निर्भया मामले में फांसी का एक साल

मृत्युदंड मिले बेटे की मां राम बाई से वे मुलाकतें

मुकेश सिंह के दिवंगत पिता मंगे लाल और मां राम बाई. मानसी थपलियाल / रॉयटर्स
20 March, 2021

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20 मार्च 2020 को निर्भया मामले के चारों दोषियों को फांसी दी गई थी. 16 दिसंबर 2012 को 23 साल की फिजियोथेरेपी की विद्यार्थी ज्योति सिंह की दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. इस मामले को ''निर्भया'' केस के तौर पर जाना गया. फांसी दिए जाने से पहले कारवां अंग्रेजी की वेब एडिटर सुरभि काँगा ने दोषियों में से एक मुकेश सिंह की मां से मुलाकात की थी. इस मुलाकात की रिपोर्ट पिछले साल 19 मार्च को कारवां में प्रकाशित हुई थी. आज फांसी के एक साल बाद काँगा फिर एक बार उन मुलाकातों को याद कर रही हैं.

एक पूरा साल बीत गया जब 68 साल की राम बाई अपने बेटे मुकेश से आखिरी बार मिलने की उम्मीद में दिल्ली की तिहाड़ जेल पहुंची थीं.उनके पहुंचने से कुछ ही घंटे पहले दिल्ली की अदालत ने उनके बेटे की फांसी की सजा पर रोक लगाने को ठुकरा दिया था. फांसी का दिन 20 मार्च सुबह 5.30 पर आखिरी मुहर लगाई जा चुकी थी.

जब मैं उनसे मिली थी तो लगभग पांच फीट से भी कम की दुबली-पतली, कृशकाय बूढ़ी राम बाई इस आखिरी फैसले से टूटी हुई नजर आ रही थीं. सुबकते हुए वह बोलीं, ''वही हुआ जिसका मुझे अरसे से डर था.'' आंखों से बह रहे आंसू तार-तार हो चुके उनके शॉल को भीगो रहे थे. ''उसकी जान लेकर उन्हें क्या मिलेगा, बताओ मुझे? क्या मिलेगा उन्हें? उन्होंने मुझसे मेरा दूसरा बेटा छीन लिया, मेरा पति छीन लिया... इसे भी छीन कर क्या मिलेगा उन्हें?''

*

31 जनवरी 2020 जब मैं राम बाई से पहली बार मिली थी तो वह तिहाड़ आई थीं यह सोच कर कि अपने बेटे से मिलने का उनका यह आखिरी मौका होगा. उस वक्त मुकेश को 1 फरवरी को फांसी दी जानी थी. ''मैं क्या कह सकती हूं,'' उन्होंने पूछा था. उनके मरकटहा चेहरे पर थकान साफ दिख रही थी. ''हमारी किसने कभी सुनी है? हम गरीब हैं, गरीबों की कौन सुनता है,'' टूटी हुई आवाज में उन्होंने मुझसे कहा था. ''मैं रातों को सो नहीं पाती... बस सोचती रहती हूं, मेरा बेटा कैसा है, उसने खाना खाया होगा या नहीं.'' उन्होंने बताया था कि उनका कुछ भी खाने-पीने का जी नहीं करता. ''मुझे बस यही ख्याल खाए जाता है कि भगवान ने यह क्या कर दिया?''

16 दिसंबर 2012 की रात 23 साल की फिजियोथेरेपी की विद्यार्थी ज्योति सिंह की दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. इस मामले को ''निर्भया'' केस के तौर पर जाना गया. ज्योति सिंह की मां आशा देवी से पूरा दे परिचित है पर राम बाई को शायद ही कोई जानता है. जिस वक्त राम बाई अपने बेटे को आखिरी अलविदा कहने की तैयारी कर रही थीं तब मुकेश के वकील फांसी पर रोक लगाने को लेकर दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत का रुख कर रहे थे.

भारत के राष्ट्रपति के समक्ष पेश मुकेश की दया याचिका दो सप्ताह पहले ही खारिज कर दी गई थी, लेकिन दया के लिए उसके सह-अभियुक्तों की याचिका राष्ट्रपति के समक्ष लंबित थी. लंबित दया याचिका का हवाला देते हुए वकीलों ने जोर देकर कहा कि फांसी नहीं दी जा सकती क्योंकि सभी अभियुक्तों को एक बार केवल तभी फांसी दी जा सकती है जब उनमें से हर एक अपने सभी संवैधानिक और कानूनी उपायों को आजमा ले. पीठासीन न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने उस शाम तक के लिए अपना आदेश सुरक्षित रख दिया था.

