2017 के लिंचिंग मामलों की सरकारी जांच पर सांप्रदायिक पूर्वाग्रह हावी

भारत में पिछले पांच सालों में लिंचिंग की घटनाओं में वृद्धि हुई है. ऐसे मामलों की बढ़ती संख्या से पता चलता है कि स्थानीय प्रशासन के मौन समर्थन से अक्सर हिंसा सांप्रदायिक रंग ले लेती है. अल्ताफ कादरी / एपी
04 October, 2019

17 जून 2019 की रात तबरेज अंसारी अपनी चाची के घर उनकी दुआएं लेने गया था. नव-विवाहित अंसारी अगले ​दिन अपनी नई जिंदगी शुरू करने के​ लिए शहर छोड़कर जाने वाला था. जब 24 साल का तबरेज घर लौटा, तो भीड़ ने उस पर चोरी का आरोप लगाते हुए एक खंबे से बांधकर "जय श्री राम" का नारा लगाने के लिए मजबूर किया और रात भर पीटा. यह घटना झारखंड राज्य के सेरीकेला खरसावां जिले में घटी थी. कई फोन कॉलों के बावजूद, झारखंड पुलिस घटना स्थल पर अगली सुबह तक नहीं पहुंची. अंसारी पर लूटपाट का मुकदमा दर्ज कर उसे अदालत ले जाया गया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया. मारपीट के चार दिन बाद, उसकी मौत हो गई. अंसारी की मौत के बाद ही पुलिस ने हमला करने वाली भीड़ के खिलाफ मामला दर्ज किया है. मूल चार्जशीट में भीड़ पर हत्या का आरोप नहीं लगाया गया था लेकिन जब मीडिया रिपोर्टों ने इस चूक को उजागर किया तो बाद में एक पूरक चार्जशीट में हत्या का मामला दर्ज कर लिया गया.

अंसारी की लिंचिंग जैसी घटना झारखंड में कोई नई बात नहीं है मई 2015 से दिसंबर 2018 के बीच, पूरे देश में लिंचिंग की कुल 44 में 17 घटनाएं इसी राज्य में हुई थीं. इनमें 18 मई 2017 को हुई दो अलग-अलग घटनाओं में झारखंड के कोल्हान संभाग में, जमशेदपुर शहर के 40 किलोमीटर के दायरे में सात लोग मारे गए. उनमें से चार उसी जिले में मारे गए जहां अंसारी को मौत के घाट उतारा गया था. फिर भी, अंसारी की मौत के बाद, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गहरी संवेदना व्यक्त करते हुऐ कहा : "मैं क्षुब्ध हूं और जो जिम्मेदार हैं उन्हें कड़ी सजा मिलेगी लेकिन विपक्षियों द्वारा झारखंड को ‘भीड़ की हिंसाओं का गढ़’ कहा जाना गलत है." साल 2000 में झारखण्ड राज्य बनने के बाद से भारतीय जनता पार्टी या तो खुद सत्ता में रही है या सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा रही है. 2014 के राज्य चुनावों में बीजेपी ने राज्य में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, जिसमें उसे 81 सदस्यीय राज्य विधानसभा में से 37 सीटें मिलीं थीं.

18 मई 2017 की घटी पहली घटना में, सुबह-सुबह चार मुस्लिम मवेशी व्यापारी शेख हलीम, मोहम्मद सज्जाद, सिराज खान और नईम सेराइक खरसावां के पास शोभापुर गांव में भीड़ की हिंसा के शिकार हुए थे. इनमें पहले तीन, पास के गांव हल्दीपोखर के निवासी थे और नईम राज्य के पूर्वी सिंहभूम जिले के शहर घाटशिला में रहते थे. उसी दिन घटी दूसरी घटना में, पूर्वी सिंहभूम के नागडीह गांव में तीन उच्च-जाति के हिंदू विकास वर्मा और गौतम वर्मा, जो भाई थे, और उनके दोस्त गंगेश गुप्ता की हत्या कर दी गई.

