भारतीय सेना की 44 असम राइफल्स कंपनी के एक मेजर पर मणिपुर के कांगपोकपी जिले के चालवा गांव के एक नागरिक की हत्या का आरोप लगने के बाद राज्य में आफ्स्पा पर बहस फिर तेज हो गई है. उक्त घटना के लगभग एक महीने बाद भी समझौते के तहत पीड़ित परिवार को जो मुआवजा दिया जाना था वह अभी तक नहीं मिला है.
स्थानीय लोगों के अनुसार 4 जून को कांगपोकपी के बांग्लाबुंग चौकी पर तैनात 44 असम राइफल्स की ई कंपनी के कमांडिंग ऑफिसर आलोक साठे ने 29 वर्षीय मंगबोलाल लोउवम की गोली मारकर हत्या कर दी थी. असम राइफल्स ने दावा किया है कि यह घटना विद्रोही समूह कुकी रिवोल्यूशनरी आर्मी के सदस्यों को पकड़ने के अभियान के दौरान हुई है और उसने मामले की जांच के आदेश दिए हैं. लेकिन मंगबोलाल के परिवार, स्थानीय निवासियों और नागरिक-समाज संगठनों के अनुसार चालवा में कोई केआरए सदस्य या विद्रोही गतिविधियां नहीं थीं और यह घटना राज्य में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिकार अधिनियम का दुरुपयोग है.
मंगबोलाल की मृत्यु के छह दिन बाद मैंने उनकी पत्नी निखोचोंग को वीडियो कॉल की. उनका कहाना था, “यह मेरे लिए एक बहुत ही कठिन स्थिति है और मैं सोच रही हूं कि अपने चार बच्चों का गुजारा कैसे चलाउंगी. मैं अभी तक सदमे से बाहर नहीं आ पाई हूं.” उनकी सबसे बड़ी बेटी सात साल की है और एक स्थानीय सरकारी स्कूल में पढ़ती है. तीन छोटे बच्चों की उम्र क्रमश: छह, तीन और एक साल है. कॉल के दौरान सबसे छोटे बच्चे की रोने की आवाज आ रही थी जबकि दूसरा मुझे कौतूहल से देख रहा था. चार बच्चे और उनकी मां दो कमरों के फूस के घर में रहते हैं.
मंगबोलाल दिहाड़ी मजदूर था और प्रतिदिन औसत 300 रुपए कमा लेता था. निखोचोंग ने बताया कि वह मेहनती और शांत स्वभाव का था और उसे अपने पति की मौत के लिए न्याय चाहिए.
मंगबोलाल की मृत्यु परिस्थितियां स्पष्ट नहीं हैं. डिफेंस विंग के प्रेस सूचना ब्यूरो ने घटना के दो दिन बाद एक विज्ञप्ति जारी कर दावा किया कि 6 जून को मेजर साठे के नेतृत्व में भारतीय सेना की कंपनी ने कुकी रिवोल्यूशनरी आर्मी के सदस्यों की उपस्थिति की खुफिया सूचना के आधार पर चालवा में एक ऑपरेशन शुरू किया था. भारतीय सेना के पूर्व जवान और कुकी छात्र संगठन के एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उस रात विद्रोही वहां नहीं था. वह कभी-कभी आता है. अगर वह वहां होता है तो हमें पता होता. सेना ने उसकी तलाश की लेकिन जब वह नहीं मिला तो जवान स्थानीय लोगों से झगड़ा करने लगे... सेना के जवान नशे में थे.''
कुकी छात्र संगठन के तुइलंग ब्लॉक के अध्यक्ष एनॉक ने बताया कि घटना के तुरंत बाद केएसओ में उनके सहयोगी ने उन्हें घटना की सूचना दी थी. 4 जून को घटना के ठीक बाद रात 9 बजे उनके सहयोगी ने फोन कर बताया कि चालवा में गोलियों की आवाज सुनाई दी है. उन्होंने कहा कि इसी गोलीबारी में मंगबोलाल को गोली मारी गई. गोली लगने से उसकी आंते बाहर निकल आई थीं. घटना का समय रात 8.30 और 9 बजे के बीच था.
केएसओ के ग्राम सचिव का फोन आने पर एनॉक लगभग 11 किलोमीटर दूर स्थित अपने पैतृक गांव टी वाइचोंग से चालवा के लिए रवाना हो रहे थे कि उन्हें साठे का फोन आया. उन्होंने साठे ने उनसे कहा,"आलोक बहुत गलती किया तुम” लेकिन साठे ने दावा किया कि उसे कुछ पता नहीं है.
