सितंबर के दौरान चार इंटरव्यू की एक कड़ी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पूर्व प्रचारक यशवंत शिंदे ने कारवां के एक स्टाफ राइटर सागर से बात की. शिंदे ने बताया कि कैसे उन्हें पाकिस्तान में गुप्त अभियान चलाने और पूरे भारत में बम विस्फोट करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था ताकि उन आतंकी गतिविधियों के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया जा सके. उन्होंने आरोप लगाया कि 2003 और 2004 में, उनके साथी प्रशिक्षुओं ने महाराष्ट्र के जालना, पूर्णा और परभणी शहरों में मस्जिदों पर बमबारी की. अन्य जिन्होंने कथित तौर पर साजिश को आसान बनाने में मदद की, वे एक बमबारी अभियान से जुड़े हुए हैं, जिसमें पांच सालों में एक सौ बीस से ज्यादा लोग मारे गए थे. शिंदे के ज्यादातर दावे मीडिया रिपोर्टों और अदालती रिकॉर्ड में इन मामलों के ब्योरों से मेल खाते हैं. शिंदे के दावों को पूरी तरह से सत्यापित करना तब तक मुमकिन नहीं है जब तक कि उन्हें फोन रिकॉर्ड, प्रशिक्षण-शिविर रजिस्टर, फोरेंसिक रिपोर्ट और अपराध स्थल के वीडियो और तस्वीरों की बतौर सबूत जांच नहीं की जाती है, जो केवल जांच एजेंसियां ही कर सकती हैं. इनमें से कई आरोपों का जिक्र एक हलफनामे में किया गया है जिसे शिंदे ने नांदेड़ की एक जिला अदालत में दर्ज कराया था जिसमें उन्होंने 2006 के नांदेड़ बम विस्फोट मामले में गवाह बनने का अनुरोध किया था. केंद्रीय जांच ब्यूरो या सीबीआई, जिसने मामले की जांच की थी और एक क्लोजर रिपोर्ट दायर की थी, ने उनके हलफनामे का विरोध किया है.
शिंदे आज भी संघ परिवार की हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति समर्पित हैं. हालांकि, संघ के लिए चरमपंथी हिंसा में कई दोस्तों को अपनी जान गंवाते हुए देख कर उनका धीरे-धीरे आरएसएस नेतृत्व से मोहभंग हो गया. उनको यह यकीन हो चला है कि वैचारिक रूप से संचालित चरमपंथी कार्यकर्ताओं के बलिदान को हिंदुत्व की प्रतिष्ठा के बजाए भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक लाभ के लिए बर्बाद कर दिया गया है. उनका मानना है कि चरमपंथी हिंसा से लंबे समय में संघ परिवार को ही नुकसान होगा. अपनी भागीदारी के स्तर को पूरी तरह से समझे बिना, शिंदे ने संघ परिवार के कई वरिष्ठ नेताओं को या तो सीधे या बिचौलियों के जरिए से सतर्क करने का दावा किया है कि उनके संगठन के सदस्य साजिश रच रहे हैं और एक आतंकी अभियान चला रहे हैं.
इन नेताओं में आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार, आरएसएस के पूर्व राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य श्रीकांत जोशी, विश्व हिंदू परिषद के पूर्व केंद्रीय महासचिव वेंकटेश अब्देव, बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव सुनील देवधर, एक पूर्व आरएसएस नेता और हिंदू संहति के संस्थापक तपन घोष, श्री राम सेना के संस्थापक प्रमोद मुतालिक और सरसंघचालक मोहन भागवत शामिल हैं. अगर शिंदे के दावे सही हैं, तो आरएसएस और विहिप का ज्यादातर नेतृत्व या तो बम विस्फोटों के पीछे की साजिशों का हिस्सा था या जानता था कि संघ के सदस्य साजिश का हिस्सा थे और उस सूचना पर कार्रवाई करने में विफल रहे.
