 2016 के प्रदर्शनों के दौरान, जब दक्षिण कश्मीर की यात्रा कर रहा था, एक कहानी सुनी थी. अनंतनाग के पास एक गांव के लोगों ने एक कुख्यात और क्रूर पुलिस अधिकारी के नाम पर एक खच्चर का नाम रख दिया था. जब उक्त पुलिस अधिकारी को पता चला तो उसने खच्चर को गोली मार दी. कहानी कश्मीरी पुलिस की छवि के हिसाब से सच लगती है. लेकिन इस बार की घाटी की यात्रा में वहां खड़े पुलिस वालों में फर्क महसूस न कर पाना मुश्किल है. हर जगह पुलिस वाले उदासीन दिखे. कई बेफिक्र और बेकार घूमते नजर आए. मैंने उन्हें समूहों में बैठकर ताश खेलते या गप्पे मारते देखा. मैंने सुना कि 5 अगस्त के बाद घाटी में साठ प्रतिशत पुलिसकर्मियों को निशस्त्र कर दिया गया है. हालांकि सरकार ने इसका खंडन किया है लेकिन बहुत साफ है कि पुलिस अधिकारियों के पास फाइबर के डंडों के अलावा कोई चीज नहीं थी.
गृहमंत्री अमित शाह द्वारा सरकार के निर्णय की संसद में घोषणा के तुरंत बाद उसी सुबह एक एएफपी का एक फोटो घूमने लगा. इसमें शाह को एक कागज पकड़े हुए देखा जा सकता है जिसमें कई एजेंडे सूचीबद्ध हैं. “कानून व्यवस्था” शीर्षक से उल्लेखित एक में लिखा था “वर्दीधारी कर्मियों के एक भाग में हिंसक अवज्ञा की संभावना.” कई लोगों ने इसका मतलब यह निकाला कि सरकार को जम्मू और कश्मीर में पुलिस बगावत की आशा थी इसलिए उनके हथियार ले लिए गए थे.
घाटी में वर्षों से राज्य पुलिस उग्रवाद के खिलाफ सरकार के निशाने पर रही है. जब मैं अनंतनाग में एक मृत उग्रवादी के भाई से मिला तो उसने कहा, “सेना अपना काम कर रही है लेकिन कश्मीरी पुलिस इसकी असल अपराधी है जो उन्हें सिखाती है कि करना क्या है.” अपने केसर के लिए प्रसिद्ध पमपोरे शहर के एक युवा ने कहा कि अब तक बड़े पैमाने पर मौतें नहीं हुई हैं क्योंकि कश्मीरी पुलिस के पास हथियार नहीं हैं.
हालांकि जम्मू–कश्मीर कोलेशन ऑफ सिविल सोसाइटी के प्रमुख अधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज इस विचार से सहमत नहीं थे. उन्होंने मुझे बताया, “यह दिल्ली के लोगों द्वारा प्रचारित एक कथा है, विगत सालों की सभी हत्याओं को हमने संकलित किया है और यह सच नहीं है.” 2016 में कैद कर लिए गए अलगाववादी नेता मसरत आलम ने उन पुलिस वालों की एक सूची बनाई थी जिन्होंने ज्यादतियां की थीं. इनकी योजना उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत करने की थी. लेकिन हुर्रियत ने एक लाख पुलिस वालों और उनके परिवारों के खिलाफ गृह युद्ध को रोकने के लिए इसका विरोध किया.
हालांकि इस बार लगता था कि अधिकांश पुलिस वालों और जनता को एक ही तरफ ढकेल दिया गया था. कश्मीरी निशस्त्रीकरण को महसूस करने में असफल नहीं रहे. पुलिस द्वारा रोके जाने पर स्थानीय लोग उनकी खिंचाई, कभी-कभी उनकी बंदूकों के बारे में पूछते थे, कई बार उनसे विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए कहते थे. कश्मीरी पुलिस का गौरव खासकर निचले स्तर पर उनकी बंदूकों से जुड़ा हुआ था. उनके बिना पुलिसकर्मी दंडित और शर्मिंदा दिखते थे जैसे उन्हें नंगा कर दिया गया हो. लोगों ने उनके लिए प्रतिकूल सहानुभूति व्यक्त करना शुरू कर दिया. वे भी भारतीय राज्य की सनक का शिकार हो गए थे.
पुलिस को निशस्त्र करके भारतीय राज्य ने हिजबुल मुजाहिद्दीन के वर्तमान कमांडर रियाज नाइकू को भी सच साबित कर दिया. शाह के संसद में दिए भाषण से दो दिन पहले जारी एक वीडियो में रियाज निइकू ने जम्मू और कश्मीर पुलिस को संबोधित किया. उसने कहा, “हम पुलिस में काम कर रहे कश्मीर के लोगों से कहना चाहेंगे कि आज तुम्हारे पास खुद को मुक्त करने का अवसर है. अगर तुम अब भी नहीं समझे तो अल्लाह की दुआ से वह दिन दूर नहीं है जब भारत तुम्हें टिशू पेपर की तरह इस्तेमाल करेगा और फेंक देगा. वह दिन दूर नहीं जब तुम्हारे अपने लोग तुम्हें घरों से घसीटेंगे और टुकड़े-टुकड़े कर देंगे.”
नाइकू कहता गया, “यह केवल हमारी जंग नहीं है, आज तुम कश्मीरियों का विनाश करते हो, कल सेना तुम्हारे बच्चों का अस्तित्व मिटा देगी ...हिंदुस्तान तुम्हारा इस्तेमाल तुम्हारे अपने लोगों के खिलाफ कर रहा है. अपने दिमाग का इस्तेमाल करो और तय करो कि तम्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं.”
मैं दो वरिष्ठ और एक मध्यम स्तर के पुलिस अधिकारियों से मिला. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया, “पुलिस में अस्तित्वादी संकट नहीं है. लेकिन यह बिल्कुल सच है कि इस पर चर्चा है और यह बहुत महत्वपूर्ण है. पुलिस अपने बारे में यह तमाम चर्चाएं सुन रही है. हां – मिसाल के तौर पर, जिस तरह से सीआरपीएफ वाले उनसे उस समय व्यवहार करते हैं जब वे एक साथ काम करते हैं और संयुक्त ऑपरेशन संचालित करते हैं तब वे अपमानित महसूस करते हैं. उन्होंने मुझे बताया कि व्यवस्था अनौपचारिक रूप से बदल दी गई है. “हम सभी अप्रासंगिक हो गए हैं. इससे पहले, किसी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए कई स्तर थे. लेकिन अब सड़क पर मेरे और साधारण सिपाही के बीच कोई अंतर नहीं है. सब कुछ नई दिल्ली द्वारा तय किया जा रहा है. यहां तक कि डोभाल को भी कुछ करने या आगे बढ़ने के लिए नई दिल्ली से मंजूरी लेनी होती है, जैसे अगर वह प्रतिबंधों में दो घंटे की छूट देना चाहते हैं तो ...”
एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “लोग आशा कर रहे थे कि ज्यादा से ज्यादा 35ए में परिवर्तन करके उन महिलाओं को संपत्ति में विरासत का अधिकार दिया जाएगा जो बाहर शादी करती हैं. लेकिन यह आठ की तीव्रता वाला भूकम्प निकला.” उन्होंने आगे कहा कि इंटेलिजेंस ब्यूरो, “इस निर्णय के बिल्कुल खिलाफ थी. लेकिन उन्हें चुप करा दिया गया.” उनके अनुसार लोगों में गुस्से का एक प्रमुख कारण मीडिया था. उन्होंने मुझे बताया, “जब बिल्ली दूध पी जाती है तो यह आपको चिंतित नहीं करता, लेकिन जब दूध पीने के बाद पूछ हिलाना शुरू करती है तो उससे आपको गुस्सा आता है.”
जब मैंने पूछा कि क्या सड़कों पर गुस्से की खबर दिल्ली को मिल रही है तो वरिष्ठ अधिकारी का जवाब नकारात्मक था. उन्होंने कहा कि अराजक समय, शक्ति की लालसा और व्यक्तिवाद का भी गवाह बनता है. उन्होंने कहा, “हम जानकारी देते हैं लेकिन जब तक यह कई स्तर पर विभिन्न छानबीन से गुजरते हुए नई दिल्ली पहुंचती है, यह पाखंड बन जाती है.” उन्होंने विस्तार से बताया, “कुछ जिला कमिश्नर, मंडल कमिश्नर बनना चाहते हैं, सचिव, मुख्य सचिव बनना चाहते हैं, डीआईजी, आईजी बनना चाहते हैं और आईजी, एनएसए और एनएसए, राज्यपाल बनना चाहते हैं. आत्महित की परतें मोटी हैं और वह जमीनी हकीकत में हेरफेर करते हैं.” कोई बुरा नजर नहीं आना चाहता.
वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “वे अपने ही प्रचार में विश्वास करना शुरू कर देते हैं. डोभाल कैसे वापस जाते हैं दावा करते हैं कि सब कुछ नियंत्रण में और शांतिपूर्ण है, बाद में भले जो कुछ हो”.
