6 दिसंबर को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नागालैंड के मोन जिले में भारतीय सेना द्वारा हाल ही में 13 नागरिकों पर घात लगाकर किए गए हमले को संसद के पटल पर “गलत पहचान” का मामला बताया. शाह ने कहा कि उन्हें हुई मौतों का खेद है और यह निर्णय लिया गया है कि “सभी एजेंसियां यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विद्रोहियों के खिलाफ अभियान चलाते समय भविष्य में ऐसी कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना की पुनरावृत्ति न हो.” शाह ने संसद को बताया कि राज्य ने एक विशेष जांच दल का गठन किया है जो एक महीने के भीतर अपनी जांच पूरी कर लेगा. उन्होंने कहा कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के उत्तर पूर्व डिवीजन के एक अतिरिक्त सचिव को भी राज्य में “स्थिति की समीक्षा करने” के लिए भेजा गया है.
लेकिन नगा शांति प्रक्रिया पर हस्ताक्षर करने वाले कई लोगों का कहना है कि उन्हें एसआईटी के कामकाज पर भरोसा नहीं है. ऐसा इस वजह से भी है कि एसआईटी के पास सीमित शक्तियां हैं और अर्धसैनिक बलों पर मुकदमा चलाना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है. इसके अलावा इन हत्याओं ने सरकार की मंशा पर शक पैदा किया है. यह ऐसे समय में हुई है जब नागा सशस्त्र और राजनीतिक संगठन भारत सरकार से लंबे समय से चले आ रहे भारत-नागा संघर्ष के स्थायी समाधान की उम्मीद कर रहे थे. शांति प्रक्रिया में कई हितधारकों ने कहा कि उन्होंने महसूस किया कि नरसंहार के लिए केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया अंतिम समझौते तक पहुंचने के लिए समय निकालने का एक कमजोर प्रयास है. इसके अलावा, हितधारकों के अनुसार, हत्याओं ने उन समझौतों का भी उल्लंघन किया जो उनके और सरकार के बीच पहले ही हो चुके थे. नागरिकों की हत्या की रोशनी में दो विद्रोही गुटों के आधिकारिक बयान- जिनके साथ केंद्र सरकार ने वार्ता की शर्तों पर क्रमशः 2015 और 2017 में अलग-अलग लिखित समझौतों पर हस्ताक्षर किए- ने संकेत दिया है कि राज्य में सैन्य अभियानों ने चल रही शांति प्रक्रिया में सरकार को कमजोर किया है. मैंने जिन सशस्त्र नागा संगठनों, छात्र यूनियनों, शिक्षाविदों और मानवाधिकार संगठन से बात की, वे सभी सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम, 1958 को वापस लेने की मांग पर एकमत थे. आफस्पा भारतीय सेना को केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित "अशांत क्षेत्रों" में बल प्रयोग करने के लिए असाधारण शक्तियां - यहां तक हत्या करने तक की— देने के साथ मामलों में कानून दर्ज होने से भी बचाता है.
पूर्व भारतीय वार्ताकार आरएन रवि ने फरवरी में राज्य विधानसभा को सूचित किया था कि विद्रोही समूहों के साथ राजनीतिक वार्ता समाप्त हो गई है और केवल अंतिम समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने हैं. शांति प्रक्रिया पर हस्ताक्षर करने वालों में से एक ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया कि शांति वार्ता में वर्तमान सरकार के वार्ताकार एके शर्मा विभिन्न विद्रोही समूहों के बीच एक समझौता करने में सक्षम थे और उन्होंने हाल ही में समाधान के एक "कॉमन ड्राफ्ट" पर काम किया था. शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों ने मुझे बताया कि इस पृष्ठभूमि में स्थानीय भावनाएं इस घटना पर सरकार की पैंतरेबाजी को भाव नहीं देंगी और लोग स्थायी शांति समझौते से कम कुछ नहीं चाहेंगे.
