भीमा कोरेगांव मामले में पुणे पुलिस का हासिल: 22 एफआईआर की जांच और चश्मदीदों का बयान दर्ज करना बाकी, जमानत पर घूम रहा मुख्य आरोपी

चश्मदीदों के बयानों से सावले और पुलिस के उस दावा की पुष्टि होती है जिसमें कहा गया है कि भिंडे और एकबोटे ने महार और मराठों के बीच हफ्ते भर पहले हुई झड़प के प्रतिरोध में हिंसा की सुनियोजित तैयारी की थी. संकेत वानखडे/हिन्दुस्तान टाईम्स/GETTY IMAGES
21 September, 2018

पहली जनवरी को 39 साल की अनीता अनीता सावले भीमा कोरेगांव के लिए निकलीं. पुणे के पिंपरी-चिंचवड की अनीता के साथ उनके पति रविंद्र सावले और उनके दो बच्चे भी थे. सब मिलकर गांव में बने युद्ध स्मारक पर युद्ध के नायक रहे लोगों को याद करने जा रहे थे. भीमा कोरेगांव की लड़ाई में 1818 में मिली जीत के बाद इसका जश्न मनाने के लिए अंग्रेजों ने यहां एक स्तंभ बनवाया था. इस युद्ध में अंग्रेजों के छोटे से सैन्य दल ने पेशवाओं की फौज को हरा दिया था. अंग्रेजों के इस छोटे से सैन्य दल का हिस्सा सताए हुए महार जाति से आने वाले लोग थे और पेशवाओं की फौज में सवर्ण जाति के मराठों का बोलबाला था. महार जाति के लोग इस बात पर गर्व करते हैं कि उन्होंने इस लड़ाई में उन मराठों को हराया था जो इन पर जुल्म करते आए हैं. इसी गौरव को ये लोग “शौर्य दिवस” के रूप में मनाते हैं. साल के इस समय कुछ लोग तो भीमा कोरेगांव के स्मारक पर जाने को किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं समझते हैं. लेकिन इसी लड़ाई की 200वीं बरसी के दौरान सावले परिवार की तीर्थयात्रा को जघन्य हिंसा का सामना करना पड़ा.

परिवार वाले सुबह 11 बजे घर ने निकले थे. रास्ते में जब सावले टोल प्लाजा पहुंचे तब उन्होंने देखा कि हथियारों से लैस भीड़ लोगों पर हमले कर रही है, पत्थरबाजी कर रही है, कारों और नीले झंड़ों में आग लगा रही है. घर से निकलने के दो घंटे बाद जब ये लोग वधु बुद्रुक पहुंचे तो वहां की लोकल पुलिस से सुरक्षा मांगी. वधु बुद्रुक युद्ध स्मारक से तीन किलोमीटर दूर है. सावले परिवार को पुलिस से सुरक्षा नहीं मिली जिसके बाद उन्होंने पास की ही एक जगह में छिपना सही समझा. अगले दिन सावले ने पिंपरी पुलिस थाने में एक लिखित शिकायत दर्ज कराई. हालांकि, बाद में मामले की जांच को शिक्रापुर में ट्रांसफर कर दिया गया. इस शिकायत में सावले ने बताया कि छिपने के बावजूद भीड़ ने उन्हें ढूंढ लिया था, लेकिन वे लोग “जैसे तैसे भागने और अपनी जान बचाने में सफल रहे.”

सावले की शिकायत में उनकी दोस्त अंजना गायकवाड का भी अनुभव साझा किया गया है. अंजना अपने भाई और छह साल के बेटे के साथ उसी समय पिंपरी से निकली थी जिस समय सावले का परिवार इस सालाना जश्न के लिए निकला था. सावले के मुताबिक अंजना उस दिन दूसरे रास्ते से निकली थी और सणसवाडी गांव के पास से उन्हें फोन किया. भीमा कोरेगांव से सणसवाडी की दूरी 10 किलोमीटर के करीब है. अंजना ने बताया भी तलवार और रॉड जैसे हथियारों से लैस भीड़ सड़कों पर मौजूद तीर्थयात्रियों पर हमले कर रही है और गाड़ियों को जला रही है. अंजना ने आगे कहा कि वो नीले रंग वाले पंचशील झंडे को भी आग लगा रहे हैं और जिन लोगों के पास भीमराव अंबेडकर की तस्वीरें है या जिन गाड़ियों उनकी पर तस्वीरें लगी हैं उन पर पेट्रोल बम फेंक रहे हैं. आपको बता दें कि बौद्ध धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए पंचशील झंडा शांति का प्रतीक है.

