मुजफ्फरपुर आश्रय गृह मामला : सीबीआई ने की बिहार पुलिस के महत्वपूर्ण सुरागों की अनदेखी, नहीं बनाया बड़े अधिकारियों को आरोपी

1 दिसंबर 2018 को बिहार में पूर्व समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा को बेगूसराय की अदालत में घर में अवैध हथियार रखने के एक मामले में पेश किया गया. मंजू ने अगस्त 2018 में राज्य मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था. रिपोर्ट के अनुसार मंजू वर्मा के पति चंद्रशेखर वर्मा के मुजफ्फरपुर आश्रय गृह मामले के मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर के साथ घनिष्ठ संबंध थे. मामले में आरोपी बनने के बाद मंजू फरार हो गई थीं. जांच के दौरान उनके घर में हथियार होने का पता चला था. पीटीआई
29 January, 2020

 28 जनवरी 2020 को दिल्ली के साकेत की एक विशेष अदालत ने बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित आश्रय गृह से संबंधित एक मामले में दोषी ठहराए गए 19 लोगों को सजा सुनाए जाने को 4 फरवरी तक ले लिए टाल दिया. एक सप्ताह पहले ही यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण कानून, 2012 (पॉस्को) के तहत इस मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा आरोपित 21 आरोपियों में से दो को अदालत ने दोषी ठहराया था. इस मामले में कारवां की पड़ताल से पता चलता है कि सीबीआई ने बिहार पुलिस द्वारा पर्यवेक्षण रिपोर्ट में दिए गए कई सुरागों की जांच नहीं की. पुलिस ने एजेंसी से पहले जांच की थी. कारवां के पास मौजूद रिपोर्ट में कम से कम नौ लोगों के नाम शामिल थे. इन लोगों में राज्य प्रशासन के वरिष्ठ सदस्य, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, बिहार के तत्कालीन कैबिनेट मंत्री और यूनिसेफ के एक सलाहकार तथा कुछ अन्य लोग हैं. इन्हें 2013 से 2018 के बीच आश्रय गृह में तीस से अधिक नाबालिगों के यौन और शारीरिक शोषण के बारे में कथित तौर पर जानकारी थी. यह मामला अप्रैल 2018 में प्रकाश में आया था, जब टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) ने एक स्वतंत्र ऑडिट किया था. उस ऑडिट में बिहार के 17 ऐसे आश्रय गृहों की पहचान की गई थी जहां की स्थिति अपमानजनक थी. इसमें मुजफ्फरपुर का आश्रय गृह “बालिका गृह” भी था. इसका संचालन ब्रजेश ठाकुर करता था. अदलात ने ठाकुर को मामले में दोषी पाया है.

 राज्य पुलिस द्वारा प्रस्तुत महत्वपूर्ण साक्ष्यों की जांच करने में सीबीआई की विफलता एक पैटर्न को दर्शाती है : कारवां ने पहले यह खुलासा किया था कि नाबालिगों के बयान सीबीआई के इस दावे का खंडन करते हैं कि आश्रय गृह में कोई हत्या नहीं हुई. अगर एजेंसी जानबूझकर इनकी अनदेखी नहीं करती तो बिहार सरकार के समाज-कल्याण विभाग और कई हाई-प्रोफाइल नेता फंस सकते थे.

 जांच की पर्यवेक्षण रिपोर्ट मुजफ्फरपुर शहर के तत्कालीन पुलिस उपाधीक्षक मुकुल रंजन ने तैयार की थी. रंजन ने मुजफ्फरपुर से जुड़ा मामला दर्ज होने के एक महीने बाद, 3 जुलाई 2018 को रिपोर्ट पर हस्ताक्षर किए. जुलाई 2018 के अंत में नीतीश कुमार सरकार की सिफारिश पर, सीबीआई ने बिहार पुलिस से इस जांच को अपने हाथों में ले लिया. सीबीआई को औपचारिक रूप से 28 जुलाई को यह मामला सौंप दिया गया था और उसी दिन राज्य पुलिस ने बिहार की एक स्थानीय अदालत के समक्ष मामले में आरोपपत्र दायर किया था. एक हफ्ते से भी कम समय बाद, अगस्त 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने जांच की निगरानी करने का फैसला किया और एजेंसी से नियमित अपडेट देने के लिए कहा. मामले में मुकदमे की सुनवाई पहले जुलाई 2018 में बिहार की एक स्थानीय अदालत में हुई, लेकिन बाद में शीर्ष अदालत के आदेश पर इसे फरवरी 2019 में साकेत कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया.

