सबूतों की एल्बम

कश्मीर में गुमशुदा लोगों को दर्ज करते सामान, तस्वीरें और चित्र

08 September, 2022

जनवरी 2020 में मैं श्रीनगर में इरफान अहमद खान के घर गया था. खान 1994 में जब अभी स्कूली छात्र ही थे, गुमशुदा हो गए थे. उनके परिवार को शक था कि उन्हें सेना ने उठा लिया है. जब उनका परिवार उनके बारे में कहानियां सुना रहा था, मैं उनकी तस्वीरों के एक एल्बम को पलट रहा था. मैंने एक ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर देखी जिसमें खान अभी बच्चे ही थे और फिर उसके बड़े होने की कुछ और तस्वीरें देखीं. उनकी आखिरी तस्वीर उनके चौदहवें जन्मदिन पर ली गई थी जिस साल वह गायब हुए थे. और ठीक इसी पल जब खान गायब हो गए पारिवारिक एल्बम से उनके सबूत भी गायब हो गए.

खान के परिवार के साथ मेरी मुलाकात उस परियोजना का हिस्सा थी जिस पर मैं कश्मीर में लापता व्यक्तियों के अभिभावकों की की यूनियन (एपीडीपी) के साथ काम कर रहा था. एपीडीपी दशकों से घाटी में फैली जबरन गुमशुदगी के खिलाफ एक आंदोलन है. जबरन गुमशुदगी तब होती है जब किसी शख्स को हिरासत में लिया जाता है या अपहरण कर लिया जाता है और बाद में उसके ठिकाने या तकदीर के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती है. एसोसिएशन का अनुमान है कि कश्मीर में बगावत की शुरुआत के बाद से 8000 से 10000 लोग गायब हुए हैं. एपीडीपी गुमशुदियों का दस्तावेजीकर करती है और गायब होने वाले के परिवारों को मदद मुहैया कराती है. बतौर फोटोग्राफर मैंने एपीडीपी के साथ गुमशुदा लोगों के परिवारों से विजुअल सबूत इकट्ठा करके उनकी यादों को संजोने का काम किया. जबरन गुमशुदगी का शिकार जितने लोगों से मैं मिला खान उनमें सबसे कम उम्र के थे.

(बाएं) गुलाम मोहिउद्दीन डार की पारिवारिक तस्वीरें. 6 जून 1994 को जब वह दोपहर का खाना खाने ही वाले थे तो अज्ञात लोगों ने उनके घर से उठा लिया. उनके भाई अली मोहम्मद डार का मानना है कि ये लोग भारतीय सेना से थे क्योंकि वे कश्मीरी नहीं थे. (दाएं) श्रीनगर के निशात गार्डन में एक चिनार का पेड़ नीचे बंधे शामियाने पर अपनी परछाई बिखेरता हुआ.
बारामूला जिले में एक पहाड़ के ऊपर उड़ता एक चील. स्थानीय लोगों का आरोप है कि इलाके के पहाड़ों में गुमनाम कब्रें हैं. (बाएं इनसेट) मोहम्मद रमजान शेख के घर पर लटकी उनकी एक तस्वीर. शेख को 13 अप्रैल 1997 को सुरक्षा बलों ने हिरासत में लिया था और वह अभी भी लापता हैं. उनके परिवार ने सात साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी और श्रीनगर जिला अदालत में राज्य प्रशासन को उन्हें मुआवजा देने का आदेश देने के लिए कहा. (दाएं इनसेट) इरफान अहमद खान 1994 में गायब हो गए, जब वह केवल 14 साल के थे. उनका परिवार अभी भी उनके सामान का एक बक्सा अपने घर के अटारी में एक अलमारी में रखता है.