राज्य के पुलिस महानिदेशक टी. जॉन लोंगकुमेर और नागालैंड सरकार के एक आयुक्त रोविलातुओ मोर ने 5 दिसंबर को घटना स्थल का दौरा किया. घटना पर अपनी रिपोर्ट में, जिसकी एक प्रति कारवां के पास है , उन्होंने लिखा, "4 दिसंबर की शाम को लगभग 16:10 बजे जब 8 ग्रामीण तिरु में कोयला खदान से एक पिकअप ट्रक में घर लौट रहे थे, उन पर सुरक्षा बलों (कथित तौर पर, असम में स्थित 21 पैरा स्पेशल फोर्स) द्वारा अंधाधुंध ढंग से घात लगाकर हमला किया गया और उन्हें मार डाला गया, जाहिर तौर पर बिना किसी पहचान के प्रयास के. वे सभी निहत्थे नागरिक थे जो तिरु घाटी में कोयला खदानों में काम कर रहे थे और उनके पास कोई हथियार नहीं था.” रिपोर्ट में उल्लेख है कि मोन जिले के तिरु घाटी के ओटिंग गांव में छह नागा नागरिकों की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि दो गंभीर रूप से घायल हो गए और उन्हें असम के डिब्रूगढ़ मेडिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया.
लोंगकुमेर और मोर ने आगे लिखा, "गोलीबारी की आवाज सुनकर ग्रामीण इस आशंका के साथ मौके पर आ गए कि लोग काम से घर नहीं लौटे हैं. मौके पर पहुंचने पर उन्होंने पिकअप ट्रक और विशेष टास्क फोर्स के जवानों को छह ग्रामीणों के शवों को लपेटकर दूसरे पिकअप ट्रक (टाटा मोबाइल) में लोड करके छिपाने की कोशिश करते हुए पाया. जाहिर तौर पर इस इरादे से कि शवों को बेस कैंप ले जाया जाएगा. टाटा मोबाइल में तिरपाल के नीचे शव पाए जाने पर ग्रामीणों और सुरक्षाकर्मियों के बीच हिंसक झड़प हो गई. इससे आक्रोशित ग्रामीणों ने विशेष बल के जवानों के तीन वाहनों को जला दिया. हाथापाई में सुरक्षाकर्मियों ने फिर से ग्रामीणों पर गोलियां चला दीं, जिसमें सात और ग्रामीणों और प्रत्यक्षदर्शियों की मौत हो गई.
रिपोर्ट में चश्मदीदों के बयानों का भी उल्लेख किया गया है : "चश्मदीदों ने पुष्टि की है कि जवानों ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं और घटनास्थल से असम की ओर भाग गए. यहां तक कि रास्ते में पड़ने वालीं कोयला खदानों पर भी गोलीबारी की." अगले दिन जब "लगभग 600-700 लोगों ने लाठी, पाइप, ज्वलनशील तरल पदार्थ और छुरे से लैस होकर" शहर की पुलिस चौकी को घेर लिया तो 27वीं असम राइफल्स ने मोन टाउन में एक प्रदर्शनकारी को मार गिराया. इस घटना में छह अन्य प्रदर्शनकारियों को गोली लगी.
5 दिसंबर को पास के तिजिट पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी, यूबी पोसेहु केजो ने 21 विशेष अर्ध सैनिक बलों के खिलाफ पहली सूचना रिपोर्ट दर्ज की, जिसकी एक प्रति कारवां के पास है. “यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि घटना के समय कोई पुलिस गाइड नहीं था और न ही सुरक्षा बलों ने अपने ऑपरेशन के लिए पुलिस गाइड प्रदान करने के लिए पुलिस स्टेशन से कोई अनुरोध किया था. इसलिए यह स्पष्ट है कि सुरक्षा बलों की मंशा नागरिकों की हत्या करना और उन्हें घायल करना है,” एफआईआर में उल्लेख किया गया है. पुलिस ने जवानों पर भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं के तहत हत्या, हत्या के प्रयास और इसी इरादे के तहत मामला दर्ज किय है.
नागा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप्स की कार्यकारी समिति के अध्यक्ष एन कितोवी झिमोमी ने 5 दिसंबर को मुझे बताया कि सैन्य अभियान ने दिखा दिया है कि सरकार और शांति वार्ता के हस्ताक्षरकर्ताओं के बीच “विश्वास की कमी” है. एनएनपीजी छह सशस्त्र नागा राष्ट्रवादी संगठनों का एक छाता संगठन है. इनमें से अधिकांश ग्रुप या तो नागालैंड नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल या नगा नेशनल काउंसिल से अलग होकर बने हैं. दोनों ने ही क्रमश: 1980 और 1940 से क्षेत्र में सक्रिय हैं.