चिंता की बात यह है कि शिंदे के दावों के साथ-साथ इन मामलों की पिछली जांच में पेश की गई चार्जशीट में बताया गया है कि साजिश के कितने सदस्यों को भारतीय सेना और खुफिया ब्यूरो के सेवारत या सेवानिवृत्त कर्मियों द्वारा प्रशिक्षित किया गया. सबूत बताते हैं कि 2000 के दशक की शुरुआत से ही संघ परिवार ने भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान के व्यक्तियों की मदद से उपमहाद्वीप में एक संगठित आतंकी अभियान चलाने के लिए लोगों की कई सेलों को विकसित और प्रशिक्षित किया. शिंदे के दावों के संबंध में एक विस्तृत प्रश्नावली कुमार, भागवत और देवधर को भेजी गई थी. विहिप के वर्तमान महासचिव मिलिंदो परांडे, बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर और पूर्व गृह मंत्री और पूर्व बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को भी सवाल भेजे थे. सीबीआई, भारतीय सेना, राष्ट्रीय जांच एजेंसी और त्रिपुरा बैपटिस्ट क्रिश्चियन यूनियन सहित साक्षात्कारों में शिंदे द्वारा नामित संगठनों को भी सवाल भेजे गए थे. इंटरव्यू के प्रकाशित होने तक किसी ने भी कोई जवाब नहीं दिया.
सागर : आप संघ से कब और कैसे जुड़े? मुझे आपके हलफनामे से पता चला कि आप 1994 में जम्मू-कश्मीर में इसमें जुड़े. आप आरएसएस में थे या फिर बजरंग दल के सदस्य थे?
यशवंत शिंदे : 1990 में घर की हालत ऐसी थी कि मैं अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर सका. मैं दसवीं नहीं कर सका. मुझे अपने परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ी. ... मैंने फिल्मों में "साइड एक्टर" के रूप में काम किया. … मुझे 800-1200 रुपए दिन का मिलता था. उस समय यह बहुत बड़ी रकम थी.
वहीं से मैंने यह रास्ता अपनाया. उस समय जम्मू और कश्मीर में हिंदुओं की कई क्रूर हत्याएं हुईं. लाखों विस्थापित हुए. जगमोहनजी की सरकार थी और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. (जगमोहन मल्होत्रा 1984 से 1989 के बीच जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल रहे, यह राज्य में निरंकुश दमन की अवधि रही. बाद में वह बीजेपी में शामिल हो गए.) मैंने वहां जाकर काम करने का वादा किया और मुंबई में विहिप की सदस्यता ली. मैंने देखा कि लोग बात करते हैं और बैठकें होती हैं लेकिन व्यावहारिक रूप से कुछ भी नहीं हो रहा था. फिर मैंने विनायकराव देशपांडेजी से बात की. उस समय वह महाराष्ट्र में संगठक थे. (देशपांडे अब विहिप के संगठन महासचिव हैं.) मैं उन्नीस या बीस साल का था. मैं जम्मू जाना चाहता था. उन्होंने मुझे शांत करने के लिए “हां” कहा. उन्होंने कभी किसी को न नहीं कहा. मैंने उनके साथ दो-तीन साल काम किया फिर महसूस किया कि ये लोग मुझे नहीं भेजेंगे. मैं खुद तैयार हो कर वहां गया.
सागर : जाने के लिए आपने अपना पैसा खर्च किया? आप वहां इंद्रेश कुमार से कैसे जुड़े?
शिंदे : हां. मैं जम्मू गया और कश्मीर से विस्थापित लोगों से मिला. उन्हें लगा कि कोई मुंबई से आया है और आर्थिक मदद करेगा. मैंने कहा कि मैं आर्थिक रूप से नहीं बल्कि शारीरिक रूप से मदद करूंगा. मैंने आतंकवाद से लड़ने के अपने इरादे स्पष्ट किए. उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसी किसी मदद की जरूरत नहीं है. लेकिन उन्होंने कहा संघ को मेरे जैसे युवा की जरूरत थी. फिर उन्होंने मुझे जम्मू में संघ कार्यालय भेजा, जिसे वीर भवन कहा जाता है. ... उन्होंने कहा कि वहां गुरुजी नाम का कोई व्यक्ति है. वह भी महाराष्ट्र से है.