 मार्च 2019 में, जब सीबीआई की जांच चल ही रही थी, पटना की पत्रकार निवेदिता झा ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर आरोप लगाया कि एजेंसी की जांच में “लीपापोती” की गई है और इसमें साक्ष्य के विभिन्न पहलुओं की अनदेखी हुई है. झा की याचिका में कहा गया है कि आश्रय गृह में नाबालिगों की हत्या और नाबालिगों के साथ दुर्व्यवहार और तस्करी में नेताओं, अधिकारियों और बाहरी लोगों की कथित संलिप्तता के बारे में मिले सुरागों की सीबीआई ने अनदेखी की. अदालत ने एजेंसी को जून 2019 में झा के दावों पर गौर करने का आदेश दिया. इस साल जनवरी में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि उसने उन सभी आश्रय गृहों की जांच पूरी कर ली है जिन्हें टिस के ऑडिट में नामित किया गया था. सीबीआई ने अदालत को बताया कि "सभी 35 लड़कियां जीवित हैं" और झा द्वारा लगाए गए आरोपों का कोई सबूत नहीं है.

 पर्यवेक्षण रिपोर्ट के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं. रिपोर्ट में पीड़िताओं, ठाकुर के एक पड़ोसी, तत्कालीन बाल संरक्षण अधिकारी और दोषी व्यक्तियों में से एक रवि कुमार रौशन, एक स्वतंत्र गवाह के बयान और मामले में पहली जांच अधिकारी ज्योति कुमारी की टिप्पणी और निष्कर्ष तथा रंजन द्वारा की गई सिफारिशें शामिल हैं. इसमें विभिन्न ऐसे सुराग भी शामिल हैं जो अतुल प्रसाद (वरिष्ठ आईएएस अधिकारी), राज कुमार (राज्य के समाज कल्याण विभाग के अधिकारी), आईएएस कार्यालय और समाज कल्याण निदेशालय के निदेशक, समाज कल्याण की तत्कालीन राज्य मंत्री मंजू वर्मा और यूनिसेफ के एक सलाहकार राकेश कुमार सहित अन्य लोगों की अपराध में संभावित संलिप्तता की ओर इशारा करते हैं.

 फिर भी सीबीआई ने इन संभावित संदिग्धों के बारे में पुलिस के किसी भी सुराग की जांच नहीं की. सीबीआई ने पुलिस की पर्यवेक्षण रिपोर्ट में शामिल किसी भी वरिष्ठ अधिकारी या मंत्री का नाम चार्जशीट में दर्ज नहीं किया. इसके विपरीत, कई मामलों में लगभग सभी अधिकारी अपने-अपने पदों पर अभी भी बने हुए हैं. वर्मा राजनीति में सक्रिय हैं. 2019 में हुए लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान वर्मा को केंद्रीय कैबिनेट मंत्री गिरिराज सिंह के साथ मंच साझा करते हुए देखा गया था. पर्यवेक्षण रिपोर्ट इस बात पर भी काफी चर्चा की गई थी कि ठाकुर ने वित्तीय साम्राज्य का निर्माण कैसे किया और सरकारी कार्यालयों में सुरक्षित पैठ बनाने के लिए उसने क्या तरीके अपनाए. हालांकि सीबीआई की चार्जशीट इन सभी पहलुओं पर चुप रही.

 रिपोर्ट के कुछ प्रमुख निष्कर्ष रौशन के उन सत्यापित बयानों पर आधारित हैं जो उसने तब दिए थे जब उसे पहली बार जून 2018 में बिहार पुलिस द्वारा रिमांड में लिया गया था. जांच के दौरान आश्रय गृह की कम से कम दस नाबालिगों ने रौशन पर यौन शोषण का आरोप लगाया था. सीबीआई ने यौन दुर्व्यवहार से संबंधित कई अपराधों में भारतीय दंड संहिता और पॉस्को कानून के तहत उसके खिलाफ आरोपपत्र दायर किया. बिहार पुलिस द्वारा की गई पूछताछ के दौरान रौशन ने जांचकर्ता ज्योति कुमारी को बताया था कि 31 मई 2018 को पहली सूचना रिपोर्ट दर्ज होने से पहले, “26.05.2018 को मुख्य सचिव अतुल प्रसाद द्वारा एक राज्य-स्तरीय बैठक बुलाई गई थी. उस बैठक में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान के कोशिश टीम के निदेशक ने रिपोर्ट पर एक प्रस्तुति दी थी.” मार्च 2018 की ऑडिट रिपोर्ट में यह दर्ज किया गया था. रौशन ने आगे बताया, "वहां सा (बैठक से) 26.05.2018 को सहायक निदेशक देवेश शर्मा अकेले बालिका गृह गए.”

