We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing
11 फरवरी को दिल्ली की साकेत विशेष अदालत मुजफ्फरपुर आश्रय गृह मामले में दोषी ठहराए गए 19 लोगों को सजा सुनाएगी. इस मामले पर कारवां की पड़ताल से पता चला है कि प्रभावित नाबालिगों के पुनर्वास की देखरेख जिन नौकरशाहों ने गई थी, उन्हें 2013 से 2018 के बीच आश्रृय गृह में 30 से अधिक नाबालिगों के यौन शोषण की जानकारी थी लेकिन वे फिर भी चुप्पी साधे रहे. कारवां ने ऐसे कम से कम दो नौकरशाहों और तीन वरिष्ठ अधिकारियों की पहचान की है जिन्हें राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के तहत गठित पुनर्वास समिति में शामिल किया. समिति ने 28 अगस्त 2018 को अपनी पहली बैठक की. उनमें से दो नौकरशाहों और एक वरिष्ठ अधिकारी का नाम बिहार पुलिस ने उस साल 3 जुलाई की एक रिपोर्ट में दर्ज किया था और केंद्रीय जांच ब्यूरो ने समिति की पहली बैठक से ठीक एक सप्ताह पहले उनमें से एक के घर छापा मारा था. फिर भी दिसंबर 2018 में दायर एजेंसी के आरोप पत्र में तीनों का नाम नहीं था. अन्य दो अभियोजन पक्ष के गवाह थे.
कारवां के पास उपलब्ध पुनर्वास समिति की बैठकों के मिनट से यह बात सामने आई है. समिति के सदस्यों में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस), अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), राष्ट्रीय मानसिक-स्वास्थ्य संस्थान (निमहांस), यूनिसेफ और बिहार सरकार के प्रतिनिधि शामिल हैं. कमेटी में शामिल अधिकारियों में सबसे चौंकाने वाले नाम राज कुमार, सुनील झा और अतुल प्रसाद के हैं. कुमार भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं और अब समाज कल्याण निदेशालय और दिव्यांग सशक्तीकरण के निदेशालय में निदेशक हैं. राज्य के समाज कल्याण विभाग में उनका औहदा तीसरे स्थान पर है. जैसा कि कारवां ने पिछली रिपोर्ट में बताया था, बिहार पुलिस ने सख्ती से कुमार से पूछताछ की थी और उन्हें आगे की जांच के लिए चिह्नित किया था क्योंकि कुमार को यह पता होने के बावजूद कि "प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है, उन्होंने आंतरिक जांच का आदेश नहीं दिया." पुलिस ने मामले की आगे की जांच के बारे में निष्कर्ष निकालते हुए एक पर्यवेक्षण रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि कुमार से उनकी संदिग्ध भूमिका के लिए तुरंत पूछताछ की जाए. इसके बावजूद कुमार ने पुनर्वास समिति की पहली बैठक की अध्यक्षता की. कुमार को कई फोन कॉल और टेक्स्ट मैसेज किए जाने बावजूद उनका कोई जवाब नहीं मिला.
झा राज्य-स्तरीय सरकारी संस्था, राज्य बाल संरक्षण सोसाइटी में वरिष्ठ सलाहकार हैं. इस संस्था का कार्य बाल-संरक्षण योजनाओं को लागू करना है. झा को पहली बैठक में सरकारी अधिकारियों और बाहरी एजेंसियों के बीच एक समन्वयक के रूप में नियुक्त किया गया था. उनका नाम पहली बार जून 2018 में मामले के आरोपी रवि कुमार रौशन ने लिया था जो बाल संरक्षण अधिकारी के रूप में कार्यरत रहा था. रौशन को यौन शोषण के कई मामलों में दोषी ठहराया गया है. रौशन ने बिहार पुलिस को बताया था कि "सुनील झा नाम के आदमी को भी पता था कि बालिका गृह में क्या हो रहा है और वह अभी तक इसके बारे में चुप है." हालांकि, रिपोर्ट में झा या उनके पदनाम की पहचान नहीं थी. मैंने झा से संपर्क किया और पूछा कि क्या उनका नाम बिहार पुलिस की रिपोर्ट में सामने आया है. "मुझे इसके बारे में पता नहीं है," उन्होंने कहा. जब मैंने पूछा कि क्या बिहार पुलिस ने कभी उनसे पूछताछ की तो उन्होंने मुझसे कहा, “मैं यह नहीं बता सकता. मैं आपसे बात करने के लिए अधिकृत नहीं हूं. जो भी जांच होनी थी वह पहले ही हो चुकी है.” झा ने स्वीकार किया कि सीबीआई ने अगस्त 2018 में उनके घर पर छापा मारा था लेकिन उनसे क्या पूछताछ हुई इस बारे में कुछ भी बताने से इनकार कर दिया. "मैं केवल जांच एजेंसी के लिए जवाबदेह हूं और मैंने उन्हें जवाब दे दिया है."