मध्यम स्तर के अधिकारी जिनसे मैं नागरिक कर्फ्यू शुरू होने के बाद मिला वह भी हैरत में थे कि क्या “इस बात को प्रचारित किया जाएगा कि एनएसए के घाटी से जाने के बाद चीजें और खराब हो गई हैं.” उन्होंने बताया कि स्थानांतरण और नई नियुक्तियों की बात हो रही है. श्रीनगर में एक वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के इर्द–गिर्द ऐसी अफवाहों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, “उनका अधीनस्थ अचानक बहुत शक्तिशाली बनकर काम कर रहा है, हो सकता है नई दिल्ली ने उसे अधिकृत किया हो. अतिरिक्त पुलिस उपाधीक्षक वहां बुलाए जा रहे हैं जहां पर्याप्त मामले नहीं हैं.” मैंने उनसे पूछा कि 370 खत्म किए जाने के कदम और पूरी घाटी को पूर्ण प्रतिबंध के अंतर्गत लाने के प्रति उनकी सबसे बड़ी आलोचना क्या थी. उन्होंने मुझे बताया, “इस कदम की सबसे बड़ी आलोचना यह है कि इससे बाहर निकलने की कोई योजना नहीं है.”
दूसरे वरिष्ठ अधिकारी अधिक विचारशील थे. उन्होंने कहा, “हमने अब तक धर्मनिर्पेक्ष भारत के साथ काम किया था. अब हम इस नए भारत को समझने का प्रयास कर रहे हैं.” उन्होंने सुझाया कि मैं इजराइली मानवाधिकार कार्यकर्ता जेफ हैल्पेर की किताब ‘वार अगेंस्ट द पीपुल: इजराइल, पलेस्टीनिंस एंड ग्लोबल पेसिफिकेशन’ पढूं जिसमें विस्तार से बताया गया है कि इजराइल, फिलिस्तीनियों से कैसा व्यवहार करता है और बच निकलता है. उनके अनुसार इस्राइल क्षेत्र में भूगोल और प्रतिदिन के जीवन के सैन्यकरण के लिए व्यवस्थित कामबंदियों, नाकाबंदियों और सड़क अवरोधों का प्रयोग करता है. उसी का प्रयोग अब भारत में किया जा रहा है. दूसरे वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “हैल्पेर फिलिस्तीन की शांति की अवधारणा के बारे में बात करता है, वहां यह बहिष्करण पर आधारित है जो घेराबंदी आदि से प्राप्त की जाती है. भारत ने अब तक शांति की समावेशी अवधारणा को अपनाया था लेकिन अब वह बदल सकता है. कश्मीर में शांति की अवधारणा बहिष्करण पर आधारित होगी.”
मैंने पहले वरिष्ठ अधिकारी से परिस्थितियों का उग्रवाद पर पड़ सकने वाले प्रभाव के बारे में पूछा. उन्होंने कहा, “पहले संघर्ष स्थानीय था. लेकिन अब यह राज्य की सीमा पार कर मुख्य भूमि तक जा सकता है. पहले हिजबुल मुजाहिद्दीन को प्रमुखता और महत्व दिया जाता था और अन्य आतंकवादी समूहों जैसे लश्कर–ए–तैयबा और जैश–ए–मोहम्मद दूसरे नम्बर के खिलाड़ी थे. लेकिन अब यह बदलेगा क्योंकि सबके लिए खुला निमंत्रण है.” उन्होंने कहा, “अब तक एक युवक अगर किसी और की बंदूक के साथ फोटो खिंचवा लेता था तो उसे भी उग्रवाद माना जाता था. लेकिन अब उग्रवाद घातक होने जा रहा है. कश्मीरी पराजित महसूस कर रहे हैं.” उन्होंने कहा कि जब पूरी आबादी हारा हुआ महसूस करती है, “तो वे किसी भी हद तक जा सकते हैं.”
आतिफ 5 अगस्त से भागा हुआ है. अब उसकी उम्र 34 वर्ष है, पहली बार उसे 2006 में पत्थरबाजी के आरोप में उस समय पकड़ा गया था जब वह कॉलेज में था. 2008 में उसे 20 दिनों की जेल भी हुई थी. फिर 2009 में पहली बार उस पर पीएसए लगाया गया. तब से उसे कई बार निवारक नजरबंदी के लिए उठाया जा चुका है.
आतिफ की 2010 में शादी हो गई और उसका एक बच्चा है. उसने कहा, “मैं मुश्किल से अपने बच्चे के साथ समय बिता पाता हूं.” उसने मुझे बताया कि वह पत्थरबाजी बहुत पहले बंद कर चुका था. जब मैंने पूछा- क्यों? तो उसने मुस्कुराते हुए कहा, “यह पत्थरबाजी की उम्र नहीं है.” उसका पेट निकला दिखाई दे रहा था, इसलिए मैंने विश्वास कर लिया.
मैंने आतिफ से पूछा कि इस बार बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं हुआ. उसने कहा कि मुख्यधारा की पार्टियां, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और नेशनल कांफ्रेंस का “कोई सामाजिक आधार नहीं है. इसलिए लोग उनके लिए सड़कों पर आना नहीं चाहते. गिलानी ने भी कोई बयान नहीं दिया. इसलिए लोग भ्रमित हैं. अगर लोग कुछ नहीं कर रहे हैं तो वे सही हैं. सुरक्षा बल बहुत अधिक हैं, व्यापक आंदोलन के लिए जगह नहीं है. फोन भी बंद हैं. अगर विरोध प्रदर्शन विश्व समुदाय द्वारा नहीं देखा जाता है तो मतलब क्या है”?
आतिफ ने कहा, “दमन का जवाब केवल प्रतिरोध है, दक्षिण कश्मीर कुछ समय तक इसमें था मगर अब वहां कुछ थकावट है. एक रिपोर्ट के अनुसार हजारों ओवरग्राउंड वर्कर (ओजीडब्ल्यू) निरुद्ध किए गए हैं. लेकिन प्रतिरोध जल्द ही शुरू होगा. बस आवश्यकता एक शुरूआत की है और चीजें फट पड़ेंगी.”
आतिफ ने कहा कि उसे लगता है कि दुकानें फिर से खुलेंगी. “बाहर के मजदूरों को अब कष्ट उठाना पड़ रहा है. वे आसान लक्ष्य बनते हैं हालांकि वे गुलमर्ग में जमीन खरीदने कभी नहीं आएंगे. मैं आजादी पसंद हूं इसलिए मैं लोगों को कष्ट में नहीं देखना चाहता.” उसे विश्वास है कि अगर मुख्यधारा के नेता कुछ कर सकने की हालत में होते तो बहुत बुरा साम्प्रदायिक खेल होता. उसने मुझे बताया, “इन मुख्यधारा के नेताओं के बाहर आने की आप प्रतीक्षा करें. मंदिरों को जलाया जाएगा. आजादी पसंद लोग ऐसा कभी नहीं करेंगे. वे जिला कमिश्नर का दफ्तर जला सकते हैं जो दमनकारी राज्य का प्रतीक है.”
आतिफ ने मुझे बताया कि अपनी कैद के दौरान वह कई उग्रवादी और अलगाववादी नेताओं से अलग-अलग जेलों में मिल चुका है. 2010 से पहले वह जेलों में केवल उत्तर कश्मीर के उग्रवादियों से मिला लेकिन उसके बाद वह केवल दक्षिण कश्मीर के उग्रवादियों से मिला. उसने कहा, “यहां नई भर्तियों की कोई समस्या नहीं है लेकिन हथियार प्राप्त करने की है”. उसने आगे कहा, “पुलिस को भी आश्चर्य है कि रियाज नाइकू बंदूक पाने में सफल रहा. मारे जाने के लिए वह उग्रवादी नहीं बना है बल्कि कुछ टिकाऊ काम करने के लिए बना है”.
शायद पतली गलियों की वजह से अनंतनाग श्रीनगर के मुकाबले अधिक सैन्यकृत लगता है. दुकानें बंद थीं और सड़कें पूरी तरह सुनसान थीं. हालांकि रुकावटें सिर्फ रात में लगाई जाती थीं. शहर में रोशनी बहुत कम थी. रात में गलियों में पंक्तिबद्ध सुरक्षाकर्मी तभी दिखाई देते थे जब हमारी कार की हेड लाइट उन पर पड़ती थी, ऐसा लगता था कि कहीं सुदूरवर्ती स्थान से प्रकट हो गए हों.
बलों की सघन मौजूदगी बता रही है कि सरकार इन क्षेत्रों को किस नजर से देखती है. अनंतनाग के एक मध्य आयु के व्यक्ति ने मुझे बताया, “हमारी आयु के लोग पाकिस्तान की तरफ से संकेत की प्रतीक्षा में हैं. युवा बस बंदूकों का इंतजार कर रहे हैं. उन्हें मालूम है कि बंदूक उठाना पत्थरबाजी से बेहतर है क्योंकि अगर आप पकड़े जाते हैं तो कानून बहुत सख्त है. बस एक बार इंटरनेट खुल जाए वे रियाज नाइकू की आडियो क्लिप का इंतज़ार कर रहे हैं.” उसने मुझे समझाने के लिए एक कश्मीरी रूपक दिया, “टिन का बना समोवार बहुत जल्द गर्म हो जाता है लेकिन उतनी ही जल्दी ठंडा भी हो जाता है. तांबे का समोवार गर्म होने में समय लेता है लेकिन देर तक गर्म रहता है.”