मैं वहां गया और मुरलीजी से मिला. (मुरली विहिप के जम्मू कार्यालय के कार्यवाहक थे. शिंदे को उनका पूरा नाम याद नहीं है.) उन्होंने मुझसे ठीक से पूछताछ की, पूछा कि मैं कौन हूं, क्या मैं सच कह रहा हूं. यह दहशत और विश्वासघात का माहौल था. उसके बाद उन्होंने मुझे इंद्रेशजी से मिलवाया. उसके बाद मेरा काम शुरू हुआ. इंद्रेशजी हिमगिरी प्रांत के प्रांत प्रचारक थे. संघ के लिए हिमगिरी का अर्थ है हिमाचल और जम्मू का संयुक्त क्षेत्र. (संघ की प्रशासनिक दृष्टि में भारत को 41 प्रांतों में विभाजित किया गया है जो क्षेत्रीय रूप से सीमांकित और प्राचीन हिंदू राज्यों के नाम पर हैं.)
सागर : आप कश्मीर कब गए थे?
शिंदे : 9 दिसंबर 1995 को फारूक अब्दुल्ला एक चुनावी रैली के लिए राजौरी के डाकघर आए. (अब्दुल्ला 1996 में पांचवीं बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने.) वह माहौल बनाने आए थे. अपनी रैली के बाद उन्होंने कहा कि अगर किसी को मिलना है तो आकर मिल सकते हैं. मैं भी उनसे बात करने गया था. पच्चीस या तीस लोग उनसे मिलने आए थे. उन्होंने उनसे पूछा कि जम्मू-कश्मीर भारत से कैसे अलग होगा. उन्होंने जवाब दिया कि उन्हें कुछ ही समय में सब कुछ मिल जाएगा.
उनमें से एक ने कहा, “हम अपने बाप-दादाओं के जमाने से यही बात सुनते आ रहे हैं. आप भी यही कह रहे हैं. आप पर कैसे यकीन करें?" उन्होंने जवाब दिया, "अगर ऐसा नहीं होता, तो तुम भी अपने हथियार उठा सकते हो और वही करना शुरू कर सकते हो जो कश्मीर घाटी में हिंदुओं के साथ हुआ था." इतना कह कर वह फौरन उठ खड़े हुए. जैसे ही वह उठे, मैंने उन्हें पकड़ लिया और खींच कर एक थप्पड़ मारा. (अब्दुल्ला ने इस घटना पर शिंदे के दावों के बारे में सवालों का जवाब नहीं दिया.)
मेरे खिलाफ मामला दर्ज किया गया था. ... मैं पीएसए (पब्लिक सेफ्टी एक्ट) के तहत चार महीने जेल में रहा. बारह-तेरह दिनों में मुझे जमानत मिल गई, लेकिन उन्होंने मुझे जाने नहीं दिया. ... संघ के लोगों ने मुझे जमानत दिलवाई. मैं संघ का ही काम कर रहा था . ... साढ़े तीन साल तक केस चला. 1998 में मैं इससे आजाद हुआ.
इस घटना के बाद ही मेरे परिवार को पता चला कि मैं कहां हूं. घटना के अगले दिन हर तरफ यही खबर थी. फिर सीबीआई की टीम मुंबई आई और मेरे माता-पिता से मिली, तब उन्हें पता चला कि मैं कहां हूं.
सागर : क्या इंद्रेशजी ने आपको सीधा विस्तारक (जूनियर वर्कर) बनाया? संघ में आपका कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं था, है न?
शिंदे : शारीरिक रूप से, मैं पहले से ही मजबूत था. उन्होंने मेरे समर्पण, मेरी वैचारिक सोच और मेरी मानसिकता को भी देखा और मुझे स्वीकार किया. ... विस्तारक होने के नाते जो भी काम हो रहा है, उसे बनाए रखना आपका काम होता है. जब कोई प्रचारक बन जाता है, तो उसे होने वाली गतिविधियों के क्षेत्र को बढ़ाना पड़ता है. मैं दो साल में बन गया.
प्रचारक बनने पर, कई चीजों का प्रबंधन करना होता है : बीजेपी, विहिप, बजरंगी दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, राष्ट्रीय सुरक्षा समिति, दुर्गा वाहिनी और संघ परिवार के अन्य अंग. ... प्रचारक का जीवन उतना ही सरल होता है जितना कि एक संत का. सभी खर्चे साल में एक बार भगवा झंडे के सामने जमा किए गए दान के रूप में पूरे किए जाते हैं. इससे रोजाना का खर्चा निकलता है. अगर कोई हमें बुलाता तो हमें संघ के स्वयंसेवकों के घरों में नाश्ता और दोपहर का भोजन मिलता है.