प्रसाद 2018 में बिहार सरकार के मुख्य सचिव थे और अब अतिरिक्त मुख्य सचिव हैं. उन्होंने 11 अक्टूबर 2018 को आयोजित पुनर्वास समिति की एक बैठक की अध्यक्षता की थी. बिहार पुलिस की रिपोर्ट में प्रसाद का नाम भी आया है और उस रिपोर्ट में उनके आचरण पर संदेह जताया गया था. रिपोर्ट के अनुसार, प्रसाद ने इस घटना का मामला दर्ज होने से चार दिन पहले बिहार के 17 आश्रय गृहों में, जिसमें बालिका गृह भी शामिल था, बच्चों के यौन शोषण पर प्रकाश डालने वाली टिस ऑडिट रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए 26 मई 2018 को राज्य स्तरीय बैठक बुलाई थी. पुलिस ने सवाल किया था कि प्रसाद ने इस मुद्दे पर राज्य स्तरीय बैठक आयोजित करने के बाद भी तत्काल कोई कार्रवाई करने का आदेश क्यों नहीं दिया. प्रसाद ने भी कॉल या टेक्स्ट संदेशों का जवाब नहीं दिया.
जैसा कि कारवां ने पहले रिपोर्ट की है, प्रसाद और कुमार ने ही बालिका गृह में रहने वाली नाबालिगों के स्थानांतरण के प्रसाद और कुमार के फैसलों ने शुरुआत से ही जांच में शामिल नाबालिगों की संख्या के बारे में विभ्रम की स्थिति पैदा की. समाज कल्याण विभाग के सहायक निदेशक देवेश शर्मा के अनुसार, जिन्होंने बालिका गृह के खिलाफ पहली शिकायत दर्ज की थी, कुमार ने ही शिकायत के दो दिन पहले 28 मई को बालिका गृह से सभी नाबालिगों के स्थानांतरण का आदेश दिया था. जनवरी 2019 में एक मीडिया साक्षात्कार में प्रसाद ने तर्क दिया कि यह बदलाव उनके "व्यक्तिगत आदेश" पर किया गया था और विभाग के बहुत से अधिकारियों को जानकारी नहीं थी क्योंकि उनका मानना था कि "हमारे अपने कुछ लोग इसमें शामिल थे."
सर्वोच्च न्यायालय ने बाद में एफआईआर दर्ज होने से पहले समाज कल्याण विभाग के अधिकारियों द्वारा नाबालिगों के तबादले को संदिग्ध पाया और सितंबर 2018 में सीबीआई को जांच के लिए कहा. कारवां की रिपोर्ट के अनुसार, एजेंसी ने इन सुरागों की जांच नहीं की.
कुमार की अध्यक्षता में हुई पुनर्वसन समिति की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि सभी नाबालिगों को फिर से स्थानांतरित किया जाए - उन्हें चार आश्रय गृहों में से एक में स्थानांतरित किया जाना था जहां उन्हें मई में स्थानांतरित कर दिया गया था. यह भी तय किया गया कि उन्हें स्थानांतरित करने से पहले समाज कल्याण विभाग और चिकित्सा संस्थानों के पेशेवरों की एक टीम उन आश्रय गृहों का दौरा करेगी. इस टीम को आश्रय गृहों की क्षमता और स्थिति का आकलन करना था. झा इस टीम के साथ 29 अगस्त को नए स्थान पर सरकार के प्रतिनिधि के रूप में गए.