22 मई 2017 को, झारखंड सरकार ने राज्य के गृह, जेल और आपदा प्रबंधन विभाग की देखरेख में दो घटनाओं की जांच के लिए नागरिक और पुलिस अधिकारियों की दो सदस्यीय समिति का गठन किया. इन समितियों में कोल्हान के संभागीय आयुक्त प्रदीप कुमार और कोल्हान के उप महानिरीक्षक प्रभात कुमार शामिल थे. समिति के गठन की घोषणा करते हुए एक संवाददाता सम्मेलन में, राज्य के तत्कालीन गृह सचिव एसकेजी रहाते ने कहा था, "उनका काम अफवाहें कहां से फैलीं, इसके पीछे के लोगों, इस तरह की कार्रवाई के पीछे के उद्देश्य और कई अन्य कोणों की जांच करना है, जो अब तक अनुत्तरित हैं.” समिति ने जुलाई 2017 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और मैंने उस साल सूचना के अधिकार कानून के तहत इसकी एक प्रति हासिल की.

जांच में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ स्पष्ट पक्षपात का पता चलता है और स्थानीय सरकारी तंत्र की मानसिकता भी उजागर होती है. रिपोर्ट में हिंदुओं और मुस्लिमों की लिंचिंग को लेकर समिति के सदस्यों की सोच में स्पष्ट अंतर है और दोनों ही मामलों में व्यापक स्वतंत्र जांच करने में विफलता के बारे में बताया गया है. शोभापुर मामले में, जांच अपराधियों पर केंद्रित नहीं थी, बल्कि मृतक मुस्लिम व्यक्तियों की आहार संबंधी आदतों पर जोर था. शोभापुर गांव जाने के उनके उद्देश्य और पशु मांस की तस्करी के साथ उनकी कथित भागीदारी के संबंध में भी लिखा था. इसके विपरीत, तीन हिंदुओं की मौत की जांच बच्चा उठाने की अफवाहों पर नहीं बल्कि संक्षेप में भूमि विवाद के कारणों पर केंद्रित थी.

जिस तरह अंसारी पर डकैती का मुकदमा दर्ज किया गया था, जबकि भीड़ को नजरअंदाज कर दिया गया था, समिति की रिपोर्ट में, मुस्लिम पीड़ितों को एक अपराधी की तरह देखा गया है और उसी तरह चित्रित किया जाता है जबकि केवल हिंदुओं को किसी घातक हमले के शिकार के रूप में दिखाया गया है. यह अंतर रिपोर्ट में स्पष्ट है. इसी कड़ी में, यह रिपोर्ट अपने शासनादेश से परे जाकर मुस्लिम एकता मंच नामक एक स्थानीय मुस्लिम संगठन की मनमानी की आलोचना करती है जिसने लिंचिंग का विरोध किया था. यह तर्क दिया गया है कि इसकी संभावना है कि मंच आतंकवादी समूह इंडियन मुजाहिदीन की तरह बन सकता है. अपने वास्तविक कार्य यानी लिंचिंग के कारणों की परिस्थितियों की जांच करने के बारे में समिति बहुत ही कम काम कर पाई.

समिति के सदस्यों ने नागाडीह, शोभापुर और हल्दीपोखर के निवासियों से बात की और पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला खरसावां के उपायुक्तों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों पर निर्भर रहे. समिति की रिपोर्ट में सदस्यों द्वारा की गई जांच के विवरण को संलग्न किया गया है जिसमें "जांच के तहत मामले" की पहचान और दर्ज किए गए संबंधित गवाहों ​के बयान शामिल हैं. लिंचिंग की दोनों घटनाओं में, समिति ने निष्कर्ष निकाला कि हिंसा बच्चा उठाने की अफवाहों से शुरू हुई थी. नागाडीह में, चल रहे भूमि विवाद को निपटाने के लिए ग्रामीणों के एक समूह द्वारा अफवाह को बहाने की तरह इस्तेमाल किया गया था. इसके बावजूद समिति ने बच्चा उठाने वाली अफवाह कहां से पैदा हुई इसकी अनदेखी की है –रिपोर्ट में शायद ही इसका जिक्र है कि घटनाओं से एक सप्ताह पहले पूर्वी सिंहभूम के जादुगोड़ा गांव में बच्चा उठाने वाली अफवाहों के कारण लिंचिंग की दो अन्य घटनाएं हुईं थीं.