सागर : आपने कहा था कि आप इंद्रेश कुमार के साथ लद्दाख गए थे. क्या आप मुझे उस समय के बारे में बता सकते हैं?
शिंदे : 1998 में मैं सिंधु दर्शन ( सिंधु नदी के तट पर लद्दाख में आयोजित एक हिंदू त्योहार ) के लिए गया था. यह मेरी बचपन की ख्वाहिश थी. ... श्रीकांत जोशी थे. (जोशी महाराष्ट्र के आरएसएस के वरिष्ठ नेता थे, जो आगे चलकर आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बने रहे. वे आरएसएस के तीसरे सरसंघचालक देवरस मधुकरी के सचिव भी थे. 2013 में उनका निधन हो गया.) यह सितंबर की शुरुआत की बात होगी. जम्मू से रास्ते में मैं एक बार श्रीनगर के रामबन में रुका था. श्रीनगर में बीजेपी विधायक श्रीकांतजी और इंद्रेशजी समेत कई लोग थे. वहां से रास्ता फारूक अब्दुल्ला के विधानसभा क्षेत्र गांदरबल से होकर जाता है. …
हम और आगे बढ़े और यह वही समय था जब पाकिस्तान के घुसपैठियों ने सीमा के कुछ हिस्से पर कब्जा कर लिया था. सेना के लोग इंद्रेशजी को जानते थे. उन्होंने कहा, “तुरंत मत जाओ, खतरा है. दुश्मन ने पहाड़ों पर कब्जा कर लिया है और हाईवे को निशाना बना रहे हैं.” उन्होंने कहा कि हमें रात को सेना के वाहन से निकल जाना चाहिए.
अगले दिन लद्दाख पहुंचना था. सेना ने कहा, "अगर तुम्हें जाना है, तो खुद ही जाओ." लेकिन सेना का अधिकारी अभी भी हमें अपनी कार में लगभग डेढ़ घंटे नीचे छोड़ने के लिए आया था. हम एक दिन कारगिल में रहे. हमने वहां कई सिख स्थलों का दौरा किया. जाते ही सिंधु को देखा. ...फिर हम हिमाचल होते हुए मनाली आ गए. (भारत ने आधिकारिक तौर पर मई 1999 में कारगिल कब्जे के जवाब में एक सैन्य अभियान शुरू किया. शिंदे का दावा है कि सेना को सितंबर 1998 में ही कब्जे के बारे में पता था.)
सागर : उसके बाद भी आप इंद्रेश कुमार के अधीन काम कर रहे थे?
शिंदे : मैंने देखा कि घुसपैठिए भारत में आ गए हैं. मैंने मन बना लिया और उसके बाद मुंबई आ गया. जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ, मुंबई में बजरंग दल की जिम्मेदारी मुझ पर थी. ओडिशा में ग्राहम स्टेन्स और उनके दो लड़कों की भी हत्या कर दी गई थी. (स्टेन्स, एक ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी थे, बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में एक भीड़ ने उन्हें अपने बेटों सहित जलाकर मार डाला था.) …मुंबई में मेरे पुराने परिचित मुझसे मिलने आए. मैंने उनसे कहा, “अब मैं संघ का काम नहीं करूंगा. अब मैं हनुमानजी की गदा लूंगा. अभी, यही आवश्यक है.”
विहिप का ऑफिस फिरोजा मेंशन में है. मैं वहां छह महीने रहा. ... मुझे वहां भी वही असहज अनुभव हुए जैसे जम्मू में हुए थे. इसलिए, मैंने एक तरफ कदम बढ़ाया और गर्जना के लिए काम करना शुरू कर दिया. गर्जना एक ऐसी टीम थी जो आमतौर पर बाल ठाकरे के गुंडों के खिलाफ बीजेपी नेताओं की सुरक्षा के लिए एबीवीपी सदस्यों से बनी थी. ठाकरे की भारतीय विद्यार्थी सेना महाराष्ट्र के कॉलेजों में गुंडागर्दी करती थी. लेकिन गर्जना के लोग जल्द ही तितर-बितर हो गए. नाम से ही चला रहे थे. कुछ दिनों तक मैंने इसे पुनर्जीवित करने की कोशिश की, लेकिन कई आर्थिक बाधाएं थीं. मैंने गर्जना के पुराने कार्यकर्ताओं को शामिल करके इसे पुनर्जीवित करने की कोशिश की, लेकिन हमारी आर्थिक स्थिति खराब थी. हम इसे आगे नहीं बढ़ा सके और तभी इंद्रेशजी ने फोन किया. उन्होंने कहा, "हमारे पास एक कार्य है. कुछ युवकों को लाओ और यहां आ जाओ.”