एनएनपीजी ने नवंबर 2017 में सरकार के साथ बातचीत की और एक लिखित समझौते पर हस्ताक्षर किए. जिसे सहमति की स्थिति के रूप में जाना जाता है. "एक तरफ वे हमारे साथ बातचीत कर रहे हैं, दूसरी तरफ उन्होंने सेना को खुली छूट दे रखी है," झिमोमी ने मुझे बताया. झिमोमी ने कहा कि केवल सुरक्षा बलों की निंदा से यह सुनिश्चित नहीं होगा कि ऐसी घटना दोबारा नहीं होंगी क्योंकि "उन्हें मारने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है." उनका मानना है कि केंद्र सरकार स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल करने के लिए आफस्पा को हटाए. शांति वार्ता में भाग लेने वाले विभिन्न सशस्त्र समूहों का उल्लेख करते हुए झिमोमी ने कहा, "चूंकि सभी समूह युद्धविराम में हैं और हम एक समाधान का इंतजार कर रहे हैं, भारत सरकार सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को लागू करना क्यों जारी रखे हुए है? जब तक नागालैंड से विशेष बल अधिनियम को निरस्त नहीं किया जाता है, तब तक ये चीजें जारी रहेंगी, फिर से होंगी, समाधान के बाद भी.”
सहमति की स्थिति पर हस्ताक्षर करने के बाद एनएनपीजी की कार्य समिति ने नवंबर 2019 में सरकार के साथ बातचीत की अपनी शर्तों को भी जारी किया था. इसमें उल्लेख किया गया है, “समझौते पर हस्ताक्षर करने पर तुरंत विश्वास निर्माण उपायों के एक हिस्से के रूप में आफस्पा जैसे सभी काले कानून वापस लिए जाएंगे, आबादी वाले इलाकों से सेना और अर्धसैनिक बलों की सभी चौकियां, बैरक और इकाइयां हटा ली जाएंगी, उन्हें एक निश्चित अवधि के भीतर छावनियों में स्थानांतरित कर दिया जाएगा. अंतरराष्ट्रीय सीमा चौकियों की आपूर्ति और कमांड क्षेत्रों को बाधित नहीं किया जाएगा. अगस्त में जब मैं एक साक्षात्कार के लिए व्यक्तिगत रूप से झिमोमी से मिला था, तो उन्होंने मुझे बताया था कि सरकार ने नवंबर 2019 में सार्वजनिक किए गए दस्तावेज में उल्लिखित सभी शर्तों के लिए "सहमत" थी. उन्होंने यह भी कहा था कि वह इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि सरकार अंतिम राजनीतिक समाधान पर मुहर लगाएगी.
हालांकि, राजनीतिक समाधान में देरी हुई क्योंकि भारत सरकार ने अगस्त 2015 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के इसाक मुइवा गुट एनएससीएन (आईएम) के साथ एक अलग समझौते पर हस्ताक्षर किए. एनएससीएन (आईएम) ने पूर्व वार्ताकार रवि की राज्य के राज्यपाल के रूप में नियुक्ति पर आपत्ति जताई थी. एनएससीएन (आईएम) के एक वरिष्ठ नेता वी.एस. अतेम ने अगस्त में मुझे बताया था कि राज्य में राज्यपाल के रूप में रवि की नियुक्ति ने राजनीतिक बातचीत को “कानून और व्यवस्था की समस्या” में बदल दिया. इस साल सितंबर में रवि ने वार्ताकार के रूप में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और उन्हें तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया गया. इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व विशेष निदेशक एके मिश्रा ने नए वार्ताकार के रूप में पदभार संभाला. अतेम ने मुझे बताया कि मिश्रा पहले बातचीत के दौरान रवि के साथ थे इसलिए वह पहले से ही नागालैंड के इतिहास और स्थिति से परिचित थे. हालांकि नागालैंड में रवि की भूमिका पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है क्योंकि उन्हें मोन हत्याओं के दिन दिल्ली में एक आपातकालीन बैठक के लिए भी बुलाया गया था.