मैंने 2017 में कश्मीर में गुमशुदगी का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया. तब तक राज्य के उत्पीड़न की मेरी समझ उपमहाद्वीप के दूसरी ओर यानी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम की कहानियों के जरिए से आई थी. वे श्री लंका के उत्तर और पूर्व में एक अलग तमिल मातृभूमि की लड़ाई लड़ रहे थे. मेरी परवरिश तमिलनाडु में हुई जहां मैंने तमिल ईलम आंदोलन को दबाने के लिए श्रीलंकाई राज्य द्वारा अपनाए गए तरीकों के बारे में सुना. 2009 में श्रीलंका में गृहयुद्ध की समाप्ति के दौरान और संघर्ष के बारे में अध्ययन के दौरान मैंने सीखा कि भारत की पुलिस और सेना भी यातनाएं देती हैं, खासकर कश्मीर में. मैं उत्तर-पूर्वी श्रीलंका और कश्मीर के बीच समानता से प्रभावित हुआ था. जब मुझे चेन्नई से बाहर पढ़ने का मौका मिला तो 2015 में मैंने जम्मू में पत्रकारिता का कोर्स चुना. उस समय मैंने कभी तमिलनाडु से बाहर कदम नहीं रखा था. जम्मू और कश्मीर राज्य मेरे लिए विदेशी इलाके जैसा था. अगले पांच सालों में गुमशुदा लोगों के परिवारों से मिलने और सामूहिक कब्रों पर जाने के बाद, मैं कश्मीर को दूसरे विवादित इलाकों की तरह प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में देखने लगा.

 

31 अगस्त 2017 को मंजूर अहमद खान ने कुपवाड़ा में अपने घर के पास जंगल से होते हुए बांदीपोरा के एक गांव जाने का एक शॉर्टकट रास्ता चुना. खान और उनके एक दोस्त को 27 राष्ट्रीय राइफल्स के एक अधिकारी ने हिरासत में ले लिया. उनके दोस्त को रिहा कर दिया गया. सेना के अधिकारियों ने मंजूर अहमद खान नाम के किसी शख्स को हिरासत में लिए जाने से इनकार किया. उस वक्त, खान की अगले महीने शादी होने वाली थी. उनके पारिवारिक एल्बम में उनके लड़कपन की कई तस्वीरें थीं.
सुरक्षा बलों के हाथों पेलेट गन से घायल, यातना और हिंसा झेलने वाले लोगों की तस्वीरें. इनमें से कई लोगों ने विभिन्न प्रकार के डिटेंसन सेंटरों में लंबे समय तक रहने का जिक्र किया है. यहां वे गरिमापूर्ण ढंग से बैठते हैं, जमीन के बजाय कुर्सियों पर, कश्मीरियों की देह पर किए गए बदसलूकी और प्रतिरोध के उपकरण बतौर अपनी देह का इस्तेमाल करने के बीच एक अंतर बनाने के लिए.

मेरी कई मुलाकातें हुईं जिन्होंने मेरी समझ को चुनौती दी है कि पूरी जिंदगी दबाव में जीने का क्या मतलब होता है. मैं एक बार एक शख्स के घर गया जिसे पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था. उनकी छोटी बहनों में से एक, जो तकरीबन बीस साल की थी, ने मुझे बताया कि आधी रात को उनके घर पर सेना की छापेमारी के दौरान क्या हुआ था. उसने मुझे बताया कि कैसे सेना ने उनके पिता को प्रताड़ित किया और घर में सभी को गालियां दीं. इन दर्दनाक वाकयों के जिक्र के दौरान, वह रोई या भावुक नहीं हुई. जैसे ही मैं जाने वाला था मैंने पूछा कि वह क्या पढ़ रही है. सवाल सुनते ही वह बेकाबू हो गई. उसने कहा कि वह कॉलेज नहीं जा सकती क्योंकि उसका भाई ही उसकी फीस देता था. वह अब जेल में है. यहां तक कि जब वह अपने अतीत को लेकर गंभीर बनी रही तो उसकी बाधित शिक्षा और अनिश्चित भविष्य ने उसे परेशान कर दिया.