क्षेत्र में 44 असम राइफल्स की यही कंपनी बांग्लाबुंग में तैनात है. एनॉक के अनुसार वहां कोई विद्रोही गतिविधि न होने से ऐसा है. उन्होंने कहा कि शिविर सितंबर 2020 में स्थापित किया गया था और केएसओ 44 असम राइफल्स कंपनी के साथ "बहुत सारे सामाजिक कार्य" कर रहा है. “वे मेरे घर में आते हैं. हम साथ-साथ सिविलियन कपड़ों में ही जाया करते थे. जनता के साथ उनके अच्छे संबंध हैं. चालवा में कोई उग्रवादी गतिविधि नहीं है.” पूर्व सैनिक ने भी बताया कि कैसे घटना से पहले असम राइफल्स कंपनी के स्थानीय लोगों के साथ अच्छे संबंध थे. उन्होंने कहा, "जब असम राइफल्स ने क्षेत्र में विभिन्न पहल की तो हमने एक-दूसरे की मदद की. चूंकि मैं भाषा जानता हूं इसलिए उनकी मदद किया करता था."
यह पूछे जाने पर कि साठे ने उन्हें क्यों कॉल किया होगा एनॉक ने कहा, "उन्हें पता था कि मैं एक सामाजिक नेता हूं और हमारे अच्छे संबंध हैं इसलिए वह सिर्फ एक अच्छा रिश्ता बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे.
एनॉक ने बताया कि जब वह चालवा पहुंचे तो वहां भारी भीड़ मौजूद थी और उन्होंने 44 असम राइफल्स चौकी के आसपास के बाड़े और प्रतीक्षालय को जलाना शुरू कर दिया था. उन्होंने बताया, “भीड़ के बीच आलोक खड़े थे और वह कह रहे थे कि उन्होंने गोली नहीं चलाई. लेकिन वीडियो में भी देखा जा सकता है कि छोटे-छोटे लड़के भी उन पर आरोप लगा रहे हैं. कैंप आने के ठीक बाद से ही आलोक इलाके में बहुत लोकप्रिय मेजर थे. हमने साथ-साथ काम किया है.”
केएसओ की कांगपोकपी इकाई के महासचिव थांगटिनलेन हाओकिप ने कहा कि उनकी पूछताछ से पता चला है कि मंगबोलाल को गलती से गोली लगी. उन्होंने मुझे बताया, "हमारे सूत्र के मुताबिक मेजर आलोक साठे और उनका सुरक्षाकर्मी मंगबोलाल से नहीं, बल्कि किसी और से बहस कर रहे थे. ऐसा लगता है कि उस बहस के दौरान असम राइफल्स ने फायरिंग शुरू कर दी और मंगबोलाल को गोली लग गई.”
हाओकिप ने बताया कि उस वक्त साठे वर्दी में नहीं थे. हाओकिप के अनुसार यहां की सिवल सोसाइटी ने भी कई बार हिदायत दी थी कि जब वर्दी में न हों तो गन न रखें क्योंकि इस तरह से गश्त करने से दिक्कत पैदा हो जाएगी. यही बात स्थानीय सीएसओ ने उन्हें पहले ही बता दी थी लेकिन वह नहीं सुन रहे थे.
अगले दिन भारतीय सेना, मणिपुर पुलिस, राज्य सरकार और स्थानीय समाजिक संगठनों के बीच एक समझौते हुआ. 22 सेक्टर असम राइफल्स के कमांडर ब्रिगेडियर पीएस अरोड़ा ने भारतीय सेना की ओर से समझौते पर हस्ताक्षर किए.
समझौते के अनुसार पुलिस तुरंत घटना की जांच शुरू करेगी और वर्तमान 44 एआर बांग्लाबंग चौकी को हटा दिया जाएगा और इसकी जगह जल्द से जल्द पूरी तरह कार्यात्मक सशस्त्र पुलिस स्टेशन खोल दिया जाएगा. समझौते के तहत यह भी आश्वासन दिया गया कि असम राइफल्स मंगबोलाल के परिवार को 10 लाख रुपए का मुआवजा देगी. लेकिन एनॉक के अनुसार अब तक परिवार को मुआवजे के रूप में केवल 2 लाख रुपए मिले हैं और बांग्लाबंग चौकी और 44 असम राइफल्स कंपनी क्षेत्र में कायम है.