31 जनवरी को जेल नंबर तीन के प्रवेश द्वार पर राम बाई अपने तीसरे बेटे सुरेश के साथ मौजूद थीं. अपनी मां को जेल के भीतर ले जाते हुए ''मुकेश ने यह अपने हाथ से लिखा है,'' कहकर उसने अपने पर्स से एक कागज का टुकड़ा निकाला और मेरी तरफ बढ़ा दिया. ''रख लीजिए.'' सुरेश और उसके परिवार के कई लोग, उसकी पत्नी और 10 साल का बेटा भी अपने अभियुक्त परिजन से मिलने पहुंचे थे. जब वह गेट के भीतर चले गए मैंने वह कागज का टुकड़ा खोला. मुकेश ने अपने भाई से अपने मामले के बारे में आवाज उठाने को कहा था. उसने सुरेश से कहने को कहा था :

मेरा भाई 16 दिसंबर केस में तिहाड़ जेल में बंद है और मृत्युदंड की सजा काट रहा है.  सेशन, हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट से सजा में राजनीति किया गया है और पब्लिक, मीडिया सेंटीमेंट देखकर फैसला दिया गया है और हमारे न ही एक भी दलील सुना गया और न ही हमें अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया. एक तरफा फैसला राजनीति के दबाव में सुना दिया गया है.

तिहाड़ जेल के गेट नंबर तीन के बाहर मैं मुकेश के परिवार वालों के बाहर आने के इंतजार कर रही थी. बाहर फर्श पर जेल में बंद दूसरे कैदियों के परिजन बैठे हुए थे. कुछ एकदम खामोश थे, कुछ उखड़े हुए. एक आरोपी की जवान पत्नी जैसे ही बाहर निकली उसके आंसू बह निकले. दूसरे लोगों ने उसे चुप कराया.

लगभग दो घंटे बाद जब राम बाई मुख्य द्वार से बाहर आईं तब तक बाहर इंतजार कर रहे दूसरे कैदियों के परिजन जा चुके थे. अपने बेटे को देखने के बाद राम बाई में कुछ उम्मीद जगी और उनकी निराशा कुछ कम हुई. "मेरे बेटे को कुछ नहीं हो सकता," उन्होंने भरोसे के साथ कहा था. "भगवान की मर्जी के बिना कुछ नहीं हो सकता."

उस दिन उनके भरोसे ने उन्हें धोखा नहीं दिया. शाम 5.30 बजे के करीब राणा ने अगले आदेश तक फांसी पर रोक लगा दी. मुकेश की फांसी कुछ दिन तक टल गई, कम से कम अगली तारीख तक. उसके बाद अदालत को दो बार मौत का वारंट जारी करना पड़ा था. पहला 3 मार्च को, जिस पर दुबारा इसलिए रोक लग गई क्योंकि एक अन्य सह-अभियुक्त की दया याचिका लंबित थी, और फिर 20 मार्च को.

हर बार जब भी मौत के वारंट पर रोक लगती, न्यूज चैनलों की हैडलाइन होती कि अभियुक्त मौत की सजा से बचने के लिए ''टालने की नीति'' अपना रहे हैं. अभियुक्तों के वकीलों को अखबार नया ''पैंतरा'' अपनाने वाले रणनीतिकार बताते. जबकि खबरिया चैनल अभियुक्तों को दया की गुहार लगाने के अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करने को खारिज करते सोशल मीडिया पोस्ट मौत में हो रही देरी के लिए झिड़कियों से अटे हुए थे. सैकड़ों हजारों लोगों ने पोस्ट किया कि कानून न्याय देने में असफल हुआ है. राष्ट्रपति के समक्ष अपनी दया याचिका में मुकेश ने लिखा था ''अगर मैं अखबारों की मानूं तो ऐसा लगता है कि पिछले सात सालों से देश सांस रोके मेरी मौत का इंतजार कर रहा है.'' 

राष्ट्रपति से अपनी जान बख्शने और फांसी की सजा से बचाने के लिए मुकेश ने एक सवाल किया था. उसने राष्ट्रपति को लिखा,

मेरे जीवन की सच्चाई यह है कि जब एक युवती के साथ हो रहे बलात्कर और उसे चलती बस से बाहर फेंक दिया गया तो मैं पीठ फेरे रहा. मैं नहीं चाहता कि आप यह सोचें कि मैं उस सर्द रात में जो कुछ हुआ, उसके लिए अपने अपराध से भाग रहा हूं. मैंने पिछले सात सालों से लगातार इसके बारे में सोचा है. मैं बस चला रहा था जहां एक महिला को बेरहमी से मारा गया था. मैंने न तो बस को रोका, न ही मदद के लिए फोन किया, मुझे जरूर सजा दी जानी चाहिए. लेकिन क्या उस दंडनीय उद्देश्य की पूर्ति बस मेरे प्राण लेने से हो जाएगी? क्या कोई और सजा नहीं है?