 शर्मा को मुजफ्फरपुर में 4 अगस्त 2017 को नियुक्त किया गया था. उन्होंने मामले में पहली शिकायत 30 मई 2018 को दर्ज की. सीबीआई को दिए अपने बयान में, जिसे सितंबर 2018 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत एक एजेंसी निरीक्षक द्वारा दर्ज किया गया था, शर्मा ने कहा कि उन्होंने "25.10.17, 06.12.17, 03.01.18, 05.02.2018 को बालिका गृह का निरीक्षण दौरा दल के हिस्से के रूप में किया था.” किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) कानून, 2015 के तहत इस तरह के प्रत्येक आश्रय का निरीक्षण सरकारी अधिकारियों, जिला मजिस्ट्रेटों और सिविल सर्जन की टीम द्वारा किया जाता है. शर्मा इनमें से किसी भी दौरे में आश्रय गृह में कुछ अनुचित होने की रिपोर्ट करने में विफल रहे थे. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि शर्मा ने सीबीआई को यह नहीं बताया कि उन्होंने 26 मई को आश्रय का दौरा किया था.

 26 से 30 मई के बीच घटनाओं का क्रम, रौशन के कथन के अनुसार, ज्यादा स्पष्ट हो जाता है. उसने जांचकर्ताओं को बताया कि “27.05.2018 को सहायक निदेशक देवेश शर्मा, मारुति नंदन, सीपीओ... एनआईसी ने पेट्रोलिंग मजिस्ट्रेट के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया था. 28.05.18 और 29.05.2018 को तीन लोग” वित्तीय मामलों से संबंधित प्रशिक्षण कार्यक्रम में गए थे.

 पर्यवेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, रंजन ने शर्मा के आचरण को संदिग्ध पाया था. निष्कर्ष में उन्होंने कहा, "एफआईआर दर्ज होने से पहले घटना में शिकायतकर्ता अकेले बालिका गृह गया था, जिसकी जांच होनी चाहिए. अगर 26.05.2018 को देवेश शर्मा अकेले बालिका गृह गए, तो उन्होंने उस समय कोई कार्रवाई क्यों नहीं की या अपने वरिष्ठों को कोई जांच रिपोर्ट क्यों नहीं दी? इसकी भी जांच होनी चाहिए." सीबीआई ने कभी इस बात की आगे जांच नहीं की कि शर्मा अकेले बालिका गृह गए थे या वह प्रसाद के आदेश पर काम कर रहे थे. एजेंसी ने यह भी जांच नहीं की कि राज्य स्तरीय बैठक के एक दिन बाद, जिसकी अध्यक्षता प्रसाद ने की थी, शर्मा को दो-दिवसीय प्रशिक्षण पर क्यों भेजा गया था और उन्हें 30 मई को वापस बुलाकर मामले में शिकायतकर्ता बनाया गया.

 रंजन ने रिपोर्ट में जांचकर्ता को “देवेश शर्मा के कार्यालय से बालिका गृह से संबंधित सभी रिकॉर्डों को जब्त कर...जांच करने” का निर्देश दिया था. सीबीआई ने इस पहलू को तब तक नजरअंदाज किया जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने 20 सितंबर 2018 को एजेंसी को समाज-कल्याण विभाग के सभी रिकॉर्ड जब्त करने और मामले में विभाग की संस्थागत भागीदारी पर गौर करने का निर्देश नहीं दिया. लेकिन जब सीबीआई ने दिसंबर 2018 में अपनी चार्जशीट दायर की, जो कारवां के पास उपलब्ध है, यह विभाग के ऐसे किसी भी रिकॉर्ड पर या शर्मा की जांच चुप था. सीबीआई की चार्जशीट में शर्मा की भूमिका का कोई उल्लेख नहीं है. अप्रैल 2019 में जाकर एजेंसी ने शीर्ष अदालत को बताया कि उसने समाज-कल्याण विभाग से दस्तावेज एकत्र कर लिए हैं और उन अधिकारियों के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया है जिनके खिलाफ उन्हें सबूत मिले थे. सीबीआई का यह हलफनामा मार्च 2019 में दायर झा के आवेदन के जवाब में था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय को एजेंसी को 20 सितंबर के अदालत के आदेश का पालन करने का निर्देश देने के लिए कहा गया था. सीबीआई के आरोपपत्र में किसी भी उस अधिकारी को शामिल नहीं किया गया है, जिनके नाम रौशन ने पूछताछ में बताए थे.