बच्चा उठाने वाली इन अफवाहों की कोई जांच नहीं हुई है कि वह इन गांवों में कैसे फैलीं, या उनके कारण कैसे भीड़ की हिंसा की घटनाएं भड़क उठीं. हालांकि राज्य पुलिस ने मई 2017 में ऐसे संदेशों को फैलाने के लिए जिनके कारण इन अफवाहों को हवा मिली थीव्यापारी सौरभ कुमार और पत्रकार शंकर गुप्ता को गिरफ्तार किया था. रिपोर्ट में अभियुक्तों या उनकी जांच कर रहे अधिकारी से बात करने के लिए किसी भी प्रयास का उल्लेख नहीं है. नागाडीह में, जांचकर्ताओं ने अपने निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले किसी भी स्वतंत्र गवाहों से बात नहीं की. रिपोर्ट में यह कहते हुए इसे सही ठहराने की मांग की गई थी, कि "नागाडीह पहुंचने के बाद हमने पाया कि गांव के सभी मर्द गांव से भाग गए थे."

अपनी शोभापुर जांच में, समिति हिंसा भड़कने की जांच करने में अपनी विफलता के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं देती है. इसके विपरीत, समिति ने निष्कर्ष निकाला कि नागाडीह में लिंचिंग की घटना तीन हिंदू मर्दों और ग्राम प्रधान और उसके गिरोह के बीच विवाद के कारण हुई जो जमीन की दलाली करते थे और उन्हें अपना प्रतिद्वंदी मानते थे. समिति ने नागाडीह लिंचिंग और इसके षड्यंत्रकारियों के पीछे एक स्पष्ट उद्देश्य स्थापित किया, हालांकि अपने निष्कर्ष के बारे में उसने कोई सबूत नहीं दिया.

दोनों ही मामलों में राजनगर और बागबेड़ा पुलिस थानों के अधिकारियों - जिनके दायरे में क्रमशः शोभापुर और नागाडीह अधिकार क्षेत्र आते थे- पर उस वक्त हमला किया गया जब वे अपराध स्थल पर पहुंचे और हस्तक्षेप करने की कोशिश की. इस प्रकार प्रत्येक पुलिस स्टेशन ने दो एफआईआर दर्ज कीं- एक पुलिस पर हमले की और ड्यूटी में बाधा डालने की और दूसरी लिंचिंग की. ये एफआईआर और आस-पास की परिस्थितियां इस तरह से समिति के सदस्य और झारखंड पुलिस द्वारा दो घटनाओं के बारे में जांच पड़ताल में स्पष्ट विरोधाभासों को उजागर करती हैं.

उदाहरण के लिए राज्य पुलिस ने चार मुस्लिम पीड़ितों के परिवार के सदस्यों द्वारा दर्ज की गई शिकायतों के आधार पर कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की. हालांकि नागाडीह लिंचिंग के बाद पुलिस ने दोनों मृतकों, गौतम और विकास के भाई उत्तम कुमार वर्मा की शिकायत के आधार पर मामला दर्ज किया था. इसके अलावा, पुलिस ने नागाडीह घटना में आपराधिक साजिश के आरोप को शामिल किया लेकिन शोभापुर की भीड़ की हिंसा के मामले में ऐसा नहीं किया. शोभापुर प्राथमिकी में भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के तहत आरोप दर्ज नहीं किया गया जिससे उन पर हत्या करने के इरादे का मामला दर्ज हो जाता.

इस चूक का मतलब यह निकलता है कि पुलिस ने तीन हिन्दू मर्दों की नगाडीह में हुई लिंचिंग को एक समंवित और पूर्वनियोजित हमला माना जबकि चार मुस्लिमों की मौत को भीड़ की हिंसा में हुई मौत. चूंकि शोभापुर लिंचिंग को अराजक भीड़ के कारण हुई हिंसा जैसा प्रस्तुत किया गया. न कि एक योजनाबद्ध या प्रेरित हमले के समान. इसलिए हमले के कुछ अभियुक्तों को इस आधार पर जमानत मिल गई कि उनके खिलाफ कोई गंभीर आरोप नहीं थे.

