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गृह युद्ध की समाप्ति की वर्षगांठ के महीनों बाद जुलाई 2010 में मैं पहली बार श्रीलंका गया था. दक्षिण में सिंहली आबादी वाले इलाकों में पटाखें जलाकर सालगिरह मनाई थी. तमिल राष्ट्रवादियों की अधिक आबादी उत्तरी हिस्से में है, जो एक अलग तमिल राज्य के लिए लड़ रहे थे, लोगों ने उस दिन को नम आखों के साथ मोमबत्तियां जलाकर याद किया कि उन्होंने क्या खोया है.
उस महीने में 1983 में हुए ब्लैक जुलाई नरसंहार के 27 साल भी पूरे हुए थे, जब सिंहली भीड़ ने हजारों तमिलों को मार डाला, घरों और संपत्तियों को जला दिया और लूटपाट की. आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि करीब 600 लोग मारे गए, लेकिन कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि यह संख्या हजारों में होंगी
उस समय श्रीलंकाई सरकार स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही पत्रकारों को क्षेत्रों में जाने की अनुमति नहीं दे रही थी. मैंने उत्तरी श्रीलंका में जाने की अनुमति मांगने के लिए चेन्नई में श्रीलंकाई उच्चायोग से संपर्क किया था. श्रीलंकाई रक्षा मंत्रालय से मंजूरी मिलने के बाद मैं उत्तरी प्रांत की राजधानी जाफना की ओर जाने वाले तमिल नागरिकों से भरी एक लक्जरी बस में सवार हो गया.
मैं अपनी सीट पर बैठ गया. तभी किसा ने मुझे "नमस्ते!" किया, वह महिला गौरी सिवानेसन थी, जिनकी उम्र लगभग 50 वर्ष के आसपास है और 22 साल बाद घर लौट रही थीं. 1987 की भारत-श्रीलंकाई संधि के तहत भारतीय शांति सेना द्वारा जाफना पर कब्ज़ा करने और लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम से जाफना छीनने के कुछ ही समय बाद, उनकी मां ने उन्हें 1988 में देश से बाहर भेज दिया था. उसका भाई लिट्टे के लिए लड़ने के लिए वहीं रुक गया. 14 महीने पहले युद्ध के अंत में ही उनकी मृत्यु हो गई थी. उन्होंने मुझे बताया कि वह अपने भाई की याद में मणिपे में एक स्कूल का एक हिस्सा बनवाने के लिए जाफना जा रही थी. उन्होंने मुझे समारोह के लिए आमंत्रित किया. अचानक उन्होंने बात करना बंद कर दिया. फिर थोड़ी देर बाद मुझसे कहा, "मुझे उम्मीद है कि आप भारत के रॉ से नहीं हैं. हालांकि, मुझे परवाह नहीं है, भले ही आप हों.