जनवरी 2020 में मैं श्रीनगर में इरफान अहमद खान के घर गया था. खान 1994 में जब अभी स्कूली छात्र ही थे, गुमशुदा हो गए थे. उनके परिवार को शक था कि उन्हें सेना ने उठा लिया है. जब उनका परिवार उनके बारे में कहानियां सुना रहा था, मैं उनकी तस्वीरों के एक एल्बम को पलट रहा था. मैंने एक ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर देखी जिसमें खान अभी बच्चे ही थे और फिर उसके बड़े होने की कुछ और तस्वीरें देखीं. उनकी आखिरी तस्वीर उनके चौदहवें जन्मदिन पर ली गई थी जिस साल वह गायब हुए थे. और ठीक इसी पल जब खान गायब हो गए पारिवारिक एल्बम से उनके सबूत भी गायब हो गए.
खान के परिवार के साथ मेरी मुलाकात उस परियोजना का हिस्सा थी जिस पर मैं कश्मीर में लापता व्यक्तियों के अभिभावकों की की यूनियन (एपीडीपी) के साथ काम कर रहा था. एपीडीपी दशकों से घाटी में फैली जबरन गुमशुदगी के खिलाफ एक आंदोलन है. जबरन गुमशुदगी तब होती है जब किसी शख्स को हिरासत में लिया जाता है या अपहरण कर लिया जाता है और बाद में उसके ठिकाने या तकदीर के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती है. एसोसिएशन का अनुमान है कि कश्मीर में बगावत की शुरुआत के बाद से 8000 से 10000 लोग गायब हुए हैं. एपीडीपी गुमशुदियों का दस्तावेजीकर करती है और गायब होने वाले के परिवारों को मदद मुहैया कराती है. बतौर फोटोग्राफर मैंने एपीडीपी के साथ गुमशुदा लोगों के परिवारों से विजुअल सबूत इकट्ठा करके उनकी यादों को संजोने का काम किया. जबरन गुमशुदगी का शिकार जितने लोगों से मैं मिला खान उनमें सबसे कम उम्र के थे.
मैंने 2017 में कश्मीर में गुमशुदगी का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया. तब तक राज्य के उत्पीड़न की मेरी समझ उपमहाद्वीप के दूसरी ओर यानी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम की कहानियों के जरिए से आई थी. वे श्री लंका के उत्तर और पूर्व में एक अलग तमिल मातृभूमि की लड़ाई लड़ रहे थे. मेरी परवरिश तमिलनाडु में हुई जहां मैंने तमिल ईलम आंदोलन को दबाने के लिए श्रीलंकाई राज्य द्वारा अपनाए गए तरीकों के बारे में सुना. 2009 में श्रीलंका में गृहयुद्ध की समाप्ति के दौरान और संघर्ष के बारे में अध्ययन के दौरान मैंने सीखा कि भारत की पुलिस और सेना भी यातनाएं देती हैं, खासकर कश्मीर में. मैं उत्तर-पूर्वी श्रीलंका और कश्मीर के बीच समानता से प्रभावित हुआ था. जब मुझे चेन्नई से बाहर पढ़ने का मौका मिला तो 2015 में मैंने जम्मू में पत्रकारिता का कोर्स चुना. उस समय मैंने कभी तमिलनाडु से बाहर कदम नहीं रखा था. जम्मू और कश्मीर राज्य मेरे लिए विदेशी इलाके जैसा था. अगले पांच सालों में गुमशुदा लोगों के परिवारों से मिलने और सामूहिक कब्रों पर जाने के बाद, मैं कश्मीर को दूसरे विवादित इलाकों की तरह प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में देखने लगा.
मेरी कई मुलाकातें हुईं जिन्होंने मेरी समझ को चुनौती दी है कि पूरी जिंदगी दबाव में जीने का क्या मतलब होता है. मैं एक बार एक शख्स के घर गया जिसे पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था. उनकी छोटी बहनों में से एक, जो तकरीबन बीस साल की थी, ने मुझे बताया कि आधी रात को उनके घर पर सेना की छापेमारी के दौरान क्या हुआ था. उसने मुझे बताया कि कैसे सेना ने उनके पिता को प्रताड़ित किया और घर में सभी को गालियां दीं. इन दर्दनाक वाकयों के जिक्र के दौरान, वह रोई या भावुक नहीं हुई. जैसे ही मैं जाने वाला था मैंने पूछा कि वह क्या पढ़ रही है. सवाल सुनते ही वह बेकाबू हो गई. उसने कहा कि वह कॉलेज नहीं जा सकती क्योंकि उसका भाई ही उसकी फीस देता था. वह अब जेल में है. यहां तक कि जब वह अपने अतीत को लेकर गंभीर बनी रही तो उसकी बाधित शिक्षा और अनिश्चित भविष्य ने उसे परेशान कर दिया.