एक हफ्ते के भीतर पुणे की ग्रामीण पुलिस ने सावले जैसे कम से कम 22 मामले दर्ज किए. अलग-अलग हुए ये एक जैसे मामले थे जिनमें लड़ाई के स्मारक तक जाने वाले रास्तों पर सफर कर रहे तीर्थयात्रियों पर हमले किए गए थे. राज्य सरकार ने पुणे की अदलात को जानकारी दी कि इन मामलों में 1400 से ज़्यादा लोगों संदेह के घेरे में हैं और हिंसा की इन घटनाओं में लगभग 1 करोड़ 50 लाख रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ है. अपनी शिकायत के लिए लिखवाई गई एफआईआर में सावले ने शिवजागर प्रतिष्ठान के मनोहर भिंडे, हिंदू जनजागरण समिति के अध्यक्ष मिलिंद एकबोटे और उनके “सवर्ण साथीदार”- सवर्ण सहयोगियों का नाम दिया है. एकबोटे और भिंडे दोनों को महाराष्ट्र में बहुत बड़ी आबादी का समर्थन प्राप्त है. यही नहीं, दोनों को भारत भर में अच्छा खासा समर्थन प्राप्त है और इनके समर्थकों में पीएम नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं जिन्होंने भीड़े को खुले तौर पर गुरू जी तक बुलाया है.

पुणे से ताल्लुक रखने वाले हिंदुत्व के इन नेताओं को दो मामलों में आरोपी बना कर पेश किया गया. इनमें से एक मामले की हिंसा के दिन एफआईआर दर्ज की गई थी और दूसरी शिकायत अगले दिन सावले ने लिखवाई थी. हिंसा के दो महीने बाद, जब सुप्रीम कोर्ट ने भी अग्रिम जमानत की अर्जी को खारिज कर दिया तो एकबोटे को पुणे की ग्रामीण पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. लेकिन लगभग एक महीने बाद ही एकबोटे को दोनों ही मामलों में जमानत  मिल गई. दंगा करने, गैरकानूनी तरीके से लोगों को इक्ट्ठा करने, खतरनाक हथियरों का इस्तेमाल करने, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और हत्या के प्रयास जैसे गंभीर आरोप होने के बावजूद एकबोटे को जमानत दे दी गई. वहीं, भिंडे की कभी गिरफ्तारी नहीं हुई. उल्टे, इस साल मार्च महीने में राज्य के मुख्य मंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने विधानसभा में घोषणा करते हुए ये तक कह दिया कि भिंडे के खिलाफ कोई साक्ष्य ही नहीं है.

सावले के मामले में एकबोटे को चार अप्रैल को जमानत दे दी गई और पुलिस ने जो मामला दर्ज किया था उसमें 19 अप्रैल को जमानत दे दी गई. सावले के मामले में बेल ऑर्डर में लिखा गया है कि जांच अधिकारी ने एकबोटे की पहचान हिंसा के लिए जिम्मेदार “मुख्य साजिशकर्ता” के तौर पर की और राज्य सरकार के अभियोजक ने भी दलील दी कि एकबोटे ने “इस अपराध को अंजाम देने की साजिश रची थी.” पुलिस केस के मामले में मिली जमानत में भी यही बात कही गई है कि अभियोजन पक्ष ने एकबोटे की पहचान “मुख्य साजिशकर्ता” के तौर पर की है. इसमें यह भी लिखा है कि अभियोजन का तर्क था कि एक जनवरी को माहर और मराठों के बीच हुई हिंसा उस भिड़ंत का नतीजा थी जो पांच दिन पहले वधु बुद्रुक में हुई थी. लेकिन दोनों ही मामलों में इन मामलों को देख रहे जजों ने पीड़ितों और अभियोजन पक्ष की दलीलों को खारिज कर दिया और एकबोटे को जमानत दे दी.

भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद दर्ज किए गए मामलों को आठ महीने से ज्यादा का समय हो गया. इनमें भीमा कोरेगांव जा रहे लोगों पर हमला, उनकी गाड़ियों की लूट के साथ दलितों के घरों और दुकानों की लूट के जैसे मामलें भी शामिल हैं. लेकिन पुणे ग्रामीण पुलिस ने अभी तक मामलों में आरोप पत्र दाखिल नहीं किया है. पुणे ग्रामीण पुलिस के अधीक्षक संदीप पाटिल ने मुझे बताया कि वह सावले के मामले में सितंबर के अंत तक आरोपपत्र दाखिल करेंगे. उन्होंने आगे जानकारी देते हुए बताया कि मामले में अब तक 110 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. लेकिन जब उन्हें जानकारी दी गई कि मामले में 1400 आरोपी हैं तो उन्होंने कहा कि उन्होंने हाल ही में अपना पद ग्रहण किया है. (सुवेज हक नाम के यहां के  पुलिस अधीक्षक का प्रमोशन हो गया है और अब वह सीबीआई का हिस्सा हैं.) महाराष्ट्र सरकार ने मामले में दो सदस्यों वाले न्यायिक आयोग का गठन किया है लेकिन फरवरी में बने इस आयोग ने अपनी पहली सुनवाई बीते पांच सितंबर को की.