आतिफ जैसे कश्मीरियों के लिए भारत एक ऐसा बड़ा और विशाल देश है जो नैतिक रूप से घटिया है क्योंकि कश्मीर को नियंत्रित करने के लिए यह हिंसा और शक्ति का प्रयोग करता है. इसके शक्तिशाली होने के बावजूद वे समझते हैं कि उन्हें लड़ना जरूर चाहिए. उनकी अवहेलना में भाग्यवाद और शून्यवाद का मिश्रण है. अब यह भावनाएं भय द्वारा संयोजित हैं जो घाटी के हर कोने में उग्रवाद को स्वीकार्य बनाती प्रतीत होती हैं. 2016 में भी बहुत से कश्मीरियों की नजर में उग्रवाद, प्रतिरोध का एकमात्र व्यवहारिक रूप बन गया था. लेकिन आज, वे इसे आगे के एकमात्र रास्ते के रूप में देखते हैं. वे उग्रवाद को जनसांख्यिकीय परिवर्तन के खतरे के प्रत्युत्तर का मात्र एक रास्ता समझने लगे हैं. वे “समझते हैं कि यहां कोई नहीं आएगा क्योंकि यह बहुत दूर और सीमा के निकट है.” मैं बंदीपुरा में एक युवक से मिला जिसने कहा, “एक कॉलोनी में धमाका होगा तो कौन आएगा? सब भाग जाएंगे. उन्हें उग्रवादियों से बहुत उम्मीदें हैं.”
जनपद कुलगाम का ग्राम रामपुरा जो अनंतनाग से बहुत दूर नहीं है, को स्थानीय लोगों द्वारा शोहदापुर या शहीदों का गांव भी कहा जाता है. उसके सबसे जाने–पहचाने निवासियों में शेख परिवार है. 1990 के दशक में जब कश्मीर में उग्रवाद पहली बार बहुत तेज हुआ तो उस परिवार के बीस से अधिक लोगों ने उग्रवाद अपना लिया और अपने प्राण गंवा दिए.
एक सदस्य मोहम्मद अब्बास शेख अब भी सक्रिय है. अब्बास ने 2005 में उग्रवाद छोड़ दिया और दर्जी बन गया. भारतीय सुरक्षा बलों ने 2004 में पहले उसे जेल में डाल दिया, फिर 2007 में दोबारा तीन साल के लिए उठाया. 2013 में उनके घर पर छापा पड़ा, अब्बास वापस जेल नहीं जाना चाहता था इसलिए भाग गया. उसे गोली मार दी गई इससे उसके हाथों ने काम करना बंद कर दिया. अब 43 वर्षीय अब्बास अपने उग्रवादी संगठन के लिए नीतिगत काम करता हैं. जब हम उसके घर गए तो उसकी पत्नी कहीं गई हुई थीं. लेकिन हमने घर में रह रही दूसरी महिला शहनाज बानो से मुलाकात की.
बानो का विवाह शेख परिवार के पहले उग्रवादी इब्राहीम शेख से हुआ था जो 1990 में मारा गया. उसने 2002 में उसके भाई अशरफ शेख से विवाह कर लिया. 2009 में वह भी उग्रवादी बन गया लेकिन चालीस दिनों के भीतर उसे गोली मार दी गई. उसका बेटा सलमान अब 19 साल का है. बानों ने मुझे बताया, “हम विगत तीस सालों से कष्ट उठाते रहे हैं लेकिन मेरे बेटे को बढ़ता हुए देखकर हम सब भूल गए. वास्तव में वह पढ़ना चाहता था. हमें बहुत आशा थी कि वह अच्छा करेगा और परिवार की देखभाल करेगा.” जिस कमरे में हम बैठे हुए थे उसके एक कोने में उसकी स्कूल की पाठ्य पुस्तकों का ढेर लगा हुआ था.
बानो ने कहा कि सलमान को सुरक्षा बलों ने अगस्त 2018 में उठा लिया और उसकी बारहवीं की परीक्षा से ठीक पहले कठुआ जेल भेज दिया. उसने मुझे बताया, “मैंने उनसे कहा कि मैं उसे उग्रवादी नहीं बनने दूंगी लेकिन उन्होंने नहीं सुनी.” बानो न्यायालय गईं और उसकी परीक्षा खत्म कराने की अनुमति प्राप्त की. हालांकि सुरक्षा बलों ने दो बार उसे परीक्षा में शामिल होने से रोक दिया था जिसकी वजह से वह फेल हो गया.
पीएसए के अंतर्गत सलमान की हिरासत एक साल में दो बार बढ़ा दी गई. अपनी आंखों में आंसू लिए बानो ने मुझे बताया, “वह परिवार को गरीबी से बाहर निकालना चाहता था. वह पढ़ता था और साथ में काम भी करता था. उसने कुछ आमदनी के लिए एक नर्सरी शुरू की थी. जब वह पहली बार उससे जेल में मिलने गईं तो बानो ने कहा कि सलमान, “मुझे नर्सरी में पौधों की देखभाल के बारे में बता रहा था.”
पड़ोस के रास्ते में हमारी मुलाकात अब्बास शेख की बहन नसीमा से हुई. उसका 21 वर्षीय बेटा तौसीफ पिछले साल एक मुठभेड़ में मारा गया था. जब वह घेराबंदी और सर्च ऑपरेशन में पकड़ा गया था, उसने नसीमा को अंतिम बार बुलाया. उसने उसे दुखी न होने और उसके लिए दुआ करने को कहा. नसीमा ने मुझे बताया, “हमें अपने परिवार के इतने लोगों को खोने का पछतावा नहीं है. हम अल्लाह पर ईमान रखते हैं. वह इंसाफ करेगा.”
शेख परिवार के उग्रवादियों की ज्यादातर कहानियां एक जैसी हैं – हर व्यक्ति बहादुरी या अपनी स्वयं की इच्छा से उग्रवादी नहीं बना, कई इसमें ढकेले गए हैं. जब तौसीफ सक्रिय उग्रवादी था – उसके चार चचेरे भाइयों को जेल भेज दिया गया क्योंकि वे उसके रिश्ते में आते थे. उनका विवरण दर्शाता है कि घाटी में हिरासत और यातना ने शायद ही उग्रवाद से निपटने के रूप में काम किया हो. उग्रवादियों को पकड़ने और मारने के लिए पुरस्कार राशि और पदोन्नति के साथ इतना प्रोत्साहन दिया गया है कि बता पाना मुश्किल है कि यह कितने वास्तविक हैं.
मैं भावहीन शेख महिला से अनुच्छेद 370 के बारे में पूछना चाहता था लेकिन यह स्पष्ट था कि इसका उनके जीवन में कोई लेना देना ही नहीं था. श्रीनगर और दिल्ली की राजनीति से दूर उनका अपना संसार है. जब हम कार की तरफ बढ़े और गांव से बाहर आए तो किशोरों का समूह इकट्ठा हो गया, जो हमें घूर रहा था. मुझे संदेह था कि अगली बार जब हम आएंगे तब तक शोहदापुर में उनमें से कितने जीवित रहेंगे.
खानाबल सरकारी हाउसिंग सोसाइटी अनंतनाग में उच्च सुरक्षा वाली बस्ती है जिसमें कई राजनीतिक पार्टियों और कार्यकर्ताओं के कार्यालय हैं. यहां तक कि इख्वानुल मुस्लिमीन के पूर्व सदस्य इसी प्रांगण में रहते हैं. यह राज्य प्रायोजित विश्वासघाती उग्रवादियों का समूह है जिसने उग्रवाद की कमर तोड़ने में भारत सरकार की सहायता की थी.
यहां रहने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार के घर मैं भारतीय जनता पार्टी के दो नेताओं से मिला. दोनों ने कहा कि इस बार कश्मीरी 2016 की तुलना में अधिक क्रोधित हैं. हालांकि लोग भयभीत भी हैं, उन्होंने कहा कि चीजें धीरे-धीरे ठीक हो जाएंगी. मैंने उनसे पूछा कि अनुच्छेद 370 को समाप्त किए जाने के बारे में वे क्या सोचते हैं. बीजेपी जिला अध्यक्ष रफीक वानी ने मुझे बताया, “आम आदमी खानदान राज के जाने से खुश है. इसका लाभ केवल राजनीतिक वंशों को था सामान्य लोगों को नहीं. हम मूल रूप से खानदान राज के खिलाफ हैं.”
मैंने पूछा कि क्या मुख्यधारा के राजनीतिक परिवार और उनके नेता भारत समर्थक नहीं थे. बीजेपी के जिला महासचिव मोहम्मद मकबूल गनई ने कहा, “वे भारत समर्थक थे क्योंकि 370 के साथ उनका वोट बैंक सुरक्षित था. वे आधे भारतीय थे और कभी धर्मनिर्पेक्ष नहीं थे. अगर वे 370 को इतना ही चाहते थे तो उन्हें एक साथ आना चाहिए था और उग्रवाद का चयन करने के बजाए भारत से इसे स्थाई बनाने की मांग करनी चाहिए थी. इससे हमारे बहुत से युवा अपना जीवन नहीं खोए होते.”