*

10 सिंतबर 2013 को दिल्ली की एक अदालत के बाहर निर्भया मामले के चार आरोपियों को मौत की सजा दिए जाने की मांग करते लोग. राज के राज / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी इमेजिस

16 दिसंबर 2012 की शाम को छह लोगों- मुकेश, उसके भाई राम सिंह, फल विक्रेता पवन गुप्ता, बस कंडक्टर अक्षय ठाकुर और जिम असिस्टेंट विनय शर्मा और एक नाबालिक किशोर ने ज्योति और उसके पुरुष दोस्त को फुसलाकर एक निजी बस में बैठा लिया. उन्होंने दोनों के साथ मारपीट और उत्पीड़न कर, पुरुष मित्र की पिटाई की और फिर बस के पिछले हिस्से में ज्योति के साथ सामूहिक बलात्कार किया. मीडिया ने मामले के विवरण को इतनी बार दोहराया कि यह नागरिकों की चेतना में धंस गया. आरोपियों ने न केवल युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया, उन्होंने उसके भीतर एक रॉड डाली और उसकी अंतड़ियों को बाहर निकाल दिया. उन्होंने खून से लथपथ ज्योति और उसके दोस्त को बस से बाहर फेंक दिया, पहले उन्हें खत्म करने की कोशिश की और फिर उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया. ज्योति के अंदरूनी हिस्से इस कदर क्षतिग्रस्त हो गए कि उसका ठीक हो पाना लगभग नामुमकिन था; जख्मों के चलते उसके शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया और लगभग दो हफ्ते बाद उसकी मौत हो गई.

इस आपराधिक घटना की खबर आने के दिन से ही लोगों में एक गुस्सा भड़क उठा था. 17 दिसंबर को ही छात्र इंसाफ की मांग करते हुए सड़कों पर निकल आए. इसके बाद एक्टिविस्ट, अकादमिक, राजनीतिक संगठन और भारी तादाद में गणराज्य के युवा इसमें शामिल होने लगे. इंडिया गेट पर कैंडल मार्च हुए और भारतीय संसद के बाहरप्रदर्शनकारियों का सैलाब आ गया था. कई लोगों ने मांग की कि बलात्कारियों को फांसी दी जाए या सरेआम उनकी लिंचिंग हो. कुछ ने बलात्कारियों के बेचेहरे पुतले बनाकर सड़कों पर उन्हें फांसी के फंदे से लटका दिया. प्रदर्शनकारियों के बीच फांसी के फंदे की तस्वीरे घूम रही थीं जो उस सजा की तरफ इशारा करती जो वह चाहते थे.

प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया दोनों ने इन दृश्यों को लगातार दिखाया. समाचार चैनलों ने लगभग 24x7 विरोधों को कवर किया, यहां तक कि समाचार पत्रों ने अपराध के उभरते विवरणों के बारे में पुलिस से दैनिक अपडेट भी चलाया. अकादमिक और पत्रकार पामेला फिलिपोज ने अपनी पुस्तक मीडिया शिफ्टिंग टेरेन में जिक्र किया है कि मुख्यधारा के मीडिया ने "पहले से ही व्यापक रूप से इस धारणा को बढ़ा दिया है कि ऐसे अपराधी समाज के लिए एक खतरा हैं ... यह समझ लेने का वक्त आ गया है कि इन जैसे वहशी अपराधियों को 'इनके पापों की सजा' मिलनी ही चाहिए." सामूहिक बलात्कार के प्रकाश में आने के बाद, "पहला बयान जो मीडिया में व्यापक रूप से चला, वह (ज्योति के) भाई का एक बयान था जो यह दर्शाता था कि परिवार चाहता था कि दोषियों को जल्द से जल्द फांसी दी जाए," फिलिपोज ने लिखा. "यह एक ऐसी मांग थी जिसे आने वाले दिनों में परिवार द्वारा कई बार दोहराया गया और इसने ही जनता के लिए इसका एक अद्वितीय भावनात्मक औचित्य तैयार किया."

सितंबर 2013 में एक ट्रायल कोर्ट ने मुकेश, अक्षय, पवन और विनय को बलात्कार और हत्या का अपराधी घोषित किया. मुकेश का बड़ा भाई राम सिंह जो मुख्य अभियुक्त था, उसे अपराधी नहीं माना गया. 11 मार्च 2013 को तिहाड़ की जेल नंबर 3 में वह अपनी कोठड़ी में फंदे से लटका हुआ मिला. जेल प्रशासन ने कहा कि उसने खुदकुशी कर ली. 