 प्रसाद भी इससे अछूते नहीं रहे. जनवरी 2019 में मीडिया को दिए एक साक्षात्कार में, प्रसाद ने 26 मई को आयोजित बैठक के बारे में बात की और कहा, “रिपोर्ट हमें अंग्रेजी में लिखी गई सॉफ्ट कॉपी के रूप में भेजी गई थी. हम इस बात से अंजान थे कि अपमानजनक व्यवहार या उपेक्षा किस हद तक थी, लेकिन समस्याग्रस्त आश्रय गृहों की पहचान करने में सक्षम थे. इसलिए मैंने राज्य के सभी समाज कल्याण विभागों के अधिकारियों को पटना मुख्यालय बुलाया, उन्हें एक प्रस्तुति सुनाई, प्रतियां वितरित की और उन्हें तुरंत कार्य करने के लिए कहा.” लेकिन प्रसाद के विभाग ने पुलिस को बैठक के पूरे चार दिन बाद लिखा, जब शर्मा ने शिकायत दर्ज की. इसके अलावा, इससे पहले कि पुलिस बालिका गृह जाती और पीड़ितओं की जांच कर सबूत हासिल करती, 29 मई 2018 को प्रसाद ने आदेश दिया कि बालिका गृह की नाबालिगों को अन्य गृहों में स्थानांतरित कर दिया जाए. नतीजतन, प्राथमिकी दर्ज होने से पहले ही अज्ञात संख्या में नाबालिगों को अन्य स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया गया था. साक्षात्कार के दौरान, प्रसाद ने तर्क दिया कि उन्हें उनके "व्यक्तिगत आदेश" पर स्थानांतरित किया गया था और विभाग के कई अधिकारियों को इसका पता नहीं था क्योंकि उनका मानना था कि "हमारे अपने कुछ लोग इसमें शामिल थे." इसको लेकर प्रसाद की सीबीआई द्वारा कभी जांच नहीं की गई थी.

 रंजन की रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया था : “आश्चर्य की बात है कि राज्य स्तरीय बैठक के बाद भी मुजफ्फरपुर बालिका गृह में हो रही अस्वाभाविक गतिविधियों पर तुरंत कोई कार्रवाई नहीं की गई.” लेकिन, सीबीआई ने फिर से इस बात की जांच पड़ताल नहीं की कि "राज्य स्तरीय बैठक" के दौरान टिस की रिपोर्ट के औपचारिक रहस्योद्घाटन के बाद भी प्रसाद ने क्यों तत्काल कार्रवाई के आदेश नहीं दिए. प्रसाद अभी भी समाज-कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव हैं और अतिरिक्त मुख्य सचिव भी हैं. जब मैंने उनसे संपर्क किया, तो उन्होंने कहा कि मुझसे बात करने के लिए उनके पास "समय नहीं" है.

 रौशन ने अपनी पर्यवेक्षण रिपोर्ट में यूनिसेफ के एक सलाहकार राकेश कुमार का नाम भी दिया, जो समाज-कल्याण निदेशालय के समन्वय में काम करता है. इसमें कहा गया है कि रौशन ने ''बताया कि बाल संरक्षण इकाई के निदेशक देवेश शर्मा हैं और यूनिसेफ के सलाहकार राकेश कुमार जो पुराने सचिवालय में सिंचाई भवन निदेशालय में काम करते हैं. एक अन्य प्रमोटर राजेश रंजन, जिसके बारे में सेवा संकल्प से अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है, उसे भी इसके बारे में जानकारी थी.” सेवा संकल्प एनजीओ ही आश्रय गृह का संचालन कर रहा रहा था. रौशन ने “हमें सुनील झा नामक एक अन्य व्यक्ति के बारे में भी बताया जिसे बालिका गृह में क्या हो रहा था लेकिन फिर भी खामोश रहा.”