बीजेपी नेताओं ने अब्दुल्लाहों और मुफ्तियों पर हमला जारी रखा और जब मैंने अन्य राजनेताओं का उल्लेख किया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था. गनई ने कहा, “हम इन आधे भारतीय लोगों को गिरफ्तार करने के लिए भारत सरकार को धन्यवाद देते हैं. अगर कोई बचा है तो उसे भी सलाखों के पीछे डालना चाहिए और युवा लोगों को अवसर दिया जाना चाहिए.
गनई के अनुसार, मुख्यधारा की पार्टियों ने उग्रवादियों को सक्रिय करने के लिए अनुच्छेद 370 का उतना ही प्रयोग किया जितना हुर्रियत ने अलगाववाद के बैनर तले किया. इस दावे का ऐतिहासिक अभिलेखों से मिलान कर पाना कठिन है. उग्रवादियों ने गत वर्षों में मुख्यधारा के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या की, जिसका पार्टियों ने क्रूरता से जवाब दिया. उदाहरण स्वरूप, घाटी के बाहर नरम अलगाववादी पार्टी के रूप में देखी जाने वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के शासन के अंतर्गत बड़ी संख्या में अलगाववादी मारे गए थे. जब मैंने कश्मीरियों के भय के बारे में पूछा कि वे अपनी जमीनों से हाथ धो देंगे तो गनई ने कहा कि वह अपने गांव में उद्योगों का स्वागत करेंगे. उन्होंने कहा, “अगर हमें सही नौकरी नहीं भी मिलती है तो कम से कम ग्रामीणों को बतौर मजदूर तो काम मिलेगा.” मैंने उल्लेख किया कि युवाओं को नौकरी के लिए बाहर के लोगों से प्रतियोगिता करनी पड़ सकती है. अंत में उन्होंने स्वीकार किया कि यह नुकसान तो होगा.
कमरे में एक व्यापारी भी थे, वह अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाए. उन्होंने कहा, “यह बहुत बड़ा नुकसान है; सभी अच्छे व्यापारी जम्मू और कश्मीर में निवेश करना चाहते थे, चीजें वापस रास्ते पर आ रही थीं. अब, बाहर भी निकलना मुश्किल है. उन्हें ऐसा इस समय नहीं करना था.” उनके बाजू में बैठे राज्य के चैम्बर ऑफ कॉमर्स के सदस्य ने आगे कहा कि यह बहुत संवेदनशील मुद्दा है. उन्होंने कहा, “जब वे कहते हैं कि घाटी पिछड़ी हुई है तो मेरा खून खौलता है. अगर वे विकास लाना चाहते हैं तो उन्हें बिहार का विकास करना चाहिए था.” वरिष्ठ नेशनल कांफ्रेंस नेता और पूर्व विधायक अब्दुल कादिर भट्ट पठान, जो खुद भी कमरे में थे, का हवाला देते हुए व्यापारी ने कहा, “पठान साहब जैसे लोगों ने हमें हिंदुस्तान से प्यार करना सिखाया. लेकिन यह हमारे अस्तित्व पर हमला है ... कुछ दिनों में यहां कोई आरएसएस और बीजेपी का नाम लेने वाला नहीं रहेगा.”
इसने वानी को प्रतिक्रिया का अवसर दे दिया. उन्होंने कहा, “यह धमकी है. यह पाकिस्तान की भाषा है.” उनके पास लक्ष्य साधने का अंतिम अवसर था. “अनंतनाग के अलावा, दस जनपदों में किसी तालुका मुख्यालय पर इस बार कहीं भी झंडा रोहण नहीं हुआ अनंतनाग में भी ऐसा करने का प्रबंध मैंने किया.” उन्होंने गर्व से मुझे बताया कि इसके लिए बीजेपी का दिशा-निर्देश था. मैंने पूछा कि नौ अन्य जनपदों में क्या हुआ तो उन्होंने कहा, “अगले साल तक इंतजार करें और देखें.”
अंत में 74 वर्षीय पठान ने बोलना शुरू किया, “हर साल हम पहलगाम तहसील पर तिरंगा फहराते थे. इस बार किसी ने नहीं कहा तो हम नहीं गए.” उन्होंने कहा कि कश्मीर की जनता ने, “देश के साथ एक समझौता किया जिसका अभिमान गांधी थे, तूफान के साथ नहीं जो आज सत्ता में है.” जो मुसलमान विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए उन्हें आज भी निंदात्मक रूप से मुहाजिर कहा जाता है, उन्होंने आगे कहा, “हम पाकिस्तानी नहीं हैं, हम हिंदुस्तानी हैं. लेकिन फारूक अब्दुल्लाह जैसे लोगों को देखो. हुर्रियत उन्हें गालियां देती है और आपका देश भी उनके पीछे पड़ा है. यह कैसा इंसाफ है? इस पर किस तरह का संबंध बनाया जा सकता है? यह तोड़कर अलग कर देगा.”
पठान अपने आपको “शुद्ध हिंदुस्तानी” कहते हैं. उन्होंने कहा, “मैंने 1996 में चुनाव लड़ा जो स्वयं मौत को आमंत्रित करने जैसा था.” उग्रवाद के फैलाव के बाद उस साल पहली बार कश्मीर चुनावों में गया था.” पठान ने कहा, “मैंने जब राजनीति में प्रवेश किया तो 14 साल का था और आज 74 का हूं. आज मेरे पास सुरक्षा भी नहीं है– मेरे साथ पांच लोग हुआ करते थे. वे हमें क्यों सजा दे रहे हैं? आज कोई भी मुझे सड़क पर मार सकता है. उन्हें बंदूक की जरूरत नहीं है, एक छोटा सा पत्थर काफी है.”
वह इतने पर ही नहीं रुके. उन्होंने मुझसे कहा, “अमित शाह कहते हैं उग्रवाद खत्म होगा. उग्रवाद बढ़ेगा, सौ प्रतिशत बढ़ेगा. आज के बच्चे, मौत को गले लगाते हैं. वे सशस्त्र बलों पर पत्थर फेकते हैं जबकि वे जानते हैं कि बदले में उन्हें बुलेट मिलेगी.”
पठान के अनुसार, अनुच्छेद 370 को मुख्यधारा के नेतृत्व को भरोसे में लेकर अलग तरीके से समाप्त किया जा सकता था. उन्होंने कहा, “उन्होंने कर्फ्यू लगा दिया, हर तरफ सुरक्षा बल हैं, हमारे नेता हिरासत में हैं. यह प्यार नहीं, कुछ और है. जब शेख अब्दुल्लाह को 1953 में गिरफ्तार किया गया था, दूसरे लोग शासन कर रहे थे, अनुच्छेदों को कमजोर कर दिया गया था. लेकिन कुछ नहीं हुआ. अब ऐसा क्यों हो रहा है?”
पूर्ण प्रतिबंध को दो सप्ताह हुए थे. पठान ने कहा, “लोग 15 दिनों से घर में बैठे हुए हैं, भूख से पीड़ित हैं, मैं दवा भी नहीं पा सका. अल्लाह की कसम खाता हूं, मेरे पास चार दिनों से कोई दवा नहीं है, मैं आपको दिखाऊंगा.” उन्होंने नीले रंग की इंसुलीन की खाली शीशी निकाली. उन्होंने कहा, “यह अनंतनाग जिले में कहीं भी उपलब्ध नहीं थी. मैं इस देश की प्रशंसा किसलिए करूं?”
पठान ने कहा, “अगर शेख साहब ने बंदूक उठाई होती तो यहां बहुत तबाही होती.” उन्होंने आगे कहा कि 1965 में जब घुसपैठिए पाकिस्तान से कश्मीर में दाखिल हुए तो कश्मीरी लोगों ने उन्हें पकड़कर सुरक्षा बलों को सौंप दिया. पीडीपी भारत द्वारा निर्मित है इस सामान्य धारणा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “पीडीपी को अखाड़े में उतारने के लिए 2002 में 6 करोड़ रुपए किसने दिए?” “यहां किसी को भूल है कि कौम को दबा लिया है. यहां लावा पक रहा है. एक दिन यह बम की तरह फटेगा.”
जैसे ही हम हाउसिंग कॉलोनी से निकले, हम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (एम) के राज्य सचिव गुलाम नबी मलिक से मिले. उन्होंने अनुच्छेद 370 के समाप्त किए जाने के बारे में कहा, “यह सिर्फ बीजेपी का एजेंडा है, राष्ट्रीय एजेंडा नहीं है.” हमने भारत को धर्मनिर्पेक्षता सिखाई. आज वे कह रहे हैं कि कश्मीरी कट्टरपंथी हैं. यह सब आरएसएस की वजह से है ... यह हिंदू राष्ट्र का आरंभ है. यह पाकिस्तान में 1947 में हो चुका है. आज यह भारत में हो रहा है.
कुलगाम जिले में बुछरू और तारीगाम गांवों के बीच की दूरी मुश्किल से दो किलोमीटर है. लेकिन भारतीय लोकतंत्र की विकृत यात्रा को इस छोटी सी दूरी में देखा जा सकता है. 1987 के धांधली युक्त विधान सभा चुनावों में कई संगठनों का मोर्चा मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट चार सीटें जीतने में सफल रहा जिसमें एक कुलगाम भी शामिल थी. अब्दुल रज्जाक मीर नाम के एक परोपकारी व्यापारी ने जमात–ए–इस्लामी के टिकट पर बुछरू से चुनाव जीता.