पुलिस के सामने लंबित मामलों की संख्या, प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही और एकबोटे की जमानत की सुनवाई के दौरान कही गई बातों के अलावा भीमा कोरेगांव मामले में पुणे ग्रामीण पुलिस की सुस्त जांच का तरीका सवाल खड़े करता है. सितंबर की शुरुआत में मैंने हिंसा के आधा दर्जन प्रत्यक्षदर्शियों से बात की और सात पीड़ितों के उन हलफनामों को देखा जिन्हें दो सदस्यों वाले न्यायिक आयोग के पास जमा किया गया था. इनमें से कई ने कहा है कि शहीद स्मारक के रास्ते में उनकी पिटाई की गई और कुछ के तो घर महज इसलिए जला दिए गए क्योंकि वे लोग शहीद स्मारक जा रहे लोगों को खाने-पीने की चीजें मुहैया करा रहे थे.

कई प्रत्यक्षदर्शियों की कही गई बातें उन बातों का समर्थन करती हैं जो सावले और पुलिस ने कही हैं. इनमें वे बातें शामिल हैं जिनमें कहा गया है कि भिंडे और एकबोटे ने मिलकर हिंसा की साजिश रची थी. हिंसा की ये साजिश वधु बुद्रुक में माहरों और मराठों के बीच एक हफ्ते पहले हुई हिंसा का जवाब देने के लिए रची गई थी. लेकिन जब पूछा गया कि एफआईआर में नाम होने के बावजूद भिंडे की गिरफ्तारी क्यों नहीं की गई तो पाटिल ने कहा, “इन्होंने प्लान किया है लेकिन सीधे तौर पर शामिल नहीं हैं, अगर 120बी के तहत उनको गिरफ्तार किया जाना है तो उसके लिए सबूत होने चाहिए, न.” 120बी आईपीसी की वह धारा है जिसके तहत साजिश रचना आता है.

इस समुदाय के लोगों के इस त्यौहार में हर साल लगे रहने वाले पुण के एक सामाजिक कार्यकर्ता राहुल दांबले के मुताबिक भिंडे और एकबोटे के संस्थान हर साल माहर समुदाय के खिलाफ एक सोशल मीडिया कैंपेन चलाते हैं. ये कैंपेन सिंतबर महीने में ही शुरू होता है. दांबले ने कहा कि ये संस्थाएं सोशल मीडिया पर ऐसी बातें फैलाते हैं जिससे माहर समुदाय का नाम खराब होता है, जैसेकि, “माहर गद्दार हैं, पेशवा के खिलाफ हैं, ये काला दिन मनाएंगे.”

दांबले बताते हैं कि मराठा और माहर समुदायों के बीच विवाद का इतिहास बहुत पुराना है. ये सांभाजी भोसले की मौत से शुरू होता है. सांभाजी मराठी राजा शिवाजी के बेटे थे. माहरों के अनुसार सांभाजी जब मुगल बादशाह औरंगजेब के हाथों मारे गए तब गोविंद गोपाल गायकवाड़ ने उनकी अंतिम क्रिया की. गायकवाड़ की मृत्यु के बाद उनका मकबरा वधु बुद्रुक में सांभा जी के साथ बनाया गया. हर साल माहर जाति के लोग गायकवाड को श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए इसी मकबरे पर जाते हैं. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि गायकवाड़ ने औरंगजेब का फरमान नहीं मानते हुए राजा सांभाजी की अंतिम क्रिया की थी. दांबले ने मुझे बताया, “सांभाजी महारज के लिए जिस एक व्यक्ति ने अपनी जान दी वह एक माहर था और दोनों के मकबरे एक-दूसरे के साथ हैं.” दांबले ने आगे कहा, “गोपाल गोविंद माहर के इतिहास को कुचलने के लिए वह उस मकबरे को बर्बाद करना चाहते हैं जिसे अनुसूचित जाति के लोगों ने बनाया था.”