सागर : मिलिंद परांडे से कब मिले थे?
शिंदे : जब मैं जम्मू-कश्मीर में प्रचारक था, तो मैं मुंबई की एक छोटी यात्रा के लिए आया था. मुंबई में विहिप और बजरंग दल के साथ काम करने वाले लोगों ने एक सत्संग का आयोजन किया था. मिलिंद परांडे से मेरा पहला परिचय वहीं हुआ. … बाद में, 1999 में, मैंने एक बैठक में भाग लिया. मुंबई के बगल में ठाणे नाम का एक कस्बा है, जहां हर साल महाराष्ट्र के कार्यकर्ता मिलते थे. ... यह एक संगठनात्मक बैठक थी जिसमें गोवा, कोंकण (क्षेत्र) और महाराष्ट्र से विहिप और बजरंग दल के सभी कार्यकर्ता और प्रतिनिधि शामिल हुए. उनके लिए पूर्णकालिक काम करने वाले सभी लोगों ने बैठक में भाग लिया. दो-तीन दिनों तक ऐसा ही चलता रहा. … हिमांशु पांसे भी वहां आ गए थे. (पांसे नांदेड़ विस्फोट मामले में मुख्य आरोपी है. शिंदे का दावा है कि वह पांसे का करीबी दोस्त थे.) हमारे विचार वही थे, हमारा व्यवहार वही था, ऐसे ही हमारी दोस्ती हुई. मिलिंद परांडे महाराष्ट्र के लिए विहिप के आयोजक थे, इसलिए वह भी बैठक में मौजूद थे. पांसे को मैंने बैठक में इस बारे में बताया कि इंद्रेशजी मुझसे जम्मू आने के लिए कह रहे हैं. उसके बाद, मैंने कोई दस-बारह लोगों से बात की और उन्हें वहां ले गया.
सागर : आपने हलफनामे में लिखा है कि आप 1999 में जम्मू लौटे थे. आप जम्मू कैसे गए? वहां क्या हुआ?
शिंदे : हम कुल मिला कर दस या बारह लोग थे और हम स्वराज एक्सप्रेस से जम्मू तवी गए. हम पहले एक धर्मशाला में रुके- मुझे नाम याद नहीं है, लेकिन यह वीर भवन कार्यालय के पास था. मैं वीर भवन में रहा, बाकी लोग धर्मशाला में रुके क्योंकि उनके लिए हमारे साथ रहना सुरक्षित नहीं था. हम वहां कुछ महीनों के प्रशिक्षण के लिए थे. सेना के जवानों द्वारा कुछ दिनों के प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान की गई. ...जम्मू के पास तालाब टिलो क्षेत्र के आगे कई छावनियां हैं. वहीं प्रशिक्षण हुआ. … जिसने हमें प्रशिक्षित किया, उसे पहचानने का सवाल ही नहीं है, यह इतना लंबा समय हो गया है. सेना में रैंक-धारक और दूसरे जवान थे जिन्होंने हमें प्रशिक्षण दिया.
सागर : क्या यह हथियारों का प्रशिक्षण था? वे कौन से हथियार थे?
शिंदे : हां, यह उस समय का अत्याधुनिक हथियार था. मुझे ज्यादा याद नहीं है, लेकिन हम उस समय के प्रमुख हथियारों में प्रशिक्षित थे.
सागर : क्या इंद्रेशजी सेना में थे? वहां उनके इतने संपर्क कैसे थे?
शिंदे : यह सब नॉर्मल है. वह जम्मू और कश्मीर में (आरएसएस) के प्रांतीय प्रचारक थे, इसलिए सेना में उनका कनेक्शन होना स्वाभाविक है. ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे स्थानीय लोग सेना की मदद करते हैं.
सागर : आपके दिमाग में क्या चल रहा था? हिंदुओं की रक्षा के लिए आप जो चाहते थे उसे करने का यह पहला अवसर होता. क्या ऐसा हो रहा था?