झिमोमी ने कहा कि अगर सरकार राजनीतिक समाधान के लिए "अपनी प्रतिबद्धता के प्रति ईमानदार" है तो उसे "नागालैंड में सैन्य अभियान" जारी नहीं रखना चाहिए. एनएनपीजी द्वारा 5 दिसंबर को जारी एक आधिकारिक बयान में कहा गया है, "नागा मातृभूमि में विनाशकारी भारतीय सैन्य रणनीति और कार्यों ने भारतीय प्रधान मंत्री और गृह मंत्री की राजनीतिक प्रतिबद्धता को कम कर दिया है." इसने एक बार फिर मांग की कि सरकार जल्द से जल्द एक स्थायी समझौते पर हस्ताक्षर करे. एनएनपीजी ने कहा, "भारत सरकार को भारत-नागा संघर्ष के सम्मानजनक और स्वीकार्य राजनीतिक समाधान की घोषणा करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नागा मातृभूमि में सभी कठोर कानूनों को निरस्त किया जाए और समाप्त किया जाए."
एनएनपीजी के साथ भारत सरकार की बातचीत में बड़े पैमाने पर ग्राम प्रधानों के एक संघ, नागालैंड गांव बुरा फेडरेशन— एनजीबीएफ ने मध्यस्थता की थी, जिसने एनएनपीजी बनाने वाले छह समूहों के बीच संघर्ष विराम को सुविधाजनक बनाने में भी मदद की थी. एनजीबीएफ के महासचिव शिकुतो जालिपु ने मुझे बताया, “अगर यह विद्रोही होते, तो बात दूसरी होती. लेकिन नागरिकों के साथ संघर्ष बुरा है. मुझे लगता है कि भारत सरकार को स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए बलों को निलंबित करना चाहिए.” जलिपु का मानना था कि एक प्रारंभिक राजनीतिक समाधान सारी दुश्मनी को समाप्त कर सकता है. "लोग समाधान के लिए तरस रहे हैं," उन्होंने कहा.
इस मुद्दे पर टिप्पणी के लिए एनएससीएन (आईएम) के प्रेस सचिव उपलब्ध नहीं थे. इससे पहले जब मैं व्यक्तिगत रूप से अतेम से मिला, तो उन्होंने मुझे बताया कि सरकार राज्य की "आंतरिक सुरक्षा" नागा लोगों को सौंपने पर सहमत हो गई है. अतेम ने कहा था, "जहां तक रक्षा का सवाल है, आंतरिक सुरक्षा अंतरराष्ट्रीय सीमा की रक्षा को छोड़कर नागाओं के पास होगी, भारतीय सुरक्षा बल और नागा सुरक्षा बल संयुक्त रूप से इसकी रक्षा करेंगे." मोन में हुई हत्याओं पर एनएससीएन (आईएम) के आधिकारिक बयान में जारी राजनीतिक शांति प्रक्रिया को बिगाड़ने में सैन्य अभियानों को भी जिम्मेदार ठहराया गया है. इसमें उल्लेख किया गया है, “वर्तमान भारत-नागा राजनीतिक संवाद के बावजूद, जो दो दशकों से अधिक समय से चलते आने के दौरान बहुत फलीभूत हुआ है, नागाओं के खिलाफ हिंसा बेरोकटोक जारी है. 1997 में हस्ताक्षरित भारत-नागा युद्धविराम का यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा है.
शांति वार्ता के हस्ताक्षरकर्ताओं के विपरीत नागरिक समाज संगठन सरकार की आलोचना करने में कठोर थे. मानवाधिकार संगठन नागा पीपुल्स मूवमेंट फॉर ह्यूमन राइट्स ने 5 दिसंबर को एक आधिकारिक बयान जारी किया. बयान में कहा गया है, "हम भारत सरकार को उसके सभी दानवी और फासीवादी कानूनों के साथ ओटिंग के निर्दोष ग्रामीणों छलनी कर अराजकता और तबाही के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं." 1998 में एनडीएमएचआर ने आफ्स्पा की संवैधानिकता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी. अदालत ने आफ्स्पा को बरकरार रखा था लेकिन कहा था कि किसी क्षेत्र को 'अशांत' घोषित करने का अधिकार 'मनमाना' नहीं हो सकता.