तब से ही राम बाई और उनके पति मंगे लाल, जिनकी अब मौत हो चुकी है, समाज की नजरों में 'वहशी अपराधी' के रूप में दर्ज अपने बेटों के खून की प्यासी जनता के मूक दर्शक बन गए. ''मीडिया वालों ने कभी हमारी नहीं सुनी, उन्होंने कभी हमारी बात नहीं रखी, न तो टीवी में न अखबार में न ही रेडियो में,'' राम बाई ने कहा. ''ये भी छह जानें हैं, राम सिंह जा चुका है, हमें अब बस इसी से उम्मीद है लेकिन वह इसकी भी जान लेना चाहते हैं.'' 

*

मुकेश और राम सिंह अपने भाई सुरेश के साथ दिल्ली के आरके पुरम इलाके के रविदास कैंप की एक झुग्गी में रहते थे. ईंटों के बने जिस घर में वे रहते थे उसकी ऊंचाई बमुश्किल छह फीट थी. जब मैं वहां गई थी, तो घर की छत पर लकड़ी के टुकड़ों, टूटे हुए पत्थरों और छोड़े गए कपड़ों और बर्तनों का ढेर लगा था. चौखट एक छोर पर तिरछी थी और ईंटों से पेंट उखड़ रहा था. ठीक बाहर, एक दीवार के बगल में एक छोटी सी लोहे की सीढ़ी खड़ी थी, जहां से एक पड़ोसी कपड़े लटकाने के लिए छत पर चढ़ गया था. राम बाई के रिश्तेदार एक घर छोड़ कर ही रहते हैं - दोनों के घरों के बीच से गुजरने वाली गली एक आदमी के निकलने के लिए शायद ही काफी रही हो. राम बाई ने कहा कि वह और उनके पति राजस्थान के करोली जिले में अपने पैतृक गांव से 1990 के आसपास बस्ती में चले आए थे. "जब राजीव गांधी की मृत्यु हुई, तब मेरा मुकेश मेरी गोद में था," उन्होंने कहा.

वे गरीबी में जिए और अपनी तथा अपने पति की दिहाड़ी मजदूरी के भरोसे परिवार चलाया. राष्ट्रपति को दी अपनी दया याचिका में, मुकेश ने रविदास कैंप में अपने बचपन के मुश्किल हालातों के बारे में भी बताया. "खाना मुश्किल से मिलता था और पानी जैसी जरूरत की चीज के लिए भी झगड़े हो जाया करते थे," उसने लिखा. "मेरी उम्र के ज्यादातर लड़के अनौपचारिक श्रम और छोटे—मोटे अपराध करते थे."

पढ़ाई—लिखाई न कर पाने के बारे में मुकेश ने लिखा कि छठी कक्षा में ही उसने पढ़ाई छोड़ दी. "जब मैं 16 साल का था तब से ही मैंने ऑटो चलाना शुरू कर दिया था." दिल्ली के एक फिल्म निर्माता के साथ एक साक्षात्कार में, जिन्होंने बाद में मुझे फुटेज भी दिखाई, राम बाई ने जिंदगी चलाने के लिए रोजगार के मुकेश के प्रयासों के बारे में बताया. "उसने दुकानों में सामान पहुंचाने के लिए एक ठेला खींचा.भारी भरकम सामान होता उसमें ... तब वह कितने साल का रहा होगा, शायद 10 या 12 का." भारी गाड़ी खींचने से मुकेश के पेट और पैर में चोट भी लगी. “बोझा खींचते हुए वह उसके भार से ही दब जाता था. वह अक्सर रोने लगता था.” राम बाई ने मुझसे कहा, "एक एक पैसे के लिए मजदूरी करी मेरे बच्चों ने."

राम बाई ने कहा कि उन्हें उम्मीद थी कि बच्चे बड़े हो जाएंगे तो जिंदगी कुछ बेहतर हो जाएगी. धीरे-धीरे भाइयों को यहां-वहां कुछ काम भी मिलने लगा. चार्जशीट के अनुसार, दिसंबर 2012 तक राम सिंह यादव ट्रैवल्स नामक एक निजी बस सेवा में ड्राइवर था. "मुकेश ने अपने भाई से थोड़ा—बहुत काम सीखा बस को साफ करना, बस चलाना बगैरह," उन्होंने कहा. वर्ना कुछ काम-धाम कर लेता "10-20 रुपए मिल जाते." दिसंबर 2012 में राम बाई और उनके पति मंगे लाल करोली में थे. राम सिंह ने उनसे कहा था कि वह भी जल्द ही उनके साथ आकर रहने लगेगा. पहले किसी दुर्घटना में वह एक हाथ से गंभीर रूप से विकलांग हो गया था. उसे यकीन था कि जल्द ही उसका लाइसेंस छिन जाएगा. “उसने मुझसे कहा,“मैं भी वहीं आ जाऊंगा और तुम्हारे साथ रहूंगा. अपने गुजारे लायक हम उगा लिया करेंगे.'' राम बाई ने याद करते हुए मुझे बताया था.