शिंदे : इंद्रेशजी के मन में लक्ष्य था कि पाकिस्तान जाकर गतिविधियों को अंजाम देना. हम पकड़े भी जा सकते थे… जैसे पाकिस्तान का यहां नेटवर्क है, हमारा भी वहां नेटवर्क होना चाहिए. इस दौरान, हमें मुसलमान बनकर गुप्त रूप से रहना था … वीर भवन में, इंद्रेशजी ने अपनी इच्छा व्यक्त की. उन्होंने कहा, 'इस ग्रुप को लो और पाकिस्तान चले जाओ. वहां काम करो, तुम्हारे लिए सारी व्यवस्था की जाएगी." ... मैंने कहा, "नहीं, ये आतंकवादी, जो हमलों में, हत्याओं में शामिल थे, उनसे जुड़े लोगों की पूरी कड़ी, रैकेट, हमें उन्हें निशाना बनाना चाहिए." यह मेरा स्टैंड था, लेकिन इंद्रेशजी ने ऐसा नहीं होने दिया. वह नहीं चाहते थे कि ऐसा हो. अगर हमने ऐसा किया होता तो हम जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, यासीन मलिक, शब्बीर, अब्दुल गनी लोन जैसे लोगों को निशाना बनाते. (मलिक जेकेएलएफ के अध्यक्ष हैं. शाह जम्मू-कश्मीर डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी के संस्थापक और अध्यक्ष हैं. ये दोनों फिलहाल दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं. लोन जम्मू और कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के संस्थापक और अध्यक्ष थे. 2002 में उनकी हत्या कर दी गई थी.) जो लोग आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हैं, उन्हें निशाना बनाया जाना चाहिए. आम लोगों को मार कर हमें क्या हासिल होगा? यह गलत है.
खैर, मैंने इसका विरोध किया था. मैं देशद्रोह का काम नहीं कर सकता था. फिर उन्होंने मुझे संघ के लिए लद्दाख में काम करने का मौका दिया (शायद 1999 से 2001 के बीच). मैंने मना किया. फिर उन्होंने मुझे तराई क्षेत्र में जाने के लिए कहा, जो नेपाल को छूता है. उन्होंने कहा कि यह नक्सली क्षेत्र है. वह भी मैंने मना कर दिया. मैं उस जगह पर कभी नहीं गया. मैंने सोचा कि यह योगी आदित्यनाथ का निर्वाचन क्षेत्र हो सकता है. वह अब (उत्तर प्रदेश के) मुख्यमंत्री हैं, है न?
सागर : आपकी टीम में कोई पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं था?
शिंदे : वे तैयार नहीं थे. निर्णय लेने वाला मैं ही था. मैंने व्यक्तिगत रूप से नहीं कहा. मैंने इंद्रेशजी से बात की. पहले तो मैंने कहा कि मैं वहां नहीं जाऊंगा, मैं यहां ही काम करूंगा. और मैंने कई सालों तक कोशिश की, लेकिन वह मेरे लिए यहां काम करने के लिए कभी तैयार नहीं हुए. वह कभी नहीं चाहते थे कि भारत में ऐसा घोटाला हो. वजह यह थी कि अगर हमें कोई काम करने की जरूरत पड़ी तो इस मुद्दे में बीजेपी में बैठे गलत लोग भी शामिल होंगे. इसलिए उन्होंने बीजेपी की बेहतरी के लिए ऐसा नहीं होने दिया.
संसद पर हमले के कारण (दिसंबर 2001 में) पूरी स्थिति बदल गई. सीमा पर सभी अधिकारियों को बदल दिया गया और वहां के गांवों को खाली करा दिया गया. तब इंद्रेशजी ने कहा कि, "अभी के लिए, जाओ और उन्हें वापस भेज दो." इस तरह मैंने उन्हें वापस भेज दिया, जहां से वे आए थे.
सागर : श्रीकांत जी, जिनके साथ आपने काम किया, वह बालासाहेब देवरस के सचिव थे. वह बहुत बड़ी पोस्ट रही होगी?
शिंदे : यह बहुत बड़ी पोस्ट थी. 1998 से मेरे उनके साथ काफी अच्छे संबंध थे. मेरा उनसे परिचय सितंबर 1998 में ही हुआ था... मेरी सिंधु की यात्रा के दौरान. उनके साथ मेरे संबंध काफी अच्छे थे. उन्होंने मुझे देखा, उन्होंने मेरा स्वभाव देखा, मेरी प्रतिबद्धता देखी, तभी उन्होंने मुझे वह ऑपरेशन दिया, उन लोगों को अपहरण से छुड़ाने का. मैं उस ऑपरेशन में डेढ़ से दो साल से था. इस काम के लिए मैं पश्चिम बंगाल में नादिया जिला, कोलकाता, त्रिपुरा, अगरतला, इन सभी जगहों पर गया था.
(6 अगस्त 1999 को, आरएसएस के चार सदस्य जिसमें पूर्वी क्षेत्र के लिए इसके आयोजन सचिव श्यामली सेनगुप्ता सहित त्रिपुरा के धलाई जिले में नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा द्वारा अपहरण कर लिया गया था. अपहरण की राज्य सरकार की जांच के साथ-साथ, आरएसएस ने कार्यकर्ताओं को मुक्त करने के लिए अपनी टीम बनाई, जिसमें शिंदे भी शामिल थे. एनएलएफटी ने फिरौती की मोटी रकम मांगी. आरएसएस और त्रिपुरा सरकार ने दावा किया है कि एनएलएफटी को त्रिपुरा बैपटिस्ट क्रिश्चियन यूनियन का समर्थन प्राप्त था. आरएसएस के चार कार्यकर्ताओं के शव जुलाई 2001 में मिले. आरएसएस के तत्कालीन सह सरसंघचालक मोहन भागवत ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के खिलाफ आरएसएस के लोगों को बचाने में विफल रहने पर विरोध प्रदर्शन किया. 2018 में त्रिपुरा में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद, राज्य सरकार ने मामले की फिर से जांच करने के लिए एक विशेष जांच दल का गठन किया. कथित तौर पर अगस्त 2020 में इस मामले में आरोप पत्र दायर किया गया था लेकिन अभी तक किसी की गिरफ्तारी की सूचना नहीं मिली है.)
सागर : क्या आप उस ऑपरेशन का वर्णन कर सकते हैं?
शिंदे : त्रिपुरा के अगरतला से चार लोगों का अपहरण कर लिया गया. वे सीनियर थे. मैं सर्च टीम में था. श्रीकांत जी और मैं एक टीम की तरह काम कर रहे थे. ... अपहरणकर्ता बैपटिस्ट चर्च के साथ मिले आतंकवादी थे. दोनों ने दो करोड़ रुपए की फिरौती मांगी थी. उनका उद्देश्य पैसा कमाना और आतंक फैलाना था. ... चर्च के लोग गिरोह चलाते हैं. इसके अलावा भी, उनके पास पैसा है जिसका कोई हिसाब नहीं है. यह विदेशों से भी आता है.
सुशांता सेन उस समय त्रिपुरा के आरएसएस कार्यकर्ता थे. मेरी उनसे अगरतला में कुछ ही दिनों के लिए बातचीत हुई थी. आचार्य धर्मेंद्र जी भी उस समय वहीं थे. (धर्मेंद्र राजस्थान के एक धर्मगुरु थे और विहिप के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल का हिस्सा थे. यह पुजारियों और आरएसएस के सदस्यों का एक निकाय होता है जो आंशिक रूप से संगठन का प्रबंधन करता है.) अब वह बहुत बूढ़े हो गए हैं. वह पंजाब या राजस्थान में रहते हैं और वहां बहुत प्रसिद्ध हैं. (धर्मेंद्र का 19 सितंबर 2022 को निधन हो गया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके निधन पर दुख व्यक्त करने के लिए ट्वीट किया. बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में धर्मेंद्र पर आरोप लगाया गया था, लेकिन सीबीआई अदालत ने पिछले साल उन्हें बरी कर दिया.)
सागर : उस ऑपरेशन के दौरान आप और किससे मिले थे?
शिंदे : मैं मोहन भागवत से मिला. श्रीकांत जी ने मुझे उनसे कोलकाता में मिलवाया. ... मैं वहां पंद्रह दिनों के लिए था. ... वह उस समय मेरे सहकर्मी थे. … उन्होंने (अपहृत आरएसएस कार्यकर्ताओं) को खोजने के दृष्टिकोण से मुझसे बात की. कोई दूसरा विषय नहीं था. विषय उन्हें बाहर निकालने का था.