5 दिसंबर को भारतीय सेना की तीसरी कोर ने कहा कि ऑपरेशन "विश्वसनीय खुफिया जानकारी" पर आधारित था. सेना ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में हत्या पर खेद व्यक्त किया और इसकी जांच के लिए एक "उच्च स्तरीय समिति" भी बनाई. इस पर टिप्पणी करते हुए राज्य के एक प्रभावशाली छात्र संघ, नागालैंड छात्र संघ, के महासचिव पिथुंगो शिटियो ने मुझे बताया, “यह भारतीय खुफिया प्रणाली की पूरी तरह से विफलता है. हम ईमानदारी से महसूस करते हैं कि भारत की खुफिया मूर्खताओं की कीमत नागाओं को न चुकानी पड़े.” शिटियो ने कहा, "ऐसा होने के बावजूद नागा लोग शांतिपूर्ण भविष्य की तलाश में हैं." कोहिमा में इतिहास और पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर एन वेणु ने स्थिति की तुलना 1954 से की जब भारत सरकार ने नागा राष्ट्रीय परिषद द्वारा स्थापित समानांतर सरकार को हटाने के लिए सेना भेजी थी. वेणु ने मुझे बताया, "निर्दोष ग्रामीणों को विद्रोही बताया जा रहा है. जैसे वे उन्हें मारना ही चाहते हैं. यह 1954 की तरह है."
मैं अगस्त में कोहिमा में एनपीएमएचआर के महासचिव निंगुलो क्रोम से मिला. यह पूछे जाने पर कि क्या राजनीतिक स्वायत्तता प्राप्त करने वाला राज्य मानवाधिकारों के उल्लंघन को समाप्त कर देगा, क्रोम ने कहा, "अभी हम जिंदगी और मौत को लेकर बात कर रहे हैं," क्योंकि यहां "सैना का कब्जा है." उन्होंने आगे कहा, "हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि लोगों के मानवाधिकारों को सरकार और भाड़े के सैनिकों के हमले से कैसे बचाया जाए." क्रोम ने कहा कि मानवाधिकारों के लिए लड़ने का उनका काम भारत-नागा संघर्ष के राजनीतिक समाधान के साथ नहीं रुकेगा. उन्होंने कहा कि यह तो सिर्फ शुरुआत है. “अगर आजादी दी जाती है, तो हमें नागाओं के भीतर ही मानवाधिकारों पर ध्यान देना होगा. हम एक वर्गविहीन समाज हैं लेकिन फिर भी नागाओं में बहुत अधिक भेदभाव, बहुत सारी असमानताएं हैं." नागालैंड के भीतर भी, पूर्व में म्यांमार की सीमा से लगे चार जिलों में, इस क्षेत्र के पिछड़ेपन के आधार पर एक अलग राज्य की राजनीतिक मांग की गई है. पूर्वी क्षेत्र के लोग भी राज्य में नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. क्रोम ने मुझे बताया कि "असमानता के मामले में" मानवाधिकारों की लड़ाई केवल "राजनीतिक स्वतंत्रता" के बाद ही लड़ी जा सकती है.
7 दिसंबर को राज्य के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने ट्वीट किया, “नागालैंड और नागा लोगों ने हमेशा #AFSPA का विरोध किया है. इसे निरस्त किया जाना चाहिए." राज्य के विधायक आफस्पा के मुद्दे पर एकजुट हो गए हैं और साथ ही भारत-नागा संघर्ष के लिए स्थायी शांति समझौते की मांग कर रहे हैं. राज्य विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान विधायकों ने केंद्र सरकार को यह दिखाने के लिए कि वे राजनीतिक समाधान की मांग पर एकजुट हैं, विपक्ष रहित सरकार बनाने का प्रस्ताव पटल पर रखा. हालांकि, ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार ने आफस्पा को निरस्त करने पर कोई प्रगति नहीं की है और साथ ही जल्द ही अंतिम शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने पर कोई संकेत नहीं दिखाया है. झिमोमी ने कहा, "संघर्षविराम और बैठकर बातचीत करने और फिर सेना तैनात करने का कोई मतलब नहीं है."