 समाज कल्याण विभाग में एकीकृत बाल संरक्षण योजना की सहायक निदेशक पूनम सिन्हा के अनुसार, राकेश 8 अक्टूबर 2015 को हुए बालिका गृह के निरीक्षण का भी हिस्सा थे. सिन्हा ने अक्टूबर 2018 में सीबीआई को दिए अपने बयान में यह जानकारी दी थी. सिन्हा के बयान में कहा गया है कि राकेश ने रौशन और समाज-कल्याण विभाग की सहायक निदेशक संगीता भगत की उपस्थिति में निरीक्षण किया. सिन्हा ने यह भी कहा कि राकेश को तब आश्रय गृह में कई खामियां मिली थीं. उन्होंने आश्रय गृह में बुनियादी ढांचे, स्वच्छता, भोजन की मात्रा, शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण की आलोचना की थी. उनके कथन के अनुसार, उन्होंने बालिका गृह पर राकेश की रिपोर्ट को तत्कालीन प्रमुख सचिव को भेज दिया था.

 यूनिसेफ ने ही भारतीय राज्यों में विशेष जिला-स्तरीय बाल-संरक्षण निकाय बनाने के मॉडल की कल्पना की थी और डिजाइन बनाया था. यूनिसेफ द्वारा जुलाई 2009 में एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, बिहार भारत का पहला राज्य है जिसने "जिला बाल सुरक्षा इकाई की स्थापना की सूचना दी है." ये इकाइयां राज्यों में बालिका गृह जैसे आश्रय गृहों को अनुदान देने वाली केंद्र सरकार की एकीकृत बाल संरक्षण योजना के लिए कार्यान्वयन प्राधिकरण भी हैं. यूनिसेफ इंडिया की संचार डेस्क ने कुमार के बारे में पूछे गए मेरे प्रश्नों का इस रिपोर्ट के प्रकाशन के समय तक कोई जवाब नहीं दिया था.

 राकेश के संबंध में, पर्यवेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है, “एनजीओ से जुड़े सभी परामर्शदाताओं/ सलाहकारों की एक सूची बनाई जानी चाहिए और पर्यवेक्षक के सामने पेश की जानी चाहिए ताकि विशेष जांच दल उनसे पूछताछ कर सके.” सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में न तो आरोपी के रूप में और न ही गवाह के रूप में राकेश का नाम लिया.

 राकेश और शर्मा के अलावा, रौशन ने दो अन्य वरिष्ठ अधिकारियों का नाम भी लिया था. जिनमें से एक नाम बाल-संरक्षण इकाई के सेवानिवृत्त निदेशक सुनील कुमार का था और दूसरा बाल-संरक्षण इकाई के तत्कालीन निदेशक राज कुमार का, जो समाज-कल्याण निदेशालय के प्रभारी निदेशक थे और सामाजिक-सुरक्षा विंग का अतिरिक्त प्रभार भी उन पर था. अगस्त 2018 में हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट में सीबीआई के एक अज्ञात अधिकारी के हवाले से कहा गया कि एजेंसी राज कुमार से पूछताछ करेगी. उसी महीने द टेलीग्राफ अखबार में छपी एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया कि सुनील कुमार ने इस मामले के गर्म होते ही अपना आधिकारिक आवास खाली कर दिया था.

 रंजन की पर्यवेक्षण रिपोर्ट सुनील कुमार और राज कुमार पर भारी पड़ी. रिपोर्ट कहती है कि "वे जानते थे कि एक प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है, फिर भी कभी भी आंतरिक जांच का आदेश नहीं दिए गए.” रंजन ने जांचकर्ता को "पूर्व निदेशक सुनील कुमार और वर्तमान निदेशक राज कुमार से पूछताछ करने और दैनिक केस डायरी में तथ्यों को नोट करने का निर्देश दिया था." हालांकि, मामले के कानूनी कागजात में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह सुझाव दे कि सीबीआई ने कभी कुमार से पूछताछ की. सीबीआई द्वारा दोनों में से किसी पर भी आरोप नहीं लगाया गया. सुप्रीम कोर्ट में एजेंसी के आवेदनों में इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि सीबीआई ने आंतरिक जांच के आदेश देने में दो लोगों की विफलता की जांच की या नहीं. राज कुमार अब समाज-कल्याण निदेशालय और विकलांग व्यक्तियों के सशक्तीकरण के निदेशालय के निदेशक हैं. वह राज्य के समाज-कल्याण विभाग में पदानुक्रम में तीसरे स्थान पर हैं. कई कॉल के बावजूद राज कुमार ने कोई जवाब नहीं दिया. फिलहाल सुनील कुमार के ठिकाने का पता नहीं है.