पूर्व सैनिक ने कहा कि साठे ने उन्हें 23 जून को फोन किया और घटना के बाद स्थानीय लोगों के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के खिलाफ धमकी दी. साठे ने उन्हें धमकी दी कि यदि वह इस प्रदर्शन में शामिल हुए तो अच्छा नहीं होगा और “आपकी पेंशन रोकी जा सकती है.” दो दिन बाद 44 असम राइफल्स कंपनी के कमांडिंग ऑफिसर प्रदीप कुमार ने भी उन्हें फोन कर धमकी दी कि स्थानीय लोगों का समर्थन करेंगे तो उनके लिए "अच्छा नहीं होगा."
पूर्व सैनिक ने बताया कि असम राइफल्स ने साठे के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी के कारण पूरा मुआवजा नहीं दिया और कमांडिंग ऑफिसर कुमार ने गांव के नेताओं को बताया है कि साठे पर हत्या का आरोप लगाने वाली प्राथमिकी के कारण बाकी मुआवजा वापस ले लिया गया है. उनके अनुसार कुमार ने नेताओं से कहा, "हम इसे अपने बीच निपटा लेते लेकिन आपने मामला दर्ज किया. अब आठ लाख तब मिलेंगे यदि आप रिपोर्ट वापस ले लें.”
हालांकि कांगपोकपी पुलिस स्टेशन ने साठे पर हत्या का आरोप लगाते हुए प्राथमिकी दर्ज की है लेकिन सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के चलते पुलिस की जांच करने की सीमित गुंजाइश है. मणिपुर में अधिनियम 1980 से लागू है लेकिन 2004 में असम राइफल्स द्वारा 32 वर्षीय मणिपुरी महिला थंगजाम मनोरमा के हिरासत में बलात्कार और नृशंस हत्या के खिलाफ व्यापक विरोध के बाद उस साल जुलाई में इसे सात निर्वाचन क्षेत्रों में हटा लिया गया था. अगस्त 2008 में केंद्र सरकार और कुकी विद्रोही समूहों के दो संगठनों, यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट और कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन, ने कार्रवाई निलंबन समझौता किया जिसे नियमित रूप से हर छह महीने में बढ़ाया जाता है.
कूकी इंपी, कांगपोकपी के महासचिव थांगमिनलेन किपगेन, जो समझौते के हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक हैं, ने साठे के खिलाफ पुलिस जांच के बारे में कहा, "हमने बस एक केस दर्ज किया लेकिन उसी शाम उसकी हिरासत असम राइफल्स को सौंपनी पड़ी. इसलिए अभी वह असम राइफल्स की हिरासत में है. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि पुलिस के पास बड़े सबूत हैं लेकिन वह फिर भी आलोक के वरिष्ठ या कमांडिंग ऑफिसर पर निर्भर है ताकि उस पर आपराधिक अदालत में मुकदमा चला सके. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन कानून ऐसा ही है.”
कांगपोकपी जिले के पुलिस उपाधीक्षक सोनी सिमगोसांग गंगटे ने मुझे बताया कि पुलिस साठे को हिरासत में नहीं ले सकती क्योंकि आफ्स्पा के तहत सशस्त्र बलों के कर्मियों के खिलाफ किसी भी प्रक्रिया के लिए केंद्र की पूर्व मंजूरी की आवश्यकता होती है. उन्होंने कहा कि घटना की पुलिस जांच शुरू हो गई है और "प्रगति पर है." उन्होंने कहा कि मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच प्रक्रिया के अनुसार की गई न कि किसी समझौते की शर्तों के कारण. गंगटे ने यह भी कहा कि असम राइफल्स चौकी के स्थानांतरण पर अभी तक "कोई कार्रवाई नहीं" की गई है. उन्होंने यह भी बताया कि सरकार द्वारा कोष आवंटन होने पर ही एक स्थायी पुलिस चौकी स्थापित हो सकेगी. उन्होंने बताया, “एक स्थायी पुलिस चौकी और स्टेशनिंग के लिए न्यूनतम बुनियादी ढांचे के लिए धन की आवश्यकता होती है. जिले में पुलिस कर्मियों की कमी का संकट पहले से है.”