शोभापुर लिंचिंग मामले में पुलिस ने 12 लोगों को गिरफ्तार किया, जिनमें एक परिवार के कई सदस्य-भागीरथ ज्योतिषी, एक उड़िया-ब्राह्मण, जो कि सिराइकेला खरसावां जिले के कमालपुर गांव का निवासी था, उनके बेटे, कांहू ज्योतिषी और बारा कांहूज्योतिषी; साथ ही तीन अन्य, तरुण ज्योतिषी, कृष्ण ज्योतिषी और अरुण ज्योतिषी शामिल हैं. मैंने जून 2017 को कारवां के लिए दो घटनाओं की रिपोर्टिंग की थी. उस समय राजनगर पुलिस स्टेशन के जांच अधिकारी वाईएन तिवारी ने मुझे बताया था कि भागीरथ ने भीड़ जुटाई थी. उन्होंने ब्राह्मण तांत्रिकों - जो एक रहस्यमय हिंदू संप्रदाय का पालन करते थे -के बीच बच्चे की बलि के एक अनुष्ठान का भी उल्लेख किया था जिसने निवासियों के बीच फैली बच्चा उठाने की अफवाह को भड़काने का काम किया था.

जुलाई 2018 में, सिराइकेला खरसावां की एक फास्ट-ट्रैक अदालत ने शोभापुर की घटना के दौरान पुलिस अधिकारियों के काम में बाधा डालने के लिए 12 व्यक्तियों को दोषी ठहराया. दोषियों ने झारखंड उच्च न्यायालय के समक्ष अपील की है और फिलहाल जमानत पर बाहर हैं. शोभापुर लिंचिंग मामले में मुकदमा अभी भी चल रहा है. नागाडीह मामले में, पुलिस के काम में बाधा डालने और लिंचिंग के मामले में कम से कम 27 आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ मामले अभी भी लंबित हैं, जिनमें से अधिकांश आदिवासी समुदायों से हैं. फिर भी, इस साल 7 जुलाई को, मुख्यमंत्री रघुबर दास ने दावा किया, "झारखंड देश का एकमात्र राज्य है, जहां ऐसे मामलों में फास्ट-ट्रैक आधार पर दोषियों को त्वरित सजा दी जाती है."

पुलिस की तरह ही समिति ने, मुस्लिम मर्दों पर हमले के पीछे की मंशा की पहचान करने का कोई प्रयास नहीं किया. रिपोर्ट में उद्धृत किए गए कम से कम दो गवाह, मोहम्मद महुजुद्दीन और अब्दुल हुई हैं - दोनों को शोभापुर के निवासियों ने चार मृतक मुस्लिमों को पशु व्यापारियों के रूप में पहचाना था. उन्होंने समिति के सदस्यों को बताया कि ये चारों शोभापुर से मवेशी खरीदकर अपने पैतृक गांव हल्दीपोखर में साप्ताहिक पशु मेले में बेचते थे. लिंचिंग की घटना के बाद, गैर-लाभकारी संगठन पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज की फैक्टफाइंडिंग दल के सदस्य के रूप में शोभापुर का दौरा कर रहे निशांत अखिलेश के अनुसार, अभियुक्तों में से एक, कांहू ज्योतिषी भी पशु व्यापारी है. जब मैंने जून 2017 में शोभापुर का दौरा किया तो अखिलेश ने मुझे बताया था कि ज्योतिषी, मवेशी व्यवसाय में मृतक मुस्लिम पुरुषों को प्रतिद्वंद्वी मानते हैं. फिर भी, मौजूदा पशु-व्यापार प्रतिद्वंद्विता के इस पहलू का समिति की रिपोर्ट में कोई उल्लेख नहीं है.

इसके बजाय, समिति महुजुद्दीन के बयानों पर भरोसा कर इस निष्कर्ष पर पहुंची कि चारों मुस्लिम पुरुषों ने मवेशियों के मांस की तस्करी की. हालांकि महुजुद्दीन ने इस आशय का कोई बयान नहीं दिया. महुजुद्दीन ने समिति को बताया कि वह खुद एक मवेशी व्यापारी था, और लगभग चार सौ से पांच सौ बैलों को नियमित रूप से मवेशियों के मेले में खरीदारों को बेचा करता था. मवेशियों की कीमत 15000 रुपए से लेकर 18000 रुपए तक थी. फिर उन्होंने नोट किया कि चार लोग भी नियमित रूप से सुबह शोभापुर से बैलों को खरीद कर हल्दीपोखर बाजार में बेचने के लिए जाते थे और अगर वे उनकी बिक्री नहीं कर पाते तो शाम तक मवेशियों को वापस गांव ले आते थे. उन्होंने आगे बताया कि मृतकों में से एक, नईम केवल मजबूत बैलों को खरीदता था ताकि इनका उपयोग खेती के लिए किया जा सके.