(दांए से बांए) इरफान अहमद खान की बचपन में ली गई पहली तस्वीर, अपने पिता हबीबुल्लाह और बहन रबीना के साथ इरफान की बचपन की एक तस्वीर, निशात गार्डन में उनके साथ इरफान की एक तस्वीर और हबीबुल्लाह की एक तस्वीर. इरफान 1994 में गायब हो गया था. उसके स्कूल के एक चपरासी ने उसके मां-.बाप को बताया कि उसे एक अज्ञात व्यक्ति ले गया है. पुलिस नियंत्रण कक्ष के अधिकारियों ने उसके माता.पिता को बस यह बताया कि उसे 20 राष्ट्रीय राइफल्स की 7 जाट बटालियन द्वारा ले जाया गया है. रबीना के मुताबिक हबीबुल्लाह ने इरफान के लापता होने के बारे में पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की, लेकिन उन पर विध्वंसक गतिविधियों में परिजनों की सहायता करने का आरोप लगाया गया. उसने कहा कि सैनिकों ने उनके घर पर छापेमारी की और हबीबुल्लाह को प्रताड़ित किया, जबकि परिवार के बाकी लोगों को दूसरे कमरे में बंद कर दिया गया था. उन्होंने हबीबुल्लाह को हिरासत में ले लिया, प्रताड़ित किया और एक महीने बाद जाकर उन्हें छोड़.

कश्मीर में जारी संघर्ष के बावजूद घाटी के लगभग सभी बच्चों को स्कूल भेजा जाता है और कम से कम वे बुनियादी शिक्षा पाते हैं. मुझे याद है कि कश्मीर के गांवों में लोग कितने अच्छे जानकार थे, जब बडगाम में एक ऑटो चालक ने 2018 में तमिलनाडु के थूथुकुडी स्टरलाइट कॉपर प्लांट के विरोध में पुलिस द्वारा नागरिकों को गोली मारने की घटना का जिक्र किया था. मुख्य भूमि भारत में ऐसे कई लोग थे जो इस मुद्दे के बारे में कुछ नहीं जानते थे.

 

(बाएं) स्थानीय लोगों का आरोप है कि यह एक अज्ञात सामूहिक कब्रगाह है. (दाएं) गुलाम मोहम्मद भट्ट की तस्वीरें उनकी नजरबंदी से पहले और उनकी मृत्यु के बाद ली गईं. भट्ट को स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप के अधिकारियों ने हिरासत में लिया. उनके बेटे हनीफ को बाद में पता चला कि उनके पिता को लगातार डिटेंशन सेंटरों और आखिर में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद की एक जेल में भेज दिया गया था. हनीफ ने अपने पिता को इलाहाबाद जेल में मृत पाया, उनके शरीर पर बमुश्किल कपड़े थे. उसने देखा कि उसके पिता की बाँहों में फ्रेक्चर हो गया था और उनकी देह पर नीले.काले रंग के जख्म के निशान थे. हनीफ को अपने पिता की लाश उठाने और चल देने के लिए कहा गया.

गुमशुदा परिवारों से मुलाकातों के अपने कई दौरों में मैं तस्वीरों के उनके इस्तेमाल, रखरखाव और प्रस्तुति से प्रभावित हुआ हूं. परिवार अक्सर गुमशुदा व्यक्तियों की पुरानी तस्वीरों को काट देते और उन्हें परिवार की ताजा तस्वीरों में जोड़ देते थे, मानो उन्हें जिंदा और मौजूं रखने के लिए ऐसा करते हों. एपीडीपी की संस्थापक परवीना अहंगेर अक्सर मुझसे कहतीं कि किसी व्यक्ति की तस्वीर को इस तरह आज की तस्वीर के साथ चिपकाना एक किस्म का प्रतिरोध था जो इस बात को नामंजूर करता है कि वह शख्स मर गया है. चूंकि मैं एक दलित परिवार से हूं इसलिए मैंने अपने रिश्तेदारों को मेरे चचेरे भाई की तस्वीरें संजोते हुए देखा था, जो एक जातिगत झगड़े में मारे गए थे. उन्होंने उनकी तस्वीरों का कोलाज बनाया और उन्हें श्रद्धांजलि दी. लेकिन कश्मीर में, मैंने कई पारिवारिक एल्बम देखे जिनमें पारिवारिक तस्वीरों के साथ प्रियजनों के शवों की तस्वीरें दिखाई दीं. मैंने एक बार मारे गए किसी व्यक्ति की मां से पूछा कि उन्होंने उसकी लाश का फोटो क्यों रखा है. उन्होंने मुझसे कहा कि उसके परिवार की आने वाली पीढ़ियों को पता होना चाहिए कि उसके साथ क्या हुआ और भारत ने कश्मीरियों के साथ क्या किया है.