नागरिक संगठनों के अनुसार समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के एक दिन बाद 6 जून को जारी पीआईबी डिफेंस विंग की प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया गया है कि सुरक्षा बलों ने "04 जून 2021 की रात को मणिपुर के कांगपोकपी जिले में केआरए के सचिव को 3-4 कैडरों के साथ पकड़ने के लिए एक अभियान शुरू किया था और केआरए कैडरों और उनके सहयोगियों ने असम राइफल्स के एक जवान के साथ मारपीट की और सैनिकों पर गोली चलाने का प्रयास किया. आसन्न खतरे को भांपते हुए दल ने न्यूनतम बल प्रयोग किया.” बयान में कहा गया है कि भीड़ ने असम राइफल्स पोस्ट को घेर लिया और अकारण हिंसा और आगजनी की.
समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले नागरिक संगठनों के प्रतिनिधियों के अनुसार 5 जून को हुई वार्ता के दौरान असम राइफल्स ने इन बिंदुओं को नहीं उठाया था. उनका कहना है कि मंगबोलाल को केआरए का कैडर बता कर सेना मामले को उलझा रही है. उसी दिन कुकी रिवोल्यूशनरी आर्मी ने एक प्रेस बयान जारी कर कहा कि मंगबोलाल संगठन के वित्त सचिव नहीं थे और असम राइफल्स के आरोप निराधार हैं. केआरए ने बयान में यह भी दावा किया कि संगठन अपने कार्यक्षेत्रों में शांति को बढ़ावा देने के लिए कार्रवाई निलंबन को लेकर प्रतिबद्ध है और अपहरण, जबरन वसूली या अवैध कराधान का कोई कृत नहीं किया है.
कुकी इंपी के महासचिव किपजेन ने मुझसे कहा, "जो भी हो एक सैन्य अधिकारी का उस पर गोली चलाने और उसे मार डालने का कोई औचित्य नहीं है." उन्होंने आगे कहा, "उसी आधार पर हमने असम राइफल्स का सामना किया. हां, आप आफ्स्पा का हवाला दे सकते हैं और आप यह कह सकते हैं कि वह केंद्र सरकार का कर्मचारी है, आप हवाला दे सकते हैं कि सशस्त्र बल अधिनियम है.- जो भी हो हमारे अनुसार घटना के समय वह सेना का अधिकारी नहीं था. हमारा तर्क है कि वह एक व्यक्तिगत मिशन पर गया था क्योंकि उसने वर्दी नहीं पहनी थी. अब वह खुद को बचाने के लिए आफ्स्पा का दावा नहीं कर सकता.”
यह शायद ही पहली बार है जब मणिपुर के निवासियों ने राज्य से आफ्स्पा हटाने का आह्वान किया है. 2012 में, मणिपुर में मानवाधिकारों के उल्लंघन का दस्तावेजीकरण करने वाले गैर सरकारी संगठन एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल एक्जीक्यूशन विक्टिम फैमिलीज एसोसिएशन और ह्यूमन राइट्स अलर्ट ने एक जनहित याचिका दायर कर सुरक्षा बलों द्वारा अतिरिक्त न्यायिक हत्याओं की जांच की मांग की. 8 जुलाई 2016 को एक महत्वपूर्ण आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि "मणिपुर पुलिस या मणिपुर में सशस्त्र बलों द्वारा किसी भी व्यक्ति की अत्यधिक बल प्रयोग के कारण मौत के आरोप की पूरी तरह से जांच की जानी चाहिए." अदालत ने याचिकाकर्ताओं और न्याय मित्रों को सुरक्षा बलों द्वारा अतिरिक्त न्यायिक हत्याओं के 1528 मामलों की जांच के विवरण के साथ एक सारणीबद्ध सारांश प्रस्तुत करने का निर्देश दिया.
अगले साल अदालत ने जनहित याचिका में पहचानी गई 1528 गैर-न्यायिक हत्याओं की जांच करने के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो की एक विशेष जांच टीम नियुक्त की. इन हत्याओं के बारे में कहा जाता है कि यह 1979 और 2012 के बीच हुई थीं. जनहित याचिका में कहा गया है कि एक भी प्राथमिकी नहीं है. इनमें से किसी भी मामले को दर्ज नहीं किया गया है.