एकबोटे की जमानत की सुनवाई के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने कहा था कि भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा उस हिंसा से जुड़ी थी जो वधु बुद्रुक में बने मकबरे को लेकर हुई थी. पुलिस के मामले के बेल ऑर्डर में महाराष्ट्र सरकार के पक्ष के तौर पर लिखा है: “27 दिसंबर 2017 को वधु गांव में गोविंद माहर की कब्र के पास एक बोर्ड टंगा था जिस पर आपत्तिजनक बातें लिखी थीं और कुछ लोगों के साथ मिल कर सचिन भंडारे ने इसे वहां से हटा दिया. किसी ने जाति आधारित गालियां भी दी थीं. इनकी वजह से गांव का माहौल तनावपूर्ण था.” अदालत उस तख्ती का जिक्र कर रही थी जिसे माहर जाति के लोगों ने मकबरे के पास दिसंबर के अंत में लगाया था. बोर्ड पर गायकवाड़ के बारे में लिखा था कि औरंगजेब के खिलाफ जाकर उन्होंने अंतिम संस्कार किया था. अभियोजन पक्ष और वहां रहने वाले माहरों के मुताबिक मराठों ने यह बोर्ड उखाड़ फेंका और मकबरे को भी नुकसान पहुंचाया. दांबले का दावा है कि एकबोटे का संगठन गायकवाड़ के मकबरे को तोड़ना चाहता था “ताकि इतिहास में इसके साक्ष्य ही न  रहें.” उन्होंने आगे कहा, “उसी के आदमियों ने गायकवाड़ के मकबरे से तख्ती हटा दी.”

सरकारी अभियोजक ने अदालत को आगे बताया कि एकबोटे पास के गांव पेरने फाटा में स्थित सोनाई होटल में गया “29 दिसंबर 2017 को वहां उसने कुछ पत्रकारों से मुलाकात की और इस दौरान उन्होंने कुछ पर्चे दिए जिन्हें छापने को कहा.” अभियोजक ने आगे कहा, “इसी के बाद भीमा कोरेगांव और पूरे महाराष्ट्र में हिंसा फैल गई. इसी वजह से आरोपी की भूमिका मुख्य साजिशकर्ता की है.”

सावले मामले में भिंडे की जमानत की सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष ने एक पर्चे की कॉपी भी पेश की जिस पर एकबोटे के दस्तखत थे. इसी तरह के पर्चों को एकबोटे ने कथित तौर पर 29 दिसंबर को बांटा था. जिस पर्चे को अदालत के सामने पेश किया गया वह “जय श्री राम” के नारे के साथ शुरू होता है. इसमें लिखा है, “आज हमें सोचना चाहिए कि क्या अंग्रेजों की जीत का ऐसा जश्न मनाना सही है.” पर्चे में इस बात को नहीं माना गया है कि अंबेडकर ने भीमा कोरेगांव के सालाना जश्न की शुरुआत की थी. उल्टे इसमें लिखा है कि पीपल्स रिलब्लिकन पार्टी से महाराष्ट्र के पूर्व सांसद जोगेंद्र कावड़े ने गैंगस्टर हाजी मस्तान के साथ मिलकर इसकी शुरुआत की थी. पर्चे में लिखा है “यही सच है.” आगे लिखा है, “तब इसे भारतीय लोगों के बीच दरार पैदा करने के लिए शुरू किया गया था… इस शहीद स्मारक को तरजीह देना उन सिपाहियों का अपमान है जिन्होंने देश के लिए लड़ाई की है. अगर सरकार भी इसका साथ देती है तो यह  गलत बात है.”

दांबले ने मुझे बताया कि गायकवाड़ के मकबरे से तख्ती हटाने के बाद हुई भिंडत के बाद माहरों और मराठों ने वधु बुद्रुक में एक-दूसरे के खिलाफ मामला दर्ज कराया और अगले दिन एसपी ने दोनों पार्टियों की मीटिंग बुलाई. मीटिंग के बारे में बात करते हुए दांबले कहते हैं, “जब माहरों ने मराठों को बताया कि कैसे गायकवाड़ ने मुगलों के आदेश का उल्लंघन करके अपने प्यारे राजा का अंतिम संस्कार किया तब मराठों ने ये बात समझी और शांति के लिए तैयार हो गए जिसके बाद दोनों पक्षों ने मामले को 4 जनवरी को होने वाली अगली मुलकात के लिए स्थगित कर दिया.”

एकबोटे का संगठन किसी शांति समझौते के खिलाफ था और मराठों को हिंसा के लिए “उकसाया.” दांबले के मुताबिक एकबोटे ने मराठों से पूछा कि क्या वह  यह  मानने के लिए तैयार हैं कि उनके पूर्वज मुगलों से डरते थे और गायकवाड़ वह इकलौता शख्स था जिसने अपने राजा का अंतिम संस्कार करने के लिए औरंगजेब की खिलाफत की. अगले दिन 31 दिसंबर को भीमा कोरेगांव ग्रामसभा के सदस्य गणेश फडात्रे ने पुलिस को सूचना दी कि ग्राम पंचाय त ने एक जनवरी को बंद बुलाया है. दांबले का कहना है, “ये आश्चर्यजनक था कि दोनों समुदायों के बीच वधु बुद्रुक में भिड़त हुई थी लेकिन बंद का अह्वान वहां से तीन किलोमीटर दूर भीमा कोरेगांव में किया गया था और वह भी ठीक त्यौहार वाले दिन.” उन्होंने आगे कहा कि पुलिस को पहले से इत्तेला कर दिया गया था और उसे बंद से निपटने और हथियारों से लैस मराठों को रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए थे.

