खून और स्याही

एक पत्रकार की आंखों से 1984 का सिख नरसंहार

1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिख विरोधी हिंसा की एक तस्वीर. पी दयाल / बीसीसीएल

वह मेरे जीवन का सबसे वीभत्स दृश्य था. दिल्ली पुलिस के सब्जी मंडी स्थित मुर्दाघर में मैंने जो मंजर देखा वह ऐसा था कि मेरे साथी पत्रकार दीपांकर डे सरकार उल्टियां करने लगे थे.

वह 1 नवंबर 1984 का दिन था और इंदिरा गांधी को उनके सिख सुरक्षागार्डों द्वारा गोली मारे जाने के 24 घंटे हुए थे. भयानक हिंसा में निर्दोष सिखों को निशाना बनाया जा रहा था. यह मध्यकालीन न्याय की क्रूर नुमाइश थी. उस दिन मैं, सरकार और राजीव पांडे हत्याकांड की रिपोर्ट करने दो स्कूटरों से निकले थे कि हमने देखा कि दिल्ली कैंटोनमेंट रेलवे स्टेशन में ट्रैक से कुछ दूर एक नौजवान सिख का अधजला शव पड़ा है. वहां खड़े लोगों ने बताया कि शायद वह वह नौजवान ट्रेन से आकर स्टेशन पर उतरा था और बाद में उसको घेर कर बेरहमी से मार दिया गया. जब हम उनकी बातों के नोट्स ले रहे थे कि वहां मौजूद एक सैन्य अधिकारी ने बताया कि हम लोग शहर में घूम-घूम कर क्यों अपना वक्त जाया कर रहे हैं बल्कि हमें तो दिल्ली पुलिस के शवगृह में जा कर हत्याकांड के स्तर को समझना चाहिए.

फिर दोपहर को हम मुर्दाघर आ गए. छह साल के अपने पत्रकारिता करियर में मैं पहली दफा किसी मुर्दाघर आया था. उसके इंचार्ज डॉ. एलटी रमानी और उनका छोटा सा स्टाफ घबराए हुए थे. लाशों की लाइन दिखाते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “इतनी लाशें हैं कि सभी का पोस्टमार्टम करना असंभव है.” जब हम रमानी से बात कर ही रहे थे कि हमने देखा कि एक अधेड़ उम्र का आदमी शवों को ठेले में लाकर ऐसे पटक रहा है मानों वे खून से रंगे लाल बोरे हों.

मैं शवों की गिनती करने लगा ही था कि एक पुलिस वाले ने मुझसे कहा, “तुम इनकी गिनती तो कर लोगे लेकिन क्या तुम अंदर के कमरे में जो लाशें पड़ी है उनकी भी गिनती करोगे?” मैंने पूछा कि कौन सा कमरा और वहां कितनी लाशें हैं तो उसने कहा तुम खुद ही क्यों नहीं जा कर देख लेते. पांडे, सरकार और मैं एक बड़े कमरे की ओर बढ़ गए और जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचे एक भयानक बदबू में नहा गए. कमरे में सिख आदमियों, औरतों और बच्चों के शव बिखरे पड़े थे. मुझे बाद में पता चला कि ये लोग रेल यात्री थे जिन्हें नहीं पता था कि उनके साथ क्या होने वाला है. दिल्ली की सीमा पर उन्हें ट्रेन रोककर जबरदस्ती निकाला गया और बेरहमी से कत्ल कर दिया गया.

वहां पिरामिड के जैसा शवों का अंबार लगा था. हर तरफ खून ही खून था. तभी सरकार उल्टियां करने लगा. कुछ देर रुकने की कोशिश करने के बाद पांडे और मैं भी घबराकर वापस लौट आए. रमानी ने मुझे बताया कि मुर्दाघर में सिख विरोधी हिंसा के शिकार 350 से ज्यादा लोगों के शव पड़े हैं. और हर आधे घंटे में और शव आ रहे हैं. डॉ. रमानी ने सुना था कि पूरी दिल्ली में कत्लेआम जारी है. एक पुलिस वाले ने भी पुष्टि की कि हां, हिंसा जारी है. लेकिन इसके बावजूद सरकार के प्रवक्ता दावा कर रहे थे कि भीड़ की हिंसा में बहुत कम लोग मारे गए हैं और शहर में स्थिति नियंत्रण में है.

हम लोग तेजी से स्कूटर चला कर अपने ऑफिस आए. उस वक्त हम लोग समाचार एजेंसी यूएनआई में काम करते थे. सबसे पहले मैंने सोचा कि मैं यूएनआई के एडिटर और जनरल मैनेजर यूआर कलकुर को स्थिति से अवगत करा दूं. सामान्य तौर पर असमय मुलाकत की अनुमति के लिए मैं उन्हें फोन करता था या उनकी सेक्रेटरी से कहता था लेकिन उस दिन मैं बेधड़क कलकुर के दरवाजे पर जा पहुंचा. वहां मैंने देखा कि कलकुर के पास अरुण शौरी बैठे हुए हैं. उस वक्त अरुण शौरी इंडियन एक्सप्रेस में काम करते थे. कलकुर ने मुझे देखते ही भांप लिया कि मामला गंभीर है. जब मैंने उन्हें बताया कि हमने शवगृह में क्या देखा और डॉक्टरों के अनुसार मृतकों की संख्या कितनी है तो यह सुनते ही शौरी ने टेबुल पर मुक्का मारते हुए कहा, “देखा मैं यही बताने की कोशिश कर रहा हूं. सरकार झूठ बोल रही है. ये कोल्ड ब्लडेड हत्याएं हैं. आपके रिपोर्टर ही बता रहे हैं.”

कलकुर से हरी झंडी मिलने के बाद मैं अपने रेमिंगटन टाइपराइटर पर तेजी से रिपोर्ट टाइप करने लगा. वह स्टोरी जल्दी से यूएनआई की न्यूज सर्विस से लोगों तक पहुंच गई और तहलका मच गया. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के पत्रकारों की फौज दिल्ली पुलिस के शवगृह पर पहुंच गई. इंदिरा गांधी की हत्या की कहानी ने अब एक नाटकीय मोड़ ले लिया था. एक आर्मी ऑफिसर की टीप से दुनिया को भारत की राजधानी में हो रहे नरसंहार का पता चल गया जिसे सरकार छुपा लेना चाहती थी.

इसके बाद भारत सरकार ने हिंसा पर नियंत्रण करने के लिए जल्दी ही सेना बुला ली. यदि यह पहले हो जाता तो बहुत से अन्य लोगों की जान बच जाती. लेकिन सेना के आने के बावजूद शहर में स्थिति अगले दो दिनों तक नियंत्रण में नहीं आई. खैर, यह एक अलग कहानी है.

1984 का कत्लेआम अचानक नहीं हुआ था. इसकी तैयारी कांग्रेस से जुड़े नेताओं ने की थी और इसमें वे गलाकाटू भी शामिल हो गए जिन्होंने शहर में लूटमार कर मुनाफा कमाया. हममें से कई पत्रकारों ने यह सब बहुत नजदीक से देखा. और दिल्ली पुलिस के बारे में तो जितना कहा जाए कम है.

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इंदिरा गांधी की हत्या के बाद क्या बवंडर आने वाला है इसका पहला संकेत तब मिला जब 31 अक्टूबर को शाम 5 बजे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह उत्तरी यमन की अपनी यात्रा को अधूरा छोड़ भारत लौट आए थे और ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज यानी एम्स में, जहां गांधी को गंभीर हालत में ले जाया गया था, जा रहे थे. भीड़ ने रास्ते में उनके काफिले को रोकने की कोशिश की लेकिन जब रोकने में सफल न हो सकी तो एम्स से महज एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित कमल सिनेमा के पास काफिले पर पथराव करने लगी.

जैल सिंह भारत के पहले सिख राष्ट्रपति थे और कांग्रेस के पुराने नेता. उन्हें हमले में चोट तो नहीं आई लेकिन वह हिल गए थे. लेकिन अन्य हजारों निर्दोष सिख उनके जितने भाग्यशाली नहीं थे. उनके मामले की तरह ही राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के काफिले पर हमला करने वालों में से किसी को भी पकड़ा नहीं गया. वह भीड़ नारे लगा रही थी : “खून का बदला खून से”. पल-पल उन्माद तीव्र होता जा रहा था.

शहर में भारी संख्या में पुलिस तैनात तो थी लेकिन वह मूकदर्शक बनी हुई थी. भीड़ नारे लगा रही थी और राजधानी के हर हिस्से में हिंसा फैल चुकी थी. तब तक एचकेएल भगत, ललित माकन, सज्जन कुमार और धरमदास शास्त्री जैसे कांग्रेस के कद्दावर नेता एम्स से होकर लौट गए थे. इस इलाके में एक अन्य कांग्रेसी नेता अर्जुन दास मौजूद थे जो राजनीति में आने से पहले साइकिल सुधारा करते थे और संजय गांधी के खास रहे थे.

आगे की घटनाओं से पता चलता है कि अपने-अपने इलाकों में कांग्रेस के नेताओं ने उन सिखों पर हमला करने के लिए भीड़ को उकसाया जिनका खालिस्तान से कोई वास्ता नहीं था. इन कांग्रेसी नेताओं की करनी से इतने अलगाववादी पैदा हुए जितने पाकिस्तान और जरनैल सिंह भिंडरावालां भी नहीं कर पाए थे.

गांधी की हत्या के देश भर में सिखों की हत्या की गई. जैक लैंगेविन / सिग्मा / गैटी इमेजिस

एम्स में इंदिरा गांधी के लिए शोक मनाने आए लोगों में ढेरों सिख थे लेकिन सिख विरोधी हिंसा इतनी तीव्र हो चुकी थी कि धीरे-धीरे वे लोग वहां से हट गए. इसके कुछ घंटों बाद मैंने और एक अन्य रिपोर्टर जसप्रीत लूथरा ने आगजनी की पहली घटना देखी. किदवई नगर में, जो एम्स के पास है, रिंग रोड के पास आगजनी हुई थी. सिखों के मालिकाना वाली कुछ निजी बसों को आग के हवाले कर दिया गया था और लोग तब भी नारे लगा रहे थे “खून का बदला खून से”. उस वक्त आस-पास एक भी पुलिस वाला नहीं था और कोई आया भी नहीं. जसप्रीत ने जल्दी से अपना कड़ा निकाल कर रख लिया और मुझसे कहा कि मैं उसे नाम से न बुलाऊं क्योंकि नाम लेते ही उसकी पहचान खुल जाएगी.

गौरतलब है कि यह तब की बात है जब 24 घंटे चलने वाले समाचार चैनल और मोबाइल फोन नहीं होते थे. और इस वजह से हत्यारों का गिरोह मौके से आसानी से निकल जाता था. पत्रकारों को अपनी खबरों को या तो फोन पर डिक्टेट कराना होता था या उन्हें अपनी स्टोरी फाइल करने के लिए हर बार अपने दफ्तर पहुंचना पड़ता था.

देर रात जब मैं यूएनआई पहुंचा तो मैंने पाया कि मेरी हिंसा की स्टोरी अभी भी लटकी हुई है. उसे महत्व नहीं दिया जा रहा है जबकि वायर से संवेदनाएं व्यक्त करने वाली खबरें भेजी जा रही हैं. सच तो यह है कि अधिकांश पत्रकारों को हिंसा की उम्मीद नहीं थी. न्यूज रूम में मैंने लोगों को कहते सुना कि हिंसा अकस्मात हुई है और जल्दी ही रुक जाएगी. मुझे उनकी बातों पर यकीन नहीं आया लेकिन फिर भी मैंने उनसे कुछ नहीं कहा.

यह मानकर की स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाएगी, मैंने दो काम किए. पहला, रफी मार्ग में यूएनआई के दफ्तर के बाहर स्थित टैक्सी स्टैंड के सिखों को मैंने कहा कि वे अपनी गाड़ियां सुरक्षित स्थान में रखवा दें. उनको यह समझने में थोड़ा वक्त लगा कि मैं सच में उनकी मदद करना चाहता हूं. उसके कुछ सालों बाद मेरी मुलाकात एक बार उनमें से एक टैक्सी ड्राइवर से अचानक हुई तो उसने मुझे बताया कि यदि उन लोगों ने मेरी बात उस दिन नहीं मानी होती तो उनकी एक भी टैक्सी नहीं बचती.

31 अक्टूबर की देर रात मैंने देखा कि मेरा एक सिख साथी बड़े इत्मीनान से प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में बियर पी रहा है. मैंने उसे बताया कि बाहर क्या हो रहा है और यह भी कहा कि वह जल्दी से अपने घर चला जाए. उसने मेरी बात मान ली. एक हफ्ते बाद उसने मुझे जान बचाने के लिए शुक्रिया किया. दिल्ली भर में बहुत से गैर सिखों ने उस वक्त अपने सिख पड़ोसियों और दोस्तों की जान बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी थी. यहां तक कि कई बार एकदम अजनबियों को बचाने के लिए भी लोग सामने आए.

मेरे दिवंगत साथी जसविंदर सिंह जो उस वक्त हिंदी साप्ताहिक धर्मयुग में काम करते थे, मेरे पास यूएनआई के दफ्तर में कैंची लेकर आए और मुझ से कहने लगे कि मैं उनके केश काट दूं. यह सुनकर मैं सहम गया. उनका ऐसा करना सिख धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ था. लेकिन जस्सी ने बाल काट देने पर जोर देते हुए कहा कि “मैं एक पत्रकार हूं और मुझे जमीन पर मौजूद रह कर काम करना है और मैं यह तब तक नहीं कर सकता जब तक कि मेरे पगड़ी है.” उन्होंने मुझसे कहा कि अगर मैंने बाल नहीं काटे तो वह किसी और से कटवा लेंगे. फिर मैंने वह पाप कर दिया.

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31 अक्टूबर से लेकर 5 नवंबर तक दिल्ली में हिंसा चलती रही. नवंबर के पहले तीन दिन सबसे खराब थे. दिल्ली कैंटोनमेंट का गोपीनाथ बाजार शांति के एक झरने की तरह था. वहां हिंदू और सिख मर्द इलाके की पहरेदारी कर रहे थे ताकि उपद्रवी इलाके में घुसने न पावें. लेकिन बाकी जगह भीड़ निरंकुश थी. सरोजिनी नगर, नेताजी नगर, लाजपत नगर, पंजाबी बाग, रजौरी गार्डन, कनॉट प्लेस, वसंत विहार, खान मार्केट, जनकपुरी, जहांगीरपुरी, कल्याणपुरी, सीलमपुर, शकरपुर, पांडव नगर, वेस्ट पटेल नगर, नारायणा, रकाबगंज गुरुद्वारा, पहाड़गंज, चांदनी चौक, साकेत, तुगलकाबाद और पंचशील में तबाही मची हुई थी. इनमें रहने वाले अधिकांश लोग मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के लोग थे जिन्होंने ऐसी हिंसा शायद ही पहले कभी देखी थी.

त्रिलोकपुरी और भजनपुरा सहित पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों में नरसंहार चल रहा था. सिख हिंसा में मारे गए 2733 सिखों में से 1234 सिख केवल पूर्वी दिल्ली में मारे गए थे. ऐसा कहना है 1987 में दिल्ली के गृह सचिव आरके ओझा के नेतृत्व में बनी कमेटी का. यह घना आबादी वाला इलाका जमुना पार कहलाता है और यहां के सांसद थे एचकेएल भगत. आहूजा कमेटी का अनुमान है कि कल्याणपुरी पुलिस स्टेशन के क्षेत्राधिकार में 310 मौतें हुई थीं और त्रिलोकपुरी के ब्लॉक 32 और ब्लॉक 36 में जघन्य हत्याकांड हुआ था. त्रिलोकपुरी में जहां नरसंहार हुआ वह दिल्ली पुलिस मुख्यालय से केवल एक किलोमीटर की दूरी पर है. इस नरसंहार का खुलासा किया था तीन पत्रकारों ने : राहुल बेदी, जोसेफ मलैकन और आलोक तोमर ने. जब वे लोग त्रिलोकपुरी पहुंचे तो उन्होंने देखा कि गलियों में कटे हुए हाथ-पैर और जली हुई लाशें बिखरी पड़ी हैं. परेशान लोगों द्वारा मिन्नतें किए जाने के बावजूद पुलिस ने उन्हें बचाने का प्रयास नहीं किया. उल्टे इस इलाके के पुलिस अधिकारियों ने पत्रकारों को यह बताकर गुमराह करने की कोशिश की कि एकाध हत्याओं के अलावा स्थिति नियंत्रण में है.

2007 में आई पत्रकार मनोज मित्ता और अधिवक्ता एचएस फुल्का की किताब व्हेन ट्री शुक दिल्ली: 1984 कार्नेज एंड इट्स आफ्टमाथ में बताया गया है कि पूर्वी दिल्ली में दिल्ली पुलिस ने आगजनी के मामले में सिर्फ चार लोगों को गिरफ्तार किया, जबकि उसने उसी इलाके के 26 सिखों को गिरफ्तार किया जो खुद को बचाने का प्रयास कर रहे थे. यही स्थिति कमोबेश पश्चिमी दिल्ली में भी थी जहां 31 दंगाइयों को और 40 सिखों को गिरफ्तार किया गया था.

रकाबगंज गुरुद्वारा में मेरा आमना-सामना भीड़ से हुआ. भीड़ गुरुद्वारे में पत्थर मार रही थी. पुलिस कमिश्नर सुभाष टंडन वहां मौजूद थे. पुलिस ने गोलियां चलाईं लेकिन उपद्रवियों पर नहीं बल्कि गुरुद्वारे के अंदर मौजूद लोगों पर. अन्य पत्रकारों ने उसी जगह पर मध्य प्रदेश से कांग्रेस के सांसद कमलनाथ को देखा था. वहां भीड़ ने दो सिखों को पकड़ लिया और उन्हें जलाकर मार डाला. बाद में मध्य दिल्ली में बाबा खड़क सिंह मार्ग में, जहां बंगला साहिब गुरुद्वारा है, मेरे दोस्त ने सिखों को तलवारें लेकर सैनिकों की तरह लाइन बनाकर खड़ा देखा. देखने पर आक्रमक दिखने वाले ये लोग वास्तव में प्रार्थना करने आए लोगों को सुरक्षा दे रहे थे.

अपनों के शवों को उठाते सिख. पीटर केंप/ एपी फोटो

पुलिस के आला अधिकारी मैक्सवेल परेरा ने चांदनी चौक में एक सिख की जूतों की दुकान को लूट रहे लोगों पर गोली चलाने के आदेश दिए. गोलीबारी में एक दंगाई की मौत हो गई और परेरा ने तुरंत ही लाउडस्पीकर से दंगाई को मारने वाले कॉन्स्टेबल को 200 रुपए के इनाम का एलान कर दिया. तुरंत ही भीड़ ऐतिहासिक शीशगंज गुरुद्वारे से भाग खड़ी हुई.

इन दो गुरुद्वारों पर हमला खासतौर पर शर्म की बात थी. जो भीड़ गुरुद्वारों पर हमला कर रही थी उसे पता नहीं था या शायद उसे इस बात की परवाह नहीं थी कि शीशगंज गुरुद्वारा एकदम उसी स्थान पर बना है जहां पर सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर का गला मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेश काटा गया था जबकि वह उन हिंदुओं की मदद कर रहे थे जिन्होंने उनसे मदद मांगी थी. वहीं, रकाबगंज गुरुद्वारा उस स्थान पर बना था जहां पर गुरु तेग बहादुर के शीश को औरंगजेब के सैनिकों के हाथों में पड़ने से बचाकर दफनाया गया था. उन बदमाशों ने गुरु तेग बहादुर की कुर्बानी का बदला उनकी याद में बने गुरुद्वारों पर हमला करके दिया.

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2 नवंबर को मैं राजौरी गार्डन में था जब मैंने देखा कि कुछ लोग यह कह कर सिखों के कत्लेआम को सही ठहरा रहे हैं कि उन लोगों ने इंदिरा गांधी की हत्या का जश्न मनाया. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे एक गलती दूसरी गलती के लिए जायज है. मैंने वहां खड़े एक आदमी से पूछा कि क्या उसने सिखों को जश्न मनाते देखा है. उसने कहा, “भाई साहब, सबने देखा है.” वहां मौजूद दूसरे लोगों ने कहा कि वह आदमी सही कह रहा है. लेकिन मैं अपनी बात से पीछे नहीं हटा और फिर पूछा, “लेकिन क्या तुमने देखा है?” वह आदमी अचकचा गया और इधर उधर ताकते हुए जोर से बोलने लगा, “गुड्डू कहां है? गुड्डू ने देखा है.” लेकिन गुड्डू का कहीं अता-पता नहीं था.

वहां मौजूद किसी ने भी सिखों को जश्न मनाते नहीं देखा था. हां, यह बात अलग है कि लंदन में नौजवान सिखों द्वारा इंदिरा गांधी की हत्या का जश्न मनाने वाली तस्वीरें आई थीं लेकिन दिल्ली या भारत के अन्य किस इलाके में ऐसा नहीं हुआ था. मनगढ़ंत कहानियां अपने खतरनाक प्रभाव के साथ फैलती रही थीं.

जब मैं कनॉट प्लेस के आउटर सर्किल में पहुंचा तो मैंने देखा कि ऐतिहासिक रीगल बिल्डिंग और पास में स्थित मरीना होटल के हिस्सों में आग लगी हुई है. सड़कों पर अफरातफरी थी. कुछ दमकल गाड़ियां पहुंची थीं. फिर अचानक पुलिस वाले उन दुकानदारों और होटल चलाने वालों को लाठियों से मारने लगे जो अपनी दुकानों को जलने से बचा रहे थे. एक में आदमी चिल्लाने लगा, मेरी जिंदगी की सारी कमाई धुंआ हुई जा रही है.”

दिल्ली के नेताजी नगर में एक सिख की कपड़ों की दुकान को इतनी बुरी तरह लूटा गया था कि दुकान में एक चिंदी तक नहीं बची थी. लुटेरे इंची टेप तक ले गए. भोगल में भी सिखों की दुकानें लूटी गईं. अर्ध शहरी इलाकों के लोग आउटर रिंग रोड में स्थित एक सिख के घर पर हंस-हंस कर पत्थर मार रहे थे. जब मैंने उन लोगों से बताया कि मैं पत्रकार हूं तो भीड़ ने मुझे धमकाया कि अगर मैं पांच मिनट में वहां से नहीं गया तो अंजाम बुरा होगा.

इन सभी इलाकों में पुलिस ने लुटेरों और आगजनी करने वालों को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया. जब मैं अपने एक साथी के साथ जनकपुरी पहुंचा तो कुछ लोग हमें एक गली के पीछे ले गए जहां औंधे मुंह पड़ा एक नौजवान सिख जल रहा था. हमें बताया गया कि वह नौजवान भीड़ से बचकर भागने की कोशिश कर रहा था मगर उसे पकड़ लिया गया, फिर पीटा गया और मिट्टी का तेल डालकर उसे आग लगा दी गई.

अचानक ही ढेरों शरणार्थी शिविर बन गए जहां डरे हुए सिख आदमी, औरत और बच्चे- जिनमें से ज्यादातर गरीब परिवारों के थे- जान बचने के लिए आने लगे. एक शिविर में कुछ लोग रो-रो कर बता रहे थे कि उनका सब कुछ लुट गया है. बहुत सारे लोग भयभीत थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उनको किस जुर्म की सजा दी जा रही है. वे मुझसे कहने लगे कि “क्या 1947 में हिंदुओं को बचाने का यही इनाम है.” मुझे शर्म आ गई. वहां उत्तर प्रदेश के एक विपक्ष के नेता दौरे पर आए और लोगों से पूछा कि क्या आप लोग ठीक हो, क्या आप लोगों को कुछ चाहिए? यदि चाहिए तो मुझे बताओ, मैं आपकी मदद करूंगा.” हो सकता है कि वह ऐसा ईमानदारी से कह रहे हों लेकिन मुझे नहीं लगता कि वह कुछ कर पाए होंगे.

हालांकि चरणबद्ध तरीके से 1 और 2 नवंबर को दिल्ली में सेना तैनात कर दी गई थी फिर भी हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही थी. सेना ने कहीं गोलियां नहीं चलाई, हां जवानों ने कई सिखों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया.

फिर 4 नवंबर को अचानक ही हिंसा में भारी कमी देखने में आई लेकिन इसके बाद भी कई दिनों तक छुटपुट हिंसा होती रही. ऐसी छुटपुट हिंसा पहाड़गंज में हुई जहां कुछ सिख भाइयों पर हमला कर उन्हें जला कर मार दिया गया. इसके बाद कई दिनों तक दिल्ली की सड़कों पर एक भी सिख दिखाई नहीं दिया. इस सब के बावजूद कुछेक को छोड़कर सिख दिल्ली छोड़ कर नहीं गए. झटका खाने के बाद वे लोग दुबारा अपने पैरों पर धीरे-धीरे खड़े हुए. लेकिन आज भी उनके जख्म नहीं भरे हैं.

5 नवंबर की सुबह जब मैं नाइट शिफ्ट के बाद घर लौटा तो मैंने देखा कि मदर डेरी के पास लोग जमा हैं. वे लोग साकेत की ओर उस गुरुद्वारे में कार सेवा करने जा रहे थे जिसे क्षतिग्रस्त कर दिया गया था. जल्दी से कॉफी पीकर मैं भीड़ के साथ मार्च में शामिल हो गया. हम लोग नारे लगा रहे थे, “हिंदू-सिख भाई-भाई”, “भारत माता की जय”.

वह गुरुद्वारा किसी युद्ध क्षेत्र की तरह लग रहा था. शीशे के लाखों टुकड़े और जला हुआ फर्नीचर बिखरा पड़ा था. गुरुद्वारे में लोगों ने झाड़ू लगाई. मैंने भी झाडू उठाई और कारपेट पर बिखरा शीशा साफ करने लगा. आने वाले दिनों में शहर के अन्य हिस्सों में भी हिंदू-सिख मार्च आयोजित किए गए.

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दिल्ली पुलिस का सबसे कुख्यात अपराध शायद वह अफवाह फैलाना था कि सिखों ने सरकारी टंकी के पानी में जहर मिला दिया है. दिल्ली पुलिस में इस अफवाह को लाउडस्पीकर से फैलाया और लोगों से पानी न पीने की अपील की. इंजीनियरों ने जोर देकर कहा कि ऐसा करना असंभव है लेकिन कुछ पुलिस अधिकारियों ने, जब उनको डरे हुए लोगों के फोन आए, तो कह दिया कि बात सही है. और जब तक सच सामने आता तब तक सिख समुदाय के प्रति लोगों के दिमाग में जहर भर चुका था.

पुलिस के साथ-साथ केंद्र सरकार, जिस पर दिल्ली में कानून एवं व्यवस्था की जिम्मेदारी थी, अपने कर्तव्य में पूरी तरह फेल हुई. तत्कालीन गृहमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव ने नई दिल्ली का राउंड लगाने की जहमत तक नहीं की. अगर वह ऐसा करते तो उसका असर बहुत मददगार साबित होता. लेकिन वह अपने सरकारी आवास में यूं आराम से बैठे रहे गोया कुछ हुआ ही न हो. दिल्ली जल रही थी.

जीटी नानावती आयोग ने, जिसकी रिपोर्ट को 2005 में सार्वजनिक किया गया, बताया है कि इतिहासकार पटवंत सिंह ने, कूटनीतिक से राजनीति में आए आई. के. गुजराल और उप राज्यपाल जेएस अरोड़ा के साथ, 1 नवंबर को राव को फोन किया था. पटवंत ने बताया कि गृहमंत्री का रवैया इतना हल्का था कि लग रहा था जैसे उन्हें किसी बात की चिंता नहीं है.

कांग्रेस के निकम्मेपन के पीड़ित जैल सिंह भी रहे. सिखों के एक समूह ने जैल सिंह को फोन कर अनुरोध किया कि वह कुछ नहीं तो नैतिक और संवैधानिक आधार पर काम करें, तो जैल सिंह ने उनसे कहा कि “मेरे पास दखल देने की शक्तियां नहीं है.”

भीड़ नारे लगा रही थी : “खून का बदला खून से”. अशोक वाही

यदि सरकार ने चाहा होता तो सिख विरोधी हिंसा को शुरू होने से पहले ही कुचल दिया जा सकता था. यदि उन लोगों को, जिन्होंने राष्ट्रपति के काफिले पर हमला किया था, गिरफ्तार कर लिया जाता तो एक संदेश जाता की हिंसा नहीं होने दी जाएगी. चांदनी चौक में परेरा ने जो किया वह दिखाता था कि यदि कानून के शासन को सख्ती के साथ लागू किया जाए तो बदमाशों को काबू में किया जा सकता है. व्हेन ट्री शुक किताब में मित्ता और फुल्का ने बताया है कि जबकि 30 अक्टूबर से ही दिल्ली में हिंसा भड़क चुकी थी, यहां के 76 में से केवल 5 पुलिस स्टेशनों ने अपराधिक मामले दर्ज किए. इस तरह हमला करने का अनाधिकृत लाइसेंस मिलने के बाद और कई जगह कांग्रेस के सांसदों द्वारा भीड़ की अगुवाई करने के चलते, 1 नवंबर को हत्याकांड शुरू हो गया. उसी दिन कर्फ्यू की घोषणा की गई लेकिन इसे पूरी तरह लागू करने में दो दिन लग गए. तब तक हजारों बेगुनाह सिख मारे जा चुके थे. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2733 सिख मारे गए थे, जबकि सिटीजन जस्टिस कमेटी ने यह आंकड़ा 870 बताया है.

तुरंत ही इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी बना दिए गए राजीव गांधी इस पागलपन में पूरी तरह से विफल साबित हुए. उन्होंने इस अफरातफरी को रोकने के लिए कोई कदम नहीं बढ़ाया और न ही सार्वजनिक तौर पर इसकी भर्त्सना की. यह एक बड़ी गलती थी क्योंकि इसने भीड़ का हौसला बढ़ाया. राजीव गांधी का काम या कहें कि उनका कुछ न करना, बताता है कि तत्कालीन सरकार को इस बात की परवाह नहीं थी कि सिखों के साथ क्या हो रहा है.

19 नवंबर 1984 राजीव गांधी ने हिंसा पर पहली बार कोई टिप्पणी की और वह टिप्पणी विवादास्पद साबित हुई. उन्होंने कहा कि “जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है.” नए प्रधानमंत्री ने अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने और पीड़ितों को न्याय देने की बात तक नहीं की.

सरकार द्वारा सिख समुदाय से माफी मांगने के लिए मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने तक का इंतजार करना पड़ा. 11 अगस्त 2005 को, हत्याकांड के 30 साल बाद, राज्यसभा में मनमोहन सिंह ने कहा, “मुझे न केवल सिख समुदाय से बल्कि संपूर्ण भारतीय राष्ट्र से 1984 में जो घटा उसके लिए माफी मांगने में कोई संकोच नहीं है. 1984 में जो हुआ वह संविधान द्वारा निर्देशित राष्ट्रवाद के विचार का निषेध था. अपनी सरकार की ओर से और इस देश की संपूर्ण जनता की ओर से मैं शर्मिंदा हूं कि ऐसी कोई घटना हुई.”

निसंदेह यह भयानक शर्मिंदगी की बात थी.