एमयूएफ को पैर जमाने से रोकने के लिए केंद्र ने नेशनल कांफ्रेंस के पक्ष में चनावों में धांधली की. लेकिन कुलगाम में नेशनल कांफ्रेंस के गुलाम नबी डार दूसरे नम्बर पर रहे. धांधली के खिलाफ विरोध जताते हुए गिलानी समेत एमयूएफ के अन्य सदस्यों ने भी त्यागपत्र दे दिया लेकिन जमात ने मीर को बतौर विधायक बने रहने की अनुमति दे दी. 1989 में उग्रवाद के उभार के बाद विधान सभा निलंबित कर दी गई और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.
अभूतपूर्व सुरक्षा के बीच 1996 में होने वाले चुनावों तक बहुत कुछ बदल चुका था. चुनाव के दौरान इख्वान ने मीर को दिन में ही उठा लिया और हत्या कर दी. उनके बेटे निसार अहमद मीर की उम्र उस समय तीस साल थी. उन्होंने मुझे बताया, “इख्वानी एक मिनी बस में आए और उन्हें हमारी दुकान से उठा लिया. मैंने देखा कि उनकी गाड़ी में पांच सैनिक थे. पहले वे उन्हें सेना के कैम्प में ले गए, फिर उन्हें पांच किलोमीटर दूर लारू गांव ले जाकर गोली मार दी गई. सबसे कम आयु के इख्वानी शब्बीर लाली ने उन्हें करीब एक बजे दिन में गोली मारी. सेना ने गांव को जाने वाले रास्ते बंद कर दिए थे. हम भी नहीं पहुंच सके.”
जमात के इसी मजबूत गढ़ से 1983 और 1987 के चुनावों में हारने के बाद सीपीआई (एम) के टिकट पर मोहम्मद यूसुफ तारीगामी पहला चुनाव जीतने में सफल हुए. लोगों को याद है कि कैसे उन दिनों राष्ट्रीय राइफल्स का कैम्प तारीगामी के गांव परीगाम के पास स्थित था और इस कैम्प के प्रमुख ब्रिगेडियर अहलावत से उनके बहुत अच्छे संबंध थे. गांव के एक निवासी ने मुझे बताया कि ऐसी अटकल लगाई जाती थी कि मीर की हत्या के पीछे तारीगामी का हाथ था. “क्योंकि इस चुनाव क्षेत्र में केवल वही उनके लिए रोड़ा थे. तारीगामी को 1987 में बहुत थोड़े से वोट मिले थे.”
तारीगाम में मैं 72 वर्षीय अब्दुल राशिद भट से मिला जो मीर के दोस्त और चुनाव एजेंट थे. भट ने मुझे बताया, “ब्रिगेडियर अहलावत अपने पांच लोगों और मीडिया के साथ आए और मेरे ऊपर बंदूक तानकर पूछा, ‘अब्दुल रज्जाक मीर को किसने मारा?” मैने कहा ‘इख्वान’ ने, इस पर उन्होंने कहा, ‘तब तुम सेना का नाम क्यों ले रहे हो?’ मैंने कहा, ऐसा इसलिए कि मैंने सेना के पांच लोगों को देखा, जो इख्वानियों को सुरक्षा दे रहे थे.”
जब मीर को ले जाया जा रहा था तो भट की बेटी को पैर में गोली मार दी गई थी. जब कुलगाम के एनसी के राजनेता गुलाम नबी डार की जुलाई 2006 में बारूदी सुरंग धमाके में मौत हुई तो एक बार फिर तारीगामी के नाम की फुसफुसाहट हुई. ग्रामवासियों में से एक ने मुझे बताया कि मीर की मौत के बाद से “वहां भय है और तारीगामी का कोई विरोध नहीं है.” 1996 के बाद तारीगामी लगातार तीन बार चुनाव जीते और जब जून 2018 में जम्मू और कश्मीर को राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत लाया गया तो तारीगामी पदस्थ विधायक थे.
मैंने तारीगामी के विरुद्ध आरोपों के बारे में सीपीआई (एम) के राज्य सचिव गुलाम नबी मलिक से पूछा. मलिक ने मुझे बताया, “हमने जितने भी चुनाव लड़े हैं जमात–ए–इस्लामी ने हमारे खिलाफ अभियान चलाया है. हमने गिलानी को सबूत की मांग करते हुए खुला पत्र लिखा. ठीक है, हमने 1996 का चुनाव किसी की मदद से जीत लिया. लेकिन बाद में नहीं. मैंने तारीगामी के खिलाफ आमतौर पर कश्मीर में लगाए जाने वाले आरोप के बारे में पूछा कि वह सुरक्षा बलों द्वारा पहले लोगों, खासकर युवाओं को गिरफ्तार करवाते हैं और फिर उनका समर्थन जीतने के लिए उन्हें रिहा करवाते हैं. उन्होंने कहा, “कश्मीर में जो भी जन प्रतिनिधि हुए हैं उनको इन आरोपों का सामना करना पड़ा था.” मैंने कुछ और नाम बताने के लिए कहा जिन पर यह आरोप लगे हैं. उन्होंने जीए मीर का नाम लिया जो जम्मू और कश्मीर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे.
दरअसल घाटी में राजनेताओं का एक ऐसा वर्ग है जो सेना और खुफिया एजेंसियों से अपने करीबी संबंध के लिए जाना जाता है जैसे पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के प्रमुख हकीम यासीन और गुलाम हस्सान मीर. मीर जो पीडीपी के सह संस्थापक हैं, ने मुझसे 2015 में बात की थी. उन्होंने मुझे खुलकर बताया कि केंद्र सरकार ने कई बार उनके राज्य विधान सभा के चुनाव को गुप्त रूप से आयोजित किया है.
पिछले साल हस्सान मीर उस समय एक विवाद में फंस गए थे जब इंडियन एक्सप्रेस ने खुलासा किया कि जनरल वीके सिंह ने, जो अब मोदी सरकार में सड़क और यातायात राज्य मंत्री हैं, उमर अब्दुल्लाह की सरकार को गिराने के लिए उन्हें 1.19 करोड़ रुपयों का भुगतान किया था. फिर सरकार ने सुनिश्चित किया कि वह चुनाव हार जाएं. हस्सान मीर ने मुझसे आग्रहपूर्वक कहा कि वह समझते हैं कि उनकी हार क्यों जरूरी थी. उन्होंने कहा, “वे मुझे नीचा नहीं दिखा रहे हैं. यह चुनावों को साफ-सुथरा दिखाने की नीति थी. जो कुछ देश के अन्य भागों में होता है वह यहां से अलग है. आपकी अदालतें जो कुछ कहें, आपका चैनल कहे, यहां की राजनीति भिन्न है. और वास्तव में भिन्न है.”
तारीगामी को भी सेना और प्रतिष्ठान से कथित निकटता की कीमत अदा करनी पड़ी थी. उग्रवादियों ने पिछले वर्षों में उनके परिवार के तीन सदस्यों उनके भाई, ससुर और भतीजे की हत्या कर दी. हालांकि वह राज्य के अकेले विधायक हैं जिन्हें इन कारणों से अति सुरक्षित गुपकार रोड पर आवास आवंटित किया गया था जहां मुख्य मंत्री और सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों के लोग रहते हैं.
मैं तारीगाम में उनके घर गया. घर की ऊंची दीवारों पर लगे कंटीले तार अब भी वैसे ही थे, सुरक्षा कैबिन खाली थी. पहले सीमा सुरक्षा बल और फिर राज्य सशस्त्र पुलिस के पंद्रह जवान 1996 से तारीगामी के घर की रखवाली करते रहे हैं. उग्रवादियों द्वारा उनके घर पर ताजा हमला 2018 में हुआ था.
परिवार के सदस्यों के अनुसार, 4 अगस्त की रात को सुरक्षाकर्मी चले गए. तारीगामी के भतीजों में से एक मोहम्मद अब्बास ने मुझसे पूछा, “अब हम क्या करें? हम पर कभी भी हमला हो सकता है. हमें हालात से लड़ना है. हम अपना डर किससे साझा करें? हमारे ऊपर लटकने वाली तलवार दो धारी है. अगर उग्रवादी यहां आते हैं और संयोगवश अगर वे मारे जाते हैं तो दो तरह के आरोपों की संभावना है: पहला, हमने उन्हें मार डाला और दूसरा, हम उन्हें शरण दे रहे थे.” परिवार के एक अन्य सदस्य ने, जो नहीं चाहता था कि उसका नाम आए, कहा कि सरकार ने कश्मीर को भारत के साथ एकीकृत कर दिया लेकिन यह केवल कागज पर है. यह विच्छेदन है, एकीकरण नहीं. कम से कम यहां कुछ लोग भारत के साथ थे क्योंकि भारत धर्मनिर्पेक्ष था. लेकिन अब यह सांप्रदायिक भारत है, मोदी का भारत.