सावले की दोस्त अंजना के मामले में वकील तौसीफ शेख का कहना है कि बंद इसलिए बुलाया गया था ताकि वॉर मेमोरियल तक जाने वाले दर्शनार्थियों को सफर के दौरान भूख और प्यास से जूझना पड़े. शेख ने कहा कि कुछ लोगों ने इस बंद की खिलाफत की और ऐसा करने वालों में भीमा कोरेगांव में रेस्टोरेंट चलाने वाले मंगल कैलाश कांबले भी शामिल थे. लेकिन उन्हें एकबोटे के लोगों के कहर का सामना करना पड़ा.

दो सदस्यों वाले न्यायिक आयोग को जमा किए गए अपने शपथपत्र में कांबले ने कहा है कि 31 दिसंबर 2017 को गणेश उनके रेस्टोरेंट पर आए और उन्हें बंद की जानकारी दी. कांबले ने ये भी देखा कि गणेश ने उनके परिवार वालों से साजो सामान उतारने को कहा जिसे 200वें साल के जश्न के लिए लगाया गया था और तीर्थयात्रियों को किसी तरह का खाना-पानी बांटने को लेकर भी चेतावनी दी. इस दौरान कांबले के बेटे ने गणेश को बताया कि वे कल दर्शन के लिए जाएंगे क्योंकि वे ऐसा सालों से करते आए हैं और लोगों के लिए खाने-पीने का सामान भी तैयार करेंगे. इसके जवाब में गणेश ने धमकी देते हुए कहा कि ऐसा करने पर कांबले के घर और दुकान का नामों निशान मिट जाएगा. अगले दिन अपने वादे पर खरा उतरते हुए कांबले का परिवार भीमा कोरेगांव जाने वालों के लिए सुबह आठ बजे से चीजें तैयार करने लगा. आयोग को जानकारी देते हुए कांबले ने कहा है कि 11 बजे के आस-पास गणेश 20-25 लोगों के साथ आया, “पहले तो रेस्टोरेंट में मौजूद लोगों को पीटने लगा जिसके बाद मेरे बेटे की और मेरी भी पिटाई की.” आगे बताया गया है कि उनका बेटा इलाज के लिए उन्हें पुणे के ओमकार हॉस्पिटल ले गया और अगले दिन जब वे वापस आए, “2000 लोग घर और रेस्टोरेंट के पास इक्टठा हो गए और सब बर्बाद कर दिया. करीब पांच लाख रुपए का नुकसान हुआ.”

कांबले अकेले नहीं थे जिन्होंने लड़ाई के 200वें साल के जश्न के बाद भी हिंसा के जारी रहने की बात कही. विलास केरु इंग्ले ने एक ब्लड डोनेशन कैंप लगाने की सोची थी जिसे वह मेमोरियल पर एक जनवरी को लगाना चाहते थे. लेकिन उन्होंने अपने शपथपत्र में जानकारी दी है कि उन्हें पता चला कि “नीले झंडे वाली गाड़ियों को आग के हवाले किया जा रहा है और वहां पहुंच रहे परिवारों पर पत्थरबाजी करके उन्हें घायल किया जा रहा है,  महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा जा रहा.” दो जनवरी को इंगले लिखते हैं, “सर्वण जाति के लोग हमारे गांव के अनुसूचित जाति/जनजाति परिवारों पर हमले करने लगे और उनकी संपत्ति आग के हवाले करने लगे, लोगों पर पत्थरबाजी की और संपत्ति को भी नुकसान पहुंचाया.” उन्होंने आगे बताया, “हिंसा को रोकने के लिए तैनात किए गए पुलिस वालों ने हिंसा रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया और कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती चली गई.”

दांबले कहते हैं, “सवर्ण पुरुष 31 दिंसबर से ही वुधू में जुटना शुरू हो गए थे और त्यौहार वाले दिन उन्होंने तलवार, डंडों और पेट्रोल बम के साथ वुधू से भीमा कोरेगांव तक मार्च निकाला” दांबले ने मुझे बताया, “अगर पुलिस चाहती तो एक जनवरी के पहले ये सब रोक सकती थी.” दांबले ने यह भी कहा कि हिंसा इसलिए भी सुनियोजित लगती है क्योंकि लोग अपने घरों के छतों से पत्थर बरसा रहे थे जिससे साफ है कि इसके लिए पहले से तैयारी की गई होगी. “सड़क पर पत्थरबाजी समझा जा सकता है लेकिन लोग छत से पत्थर बरसा रहे थे.”

