सबूतों की एल्बम

कश्मीर में गुमशुदा लोगों को दर्ज करते सामान, तस्वीरें और चित्र

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जनवरी 2020 में मैं श्रीनगर में इरफान अहमद खान के घर गया था. खान 1994 में जब अभी स्कूली छात्र ही थे, गुमशुदा हो गए थे. उनके परिवार को शक था कि उन्हें सेना ने उठा लिया है. जब उनका परिवार उनके बारे में कहानियां सुना रहा था, मैं उनकी तस्वीरों के एक एल्बम को पलट रहा था. मैंने एक ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर देखी जिसमें खान अभी बच्चे ही थे और फिर उसके बड़े होने की कुछ और तस्वीरें देखीं. उनकी आखिरी तस्वीर उनके चौदहवें जन्मदिन पर ली गई थी जिस साल वह गायब हुए थे. और ठीक इसी पल जब खान गायब हो गए पारिवारिक एल्बम से उनके सबूत भी गायब हो गए.

खान के परिवार के साथ मेरी मुलाकात उस परियोजना का हिस्सा थी जिस पर मैं कश्मीर में लापता व्यक्तियों के अभिभावकों की की यूनियन (एपीडीपी) के साथ काम कर रहा था. एपीडीपी दशकों से घाटी में फैली जबरन गुमशुदगी के खिलाफ एक आंदोलन है. जबरन गुमशुदगी तब होती है जब किसी शख्स को हिरासत में लिया जाता है या अपहरण कर लिया जाता है और बाद में उसके ठिकाने या तकदीर के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती है. एसोसिएशन का अनुमान है कि कश्मीर में बगावत की शुरुआत के बाद से 8000 से 10000 लोग गायब हुए हैं. एपीडीपी गुमशुदियों का दस्तावेजीकर करती है और गायब होने वाले के परिवारों को मदद मुहैया कराती है. बतौर फोटोग्राफर मैंने एपीडीपी के साथ गुमशुदा लोगों के परिवारों से विजुअल सबूत इकट्ठा करके उनकी यादों को संजोने का काम किया. जबरन गुमशुदगी का शिकार जितने लोगों से मैं मिला खान उनमें सबसे कम उम्र के थे.