 दिलचस्प बात यह है कि रौशन ने पूछताछ करने वाली अधिकारी को यह संकेत भी दिया था कि आईसीपीएस की पूनम सिन्हा भी संभवतः सह अपराधी हैं. उसने सिन्हा के पूर्व राज्य कैबिनेट मंत्री मंजू वर्मा से संबंध बताए थे. पर्यवेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है, “आगे रौशन ने कहा कि मंजू वर्मा, अमरेश कुमार अमर (मंत्री के पीए) और पूनम सिन्हा, जो पहले बाल जिला सुरक्षा अधिकारी थीं और अब मंत्रालय में सहायक निदेशक हैं, पूनम ही सभी निदेशकों से बात करती थी.” रौशन ने आरोप लगाया कि उनके खिलाफ गवाह के बयान, वर्मा और सिन्हा द्वारा एक “साजिश”का नतीजा थे, क्योंकि उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कराने वाली काउंसलर सिन्हा की बहन थीं. उन्होंने दावा किया कि वर्मा और सिन्हा खुद को बचाने के लिए उसे फंसाने की कोशिश कर रहे हैं.

अदालत के समक्ष पेश सीबीआई के आरोपपत्र और हलफनामे से पता चलता है कि एजेंसी ने वर्मा और सिन्हा के बीच संबंध की कभी जांच नहीं की. दरअसल, सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में सिन्हा को आरोपी के बजाये गवाह में बदल दिया. जब मैं सिन्हा के पास पहुंचा, तो उन्होंने कहा, “मैं इस मामले पर बात नहीं करना चाहूंगी.” सीबीआई को दिए अपने बयान में, सिन्हा ने कहा था कि वर्मा ने खुद 14 मार्च 2016 को निरीक्षण किया था और तत्कालीन सहायक निदेशक, रोजी रानी ने निरीक्षण के बारे में समाज-कल्याण विभाग को सूचित किया था.

 रानी को 2015 और 2017 के बीच उनके कार्यकाल के दौरान यौन दुर्व्यवहार की रिपोर्ट करने में विफलता के लिए आरोपित और दोषी ठहराया गया था. कई गवाहों के बयानों में कहा गया है कि उन्होंने रानी को यौन शोषण के बारे में कई बार जानकारी दी थी लेकिन उन्होंने कभी भी नाबालिगों की शिकायतों पर एक्शन नहीं लिया. दिलचस्प बात यह है कि बिहार पुलिस ने रानी को मामले में आरोपी नहीं बनाया था. दूसरी ओर, पुलिस ने मई 2018 में एफआईआर दर्ज होने के तुरंत बाद समाज-कल्याण विभाग द्वारा उसके निलंबन पर सवाल उठाया था. पर्यवेक्षण रिपोर्ट में, रंजन ने पहली जांच अधिकारी ज्योति कुमारी को निर्देश दिया था, “एफआईआर दर्ज होने के बाद रानी को निलंबित क्यों किया गया, इसकी जांच की जाए.” पर्यवेक्षक ने कुमारी से रानी को पूछताछ के लिए नोटिस भेजने और अपना बयान दर्ज करने के लिए कहा. यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि देवेश शर्मा, जिन्होंने अगस्त 2017 में अपने स्थानांतरण के बाद रानी का पद संभाला था, के खिलाफ सीबीआई ने दुर्व्यवहार की रिपोर्ट करने में विफलता के लिए आरोपपत्र नहीं दायर किया. समाचार रिपोर्टों के अनुसार, शर्मा को 6 अगस्त 2018 को "सभी आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई में देरी करने के लिए" निलंबित कर दिया गया था. वर्मा सही सलामत रहे.