प्रत्यक्षदर्शियों के बेहद प्रभावी बयानों के बावजूद एकबोटे दोनों मामलों में बेल पाने में सफल रहे. सावले के मामले में तो उनके वकील, अभियोजक और अंजना समेत अन्य पीड़ितों के वकीलों ने भी बेल का विरोध किया. लेकिन मामले में जज प्रह्लाद सी बागुरे ने एकबोटे के खिलाफ हर दलील को खारिज कर दिया. उदाहरण के लिए पर्चे वाली बात को जज ने ये कहते हुए खारिज कर दिया कि यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के तहत सुरक्षित अधिकार है और पर्चे से ऐसा कुछ साबित नहीं होता कि इसकी वजह से एकबोटे के संगठन ने कोई अपराध किया हो. यह  भी कहा गया कि एकबोटे 19 अन्य मामलों में बेल पर है और अगर उन्हें बेल मिली तो फिर किसी अपराध को अंजाम दे सकते हैं. लेकिन इस दलील को भी खारिज कर दिया गया. ऐसे ही, पुलिस केस में भी जज एस ए मेनजोगे ने हर दलील को खारिज कर दिया और ये कहते हुए जमानत  दे दी कि “सिर्फ आपराधिक रिकॉर्ड होने की वजह से आरोपी को बेल नहीं देना सही नहीं होगा.”

दोंनों जजों ने कांस्टेबल नवनाथ गंगुर्दे के बयानों पर भी भरोसा जताया. कांस्टेबल नवनाथ को 30 दिसंबर से एक जनवरी के बीच एकबोटे का सिक्योरिटी ऑफिसर तैनात किया गया था. कांस्टेबल ने इसकी जानकारी दी कि इस दौरान एकबोटे कहां-कहां गए थे और इस जानकारी में उनके भीमा कोरेगांव जाने की बात कहीं नहीं थी. तौसीफ ने अदालत के इन बयानों पर भरोसा करने की आलोचना की है: “फिर 120बी किसके लिए है, आपराधिक षडयंत्र के लिए! सेक्शन क्या बोलता है- वो ऑपरेटर है, वो स्पॉट पर रहने की ज़रूरत थोड़े है.” मामले से जुड़े एक और वकील ने नाम नहीं बताने की शर्त पर गंगुर्दे के बयान पर भरोसा जताने को गलत बताया. वकील ने कहा कि जिस बिनाह पर एकबोटे को बेल मिली है, हम भी उनका इस्तेमाल अपने मुवक्किलों के लिए करते हैं लेकिन ऐसे मामलों में जज कहते हैं कि इसका इस्तेमाल सुनवाई के दौरान किया जा सकता है, जमानत  के लिए नहीं.

एसपी पाटिल ने दावा किया है कि पुलिस ने एकबोटे की जमानत को बॉम्बे उच्च न्यायालय के सामने चैंलेज किया था. हालांकि, अदालत की वेबसाइट पर ऐसी कोई जानकारी मौजूद नहीं है कि महाराष्ट्र सरकार ने जमानत  को लेकर कोई विरोध जताया हो. एकबोटे की जमानत के खिलाफ इकलौती अपील संजय रमेश भलेराव नाम के व्यक्ति ने की है. 20 जुलाई को इस अपील पर भूषण गवई और सारंग कोटवाल की बेंच को सुनवाई करनी थी और जमानत  ने आदेश दिया कि मामले को उस बेंच के पास ले जाया जाए जिसके सदस्य गवई न हों. अभी तक इस अपील की सुनवाई नहीं हुई है.

ये बेहद अहम है कि सावले के अलावा जितने भी प्रत्यक्षदर्शियों से मैंने बात की उनमें से किसी को भी पुलिस ने बयान दर्ज करने के लिए नहीं बुलाया है. दांबले ने कहा कि वह दो बार पुलिस स्टेशन गए थे लेकिन पुलिस ने उनका बयान लेने से मान कर दिया. ठीक इसी तरह, मंगल कांबले, रेखा महिंद्रा गायकवाड़, राम कैलाश कांबले, विकास केरु इंग्ले और अंजना गायकवाड़ वे नाम हैं  जिनके बयान न्यायिक आयोग के पास तो दर्ज हुए हैं लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें कभी भी पुलिस वालों ने इसके लिए नहीं बुलाया. भीमा कोरेगांव मामले में पुणे की ग्रामीण पुलिस की कलाई इसी बात से खुलती है कि वह  उन लोगों के बयान तक दर्ज नहीं करा पाई जो ना सिर्फ इस हिंसा के चश्मदीद हैं बल्कि इसका शिकार भी हुए हैं.