जब हम वापस आ रहे थे तो गेट पर तारीगामी के दूसरे भतीजे जावेद अहमद से मुलाकात हुई. वह पुलिस के साथ है और तारीगामी की सुरक्षा टीम के हिस्से के तौर पर काम करता है. अहमद ने मुझे बताया, “तारीगामी को पेसमेकर लगा है इसलिए उन्हें घर में नजरबंद रखा. उन्होंने एसकेआईएमएस से एक डॉक्टर भेजने का अनुरोध किया था, उन्होंने कहा कि वे भेजेंगे लेकिन उन्होंने नहीं भेजा. इलाज पर दुख प्रकट करते हुए उसने कहा, “हमने दो दशकों के उग्रवाद का दंश झेला है लकिन वे अब भी हम पर भरोसा नहीं करते.
घाटी में उनकी भूमिका निर्मित करने में जो कुछ हुआ उसके बावजूद तारीगामी को 5 अगस्त को घर में नजरबंद रखा गया. सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने एक बार उनसे मिलने का प्रयास किया लेकिन उन्हें हवाई अड्डे से वापस भेज दिया गया. फिर येचुरी ने अगस्त के अंत में सुप्रीम कोर्ट से अनुमति प्राप्त की और कश्मीर पहुंचे. 17 सितंबर को तारीगामी दिल्ली में पार्टी मुख्यालय पर प्रेस कांफ्रेंस करने वाले पहले कश्मीरी राजनेता बने. उन्होंने कहा, “जब मैं जम्मू और कश्मीर के लोगों की भारतीय संघ के साथ एकजुटता की बुनियाद पर उन्हीं लोगों द्वारा हमला करते हुए देखता हूं जिनको संविधान की बुनियादों की रक्षा का जनादेश मिला है, तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है, बल्कि इसका मुझे सदमा लगता है. कोई परामर्श नहीं, कोई चर्चा नहीं, कोई बहस नहीं ... हमें साथ लेकर चलें.” तारीगामी को 2016 के विरोध प्रदर्शनों के दौरान मोदी से मुलाकात याद थी जब उन्होंने कहा था कि चीजें काफी खराब हैं, लेकिन यह सेना की जिम्मेदारी नहीं है “चूंकि यह उनका कारनामा नहीं है. उन्होंने शांति भंग नहीं की. उनके कंधे पर बोझ मत डालिए. स्थिति खराब है ... हम राजनेताओं के कारण.” स्थिति के सामान्य होने की बात पर, एक सवाल का जवाब देते हुए तारीगामी ने कहा, “वे एक बात लगातार कहते हैं: क्या कोई मरा? हां, वे मर रहे हैं, धीरे धीरे, मंद गति से मर रहे हैं.”
कश्मीरियों के लिए इस बात पर विश्वास करना विवेकहीन बात होगी कि तारीगामी को इसलिए हिरासत में रखा गया है, क्योंकि सरकार को चिंता थी कि वह उस व्यवस्था के खिलाफ लोगों को गतिशील करेंगे जिसने उन्हें बनाया, संवारा, सुरक्षित किया और शक्ति दी है. घाटी में लोगों की नजर में उनके जैसे राजनेता भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली के अनैतिक मुखौटे का प्रतीक हैं.
कुछ लोगों का, जिनसे मैं मिला, अनुमान था कि पूर्व इख्वान कमांडर और अब बंदीपुरा से कांग्रेस के विधायक उस्मान मजीद को स्वेच्छा से नजरबंद किया गया है. बंदीपुरा के एक निवासी ने कहा, “वरना भारत उनको नजरबंद क्यों करेगा?” अगर मजीद ने ऐसा नहीं किया है तो उनकी निष्ठा साफ कर देगी और हम सब देखेंगे. बंदीपुरा में एक स्थानीय पत्रकार ने मुझे बताया कि मजीद ने पत्थरबाजी के मुकदमों का सामना कर रहे कई युवकों की मदद की है. पत्रकार ने कहा, “पिछले चुनाव में उन्हें उस बस्ती से बहुत वोट मिले जो पत्थरबाजी के लिए जानी जाती है.”
मैं शीर्ष इख्वान नेता कूका पार्रे के बेटे इम्तियाज अहमद पार्रे से मिलना चाहता था जो राजनेता बन गए थे और जिनकी 2003 में हिजबुल मुजाहिदीन ने हत्या कर दी थी. इम्तियाज ने अपने पिता की पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया और वर्तमान में वह उत्तर कश्मीर के अपने गृहनगर हाजिन में नगरपालिका पार्षद हैं. अब वह कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता हैं. जब मैं उनके घर पहुंचा तो एक बीएसएफ के जवान ने लोहे का भारी गेट खोला.
इम्तियाज घर पर नहीं थे. मैं उनके बड़े भाई खुर्शीद पार्रे से मिला जो परिसर में तैनात बीएसएफ कर्मियों के साथ वॉलीबाल खेल रहे थे. खुर्शीद ने कहा कि करीब तीस से पैंतीस सुरक्षा कर्मी सामान्यतः उनके घर पर तैनात किए जाते थे लेकिन यह संख्या 5 अगस्त के बाद बढ़कर अस्सी हो गई. उनका मानना था कि उनके पिता होते तो वह अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने का समर्थन करते. खुर्शीद ने मुझे बताया, “वह जीवन भर सच्चे भारतीय रहे थे. उन्हें इससे कोई दिक्कत नहीं होती.”
खुर्शीद के अनुसार, मुफ्तियों और अब्दुल्लाहों ने अनुच्छेद 370 का फायदा उठाया क्योंकि सभी केंद्रीय निधियों को उन्होंने अपने लिए रख लिया. उन्होंने मुझे बताया, “मेरे पिता ने 1996 में कश्मीर को पाकिस्तान के चंगुल से छीन कर निकाला और वापस भारत को भेंट कर दिया. डोभाल साहब ने मेरे पिता को भर्ती करने और सहयोग देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लेकिन उन्हें इस बात का दुख था कि उनके परिवार को अब पर्याप्त सहयोग नहीं मिलता है. उन्होंने कहा, “मेरे पिता कश्मीर में सबसे बड़े देशभक्त थे लेकिन 2002 में चुनाव हार गए क्योंकि उनको केंद्र का समर्थन नहीं था.” एक अन्य इख्वानी मोमा खन्ना “को पदम श्री मिला क्योंकि उनको फारूक अब्दुल्लाह का समर्थन प्राप्त था. लेकिन मेरे पिता जिन्होंने उससे बड़ी भूमिका निभाई थी उनको सम्मान नहीं मिला.” हम गार्डन में उनके पिता की कब्र की बगल में बैठे थे. इख्वान के मुताबिक, कूका पार्रे को इतनी धिक्कार मिली कि गांव के कब्रिस्तान में उन्हें जमीन देने से इनकार कर दिया. यह कश्मीर में सबसे बड़ा अपमान था.
जब मैंने खुर्शीद से अनुच्छेद 370 के खत्म किए जाने के प्रभाव के बारे में पूछा तो उसने कहा, “लोग निर्णय के विरोध में हैं. कुछ खुश हैं लेकिन उग्रवादियों के भय के कारण बोलते नहीं हैं. अगर मैं हाजिन के बारे में बात करूं तो लोग यहां सोचते हैं कि बाकी सब ठीक है लेकिन जमीन हमें हाथ से नहीं जाने देनी चाहिए.” जब मैं विदा ले रहा था तो उसने मुझे श्रीनगर के उस होटल का नाम बताया जहां इम्तियाज ठहरा था.
डेलीगेट क्षेत्र में मुख्यमार्ग पर स्थित होटल पर चमकीली रोशनी नहीं थी और न ही उस पर नाम की पट्टी लगी थी. सुरक्षा घेरा दीवारों से ऊंचा था जिससे रहस्य का माहौल बनता था. मैं अंदर गया और इम्तियाज के बारे में पूछा. मेरी पहचान के बारे में कुछ सवालों के बाद ड्यूटी पर तैनात सीआरपीएफ वालों ने मुझे रजिस्टर दिखाया. इसमें वहां ठहरने वालों के नाम, कमरा नम्बर और संबंधित राजनीतिक पार्टी की सूची थी. सूची बहुत बड़ी थी. मैं समझ गया कि यह राजनेताओं के लिए सरकार का सुरक्षित घर है और यह भी कि श्रीनगर में ऐसे कई आवास मौजूद होने चाहिए. ऐसे समय में जब सभी महत्वपूर्ण राजनेताओं को गिरफ्तार या नजरबंद किया गया था, सरकार कई छोटे नेताओं को भी सुरक्षा प्रदान कर रही थी.
वहां ठहरे लोगों में एक मध्य कश्मीर में स्थित बडगाम का सरपंच अब्दुल रशीद भट भी था. जब मैंने उनसे पूछा कि वह वहां कैसे पहुंचा? उसने कहा, “मेरे पिता भारतीय सेना के साथ काम करते थे और मैंने उनके पदचिन्हों का अनुसरण किया. हमने उनका नमक खाया है. सेना को धन्यवाद कि मैंने जीवन में कुछ बहुत अच्छे समय बिताए.” उसने मुझे इस तरह बताया जैसे वह प्रशंसा की आशा रखता हो. जब मैंने पूछा कि क्या वह इख्वान का हिस्सा था, वह मुस्कुराया और कहा, “कुछ ऐसा ही”. फिर मैंने पूछा कि क्या वह बीजेपी का सदस्य है तो उसने मुस्कुराते हुए कहा, “हम उनसे प्रत्यक्ष रूप से जुड़े होने का दावा नहीं करते. अधिकारिक रूप से हम पंचायत कांफ्रेंस से जुड़े हैं.”