 पर्यवेक्षण रिपोर्ट में एक आवेदन के माध्यम से एक स्वतंत्र गवाह के बयान से मिली जानकारियों का भी उल्लेख किया गया है. दोषियों में से एक के वकील सुधीर कुमार ने मुझे बताया कि गवाह ब्रजेश ठाकुर का लंबे समय से कर्मचारी था और एक प्रिंटिंग प्रेस में काम करता था (ठाकुर उसी आश्रय गृह में प्रिटिंग प्रेस भी चलाता था). आवेदन में विस्तार से बताया गया है कि ठाकुर एक दर्जन से अधिक गैर सरकारी संगठनों का संचालन कैसे करता था जिनके अधिकारी या तो उसके रिश्तेदार थे या वे लोग जो मौजूद नहीं थे. स्वतंत्र गवाह ने कुमारी को बताया कि ठाकुर ने अपने राजनीतिक संबंधों के जरिए नियमित सरकारी अनुदान प्राप्त करने के प्राथमिक उद्देश्य के साथ कई गैर सरकारी संगठनों को चलाया. गवाह ने यह भी कहा कि ठाकुर के गैर सरकारी संगठनों के कर्मचारी "वेश्यावृत्ति" में शामिल थे और "निविदाएं प्राप्त करने के लिए लड़कियों की सप्लाई करते थे."

 स्वतंत्र गवाह ने कुमारी को बताया कि ठाकुर ने एक वृद्धाश्रम और और पड़ोसी समस्तीपुर जिले में समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित एक एड्स परियोजना की निविदाएं सरकारी अधिकारियों को "नाबालिग लड़कियों की सप्लाई" करके हासिल की. गवाह ने दावा किया कि ठाकुर ने प्रतियोगिता के बिना दोनों अनुबंध हासिल किए थे क्योंकि विभाग ने इनका सार्वजनिक विज्ञापन नहीं किया था.

 पर्यवेक्षण रिपोर्ट में अपनी सिफारिशों में, रंजन ने "स्वतंत्र गवाह द्वारा दिए गए तथ्यों की गहन जांच" के लिए कहा था. फिर भी, सीबीआई ने इनमें से किसी भी सुराग की जांच नहीं की. आरोपपत्र में यह उल्लेख नहीं है कि ठाकुर को सरकार से कई अनुबंध प्राप्त हुए. वास्तव में, स्वतंत्र गवाह को सीबीआई की चार्जशीट की गवाहों की सूची में भी शामिल नहीं किया गया था.

 दिसंबर 2018 में सीबीआई ने 21 आरोपियों पर अपनी चार्जशीट दायर की. इनमें से 17 ठाकुर के कर्मचारी थे और केवल चार सरकारी अधिकारियों का नाम आरोपपत्र में शामिल था : बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष दिलीप वर्मा (यह एक जिला-स्तरीय निकाय है जिसके पास न्यायिक शक्तियां होती है. यह भागे हुए या परित्यक्त बच्चों को आश्रय देती है), सीडब्ल्यूसी के सदस्य विकास कुमार, बाल-संरक्षण अधिकारी रवि कुमार रौशन और मुजफ्फरपुर जिले की बाल-संरक्षण इकाई की तत्कालीन सहायक निदेशक रोजी रानी. अप्रैल 2019 में, सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक हलफनामा दायर किया जिसमें कहा गया था, “किसी भी ऐसे व्यक्ति को नहीं छोड़ा गया है जिसका नाम पीड़िताओं ने लिया है या जिसकी पहचाना की है.” यह याचिका याचिकाकर्ता निवेदिता झा की प्रतिक्रिया में दायर की गई थी, जिन्होंने आरोप लगाया था कि एजेंसी उच्च अधिकारियों को बचा रही है. सीबीआई ने झा के आरोप से इनकार किया और यह भी कहा, “समाज कल्याण विभाग से एकत्र किए गए दस्तावेजों और पीड़िताओं के बयानों के आधार पर, समाज कल्याण विभाग के अधिकारी को भी आरोपी बनाया गया है और उसके खिलाफ आरोपपत्र दायर किया गया है. समाज कल्याण विभाग के अन्य अधिकारियों की भूमिका का पता लगाने के लिए आगे जांच की जा रही है.” एजेंसी ने पर्यवेक्षण रिपोर्ट में उल्लिखित अधिकारियों में से किसी के भी नाम के साथ अतिरिक्त चार्जशीट दाखिल नहीं की. इससे साफ है कि “आगे जांच” ही नहीं गई.

