ज्यादातर पुरानी सभ्यताओं की मानिंद हम कश्मीरियों के भी मृत्यु के बाद के अनुष्ठान व्यापक होते हैं जो लंबे कई दिनों तक चलते हैं. आस-पड़ोस या पैतृक कब्रिस्तान में मृतक को दफनाने के लिए जमीन का चयन करना, कभी विस्तृत तो कभी मामूली कतबा का आर्डर देना होता है और उसमें गोदने के लिए उर्दू या फारसी की कविता का चयन करना होता है. (हमें सैयद साहब से परामर्श करना होता क्योंकि "तैमिस छू आठ सात जान" यानी वह इसके जानकार होते हैं). (दूसरी बातों के बीच) कब्र पर फतेहा और सूरा यासीन का प्रातः पाठ और कब्र के किनारे कौन से फूल उगेंगे इसका निर्णय करना होता है. यह काम कम महत्वपूर्ण नहीं होता. इन सबके अलावा हम कश्मीरी परिवार में किसी मौत होने के बाद साथ आना और साथ रहना पसंद करते हैं जैसा कि कई तहजीबों के लोग करते हैं.
हमें बहुत सारा खाना पकाना पसंद है. हम खूब सारे लोगों को खाना खिलाना पसंद करते हैं. रिश्तेदार, जो यादों की ओट और दबी हुई भावनाओं के चलते, जमा होते हैं हफ्तों तक एक साथ रहते हैं. हम मृतक के बारे में बात करते हैं और कोई न कोई हमेशा उनके बोलने के तरीके की नकल करता है. यह सब कब्रिस्तान के रोजमार्रा के दौरे, घर में देर तक चलने वाले कुरानखवानी सत्र और शोक संतप्त लोगों के बीच मार्मिक सांत्वना के इर्दगिर्द होता है. कोई न कोई हमेशा ही थकावट या आंसुओं की बौछार से बेहोश हो जाता है. हम में से कुछ लोग ढेर सारे फूल और मोमबत्तियां भी कब्र में ले जाते हैं.
इस तरह हम नए हालात से तालमेल बैठाते हैं और मौत को मंजूर करते हैं. हमें यह करना होता है. बड़े इलकों में पड़ोसी और निवासी, जिनकी नुमाइंदगी सबसे अद्भुत और उदार संस्थाएं मोहल्ला समितियां करती हैं (जिनका प्रमुख अक्सर एक बुद्धिमान लेकिन जिससे सभी डरते भी हैं, एक किस्म का सनकी सा लेकिन कुछ हद तक खास स्वभाव वाला करता है.) जिसके बारे में हम मानते हैं, "सख काके मगर एमिस वारई हेकने कहीं करिथ" यानी वह बहुत तुनकमिजाज है लेकिन और कोई भी तो ऐसा काम नहीं कर सकता. इस सब के बीच मुसीबत की पहली खबर सुनते ही वह इन सभी कामों में शामिल होता है. चाय के लगातार दौरों के बीच ("समोवार-अस गोव न थाकीय!" यानी हमें हमेशा समोवार जलाए रखना पड़ता है!, हमारी केशीर ब्रेड की कम से कम आधा दर्जन शैलियों देखते ही देखते गायब हो जाती हैं. मृतक के परिजन हर रात पाक कुरान का पाठ करते हैं और हफ्ते में कम से कम एक बार मौलवी साहब की अगुवाई में मंडली कुरान का पाठ होता है. इसके साथ ही दावत दी जाती है जिसमें स्थानीय वाजा द्वारा तैयार बेहिसाब मांस का सेवन होता है.
लेकिन इसी से हमारे बारे में कोई राय न बना लें. हम अपने मृतकों को श्रद्धांजलि देते हैं और उसे याद करते हैं जिसे हमने खो दिया है. जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, बातचीत में उन लोगों की संख्या के बारे में चर्चा शुरू हो जाती है जो दफनाने, फातेहा पढ़ने और चाहरम के आए थे. यह इस बात पर निर्भर करता है कि मृतक कितना करीबी, महत्वपूर्ण या प्रसिद्ध था. संख्याओं बहस होती है.
"काम-अज-कम ऐसे 40 सास!" (कम से कम चालीस हजार थे!)
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