कश्मीर में जारी संघर्ष के बावजूद घाटी के लगभग सभी बच्चों को स्कूल भेजा जाता है और कम से कम वे बुनियादी शिक्षा पाते हैं. मुझे याद है कि कश्मीर के गांवों में लोग कितने अच्छे जानकार थे, जब बडगाम में एक ऑटो चालक ने 2018 में तमिलनाडु के थूथुकुडी स्टरलाइट कॉपर प्लांट के विरोध में पुलिस द्वारा नागरिकों को गोली मारने की घटना का जिक्र किया था. मुख्य भूमि भारत में ऐसे कई लोग थे जो इस मुद्दे के बारे में कुछ नहीं जानते थे.
गुमशुदा परिवारों से मुलाकातों के अपने कई दौरों में मैं तस्वीरों के उनके इस्तेमाल, रखरखाव और प्रस्तुति से प्रभावित हुआ हूं. परिवार अक्सर गुमशुदा व्यक्तियों की पुरानी तस्वीरों को काट देते और उन्हें परिवार की ताजा तस्वीरों में जोड़ देते थे, मानो उन्हें जिंदा और मौजूं रखने के लिए ऐसा करते हों. एपीडीपी की संस्थापक परवीना अहंगेर अक्सर मुझसे कहतीं कि किसी व्यक्ति की तस्वीर को इस तरह आज की तस्वीर के साथ चिपकाना एक किस्म का प्रतिरोध था जो इस बात को नामंजूर करता है कि वह शख्स मर गया है. चूंकि मैं एक दलित परिवार से हूं इसलिए मैंने अपने रिश्तेदारों को मेरे चचेरे भाई की तस्वीरें संजोते हुए देखा था, जो एक जातिगत झगड़े में मारे गए थे. उन्होंने उनकी तस्वीरों का कोलाज बनाया और उन्हें श्रद्धांजलि दी. लेकिन कश्मीर में, मैंने कई पारिवारिक एल्बम देखे जिनमें पारिवारिक तस्वीरों के साथ प्रियजनों के शवों की तस्वीरें दिखाई दीं. मैंने एक बार मारे गए किसी व्यक्ति की मां से पूछा कि उन्होंने उसकी लाश का फोटो क्यों रखा है. उन्होंने मुझसे कहा कि उसके परिवार की आने वाली पीढ़ियों को पता होना चाहिए कि उसके साथ क्या हुआ और भारत ने कश्मीरियों के साथ क्या किया है.
कश्मीर में मैंने पारिवारिक तस्वीरों और फोरेंसिक दस्तावेजों के बीच की रेखाओं को धुंधला होते देखा. श्रीनगर के एक परिवार ने सबूत के तौर पर ली गई पहली पारिवारिक तस्वीर तत्कालीन राज्य मानवाधिकार आयोग को सौंपी. वे एक ऐसे व्यक्ति के उत्तराधिकारियों की संख्या को साबित करने की कोशिश कर रहे थे जिन्हें भारतीय सेना ने गायब कर दिया था, जिसके बाद उन्हें उनके कारण मुआवजा मिल सकता था. अहंगर, जिनका 16 साल का बेटा 1990 में लापता हो गया था, अपने बेटे के वजूद को साबित करने के लिए उसकी कई तस्वीरें रखतीं हैं. मैंने निजी तस्वीरों को इतना राजनीतिक कभी नहीं देखा था. यही पारिवारिक तस्वीरें एपीडीपी के संग्रह में सबूत बन गई हैं. निजी तस्वीरें जो कभी केवल पुरानी यादों के लिए ली गई थीं, अब एक कश्मीरी के वजूद का सबूत हैं.
1989 में सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत के बाद, दशकों से कश्मीर में जबरन गायब होनाख् हिरासत में रखना और हिरासत में यातना देना एक हकीकत रही है. एपीडीपी जो दस्तावेजीकरण करने की कोशिश कर रहा है उसके सबूत कभी.कभी बीस साल से ज्यादा पुराने हैं. मैं जिन तस्वीरों और विजुअल सबूतों को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहा हूं, वे भी दो या तीन दशक पुराने हो सकते हैं. कोई शख्स जितने लंबे समय से लापता था, उसके परिवार के दस्तावेजों की फाइलें उतनी ही बड़ी थीं. फाइलों में तस्वीरें, अदालती दस्तावेज, पुरानी कागजी कार्रवाई की कई प्रतियां, जो धुंधली होने लगी थीं, गायब होने के मामलों पर अखबार की कतरनें, डायरी की दाखिली, राज्य मानवाधिकार आयोग के आदेश और मानवाधिकार निकायों को मांग पत्र शामिल थे. परिवार अक्सर इस डर से कई प्रतियां बनाते थे कि सेना का कोई व्यक्ति दस्तावेजों के सेट को जब्त और नष्ट कर सकता है.