उल्टे, पुणे सिटी पुलिस ने इसी मामले में हिंसा के आठ दिन बाद दर्ज कराई गई एफआईआर को आधार बनाकर 10 जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और लेखकों को गिरफ्तार किया है. इनके ऊपर माओवादी होने का आरोप लगाकर इन्हें इस हिंसा को भड़काने का आरोपी बनाया गया है. ये गिरफ्तारियां उन 22 में से किसी एफआईआर के आधार पर नहीं की गई जिन्हें पुणे ग्रामीण पुलिस ने दर्ज किया था, बल्कि ये मामला तुषार दमगुड़े नाम के व्यक्ति ने दर्ज कराया है. तुषार पुणे स्थित एक बिजनेसमैन हैं जिन्हें मनोहर भिंडे के समर्थक के तौर पर जाना जाता है. दमगुड़े ने आरोप लगाया है कि एल्गार परिषद में दिए गए भड़काऊ भाषण से हिंसा भड़की. एल्गार परिषद एक बड़े पैमाने पर की गई सार्वजनिक सभा थी जिसका आयोजन सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त जज पीबी सावंत और मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व जज बीजी कोलसे पाटिल ने किया था. पुलिस की कार्रवाई इसलिए हास्यास्पद लगती है क्योंकि एल्गार परिषद के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया जिससे भीड़ हिंसा के लिए भड़के और इसका आयोजन 31 दिसंबर को भीमा कोरेगांव से कम से कम 30 किलोमीटर दूर पुणे के शनिवार वाड़ा में किया गया था.  भीमा कोरेगांव के प्रत्यक्षदर्शी और उनके वकील इन गिरफ्तारियों से सकते में आ गए. एल्गार परिषद के आयोजकों में शामिल सुधीर धावाले के अलावा गिरफ्तार किए गए किसी भी एक्टिविस्ट का नाम दमगुड़े की एफआईआर में शामिल नहीं था. ना तो उनका एल्गार परिषद के इस कार्यक्रम से कोई लेना-देना था. कई लोगों ने मुझे बताया कि इन एक्टिविस्टों का भीमा कोरेगांव या इसके आस-पास के लोगों से कोई लेना-देना नहीं रहा. उनके मुताबिक इनमें से कोई एक्टिविस्ट ना तो कभी उनके गांव आया ना ही उनके किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया. सावंत ने भी मुझसे यही कहा कि जिनकी गिरफ्तारी हुई है वे “ऐसे लोग हैं जिन्हें मैं बिल्कुल नहीं जानता, मुझे समझ नहीं आ रहा कि पुलिस क्या साबित करना चाह रही है.” एक पीड़ित के वकील कुमार कलेल ने पूछा, “अचनाक से पुणे सिटी पुलिस को क्या हुआ कि इसने छह महीने बाद भीमा कोरगांव हिंसा के आठ दिन बाद दर्ज कराई गई एफआईआर को आधार बनाकर लोगों को गिरफ्तार कर लिया.” अंजना के वकील तौसीफ कहते हैं कि ये गिरफ्तारियां एकबोटे से ध्यान भटकाने की कोशिश है. क्योंकि अप्रैल के करीब जब हिंदुत्व वादी नेताओं को जमानत पर रिहा किया गया था तब पुलिस के ऊपर दबाव था कि भीमा कोरेगांव मामले में चार्जशीट दायर करे और एकबोटे की पहचान इस मामले के “मुख्य आरोपी” के तौर पर की गई थी. उन्होंने कहा कि गिरफ्तारियों से पुलिस की कार्रवाई में विरोधाभास नज़र आता है. आगे कहते हैं, “एक तरफ तो ग्रामीण पुलिस का कहना है कि भिंडे और एकबोटे वे मुख्य आरोपी हैं जिन्होंने हिंसा को अंजाम दिया, वहीं पुणे सिटी पुलिस कहती है कि नक्सलियों ने हिंसा को अंजाम दिया.” नाम नहीं लेने की शर्त पर एक और वकील का यही कहना है कि सरकार ने भीमा कोरेगांव मामले में नक्सल कनेक्शन इसलिए “खोज निकाला” क्योंकि एकबोटे और भिंडे को चार्जशीट होने से बचा सके.