जून 2017 में श्रीनगर के निशात गार्डन में खेलते स्कूली बच्चे.

कश्मीर में मैंने पारिवारिक तस्वीरों और फोरेंसिक दस्तावेजों के बीच की रेखाओं को धुंधला होते देखा. श्रीनगर के एक परिवार ने सबूत के तौर पर ली गई पहली पारिवारिक तस्वीर तत्कालीन राज्य मानवाधिकार आयोग को सौंपी. वे एक ऐसे व्यक्ति के उत्तराधिकारियों की संख्या को साबित करने की कोशिश कर रहे थे जिन्हें भारतीय सेना ने गायब कर दिया था, जिसके बाद उन्हें उनके कारण मुआवजा मिल सकता था. अहंगर, जिनका 16 साल का बेटा 1990 में लापता हो गया था, अपने बेटे के वजूद को साबित करने के लिए उसकी कई तस्वीरें रखतीं हैं. मैंने निजी तस्वीरों को इतना राजनीतिक कभी नहीं देखा था. यही पारिवारिक तस्वीरें एपीडीपी के संग्रह में सबूत बन गई हैं. निजी तस्वीरें जो कभी केवल पुरानी यादों के लिए ली गई थीं, अब एक कश्मीरी के वजूद का सबूत हैं.

(बाएं) मुश्ताक अहमद डार को 20 ग्रेनेडियर्स ने 13 अप्रैल 1997 को उनके घर पर आधी रात के छापे के बाद गिरफ्तार किया था. (दाएं) मुश्ताक अहमद डार के पिता गुलाम मोहम्मद की एक तस्वीर, जिनकी मौत मुश्ताक के गुमशुदा होने के बाद हुई थी और एक विरोध प्रदर्शन के दौरान उनकी मां अजरा की एक तस्वीर. परिवार ने मुश्ताक की तलाश के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की. जम्मू और कश्मीर के उच्च न्यायालय ने देखा कि उन्हें 20 ग्रेनेडियर्स द्वारा हिरासत में ले लिया गया था, कि प्रतिवादी हिरासत में गुमशुदगी के दोषी थे और यह संविधान के अनुच्छेद 21 का घोर उल्लंघन था, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है. अदालत ने परिवार को 10 लाख रुपए मुआवजा देने का हुक्म दिया. उसकी मां ने कहा कि डार को छापेमारी के दौरान प्रताड़ित किया गया जबकि परिवार के बाकी सदस्यों को दूसरे कमरे में बंद कर दिया गया. वह अगली सुबह रेजिमेंट के सैन्य शिविर गईं और उनसे कहा गया कि डार को जल्द ही रिहा कर दिया जाएगा. वह अब तक गुमशुदा है.

1989 में सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत के बाद, दशकों से कश्मीर में जबरन गायब होनाख् हिरासत में रखना और हिरासत में यातना देना एक हकीकत रही है. एपीडीपी जो दस्तावेजीकरण करने की कोशिश कर रहा है उसके सबूत कभी.कभी बीस साल से ज्यादा पुराने हैं. मैं जिन तस्वीरों और विजुअल सबूतों को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहा हूं, वे भी दो या तीन दशक पुराने हो सकते हैं. कोई शख्स जितने लंबे समय से लापता था, उसके परिवार के दस्तावेजों की फाइलें उतनी ही बड़ी थीं. फाइलों में तस्वीरें, अदालती दस्तावेज, पुरानी कागजी कार्रवाई की कई प्रतियां, जो धुंधली होने लगी थीं, गायब होने के मामलों पर अखबार की कतरनें, डायरी की दाखिली, राज्य मानवाधिकार आयोग के आदेश और मानवाधिकार निकायों को मांग पत्र शामिल थे. परिवार अक्सर इस डर से कई प्रतियां बनाते थे कि सेना का कोई व्यक्ति दस्तावेजों के सेट को जब्त और नष्ट कर सकता है.