राम बाई ने कहा, "हमने उन्हें पालने पोषने में बहुत मेहनत की. उसने थोड़ा-बहुत पढ़ाई की थी. वे अपने दो पैरों पर खड़े हो गए थे, वे कमा रहे थे. हम एक दिन में दो बार खाना खा पा रहे थे, हम खुश थे. फिर, मुझे नहीं पता ... मैं नहीं जानती कि दुनिया कैसे बदल गई."

राम बाई ने मुझे बताया कि जब रामसिंह को जेल हुई तो वह उससे ज्यादा मिल नहीं सकी. उसकी मौत से पहले ''केवल एक या दो बार'' मिली. अपनी मौत से पहले शुक्रवार को उसे अदालत में लाया गया था जहां मुकदमा चल रहा था लेकिन तब उससे मिलने की इजाजत नहीं थी. "मैंने सोचा ठीक है मैं उससे बाद में मिल लूंगी," उन्होंने कहा. "लेकिन सोमवार तक उन्होंने मुझे बताया कि उसने आत्महत्या कर ली." वह मानती है कि उसके बेटे की हत्या की गई थी. उन्होंने उसकी विकलांगता का हवाला दिया. राम बाई ने मुझे बताया, "वह खाने के लिए चम्मच उठाने में केवल एक हाथ का उपयोग करता था. वह खुद को जमीन से 12 फीट ऊपर कैसे लटका सकता था?"

जिस दिन राम सिंह की मृत्यु हुई, उस दिन तिहाड़ जेल के पूर्व प्रवक्ता और कानूनी सलाहकार सुनील गुप्ता जेल में मौजूद थे. अपनी पुस्तक ब्लैक वारंट: कन्फेशंस ऑफ ए तिहाड़ जेलर में, जिसे उन्होंने पत्रकार सुनीता चौधरी के साथ सह-लेखक के रूप में लिखा था, उन्होंने लिखा, "कहीं भी कोई लिखित प्रमाण नहीं है और मेरे पास पोस्टमार्टम रिपोर्ट की प्रति नहीं है लेकिन मुझे विश्वास है कि राम सिंह ने आत्महत्या नहीं की.” सिंह ने बताया कि विसरा रिपोर्ट में राम सिंह के शरीर में अल्कोहल पाया गया था जो उन्हें संदिग्ध लगा. "किसी कैदी को शराब कैसे मिल सकती है?" उन्होंने यह भी पाया कि कैसे राम सिंह खुद को 12 फुट ऊंची छत से लटका सकता है जबकि उसकी बैरक में मौजूद बाकी तीन कैदियों की उस पर नजर ही न पड़े. गुप्ता ने लिखा, "मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे उसके शराब पिलाई गई और फिर फांसी लगा दी गई." उन्होंने कहा कि भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी विमला मेहरा, जो उस समय जेलों की महानिदेशक थीं, ने जानबूझकर दोषियों को कड़ी सुरक्षा देने से इनकार कर दिया था, भले ही उनकी जान खतरे में थी क्योंकि उनके खिलाफ जनता में भारी गुस्सा था. "उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि, खासकर इस मामले में, अगर उसे जेल की भीड़ का सामना करना पड़े, तो भी कोई दिक्कत की बात नहीं है."

अपनी दया याचिका में मुकेश ने भी अपनी भाई की मौत के बारे में लिखा था. उसने दावा किया था कि राम सिंह की हत्या हुई है. उसने राष्ट्रपति से कहा कि जेल में उसके भाई को भी कई बार यौन हिंसा का सामना करना पड़ा. ''9 मार्च 2013 को जब मैं उससे अदालत में मिला तो उसके चेहरे और पैर पर चोटों के कई निशान मैंने देखे. 11 मार्च को मेरा भाई मर गया.''

राम सिंह की मौत राम बाई के लिए पहला झटका था. उनके पति अपने बेटे की मौत से सदमे में थे "उन्होंने खाना बंद कर दिया, वह बहुत कम खाते थे," उन्होंने मुझे बताया. "वह बीमार पड़ गए और उनकी मौत हो गई."