महुजुद्दीन ने समिति को बताया था कि चारों लोग जमशेदपुर से मवेशी का मांस भी लाते और हल्दोखर में कसाई को बेचते. लेकिन अपने बयान में उन्होंने कहीं भी समिति को यह नहीं बताया कि चारों लोगों ने मवेशियों को चुराया या उनको मार डाला. उन्होंने "बैल व्यापारी" के रूप में उनकी पहचान की. इसी तरह, अब्दुल हुई ने हलीम की पहचान "बैलों को खरीदने और बेचने के कारोबार में शामिल" के रूप में की. समिति ने पोटका पुलिस स्टेशन के अधिकारी प्रभारी के हवाले से कहा: “हल्दीपोखर में 45 व्यापारी थे, जिनमें से 27 हिंदू समुदाय के और 18 मुस्लिम समुदाय के थे.”

फिर भी, समिति ने अपने निष्कर्ष में लिखा है कि चारों लोग “बैल व्यापारी थे और मवेशी चोरी में भी शामिल थे.” रिपोर्ट में दिए गए सबूतों के बिना समिति ने माना, “वे हल्दीपोखर से जमशेदपुर तक अवैध बूचड़खानों में गाय या बैल का मांस बेचने में मदद करते थे. जानकारी लेते समय और पूछताछ के दौरान यह भी पाया गया कि वे रात में छोटे वाहनों और एम्बुलेंस में मांस ले जाते थे. बच्चे को उठाने वाला होने के संदेह में उन्हें पीट-पीटकर मार डाला गया.”

रिपोर्ट में उद्धृत शोभापुर के किसी भी गवाह ने अपने बयानों में "गाय" का उल्लेख नहीं किया है. पोटका पुलिस थाना प्रभारी ने भी किसी अवैध बूचड़खाने के होने का कोई दावा नहीं किया- हालांकि उन्होंने खुद की बातों को ही काटा. पहले यह बताते हुए कि हल्दीपोखर मवेशी बाजार के अधिकांश व्यापारी मुस्लिम थे, जबकि सटीक आंकड़े स्पष्ट करते थे कि उनमें से 60 प्रतिशत हिंदू थे.

समिति ने अपने निष्कर्ष के समर्थन में एक तर्क पर ध्यान केंद्रित किया कि चार मृतक मुसलमान पशु चोर थे - पूर्वी सिंहभूम के कोवली पुलिस स्टेशन में हलीम के खिलाफ 2015 का मामला दर्ज किया गया था. इस मामले के संदर्भ में, समिति ने कहा कि स्थानीय निवासियों ने उन्हें बताया था, "मवेशी की तस्करी का मामला था." इस साल जुलाई में, मैंने हलीम के भाई शेख सलीम से इस मामले के बारे में बात की. "यह बकरीद का त्यौहार था और हलीम कुछ मवेशियों को बाजार में ले जा रहा था," उन्होंने कहा. "लेकिन हिंदुओं के इलाकों में, दूसरी तरफ से आ रहे एक अन्य वाहन के चालक के साथ उनकी हाथापाई हो गई, जो उन्हें जाने का रास्ता नहीं दे रहा था. किसी ने पुलिस को फोन किया और उन्होंने मेरे भाई को अवैध रूप से मवेशी ले जाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. "

सलीम ने इस बात से इनकार नहीं किया कि उसका भाई पशु व्यापारी था, लेकिन मुझे बताया कि हलीम किसी भी अवैध व्यापार या तस्करी में शामिल नहीं था. उन्होंने समिति को यह भी बताया कि पशु चोर ओडिशा से आए थे और उनके भाई पर गलत आरोप लगाया गया था. इसके अलावा, भले ही 2015 के मामले में केवल हलीम पर आरोप लगाया, समिति ने रिपोर्ट में सभी चार मृतकों को पशु चोर घोषित कर दिया. अपने इस निष्कर्ष के लिए समिति ने कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया. समिति मामले की वर्तमान स्थिति का निर्धारण करने की दिशा में भी कोई प्रयास करती दिखाई नहीं देती. यह मामला अभी भी जमशेदपुर जिला अदालत के समक्ष लंबित है और इसमें कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है. अदालत के समक्ष सूचीबद्ध होने के बावजूद पिछले चार मौकों पर कोई ठोस सुनवाई नहीं हुई. इसे 10 फरवरी 2020 को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है.

