खून और स्याही

एक पत्रकार की आंखों से 1984 का सिख नरसंहार

1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिख विरोधी हिंसा की एक तस्वीर.
पी दयाल / बीसीसीएल
1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिख विरोधी हिंसा की एक तस्वीर.
पी दयाल / बीसीसीएल

वह मेरे जीवन का सबसे वीभत्स दृश्य था. दिल्ली पुलिस के सब्जी मंडी स्थित मुर्दाघर में मैंने जो मंजर देखा वह ऐसा था कि मेरे साथी पत्रकार दीपांकर डे सरकार उल्टियां करने लगे थे.

वह 1 नवंबर 1984 का दिन था और इंदिरा गांधी को उनके सिख सुरक्षागार्डों द्वारा गोली मारे जाने के 24 घंटे हुए थे. भयानक हिंसा में निर्दोष सिखों को निशाना बनाया जा रहा था. यह मध्यकालीन न्याय की क्रूर नुमाइश थी. उस दिन मैं, सरकार और राजीव पांडे हत्याकांड की रिपोर्ट करने दो स्कूटरों से निकले थे कि हमने देखा कि दिल्ली कैंटोनमेंट रेलवे स्टेशन में ट्रैक से कुछ दूर एक नौजवान सिख का अधजला शव पड़ा है. वहां खड़े लोगों ने बताया कि शायद वह वह नौजवान ट्रेन से आकर स्टेशन पर उतरा था और बाद में उसको घेर कर बेरहमी से मार दिया गया. जब हम उनकी बातों के नोट्स ले रहे थे कि वहां मौजूद एक सैन्य अधिकारी ने बताया कि हम लोग शहर में घूम-घूम कर क्यों अपना वक्त जाया कर रहे हैं बल्कि हमें तो दिल्ली पुलिस के शवगृह में जा कर हत्याकांड के स्तर को समझना चाहिए.

फिर दोपहर को हम मुर्दाघर आ गए. छह साल के अपने पत्रकारिता करियर में मैं पहली दफा किसी मुर्दाघर आया था. उसके इंचार्ज डॉ. एलटी रमानी और उनका छोटा सा स्टाफ घबराए हुए थे. लाशों की लाइन दिखाते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “इतनी लाशें हैं कि सभी का पोस्टमार्टम करना असंभव है.” जब हम रमानी से बात कर ही रहे थे कि हमने देखा कि एक अधेड़ उम्र का आदमी शवों को ठेले में लाकर ऐसे पटक रहा है मानों वे खून से रंगे लाल बोरे हों.

मैं शवों की गिनती करने लगा ही था कि एक पुलिस वाले ने मुझसे कहा, “तुम इनकी गिनती तो कर लोगे लेकिन क्या तुम अंदर के कमरे में जो लाशें पड़ी है उनकी भी गिनती करोगे?” मैंने पूछा कि कौन सा कमरा और वहां कितनी लाशें हैं तो उसने कहा तुम खुद ही क्यों नहीं जा कर देख लेते. पांडे, सरकार और मैं एक बड़े कमरे की ओर बढ़ गए और जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचे एक भयानक बदबू में नहा गए. कमरे में सिख आदमियों, औरतों और बच्चों के शव बिखरे पड़े थे. मुझे बाद में पता चला कि ये लोग रेल यात्री थे जिन्हें नहीं पता था कि उनके साथ क्या होने वाला है. दिल्ली की सीमा पर उन्हें ट्रेन रोककर जबरदस्ती निकाला गया और बेरहमी से कत्ल कर दिया गया.

वहां पिरामिड के जैसा शवों का अंबार लगा था. हर तरफ खून ही खून था. तभी सरकार उल्टियां करने लगा. कुछ देर रुकने की कोशिश करने के बाद पांडे और मैं भी घबराकर वापस लौट आए. रमानी ने मुझे बताया कि मुर्दाघर में सिख विरोधी हिंसा के शिकार 350 से ज्यादा लोगों के शव पड़े हैं. और हर आधे घंटे में और शव आ रहे हैं. डॉ. रमानी ने सुना था कि पूरी दिल्ली में कत्लेआम जारी है. एक पुलिस वाले ने भी पुष्टि की कि हां, हिंसा जारी है. लेकिन इसके बावजूद सरकार के प्रवक्ता दावा कर रहे थे कि भीड़ की हिंसा में बहुत कम लोग मारे गए हैं और शहर में स्थिति नियंत्रण में है.

एमआर नारायण स्वामी वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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