अपने पिता की मृत्यु के बाद मुकेश ने अपनी याचिका में लिखा कि इसने राम बाई को "भावनात्मक रूप से अपंग बना दिया." इसने उसके बेटे को फांसी दिए जाने की संभावना को और अधिक विनाशकारी, अधिक बेरंग कर दिया. “ये मुकेश नहीं है, मेरी जान है. मेरा मुकेश नहीं है तो मैं भी नहीं हूं.” मुकेश ने राष्ट्रपति से अपनी मां की खातिर अपनी जान बख्श देने की गुहार लगाई थी. “16 दिसंबर 2012 को निर्भया के साथ हुई अमानवीय क्रूरता पर भड़क उठे जनता के विवेक ने उसके एक बेटे की जिंदगी छीन ली है. क्या उसके दूसरे बेटे को भी छीन लिया जाना चाहिए?”

"एक मां का दिल कैसे शांत जा सकता है?" राम बाई ने मुझसे पूछा था. "अगर वह थोड़ी देर के लिए भी मेरी नजरों से दूर जाता है, तो मेरा दिल दुखता है. मैं उससे मिलने, उससे थोड़ी बात करने के लिए बहुत दूर तक जाती हूं, तब जाकर मेरे दिल को चैन मिलता है. मैं क्या करूं? भगवान ने हमारे बीच यह दूरी बढ़ा दी है.”

राम बाई ने मुझे बताया कि जब वह अपने बेटे से मिलने जाती भी थीं तो अक्सर उसे देख नहीं पाती थीं. "कांच लगा होता है और कोई भी उसे साफ नहीं करता. मेरी आंखें कमजोर हैं ... मैं मुश्किल से उसे देख पाई." अपनी मां के साथ मुलाकात के बारे में मुकेश ने कहा था, "इन छोटी—छोटी मुलाकातों में कांच के दोनों तरफ टेलीफोन के जरिए हमने जिंदगी गुजारी है."

जब तय हो गया कि उसको फांसी दी ही जानी है तो राम बाई नेजेल अधिकारियों से अनुरोध किया था कि वह उन्हें अपने बेटे को ठीक से देखने दें. एक जेल अधिकारी ने उन पर दया दिखाते हुए उनकी बात मान ली थी और उसने मुकेश को अपने आफिस में मिलने की इजाजत दी थी. 

हर बार जब उन्होंन अपने बेटे की आसन्न मौत की बात मुझसे की, तो राम बाई अपने आंसू रोक नहीं पाती थीं. वह कहती थीं, "सरकार युवाओं की बात करती है ... क्या वह किसी का जवान बेटा नहीं है?" क्या वह आपका नहीं है? इंसान को दूसरों के बारे में सोचना चाहिए. आपको लगता है कि वह दोषी है, ठीक है. उसे सजा दो ... आप जैसा चाहो उसे सजा दो. उसे जेल में रखो. लेकिन उसे मारने का अधिकार किसी को नहीं है. भगवान उसे यहां लाए हैं और केवल भगवान ही उसकी जिंदगी छीन सकते हैं.”

एक बार उन्होंने मुझसे कहा, “हर दिन लाखों बलात्कार होते हैं, लाखों हत्याएं होती हैं लेकिन सभी को फांसी पर नहीं लटकाया जाता. केवल मेरे बेटे को ही क्यों फांसी दी जा रही है?” उनके मुताबिक उनके गरीब होने की वजह से बेटे मुकेश को यह तकदीर मिली है. वह कहती थीं कि जिस तरह के अपराध का दोषी उनके बेटे को पाया गया उस तरह के अपराध में अमीर लोगों को फांसी नहीं होती. "अगर गरीब कोई अपराध करता है, तो वे उसे मार देते हैं."

राम बाई ने मुझसे कहा था, "भगवान भी एक अपराध को माफ कर देते हैं." उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक संदेश देना चाहती थीं कि "हर कोई सोचता है कि मोदी भगवान हैं. क्या उनके पास भी मेरे लिए कोई दया नहीं है?" उन्होंने अपनी बदरंग परिस्थितियों के बारे में बताया, “भगवान ने अमीरों और गरीबों दोनों को भेजा है… कानून दोनों के लिए समान है. मेरा एक बच्चा चला गया है. आप दूसरे को कठोर सजा दे सकते हैं. लेकिन कृपया उसकी जान बख्श दें.” उनके चेहरे से आंसू झर रहे थे.

कभी-कभी, राम बाई की डूबती आंखों में गुस्सा और निराशा झलकती थी. बीते कई सालों में उनके परिवार को उम्मीद हो गई थी कि शायद मौत की सजा की सार्वजनिक मांग कम हो जाएगी और उनके बेटे की जान बच जाएगी. दिसंबर 2019 में मामला फिर से लोगों के सामने आया. "चुनाव आ रहे हैं, यही वजह है कि ये लोग फिर से दबाव डाल रहे हैं," उन्होंने कहा. (जिस समय हमने बात की थी, उसके लगभग एक हफ्ते बाद 8 फरवरी को दिल्ली में चुनाव होने वाले थे.)