समिति की जांच में कई महत्वपूर्ण चूक हुई हैं. मिसाल के तौर पर, शोभापुर के सदर —ग्राम प्रमुख- शेर मोहम्मद ने कहा था कि जब वे चार लोगों पर हमला कर रहे थे, तो "भीड़ में कुछ लोग तलवार लेकर जा रहे थे". जब मैंने जून 2017 में गांव का दौरा किया, तो स्थानीय पुलिस ने मुझे बताया था कि उन्होंने आरोपी व्यक्तियों से कोई हथियार बरामद नहीं किया है. लेकिन समिति के सदस्य हथियारों की मौजूदगी या उनकी बरामदगी न करने के बारे में स्थानीय पुलिस से पूछताछ करने का कोई प्रयास करते दिखाई नहीं दिए. इसके बदले में, कुछ आरोपियों को इस आधार पर जमानत देने का समर्थन किया कि पुलिस ने आरोपी व्यक्तियों से कोई भी सामग्री बरामद नहीं की है.

इसी तरह, समिति भीड़ जुटाए जाने के बारे में शोभापुर के निवासियों द्वारा दी गई स्पष्ट सूचनाओं को नजरअंदाज करती दिखाई दी. ग्राम प्रधान अंता टुडू ने समिति सदस्यों से कहा था कि शोभापुर में लगभग पचास परिवार थे, लेकिन भीड़ में पांच सौ से लेकर एक हजार तक लोग शामिल थे, जिन्होंने उस दिन हर तरफ से गांव को घेर रखा था. यह असंभव लगता है कि सिर्फ 50 परिवारों वाले एक गांव ने अनायास ही उस पैमाने की भीड़ जुटा ली हो. इसके अलावा, मोहम्मद, टुडू और स्थानीय पुलिस ने समिति को बताया कि गांव के आसपास किसी भी तरह पुलिस के आने को रोकने के लिए भीड़ को गांव के आसपास कई समूहों में जुटाया गया था. फिर भी, समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिंचिंग के पीछे आपराधिक साजिश की आशंका का कोई संदर्भ नहीं दिया.

समिति की जांच की एक और महत्वपूर्ण चूक यह रही कि समिति के सदस्य किसी भी संदिग्ध अपराधी या उसके परिजनों से बात करने में स्पष्ट रूप से विफल रहे. सदस्यों ने केवल मृतकों के परिवारों से बात की. रिपोर्ट में दर्ज किए गए परिवार के बयानों में अपराधियों की पहचान के बारे में पूछताछ करने वाले या अपराध के सबूत की तलाश में कोई सवाल नहीं हैं. इसके बजाय, समिति पूरी तरह से एक अलग आज्ञापत्र का पालन करती दिखाई दी यानी यह निर्धारित करते हुए कि गांव में जहां मवेशियों को काटा जाता था क्या मृतक पुरुषों या उनके परिवार का कोई सदस्य गोहत्या के काम में लगा हुआ था और क्या उनमें से कोई मांस भी खाता था.

गवाहों के बयानों की रिपोर्ट के रिकॉर्ड से पूछे गए सवालों की दिशा के बारे में स्पष्ट रूप से पता चलता है. अपने बयानों में गवाह अचानक और बेतरतीब ढंग से, गोमांस की खपत या गोहत्या पर चर्चा करते दिखाई देते हैं. उदाहरण के लिए, हुई के बयान में अंतिम वाक्य में उल्लेख किया गया है : "हम मांस खाते हैं लेकिन इसे खरीदने के लिए हम हल्दीपोखर जाते हैं." तुरंत पहले के वाक्यों में उन्होंने समिति को सूचित किया कि उनके घर में भी तोड़फोड़ की गई थी और उन स्थानों की पहचान की थी जहां चारों व्यक्तियों को मार डाला गया था. इसी तरह शेर मोहम्मद ने घटना के बाद की परिस्थितियों और कैसे भीड़ ने पुलिस पर हमला किया और कैसे भीड़ तलवारें ले जा रही थी का वर्णन करने के बाद अचानक कहने लगते हैं, "शोभापुर में बैल के छोटे व्यापारी हैं." टुडू ने समिति को बताया “गांव में कभी-कभी गाय काटी जाती है. बाइडो नाम का एक व्यक्ति इनको काटा करता है. मैं उसका पूरा नाम नहीं जानता. वह घर से ही मांस बेचता है.” नागाडीह में पशु वध या हिंदू पीड़ितों या उनके परिवारों की आहार संबंधी आदतों पर गौर करने की ऐसी कोई कोशिश नहीं की गई थी.