वह ऑल जम्मू एंड कश्मीर पंचायत कांफ्रेंस की ओर संकेत कर रहा था. पंचायत चुनाव राज्य में दिसम्बर 2018 में हुए थे. पीडीपी और एनसी ने चुनावों का बहिष्कार किया था. चुनाव जीतने के बाद से भट श्रीनगर के होटल में रह रहा है क्योंकि उसका अपने गांव में रहना खतरनाक है. उग्रवादियों ने उसे गंभीर परिणाम की धमकी दी थी. उसने कहा, “अब अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद यह और भी मुश्किल हो गया है.” उसने राजनाथ सिंह और वीके सिंह से अपनी पहचान की शान दिखाने की कोशिश की. उसने मुझे बताया, “वीके सिंह का अब भी पुलवामा के लोगों में अच्छा नेटवर्क है जो उन्होंने सेना के दिनों में तैयार किया था. हम में से कुछ लोग उनके चुनाव अभियान में गए थे.”
भट सरपंचों के उस प्रतिनिधिमंडल का भाग था, जो सितंबर के पहले सप्ताह में अमित शाह से मिलने दिल्ली आया था. सरकार ने इस मुलाकात का प्रदर्शन अपने उस बयान के समर्थन में किया कि अनुच्छेद 370 के खत्म किए जाने के समर्थक घाटी में हैं. एक सरपंच ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, “जब पंचायत चुनाव हुए तो हम बहुत खुश थे. अतिक्रमणकारी परिवारों का शिकंजा टूट गया था. लोकतंत्र जमीनी स्तर पर पहुंच रहा था. लेकिन अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद हम उन्हीं लोगों से छुप रहे हैं जिन्होंने हमें चुना था. एक झटके में हमें अवैध करार दे दिया गया. लोग हमें गद्दार कह रहे हैं. हमें मुफ्तियों और अब्दुल्लाहों की तरह दिल्ली की कठपुतली के रूप में देखा जा रहा है.” प्रधान मंत्री कार्यालय के लिए राज्य मंत्री और जम्मू से संसद सदस्य जीतेंद्र सिंह ने मीटिंग के बाद जोर देकर कहा था कि राजनीतिक वंशों के बिना जमीनी स्तर पर नया नेतृत्व उभर रहा है जो कश्मीर के लिए लाभदायक होगा.
पंचायत चुनाव अभियान के दौरान एजेकेपीसी के सदस्यों ने वंश राजनीति के लिए मुख्य धारा की पार्टियों की आलोचना की थी जो मोदी सरकार के लोकप्रिय प्रसंगों में से एक था. साथ ही एजेकेपीसी ने अपने आपको गैर राजनीतिक संगठन के तौर पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया, लेकिन यह व्यर्थ रहा. पार्टी अध्यक्ष शफीक मीर ने कहा, “मैं उग्रवादियों को भी बताना चाहता हूं कि हम किसी भी तरह राजनीतिक संरचना नहीं बस ग्रामीण विकास संस्था हैं.”
चुनावों के बाद विजयी सदस्यों की मोदी के साथ दिल्ली में एक मीटिंग हुई थी जिसमें डोभाल भी मौजूद थे. इस वर्ष जून में जम्मू और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन में विस्तार का विधेयक पटल पर रखते हुए अमित शाह ने कहा था कि सरकार ने पंचायतों के लिए 3700 करोड़ रुपए जारी किए थे. भट ने मुझे बताया कि उसे पहले 27 लाख रुपए और फिर दस लाख रुपए का अनुदान प्राप्त हुआ था. उसने मुझे बताया, “कश्मीर में पंचायतें इतनी महत्वपूर्ण पहले कभी नहीं थीं.”
घाटी में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया कि पंचायतों का सशक्तिकरण कश्मीर के लिए मोदी सरकार की योजना का एक भाग था. उन्होंने कहा कि भविष्य में विधायक और सांसद अप्रासंगिक हो जाएंगे क्योंकि केंद्र पंचायत के नेताओं से प्रत्यक्ष सम्पर्क रखेगी. ऐसा लगता है कि इनमें से कुछ सदस्यों को महत्वपूर्ण भूमिकाओं के लिए तैयार किया जा रहा है.
एक नाम कांग्रेस की छात्र इकाई ‘नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया’ के पूर्व अध्यक्ष मीर जुनैद का चल रहा है. जुनैद कुपवाड़ा जिले में लंगाटे से सरपंच है. अफवाह थी कि उसे श्रीनगर में चश्मे शाही गार्डन के निकट उच्च कोटि का एक निवास आवंटित किया गया था लेकिन मैं इसकी पुष्टि करने में असमर्थ रहा. जुनैद घाटी में सरकार के कदमों का बचाव करने के लिए लगातार टेलीवीजन चैनलों पर दिखाई दे रहा है और अक्सर केंद्रीय सचिवालय के उत्तरी भाग में देखा जाता है. इससे पहले उसे विश्वविद्यालय कैंटीन में दिसम्बर 2013 में एक वेटर पर शारीरिक हमला करने के लिए जाना जाता था.
सरकार ने 9 सितम्बर को जम्मू एंड कश्मीर पोलिटिकल मूवमेंट (इंडिया) नाम के एक छोटे से अज्ञात राजनीतिक संगठन बल्कि अवास्तविक नाम वाले संगठन को श्रीनगर में मीडिया सेंटर पर प्रेस कांफ्रेंस करने की अनुमति दी. इस सेंटर की स्थापना संचार प्रतिबंध के मद्देनजर कथित रूप से पत्रकारों को इंटरनेट तक पहुंच प्रदान करने के लिए सरकार ने की थी. पार्टी प्रमुख शाहिद खान ने स्वंय के पत्रकार होने का दावा किया. उन्होंने अनुच्छेद 370 के बारे में इसके अलावा कुछ नहीं कहा कि वह “370 पश्चात के समाधान” पर विचार करना चाहते थे. उन्होंने कहा कि मुख्यधारा के नेता “हर उस समस्या के लिए जिम्मेदार हैं जिसका सामना आज जम्मू और कश्मीर कर रहा है.” पार्टी द्वारा जारी बयान में आग्रह किया गया है कि केंद्र “को चाहिए कि अन्य राज्यों की तरह जमीन के मामले में गारंटी दे और जनता में सामाजिक सुरक्षा बहाल करे. जम्मू और कश्मीर के कोमल वातावरण में कोई खतरनाक उद्योग नहीं लगाया जाना चाहिए.” एक पूर्व इख्वानी और कांग्रेस नेता मुश्ताक अहमद तांत्रे भी टीम का हिस्सा थे. यह साफ संकेत है कि केंद्र सरकार इस संगठन को बढ़ावा दे रही है.
मोदी ने कश्मीर से दो हजार किलोमीटर दूर घाटी पर अपने दृष्टिकोण के बारे में भाषण दिया. 9 सितंबर को नासिक की एक रैली में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने मराठा श्रोताओं से पूछा कि क्या वे कश्मीर पर उनके निर्णय से खुश हैं. भीड़ ने कमजोर लेकिन सकारात्मक प्रतिक्रिया दी. मोदी ने कहा, “पहले हिन्दुस्तानी कहते थे ‘कश्मीर हमारा है’. अब हिन्दुस्तानी कहेंगे, ‘नया कश्मीर बनाना है.’”
इन बातों के बावजूद, पुरानी व्यवस्था की सबसे बुरी स्थिति को सक्रिय समर्थन जारी है. नए कश्मीर में राजनेताओं और प्रशासकों के लिए आवश्यक प्रमाण इस अंध इच्छा के अलावा कुछ नहीं प्रतीत होता कि केंद्र की मंशा का अनुसरण किया जाए. भारतीय राज्य के लिए, जब तक वे उनके आदेशों का पालन करते हैं, जनता की नजर में उनकी विश्वसनीयता का कोई महत्व नहीं है. यह नहीं बदला है.
खान बंधु – कश्मीर के मंडलायुक्त बशीर अहमद खान और अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुनीर अहमद खान दिल्ली के वफादार आंख और कान की तरह काम करते हुए घाटी में एक नाटक चला रहे हैं. सरकारी सेवा का उनका तरीका भाई-भतीजावाद से पहचाना जाता है. उनके पिता नजीर अहमद खान 1977 और 1982 के बीच कश्मीर लोक सेवा आयोग के चेयरमैन थे. उनके कार्यकाल के अंतिम समय में दोनों भाइयों को नियुक्ति के लिए चुना गया. जिनके नाम हटाए गए थे उन्होंने यह आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि आयोग में हेर-फेर करके अयोग्य अभ्यर्थियों को भर्ती किया गया है. लेकिन अदालत इस आरोप की पुष्टि नहीं कर पाई क्योंकि राज्य सेवा आयोग ने कहा कि संबंधित दस्तावेज अचानक लगी आग में नष्ट हो गए. विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए और अदालत में मुकदमा दो साल तक घिसटता रहा और अंत में बंद कर दिया गया. खान बंधु राजकीय सेवा में शामिल हो गए. बशीर और मुनीर को केंद्रीय सेवा आयोग में– भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में क्रमशः 2001 और 2011 में नियुक्त किया गया.