एचआरए के कार्यकारी निदेशक बबलू लोइतांगबम ने मुझे बताया, "हमने 1,528 दस्तावेज और फाइलें सुप्रीम कोर्ट में दायर की हैं, यह 1979 से 2012 तक है. उनमें से कुछ सीधे सशस्त्र बलों ने की हैं, उनमें से कुछ पुलिस ने की हैं और कुछ पुलिस और सशस्त्र बलों ने मिलकर की हैं. लेकिन यह वह जाल है जो सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम द्वारा प्रदान किया गया है जिसका पुलिस भी दुरुपयोग कर रही है, इसलिए हम सीधे-सीधे यह नहीं कह सकते कि यह मामला आफ्स्पा के अधीन है, लेकिन यह सब आफ्स्पा के चलते ही है और इसने एक ऐसा माहौल बनाया है जहां सुरक्षा बल हत्याओं से बच सकते हैं, इसलिए इतनी हत्याएं हो रही हैं. 1,528 तो महज नमूना है वह 1979 से पहले का नहीं देख रहे हैं, वह पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में नहीं देख रहे हैं. यह तो बस एक नमूना है."
मंगबोलाल की मृत्यु के बाद दो गैर सरकारी संगठनों ने एक बयान जारी किया:
ईईवीएफएएम और एचआरए इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्स्पा) द्वारा प्रदान की गई संस्थागत दंड की अभिव्यक्ति के रूप में देखते हैं. गैर-न्यायिक निष्पादन पर सीबीआई/एसआईटी जांच के बावजूद जघन्य अपराध में पुलिस और सशस्त्र बलों की प्रत्यक्ष भागीदारी स्पष्ट रूप से स्थापित हुई है लेकिन केवल पुलिस कर्मियों को ही दोषी ठहराया जाता है और सशस्त्र बल को नहीं.
बयान में आगे कहा गया है, "मंगबोलाल की हत्या न्यायेतर हत्या का एक स्पष्ट मामला है और मणिपुर सरकार और भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि त्वरित, गहन, प्रभावी और निष्पक्ष जांच हो और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का सम्मान करते हुए एक नागरिक अदालत में निष्पक्ष सुनवाई हो.”
लोइतांगबाम के अनुसार आफ्स्पा ने राज्य में उग्रवाद बढ़ाया है. उन्होंने कहा, “अफस्पा के साथ एक समस्या यह है कि यह बहुत सारे पीड़ित पैदा करता है. पूर्वोत्तर में विद्रोह भारत-पाकिस्तान या भारत-चीन युद्ध की तरह नहीं है. ये लोग हाशिए पर हैं और सत्ता के मामले में बहुत कमजोर हैं और अन्यायों के कारण गुस्से में हैं. उन्होंने आवाज उठाई और कुछेक हिंसा का सहारा लेने लगे.” लोइतांगबम ने आगे कहा, "यदि आपकी बहन के साथ बलात्कार किया गया है और आप अदालत नहीं जा सकते हैं और बलात्कारी अभी भी बंदूक और वर्दी में घूम रहे हैं तो आप क्या करेंगे? जाहिर है कि ऐसी स्थिति में आपके विद्रोही हो जाने की अधिक संभावना है. अगर आप 70 साल में सबक नहीं सीख पाए तो कब सीखेंगे.”
लोइतांगबाम के अनुसार आफ्स्पा एक नस्लवादी कानून की तरह है. उनका कहना है, “अब शायद ही यहां कोई घटना होती है लेकिन सरकार अभी भी आफ्स्पा को हटाने के लिए तैयार नहीं है. इसलिए हमारा शुरू से मानना है कि आफ्स्पा उग्रवाद का जवाब नहीं है. अगर यह उग्रवाद का जवाब होता तो आफ्स्पा को नक्सली क्षेत्र, रेड जोन में लगाया जाना चाहिए जहां सबसे ज्यादा उग्रवादी गतिविधि, सरकार पर सबसे ज्यादा हमले हो रहे हैं. इसे 1958 के बाद से पूर्वोत्तर में लगाया गया है, भले ही उग्रवाद हो या न हो.” फिर उन्होंने बताया, "पूर्वोत्तर के लोग सांस्कृतिक रूप से शेष भारत से काफी अलग हैं इसलिए एक डर है कि यदि आप उन्हें नियंत्रित नहीं रखेंगे तो वे आपके हाथ से निकल जाएंगे. मुझे लगता है कि यह और ज्यादा नियंत्रण का एक साधन है और मूल रूप से अभिजात वर्ग के भारतीय शासकों के नस्लवादी दिमाग का प्रतिबिंब है. मुझे लगता है कि इसका उग्रवाद से बहुत कम लेना-देना है.”