समिति, स्थानीय पुलिस और जिला प्रशासन के पक्षपाती दृष्टिकोण भी दोनों घटनाओं के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों के चित्रण में स्पष्ट रूप से उजागर हुए थे. 19 मई 2017 को जमशेदपुर और उसके आसपास के मुस्लिम समूहों और हिंदू निवासियों ने लिंचिंग के खिलाफ अलग-अलग विरोध प्रदर्शन किए. मुस्लिम समूहों ने चार लोगों की मौत के खिलाफ चार इला​कों जमशेदपुर-घाटकीडीह, बिष्टुपुर, मानगो और आजाद नगर क्षेत्र में विरोध किया और हिंदुओं ने शहर के जुगसलाई इलाके में विरोध प्रदर्शन किया.

जुगसलाई में हिंदू परिवारों के समर्थकों ने जमशेदपुर में टाटा स्टील कंपनियों के आदिवासी कर्मचारियों पर हमला किया था. पूर्वी सिंहभूम जिला प्रशासन द्वारा शोभापुर लिंचिंग पर रिपोर्ट में कहा गया है, "समाज को आदिवासियों और गैर-आदिवासियों में विभाजित करने के लिए असामाजिक तत्वों द्वारा लिंचिंग की घटना का इस्तेमाल किया गया था." यह भी उल्लेख किया गया कि तीन पीड़ित परिवारों के समर्थकों ने आदिवासी समुदाय के दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोगों को पीटा. पुलिस ने हमलावरों पर भारतीय दंड संहिता के तहत सरकारी अधिकारियों के काम में बाधा डालने, उनकी जान को जोखिम में डालने, हत्या के प्रयास और गैरकानूनी रूप से इकट्ठा होने के अपराधों के तहत मामला दर्ज किया. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत कोई मामला दर्ज नहीं किया गया.

मुस्लिम समुदाय के प्रदर्शनकारियों के साथ दूसरी तरह का व्यवहार किया गया. कई अन्य आरोपों के साथ, पुलिस ने उन पर सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने और धार्मिक भावनाओं का अपमान करने के इरादे से तोड़फोड़ करने के अपराध के तहत भी मामला दर्ज किया. इसके निहितार्थ स्पष्ट हैं - मुस्लिम प्रदर्शनकारियों पर न केवल गैरकानूनी रूप से इकट्ठा होने जिसके कारण दंगा हो सकता था और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सरकारी अधिकारी के काम में बाधा पड़ सकती थी, का मामला दर्ज किया गया बल्कि सांप्रदायिक तत्वों के रूप में धार्मिक वैमन्सय पैदा करने का मामला भी दर्ज किया गया. इसके अलावा भारतीय दंड संहिता के तहत अपराधों के अलावा मुस्लिम प्रदर्शनकारियों को सार्वजनिक संपत्ति अधिनियम को नुकसान पहुंचाने की धारा 3 के तहत भी मामला दर्ज किया गया था.

विरोध प्रदर्शनों के प्रति समिति का पूर्वाग्रह सबसे स्पष्ट था. इसने अपनी रिपोर्ट के एक महत्वपूर्ण हिस्से में मुस्लिमों द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों की जांच को भी शामिल किया. इससे आगे समिति की रिपोर्ट पूरी तरह से असंतुलित दावे पर पहुंच गई कि मुस्लिम एकता मंच नाम का एक छोटा, स्थानीय संगठन जो समिति के अनुसार ही विरोध प्रदर्शनों की धुरी था, चरमपंथी आतंकवादी समूह इंडियन मुजाहिदीन के समान एक इकाई बन सकता है. समिति ने मंच के सदस्यों को "अपराधी" के रूप में भी चित्रित किया, जो वन और सरकारी भूमि को हथियाने के काम में शामिल थे.

रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि मुस्लिम एकता मंच ने दंगों और सांप्रदायिक दुश्मनी के इरादे से, लिंचिंग की घटना के बाद विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई थी. इसने मंच के दो दर्जन से अधिक संदिग्ध सदस्यों की पहचान की, उनके घर के पते का खुलासा किया और उन तिथियों और स्थानों को सूचीबद्ध किया जहां संगठन ने मई 2017 में बैठकें आयोजित की थीं. यह दावा किया गया कि लिंचिंग का उपयोग मुस्लिम संगठन द्वारा लोगों को "भड़काने" के लिए किया गया.

कमेटी ने मुस्लिम एकता मंच के संस्थापक सदस्य के रूप में छह लोगों, आफताब अहमद सिद्दीकी, फिरोज खान, बाबर खान, जाकी आजमल सोनू, नुरुल हक और यूसुफ पटेल को नामजद किया. समिति के अपने निष्कर्षों के अनुसार, मंच ने राज्य की राजनीतिक पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यालय में अपनी 11 बैठकों में से एक का आयोजन किया था. सिद्दीकी पूर्व में बीजेपी नेता और पूर्वी सिंहभूम में पार्टी की जिला अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष थे. मई 2019 के आम चुनावों के बाद सिद्दीकी ने पूर्वी सिंहभूम जिले के मुस्लिम-बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए अल्पसंख्यक-सेल अध्यक्ष के रूप में अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके तुरंत बाद वे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन में शामिल हो गए.

मुस्लिम एकता मंच के बारे में समिति का विवरण इसके बारे में मीडिया रिपोर्टों या संगठन के वीडियो से मेल नहीं खाता जो अभी भी सार्वजनिक डोमेन पर उपलब्ध हैं. मीडिया रिपोर्टों ने मंच को एक संगठन के रूप में चित्रित किया है जिसे धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था. जून 2017 में हिंदी समाचार पत्र हिंदुस्तान ने बताया : "मंच का गठन पोखरिया की घटना के बाद कई राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के मुस्लिम नेताओं द्वारा किया गया था." (अप्रैल 2017 में, हिंदू संगठनों ने झारखंड और पश्चिम बंगाल की सीमा पर स्थित पोखरिया गांव में कुछ मुस्लिम परिवारों के घरों को जला दिया था और उनके धार्मिक स्थलों को नष्ट कर दिया था.) हिंदुस्तान की रिपोर्ट में कहा गया है, "इससे पहले इस का अस्तित्व नहीं था. मंच ने शोभापुर और नागाडीह में हुई लिंचिंग की घटनाओं का मुद्दा उठाया."

मई 2017 में उर्दू दैनिक सियासत ने 7 मई को जमशेदपुर के गांधी मैदान में मंच द्वारा आयोजित एक रैली के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की. इस रिपोर्ट में 60000 से अधिक लोगों ने भाग लिया था और शांतिपूर्ण तरीके से देश भर में मुसलमानों पर हो रहे हमलों के बारे में चर्चा की थी. यह कहा गया कि भीड़ अपने हाथों में राष्ट्रीय ध्वज भी लिए हुए थी. यूट्यूब पर पोस्ट किए गए रैली के एक वीडियो में भीड़ को खड़े होकर "सारे जहां से अच्छा," गीत गाते हुए और भारतीय ध्वज को अपने हाथों में पकड़े हुए दिखाया गया है.

मंच अब अ​स्तित्व में नहीं है. जून 2017 में, समिति की सिफारिश के बाद, संगठन को उसके संस्थापकों द्वारा भंग कर दिया गया. मैं इसके किसी भी संस्थापक से बात कर पाने में सफल नहीं हो पाया क्योंकि संगठन के विघटन के तुरंत बाद लिंचिंग के विरोध में उनकी भूमिका के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. मंच के दो दर्जन से अधिक सदस्य अभी भी मुकदमे का सामना कर रहे हैं और उनकी जमानत की अर्जी कई बार खारिज हो चुकी है. सलीम ने मुझे बताया कि वह विरोध प्रदर्शन के लिए गिरफ्तार किए गए लोगों में से एक को जानता है और उस आदमी को इस साल जून में जमानत पर रिहा कर दिया गया था. "जिन लोगों ने लिंचिंग की थी उनसे ज्यादा तो लिंचिंग का विरोध करने वाले जेल में रहे.”