अगस्त 2019 की शुरुआत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की घोषणा की. कुछ दिनों बाद, मोदी ने एक नया कश्मीर के आगमन की घोषणा की, जो घाटी में आतंकवाद का अंत और न्याय की शुरुआत, कानून का शासन और आर्थिक समृद्धि को देखने वाला था. वादे इस तथ्य से मेल नहीं खाते थे कि कश्मीर की स्थिति में भारी बदलाव को गहन सैन्यीकरण के तहत एक कठोर तालाबंदी और कश्मीरियों के साथ बिना किसी भी रायशुमारी के लागू किया गया था.
गुमशुदा लोगों के परिवारों के लिए न्याय का मतलब होगा उनके प्रियजनों की तलाश करना या कम से कम उनके साथ जो हुआ उसके बारे में कुछ जवाब ढूंढना. इसके बजाय, एपीडीपी को अपने कुछ कामों में पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा. एसोशिएसन हर महीने की दस तारीख को शांतिपूर्ण, मौन धरना आयोजित करता है. गुमशुदा लोगों के परिवार, बीवियां और मांएं श्रीनगर के प्रताप पार्क में एक.दूसरे का समर्थन और प्रशंसा करने और किसी तरह अपने गुमशुदा परिजन को नजर में रखने के लिए इकट्ठा होते. कश्मीर में अधिकारियों ने अगस्त 2019 से एपीडीपी को धरना देने की इजाजत नहीं दी है. इस तरह के झटके के सामने, गुमशुदगी का दस्तावेजीकरण जारी रखना और भी ज्यादा जरूरी हो गया है. यहां तक कि जब मैंने अपना प्रोजेक्ट जारी रखा, तो मुझे पता था कि मुझे तस्वीरों के इस्तेमाल को लेकर बेहद मुस्तैद रहना होगा क्योंकि कई परिवारों को अपनी कहानियां सबके सामने बयां करने के लिए बदले का सामना करना पड़ा था.
हालांकि कई कश्मीरी परिवारों के रिकॉर्ड और यादों को जिंदा रखने के तरीके समान हैं, लेकिन अपने गुमशुदा परिजन के बारे में उनका नजरिया अलग-अलग है. कुछ लोग सोचते हैं कि जो लापता हैं वे कभी वापस नहीं आएंगे. दूसरों को उम्मीद है कि वे वापस आ सकते हैं. मैं एक ऐसे परिवार से मिला, जिसका बेटा चौदह साल पहले गायब हो गया था. वे किसी ऐसे व्यक्ति से मिले जिसे गिरफ्तार किया गया था और रिहा कर दिया गया था और जो जेल में अपने बेटे से मिला था. भले ही उन्हें अधिकारियों से और कोई जानकारी नहीं मिली, लेकिन जब उन्हें पता चला कि वह अभी तक जिंदा था, तो उनकी उम्मीद फिर से जगी थी. कई परिवारों के लिए, यह मान लेना कि उनके प्रियजन मर चुके हैं, निजी से ज्यादा राजनीतिक है . इसके मायने हैं उत्पीड़न को मंजूर कर लेना.
मेरी परियोजना कश्मीर में इन परिवारों की वास्तविकता को मुख्य भूमि भारत में उन लोगों तक पहुंचाना है, जिन्हें बमुश्किल पता है कि उनके नाम पर इस तरह की क्रूरताएं की जाती हैं. चेन्नई और हैदराबाद में कुछ प्रदर्शनियों के बाद, मुझे लगा कि मेरी तस्वीरें कश्मीर, कश्मीरियों और सेना की भूमिका के बारे में लंबे समय से पूर्वाग्रहों वाले लोगों के मन कुछ हलचल पैदा कर सकती हैं. एक प्रदर्शनी में, मैं एक जवान लड़की से मिला, जिसने हर फोटो कैप्शन को बारीकी से पढ़ा और मुझसे इस बारे में और भी सवाल पूछे. इससे मुझे उम्मीद नजर आई कि मेरा काम गहरे विचारों और सहानुभूति को जगा सकता है. आखिरकार, चाहे कश्मीर में ली गई हों या कहीं और लोगों के लिए पारिवारिक तस्वीरें क्या मायने रखती हैं, यह तो सब जानते ही हैं.