(बाएं) गुलाम मोहिउद्दीन डार की पारिवारिक तस्वीरें. 6 जून 1994 को जब वह दोपहर का खाना खाने ही वाले थे तो अज्ञात लोगों ने उनके घर से उठा लिया. उनके भाई अली मोहम्मद डार का मानना है कि ये लोग भारतीय सेना से थे क्योंकि वे कश्मीरी नहीं थे. (दाएं) श्रीनगर के निशात गार्डन में एक चिनार का पेड़ नीचे बंधे शामियाने पर अपनी परछाई बिखेरता हुआ.. (बाएं) गुलाम मोहिउद्दीन डार की पारिवारिक तस्वीरें. 6 जून 1994 को जब वह दोपहर का खाना खाने ही वाले थे तो अज्ञात लोगों ने उनके घर से उठा लिया. उनके भाई अली मोहम्मद डार का मानना है कि ये लोग भारतीय सेना से थे क्योंकि वे कश्मीरी नहीं थे. (दाएं) श्रीनगर के निशात गार्डन में एक चिनार का पेड़ नीचे बंधे शामियाने पर अपनी परछाई बिखेरता हुआ..
(बाएं) गुलाम मोहिउद्दीन डार की पारिवारिक तस्वीरें. 6 जून 1994 को जब वह दोपहर का खाना खाने ही वाले थे तो अज्ञात लोगों ने उनके घर से उठा लिया. उनके भाई अली मोहम्मद डार का मानना है कि ये लोग भारतीय सेना से थे क्योंकि वे कश्मीरी नहीं थे. (दाएं) श्रीनगर के निशात गार्डन में एक चिनार का पेड़ नीचे बंधे शामियाने पर अपनी परछाई बिखेरता हुआ.
बारामूला जिले में एक पहाड़ के ऊपर उड़ता एक चील. स्थानीय लोगों का आरोप है कि इलाके के पहाड़ों में गुमनाम कब्रें हैं. (बाएं इनसेट) मोहम्मद रमजान शेख के घर पर लटकी उनकी एक तस्वीर. शेख को 13 अप्रैल 1997 को सुरक्षा बलों ने हिरासत में लिया था और वह अभी भी लापता हैं. उनके परिवार ने सात साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी और श्रीनगर जिला अदालत में राज्य प्रशासन को उन्हें मुआवजा देने का आदेश देने के लिए कहा. (दाएं इनसेट) इरफान अहमद खान 1994 में गायब हो गए, जब वह केवल 14 साल के थे. उनका परिवार अभी भी उनके सामान का एक बक्सा अपने घर के अटारी में एक अलमारी में रखता है.. बारामूला जिले में एक पहाड़ के ऊपर उड़ता एक चील. स्थानीय लोगों का आरोप है कि इलाके के पहाड़ों में गुमनाम कब्रें हैं. (बाएं इनसेट) मोहम्मद रमजान शेख के घर पर लटकी उनकी एक तस्वीर. शेख को 13 अप्रैल 1997 को सुरक्षा बलों ने हिरासत में लिया था और वह अभी भी लापता हैं. उनके परिवार ने सात साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी और श्रीनगर जिला अदालत में राज्य प्रशासन को उन्हें मुआवजा देने का आदेश देने के लिए कहा. (दाएं इनसेट) इरफान अहमद खान 1994 में गायब हो गए, जब वह केवल 14 साल के थे. उनका परिवार अभी भी उनके सामान का एक बक्सा अपने घर के अटारी में एक अलमारी में रखता है..
बारामूला जिले में एक पहाड़ के ऊपर उड़ता एक चील. स्थानीय लोगों का आरोप है कि इलाके के पहाड़ों में गुमनाम कब्रें हैं. (बाएं इनसेट) मोहम्मद रमजान शेख के घर पर लटकी उनकी एक तस्वीर. शेख को 13 अप्रैल 1997 को सुरक्षा बलों ने हिरासत में लिया था और वह अभी भी लापता हैं. उनके परिवार ने सात साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी और श्रीनगर जिला अदालत में राज्य प्रशासन को उन्हें मुआवजा देने का आदेश देने के लिए कहा. (दाएं इनसेट) इरफान अहमद खान 1994 में गायब हो गए, जब वह केवल 14 साल के थे. उनका परिवार अभी भी उनके सामान का एक बक्सा अपने घर के अटारी में एक अलमारी में रखता है.

मैंने 2017 में कश्मीर में गुमशुदगी का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया. तब तक राज्य के उत्पीड़न की मेरी समझ उपमहाद्वीप के दूसरी ओर यानी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम की कहानियों के जरिए से आई थी. वे श्री लंका के उत्तर और पूर्व में एक अलग तमिल मातृभूमि की लड़ाई लड़ रहे थे. मेरी परवरिश तमिलनाडु में हुई जहां मैंने तमिल ईलम आंदोलन को दबाने के लिए श्रीलंकाई राज्य द्वारा अपनाए गए तरीकों के बारे में सुना. 2009 में श्रीलंका में गृहयुद्ध की समाप्ति के दौरान और संघर्ष के बारे में अध्ययन के दौरान मैंने सीखा कि भारत की पुलिस और सेना भी यातनाएं देती हैं, खासकर कश्मीर में. मैं उत्तर-पूर्वी श्रीलंका और कश्मीर के बीच समानता से प्रभावित हुआ था. जब मुझे चेन्नई से बाहर पढ़ने का मौका मिला तो 2015 में मैंने जम्मू में पत्रकारिता का कोर्स चुना. उस समय मैंने कभी तमिलनाडु से बाहर कदम नहीं रखा था. जम्मू और कश्मीर राज्य मेरे लिए विदेशी इलाके जैसा था. अगले पांच सालों में गुमशुदा लोगों के परिवारों से मिलने और सामूहिक कब्रों पर जाने के बाद, मैं कश्मीर को दूसरे विवादित इलाकों की तरह प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में देखने लगा.

सिवा साई जीवनांथम डॉक्यूमेंट्री फोटोग्राफर हैं और चेन्नई में रहते हैं.

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