 जनवरी 2020 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसने बिहार के मुख्य सचिव को 24 जिला मजिस्ट्रेटों और 46 वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के खिलाफ शेष 16 आश्रय गृहों के मामलों में संलिप्तता के चलते अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की सिफारिश भेजी थी. इनमें से कोई भी अधिकारी मुजफ्फरपुर में बालिका गृह मामले से जुड़े लोगों में नहीं था.

 बिहार पुलिस की जांच पर सीबीआई की अनुवर्ती कार्रवाई को लेकर कई सवाल उठते हैं. पहला तो यही कि मामला एजेंसी को क्यों हस्तांतरित किया गया. अगस्त 2018 में, सीबीआई को मामला सौंपने के तुरंत बाद, नीतीश कुमार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. ब्रीफिंग के दौरान नीतीश ने मीडिया को बताया कि बिहार पुलिस ने मामले में "त्वरित और समर्पित" जांच की है और उन्होंने पुलिस बल की सराहना की. जब उनसे पूछा गया कि स्थानीय पुलिस इतना अच्छा काम कर रही है तो उन्होंने मामले को सीबीआई को क्यों हस्तांतरित किया तो मुख्यमंत्री ने जवाब दिया, “धीरे-धीरे हमें लगा कि भ्रम का वातावरण बन रहा है... जब मैंने भ्रम का माहौल देखा तो मैंने इस मामले को सीबीआई को देने का फैसला किया ताकि किसी के मन में कोई संदेह न रहे.” एक अन्य सवाल पर कि वर्मा के खिलाफ जांच का आदेश देने में वह अनिच्छुक क्यों थे, कुमार ने कहा, “मैंने उन्हें फोन किया और इस मामले को समझाने के लिए कहा. उन्होंने हर बात का सीधे-सीधे खंडन किया और वह खुद भी आईं और बताया.” मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि आश्रय गृह से संबंधित सभी निर्णय प्रमुख सचिव के स्तर पर लिए गए थे, न कि “कैबिनेट स्तर पर.”

 मुख्यमंत्री का दावा है कि राज्य मंत्रिमंडल आश्रय गृहों में शामिल नहीं था दो गवाहों के बयानों का खंडन है जो समाज-कल्याण विभाग के अधिकारी थे. देवेश शर्मा के अनुसार, “दिसंबर 2017 तक धन सीधे राज्य सरकार द्वारा बालिका गृह को हस्तांतरित किया गया था.” बालिका गृह 2013 से चालू था. शर्मा ने कहा कि दिसंबर 2017 के बाद से ही धनराशि “जिला बाल संरक्षण इकाई के माध्यम से बालिका गृह को हस्तांतरित होना शुरू हुई थी.” इसके अलावा एक अन्य अधिकारी अंजू सिंह जो उस समय समाज-कल्याण विभाग में कार्यक्रम अधिकारी थीं, ने कहा था कि "समाज कल्याण विभाग, मंत्रिमंडल द्वारा बजट मंजूर किए जाने के बाद, विभिन्न गैर सरकारी संगठनों से लड़के-लड़कियों के लिए बाल गृह चलाने के लिए एक्सप्रेसन ऑफ इंटरेस्ट (गैर सरकारी संगठनों द्वारा बाल गृहों के लिए पात्रता मानदंड) आमंत्रित करता है." सीबीआई ने सितंबर 2018 में सिंह का बयान दर्ज किया जिसमें यह स्पष्ट था कि आश्रय गृहों के मामले में राज्य का मंत्रीमंडल शामिल था.

 जुलाई 2018 से इस मामले से जुड़े एक कार्यकर्ता संतोष कुमार ने मुझे बताया, “जिन लोगों को सीबीआई ने आरोपपत्र में दर्ज किया था और बाद में ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराया गया, वे बाल वेश्यावृत्ति चलाने वाले सिंडिकेट के प्यादे भर थे. जिन नेताओं और नौकरशाहों की सांठगांठ ने इस सिंडिकेट का बचाव किया गया और जिनके लिए बाल वेश्यावृत्ति का संचालन किया जा रहा था, वे अभी भी बाहर हैं.”

पर्यवेक्षण रिपोर्ट के सात पृष्ठों को अनुवाद के साथ नीचे प्रस्तुत किया गया है.