2013 में बशीर को, जो उस समय तक कई स्थानों पर बतौर जिला कमिश्नर सेवाएं दे चुके थे, कई व्यापारियों को अवैध भूमि हस्तानांतरण के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था. उन्हें जमानत पर रिहा किया गया. हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद न दिया जाए और उन्हें श्रीनगर के जिलाधिकारी के पद से हटा दिया गया. हालांकि मुकदमा अब भी लंबित है लेकिन 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने बशीर को अति सशक्त मंडलायुक्त पद दे दिया.
इसी दौरान, 1990 के दशक के उग्रवाद विरोधी ऑपरेशन में अपनी अतियों के लिए कुख्यात हो चुके मुनीर खान शीर्ष स्तर के पुलिस अफसर बन चुके थे. अपने भाई के केस को प्रभावित करने के लिए उनके पास पर्याप्त शक्ति इकट्ठा हो चुकी थी. इसी वर्ष जुलाई में सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुनीर की पत्नी पर श्रीनगर के पॉश गुपकार क्षेत्र में विस्थापित भूमि हड़पने का आरोप लगाया लेकिन बाद में अपना दावा वापस ले लिया. आम धारणा यह है कि ऐसा प्रशासन के दबाव में किया गया. खान बंधु इस साल रिटायर होने वाले थे. लेकिन जुलाई में कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग जिसने राज्य सतर्कता विभाग को भूमि हस्तानांतरण घोटाले में उनके खिलाफ अभियोग चलाने की अनुमति दी थी उसी ने बशीर को “जनहित में” एक साल का सेवा विस्तार भी दे दिया. मुनीर को भी सेवा विस्तार मिल गया. एक समाचार पत्र की सुर्खी में कहा गया, “भूमि घोटाले के आरोपी जम्मू और कश्मीर के नौकरशाह को मिला 1 साल का सेवा विस्तार.”
महबूबा मुफ्ती के पूर्व पति जावेद इकबाल शाह नरेंद्र मोदी के प्रशंसक हैं लेकिन अनुच्छेद 370 के अंतर्गत मिले विशेष दर्जे को खत्म किए जाने का समर्थन नहीं करते. जिस तरह के लोगों को केंद्र ने कश्मीर का प्रशासन चलाने के लिए चुना है वह उसकी निंदा करते रहे हैं. उन्होंने कहा, “पूरे देश में मुझे एक आईएएस अधिकारी दिखा दीजिए जिसके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल हो और जेल गया हो और उसे मुकदमा चालू रहते सेवा विस्तार दिया गया हो. आदेश कहता है कि विस्तार उसे राष्ट्रहित में मिल रहा है. क्या हम उसकी निरपराधता स्वीकार कर रहे हैं जबकि उसका भाई मुकदमे को कमजोर कर रहा है?” मुनीर के बारे में उन्होंने कहा, “हां, उन्होंने उग्रवाद विरोधी ऑपरेशन चलाया. लेकिन हर एक सही एनकाउंटर या ऑपरेशन के लिए, जो कुख्यात स्पेशल टास्क फोर्स ने चलाए, दस जबरन वसूली की गई. जबरन वसूली, अपहरण और यातना उनका एजेंडा था; गुप्त निधि बेईमानी से निकाली गई. बेगुनाह लोगों को गलत तरीके से पकड़ा गया और जबरन वसूली के बाद छोड़ दिया गया.”
उन्होंने पूर्व पुलिस अधिकारी फारूक खान के मामले का भी उल्लेख किया जो 2014 में बीजेपी में शामिल हुए और उन्हें लक्षद्वीप का राज्यपाल नियुक्त किया गया था. फारूक वर्तमान में जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल के सलाहकार हैं और राज्य के आधिकरिक रूप से केंद्र शासित प्रदेश होने की अधिसूचना जारी होने के बाद उनके लेफ्टीनेंट गवर्नर बनने की गुप्त सूचना है. उन्हें 2000 में पथरीबल फर्जी मुठभेड़ के संदेह में दो साल के लिए निलंबित कर दिया गया था. जहां छत्तीसिंघपोरा हत्याकांड को, जिसमें 36 सिखों हत्या की गई थी, ढकने के लिए भारतीय बलों ने पांच गूजरों की हत्या कर दी थी.
फारूक को बाद में सभी आरोपों से मुक्त कर बहाल कर दिया गया लेकिन बहुत से लोगों को विश्वास है कि वह गुनहगार थे. इकबाल शाह ने कहा, “राज्य की यह धारणा गलत है कि कश्मीरियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. यह चुनिंदा लोग जो करेंगे वह पारित हो जाएगा क्योंकि वे वफादार हैं. नियम, कानून, निष्ठा इन पर कुछ लागू नहीं होता. काले चेहरे और गंदे हाथ भारतीय राज्य की मदद नहीं कर सकते.” इन लोगों को सशक्त बनाकर “हम गलत मिसाल कायम कर रहे हैं और जनता को गलत संकेत दे रहे हैं.” उन्होंने मुझसे कहा, “जब आप नए कश्मीर का निर्माण कर रहे हैं तो सर्जरी कीजिए, इन सभी दागियों को हटाइए ... हम उन्हें अपना आदर्श नहीं बना सकते.” उन्होंने मूल्यांकन का प्रस्ताव किया, “आप जानते हैं कश्मीर की क्या बीमारी है? आपके पास कश्मीर के लिए कोई मापदंड नहीं है. राष्ट्रवादी के भेष में आप गलत तरह के लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं. राष्ट्रवाद का चोला पहने वे केवल भाड़े के सैनिक हैं. कश्मीरी जनता से शत्रुता रखने वाला कोई भी दिल्ली का समर्थक हो जाता है.”
कहा जाता है कि सभी निर्णय डोभाल ले रहे हैं क्योंकि वह अभी कश्मीर का प्रबंधन देख रहे हैं. उन्होंने 2010 में हैदराबाद में एक व्याख्यान दिया था, उन्होंने कश्मीर में भारतीय राज्य के दृष्टिकोण में गलती के बारे में बात की थी. उन्होंने कहा, “अनुच्छेद 370 एक मानसिकता की पैदावार है, तुष्टिकरण की मानसिकता. उनके लिए 370 क्यों, जबकि भारत में शामिल होने वाले 550 राज्यों के लिए नहीं? भारत के लिए एक संविधान और कश्मीर के लिए अलग संविधान क्यों?” उन्होंने कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों और नेताओं की आलोचना कहते हुए कहा था, “वे आपको कोई सुविधा नहीं प्रदान करने जा रहे हैं.” उन्होंने कहा कि जब कश्मीर में “नागरिक अवज्ञा” चल रही थी तो राजनीतिक पार्टियों में से कोई भी “लाल चौक पर नहीं आया और कहा, ‘हम भारत का अभिन्न अंग हैं और हम इसके जवाब में जुलूस निकालने जा रहे हैं.’”
डोभाल ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “जो राजनीतिक दल सत्ता का आनंद ले रहे हैं उनका जनाधार कहां है? उनके कैडर कहां हैं? ... स्वायत्ता से वे क्या चाहते हैं? उन लोगों का सशक्तीकरण जो सत्ता का सुख भोग रहे हैं. ‘हमें सुप्रीम कोर्ट से आजादी चाहिए ताकि अगर हम लूट-खसोट करें तो हमसे कोई पूछ न सके ... हमें पैसे दीजिए और उसके बारे में भूल जाइए, हमसे पूछिए मत.’”
इसी तरह के विचारों को अब दक्षिणपंथी विचारकों द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है. सत्ता प्रतिष्ठान के निकट मानी जाने वाली ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के फेलो अशोक मलिक ने हाल ही में लिखा कि अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने के पीछे सुरक्षा की मानसिकता के अलावा “एक अन्य प्रेरणा, घाटी में राजनीतिक प्रक्रिया को अधिक नियमित करना और राजनीतिक गतिशीलता को बढ़ावा देना है.” जुलाई तक मलिक, राष्ट्रपति के प्रेस सचिव थे. “पहले इसे प्रोत्साहित नहीं किया गया बल्कि वास्तव में पारम्परिक राजनीतिक नेतृत्व द्वारा अवरूद्ध किया गया. वस्तुतः इस नेतृत्व ने भारत राज्य और अलगाववादियों के बीच धूर्त और अस्थिर पुल के बतौर अपने आपको प्रस्तुत करके लाभ उठाया.” यह दृष्टिकोण घाटी में मुख्यधारा की राजनीति की सीमाओं को नजरअंदाज करता है. किसी भी राजनीति का समर्थन करने वाला कश्मीरी इससे सहमत है कि यह राजनेता बड़े पैमाने पर भारत की बातों का ही समर्थन करतें हैं.
ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी सरकार इस वर्ग के राजनेताओं को अधिक उग्र रूप वाले भारत समर्थक राजनेताओं से बदलना चाहती है. राजनीतिक समाधान के बजाए डोभाल का पुलिसिया समाधान कश्मीर में भारतीय राज्य की विरासत के सबसे बुरे दौर को वापस ला रहा है. ऐसा करते हुए मोदी सरकार ने उसी 1990 के दशक की संभावित वापसी के लिए जमीन तैयार कर दी है जब उग्रवाद अपने चरम पर था.