टिस ऑडिट टीम के प्रमुख और राज्य की पुनर्वास समिति के सदस्य मोहम्मद तारिक ने मुझे बताया कि इस अवधि के दौरान कुछ नाबालिग ने पुनर्वास प्रक्रिया के प्रति अच्छी प्रतिक्रिया दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने टिस की टीम को पुनर्वास योजना के लिए जिम्मेदार बनाया था. 11 अक्टूबर को जब समिति फिर से मिली, प्रसाद ने कुमार और झा की उपस्थिति में बैठक की अध्यक्षता की. इस बैठक में समिति ने मामले में शामिल सभी नाबालिगों को फिर से स्थानांतरित करने का फैसला किया. तारिक ने पुष्टि की कि अंततः नाबालिगों को तीन आश्रय गृहों में भेज दिया गया. गौरतलब है कि सीबीआई ने सितंबर 2018 और दिसंबर 2018 के बीच नाबालिगों के बयानों को दर्ज किया. इस अवधि के दौरान पुनर्वास योजना को रोक दिया गया था और तारिक का निमहांस के निर्देश पर नाबालिगों के साथ कोई संपर्क नहीं रह गया था.
समिति के अन्य दो वरिष्ठ अधिकारी राज्य बाल संरक्षण समिति के कार्यक्रम प्रबंधक एन नैय्यर और एससीपीएस की कार्यक्रम अधिकारी अंजू सिंह हैं. दोनों अभियोजन पक्ष के गवाह थे. समिति की पहली बैठक से तीन हफ्ते पहले नैय्यर ने सीबीआई को बताया कि बालिका गृह के मालिक ब्रजेश ठाकुर द्वारा संचालित एनजीओ को 2013 और 2018 के बीच सरकार द्वारा चार करोड़ रुपए की धनराशि स्वीकृत की गई थी. सिंह ने सितंबर और दिसंबर 2018 में दो अलग-अलग अवसरों पर सीबीआई को बयान दिए थे. सिंह के बयानों में आश्रय गृहों की निगरानी करने वाले प्राधिकरण की श्रृंखला को निर्दिष्ट किया.
मैंने पुनर्वास समिति में दागी सरकारी नौकरशाहों की उपस्थिति के बारे में मामले में एमिकस क्यूरि अपर्णा भट से बात की. उन्होंने मुझे बताया कि वह इससे वाकिफ थी और कहा, "देखिए, एक बार टिस ने इसे अपने हाथ में लिया और वह जिस तरह से काम करना चाहता था राज्य ने उसके तरीके का समर्थन किया. हमने सोचा कि यह ठीक है." भट ने कहा कि वह चाहती थीं कि पुनर्वास योजना की अदालत द्वारा निगरानी जारी रखी जाए लेकिन टिस सहमत नहीं था. “लेकिन फिर आखिरकार टिस एक प्रतिष्ठित संस्थान है. इसलिए जब तक बच्चों का ध्यान रखा जाता है तो हमने सोचा यह ठीक है.
तारिक ने मुझे बताया, “हम केवल एक बात पर उनेके खिलाफ थे. वह चाहती थीं कि बच्चे संस्थानों में बने रहें और हम चाहते थे कि एक बार जांच पूरी होने के बाद बच्चों को घर वापस जाने दिया जाए. ऐसा इसलिए था क्योंकि बच्चे खुदकुशी कर रहे थे. वे खुद को काट रहे थे, दांतों से काट रहे थे, शीशे तोड़ रहे थे, दुपट्टे से अपना गला घोंट रहे थे और भी कुछ कर रहे थे.” तारिक ने मुझे बताया कि कानूनी रुख अपनाना एक चीज है लेकिन सदमा झेल रहे नाबालिगों की अवस्था देखना अलग चीज है." हम व्यवस्था को नहीं छोड़ सकते हैं और हम ऐसा भी नहीं है कि हम व्यवस्था में शामिल हर किसी का अविश्वास करें." तारिक का मानना था कि पीड़ितों के पुनर्वास को अच्छी तरह से लागू किया जा रहा था और आधिकारिक तौर पर सरकार उनके सभी प्रस्तावों पर सहमत हो गई थी.
2014 में इस्तीफा देने वाले बिहार की पूर्व समाज कल्याण मंत्री परवीन अमानुल्लाह ने मुझे बताया कि यह विभाग बिहार सरकार के सबसे भ्रष्ट विभागों में से एक है. उनका मानना है कि आश्रय गृहों में दुर्व्यवहार वरिष्ठ अधिकारियों की जानकारी के बिना जारी नहीं रह सकता था. उन्होंने एक घटना सुनाई जब एक आश्रय गृह का ठेकेदार, जिसके खिलाफ उन्होंने जांच का आदेश दिया था, उन्हें प्रभावित करने या डराने के प्रयास में उनके कार्यालय में यूं ही चला आया था.
Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute