{एक}
वरिष्ठ अधिवक्ता ए मारियारपुथम अदालत में एक महत्वपूर्ण दिन के लिए तैयार थे. उन्हें देश के सबसे बड़े आतंकी हमलों में से एक में पांच आरोपियों के खिलाफ, भारत की प्राथमिक आतंकवाद विरोधी टास्क फोर्स -राष्ट्रीय जांच एजेंसी- के वकील बतौर सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ के सामने 15 अप्रैल 2015 को पेश होना था. 29 सितंबर 2008 को इस्लाम के अनुयाइयों के लिए पवित्र रमजान के महीने के दौरान उत्तर-पश्चिमी महाराष्ट्र के मुस्लिम बहुल शहर मालेगांव में एक मोटरसाइकिल में छुपाए गए दो बम फटे थे जिसमें छह लोग मारे गए थे और एक सौ से अधिक घायल हो गए थे. उसी दिन गुजरात के एक कस्बे मोडासा के मुस्लिम बहुल सुक्का बाजार इलाके में एक मस्जिद के पास एक और बम धमाका हुआ था.
सभी आरोपी एक हिंदू उग्रवादी समूह के सदस्य थे जिसका नाम अभिनव भारत था. अभिनव भारत से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई वरिष्ठ नेताओं का संबंध था. सात साल बाद जब मरियारपुथम मामले पर न्यायाधीशों को संबोधित करने के लिए उठे, तब तक नरेन्द्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी, जो आरएसएस की राजनीतिक शाखा है, लगभग एक साल से केंद्र में सत्ता में थी. मारियारपुथम ने उस दिन अदालत के लिए जो जिरह तैयार की थी, बीच में ही रोकनी पड़ी.
सुनवाई प्रज्ञा सिंह ठाकुर और मामले में कई अन्य प्रमुख आरोपियों द्वारा दायर एक मामले से संबंधित थी, जिसमें महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम यानी मकोका के तहत उनके मुकदमे को चुनौती दी गई थी. मकोका उन मामलों में लगाया जाने वाला सख्त कानून है जिसमें आरोपित बार-बार गैरकानूनी गतिविधियों को अंजाम देते हैं.
ठाकुर पहले आरएसएस की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रह चुकी हैं. अभियोजन पक्ष के लिए मकोका के तहत ठाकुर पर मुकदमा चलाना जरूरी था क्योंकि कानूनन पुलिस के सामने स्वीकार किए गए इकबालिया बयान अदालत में मान्य नहीं होते. अपने इकबालिया बयानों में, तीन आरोपियों ने दावा किया था कि अभिनव भारत ने हथियारों का एक बड़ा जखीरा एकत्र किया था और ठाकुर ने हमले से दो साल पहले मध्य प्रदेश के पचमढ़ी में एक प्रशिक्षण शिविर में आतंकी सेल के अन्य सदस्यों से मुलाकात की थी. गवाहों के इकबालिया बयानों के साथ-साथ सबूतों में आरोपी के लैपटॉप से जब्त ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंगें भी थीं.
ठाकुर की जमानत का मतलब एनआईए की इस मामले में एक बड़ी हार थी और इसे रोकने के लिए मकोका प्राथमिक उपकरण था. असीमानंद पहले आरएसएस की आदिवासी शाखा वनवासी कल्याण आश्रम का राष्ट्रीय प्रमुख था और यह नाम ठाकुर के साथ सबसे हाई-प्रोफाइल नामों में था, जो 2007 और 2008 में पांच राज्यों में सात बम विस्फोटों से जुड़ा था. इन्हें अभिनव भारत नेटवर्क ने कथित तौर पर अंजाम दिया था. इनमें कुल 119 लोग मारे गए थे, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम थे. मालेगांव विस्फोट में बम ठाकुर के नाम से पंजीकृत मोटरसाइकिल पर एक मस्जिद के बाहर रखा गया था. असीमानंद ने कथित तौर पर प्रशिक्षण शिविरों में भी भाग लिया था, जिसमें उसने और अन्य आरोपियों ने हमलों की योजना बनाई थी और बम बनाने और हथियारों का इस्तेमाल करना सीखा था.
सुनवाई से एक साल पहले ठाकुर ने एनआईए की संवैधानिक वैधता और मामले की जांच करने के उसके अधिकार को चुनौती दी थी. एनआईए का प्रतिनिधित्व करते हुए मारियारपुथम ने एजेंसी का बचाव करते हुए एक मजबूत मामला बनाया और बॉम्बे हाईकोर्ट ने एजेंसी की जांच शक्तियों को बरकरार रखा.
ठाकुर के खिलाफ मकोका लगाना मुश्किल नहीं था. उसके खिलाफ मजबूत सबूत थे. इस केस में एनआईए के विशेष अभियोजक रोहिणी सलियन ने एक साल पहले ही बॉम्बे हाईकोर्ट में सबूत पेश किए थे, जिन्हें अदालत ने ठाकुर को जमानत देने से इनकार करने के लिए पर्याप्त माना था क्योंकि उसके खिलाफ "एक मजबूत प्रथम दृष्टया मामला" बनाता था. हालांकि, इससे पहले कि मरियारपुथम अपनी जिहर शुरू कर पाते, अदालत कक्ष के दूसरी ओर से आई एक आवाज ने उन्हें रोक दिया. प्रधानमंत्री के करीबी विश्वासपात्र तुषार मेहता, जिन्हें मोदी के पद संभालने के दो महीने बाद अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के रूप में नियुक्त किया गया था, ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि मारियारपुथम मामले में पेश नहीं हो सकते. उन्होंने अपनी आपत्ति का कोई कारण नहीं बताया. एक अन्य नवनियुक्त अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह, महाराष्ट्र राज्य की ओर से बहस करने के लिए अदालत के सामने पेश हुए. लेकिन मेहता ने कहा, “मैं श्री अनिल सिंह के बदले महाराष्ट्र राज्य की ओर से पेश होऊंगा. मैं सारे तथ्य सामने रखूंगा.” सिंह ने इस पर आपत्ति जताई कि उन्होंने पहले ही अपना तर्क पेश कर दिया है.
परेशान दिख रहे मरियारपुथम ने अदालत छोड़ने की अनुमति मांगी. हालांकि पीठ ने कहा कि वह उनकी बात सुनना चाहेगी. मरियारपुथम ने तर्क दिया कि अपराध की गंभीरता के कारण आरोपी जमानत के हकदार नहीं हैं. मेहता, जो अब एनआईए का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, ने इस तर्क को यह कह कर कमजोर कर दिया कि "जमानत देने की स्थिति में," गंभीर शर्तें लगाई जानी चाहिए. खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि ठाकुर सहित मामले में छह आरोपियों की संलिप्तता के बारे में "काफी संदेह" है और निचली अदालत को उनकी जमानत याचिका पर नए सिरे से सुनवाई करनी चाहिए और यह तय करना चाहिए कि क्या मकोका लागू किया जा सकता है. सलियन ने बाद में मीडिया को बताया कि सुनवाई से एक दिन पहले, मारियारपुथम को एनआईए के एक वरिष्ठ अधिकारी ने अनौपचारिक रूप से एजेंसी की ओर से पेश न होने के लिए कहा था. मेहता, सिंह और मरियारपुथम ने मेरे इस संबंध में पूछे गए सवालों का जवाब नहीं दिया.
सात साल बाद यह मामला ठंडे बस्ते में है. इस मामले के अंतिम 20 प्रमुख गवाह अब विरोधी हो गए हैं. एनआईए ने अब "संदिग्ध परिस्थितियों" को चुनौती दी है जिसके तहत अन्य संदिग्धों के खिलाफ मकोका लगाया गया था. इस मामले ने एनआईए के कामकाज करने के तरीके का ही पर्दाफाश किया है. मामले की सुनवाई अभी चल रही है.
जनवरी 2017 में एनआईए ने सिफारिश की कि ठाकुर को जमानत दी जाए. दो साल बाद, वह बीजेपी के टिकट पर सांसद चुनी गईं. ऐसा लगता है कि एनआईए में मरियारपुथम की भूमिका तब ही से फीकी पड़ गई है.
वर्ष 2008 कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के लिए एक अहम वर्ष था. 1900 के दशक की शुरुआत में उदारीकरण से शुरू हुआ आर्थिक उछाल चरम पर था. बढ़ते भारतीय मध्यम वर्ग के आशांवित विकास का संकेत देते हुए, टाटा ने नैनो लॉन्च की थी, जो कथित तौर पर दुनिया की सबसे सस्ती कार थी. सरकारी कर्मचारियों के लिए यह एक अच्छा वर्ष था, जिनके लिए छठे वेतन आयोग द्वारा चालीस प्रतिशत वेतन वृद्धि की संस्तुति की जा रही थी. भारत का पहला चंद्र यान सफलतापूर्वक लॉन्च हो चुका था. उस वर्ष अक्टूबर में, संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत ने एक ऐतिहासिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. यह एक अहम राजनयिक बदलाव था जिसने भारत को एक स्थिर लोकतंत्र के रूप में पश्चिम में मान्यता दिलाई थी. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ने तब कई प्रगतिशील कानूनों की एक श्रृंखला पारित की थी- विशेष रूप से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, वन अधिकार अधिनियम और सूचना का अधिकार अधिनियम. नए सिरे से आश्वासन दिया गया था कि देश के सबसे पिछड़े लोग पीछे नहीं रहेंगे. इसे पश्चिमी विश्लेषकों ने भारतीय आर्थिक चमत्कार कहा था.
ये चंद चत्मकार नवंबर में अचानक रुक गए. मालेगांव और मोडासा में हुए विस्फोटों के दो महीने बाद, भारत में एक और घातक हमला हुआ. पाकिस्तान स्थित एक इस्लामी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के दस सदस्यों ने मुंबई के कई प्रमुख स्थानों पर ताबड़तोड़ गोलीबारी की, जिसमें लगभग दो सौ लोग मारे गए और तीन सौ अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए. तीन दिवसीय रक्तपात भारत का सबसे घातक आतंकी हमला था. इसने घरेलू स्थिरता के उस विभ्रम को समाप्त कर दिया जिसे भारत ने सफलतापूर्वक दुनिया के सामने पेश किया था. हमले के लक्षित ठिकानों में से एक ताज पैलेस होटल में उस समय यूरोपीय संसद के कई सदस्य मौजूद थे. हमले में कुल 29 विदेशी नागरिक मारे गए थे.
मनमोहन सिंह सरकार ने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उत्पन्न गुस्से को दूर करने के लिए ओवरटाइम किया, सदन में और टेलीविजन बहसों में, भारत में संघीय अधिकार क्षेत्र वाले पुलिस बल की कमी की ओर अक्सर उंगलियां उठाई जाती थीं, जो अंतर-राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव वाले अपराधों की कुशलता से जांच कर सके. बीजेपी ने तब विपक्ष में रहते हुए सिंह द्वारा आतंकवाद निरोधक अधिनियम को निरस्त करने की निंदा की और कहा कि यह इस बात का सबूत है कि उनकी सरकार में उग्रवादी हिंसा से निपटने की इच्छाशक्ति नहीं है. पोटा को अटल बिहारी वाजपेयी की बीजेपी नीत सरकार ने 2001 में संसद पर हुए हमले के बाद अधिनियमित किया था. यह औपनिवेशिक काल के कानूनों का नया अवतार था, जिसे पुलिस को असाधारण शक्तियों के साथ उन आंदोलनों पर नकेल कसने के लिए लाया गया था जिन्हें सरकार के खिलाफ देखा जाता था.
2004 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस के घोषणापत्र में हाशिए के समुदायों के खिलाफ इसके लगातार दुरुपयोग को स्वीकार करते हुए पोटा को निरस्त करने का वादा किया था और सिंह की सरकार ने पद संभालने के तुरंत बाद ऐसा किया. 2006 में मुंबई में सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद, सिंह ने पोटा को वापस लाने की संभावना से इनकार किया. उन्होंने मीडिया से कहा, "यह सच नहीं है कि पोटा आतंकवादियों से निपटने का एकमात्र साधन है. उन्होंने कहा, "और भी कई तरीके हैं. हम अपनी खुफिया जानकारी जुटाने की क्षमता को मजबूत करेंगे और ऐसा करने के लिए हम केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सुरक्षा तंत्र की समीक्षा करेंगे.”
अधिकांश सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना था कि 2008 का मुंबई हमला खुफिया सूचनाओं पर कार्रवाई करने में पूरी तरह से विफल होने के कारण हुआ था. खोजी पत्रकार जोजी जोसेफ ने अपनी किताब साइलेंट कू में लिखा है, "2008 की शुरुआत में, मुख्य रूप से अमेरिकी एजेंसियों से खुफिया जानकारी मिली थी कि लश्कर-ए-तैयबा मुंबई पर हमला करने की योजना बना रहा है. दुर्भाग्य से, यह जानकारी एक गंभीर रूप से दूषित खुफिया सेट-अप में प्रवाहित हुई, जो अविश्वसनीय और अपमानजनक झूठ के साथ मिली हुई थी, जो भारतीय एजेंसियों को भटकाने वाली थी. खुफिया तंत्र की गुप्त दुनिया, जिसमें लगभग कोई बाहरी जवाबदेही नहीं होती और इसकी जानकारी और विश्लेषण को कोई जांच नहीं सकता अपने स्वयं के झूठ और झूठ पर विश्वास करता था, अपने स्वयं के पूर्वाग्रहों को बढ़ाता था और अपनी गलतियों को सही ठहराता है.”
29 नवंबर 2008 को, जिस दिन मुंबई में घेराबंदी समाप्त हुई, कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने गृहमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला. पोटा के कई प्रावधानों को वापस लाने के लिए गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम में संशोधन के अलावा, चिदंबरम ने एक बुनियादी निगरानी ढांचे का निर्माण किया जिसने भारतीय लोकतंत्र पर लंबे समय तक छाप डाली. उन्होंने सबसे पहले एक राष्ट्रीय आतंकवाद रोधी केंद्र की कल्पना की जिसका काम आतंकवादी हमलों को नियंत्रित करना, रोकना और "अपराधियों को दंडित कर" जवाब देना था. एनसीटीसी को बुनियादी निगरानी ढांचे की एक विस्तृत श्रृंखला की देखरेख करनी थी. इसमें नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड -एक एकीकृत डेटाबेस- और क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क सिस्टम, ऑनलाइन ट्रैकिंग सिस्टम शामिल था जो पूरे देश में चौदह हजार पुलिस स्टेशनों को एक साथ जोड़ता था. 2022 की शुरुआत तक, न तो एनसीटीसी और न ही नेटग्रिड पूरी तरह से चालू हो पाए थे, लेकिन केवल मोदी के शासन के तहत भारी केंद्रीकृत डेटा-एकत्रीकरण के पैनोप्टीकॉन से इसका दायरा विस्तारित हुआ है.
दूसरा चरण एनआईए का निर्माण था, एक जांच एजेंसी जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रति जवाबदेही थी. मार्च 2008 में, संसदीय समिति ने सिफारिश की थी कि सरकार या तो एक नई एजेंसी बनाए या यूएस फेडरल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन की तर्ज पर केंद्रीय जांच ब्यूरो का पुनर्गठन करे, "जो आतंकवाद से संबंधित और राष्ट्रीय स्तर के सभी महत्वपूर्ण मामलों की जांच करेगी." चिदंबरम के गृह मंत्रालय संभालने के दो सप्ताह बाद एनआईए के गठन के लिए विधेयक का मसौदा तैयार किया गया.
चिदंबरम ने संसद में सांसदों से विधेयक पारित करने का आग्रह करते हुए कहा, "यहां तक कि जब मैं बोल रहा हूं, तो देश हमें देख रहा है. देश के लोग जांच के लिए एक केंद्रीय एजेंसी चाहते हैं." एनआईए बिल एजेंसी को देश भर में घटनाओं की जांच करने की शक्ति प्रदान करता है, जो भी आठ अनुसूचित अपराधों के तहत आते हों. इनमें यूएपीए के तहत, अपहरण, विस्फोटक पदार्थों और परमाणु ऊर्जा से संबंधित अपराध शामिल हैं. इसमें केंद्र सरकार को एजेंसी को मामला दर्ज करने का निर्देश देने का अधिकार भी दिया- अगर उसे लगता है कि अनुसूचित अपराध किया गया है.
कम्युनिस्ट पार्टियों ने मांग की कि अनुसूची को दो भागों में विभाजित किया जाए जिसमें दूसरे खंड के तहत अपराधों की एनआईए और राज्य एजेंसियों द्वारा संयुक्त रूप से जांच की जाए. चिदंबरम ने जवाब दिया कि "अतीत में ऐसे मामले रहे हैं और भविष्य में ऐसे मामले हो सकते हैं जहां एक राज्य में एक आतंकवादी अपराध होता है और स्थानीय पुलिस उस अपराध को छिपाने की कोशिश करती है. ऐसे में यदि आप यूएपीए को दूसरे भाग में रखते हैं, तो एनआईए पूरी तरह से जांच नहीं कर पाएगा और उस मामले की जांच में बाधा उत्पन्न हो जाएगी.” अन्य सदस्यों को डर था कि केंद्र सरकार को मामले दर्ज करने की अनुमति देने के प्रावधान से जांच में राज्य सरकारों की भागीदारी "एजेंसी की सदइच्छा या जो किसी विशेष समय पर केंद्र में सत्ता में हो सकती है." लेकिन, एक दिन की बहस के बाद और विधेयक के मसौदे में एक भी बदलाव किए बिना, इसे सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया. यूएपीए संशोधन या एनआईए विधेयक के पारित होने से पहले कोई सार्वजनिक समीक्षा नहीं हुई.
हालांकि चिदंबरम ने उस समय इसे व्यक्त नहीं किया था, लेकिन वह गुप्त रूप से एनआईए अधिनियम की संवैधानिकता और इसके द्वारा बनाई गई एजेंसी के बारे में चिंतित थे. बाद में, विकीलीक्स द्वारा प्रकाशित दस्तावेजों के अनुसार मार्च 2009 में, चिदंबरम ने एफबीआई निदेशक रोबर्ट मुलर से एनआईए को "आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए एक नए हथियार" के रूप में संदर्भित किया. उन्होंने मुलर से कहा कि वह एनआईए को सशक्त बनाने के लिए "संवैधानिक सीमाओं को लांघने के बेहद करीब थे.” उन्हें उम्मीद थी कि इस अधिनियम को अदालत में चुनौती दी जाएगी, क्योंकि इसमें "एनआईए को जांच की कुछ शक्तियां दी गई हैं, जिन्हें जिम्मेदारी के साथ संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है जो विशेष रूप से राज्यों के साथ है." तब से इस अधिनियम को कई बार चुनौती दी गई है, जिसमें राज्य सरकारें भी शामिल हैं. इसने हर बार ज्यूडिशियल के लिए आदर्श पेश किया है.
फिर भी, जब एनआईए की स्थापना हुई, तो यह कमजोर लोकतंत्र के कुछ संगठनों के पास एक दुर्लभ अवसर था : इसकी शुरुआत एक खाली स्लेट के साथ हुई थी. भारत की जांच एजेंसियों-राज्य पुलिस बलों और केंद्रीय जांच ब्यूरो- को अपने पेशेवर मानकों और लोकतांत्रिक जवाबदेही में लगातार गिरावट का सामना करना पड़ा था. झूठे सबूत, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ लक्षित मामले और अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की लगातार खबरें आती थीं.
इस माहौल में भी, एनआईए की 2009 और 2014 के बीच की कुछ शुरुआती जांचों ने, एक असाधारण सख्त जांच करने की योग्यता का परिचय दिया. यह देखते हुए कि एजेंसी के अधिकांश कर्मचारी राज्य पुलिस से प्रतिनियुक्ति पर आते हैं, यह आश्चर्यजनक था और नए पहनावे से फर्क पड़ता दिख रहा था. मालेगांव और मोडासा विस्फोटों, समझौता एक्सप्रेस हमले, मक्का मस्जिद बमबारी और अजमेर दरगाह आतंकवादी हमले की शुरुआती जांच उनकी गति और सच्चाई का डट कर पीछा करने की इच्छा के लिए ध्यान देने योग्य थी, भले ही यह शक्तिशाली और राजनीतिक व्यक्तियों की ओर इशारा करती हो. एनआईए ने इन मामलों में त्वरित रूप से गिरफ्तारियां कीं, साक्ष्यों का संग्रह किया और विस्तृत जांच प्रस्तुत की. अपने शुरुआती दिनों में, एनआईए अन्य एजेंसियों द्वारा निर्मित झूठे मामलों को सार्वजनिक रूप से खारिज करने के लिए तैयार थी, एक अभूतपूर्व बात थी यह. इसका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण था कि उन समुदायों के पहले आरोपी भी, जिन्हें अक्सर जांच एजेंसियों द्वारा झूठा निशाना बनाया गया था, उन्होंने अपने मामलों में एनआईए के हस्तक्षेप का स्वागत करना शुरू कर दिया.
भारत की सबसे पेशेवर जांच एजेंसी, जो मुख्य रूप से अकेले आतंकवाद से निपटने के लिए बनाई गई थी, जो बाद में अंतर-धार्मिक विवाहितों, पशु तस्करों, मानवाधिकार वकीलों, रोहिंग्या शरणार्थियों और वृद्ध पुजारियों की समस्याओं को निपटाने वाली संस्था में बादल गई.
2014 के बाद से, राजनीतिक तटस्थता में एनआईए के पेशेवर प्रदर्शन और अखंडता में तेजी से गिरावट आई है. एजेंसी बढ़ी हुई है. 2020 तक, इसमें 796 अधिकारी और 18 शाखाएं थीं. जनवरी 2022 में कई नए पदों और शाखाओं को मंजूरी दी गई. मोदी के तहत, एनआईए अधिनियम संशोधन के पारित होने के बाद मामलों की बढ़ती संख्या को सभालने लिए, एनआईए को विस्तारित शक्तियां दी गई हैं. एजेंसी ने अपने पहले छह वर्षों में 92 मामलों को संभाला, औसतन प्रति वर्ष 16 मामले. मोदी के तहत, यह संख्या बढ़कर 373 हो गई है. इसमें एसे कई मामले शामिल हैं जो सच मानिए तो एनआईए के दायरे में नहीं आते, लेकिन हिंदू दक्षिणपंथ के षडयंत्र के सिद्धांतों को वैध बनाने में मदद करते हैं.
भीमों कोरेगांव मामले की जांच ने उन कई अवैधताओं का खुलासा किया है, जिनके लिए एनआईए ने कभी अन्य एजेंसियों पर आरोप लगाया था. एनआईए का इतिहास इस बात की कहानी है कि राजनीतिक पैंतरेबाजी की वेदी पर कितनी जल्दी व्यावसायिकता की बलि दी जा सकती है. इसका सबसे स्पष्ट प्रदर्शन अभिनव भारत की जांच में किए गए बदलावों से पता चलता है.
चिदंबरम ने मुझे बताया, "इस अधिनियम का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ आतंकवाद से निपटने के लिए एक विशेष एजेंसी बनाना था." उन्होंने कहा कि मनमोहन सिंह सरकार की प्रतिक्रिया "आवश्यक, वैध और आनुपातिक" थी. "एनआईए अधिनियम का कोई भी हिस्सा राज्यों के सामान्य 'कानून और व्यवस्था' या 'आपराधिक कानून' प्रशासन में घुसपैठ नहीं करता था. 2000 में यूएपीए में किए गए संशोधनों से आतंकवाद और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, जो 1987 और 1995 के बीच लागू टाडा और पोटा की कमियों को ध्यान से दूर कर लिया गया. एनआईए द्वारा अभियोजन आगे बढ़ने से पहले हमने सुरक्षा उपायों का निर्माण किया था. उन्होंने मुलर के साथ अपने संचार, या एनआईए की संवैधानिकता के बारे में आगे के सवालों का जवाब नहीं दिया. मनमोहन सिंह ने भी कोई जवाब नहीं दिया.
शारिब अली इनोसेंस नेटवर्क और क्विल फाउंडेशन— दोनों मानवाधिकार वकालत समूह हैं— के सह संथापक हैं और एनआईए के बारे में डॉक्टरेट थीसिस पर भी काम कर रहे हैं. उनके अनुसार, यूएपीए संशोधन और एनआईए ने भारतीय राज्य के लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण में एक महत्वपूर्ण मोड़ को चिह्नित किया है. उन्होंने मुझे बताया कि "एनआईए आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर पिछले तीस वर्षों के विकास के योग का प्रतिनिधित्व करता है. एनआईए उन सभी का समेकन है, चाहे वह टाडा हो या पोटा. एनआईए इन सभी को एक साथ लाती है. टाडा और पोटा को स्पष्ट रूप से अस्थायी कहा गया था लेकिन यूएपीए संशोधन और एनआईए इसे स्थायी बनाते हैं. वह आगे कहते हैं, “ये विशेष प्रावधान नहीं हैं. अब, वे आपराधिक-न्याय प्रणाली के सामान्य अंग हैं.” यूएपीए द्वारा जांच एजेंसियों को दी जाने वाली स्वतंत्रता के ऊपर, एनआईए के रूपांतर ने केंद्र सरकारों को एक उपकरण दिया है जिसके साथ वे उपमहाद्वीप की राजनीतिक पर प्रभाव बनाए रख सकते हैं.
{दो}
नासिक जिले का दूसरा सबसे बड़ा शहर मालेगांव, जहां इतनी हिंसक घटनाएं हुई हैं, एक विलक्षण जगह है. ऐतिहासिक रूप से, यह बंबई के ब्रिटिश गढ़ और आगरा में मुगल राजधानी के बीच मार्ग पर एक विश्राम स्थल था. अठारहवीं शताब्दी में, एक मराठा सेनापति ने एक बड़े किले के निर्माण के लिए इस गांव को चुना, जो अभी भी इसका प्राथमिक पर्यटक आकर्षण है. किले के निर्माण के लिए, जिसे बनने में दो दशक से अधिक का समय लगा, मराठा सेनापति ने सूरत और उत्तरी भारत के कई हजार मुस्लिम कारीगरों को आमंत्रित किया, जिनमें से कई गांव में ही बस गए. 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश कार्रवाई के दौरान, मालेगांव ने मुस्लिम समुदाय के लिए एक सुरक्षित आश्रय के रूप में काम किया, जिससे इनकी आबादी कई गुना बढ़ गई.
इस शहर ने बड़े सांप्रदायिक दंगे देखे हैं : 1962 में और फिर 1992 में हिंदू भीड़ द्वारा मस्जिद बाबरी के विध्वंस के बाद. 2001 में जब पुलिस ने लगभग पंद्रह हजार मुसलमानों पर हमला किया, जो अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण का विरोध कर रहे थे, उसमें 13 प्रदर्शनकारी मारे गए थे.
8 सितंबर 2006, मालेगांव की हमीदिया मस्जिद और बड़ा कब्रिस्तान (जो कस्बे का सबसे बड़ा मुस्लिम कब्रिस्तान है) में खूब चहल-पहल थी. यह शब-ए-बरात का पवित्र दिन था, जिसमें मुसलमान अपने पूर्वजों को कब्रिस्तानों में लंबे समय तक जागरण करके याद करते हैं. दोपहर 1.50 बजे दो जगहों और पास के मुशावरती चौक में चार बम धमाके हुए, जिसमें 31 लोगों की मौत और 300 से अधिक गंभीर रूप से घायल हुए.
यह मामला 23 अक्टूबर को मुंबई पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते को सौंपा गया. एक हफ्ते के भीतर, केपी रघुवंशी के नेतृत्व में एटीएस ने पहली गिरफ्तारी की. 23 वर्षीय नूर-उल-हुड्डा कथित तौर पर प्रतिबंधित स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया का कार्यकर्ता था. पुलिस ने दावा किया कि उसने हमले के पांच दिन बाद मालेगांव शॉपिंग सेंटर में नकली बम लगाने के आरोप में हुड्डा को गिरफ्तार किया था और बम में वही सामग्री थी जो 8 सितंबर को इस्तेमाल की गई थी. जल्द ही और गिरफ्तारियां हुईं : शब्बीर अहमद मसीउल्लाह, रईस अहमद मंसूरी, फरोघ इकबाल मगदूमी, मोहम्मद अली आलम शेख, आसिफ बशीर खान, जाहिदी अबुल माजिद और अबरारी गुलाम अहमद, मालेगांव के मुसलमान, जिनके बारे में एटीएस ने दावा किया कि ये सिमी के सदस्य हैं.
आठ के खिलाफ सबूत कमजोर थे. एटीएस मकोका के तहत कानूनी रूप से स्वीकार्य उनके इकबालिया बयानों पर बहुत अधिक निर्भर था. इसके अलावा, मामला काफी हद तक मिट्टी के नमूनों पर टिका था, जिसको एटीएस ने विस्फोट स्थलों में से एक से एकत्र किया था. नमूने में वही आरडीएक्स अवशेष था जो कथित तौर पर एटीएस द्वारा मासिउल्लाह के गोदाम में एकत्र किए गए मिट्टी के नमूनों में था. इससे एटीएस ने निष्कर्ष निकाला कि बम गोदाम में मसीउल्लाह और दो अज्ञात पाकिस्तानी नागरिकों द्वारा निर्मित किए गए थे. एटीएस ने जिन अन्य सबूतों पर भरोसा किया, वह माजिद और अहमद के बीच फोन पर हुई एक छोटी सी बातचीत थी, जिसे बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने बम विस्फोट से संबंधित नहीं माना था, और कथित तौर पर हुड्डा और मगदूमी के घरों में सिमी साहित्य पाया गया था. फरवरी 2007 में, मामला सीबीआई को सौंप दिया गया, जिसने कुछ नए सबूत पेश किए.
जब आतंकी हमलों की बात आती है तो भारत के खुफिया तंत्र और जांच एजेंसियों ने बार-बार इस्लामोफोबिक पूर्वाग्रह का प्रदर्शन किया है. सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज द्वारा किए गए शोध से पता चला है कि भारत के लगभग आधा पुलिस बल सोचता है कि मुसलमान में अपराध करने कि "स्वाभाविक प्रवृत्ती” है. टाटा ट्रस्ट के एक अध्ययन से पता चला है कि केवल तीन से चार प्रतिशत भारतीय पुलिस कर्मी मुस्लिम थे और यह संख्या पुलिस पदानुक्रम में और भी कम होने की संभावना है. टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ 2014 के एक साक्षात्कार में, मुंबई एटीएस प्रमुख हिमांशु रॉय ने स्वीकार किया कि उनकी टीम में केवल दो प्रतिशत मुस्लिम थे. 2006 के मालेगांव मामले से निपटने में स्पष्ट वही पूर्वाग्रह कुछ महीनों बाद एक और आतंकी हमले में सामने आया.
18 फरवरी 2007 को समझौता एक्सप्रेस की दो बोगियों में बम धमाका हुआ, यह रेल भारत और पाकिस्तान को जोड़ने वाले दो रेल संपर्कों में से एक थी. इन धमाकों में 68 लोग मारे गए थे, जिनमें से ज्यादातर पाकिस्तानी नागरिक थे. हरियाणा पुलिस, जिसके अधिकार क्षेत्र में बमबारी हुई, ने शुरू में माना कि हमले के पीछे एक इस्लामी संगठन का हाथ है. इसने हमले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल का गठन किया, जिसका नेतृत्व विकास नारायण राय ने किया. एसआईटी ने जल्द ही ट्रेन से बरामद एक गैर-विस्फोटित बम को डिफ्यूज करना शुरू कर दिया और खोजी गई वस्तुओं की उत्पत्ति का पता लगाना शुरू कर दिया. उन्हें मिली लगभग हर वस्तु यानी जिस बैग में बम रखा गया था, अखबार और बम में इस्तेमाल की गई बैटरी, का संबंध मध्य प्रदेश के इंदौर से था. विस्फोट के बाद सबसे पहले जिन लोगों से पूछताछ की गई, उनमें सिमी महासचिव सफदर नागोरी थे. राय ने शुरू में तर्क दिया था कि इंदौर सिमी के संचालन के लिए बदनाम था लेकिन इंदौर हिंदू चरमपंथी संगठनों का भी एक प्रमुख केंद्र था.
राय ने मुझे बताया, “जब समझौता की घटना हुई, तो हमने भी सोचा कि किसी इस्लामी समूह ने इसे किया है, पुलिस में हममें से कुछ तुरंत इसको मान बैठे, जैसे मक्का मस्जिद मामले में भी हुआ था. "लगभग दस दिनों में, हमने महसूस किया कि यह इस्लामी आतंकवादी समूह के लोग नहीं थे." हरियाणा पुलिस के एक अन्य अधिकारी ने मुझे बताया कि मध्य प्रदेश में स्थानीय पुलिस, जो बीजेपी शासित थी, उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रही थी. "जांच एक बिंदु से आगे ही नहीं बढ़ रही थी."
समझौता हमले के डेढ़ साल बाद मध्य मालेगांव में खड़ी ठाकुर की बाइक पर लगे बम में विस्फोट हो गया. दोबारा जांच के लिए एटीएस को बुलाया गया. इसका नेतृत्व उस समय हेमंत करकरे ने किया था, जिन्होंने पहले भारत की विदेशी-खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग में काम किया था. विस्फोट के एक दिन बाद करकरे और राज्य के उपमुख्यमंत्री आर आर पाटिल मालेगांव पहुंचे. उनका स्वागत न्याय से नाउम्मीद मुसलमानों ने विरोध और अविश्वास के बीच किया. इस स्वागत के बाद, करकरे ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, "मैंने अपने आदमियों से कहा कि हमें इस मामले को बहुत निष्पक्ष रूप से आगे बढ़ाना है और इस धारणा से शुरू नहीं करना है कि इस समुदाय या उस समुदाय के लोग जिम्मेदार हो सकते हैं."
करकरे की टीम को अगले महीने इस मामले में पहला ब्रेक मिला. जिस एक मोटरसाइकिल में बम था उसका रजिस्ट्रेशन नंबर और चेसिस नंबर मिटा दिया गया था. नासिक में एक फोरेंसिक लैब ने पाया कि बाइक मूल रूप से ठाकुर के नाम से पंजीकृत थी. उसे पूछताछ के लिए मुंबई में एटीएस कार्यालय आने के लिए कहा गया था, जिसके दौरान उसने बाद में आरोप लगाया कि उसे हिरासत में हिंसा का सामना करना पड़ा.
अगले दो महीनों में, एटीएस ने दो और गिरफ्तारियां कीं : सेना की खुफिया शाखा में लेफ्टिनेंट कर्नल एस पी पुरोहित और धर्मगुरु दयानंद पाण्डेय. गिरफ्तारी और ठाकुर के प्रताड़ना के आरोपों के बाद, आरएसएस और बीजेपी, जिन्होंने शुरू में संदिग्धों के साथ अपने संबंध से इनकार किया था, ने उनका बचाव करना शुरू कर दिया. शिवसेना ठाकुर को कानूनी सहायता देने पर सहमत हो गई, जो बीजेपी द्वारा समर्थित एक कदम था. 2009 के आम चुनाव में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने मांग की कि एटीएस टीम को बदला जाए और हिरासत में हिंसा के आरोपों की न्यायिक जांच की जाए.
करकरे अपनी जांच पर कायम रहे. "मुझे नहीं पता कि यह मामला इतना राजनीतिक क्यों हो गया है," उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को बताया. "दबाव जबरदस्त है और मैं सोच रहा हूं कि इस सारी राजनीति से कैसे निकला जाए." उन्होंने कहा कि निष्कर्ष निकालते समय उनकी टीम दुगनी सावधानी बरत रही थी, लेकिन सभी सबूत एक तरफ इशारा करते हैं. “वास्तव में, जब हम किसी संदिग्ध से पूछताछ करना चाहते हैं और यदि उसके हिंदुत्ववादी संबंध हैं, तो हम एक बार, दो बार, तीन बार सुनिश्चित करते हैं कि हमारे पास उनसे सवाल करने के लिए पर्याप्त कारण और सबूत हैं. अमूमन ऐसा नहीं होता है, हम किसी पर भी संदेह करने के लिए और स्वतंत्र रूप से पूछताछ करने में सक्षम हैं."
26 नवंबर के हमले में करकरे की गोली मार कर हत्या होने के बाद एटीएस के प्रयास रुक गए. इस संक्षिप्त अवधि में, एटीएस यह पता लगाने में सक्षम थी कि बमबारी हिंदू आतंकवादियों की एक बड़ी साजिश से जुड़ी थी और यह हो सकता था कि वही समूह इसी तरह के अन्य हमलों में भी शामिल था. 2006 और 2008 के मालेगांव विस्फोटों के साथ-साथ समझौता विस्फोटों की तीनों जांच-पड़ताल दो वर्षों से रुकी हुई थी.
मनमोहन सिंह सरकार ने जनवरी 2009 में राधा विनोद राजू को पहले एनआईए प्रमुख के रूप में नियुक्त किया. राजू ने पहले जम्मू और कश्मीर के सतर्कता आयुक्त के रूप में कार्य किया था और 1991 में पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी की हत्या और 1999 में इंडियन एयरलाइंस 814 की उड़ान के अपहरण की जांच की थी.
अप्रैल 2010 में, राजस्थान एटीएस की एक जांच में अभिनव भारत नेटवर्क के कई सदस्यों के नाम फिर से सामने आए, जो 2007 में अजमेर शरीफ दरगाह पर हुई पर हुए बम धमाकों की जांच कर रही थी. 2009 के आम चुनाव में एक बड़े जनादेश के साथ फिर से चुने जाने के बाद, अपना विश्वास फिर से हासिल करने के बाद, यूपीए सरकार ने जांच को उसके तार्किक निष्कर्ष पर ले जाने का फैसला किया. जुलाई में, चिदंबरम ने संसद में घोषणा की कि एनआईए समझौता बम धमाकों की जांच अपने हाथ में लेगी और 2006 के मालेगांव विस्फोटों, 2007 में अजमेर शरीफ और मक्का मस्जिद के हमलों के आरोपियों के संबंधों की जांच करेगी. अगले वर्ष, मालेगांव और मोडासा में 2008 के बम विस्फोटों की जांच भी इसे सौंपी गई. उस समय के गृह सचिव आरके सिंह ने कहा कि सरकार के पास आरएसएस से जुड़े कम से कम दस लोगों के नाम हैं जो हमलों में शामिल थे.
राजू के सेवानिवृत्त होने के बाद एनआईए नए नेतृत्व के अधीन आ गई थी. इसके नए विशेष निदेशक, शरद चंद्र सिन्हा, जिन्होंने फरवरी 2010 में एजेंसी का कार्यभार संभाला था, ने सीबीआई में कई कार्यकालों की सेवा की थी और उन्हें एनसीटीसी की स्थापना का प्रभार दिया गया था. उन्हें आम तौर पर राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों को संभालने में एक विशेषज्ञ माना जाता था.(सिन्हा ने इस रिपोर्ट के लिए मुझसे बात करने से इनकार कर दिया और प्रश्नावली का जवाब नहीं दिया.)
एनआईए के दृष्टिकोण को अपने पूर्ववर्तियों से अलग करने वाले पहले कदमों में से एक 2006 के मालेगांव बम विस्फोटों की महत्वपूर्ण पुन: जांच थी. मालेगांव पहुंची एनआईए की टीम ने एटीएस और सीबीआई द्वारा पेश किए गए सबूतों की जांच शुरू की. तब तक, अभियुक्तों का कबूलनामा, जिन्होंने दावा किया था कि उन्हें पुलिस हिरासत में प्रताड़ित किया गया था, अदालत में काफी हद तक झूठे साबित हो गए थे. सिमी को इस मामले से नहीं जोड़ा जा सका था. एकमात्र शेष सबूत विस्फोट स्थल और मासीउल्लाह के गोदाम से मिले मिट्टी के नमूने थे.
जांच एजेंसी की बरामदगी को अदालत में दिखने के लिए, उसे गवाहों की उपस्थिति में घटना स्थल से एकत्रित किया जाना चाहिए. जब एनआईए ने दो गवाहों का पता लगाया, जिनके बारे में एटीएस ने दावा किया था कि इन दोनों के सामने मिट्टी के नमूने एकत्र किए गए थे, तो उन्होंने जांचकर्ताओं के साथ विस्फोट स्थल या गोदाम में जाने से इनकार किया. एक अन्य गवाह को एक ही समय में दो अलग-अलग स्थानों पर दिखाया गया था.
एटीएस का मामला तेजी से सुलझने लगा. इसके बाद एनआईए ने विस्फोटों के दिन संदिग्धों के ठिकाने का पता लगाना शुरू किया. एजेंसी ने कहा कि एटीएस ने जिन पांच आरोपियों के मौके पर मौजूद होने का दावा किया था उनमें से कोई भी विस्फोट स्थल के पास नहीं था. उदाहरण के लिए, 12 गवाहों ने एनआईए को पुष्टि की कि बमबारी के दिन, गुलाम अहमद, जिस पर मुशावरत चौक में बम रखने का आरोप था, मालेगांव से चार सौ किलोमीटर दूर था. विस्फोट के समय एक अन्य आरोपी न्यायिक हिरासत में था. एनआईए ने इन सभी सबूतों को मई 2013 में दायर चार्जशीट में शामिल किया था. तीन साल बाद, आरोपी को बरी करते हुए, एक नामित मकोका न्यायाधीश ने फैसला सुनाया कि एटीएस ने "असली दोषियों को मुक्त करने के लिए सभी आरोपियों के खिलाफ झूठे सबूत गढ़े थे." रघुवंशी, जिन्होंने अपनी जांच के दौरान एटीएस का नेतृत्व किया था, ने यह कहते हुए सवालों का जवाब नहीं दिया कि मामला विचाराधीन है.
नवंबर 2010 में, सीबीआई ने मक्का मस्जिद बम विस्फोट मामले में असीमानंद को गिरफ्तार किया. असीमानंद तब से फरार था जब उसके एक सहयोगी को राजस्थान एटीएस ने अजमेर शरीफ विस्फोट के सिलसिले में गिरफ्तार किया था. सीबीआई ने उसे हरिद्वार के बाहर एक गांव में ढूंढ निकाला जहां वह फर्जी नाम से रह रहा था. अगले दो महीनों में, उसने दो विस्फोटक इकबालिया बयान दिए, जिसने अभिनव भारत के आंतरिक कामकाज के साथ-साथ पांच बड़े आतंकी हमलों की योजना और निष्पादन को उजागर किया. (वह बाद में इन बयानों से यह दावा करते हुए मुकर गया कि उसे यातना देखर बयान देने के लिए मजबूर किया गया था.) जबकि असीमानंद केवल मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोटों से सीधे जुड़ा था, सभी हमले एक धुंधली छवि से जुड़े हुए थे, जो सुनील जोशी नाम का इंदौर आरएसएस का पूर्व जिला नेता था.
अपनी दिसंबर 2010 की स्वीकारोक्ति में, असीमानंद ने कहा कि वह जून 2000 में गुजरात के वलसाड़ शहर में अपने करीबी विश्वासपात्र भारत रतेश्वर के घर पर जोशी से मिला था. बैठक में अन्य थे : कलसांगरा, संदीप डांगे, लोकेश शर्मा और एक आदमी जिसे सिर्फ अमित के नाम से जाना जाता था. कलसांगरा, जिसे कथित तौर पर ठाकुर के साथ 2008 के मालेगांव बम विस्फोट पर चर्चा करते हुए रिकॉर्ड किया गया था, इंदौर में आरएसएस का व्यस्थापक था, जबकि डांगे मध्य प्रदेश में शाजापुर में संघ का जिला प्रमुख था. इस बैठक में, असीमानंद ने कहा, उन्होंने मालेगांव पर हमला करने का सुझाव दिया क्योंकि इसकी बड़ी मुस्लिम आबादी है. उसने कहा कि, कई महीने बाद, जोशी दीवाली के लिए उनके आश्रम में आया था और बताया कि उसके लड़कों ने मालेगांव में बम विस्फोट किया था. एनआईए ने 2006 के मालेगांव मामले में जोशी और असीमानंद के कई सह साजिशकर्ताओं को भी नामजद किया था.
मामले में एनआईए की चार्जशीट 2006 में मालेगांव में हुई घटना की एक स्पष्ट कहानी स्थापित करती है. चार्जशीट के अनुसार, जोशी के निर्देश पर रामचंद्र गोपाल सिंह और मनोहर नरवरिया नाम के दो लोगों हमीदिया मस्जिद और बड़ा कब्रिस्तान में एक बैग में दो बम साइकिल में लटका के ले गए. बाद में, उनके एक अन्य साथी लोकेश शर्मा ने दिल्ली के एक फोन से एक मीडिया हाउस को फोन किया और उन्हें सूचित किया कि “धर्मसेना” ने मालेगांव में हुए विस्फोट की जिम्मेदारी ली है. एनआईए ने कहा कि दोनों आरोपियों की पहचान जनवरी 2013 में गवाहों द्वारा की गई थी. एनआईए की आगे की जांच ने मध्य प्रदेश के बागली शहर में एक प्रशिक्षण शिविर की पहचान की, जहां आरोपियों ने बमबारी से पहले प्रशिक्षण और प्रदर्शन किया था.
असीमानंद के कबूलनामे और उसके बाद की जांच ने एनआईए को न केवल उसके सह-साजिशकर्ताओं को गिरफ्तार करने के लिए प्रेरित किया, बल्कि मुस्लिम आरोपियों की रिहाई के दरवाजे भी खोले. नवंबर2011 में, एनआईए ने मकोका अदालत को बताया कि असीमानंद की गिरफ्तारी के बाद, उसके मामलों से जुड़े सबूतों के साथ ही साथ नए दस्तावेजी और मौखिक साक्ष्य की भी समीक्षा की. एनआईए के विशेष अभियोजक सलियन ने अदालत को बताया, "जांच में बयानों और फॉरेंसिक रिपोर्ट के रूप में कई नए तथ्य और परिस्थितियां सामने आई हैं. निश्चित जांच निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए और सबूत इकट्ठा करने के लिए आगे की जांच जारी है. इस प्रकार, उनकी जमानत याचिका का कोई विरोध नहीं है.” मकोका कोर्ट ने चार साल जेल में बिताने वाले नौ आरोपियों को जमानत देने के लिए इसी पर भरोसा किया. उन्हें बरी होने में और पांच साल लगे.
मालेगांव मामले की जांच के एनआईए के पास जाने ने कई विचाराधीन कैदियों को उम्मीद दी, जिन्हें मुंबई एटीएस ने गिरफ्तार किया था. 2006 के मालेगांव बम विस्फोट से कुछ महीने पहले, मुंबई में उपनगरीय ट्रेनों में सात विस्फोट हुए थे- आम बोलचाल की भाषा में इसे 7/11 विस्फोट कहा जाता है. एटीएस ने हमले के लिए सिमी को जिम्मेदार ठहराया था और कई मुसलमानों को गिरफ्तार किया था. इस मामले में भी अभियुक्तों ने आरोप लगाया था कि एटीएस ने उन्हें कबूलने के लिए गंभीर रूप से प्रताड़ित किया था. एक आरोपी ने दावा किया कि उसे 75 दिनों तक लगातार प्रताड़ित किया गया था. दिसंबर 2010 में मामले में एक विचाराधीन कैदी ने चिदंबरम को पत्र लिख कर अनुरोध किया कि वह एनआईए को "7/11 विस्फोट मामले की गहन जांच करने और मुंबई आतंकवाद विरोधी दस्ते द्वारा उक्त मामले में निर्दोष व्यक्तियों के झूठे आरोप का पता लगाने का निर्देश दें."
वाहिद शेख, एक शिक्षक और कार्यकर्ता, जिन पर ट्रेन बम विस्फोटों का गलत आरोप लगाया गया था, एनआईए के गठन के समय पहले ही दो साल जेल में बिता चुके थे. उस समय, उनको नहीं पता था कि कई राज्य पुलिस बल और एनआईए ने इस हमले के लिए आरोपियों के एक और समूह का नाम लिया था. 2014 में, एनआईए ने इंडियन मुजाहिदीन से संबंधित एक व्यापक मामले में एक आरोप पत्र दायर किया, जो एक इस्लामी संगठन था और जिसे एनआईए ने विस्फोट के पीछे का वास्तविक आरोपी माना था. शेख ने मुझे बताया, "मैं उस समय यह नहीं जानता था लेकिन जेल में रहने के दौरान मुझे यह पता चला कि इस तरह का आरोपपत्र एक और आरोपी के नाम पर दायर किया गया है." उन्होंने और उनके सह-आरोपी ने बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर कर इस आरोप पत्र पर ध्यान आकर्षित करवाया और मामले में एनआईए द्वारा आगे की जांच की मांग की. एनआईए ने अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही धीरे-धीरे एक ऐसे समुदाय का विश्वास अर्जित करना शुरू कर दिया था जिसे भारत की खुफिया और जांच एजेंसियों द्वारा बार-बार झूठा निशाना बनाया गया था.
शेख ने मुझे बताया, "सच कहूं तो उस समय जो कुछ भी हुआ था, उसके बाद मुझे किसी एजेंसी से बहुत उम्मीद नहीं थी कि कोई भी न्याय करेगी. हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं था, सबसे बुरा पहले ही हो चुका था, लेकिन हमने सोचा कि चूंकि विभिन्न एजेंसियों के अलग-अलग निष्कर्ष हैं, इसलिए हमें उसमें मौके देख लेने हैं. अगर उस में एक प्रतिशत भी मौका है, तो हमें लेना चाहिए. हम पहले ही सब कुछ खो चुके थे. मुकदमा हुआ, दोषी साबित हुए, अब हम मौत की सजा का सामना कर रहे थे." शेख नौ साल जेल में रहने के बाद बरी हो गए लेकिन याचिका अभी भी लंबित है और उनके 12 सह-आरोपी जेल में हैं.
धमाकों की श्रंखला में शामिल हिंदुत्व चरमपंथियों के नेटवर्क का पीछा करने में एक आकस्मिक सफलता मिली. समझौता और मालेगांव मामलों में एनआईए की आगे की जांच आशाजनक लग रही थी. हरियाणा एटीएस के पास घटनास्थल से बैग, एक बिना फटा बम और उंगलियों के निशान वाली प्लास्टिक की बोतलों के रूप में गवाह और सबूत थे. एटीएस यह बताने के लिए फोन रिकॉर्ड का पता लगाने में भी सक्षम था कि जोशी उस दिन बाजार में था जिस दिन बैग खरीदा गया था. रिकॉर्ड से यह भी पता चलता है कि ठाकुर, जोशी, डांगे और असीमानंद विस्फोट से कुछ समय पहले फरवरी और मार्च 2007 के बीच एक-दूसरे के निकट संपर्क में थे. मामले को अपने हाथ में लेने में देरी के बावजूद वैज्ञानिक दृष्टि से मामले को मजबूत बनाने के लिए एजेंसी के पास पर्याप्त सामग्री थी. 2008 के मालेगांव विस्फोट में भी, द वायर के सुकन्या शांता को सलियन के दिए एक साक्षात्कार के अनुसार, एनआईए के तीन वरिष्ठ अधिकारियों ने परिश्रमपूर्वक जांच की और अपने निष्कर्षों को अंतिम रूप दिया.
{तीन}
मनमोहन सिंह सरकार के अंतिम महीनों में एनआईए के दिल्ली मुख्यालय में सब कुछ ठीक नहीं था. सलियन ने बाद में एनडीटीवी को बताया, "मुझे लगा कि एनआईए में घुसपैठ पहले ही शुरू हो चुकी है और नवगठित टीम में हर कोई एक मजबूत मामला बनाने के पक्ष में नहीं था."
29 दिसंबर 2007 को सुनील जोशी को, जो उन पांच आतंकी हमलों के बीच संबंधों को स्पष्ट कर सकता था, जिसमें अभिनव भारत के सदस्य आरोपी थे, मध्य प्रदेश के देवास में अपने घर के पास मरा हुआ पाया गया. जब बम धमाकों की योजना बनाई गई थी तो जोशी पहले से ही एक वांछित व्यक्ति था. 2003 में, उसका नाम कांग्रेस नेता प्यार सिंह निनामा और उनके बेटे दिनेश की हत्या से जुड़ा था और मध्य प्रदेश पुलिस ने उसे फरार घोषित कर दिया था. हालांकि, ऐसा लगता है कि राज्य की बीजेपी सरकार ने उसे गिरफ्तारी से छूट दे रखी थी. देवास के एक बीजेपी विधायक दीपक जोशी ने रेडिफ वेबसाइट को बताया कि वह सुनील से एक कार्यक्रम में मिले थे, जबकि पुलिस ने दावा किया था कि वह छुपा हुआ था. सुनील जोशी के दोस्त भी बहुत ऊंचे पदों वाले थे- उस समय के कई समाचार रिपोर्टों में कहा गया था कि उसकी डायरी में आरएसएस नेता इंद्रेश कुमार का नंबर "आपातकालीन संपर्क" के तौर पर दर्ज था, साथ ही उस समय के आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और बीजेपी के भावी महासचिव राम माधव का फोन नंबर भी उसकी डायरी में था.
तीन साल की जांच के बाद मध्य प्रदेश पुलिस ने हर्षद सोलंकी नाम के शख्स को गिरफ्तार किया. इसके तुरंत बाद, इसने ठाकुर सहित चार हिंदू संदिग्धों को नामजद करते हुए एक आरोप पत्र दायर किया, जिन्हें मालेगांव बम विस्फोट के लिए पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था. एनआईए की जांच से पता चला है कि ठाकुर ने दो अन्य लोगों के साथ मिल कर जोशी की हत्या की योजना बनाई और उसे अंजाम दिया. उसकी मृत्यु के बाद, ठाकुर जोशी का फोन और साथ ही उसके घर से एक ब्रीफकेस उठा ले गई थी जिसमें "बम बनाने वाली सामग्री" थी. बैलिस्टिक रिपोर्टों ने पुष्टि की कि अपराध स्थल से बरामद खाली गोलियां आरोपी से जब्त हथियार से मेल खाती हैं.
एनआईए ने चार्जशीट में उल्लेख किया है कि समझौता, अजमेर दरगाह और मालेगांव बम विस्फोटों में भी आरोपियों के नाम पहले वाली चार्जशीट में थे. इसके बावजूद, एक बड़ी आतंकी साजिश होने के एनआईए के पहले के तर्कों को वापस लेते हुए, आरोप पत्र में कहा गया कि कोई निर्धारित अपराध नहीं बनता था और इसलिए मामले को एक नियमित अदालत में स्थानांतरित किया जाना चाहिए. यह रुख एजेंसी के अपने निष्कर्षों का खंडन करता था. चार्जशीट में जोशी के इंद्रेश कुमार से संबंध का भी कोई जिक्र नहीं था.
इन कड़ियों को स्थापित करने में विफलता का मतलब था कि विशेष एनआईए अदालत में शुरू हुई सुनवाई को वापस जिला अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया. एनआईए द्वारा पेश किए गए कम सबूत बाद की सुनवाई में स्पष्ट हो गए.1 फरवरी 2017 को, मजिस्ट्रेट ने घोषणा की कि "सबूत अपर्याप्त हैं" और आरोपी के खिलाफ आरोप "बिना उचित संदेह के साबित नहीं किए जा सकते." निर्णय में कहा गया है कि इस अदालत से अज्ञात कारणों से "यह स्पष्ट है कि दोनों संगठनों, एमपी पुलिस और एनआईए, ने मामले की गंभीरता के साथ जांच नहीं की" और "दोनों सरकारी संगठनों द्वारा प्रदान किए गए परस्पर विरोधी साक्ष्य" आरोपी के अपराध को साबित करने के लिए अपर्याप्त है. इसके बजाय अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत विचार मामले पर संदेह पैदा करता है”.
जुलाई 2012 में, सुप्रीम कोर्ट ने एनआईए को जोशी की हत्या के बारे में ठाकुर से पूछताछ करने से रोक दिया, इस आधार पर कि मामले की पहली सूचना रिपोर्ट एजेंसी की स्थापना से पहले दर्ज की गई थी. अदालत ने एजेंसी को पुरोहित और एक अन्य आरोपी से पूछताछ करने से भी रोक दिया. एनआईए के अभियोजक और कानूनी सलाहकार अहमद खान ने कथित तौर पर सलाह दी थी कि एजेंसी चारों मामलों को एक साथ जोड़ दे. यह विस्फोटों से जुड़ी "बड़ी साजिश" की जांच के लिए जांच का दायरा बढ़ा सकता था. हालांकि, जून 2013 में कानून मंत्रालय की सलाह पर मामलों की अलग से सुनवाई की गई.
वाहिद शेख ने मुझे बताया कि 2006 के मुंबई ट्रेन बम विस्फोटों पर पुलिस अधिकारियों ने अपना रुख बदल दिया क्योंकि उन्हें एक एजेंसी से दूसरी एजेंसी में स्थानांतरित कर दिया गया था. "एक ही पुलिस अधिकारी अलग-अलग समय पर अलग-अलग पुलिस एजेंसियों के साथ काम कर रहे थे," उन्होंने कहा. “जब वे एटीएस के साथ होते, तो कहते कि मैं दोषी हूं, फिर वे क्राइम ब्रांच या एनआईए में जाते और कहते कि मैं निर्दोष हूं. मालेगांव मामले में भी ऐसा ही हुआ और यह वाकई हास्यास्पद है. ये अधिकारी इन एजेंसियों द्वारा लिए गए सामूहिक रुख के अनुसार काम करते हैं.”
एनआईए के पूर्व विशेष अधिकारी एनआर वासन भी इसी तरह का निष्कर्ष निकालते दिख रहे थे. उन्होंने मुझे बताया, "राज्य पुलिस, एनआईए और सीबीआई में कोई अंतर नहीं है- सभी के एक ही अधिकारी हैं." उन्होंने कहा, “यह जनता के मन में एक गलत धारणा है. वे किसी भी तरह से श्रेष्ठ नहीं हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि उनके पास जांच के लिए राज्य पुलिस या स्थानीय पुलिस की तुलना में बहुत कम मामले हैं.” उन्होंने कहा कि कोई भी केंद्रीय जांच एजेंसी स्थानीय पुलिस जितनी ही अच्छी या बुरी होती है. उनका भ्रष्टाचार भी स्थानीय पुलिस जितना ही अच्छा या बुरा है.”
सलियन ने तर्क दिया कि बम विस्फोटों की जांच के शुरुआती चरण में पहली बार हिंदू समूहों के नामों की जांच एक" संगठित अपराध सिंडिकेट" के हिस्से के रूप में की गई थी, जो देश की संप्रभुता को गिराने की कोशिश कर रहे थे. "एक मुख्य आरोपी दयानांद पाण्डे की गिरफ्तारी और उसके बाद पूछताछ ने हमें अन्य आरोपियों के खिलाफ पुख्ता सबूत दिए थे,” उन्होंने द वायर को बताया. "उसके पास से बरामद लैपटॉप में अधिकांश साजिशों की बैठकों के साक्ष्य, उन बैठकों के कार्यवृत्त और कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के नाम की वीडियोग्राफी की गई थी." एनआईए ने इनमें से कई सुरागों पर ध्यान नहीं दिया.
सलियन को उस समय दबाव का सामना करना पड़ा जब उन्होंने 2006 के मालेगांव बम विस्फोटों में मुस्लिम आरोपियों की रिहाई के लिए बहस करने की कोशिश की, जिन्हें एजेंसी ने निर्दोष पाया था. उन्होंने 2019 के एक साक्षात्कार में मुंबई मिरर को बताया कि एनआईए में कुछ "उच्च हिंदू अधिकारियों" ने आरोपियों की रिहाई को रोक दिया था. सलियन ने सुझाव दिया था कि एनआईए द्वारा आरोप पत्र दायर करने से पहले उन्हें छोड़ दिया जाए. उन्होंने कहा, "इस मुद्दे को एक निश्चित स्तर तक मंजूरी भी मिली थी लेकिन बाद में रोक दी गई. कुछ हिंदू अधिकारी थे जो नहीं चाहते थे कि मुस्लिम आरोपी मुक्त हों. और वही अधिकारी मालेगांव विस्फोट के दूसरे मामले में आरोपियों के लिए अनुकूल आदेश प्राप्त करने के लिए काम कर रहे हैं.”
इस अवधि के दौरान गृह मंत्रालय के कामकाज से पता चलता है कि कुछ नौकरशाह हिंदू समूहों पर मुकदमा चलाने से नाखुश थे. सनातन संस्था के सदस्यों पर 2008 में ठाणे, वाशी और पनवेल में सिनेमाघरों के बाहर बम लगाने का आरोप लगने के तीन साल बाद उनको गिरफ्तार किया गया था. तीन राज्यों की सरकारों- महाराष्ट्र और गोवा की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारें और कर्नाटक में बीजेपी सरकार ने संगठन पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव देते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र लिखा. हालांकि, मंत्रालय ने जवाब दिया कि प्रतिबंध के लिए पर्याप्त तर्कसंगत वजह नहीं हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने दावा किया कि उन्होंने 11 अप्रैल 2011 को गृह मंत्रालय को एक पत्र भेजा था लेकिन उस समय के गृह सचिव जीके पिल्लई ने 2015 में बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया था कि उन्हें ऐसी कोई फाइल याद नहीं है.
इस दावे का विरोध करते हुए, पिल्लई के उत्तराधिकारी आरके सिंह ने मीडिया को बताया कि गृह मंत्रालय ने महाराष्ट्र सरकार को "प्रस्ताव से संबंधित कुछ प्रश्न वापस लिखे थे लेकिन मंत्रालय की तरफ से जवाब कभी नहीं आए."
चिदंबरम ने मुझे बताया, “मुझे ब्योरा याद नहीं है. कानून के तहत, एक आतंकवादी समूह के रूप में एक 'समूह' का नामकरण/प्रतिबंध मजबूत सबूतों पर आधारित होना चाहिए जिसे ट्रिब्यूनल में प्रस्तुत किया जाना चाहिए और ट्रिब्यूनल को कार्यवाही को बरकरार रखना चाहिए. जहां तक मुझे याद है, कुछ मामलों में गृह मंत्रालय ने संबंधित राज्य सरकारों से संदिग्ध आतंकी समूहों के खिलाफ सबूत पेश करने को कहा था.” उन्होंने कहा कि कानून "एक 'व्यक्ति' और एक 'समूह' के बीच अंतर करता है. संदिग्ध 'समूह' के खिलाफ सबूत सामने नहीं आ रहे थे. उसी समय मैंने गृह मंत्रालय छोड़ दिया था.” मुझे संस्था पर प्रतिबंध लगाने के संबंध में गृह मंत्रालय से सूचना के अधिकार के तहत किए गए अनुरोध का कोई जवाब नहीं मिला”.
गृह मंत्रालय के संस्था पर प्रतिबंध लगाने से इनकार के घातक परिणाम हुए. वर्तमान में संगठन के सदस्य सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या के मुकदमे का सामना कर रहे हैं. फिलहाल तीनों मामलों की जांच सीबीआई कर रही है. पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या की जांच कर रही एसआईटी ने पाया कि "कट्टरपंथी दक्षिणपंथी संगठन सनातन संस्था से जुड़े अपराध सिंडिकेट न केवल लंकेश की हत्या में शामिल थे, बल्कि दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्याओं में भी शामिल थे."
यदि यूपीए सरकार मजबूत सबूतों के साथ संस्था पर प्रतिबंध लगा पाने करने में विफल रही, तो मोदी सरकार आतंकी मामलों में संस्था के सदस्यों को दोषी ठहराए जाने के बावजूद उनकी पक्षधरता में यूपीए से एक कदम आगे है. कलबुर्गी की हत्या की एसआईटी जांच की मांग करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के जवाब में, एनआईए ने कहा कि वह हत्या की जांच नहीं कर सकती क्योंकि यह एनआईए अधिनियम के तहत एक अनुसूचित अपराध नहीं था. अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पिंकी आनंद ने अदालत को बताया कि, एक विशेष आतंकवाद विरोधी एजेंसी के रूप में, जोशी हत्याकांड की जांच के वक्त एनआईए को हत्या के मामलों की जांच करने की अनुमति नहीं थी., क्योंकि इसमें एक आतंकवादी संगठन की संलिप्तता की संभावना थी, अदालत और एजेंसी दोनों पहले ही भूल चुके थे. हाल ही में, जब कथित तौर पर ईशनिंदा का समर्थन करने के लिए दो मुसलमानों ने उदयपुर के एक दर्जी की हत्या कर दी, तो 28 जून को मामला तुरंत एनआईए को सौंप दिया गया.
उसी समय अदालतें अन्य आतंकी मामलों में एनआईए द्वारा मुसलमानों के खिलाफ सबूतों के मिथ्याकरण की ओर भी इशारा कर रही थीं. रज़िक रहीम और चार अन्य मुस्लिम मामले में यह स्पष्ट है जिन्हें केरल पुलिस ने 15 अगस्त 2006 को गिरफ्तार किया था. उस दिन, वे स्वतंत्रता के लिए भारतीय संघर्ष में मुसलमानों की भूमिका के बारे में एक बैठक में भाग ले रहे थे. अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि बैठक सिमी द्वारा "भारत सरकार के प्रति असंतोष पैदा करने, कश्मीर के अधिग्रहण के लिए जिहाद करने और भारत में मुस्लिम शासन को वापस लाने के लिए" आयोजित की गई थी. मामले की पहले स्थानीय पुलिस ने जांच की, फिर एक एसआईटी ने, 2012 में, एनआईए ने पदभार संभाला.
रहीम ने मुझे बताया कि वह और अन्य आरोपी एनआईए की संलिप्तता को लेकर बहुत आशान्वित नहीं थे. वे याद करते हैं मामले को संभालने के एक हफ्ते के भीतर ही, एनआईए के एक अधिकारी ने उनसे कहा, “हम पहले पांच आरोपियों को सजा देंगे. इसलिए एक अच्छा वकील लेने में पैसा बर्बाद मत करो." एनआईए ने एसआईटी द्वारा पेश किए गए सबूतों पर भरोसा किया लेकिन बैठक में13 और प्रतिभागियों के नाम आरोपियों की सूची में जोड़े. एर्नाकुलम में एक विशेष एनआईए अदालत ने सभी आरोपियों को दोषी ठहराया, उन्हें बारह से चौदह साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई.
जब आतंकी हमलों की बात आती है तो भारत के खुफिया तंत्र और जांच एजेंसियों ने बार-बार इस्लामोफोबिक पूर्वाग्रह का प्रदर्शन किया है.
जिस क्षण मामला केरल उच्च न्यायालय पहुंचा, हालांकि, यह माना नहीं गया. उच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया कि मामला काफी हद तक एक गवाह के बयान पर बनाया गया था, जिसे एनआईए ने मामले को अपने हाथ में लेने के बाद आरोपियों की सूची में जोड़ा था. एनआईए के मामलों में यह एक सामान्य घटना है. अदालत ने फैसला सुनाया कि यह बयान, "घटना के लंबे समय बाद दर्ज किया गया था इसे बिना पुष्टि के वास्तविक सबूत नहीं माना जा सकता है." रहीम ने मुझे बताया कि उसके साथी आरोपियों ने अदालत को सूचित किया कि एनआईए के अधिकारियों ने उन्हें सरकारी गवाह बनाने के लिए उनसे संपर्क किया था. "उन्होंने हम पांचों को छोड़कर सभी से संपर्क किया. एक व्यक्ति को छोड़कर सभी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया." उन्होंने कहा कि एजेंसी ने केरल में जांच किए गए कई मामलों में सरकारी गवाहों पर भरोसा किया था. "उन्होंने जो मुख्य साक्ष्य प्रस्तुत किए, वे सरकारी गवाहों के बयान हैं." उन्हें बरी करते हुए, अप्रैल 2015 में, उच्च न्यायालय ने पाया कि अधिकांश गवाह पुलिस अधिकारी थे जो अभियोजन पक्ष के पक्षपाती हो सकते थे. उसने एक बिना तारीख वाली डायरी को भी खारिज कर दिया. जिसे सभागार की बुकिंग के लिए सबूत के तौर पर पेश किया गया था, जहां बैठक हुई थी.
इसी तरह, 2009 में कोझीकोड में हुए दोहरे विस्फोटों में एनआईए की जांच के संबंध में हाल के एक फैसले में, केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि आरोपियों ने जो उन्हें बताया था उस से अलग एजेंसी ने सबूत खोजने के कोई ठोस प्रयास नहीं किए थे.उच्च न्यायालय ने दो प्रमुख आरोपियों को बरी कर दिया जिन्हें एर्नाकुलम में एनआईए की विशेष अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. एनआईए पर भारी पड़ते हुए, अदालत ने कहा कि एजेंसी ने "आरोपियों द्वारा [एनआईए अधिकारियों से ]किए गए कबूलनामे को भी दर्ज किया था, जो स्पष्ट रूप से साक्ष्य अधिनियम के तहत अस्वीकार्य था." फैसले ने एनआईए की विशेष अदालत को भी नहीं बख्शा: "मामला अभियोजन पक्ष द्वारा सिर्फ और सिर्फ अनुमानों और अटकलों पर तैयार किया गया है, जिसे ट्रायल कोर्ट बिना किसी परेशानी पचा भी गया और आपराधिक न्यायशास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों को हवा दे दी."
त्रिशूर वियूर सेंट्रल जेल में अपने चालीस महीनों के दौरान, रहीम ने पाया कि एनआईए द्वारा गिरफ्तार किए गए लोगों को पहले से ही बदसलूकी के लिए बदनाम जेल में सबसे खराब व्यवहार का सामना करना पड़ा. उन्होंने कहा, "राज्य मानवाधिकार आयोग का एक सदस्य एक साथी कैदी की शिकायत को गंभीरता से सुन रहा था कि उसे आपातकालीन स्वास्थ्य देखभाल में देरी के कारण नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि जेल अधिकारी उसे अस्पताल ले जाने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा की प्रतीक्षा कर रहे थे,". "लेकिन जिस क्षण उन्हें पता चला कि यह एनआईए द्वारा जांचा गया एक यूएपीए मामला है, सदस्य ने कहा, 'अयो, तो मैं कुछ नहीं कर सकता.'" रहीम ने बताया कि, उनका अनुभव रहा है कि, "पूरी व्यवस्था-चाहे वह अदालतें हो या जेल प्राधिकरण या स्थानीय पुलिस-वे इस धारणा के तहत काम करते हैं कि एनआईए देश की सर्वोच्च एजेंसी है. और इसके साथ बातचीत करने में डर और सम्मान की भावना है. विफलताओं की बढ़ती सूची के बावजूद भी एनआईए की अदालतों और दंड व्यवस्था में यह सम्मान कायम है.
वियूर सेंट्रल जेल और एनआईए की केरल शाखा दोनों मेरे सवालों का जवाब देने में विफल रहे.
मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के अंत में एनआईए के साथ काम करने वाले कुछ वरिष्ठतम अधिकारियों और नौकरशाहों के करियर में वृद्धि हुई, जबकि पेशेवर तटस्थता के लिए एजेंसी की प्रतिष्ठा कम हो गई. अगस्त 2013 से एनआईए के महानिदेशक शरद कुमार अक्टूबर 2015 में सेवानिवृत्ति की आयु तक पहुंच गए. हालांकि, मोदी सरकार ने उन्हें दो और वर्षों के लिए अनुबंध के आधार पर विस्तार दिया, उनके रैंक के कई अन्य यूपीए नियुक्तियों के विपरीत. फिर, जून 2018 में, उन्हें केंद्रीय सतर्कता आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. वह अक्टूबर 2020 में उस पद से सेवानिवृत्त हुए थे.
समझौता बम विस्फोट मामले से कुमार के नेतृत्व में एनआईए का आचरण स्पष्ट हो गया. एजेंसी के आरोप पत्र में विशेष रूप से फोन रिकॉर्ड का उल्लेख किया गया था जिसमें जोशी की इंदौर में उपस्थिति की पुष्टि की गई थी, साथ ही साथ ठाकुर, डांगे और असीमानंद के साथ उनके लगातार संपर्क का भी उल्लेख किया गया था. हालांकि, जब अदालत ने इस दावे को पेश करने के लिए कहा, तो एनआईए अचानक रिकॉर्ड या कोई अन्य सबूत प्रदान करने में असमर्थ थी. ऐसा लगता है कि विस्फोट स्थल पर मिले उंगलियों के निशान भी गायब हो गए थे. न्यायाधीश ने पाया कि एक फिंगरप्रिंट विशेषज्ञ की रिपोर्ट मोहरिर हेड कांस्टेबल के पास जमा कर दी गई थी.(अदालत में जमा की गई सामग्री का संरक्षक) लेकिन वो अब एनआईए द्वारा पेश किए गए सबूतों में नहीं था, और एजेंसी के पास इस बात का कोई सबूत नहीं था कि उसने छापों की तुलना आरोपियों से करने की कोशिश की थी. एनआईए बैग के दर्जी के लिए एक पहचान परेड आयोजित करने में भी विफल रही, यह साबित करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था कि बैग का खरीदार कौन था. फैसले में कहा गया है, "मुझे इस फैसले को गहरी पीड़ा और मलाल के साथ समाप्त करना पड़ रहा है क्योंकि हिंसा का एक कायराना कृत्य विश्वसनीय और स्वीकार्य सबूत के अभाव में दण्डित नहीं हो पाया है." "अभियोजन के सबूतों में भारी खामियां हैं और आतंकवाद का एक कार्य अनसुलझा रहा है."
इस बीच, कुमार ने एक और सिद्धांत को बढ़ावा दिया. संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा के दौरान, अप्रैल 2016 में, उन्होंने अल कायदा और तालिबान से संबंध रखने वाले लश्कर-ए- तैयबा के एक सदस्य आरिफ कासमानी, का विवरण मांगा जिस पर एनआईए ने आरोप लगाया था, हो सकता है कि उसने हमले में मदद की हो. इंटेलिजेंस ब्यूरो के साथ-साथ स्थानीय पुलिस को भी बमबारी के बाद लश्कर-ए-तैयबा की संलिप्तता का संदेह था, लेकिन विस्फोट स्थल पर मिले सबूतों ने इस सिद्धांत पर विराम लगा दिया था. कुमार ने घोषणा की कि वह अदालत में कासमानी के बम विस्फोट में शामिल होने के बारे में एक अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट पेश करेंगे. लेकिन इंडियन एक्सप्रेस ने बताया, कि कासमानी पर डोजियर भारत-पाक संयुक्त आतंकवाद विरोधी तंत्र के माध्यम से भारत ने ही साझा किया था और अमेरिकी सरकार को भी पारित कर दिया था. यदि ऐसा ही था, तो भारत सरकार ने अनिवार्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संदिग्ध की सत्यता की खुफिया जानकारी पहले ही साझा कर ली थी फिर एनआईए ने अदालत में दावा किया कि अमेरिकी खुफिया ने उसके दावे का समर्थन किया था. कुमार ने इस सिद्धांत या एनआईए में उनके आचरण के बारे में किसी सवाल का जवाब नहीं दिया.
एक महीने बाद कुमार ने द वीक को बताया, "देश में भगवा आतंकवाद का कोई खतरा नहीं है." “2008 के बाद से, ऐसी कोई गतिविधि नहीं हुई है जो एजेंसी के संज्ञान में आई हो. इसलिए, किसी खतरे का कोई सवाल ही नहीं है." उन्होंने मीडिया को यह भी बताया कि समझौता विस्फोट मामले में पुरोहित के खिलाफ कोई सबूत नहीं है. वह कभी आरोपी नहीं था. मुझे आश्चर्य है कि उसका नाम समझौता विस्फोट मामले से क्यों जोड़ा जा रहा है. इसके तुरंत बाद गृह राज्य मंत्री, किरण रिजिजू ने शिकायत की कि जिस तरह से मनमोहन सिंह सरकार ने " अधिकारियों पर काम करने के लिए दबाव डाला, वो ठीक नहीं.उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था."
एनआईए से कुमार की सेवानिवृत्ति के बाद, सरकार ने गुजरात के एक विवादास्पद पुलिस अधिकारी वाईसी मोदी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया. वाईसी मोदी उस एसआईटी का हिस्सा थे जिसने राज्य में 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के दौरान कई नरसंहारों की जांच की, जिसमें गुलबर्ग सोसाइटी मामला, नरोदा पाटिया मामला और नरोदा गाम मामला शामिल था. एसआईटी ने नरेंद्र मोदी, जो उस समय राज्य के मुख्यमंत्री थे, और 63 अन्य मामलों में भी आरोपी थे, को दोषमुक्त घोषित कर दिया,जबकि महत्वपूर्ण सबूतों और गवाहों की अनदेखी के लिए एसआईटी को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा था.
वाईसी मोदी हरेन पांड्या की हत्या की जांच करने वाली सीबीआई टीम के प्रमुख भी थे, जिन्हे नरसंहार में नरेंद्र मोदी की भूमिका के बारे में एक स्वतंत्र तथ्य-खोज पैनल के सामने पेश होने के तुरंत बाद गोली मार दी गई थी. इस जांच में12 मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया था और तर्क दिया गया था कि उनमें से कुछ को भारत में आतंक फैलाने के लिए पाकिस्तान की प्रमुख खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विस इंटेलिजेंस के इशारे पर प्रशिक्षित किया गया था. हालांकि, 2011 में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने सभी आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि "जांच बहुत ढिलाइ से हुई है बहुत कुछ धुंधला है और जानने के लिए बहुत कुछ छोड़ दिया गया है. संबंधित जांच अधिकारियों को उनकी अयोग्यता के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए, जिनसे अन्याय हुआ, मामले से जुड़े कई व्यक्तियों का भारी उत्पीड़न और सार्वजनिक संसाधनों और अदालतों के सार्वजनिक समय की भारी बर्बादी हुई. (इस बरी को बाद में सुप्रीम कोर्ट के एक विवादास्पद फैसले से पलट दिया गया था.) इस संदिग्ध ट्रैक रिकॉर्ड के बावजूद, वाईसी मोदी को देश की प्रमुख जांच एजेंसी के प्रमुख के रूप में चुना गया. वाईसी मोदी ने अपने अधीन एनआईए के आचरण के बारे में ईमेल किए गए सवालों का जवाब नहीं दिया.
इसी साल 23 जून को दिनकर गुप्ता को एनआईए का महानिदेशक नियुक्त किया गया. इस से पहले गृह मंत्रालय में सेवा देने के अलावा, गुप्ता पंजाब के खुफिया पुलिस महानिदेशक भी थे, एक ऐसा पद जिसके माध्यम से उन्होंने राज्य की एटीएस, खुफिया शाखा और संगठित अपराध नियंत्रण इकाई को नियंत्रित किया. उनका कार्यकाल पंजाब के कुख्यात नशीली दवाओं के व्यापार में शामिल होने के आरोपों से प्रभावित रहा. दिसंबर2017 में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने नशीले पदार्थों के व्यापार में पंजाब पुलिस में वरिष्ठ अधिकारियों की भूमिका की जांच करने के लिए मानव संसाधन के डीजीपी सिद्धार्थ चट्टोपाध्याय की अध्यक्षता में एक एसआईटी के गठन का आदेश दिया. मार्च 2018 तक, एसआईटी ने कथित तौर पर गुप्ता को फंसाए रखा और गुप्ता की संपत्तियों पर आयकर विभाग से रिकॉर्ड मांगे.
15 मार्च 2018 को, चट्टोपाध्याय ने पंजाब के महाधिवक्ता के साथ जांच का आदेश देने वाले, न्यायाधीश से शिकायत की, कि "वरिष्ठ अधिकारियों के इशारे पर" एसआईटी उनकी जांच कर रही थी. फरवरी 2019 में, जांच के दायरे में होने के बावजूद, गुप्ता को पंजाब पुलिस का प्रमुख नियुक्त किया गया, उनसे वरिष्ठ पांच अधिकारियों को पीछे छोड़ कर. चट्टोपाध्याय और एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने गुप्ता की नियुक्ति को अदालत में चुनौती दी, लेकिन जल्द ही इसे केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश ने गुप्ता को राज्य के पुलिस प्रमुख के रूप में अपना प्रभार जारी रखने की अनुमति दी. एसआईटी के निष्कर्षों के आधार पर उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
हालांकि, एनआईए से जुड़ा कोई भी अधिकारी, यूपीए काल में पूर्व गृह सचिव रहे आरके सिंह की तरह संदिग्ध भूमिका में नहीं है. जो अपनी सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद बीजेपी में शामिल हो गए और अब मोदी सरकार में बिजली मंत्री हैं. सिंह 2011 और 2013 के बीच भारत के गृह सचिव थे. इस अवधि के दौरान, वह मंत्रालय में सबसे वरिष्ठ नौकरशाह थे, जिसे एनआईए रिपोर्ट करती थी. शासन के प्रति सिंह के बेतुके रवैये ने उन्हें अपने पूरे करियर में सरकारों का प्रिय बना दिया. वे आश्चर्यजनक गति से ऊपर उठे, पार्टी के वरिष्ठ राजनेताओं के करीबी विश्वासपात्र बन गए और उन मामलों को संभाला जो उनके दायरे से बाहर थे.
पूर्वी चंपारण के जिला मजिस्ट्रेट के रूप में सेवा करने के बाद, सिंह को 1989 में समस्तीपुर स्थानांतरित कर दिया गया था, इस वक्त बिहार अपने सबसे राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दौर में प्रवेश कर रहा था. 23 नवंबर 1990 को, लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी कुख्यात रथ यात्रा शुरू की, जिसमें एक बड़ी भीड़ थी, जो अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने का इरादा रखती थी, सोलहवीं शताब्दी की ये मस्जिद, इस पर हिंदुवादियों का दावा था कि ये भगवान राम के जन्मस्थान पर बनी है. अक्टूबर में, नौ राज्यों से अछूते गुज़रने के बाद, आडवाणी ने बिहार में प्रवेश किया.
प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आडवाणी को गिरफ्तार करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को अधिकृत किया. 22 अक्टूबर, जिस दिन रथ यात्रा पटना से समस्तीपुर के लिए रवाना हुई, यादव ने अपने सबसे भरोसेमंद अधिकारियों को एक गिरफ्तारी के लिए तैयार किया, जबकि उनका प्रशासन इसका बहुत विरोध कर रहा था. आरके सिंह और रामेश्वर उरांव राज्य के पुलिस उप महानिरीक्षक को गुप्त रूप से हेलीकॉप्टर से समस्तीपुर ले जाया गया, जहां उन्होंने आडवाणी को हिरासत में ले लिया. समूह तब वर्तमान झारखंड के एक गांव मसनजोर में एक अज्ञात गेस्टहाउस में गया. आडवाणी को बाद में रिहा कर दिया गया. दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया था.
गिरफ्तारी के दौरान सिंह के प्रदर्शन ने यादव का विश्वास जीत लिया, जिन्होंने उन्हें पटना के जिला मजिस्ट्रेट का प्रतिष्ठित पद दिया और बाद में उन्हें राज्य के गृह विभाग में शामिल किया. सिंह 1999 में केंद्रीय गृह मंत्री बने आडवाणी सहित कई राजनेताओं के महत्वपूर्ण सहयोगी बन गए. आडवाणी ने सिंह को गृह विभाग में संयुक्त सचिव नियुक्त किया. सिंह ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल के दौरान और साथ ही मनमोहन सिंह सरकार के तहत महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया. रक्षा मंत्री एके एंटनी ने उन्हें 2009 में रक्षा उत्पादन विभाग का प्रमुख नियुक्त किया और दो साल बाद, सिंह ने चुनावी राजनीति में प्रवेश करने से पहले चिदंबरम के गृह सचिव के रूप में अपना अंतिम प्रशासनिक पद संभाला.
एनआईए की जांच के बारे में सिंह के विचार बीजेपी में शामिल होने के बाद से पूरी तरह से उलट-पुलट हो गए हैं. यह दावा करने के बावजूद कि 2013 में, सरकार ने एनआईए द्वारा जांच की जा रही आतंकवादी हमलों से आरएसएस के दस सहयोगियों को जोड़ा था, सिंह ने अपने चुनाव के तुरंत बाद अपनी स्थिति को उलट दिया, यह तर्क देते हुए कि "भगवा आतंक शब्द गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा गढ़ा गया था. मैंने कभी उस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया." सिंह ने बिजनेस स्टैंडर्ड को यह भी बताया कि "आतंकवाद का कोई धर्म और राष्ट्रीय जैसे संगठन नहीं होते हैं." स्वयंसेवक संघ देश के हितों से प्रेरित था. ” ठाकुर, जिन पर गृह सचिव के रूप में सिंह के कार्यकाल के दौरान आतंकवाद के लिए मुकदमा चलाया गया था, अब संसद के ट्रेजरी बेंच में उनके सहयोगी हैं. सिंह ने कारवां द्वारा भेजी गई विस्तृत प्रश्नावली का कोई जवाब नहीं दिया.
{चार}
2014 के अंत तक, एनआईए ने पहले जो दावा किया था, उससे मौलिक रूप से भिन्न निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहा था. सलियन का करियर भी नाटकीय रूप से आरके सिंह और शरद कुमार से अलग दिशा में आगे बढ़ रहा था. उसी साल अप्रैल में, मोदी के सत्ता में आने से एक महीने पहले, सुहास वारके 2006 के मालेगांव मामले के जांच अधिकारी ने सलियन को बताया था कि "एनआईए के निष्कर्षों से पता चलता है कि इन अपराधों के पीछे एक हिंदू चरमपंथी समूह था." सबूतों का अध्ययन करने के बाद, उसने एनआईए को इस बारे में दृढ़ रहने की सलाह दी कि विस्फोट के पीछे आरोपियों का कौन सा समूह था. उसने 2016 में इंडियन एक्सप्रेस को बताया, "क्योंकि मैं चाहती थी कि चार्जशीट में यह स्पष्ट हो, इसलिए मैंने 15 दिनों के विस्तार के लिए कहा था. लेकिन उसी दोपहर, एक अन्य अभियोजक ने एनआईए की ओर से चार्जशीट दायर की. मुझे इसके बारे में बहुत बाद में पता चला."
सलियन ने बाद में एनडीटीवी से दावा किया कि मोदी के चुने जाने के तुरंत बाद, वारके ने उन्हें मामले पर "नरम" होने का आदेश दिया. जल्द ही, सलियन को दो मालेगांव मामलों को संभालने से बेदखल कर दिया गया. उन्होंने कहा कि 2013 के अंत तक कई अधिकारियों ने मामले की पूरी लगन से जांच की थी, लेकिन "जून 2014 में जब मुझे मामले को सौंपने के लिए कहा गया तो उन्हें भी हटा दिया गया." सलियन ने दावा किया कि उनमें से कुछ अधिकारियों को या तो उनके मूल कैडर में वापस भेज दिया गया था या उन्हें एनआईए से दरकिनार कर दिया गया था. ईमेल की गई प्रश्नावली का न तो वारके और न ही सलियन ने जवाब दिया.
सलियन के आरोप बाद में एक याचिका का केंद्र बन गए, जो अभी भी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है, जिसमें एनआईए के सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने के कथित प्रयासों की जांच की मांग की गई है. 12 जून 2014 को, उन्होंने मामले में एक हलफनामे में कहा, वारके ने उससे कहा, "उच्च-अधिकारियों से निर्देश हैं, कि आपके बजाय कोई और पेश होगा.” एनआईए ने उसके आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि उसे उसके प्रदर्शन की समीक्षा के आधार पर हटाया गया था. कुमार ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, "समीक्षा के दौरान, हमें मुंबई कार्यालय से जानकारी मिली थी कि उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं था."
2006 के मालेगांव मामले से सलियन के जाने के बाद उनका काम चरमरा गया. अप्रैल 2016 तक, नए एनआईए अभियोजक, प्रकाश शेट्टी ने अदालत को बताया कि "तीन स्वतंत्र मशीनरी" ने मामले की जांच की थी. उन्होंने बताया एटीएस और सीबीआई ने एक समूह का नाम लिया था, लेकिन "एनआईए द्वारा की जा रही जांच परस्पर विरोधी थी. अदालत इस बात की जांच करेगी कि क्या सबूत एकत्र किए गए हैं, उनके खिलाफ अप्रैल 2016 तक क्या-क्या सबूत हैं" उन्होंने मुस्लिम आरोपियों की रिहाई का विरोध किया. ऐसा लगता है कि एनआईए जिसने एटीएस और सीबीआई के निष्कर्षों को खारिज कर दिया था, उसने अपने ही आरोप पत्र पर संदेह करना शुरू कर दिया है.
शेट्टी ने तर्क दिया कि एनआईए की जांच "आगे की रिपोर्ट" के रूप में दर्ज की गई थी, न कि "ताजा रिपोर्ट" के रूप में और इसलिए, एटीएस और सीबीआई के काम को जारी माना जाना चाहिए. सीबीआई जिसने पहले 2014 में अदालत में ये दलील प्रस्तुत करते हुए जांच से खुद को दूर कर लिया था कि, "चूंकि एनआईए ने उस जांच को अंजाम दिया है और आगे की जांच के दौरान उनके द्वारा एकत्र की गई सामग्री के आधार पर आरोप पत्र दायर किया है, यह उचित होगा. अगर एनआईए को मामले में अपने विचार दर्ज करने का निर्देश दिया जाए. सीबीआई, जिसने महसूस किया था कि सुनवाई में उसका कोई योगदान नहीं है, को अचानक एनआईए द्वारा फिर से लाया गया जिसने एक बार अपनी जांच को खुद ही खारिज कर दिया था.
2008 के मालेगांव और मोडासा मामले में, एनआईए के अभियोजक के रूप में सलियन के उत्तराधिकारी अविनाश रसल को अदालत में इसी तरह के व्यवहार का सामना करना पड़ा. तुषार मेहता की उपस्थिति और मरियारपुथम के अदालत कक्ष से बाहर निकलने के तुरंत बाद, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एजेंसी के पास अब तक ठाकुर सहित 11 आरोपियों को मकोका के तहत आरोपित करने के लिए कोई सबूत नहीं है. आदेश के बाद राज्य के वकील अनिल सिंह की सलाह पर एनआईए ने अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से, कानून की प्रयोज्यता पर सलाह ली. सलियन ने स्क्रॉल के साथ एक साक्षात्कार में कहा, "वे अटॉर्नी जनरल से कैसे पूछ सकते हैं? वह मामले से कैसे संबद्धित हैं? मामला विचाराधीन है और मामला आरोप तय करने का है. अदालत को अब आरोपों का फैसला करना चाहिए. यह सब राजनीति है. मैंने अब मामले से खुद को अलग कर लिया है. वे सभी को धोखा दे रहे हैं."
एजेंसी में अन्य लोगों के विपरीत, रसल अभी भी मकोका लागू करने के लिए दृढ़ था. उन्होंने मुंबई मिरर को बताया, "मैं एनआईए की ओर से बहस कर रहा हूं, जिसके दौरान मैंने अदालत को दिखाया कि मकोका लागू है.” उनका तर्क इस तथ्य पर निर्भर करता था कि सितंबर2015 और 22 जनवरी 2016 के बीच मामले में दो दर्जन जमानत आवेदनों को अदालत ने खारिज कर दिया था, यह दर्शाता है कि मकोका के तहत प्रथम दृष्टया मामला चल रहा था. रसल ने इकोनॉमिक टाइम्स को बताया, "अदालत में अपनी उपस्थिति में, मैंने दृढ़ता से कहा कि गिरफ्तार किए गए लोगों ने सरकार के खिलाफ विद्रोह की साजिश रची थी. वे एक हिंदू राष्ट्र चाहते थे और वे इस सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिश कर रहे थे, इसलिए मकोका का प्रावधान लागू है."
रसल ने मई 2016 की शुरुआत में अदालत को सूचित किया कि आरोप पत्र महीने के अंत तक दायर किया जाएगा. एक हफ्ते बाद, उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि एनआईए ने उन्हें बिना बताए चार्जशीट जमा कर दी थी. उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को बताया “मैंने अपनी कनिष्ठ वकील गीता गोडाम्बे को अदालत में आरोप पत्र जमा करते देखा. मैं इस बात से अचंभित था कि अधिकारियों ने मुझे इस नयी गतिविधि से अवगत कराना महत्वपूर्ण नहीं समझा. इसलिए मैंने छोड़ दिया और विशेष वकील को बहस जारी रखने की अनुमति दी." रसल ने बताया कि बाद में, जांच अधिकारियों ने उन्हें फोन किया और माफी मांगी. “मैंने उनकी माफी स्वीकार कर ली है. उन्होंने मुझे उन परिस्थितियों के बारे में बताया जिनमें उन्हें जल्दबाजी में चार्जशीट दाखिल करनी पड़ी और वे मुझे सूचित नहीं कर पाये.” रसाल ने कहा कि वे “हो राहे इन बदलावों” से "दुखी” और "परेशान" थे. एनआईए ने आरोपों पर सरकारी वकील के साथ असामान्य जल्दबाजी या एजेंसी की असहमति के लिए कोई सार्वजनिक स्पष्टीकरण नहीं दिया. दो महीने बाद रसाल ने मीडिया को बताया कि बिना बताए अचानक से उनकी सुरक्षा हटा ली गई.उन्होंने मेरे द्वारा ईमेल पर भेजी गई प्रश्नावली का जवाब नहीं दिया.
गोडांबे द्वारा दायर आरोप पत्र में कहा गया था कि ठाकुर, कालसांगरा और चार अन्य के खिलाफ "पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, इसलिए मकोका के तहत उनके खिलाफ मुकदमा चलाने योग्य नहीं था. इसने यूएपीए और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम के तहत कुछ आरोपों की अनुमति दी, लेकिन यह भी कमजोर था क्योंकि एटीएस और एनआईए द्वारा एकत्र किए गए सबूत अचानक अपर्याप्त हो गए थे.
आरोप पत्र एनआईए द्वारा अदालत में महत्वपूर्ण सबूत पेश करने में विफल रहने के बाद आया, जब गवाह मुकर गए और करकरे की एटीएस टीम द्वारा एकत्र किए गए सबूतों को कमजोर कर दिया गया. 2016 में मामले की सुनवाई करने वाले विशेष एनआईए अदालत के न्यायाधीश एसडी टेकाले ने बताया था कि एजेंसी द्वारा दायर शुरुआती सबूतों ने एक स्पष्ट साजिश की ओर इशारा किया था. टेकाले के फैसले में कहा गया है कि अभिनव भारत नेटवर्क के सदस्य सुधाकर द्विवेदी ने भोपाल, फरीदाबाद, जबलपुर, इंदौर, उज्जैन और नासिक में हुई कुछ मुलाकातों को रिकॉर्ड किया था.अभियोजन पक्ष मुख्य रूप से द्विवेदी के पास से जब्त लैपटॉप से फरीदाबाद और भोपाल में हुई बैठकों पर निर्भर था.
न्यायाधीश ने कहा कि बैठकों की रिकॉर्डिंग, टेप और साथ ही गवाहों के बयानों से पता चलता है कि पुरोहित ने रमेश उपाध्याय, (एक सेवानिवृत्त सेना प्रमुख) सहित कई अन्य आरोपियों के साथ इन बैठकों में भाग लिया था. इनका अध्ययन करने के बाद, न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि बैठक में भाग लेने वाले ‘आर्यवर्त " नामक एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कोई जगह नहीं होगी. इसे प्राप्त करने के लिए उन्होंने निर्वासन में सरकार स्थापित करने और अपनी विचारधारा के अनुकूल एक नया संविधान तैयार करने का निर्णय लिया था. न्यायाधीश ने पुरोहित और उपाध्याय के बीच की गई टेलीफोन बातचीत की भी जांच की. एक बातचीत में, ठाकुर की गिरफ्तारी के समाचार पर चर्चा करने के बाद, पुरोहित ने उपाध्याय से कहा कि "बिल्ली बैग से बाहर है." उन्होंने विस्फोट के दौरान इस्तेमाल किए गए वाहनों को अस्वीकार करने की संभावित रक्षा रणनीति और भविष्य में उपयोग के लिए किसी और के नाम पर सिम कार्ड खरीदने की योजना पर भी चर्चा की. एक अन्य बातचीत में पुरोहित ने उपाध्याय से कहा कि "सिंह ने काफी गाया है." न्यायाधीश ने अभियोजन पक्ष के तर्क से सहमति व्यक्त की कि अभियुक्तों के, बाद के इस आचरण ने संकेत दिया है कि बम विस्फोट हिंदू राष्ट्र की स्थापना की दिशा में ही एक कदम था.
सलियन ने कहा कि एटीएस ने अपने चार हजार पन्नों के आरोप पत्र में जो कुछ भी लिखा है, उसे एनआईए ने ना कोई तवजों दी और ना ही उसे अदालत में पेश किया.
जबकि एटीएस ने इस बात पर जोर दिया था कि अभिनव भारत एक संगठित अपराध सिंडिकेट है, एनआईए ने इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया और आरोपी को मकोका के आरोपों से बरी कर दिया. अंसारी ने मुझे बताया, "एनआईए ने मकोका के तहत आरोप लगाने के लिए दबाव नहीं डाला था," और इसलिए अदालत ने भी उन पर आरोप नहीं लगाया.
सितंबर 2015 से अप्रैल 2016 के बीच एनआईए ने एटीएस के गवाहों से दोबारा पूछताछ की. जब एनआईए ने उनसे पूछताछ की तो कई प्रमुख गवाहों ने अपने बयान वापस ले और एटीएस पर झूठे बयान देने का आरोप भी लगाया. न्यायाधीश ने कहा कि गवाहों में से एक डॉक्टर था जिसने भोपाल की बैठक में भाग लिया था और पहले दावा किया था कि इंटेलिजेंस ब्यूरो के आग्रह पर ऐसा कर रहा था. डॉक्टर आरएसएस से जुड़े थे और विश्व हिंदू संघ के सदस्य थे, जिसकी भारतीय शाखा का नेतृत्व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ करते हैं. अक्टूबर2015 में एनआईए द्वारा डॉक्टर से पूछताछ करने पर वह मुकर गया. बैठक में एक अन्य गवाह ने ठाकुर को इस बारे में शिकायत करते सुना था कि "कैसे कम हताहत हुए, हालांकि उनके वाहन का इस्तेमाल विस्फोट के लिए किया गया था." एनआईए की पूछताछ के बाद इस गवाह ने अपना बयान वापस ले लिया और एटीएस पर उन्हें परेशान करने और बदसलूकी करने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई. हालांकि, न्यायाधीश ने बयान को बरकरार रखने का फैसला किया.
मध्य प्रदेश के दो पुलिस अधिकारी, जिन्होंने कलसांगरा और उनके भाई से बमों के इलेक्ट्रिक टाइमर सर्किट खरीदे थे और बाद में एटीएस के गवाह बन गए थे, ने एनआईए द्वारा पूछताछ के बाद ही अपने बयान वापस ले लिए. एक अन्य गवाह, जो सेना में पुरोहित का कमांडिंग ऑफिसर था, वह भी मुकर गया. धमाके के पीड़ितों के एक वकील ने 23 जून 2022 को एनआईए को लिखे गए एक पत्र में कहा कि कमांडिंग ऑफिसर ने "जानबूझकर आरोपी को बचाने के लिए अपने बयान की व्याख्या तोड़-मरोड़ कर की.” कमांडिंग ऑफिसर के से, यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि उन्हें विस्फोट के बारे में और अभिनव भारत द्वारा आयोजित सभी बैठकों की जानकारी थी जहां विस्फोट की तैयारी हुई थी. पत्र में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के तहत कमांडिंग ऑफिसर की जांच का आह्वान किया गया है, जो अभियोजन पक्ष को मुकदमे के दौरान दोषी प्रतीत होने वालों के खिलाफ आगे बढ़ने की अनुमति देता है. एनआईए ने अभी तक इस याचिका का जवाब नहीं दिया है.
अपने मामले को और कमजोर करते हुए, एनआईए ने अदालत में प्रस्तुत किया कि मामले के एक प्रमुख आरोपी से बरामद आरडीएक्स के निशान एटीएस द्वारा गढ़े गए थे. सेना के दो अधिकारी जो वसूली के गवाह थे, ने अपने बयान वापस ले लिए और करकरे की टीम पर घर में अवैध रूप से प्रवेश करने का आरोप लगाया. न्यायाधीश ने यह कहते हुए किसी भी गवाह ने यह बात किसी वरिष्ठ अधिकारी या पुलिस के संज्ञान में नहीं लाई, फैसला सुनाया कि एटीएस के आरडीएक्स लगाने वाले तर्क को स्वीकार करना मुश्किल है.
2017 की शुरुआत में, बॉम्बे हाईकोर्ट के सामने ठाकुर की जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान, एनआईए और एटीएस ने एक बार फिर महत्वपूर्ण सबूत पेश नहीं किए. एनआईए ने फरीदाबाद में हुई बैठकों में से केवल एक की प्रतिलिपि प्रस्तुत की, जिसमें ठाकुर ने भाग नहीं लिया था. रंजीत मोरे और शालिनी फंसालकर की बेंच से -जोशी ने जांच एजेंसियों से भोपाल बैठक में की गई रिकॉर्डिंग की एक प्रति प्रस्तुत करने के लिए कहा, जिसमें ठाकुर ने कथित तौर पर भाग लिया गया था. “आपने अपनी चार्जशीट में लिखा है कि आपको एफएसएल से टेप मिले हैं और आपने उनका अध्ययन किया है तो आपके पास क्यों नहीं है? हम ट्रांसक्रिप्ट, वीडियो, ऑडियो रिकॉर्डिंग, फोन रिकॉर्ड्स को देखना चाहते हैं, जो आपने चार्जशीट में उद्धृत किए हैं.” पीठ ने कहा कि फरीदाबाद की बैठक भोपाल की बैठक से पहले हुई थी. “आरोपी का जिक्र सबसे पहले भोपाल की बैठक में किया गया था, इसलिए यदि आपके पास पहली बैठक के टेप हैं, तो बाद की बैठकों के टेप होने चाहिए. आपने उनके साथ क्या किया? ये महत्वपूर्ण बैठकें थीं और प्रतिलेख महत्वपूर्ण सबूत हैं, तो वे कैसे गायब हैं?” एनआईए ने अदालत को बताया कि एटीएस ने उसे कभी भी रिकॉर्डिंग नहीं सौंपी.
सलियन ने व्यक्तिगत रूप से एटीएस, सीबीआई और एनआईए के साक्ष्यों का अध्ययन किया था. उसने दावा किया कि एक वीडियो में आरोपी को मनमोहन सिंह सरकार को गिराने और इजरायल में निर्वासित सरकार बनाने की साजिश करते हुए दिखाया गया है. उसने आरोप लगाया कि 2011 और 2014 के बीच मामले की जांच करने वाली एनआईए टीम के निष्कर्ष चार्जशीट में नहीं आए हैं. सलियन ने द वायर को बताया, "जब तक टीम ने अपने निष्कर्षों को अंतिम रूप दिया और 2014 में पूरक चार्जशीट दायर करने के लिए तैयार है, तब तक उन्हें रोक दिया गया था और जल्द ही मामले से हटा दिया गया था." उन्होंने कहा कि एटीएस ने अपनी चार हजार पन्नों की चार्जशीट में जो कुछ भी लिखा है, उसे एनआईए के संस्करण में माना नहीं गया और अदालत में पेश नहीं किया गया. कुमार ने उपरोक्त आलोचना को खारिज कर दिया. “कोई कैसे कह सकता है कि हमने एटीएस जांच को खारिज कर दिया? हमारी जांच, वास्तव में, एटीएस द्वारा की गई जांच का समर्थन करती है,” कुमार ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया. "हम अपनी जांच को जोर-जबरदस्ती से लिए गए बयानों और संदिग्ध तरीकों का उपयोग करके की गई बरामदगी पर आधारित नहीं कर सकते."
अदालत में एनआईए पर दबाव और सलियन के सार्वजनिक आरोप के बाद से कि “उसे मामले में नरमी बरतने के लिए कहा गया था," विस्फोट के पीड़ित, जिसने अभियोजन के ऊपर विश्वास खो दिया था, एक मध्यस्थ के रूप में मामले में शामिल हुए. विस्फोट में अपने बेटे सैय्यद अजहर को खोने वाले 71 वर्षीय निसार अहमद मामले की निष्पक्ष जांच और सुनवाई के लिए एक दशक से अधिक समय से अदालतों का दरवाजा खटखटा रहे थे. अहमद के वकील शाहिद अंसारी ने बताया कि "जब एनआईए ने अपनी पूरक चार्जशीट दायर की और कहा कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर सहित कुछ आरोपी साजिश का हिस्सा नहीं थे, तब हमने उनकी जमानत और बरी करने के आवेदनों का विरोध करने के लिए हस्तक्षेप आवेदन दायर किए. उन्होंने कहा, “जब सरकार बदली तो एनआईए का रुख भी बदल गया. 2016 में, जब एनआईए ने आरोप पत्र दायर किया, तो उसने कहा कि आरोपी ठाकुर साजिश का हिस्सा नहीं थी; और इस तरह पूरे मामले को कमजोर कर दिया.”
जैसे-जैसे मुकदमा आगे बढ़ा, मामले के और गवाह मुकरने लगे. दिसंबर 2021 में, मामले में आठवें गवाह के ऐसा करने के बाद, अहमद ने मुंबई एनआईए अधीक्षक के लिए एक पत्र लिखा, जिसमें “अव्यस्थित तरीके” की ओर इशारा किया गया था जिसमें गवाहों को अदालत में बुलाया जा रहा था. उन्होंने लिखा, “गवाहों को उनके बयानों का अध्ययन किए बिना और किसी विशेष अनुक्रम का पालन किए बिना अभियोजन पक्ष द्वारा बुलाया जाता है इसके अलावा, गवाहों के उपस्थित होने में असमर्थ होने पर "यह देखा जा सकता है कि इस तरह की चूक नियमित हो गई है." विशेष मामलों में कुछ आवास बनाए जा सकते हैं, उनके पत्र में कहा गया था कि अदालत को चाहिए कि "अभियोजन पक्ष को बुलाने से पहले गवाह और उनके दस्तावेजों की प्रासंगिकता का अध्ययन करने के लिए भी कहे.”
अहमद के पत्र में कहा गया है कि समझौता मामले में 51, मक्का मस्जिद मामले में 64 और अजमेर शरीफ मामले में18 गवाह मुकर गए थे. पत्र में एनआईए से "बयानों, जांच, और किसी भी अन्य प्रश्न को स्पष्ट करने में एटीएस कार्यालयों की सहायता लेने का अनुरोध किया गया है जो एनआईए के पास हो सकते हैं जो अभियोजन पक्ष के गवाहों को मुकरने या एक प्रभावी परीक्षण के प्रयोजनों के लिए प्रेरित कर रहे हैं." इस साल फरवरी में, एनआईए ने 2008 के मालेगांव मामले में अठारहवें गवाह को भी शत्रुतापूर्ण घोषित कर दिया.
एनआईए के आरोप पत्र के अनुसार, मध्य प्रदेश में एक होटल के मालिक ने स्वीकार किया था कि पुरोहित के अनुरोध पर, उसने "आर्ट ऑफ लिविंग" कार्यक्रम की आड़ में अक्टूबर 2008 में अपने होटल में साठ लोगों के लिए एक प्रशिक्षण शिविर की व्यवस्था की थी. आरोप पत्र में कहा गया है कि गवाह ने "यह महसूस किया कि शिविर 'आर्ट ऑफ लिविंग' से संबंधित नहीं था, बल्कि कुछ और था, लेकिन पुरोहित से सवाल नहीं किया क्योंकि वह शिविरों में वर्दी पहन के शामिल होता था." एनआईए को दिए गए एक गवाह के बयान के अनुसार, पुरोहित ने उसे प्रशिक्षण के लिए एयर राइफल खरीदने के लिए भी कहा था, जो करने में वह विफल रहा. हालांकि, जब गवाह को अदालत के सामने पेश किया गया, तो वह पुरोहित की पहचान करने में विफल रहा और कहा कि उन्हें यह कुछ भी याद नहीं है. मार्च तक 20 गवाह मुकर गए थे. एनआईए ने समझौता, मक्का मस्जिद और अजमेर दरगाह बम विस्फोटों में बरी होने वालों के खिलाफ अपील नहीं करने का भी फैसला किया.
एनआईए के पूर्व विशेष निदेशक वासन ने, इसके लिए पूरी तरह से एजेंसी दोषी ठहराया. उन्होंने बताया कि "गवाहों का मुकर जाना बहुत आम है. कोई भी अच्छा अन्वेषक जानता है कि गवाहों के मुकर जाने की पूरी संभावना है. मैं इन जांचों का हिस्सा नहीं था, लेकिन एक पुलिस अधिकारी के रूप में, मैं कह सकता हूं कि इन मामलों की बुरी तरह से जांच की गई थी. हमारे जांच मानक बहुत खराब हैं. राजनीतिक हस्तक्षेप और सब कुछ हमेशा रहेगा, चाहे मैं अपना काम ठीक से, ईमानदारी से और निष्पक्ष रूप से करूं. अगर मैं अपना काम ठीक से नहीं करूं, तो यह समझना बहुत आसान है कि हस्तक्षेप हो रहा है.”
गुजरात के मुख्यमंत्री के अपने दिनों से ही मोदी को सख्त आतंकवाद विरोधी कानूनों का शौक रहा है. मोदी के नेतृत्व में गुजरात में पोटा के तहत देश में सबसे ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया गया. 2002 के दंगों के बाद मुसलमानों को लक्षित करने के लिए इस अधिनियम का व्यापक रूप से उपयोग किया गया था. 2006 की एक एमनेस्टी इंटरनेशनल रिपोर्ट में कहा गया है कि 87 के आधिकारिक आंकड़े हैं लेकिन 280 को कानून के तहत हिरासत में लिया गया है. इनमें से सभी मुस्लिम थे. 2009 में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में बोलते हुए मोदी ने कहा कि मनमोहन सिंह सरकार में "आतंकवाद से लड़ने के संकल्प की कमी है." यह एक कमी है जिसे उन्होंने अपने 2014 के घोषणापत्र में संबोधित करने का वादा किया था, जिसमें आतंकवाद पर "शून्य सहिष्णुता" नीति का वादा किया गया था. मोदी ने "मजबूत" आतंकवाद विरोधी कानून लाने का संकेत दिया. इस कहानी के प्रमुख प्रस्तावक अजीत डोभाल रहे जिन्हें मोदी ने अपनी चुनावी जीत के तुरंत बाद भारत का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया.
मोदी के समय में भारत में एनआईए द्वारा दायर मामलों की संख्या में कई गुना वृद्धि देखी गई. सरकार द्वारा एनआईए अधिनियम में संशोधन करके शक्तियों का विस्तार करने के बाद, एजेंसी ने 2019 में 62 मामले दर्ज किए. संशोधन ने एनआईए को राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर किए गए मामलों की जांच करने का अधिकार दिया और मानव-तस्करी, नकली मुद्रा के प्रचलन, निषिद्ध हथियारों के निर्माण और बिक्री और साइबर आतंकवाद जैसे अपराधों की जांच के लिए इसके दायरे का विस्तार किया. सरकार ने यूएपीए में भी संशोधन किया, इस प्रावधान को जोड़ते हुए कि संगठनों के बजाय व्यक्तियों को आतंकवादी घोषित किया जा सकता है. इसके बाद, कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और राजनीतिक विरोधियों पर आतंकी मामलों के तहत मामला दर्ज किया गया है.
लोकसभा में दो संशोधनों का विरोध करते हुए कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने तर्क दिया कि, "यदि आप एनआईए संशोधन विधेयक को यूएपीए संशोधन विधेयक के साथ, जैव प्रौद्योगिकी विधेयक के साथ, आधार संशोधन विधेयक के संयोजन के साथ पढ़ते हैं, तो आप इस देश को पुलिस राज्य बनते देख सकते हैं”. तिवारी ने आगे कहा कि यूएपीए आतंकवाद को परिभाषित नहीं करता है. उन्होंने कहा, "आज तक कोई निर्धारित प्रक्रिया नहीं है कि किस समय हिंसा का कोई कार्य वास्तव में आतंकवादी कार्य बन जाता है. आप एक आतंकवादी कृत्य के रूप में हिंसा के कार्य को कैसे नामित करते हैं?"
एनआईए ने खुद इस शब्द की एक उदार परिभाषा दी है. कश्मीर उन मामलों का मुख्य आधार बन गया है जिन्हें वह संभालता है. 2017 में, एजेंसी के लिए एक नए मुख्यालय का उद्घाटन करते हुए, उस समय के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने दावा किया कि एनआईए की "धन के प्रवाह पर रोक" ने आतंकवादी समूहों को झटका दिया था. उन्होंने कहा, "आपने जम्मू-कश्मीर में एनआईए की भूमिका देखी है, जहां पथराव की घटनाएं कम हुई हैं," उन्होंने सड़कों पर नागरिकों के विरोध को आतंकवाद से जोड़ने के प्रयास में कहा. एनआईए को ऐसे मामले भी दिए गए हैं जिनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन जो संघ परिवार द्वारा प्रचारित साजिश के सिद्धांतों को वैध बनाने में मदद करते हें.जब, 2016 में, केरल में एक24 वर्षीय महिला ने एक मुस्लिम पुरुष से शादी की और अपनी मर्जी से इस्लाम धर्म अपना लिया, तो राज्य की बीजेपी इकाई ने दावा करना शुरू कर दिया कि यह क्षेत्र में हिंदू महिलाओं को परिवर्तित करने की एक बड़ी साजिश का हिस्सा था. एनआईए को जल्द ही मामला सौंपा गया. एक छोटी जांच के बाद, उसने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि केरल में प्रभावी ढंग से काम हो रहा है जो समाज में कट्टरता की भावना को बड़ा रहा है यहां समान प्रकृति के 89 मामले सामने आए हैं. एनआईए को आखिरकार कोई सबूत नहीं मिलने पर केस छोड़ना पड़ा.
एनआईए को दी गई विशाल शक्तियों के बावजूद, इसने अपनी योग्यता साबित करने के लिए बहुत कम किया है.21 अप्रैल2022 को, एजेंसी के तेरहवें स्थापना दिवस पर, गृह मंत्री, अमित शाह ने कहा कि एनआईए की "देश की सभी जांच एजेंसियों में 93.25 प्रतिशत की उच्चतम सजा दर है." हालांकि एनआईए उच्च सजा दर होने का दावा करती है, लेकिन 2009 के बाद से उठाए गए446 मामलों में से केवल 22 में पूर्ण या आंशिक निर्णय सुनाया गया है.2019 के संशोधन ने सरकार को सत्र अदालतों को विशेष एनआईए अदालतों के रूप में नामित करने की अनुमति दी हैं.इससे एक ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें सत्र अदालतों पर एनआईए के मामलों को भी संभालने का काम ओर बड़ गया है, जिसके परिणामस्वरूप सुनवाई में अब और अधिक देरी होती है. एनआईए द्वारा संभाले जाने वाले मामलों की संख्या में बड़ी वृद्धि से यह केवल खराब हुआ है. इस अत्यधिक देरी के परिणामस्वरूप, अभियुक्त अक्सर कई वर्षों तक जेल में बिताने के बाद, मुकदमे की प्रतीक्षा में अपना अपराध स्वीकार कर लेते हैं. एनआईए के मामलों को देखने वाले कई वकीलों ने मुझे बताया कि, पांच से सात साल जेल में बिताने के बाद, अभियुक्त के लिए मुकदमे के लिए कई और साल इंतजार करने के बजाय, एक याचिका सौदे को स्वीकार करना आसान है.
पिछले साल बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष दायर एक याचिका में, मुकदमे में और देरी को रोकने के लिए अदालत के हस्तक्षेप की मांग करते हुए, एनआईए द्वारा 2014 में गिरफ्तार किए गए एक विचाराधीन कैदी मंजर इमाम ने तर्क दिया कि "देरी एनआईए का आदर्श और उद्देश्य प्रतीत होता है”.‘ इमाम को 2012 में एनआईए द्वारा दर्ज इंडियन मुजाहिदीन के खिलाफ एक मामले में गिरफ्तार किया गया था और मुकदमे की प्रतीक्षा में आठ साल बीत गए हैं. एजेंसी ने अभी तक उनके मामले में आरोप तय नहीं किए हैं. इमाम ने तर्क दिया कि "विशेष अदालतों में साक्ष्य पर दोषसिद्धि दुर्लभ है. इसके बजाय, जेल में बंद आरोपी व्यक्ति अपराध स्वीकार कर लेते थे." उन्होंने कहा कि, यूएपीए के तहत जमानत की शर्तें सख्त हैं, एनआईए मुकदमे में देरी का इस्तेमाल "आरोपी को दोषी ठहराने के लिए मजबूर करने के लिए कर रही थी, और यह प्रक्रिया सजा और संदेश जैसी लगती थी." उन्होंने यह भी तर्क दिया कि एनआईए आरोपी व्यक्तियों को "कानून के शासन के दायरे से बाहर" रखने के एकमात्र उद्देश्य के साथ "दुर्भावनापूर्ण तरीके से काम कर रही थी."
एनआईए के एक अन्य मामले में शामिल एक वकील ने मुझे बताया, "मेरे मुवक्किल के अलावा, सभी 16 अन्य आरोपियों ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है." "ऐसा इसलिए नहीं था क्योंकि वे वास्तव में मानते थे कि वे दोषी थे, बल्कि एनआईए के दबाव की रणनीति के कारण. हमने इसे अब कई मामलों में देखा है, जहां जिन लोगों के खिलाफ बहुत कम ठोस सबूत हैं, वे अचानक दोष मान लेते हैं और उन्हें दोषी ठहराया जाता है." अबू बकर सब्बाक, इमाम के वकील ने मुझे बताया कि एनआईए के अस्तित्व के तेरह वर्षों में, केवल बीस मामलों में दोष सिद्ध हुआ है. 2009 से एनआईए द्वारा संभाले गए तीन सौ सत्तर से अधिक मामलों में से, 265 इसकी दिल्ली शाखा में दर्ज किए गए हैं. सब्बाक ने कहा, "दिल्ली में विशेष अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए एनआईए के कई मामलों में आरोपियों ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है. "ये मुकदमे सबूतों के आधार पर समाप्त नहीं हुए हैं." इमाम की याचिका के बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय ने मुकदमे में तेजी लाने के प्रयास में सभी गैर-यूएपीए मामलों को एनआईए विशेष अदालत से बाहर स्थानांतरित कर दिया.
एनआईए इस लेख में उल्लिखित सभी मामलों के साथ-साथ एजेंसी के सांख्यिकीय रूप से खराब प्रदर्शन से संबंधित विस्तृत प्रश्नावली का जवाब देने में विफल रही.
{पांच}
"मेरा नाम भक्तेंद्र मोदी है”. मेरा भाषण सरल है. मेरा जीवन सादा है. और कोट भी लाखों में एक होता है. अरे, यहां कौन है? विपक्ष पर ध्यान मत दो मेरी बोली सीधी है, मेरा जीवन सादा है, लेकिन अगर कोई मेरे पीछे आता है तो उसका खात्मा निश्चित है." ये कुछ पंक्तियां थीं जिन्हें एनआईए ने देश के खिलाफ युद्ध की घोषणा के स्पष्ट प्रमाण के रूप में अदालतों में प्रस्तुत किया था. व्यंग्य गीत के गायक सागरी गोरखे और रमेश गायचोर, कबीर कला मंच के सदस्य हैं, जो एक मराठी जाति-विरोधी नुक्कड़ नाटक और संगीत समूह है, जो लंबे समय से भारत में पुलिस के निशाने पर है. 31 दिसंबर 2017 को पुणे के शनिवारवाड़ा क्षेत्र, में केकेएम ने गीत गाया था- और शाकाहार, मोदी के मासिक रेडियो कार्यक्रम और गौरक्षक समूहों के बारे में कई अन्य गीत, जिन्हें पुणे पुलिस और एनआईए ने "आपत्तिजनक" पाया.
गोरखे और गायचोर ने जिस कार्यक्रम में गाया था उसे भीमा कोरेगांव शौर्य दिन प्रेरणा अभियान कहा जाता था., उस लड़ाई की दो सौवीं वर्षगांठ की याद में, जिसमें दलित सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी ने ब्राह्मण पेशवाओं के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी मराठा सेना को हराया था- एक ऐतिहासिक घटना जिसे जाति-विरोधी संघर्ष में एक महत्वपूर्ण जीत के रूप में याद किया जाता हैं. कार्यक्रम का आयोजन एल्गार परिषद द्वारा किया गया था, जो ढाई सौ से अधिक दलित और अन्य समूहों का गठबंधन है. इसमें सांस्कृतिक गतिविधियां शामिल थीं, जैसे गीत, नुक्कड़ नाटक और भाषण, "समावेशी विकास और चतुर्वर्ण के खिलाफ आवाज उठाने" का आह्वान करना था इस कार्यक्रम के संयोजकों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पीबी सावंत और बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व जज बीजी कोलसे पाटिल भी शामिल थे. सावंत और दो अन्य सेवानिवृत्त न्यायाधीश पहले 2002 के दंगों की एक स्वतंत्र जांच का हिस्सा थे, और उनकी रिपोर्ट में मोदी की कारवाई की कड़ी आलोचना की गई थी.
कार्यक्रम के अगले दिन, आंबेडकरवादी संगठनों ने भीमा कोरेगांव युद्ध स्थल पर वार्षिक यात्रा का आयोजन किया था. जहां मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े के नेतृत्व में एक उच्च जाति की हिंदू भीड़ ने उन पर हमला किया, जो दो दक्षिणपंथी संगठनों, क्रमशः समस्त हिंदू अघाड़ी और शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के नेता थे. इसके बाद हुई हाथापाई में कई लोग घायल हो गए. एल्गर परिषद और अगले दिन की हिंसा के संबंध में, पुणे पुलिस ने दो मामले दर्ज किए, जिसके कारण भारत के18 सबसे प्रभावशाली वकीलों, शिक्षाविदों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और आंबेडकरवादी प्रतीकों को गिरफ्तार किया गया. उन पर एक प्रतिबंधित माओवादी संगठन के सदस्य होने, राज्य को उखाड़ फेंकने की साजिश और प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बनाने के आरोप लगाए हैं.
पहले शिकायतकर्ता पुणे के एक व्यवसायी तुषार दामगुड़े ने आरोप लगाया कि केकेएम के भाषण और प्रदर्शन उत्तेजक थे और सांप्रदायिक विद्वेष पैदा करते थे. दामगुड़े ने दावा किया कि इस घटना ने हिंसा को उकसाया था, "जिसके परिणामस्वरूप जीवन और संपत्ति का नुकसान हुआ और सामाजिक वैमनस्य पैदा हुआ." इस बीच, हिंसा के एक दिन बाद, जाति-विरोधी कार्यकर्ता अनीता सावले द्वारा एक और शिकायत दर्ज की गई, जिन्होंने पहली बार हिंसा देखी थी.उसने शिकायत में एकबोटे और भिड़े पर हमले का मास्टरमाइंड होने का आरोप लगाया गया था. दामगुड़े की शिकायत पर विश्रामबाग थाने में प्राथमिकी दर्ज की गयी थी. इसने शुरू में गोरखे और गायचोर के साथ-साथ केकेएम के कार्यकर्ता सुधीर धावले, दीपक डेंगले, हर्षाली पोददार और ज्योति जगताप का नाम लिया. दूसरी शिकायत के जवाब में पिंपरी पुलिस स्टेशन द्वारा,एक प्राथमिकी दर्ज की गई, जिसमें केवल एकबोटे का उल्लेख किया गया था, और जिसे केवल एक महीन जेल में बिताना पड़ा था. यह भी तब जब उस समय के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और बीजेपी के एक सदस्य ने खुद कहा था कि हिंसा भगवा झंडे वाले (एकबोटे और भिड़े की भीड़) समूह द्वारा शुरू की गई थी.
जांच जल्द ही स्वारगेट डिवीजन के सहायक पुलिस आयुक्त को स्थानांतरित कर दी गई. 16 अप्रैल को, मानवाधिकार कार्यकर्ता रोना विल्सन, साहित्य के प्रोफेसर शोमा सेन और दलित अधिकार कार्यकर्ता सुरेंद्र गाडलिंग के आवास, जिनमें से किसी का भी शिकायत या प्राथमिकी में नाम नहीं था, पर छापा मारा गया. इस छापेमारी में पुलिस ने विल्सन और गाडलिंग के लैपटॉप जब्त कर लिए, उन तीनों को, और वन अधिकार कार्यकर्ता महेश राउत को दो महीने बाद गिरफ्तार कर लिया. गाडलिंग, सेन और राउत एक दिन बाद नागपुर में मिलने वाले थे ताकि उस साल की शुरुआत में गढ़चिरौली जिले में महाराष्ट्र पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल द्वारा 40 लोगों की कथित हत्या की जांच की मांग के लिए कानूनी रणनीति पर चर्चा को अंतिम रूप दिया जा सके.
गिरफ्तार किए गए तीनों कार्यकर्ता इस घटना के एक तथ्य-खोज मिशन का हिस्सा थे. राउत, गोरखे और गायचोर के कानूनी वकील निहालसिंह राठौड़ ने कहा, "महेश, जो अपनी बहन के घर रह रहा था, के पास प्रासंगिक सबूत और दस्तावेज थे, जो वह अपने साथ लाया था.“यह फर्जी मुठभेड़ आईजी (नक्सल) शिवाजी बोडखे की देखरेख और कमान में हुई थी, जो अब पुणे स्थानांतरित हो गए थे, जहां उन्होंने कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामले में जांच की निगरानी संभाली थी. पुलिस का कहना था कि माओवादी आंदोलन के साथ काम करने वाले कार्यकर्ताओं द्वारा एल्गार परिषद का आयोजन किया गया था. पुणे पुलिस ने यह भी आरोप लगाया कि उसे इलेक्ट्रॉनिक सबूत मिले जिससे पता चलता है कि गिरफ्तार किए गए लोग मोदी की हत्या की साजिश में शामिल थे.
पुणे पुलिस द्वारा दायर एक दूसरे आरोप पत्र में तेलुगु कवि वरवरा राव, पत्रकार और कार्यकर्ता गौतम नवलखा, ट्रेड यूनियनिस्ट वर्नोन गोंजाल्विस और मानवाधिकार वकील अरुण फरेरा और सुधा भारद्वाज का नाम लिया गया है, इनमें से सभी को अक्टूबर-नवंबर 2018 से नजरबंद कर दिया गया था. पुलिस ने आगे इसमें जेसुइट पुजारी स्टेन स्वामी और अंबेडकरवादी प्रोफेसर आनंद तेलतुंबडे के नाम जोड़े. पुणे पुलिस ने पूछे गए सवालों का जवाब नहीं दिया.
नागरिक-समाज संगठनों और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना मोदी सरकार द्वारा अपनाई गई नवीनतम रणनीति प्रतीत होती है. हैदराबाद में पुलिस अधिकारियों की पासिंग आउट परेड में बोलते हुए, अजित डोभाल ने कहा कि "युद्ध के नए मोर्चे- जिसे हम चौथी पीढ़ी का युद्ध कहते हैं, नागरिक समाज है." डोभाल ने कहा कि यह नई सरहद अनिश्चित परिणामों की विशेषता थी. “यह नागरिक समाज है जिसे विकृत किया जा सकता है… जिसे विभाजित किया जा सकता है, जिसमें किसी राष्ट्र के हित को चोट पहुंचाने के लिए हेरफेर किया जा सकता है. आप वहां यह देखने के लिए हैं कि वे पूरी तरह से सुरक्षित हैं." भीमा कोरेगांव मामले में एनआईए की जांच "अर्बन नक्सल" शब्द को स्थापित करती है जिसका इस्तेमाल बीजेपी और आरएसएस के नेताओं ने अक्सर असंतुष्ट कार्यकर्ताओं और आलोचनात्मक पत्रकारों को निशाना बनाने के लिए किया है.
प्रारंभिक घटना के तीन महीने बाद अप्रैल 2018 की शुरुआत में, एनआईए ने भीमा कोरेगांव मामले की जांच के लिए केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव भेजा. जब गृह मंत्रालय ने इसे महाराष्ट्र सरकार को भेजा, तो पुणे के संयुक्त आयुक्त ने कथित अपराधों की प्रकृति, प्रत्येक आरोपी की भूमिका और एकत्र किए गए सबूतों पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की. इस रिकॉर्ड को देखने के बाद गृह मंत्रालय ने राज्य पुलिस को जांच जारी रखने की अनुमति देने का फैसला किया. पुणे पुलिस ने15 नवंबर2018 को चार्जशीट और 21 फरवरी 2019 को सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल की.
इसके नौ महीने बाद 28 नवंबर 2019 को शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार ने राज्य में सत्ता की शपथ ली. एक हफ्ते बाद, राज्य के नए गृह मंत्री अनिल देशमुख ने भीमा कोरेगांव मामले पर एक विस्तृत रिपोर्ट मांगी. एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि सरकार मामले में पुणे पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई को देखने के लिए एक एसआईटी का गठन करेगी. 23 जनवरी 2020 को देशमुख और उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने दो घंटे तक चली वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक कर इस मामले की समीक्षा की. देशमुख ने मीडिया को बताया कि एक सप्ताह के भीतर पुलिस अधिकारियों के साथ होने वाली दूसरी बैठक के बाद पुलिस जांच को देखने के लिए एसआईटी गठित करने पर निर्णय लिया जाएगा. अगले दिन, मोदी सरकार ने मामले को एनआईए को स्थानांतरित कर दिया.
गृह मंत्रालय ने "अपराध की गंभीरता, प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) की संलिप्तता और इसमें होने वाली अखिल भारतीय साजिश का पता लगाने के लिए" इस मामले को एनआईए को संभालने के लिए कहा. मंत्रालय द्वारा जारी एक बयान में तर्क दिया गया कि "सीपीआई (माओवादी) "माओवाद/नक्सलवाद की विचारधारा को फैलाने और गैरकानूनी गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए भाकपा (माओवादी) के वरिष्ठ नेता एल्गार परिषद के आयोजकों के संपर्क में थे..."मामला तब असामान्य रूप से गंभीर हो गया और न केवल पुणे जिले में बल्कि भारत के कई क्षेत्रों में फैल गया. गाडलिंग और धवले द्वारा तबादले को चुनौती देने वाली एक याचिका में तर्क दिया गया था कि, एनआईए अधिनियम के अनुसार, मामले को स्थानांतरित करने का निर्णय राज्य सरकार से मामले की रिपोर्ट प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर लिया जाना चाहिए था, जिसे जुलाई 2018 में प्रस्तुत किया गया था.
देशमुख ने कहा कि मामले को राज्य को बताए बिना स्थानांतरित करने का निर्णय तब आया जब उनकी सरकार ने "मामले की जड़" तक पहुंचने का फैसला किया. मीडिया को दिए एक बयान में, उन्होंने कहा कि मोदी सरकार "कुछ लोगों को बचाना चाहती है, और इस तरह, जांच एनआईए को स्थानांतरित कर दी गई. राज्य की सहमति लिए बिना मामले को एनआईए को सौंप दिया गया था.... यह ऐसे समय में आया है जब हम हिंसा के असली कारण का पता लगाने की कोशिश कर रहे थे. हम यह सुनिश्चित कर रहे थे कि किसी भी निर्दोष को दोषी न ठहराया जाए, लेकिन केंद्र ने एकतरफा मामले को स्थानांतरित कर दिया, जो संविधान के खिलाफ है.”
तब तक, फडणवीस और मोदी सरकार ने पुणे पुलिस की जांच में पूर्ण विश्वास व्यक्त किया था, जो तुषार मेहता ने अगस्त 2018 में तर्क दिया था, “दंड प्रक्रिया संहिता” के प्रावधानों के अनुसार “जिम्मेदारी से, निष्पक्ष और सख्ती से संचालित किया जा रहा था. ऐसा लग रहा था कि बदलते राजनीतिक माहौल में जरूरी हो गया था कि एनआईए कदम उठाए.”
भीमा कोरेगांव मामले में एनआईए की जांच ठोस सबूतों की लगभग पूर्ण कमी को दिखाती है जो अदालत में बचाव योग्य है, और भारतीय संविधान की एक कमजोर समझ और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरों के बारे में दूरगामी सिद्धांतों को उजागर करने का दृढ़ संकल्प है. इससे भी बदतर, यह भारत के पत्रकारों और प्रतिष्ठित वैश्विक प्रकाशनों द्वारा पेश किए गए सबूतों के बढ़ते संग्रह के लिए स्तब्ध है, कि कैसे विल्सन के कंप्यूटर में लगाए गए मैलवेयर पुणे पुलिस से जुड़े थे, उसी एजेंसी से जिसने उन्हें गिरफ्तार किया था. यह समझने के लिए मामले को खोलने की जरूरत है कि एनआईए अपने गठनात्मक शासनादेश के कार्य को पूरा करने में कैसे विफल रही.
7 सितंबर 2020 को गोरखे और गायचोर की गिरफ्तारी से एक दिन पहले, केकेएम कार्यकर्ताओं ने एक वीडियो रिकॉर्ड किया, जो इसके तुरंत बाद जारी किया गया था. वीडियो में, उन्होंने कहा कि एनआईए ने उन्हें एक महीने पहले पूछताछ के लिए बुलाया था. उन्होंने आरोप लगाया कि एनआईए उन पर माओवादी समूहों के साथ संबंध स्वीकार करने के लिए दबाव बना रही है. गोरखे ने कहा, "कल हमें फिर से बुलाया गया और कहा गया कि अगर हम मानते हैं कि हमारे माओवादियों से संबंध हैं, तो वे हमें छोड़ देंगे. अगर हम माफी पत्र लिखते हैं, तो वे हमसे प्रतिबंध हटा लेंगे."
वीडियो में कलाकार डटे रहे. उन्होंने कहा कि वे "बाबासाहेब अम्बेडकर के बच्चे हैं” और उन्होंने कोई गलत काम नहीं किया और इसलिए, एनआईए द्वारा उन पर थोपी गई कोई भी माफी लिखने से इनकार कर दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि एनआईए की मंशा किसी तरह यह दिखाने की थी कि एल्गार परिषद माओवादी आंदोलन से जुड़ी हुई है. “वे हमारे साथ कुछ संबंध दिखाना चाहते हैं और एल्गार परिषद की घटना को माओवादी घटना घोषित करना चाहते हैं. हम ऐसा नहीं होने देंगे. यह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और जनता द्वारा किया गया एक कार्यक्रम था.” उनकी गिरफ्तारी के बाद, वे मुंबई की तलोजा जेल में मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
नौ महीने की जांच के बाद, जो प्रतीत होता है कि पुणे पुलिस के पास पहले से मौजूद सबूतों से ज्यादा कुछ नहीं है, एनआईए ने अक्टूबर 2020 में अपनी पहली चार्जशीट दायर की. एनआईए की चार्जशीट का मूल आधार यह है कि, यूएपीए के तहत, “भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के सभी संगठनों” पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. एनआईए की चार्जशीट में यह तर्क देने की कोशिश की गई कि आरोपी जिन संगठनों से जुड़े थे- केकेएम, मानवाधिकार संगठन जैसे इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लॉयर्स, पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स और पीपुल यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, साथ ही साथ विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन जैसे गैर सरकारी संगठन -सभी माओवादी पार्टी के “सामाजिक संगठन” हैं.
ऐसा लगता है कि एनआईए ने माओवादी साहित्य का व्यापक अध्ययन किया है. चार्जशीट में सीपीआई (माओवादी) ग्रंथों के बड़े हिस्से का हवाला दिया गया है जैसे भारतीय क्रांति की रणनीति और कार्यनीति, विशेष सामाजिक वर्गों और राष्ट्रीयताओं, शहरी क्षेत्रों में हमारी रणनीति और हमारे कार्य. एनआईए माओवादियों के संगठन, दृष्टिकोण, कार्यप्रणाली और गतिविधियों के बारे में विस्तार से समझाने में बहुत पेज समर्पित करता है और इसे अभियुक्त की पेशेवर और सार्वजनिक गतिविधियों के साथ प्रक्षेपित करता है, लेकिन इस लिंक को प्रमाणित करने के लिए कोई सबूत नहीं देता.
इसके अलावा, एनआईए का मामला केवल उन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर निर्भर करता है जिन्हें एजेंसी और पुणे पुलिस ने आरोपियों से जब्त किया था. यह मामला मोटे तौर पर विल्सन और गाडलिंग के लैपटॉप पर पाए गए कई पत्रों से संबंधित है, एक मोदी से निपटने के लिए "राजीव गांधी जैसी घटना" का आह्वान करता है और दूसरा भारत में दलित और मुस्लिम समुदाय को एकजुट होकर "फासीवाद-विरोधी मोर्चा" का आह्वान करता है. ऐसा लगता है कि इस सबूत को इकट्ठा करने और इसकी उपयोगिता को मापने में, भारत की प्रमुख जांच एजेंसी ने उन सबसे बुनियादी आवश्यकताओं की भी अनदेखी की है जो भारतीय अदालतों ने स्वीकार्य साक्ष्य के लिए निर्धारित की हैं. इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को अदालत में स्वीकार्य होने के लिए, हैश वैल्यू निकालना और जब्ती के समय आरोपी को प्रदान करना अनिवार्य है. अदालत के लिए यह सुनिश्चित करने का यह सबसे बुनियादी तरीका है कि जांच एजेंसी द्वारा इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई है. आरोपियों को गिरफ्तारी के महीनों बाद भी हैश वैल्यू नहीं दी गई.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत अगली महत्वपूर्ण आवश्यकता यह है कि सिस्टम में किसी भी मैलवेयर को बाहर करने के लिए पूरी तरह से फॉरेंसिक विश्लेषण के बाद ही साक्ष्य पर भरोसा किया जा सकता है. हालांकि, अगस्त 2021 में विल्सन द्वारा दायर एक याचिका के अनुसार, पुणे में फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला, जहां सबूत भेजे गए थे, ने इस पर जांच अधिकारी के प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया. मार्च 2020 में, कारवां ने विल्सन की हार्ड डिस्क की एक प्रति का विश्लेषण करने के बाद एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसे अदालत में पेश किया गया था. इसने मैलवेयर की उपस्थिति की पुष्टि की जो कंप्यूटर और प्लांट फाइलों को दूरस्थ रूप से एक्सेस कर सकता है. कारवां के विश्लेषण में पाया गया कि हार्ड डिस्क पर पीडीएफ प्रारूप में पाए गए अक्षरों की रचना माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के 2010 संस्करण पर की गई थी, जबकि विल्सन के कंप्यूटर में सॉफ्टवेयर का केवल 2007 संस्करण था. जबकि 2010 का संस्करण विल्सन के कंप्यूटर पर कभी था ही नहीं.
एक साल बाद, अमेरिका स्थित डिजिटल-फोरेंसिक परामर्श कंपनी आर्सेनल कंसल्टिंग, जिसने विल्सन के कंप्यूटर का विस्तृत फॉरेंसिक विश्लेषण किया, ने पाया कि विल्सन का कंप्यूटर नेटवायर नामक एक मैलवेयर से संक्रमित था, जिसे 13 जून 2016 को एक ईमेल के माध्यम से दो साल पहले लगाया गया था, उसकी गिरफ्तारी से पहले. वॉशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित रिपोर्टों के अनुसार, फरवरी 2021 में, हैकर ने निगरानी की और एक हिडन फोल्डर बना कर उसमें 32 दस्तावेज डाल दिए. अंतिम दस्तावेज विल्सन के घर की तलाशी से ठीक एक दिन पहले जोड़ा गया था और उसका लैपटॉप 17 अप्रैल 2018 को जब्त कर लिया गया था. आर्सेनल कंसल्टिंग की रिपोर्ट में कहा गया है कि इसका कोई सबूत नहीं कि इन दस्तावेजों ने विल्सन के कंप्यूटर पर "किसी भी वैध तरीके से" जगह बनाई थी. आर्सेनल को गाडलिंग के लैपटॉप पर भी इसी तरह की गढ़ी हुई फाइलें मिलीं. आर्सेनल के अध्यक्ष मार्क स्पेंसर ने एनआईए अदालत को सौंपी गई एक रिपोर्ट में लिखा, "यह सबूतों से छेड़छाड़ से जुड़े सबसे गंभीर मामलों में से एक है, जिसका आर्सेनल ने कभी सामना किया है."
इस साल जून में, सबसे प्रतिष्ठित प्रौद्योगिकी पत्रकारिता प्रकाशनों में से एक वायर्ड ने कहानी को आगे बढ़ाया, और पुणे पुलिस के संदिग्ध आचरण के कुछ निर्णायक सबूत सामने लाए. वायर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, सुरक्षा फर्म सेंटीनेल वन के शोधकर्ताओं ने खुलासा किया कि पुणे पुलिस ने व्यवस्थित रूप से एक हैकिंग अभियान चलाया था, जिसे फर्म "मॉडिफाइड एलीफेंट" कहती है. फरवरी में सेंटीनेल वन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चला है कि हैकर्स ने 2012 की शुरुआत से ही सैकड़ों कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, शिक्षाविदों और वकीलों को फिशिंग ईमेल और मैलवेयर से निशाना बनाया था. सेंटीनेल वन ने पहचान की कि जब राव, विल्सन और बाबू के ईमेल हैक किए गए थे, हैकर ने एक रिकवरी ईमेल एड्रस और फोन नंबर इन लोगों के ईमेलों में जोड़ दिए ताकि भविष्य में उन्हें आसानी से एक्सेस किया जा सके. ईमेल प्रदाता के एक सुरक्षा विश्लेषक से बात करते हुए, सेंटीनेल वन यह पहचानने में सक्षम था कि रिकवरी ईमेल एड्रेस और फोन नंबर पुणे के एक पुलिस अधिकारी के थे जो जांच से निकटता से जुड़ा था. ईमेल प्रदाता के सुरक्षा विश्लेषक ने यूएस टेक-न्यूज आउटलेट वायर्ड को बताया, "हम आम तौर पर उन लोगों को नहीं बताते हैं जिन्होंने उन्हें निशाना बनाया लेकिन मैं गंदगी को देख कर थक गया हूं. ये लोग आतंकवादियों के पीछे नहीं जा रहे हैं. वे मानवाधिकार रक्षकों और पत्रकारों के पीछे जा रहे हैं. और यह सही नहीं है."
दिसंबर 2021 में, आर्सेनल ने यह भी पाया कि पेगासस स्पाइवेयर का उपयोग करके विल्सन के मोबाइल फोन को लक्षित किया गया था. आर्सेनल की एक रिपोर्ट के अनुसार, गिरफ्तारी से कुछ महीने पहले जुलाई 2017 और अप्रैल 2018 के बीच उनके फोन को निशाना बनाया गया था. मामले के कई अभियुक्तों को उनके वकीलों, दोस्तों और परिवार के साथ बाद में पेगासस द्वारा लक्षित किया गया था. न्यूयॉर्क टाइम्स ने जनवरी 2022 में बताया कि मोदी सरकार ने 2017 में 2 बिलियन डॉलर के रक्षा पैकेज के हिस्से के रूप में इजरायली स्पाइवेयर खरीदा था. इससे अभियुक्तों के इस तर्क को बल मिलता है कि सरकार द्वारा उनकी सक्रियता और असहमति व्यक्त करने के लिए उन्हें चुनिंदा रूप से निशाना बनाया गया था.
जब खोजी पत्रकारों और तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा इनमें से कुछ खुलासे किए गए, तो विल्सन ने तत्काल राहत की मांग करते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और अनुरोध किया कि उन्हें और उनके सह-आरोपी को फ्रेम करने के लिए उनके लैपटॉप में आपत्तिजनक सामग्री लगा कर उनकी “फ्रेमिग” और “टारगेटिंग” की जांच के लिए एक एसआईटी का गठन किया जाए. विल्सन ने कहा कि "हिंसा के असली दोषियों पर मुकदमा चलाने" का कोई प्रयास नहीं किया गया.
इस से बेफिक्र, एनआईए ने जिस रास्ते पर चलना शुरू किया था, उस पर आक्रामक तरीके से आगे बढ़ती रही. विल्सन की याचिका पर आपत्ति जताते हुए एनआईए की ओर से पेश अनिल सिंह ने दलील दी कि आर्सेनल की रिपोर्ट चार्जशीट का हिस्सा नहीं है और ये दलीलें ट्रायल के दौरान ही दी जा सकती हैं. सिंह ने कहा, "रिपोर्ट बनाए रखने योग्य नहीं है क्योंकि यह पूरी तरह से सबूतों के रोपण के सिद्धांत के इर्द-गिर्द घूमती है." “हमारे पास कोई मामला है या नहीं, अदालत फैसला करेगी. अभी हमारे पास प्रथम दृष्टया मामला है. हम अभी आरोप तय करने के चरण में हैं."
8 अक्टूबर 2020 को एनआईए ने मामले में एक और गिरफ्तारी की. सोसाइटी ऑफ जेसुइट ऑर्डर में कैथोलिक पादरी स्टेन स्वामी 83 वर्ष की आयु में यूएपीए के तहत आरोपित देश के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति हो गए. वह उस समय पार्किंसंस रोग से पीड़ित थे और उन्होंने चिकित्सा आधार पर कई बार जमानत के लिए आवेदन किया था लेकिन इसके खिलाफ एनआईए ने जोरदार तर्क दिया. जुलाई 2021 में, स्वामी की चिकित्सा स्थितियों के लिए और अधिक "निर्णायक सबूत" की मांग करते हुए, एनआईए ने तर्क दिया कि वह “राज्य के खिलाफ अपराध करने की गहरी साजिश” का हिस्सा हैं और "सार्वजनिक शांति भंग" करते हैं. उनकी तबीयत बिगड़ गई. 5 जुलाई 2021 को स्वामी की मृत्यु हो गई, जो एनआईए के कई विचाराधीन कैदियों में से एक थे जो अपने मामले का निष्पक्ष निर्णय अब कभी नहीं देख पाएंगे.
वर्नोन गोंजाल्विस को एक बार पहले भी महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार किया था. 2007 में उन पर माओवादी होने का आरोप लगाया गया था. जब उन्हें उस मामले में जमानत मिली, तो 16 अन्य मामलों को उन पर थोप दिया गया. पुलिस द्वारा उनके खिलाफ कोई सबूत प्रस्तुत करने में असमर्थ होने के बाद अंततः सभी आरोप हटा दिए गए. अपनी पहली गिरफ्तारी के बाद मुंबई की तलोजा जेल में रहते हुए, गोंजाल्विस को फरोघ इकबाल मगदूमी, के साथ रखा गया था, जो 2006 के मालेगांव मामले में झूठे आरोपी हैं. दोनों में गहरी दोस्ती हो गई, मगदूमी एक यूनानी चिकित्सक हैं, जो गोंजाल्विस को उनकी बीमारियों में मदद करते थे. दोनों के मामले इस बात का अध्ययन हैं कि एनआईए क्या बन गई है. एनआईए द्वारा गढ़े गए एक पर एक सबूतों के आधार पर मामले में आरोप लगाया गया, जबकि दूसरे को एक बहुत ही अलग एनआईए द्वारा बरी किया गया जो भारत की जांच एजेंसियों में सड़ांध के खिलाफ लड़ी थी.
जैसे-जैसे एनआईए का दायरा और प्रभाव बढ़ता है, दक्षिणपंथी आख्यानों को आकार देता है, क्षेत्रीय राजनीति की दिशा को प्रभावित करता है और असंतोष पर कार्रवाई तेज करता है, वैसे ही एजेंसी के चारों ओर खामोशियां छाने लगती हैं. इस ट्रैक रिकॉर्ड के बावजूद एजेंसी के पेशेवर आचरण में पतन का संकेत मिलता है. एजेंसी के बारे में जानना दुर्लभ हो रहा है. इसके बजाय, मीडिया में एजेंसी के अपने नैरेटिव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है. एक वरिष्ठ राष्ट्रीय सुरक्षा रिपोर्टर ने मुझे बताया कि एजेंसी "बहुत अपारदर्शी रही है."
मेरी रिपोर्टिंग के दौरान, यह स्पष्ट था कि वकीलों और अधिकारियों के साथ-साथ एजेंसी से लोगों को भी सेवानिवृत्ति के बाद भी डर रहता है कि एजेंसी की आलोचना के गंभीर परिणाम होंगे. एनआईए के मामलों में कई वकीलों, कार्यकर्ताओं और आरोपियों के रिश्तेदारों के फोन पर पेगासस पाए जाने की रिपोर्ट के बाद निगरानी में होने का यह डर और तेज हो गया है. एनआईए के मामलों को देखने वाले एक वरिष्ठ वकील ने एक साक्षात्कार के लिए मेरे अनुरोध को ठुकराते हुए मुझसे कहा, "एजेंसी के बारे में चुप रहना ही उचित है." वकील ने मुझे "इस विषय को न छूने" की सलाह देते हुए कहा, "अगर हम इस बारे में बात करते हैं, तो हमारा पीछा किया जाता है, और जो पत्रकार हमसे बात करने आते हैं उनका भी पीछा किया जाता है."