 

7 जुलाई 1997 को 32 साल के अब्दुल राशिद वानी के लापता होने के मामले में श्रीनगर में जम्मू और कश्मीर के उच्च न्यायालय की एक रिपोर्ट का हिस्सा. अदालत ने कहा कि वानी को कथित तौर पर गोरखा राइफल्स के कैप्टन यादव नामक एक अधिकारी ने गिरफ्तार किया था और हिरासत में लिया था. अदालत ने कहा कि इस मामले को हिरासत में गायब होने के रूप में लिया जाना चाहिए. जब वानी की पत्नी शबनम और परिवार के अन्य सदस्यों ने उसे खोजने की कोशिश की, तो उन्हें रावलपोरा के एक नियंत्रण कक्ष में मारे गए लोगों की तस्वीरें दिखाई गईं. शबनम ने एक ऐसे शख्स की तस्वीरों में से अपने पति के पैरों की पहचान की, जिसका चेहरा विकृत हो गया है. परिजनों ने डीएनए टेस्ट कराने से इनकार कर दिया. (इनसेट) शबनम और उसके बच्चों की एक तस्वीर, जो मुआवजे के लिए दस्तावेज के हिस्से के रूप में तत्कालीन राज्य मानवाधिकार आयोग को प्रस्तुत की गई थी. शबनम ने एक अर्ध.विधवा का जीवन जिया है, एक ऐसी औरत जिसका पति लापता हो गया है लेकिन मौत की पुष्टि नहीं हुई है. उसने अपने बच्चों को पढ़ाया लिखाया ताकि वह परिवार का खर्च चला सकें.

अगस्त 2019 की शुरुआत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की घोषणा की. कुछ दिनों बाद, मोदी ने एक नया कश्मीर के आगमन की घोषणा की, जो घाटी में आतंकवाद का अंत और न्याय की शुरुआत,  कानून का शासन और आर्थिक समृद्धि को देखने वाला था. वादे इस तथ्य से मेल नहीं खाते थे कि कश्मीर की स्थिति में भारी बदलाव को गहन सैन्यीकरण के तहत एक कठोर तालाबंदी और कश्मीरियों के साथ बिना किसी भी रायशुमारी के लागू किया गया था.

गुमशुदा लोगों के परिवारों के लिए न्याय का मतलब होगा उनके प्रियजनों की तलाश करना या कम से कम उनके साथ जो हुआ उसके बारे में कुछ जवाब ढूंढना. इसके बजाय, एपीडीपी को अपने कुछ कामों में पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा. एसोशिएसन हर महीने की दस तारीख को शांतिपूर्ण, मौन धरना आयोजित करता है. गुमशुदा लोगों के परिवार, बीवियां और मांएं श्रीनगर के प्रताप पार्क में एक.दूसरे का समर्थन और प्रशंसा करने और किसी तरह अपने गुमशुदा परिजन को नजर में रखने के लिए इकट्ठा होते. कश्मीर में अधिकारियों ने अगस्त 2019 से एपीडीपी को धरना देने की इजाजत नहीं दी है. इस तरह के झटके के सामने, गुमशुदगी का दस्तावेजीकरण जारी रखना और भी ज्यादा जरूरी हो गया है. यहां तक कि जब मैंने अपना प्रोजेक्ट जारी रखा, तो मुझे पता था कि मुझे तस्वीरों के इस्तेमाल को लेकर बेहद मुस्तैद रहना होगा क्योंकि कई परिवारों को अपनी कहानियां सबके सामने बयां करने के लिए बदले का सामना करना पड़ा था.

दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक लड़के के सीटी स्कैन की एक फोटोकॉपी. 2016 में सोपोर में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान चेहरे पर लगे सेना की पेलेट गन के छर्राें से वह घायल हो गया था. सीटी स्कैन से पता चला कि उसकी आंख की बाईं तंत्रिका क्षतिग्रस्त हो गई थी. (बीच में) 2018 में डल झील पर तैरते बेकार पड़े शिकारे. (दाएं) एक पेलेट.गन पीड़ित का एक फ़ाइल बैग. पीड़ितों और उनके परिवारों द्वारा रखे गए फाइल बैग में सुरक्षा बलों के खिलाफ बेहद जरूर और सावधानीपूर्वक जुटाए गए सबूत हैं. परिवार अक्सर इन दस्तावेजों की कई कॉपियां बना कर रखते हैं और छापे के दौरान कहीं कोई सेट बर्बाद हो जाने की हालत में उन्हें अलग.अलग जगहों पर संभाल कर रखते हैं.

हालांकि कई कश्मीरी परिवारों के रिकॉर्ड और यादों को जिंदा रखने के तरीके समान हैं, लेकिन अपने गुमशुदा परिजन के बारे में उनका नजरिया अलग-अलग है. कुछ लोग सोचते हैं कि जो लापता हैं वे कभी वापस नहीं आएंगे. दूसरों को उम्मीद है कि वे वापस आ सकते हैं. मैं एक ऐसे परिवार से मिला, जिसका बेटा चौदह साल पहले गायब हो गया था. वे किसी ऐसे व्यक्ति से मिले जिसे गिरफ्तार किया गया था और रिहा कर दिया गया था और जो जेल में अपने बेटे से मिला था. भले ही उन्हें अधिकारियों से और कोई जानकारी नहीं मिली, लेकिन जब उन्हें पता चला कि वह अभी तक जिंदा था, तो उनकी उम्मीद फिर से जगी थी. कई परिवारों के लिए, यह मान लेना कि उनके प्रियजन मर चुके हैं, निजी से ज्यादा राजनीतिक है . इसके मायने हैं उत्पीड़न को मंजूर कर लेना.

मेरी परियोजना कश्मीर में इन परिवारों की वास्तविकता को मुख्य भूमि भारत में उन लोगों तक पहुंचाना है, जिन्हें बमुश्किल पता है कि उनके नाम पर इस तरह की क्रूरताएं की जाती हैं. चेन्नई और हैदराबाद में कुछ प्रदर्शनियों के बाद, मुझे लगा कि मेरी तस्वीरें कश्मीर, कश्मीरियों और सेना की भूमिका के बारे में लंबे समय से पूर्वाग्रहों वाले लोगों के मन कुछ हलचल पैदा कर सकती हैं. एक प्रदर्शनी में, मैं एक जवान लड़की से मिला, जिसने हर फोटो कैप्शन को बारीकी से पढ़ा और मुझसे इस बारे में और भी सवाल पूछे. इससे मुझे उम्मीद नजर आई कि मेरा काम गहरे विचारों और सहानुभूति को जगा सकता है. आखिरकार, चाहे कश्मीर में ली गई हों या कहीं और लोगों के लिए पारिवारिक तस्वीरें क्या मायने रखती हैं, यह तो सब जानते ही हैं.

‘‘वह कैसा सा दिल है जो तुम्हारे साथ रहने की दुआ नहीं करता है? खुदा न करे, क्या मैं तुमसे दूर रह कर जी सकूंगी? ऐसा कभी न हो!’’- अपने बेटे बशीर अहमद सोफी की याद में हाजरा बेगम की कविता. सोफी उनका आखिरी जिंदा बेटा था. उसे बांदीपोरा जिले के ओनागम गांव में एक बेकर की दुकान से सेना ने उठाया था. उसे आखिरी बार चित्तरनार वन क्षेत्र में एक सैन्य शिविर में देखा गया था. वह किसी उग्रवादी संगठन से जुड़ा नहीं था लेकिन उसके ज्यादातर भाई थे. वे सभी सेना के साथ गोलीबारी में मारे गए थे. हाजरा बेगम ने बताया कि कैसे उसे कई बार सेना के शिविरों में ले जाया गया और प्रताड़ित किया गया, जिसमें सिगरेट से जलाना भी शामिल था.