कलेल और तौसीफ ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक याचिक दाखिल की है. याचिका में मामले को राष्ट्रीय जांच एजेन्सी (एनआईए) के हवाले करने की मांग की गई है क्योंकि गिरफ्तार किए गए एक्टिविस्टों को यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम) के तहत गिरफ्तार किया गया है. कलेल ने यह भी कहा कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि पुणे पुलिस ने प्रेस के सामने वह दस्तावेज क्यों दिखाया जिसे वह अहम सुराग बता रही थी, ऐसा होने की स्थिति में इसे अदालत के सामने पेश किया जाना चाहिए था. उन्होंने कहा, “आप प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाते हैं. आप कौन हैं. आपको जो कहना है अदालत के सामने कहिए. पब्लिक को ये सब दिखाने का क्या मतलब है.” तीन सितंबर को बॉम्बे उच्च अदालत ने भी ऐसा करने की वजह से पुलिस की खिंचाई की.

सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और लेखकों को दो बार में गिरफ्तार किया गया. छह जून को सिटी पुलिस ने दिल्ली, मुंबई और नागपुर जैसे शहरों में छापे मारकर रोना विल्सन, सुधीर धावले, शोमा सेन, महेश रावत और सुरेंद्र गडलिंग को गिरफ्तार किया. पुलिस ने इन पांचों आरोपियों पर यूएपीए की धाराएं लगाईं. हालांकि, इनकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस अभी तक अपनी चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई है. दो सितंबर को पुणे कोर्ट ने पुलिस को 90 दिनों का समय और दिया है ताकि पुलिस अपनी चार्जशीट दाखिल कर सके. गिरफ्तारियों की ऐसी ही दूसरी लहर 28 अगस्त को तब आई जब पिछली गिरफ्तारियों की तर्ज पर पुलिस ने कई शहरों में छापे मारकर सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, वेरनॉन गोंजाल्विस, वरवर राव और गौतम नवलखा को गिरफ्तार कर लिया. इन लोगों को हिरासत में लेने के पुणे पुलिस के अरमानों पर तब पानी फिर गया जब इतिहासकार रोमिला थापर के अलावा चार और याचिकाकर्ता सर्वोच्च अदालत पहुंच गए और इन गिरफ्तारियों को पुलिस के सहारे विरोध की आवाज़ को दबाने का प्रायस बताया. अदालत ने रिमांड देने की जगह इन लोगों को इनके घरों के भीतर नज़रबंद रखा है.

इस बीच अनीता ने बॉम्बे उच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया है. उन्होंने भिंडे की गिरफ्तारी की मांग की है. हिंदुत्ववादी के नेताओं के खिलाफ अदालत की निगरानी में जांच और समय पर पड़ताल पूरी करने की भी मांग की गई है. भीमा कोरेगांव और उसके आप-पास के अन्य चश्मदीदों ने मुझे बताया कि वे भी इस पर विचार कर रहे हैं कि उनकी संपत्ति को हुए नुकसान के लिए उच्च अदालत का दरवाजा खटखटाएं और इसकी क्षतिपूर्ति करने की मांग करें और मुख्य आरोपी को जल्द गिरफ्तार करने की भी मांग करें. सावले ने अपनी याचिका में विनती की है और कहा है कि एफआईआर में नाम होने के बावजूद भिंडे ना तो गिरफ्तार हो रहा है और ना ही उसके खिलाफ जांच हो रही है. सावले का दावा है कि सोशल मीडिया पर 30 दिसंबर को वायरल हुए एक मैसेज में साफ दिख रहा है कि भिंडे और उसके संगठन के लोग भीमा कोरेगांव में भड़की हिंसा में शामिल हैं. उनकी याचिका पर अगली सुनवाई 26 सितंबर को होनी है.

एकबोटे के वकील नितिन प्रधान का कहना है कि उनका मुवक्किल मौका ए-वारदात पर मौजूद नहीं था और इसी वजह से उन्हें हिंसा की साजिश रचने का आरोपी नहीं बनाया जा सकता. प्रधान के पास हिंसा को लेकर अपनी थ्योरी है. प्रधान कहते हैं, “पूरा लेफ्ट, यहां तक की नक्सल आज गैंग बनाकर एक हो गया है. वह [नरेंद्र] मोदी और फडणवीस सरकार को बदनाम करना चाहते हैं. फडणवीस खुद एक ब्राह्मण हैं. मुझे ऐसा लगता है कि उनके दिमाग पर कोई प्रभाव पड़ा है- आपको बताया जाता है, ‘तुम एक ब्राह्मण हो, तुम एक ब्राह्मण हो, तुम शासन चलाने के इसलिए लायक नहीं हो क्योंकि तुम्हारे पुरखे कुछ करते थे.’ यह एक मनोवैज्ञानिक युद्ध है.”


Sagar is a staff writer at The Caravan.