दिल्ली में राजनीतिक दलों का जिक्र करते हुए, जो सभी जल्द से जल्द फांसी दिए जाने का समर्थन कर रहे थे, उन्होंने कहा, "उनसे पूछो, अगर वह मेरे बेटे को मारने के बाद चुनाव जीतते हैं, तो क्या वे खुश होंगे? क्या उन्हें शांति मिलेगी?”

कोई भी पत्रकार, जिसने इस मामले से संबंधित किसी भी अदालत की सुनवाई में भाग लिया हो, ज्योति की मां आशा देवी पर मीडिया के ध्यान केंद्रित करने की गवाही दे सकता है. हर बार जब वह अदालत से बाहर निकलती थीं, मीडिया उनसे एक बाइट के लिए धक्कमपेल करता था. उन सात सालों में, मीडिया ने बड़े पैमाने पर उनकी दुर्दशा को कवर किया. उनके आंसू, उनकी निराशा और उन्हें होने वाली गंभीर हानि को पूरे देश को बार-बार दिखाया गया.

लेकिन राम बाई यह नहीं समझ सकीं कि क्यों मीडिया को उनके आंसू नहीं दिखाई देते. उन्होंने कहा था, ''मैं भी मां हूं. अब लगभग आठ साल बीत चुके लेकिन मीडिया में कोई भी मेरी कहानी नहीं सुनना चाहता.'' मोदी के महिला सशक्तिकरण की बात करते हुए उन्होंने कहा था, ''कई बार हम तीन चार दिनों तक बिना खाए रहते, बस रोती रहती हूं आंसुओं की नदियां बह जाती हैं... क्या मोदी के दिल में मेरी जैसी मां के लिए कोई दया नहीं है?''

*

याचिका में मुकेश ने अपने जीवन के मूल्य, अपनी मां और यहां तक कि ज्योति के जीवन के बारे में, स्पष्टता से बात की. “पिछले छह सालों से… मैं एकान्त कारावास में अपने दिन गुजार रहा हूं मौत ही मेरा एक मात्र साथी है. जब आप खुद की मौत का सामना करते हैं, तो आप जिंदगी से पूरी तरह से रूबरू होते हैं,” उन्होंने लिखा. "मुझे निर्भया और उनके परिवार के जीवन में उस जिंदगी की कमी महसूस होती है. मैं इनकार नहीं करूंगा कि मैं उस रात बस चला रहा था. मैंने कभी इससे इनकार करने की कोशिश नहीं की. हालांकि, मैं उसके जीवन को पहुंचे नुकसान के लिए जिम्मेदार नहीं हूं. मैंने उसका बलात्कार नहीं किया. मैंने उसके शरीर में रॉड नहीं डाली. मैंने उन कामों में शामिल नहीं था जिनसे उसकी मृत्यु हुई.”

पुलिस ने आरोपपत्र में कहा है कि मुकेश ने बलात्कार में भाग लेने की बात स्वीकार की और इस दौरान सह-आरोपियों में से एक ने बस चलाने का जिम्मा लिया था. लेकिन मुकेश ने अपनी दया याचिका में इस पर विवाद किया. उसने तर्क दिया कि आरोप पत्र में उसके खिलाफ सबूत गढ़े गए थे और इस तथ्य की ओर इशारा किया कि फोरेंसिक रिपोर्ट में युवती के शरीर पर उसके किसी भी डीएनए की पहचान नहीं की गई थी. मुकेश ने लिखा,

"मैं न्यायपालिका का बहुत सम्मान करता हूं. हालांकि, मेरे मामले में मीडिया ट्रायल द्वारा फैसला सुनाया गया है. अदालतों ने सजा की लोकप्रिय मांग को तुष्ट करने के अपने प्रयासों में निष्पक्ष फैसले की अपनी प्रतिबद्धता को खत्म कर दिया है.मेरा जीवन निर्भया को वापस नहीं ला सकता है. मेरी जिंदगी, यहां तक कि सलाखों में कैद, अस्त-व्यस्त और सीमित स्थिति में भी मेरी विधवा मां के लिए सहारा है."

उसकी मां के आंसू और दया याचिका दोनों बेअसर रहे. कोई भी सड़कों पर नहीं निकला था. मुकेश ने कहा था, "शायद मेरी सबसे बड़ी सजा बेबसी से उसका दुख देखते रहने में है. जब वह पिछली बार मुझसे मिलने आई थी तो उसने मुझे बताया कि वह स्थिर महसूस करती है. वह सारा दिन घर पर बैठती है, मुझे देखने के लिए और अपने मनी प्लांट के बढ़ने का इंतजार करती हुई. उसने इसे इस उम्मीद में खरीदा था कि यह मेरी किस्मत बदल देगा. इससे ज्यादा वह कुछ कर भी नहीं सकती.”

राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए, मुकेश ने अपने जीवन की परिस्थितियों का वर्णन किया. फांसी का इंतजार करते कैदी के रूप में, मुकेश ने कहा था, “वर्तमान में मुझे एकान्त में रखा गया है. सेल लगभग 8x10 फीट की है. इसमें लगभग 15 फीट ऊंचे एग्जॉस्ट फैन के लिए एक छोटी सी खिड़की है. यहां मुश्किल से सूरज की रोशनी की झिलमिलाहट पहुंचती है. मुझे कुल डेढ घंटे के लिए सेल से बाहर जाने की इजाजत है.” उसे किसी के साथ मिलने, बोलने या खाना खाने की इजाजत नहीं है. “यह पहला मौक नहीं है जब मुझे एकान्त कारावास में रखा गया है. 2013 में, मुझे नौ महीने तक मुलहजिया वार्ड में रखा गया था. 2014 में जब मुझे 5 साल की जेल हुई थी, तब मुझे 1.5 महीने के लिए अलग रखा गया था. लगभग हर जेल में जहां मुझे ले जाया गया था, मुझे लंबे समय तक एकांत कारावास में रखा गया है.” उसने लिखा था, "इस तरह के कारावास इंसान होने के मायने पर ही हमला करता है."

सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना है कि किसी व्यक्ति को उसकी दया याचिका की अस्वीकृति से पहले एकान्त कारावास में रखा जाना असंवैधानिक है. फिर भी मुकेश को बार-बार यह यातना मिलती रही.

मुकेश ने दर्दनाक और भयानक दुर्व्यवहार का जिक्र किया जिसका सामना उसे जेल में करना पड़ा था. उसने लिखा था कि जब वह पहली बार जेल गया तो उसे बेरहमी से पीटा गया. “मारना रोजाना होता था, जैसे कि यह एक नियम हो. जेल 4 मेंजेल अधिकारियों ने कैदियों को मुझे रॉड से मारने के लिए उकसाया, जबकि जेल 2 में अधिकारी ने मुझे खुद पीटा,” उसने लिखा. उसने यौन शोषण का सामना करने के बारे में भी लिखा. उसने लिखा कि एक बार उसे सबके सामने सह-अभियुक्त के साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया गया. अन्य उदाहरणों में, कैदियों ने उसके गुदा के अंदर एक छड़ी डालकर उसके साथ दुर्व्यवहार किया और उसके साथ बलात्कार किया, जिससे खून बह रहा था. "मैं एक तमाशा था, खेल के लिए मेरे साथ दुर्व्यवहार होता और अपमानित किया जाता," उसने कहा. "महामहिम मैं आपसे केवल एक सवाल पूछता हूं, क्या मुझे पहले ही सजा मिल चुकी है?"

मुकेश ने लिखा कि गाली-गलौच, मार-पीट और हत्या कर दिए जाने का डर उसे निगल चुका है. राष्ट्रपति के समक्ष अपनी याचिका लिखने से दस दिन पहले, मुकेश ने कहा था, "मैंने एक परछाई को देखा और इस बात से डर गया कि मुझे मारने के लिए आ गए हैं." उसने लिखा, "महामहिम, मैं आपसे फिर पूछता हूं. क्या मुझे सज़ा नहीं मिली? ”

*

31 जनवरी को मैं तिहाड़ से एक ऑटो में राम बाई के साथ वापस लौटी थी. उन्होंने मुझे बताया कि वह मुकेश से मिलने के लिए अपने बेटे सुरेश पर निर्भर थीं. "पहले मैं रात में अकेले ही राजस्थान चली जाया करती थी," उन्होंने कहा, "लेकिन अब मुझे हर कहीं मदद की जरूरत पड़ती है."

उन्होंने आरके पुरम में अपने घर से पटियाला हाउस कोर्ट, तिहाड़ जेल और साकेत कोर्ट तक के किराए को याद किया था. ऑटो से उतरने के बाद, उन्होंने इसके लिए पैसे देने पर जोर दिया. उन्होंने नोटों की एक छोटी सी पोटली निकाली और ड्राइवर के साथ जायज किराए को लेकर मोल-तोल शुरू किया.

ड्राइवर ने उनसे पूछा, "आप मुकेश की मां हो?"

“आप मुकेश को कैसे जानते हैं”, उन्होंने पूछा.

"हमने समाचार में सुना है ..." ड्राइवर ने जवाब में कहा.

राम बाई ने धीरे से आह भरी. "हां, मैं उसकी मां हूं. मुकेश मेरा बेटा है."

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