सागर : आपने उन्हें नहीं बताया कि इंद्रेशजी आपको पाकिस्तान भेजना चाहते हैं?
शिंदे : नहीं, मैंने उनसे इस बारे में बात नहीं की. विषय अलग था, इसलिए मैंने उस पर ध्यान केंद्रित किया.
सागर : वह ऑपरेशन कैसे खत्म हुआ?
शिंदे : वे सब मारे गए. … श्रीकांतजी ने आडवाणी को खबर तक दी कि बैपटिस्ट चर्च गिरोह के दो लोग दिल्ली एयरपोर्ट पर आ रहे हैं, उन्हें पकड़ कर जांच करने को कहा. कोई जांच नहीं हुई. श्रीकांतजी ने आडवाणी से जवाब मांगा. आडवाणी ने कहा कि अगर उन्होंने कार्रवाई की तो ईसाई नाराज होंगे. तो, इसने मेरा दिल तोड़ दिया कि वह आतंकवादियों में शामिल हो गए हैं. … श्रीकांतजी ने मुझे मुंबई में, नव युग कार्यालय में बताया कि आडवाणी ने कहा कि ईसाई नाराज होंगे. आडवाणी के जवाब से उनकी आंखों में आंसू आ गए. मेरी भी आंखें भर आईं.
सागर : बम बनाने के प्रशिक्षण का प्रस्ताव आपको इंद्रेश जी से मिला या श्रीकांत जी से ?
शिंदे : नहीं, प्रस्ताव किसी ने नहीं दिया. मिलिंद परांडे ने इसे प्रायोजित किया. उन्होंने सोचा कि अगर हमें 2004 का लोक सभा चुनाव जीतना है तो हमें माहौल खराब करना होगा. मुझे यह बात उनके साथियों से बात करने के तुरंत बाद पता चली. फिर, मैंने कहा, "लोक सभा चुनाव आ रहे हैं, इसलिए यह सब हो रहा है.'' मेरे सामने उनके साथी चुपचाप बैठे थे. मैं उनके साथ यह सोच कर शामिल हो गया कि केवल इस तरह से मुझे पता चल सकता है कि क्या हो रहा है.
सागर : तो उन्होंने प्रशिक्षण के लिए आपसे कैसे संपर्क किया?
शिंदे : जो आदमी मिलिंद परांडे के लिए काम करता था उसने संदेश दिया. वबृह मुझसे मिलने आए और उसके बाद मैंने उनसे बात की. उन्होंने मुझे योजना का प्रस्ताव दिया. दरअसल, मुझे पहले ही पता चल गया था जब मैंने हिमांशु पांसे से इसके बारे में बात की थी. हिमांशु ने मुझे पहले ही बता दिया था कि मिलिंद इसे प्रपोज करने वाले हैं. मैंने इसे समझा और उस तरफ से मुझे यह संदेश मिला.
सागर : बम बनाने की ट्रेनिंग कैसी थी? कितने समय तक चली?
शिंदे : यह तीन या चार दिन का थी. जब मैं सिंहगढ़ (पुणे के पास एक किला) गया, जहां प्रशिक्षण हुआ, वहां महाराष्ट्र के कई इलाकों से लड़के आए थे. लगभग बीस लोग थे. भोजन, पानी और सोने की आवश्यक व्यवस्था वहीं पर की गई थी. राकेश (धवाडे) "मिथुन चक्रवर्ती” को अपनी बाइक पर लाते थे और फिर उसे उसी तरह वापस ले जाते. दिन में हम रिजॉर्ट में घूमते थे, खाते थे, आराम करते थे और फिर ट्रेनिंग के बाद फिर से घूमते थे. वह जगह हमारे लिए थोड़ी अलग थी.
हमें सुबह प्रशिक्षण दिया जाता था. वहां ज्वलनशील पदार्थ थे. यह सफेद, केसरिया रंग का पाउडर था. इसे हमारे पास इस तरह कागज पर रखा गया था. उसने (“ मिथुन चक्रवर्ती ”) माचिस की तीली जलाई. तिली अभी पूरी तरह बुझ नहीं पाई थी और उसने वह फेंक दी, जो गलती थी. वह उस कागज के टुकड़े पर पड़ी. वह पाउडर से सिर्फ दो इंच की दूरी पर था, वह खुद डर गया था. उन्होंने कहा, "बाल-बाल बचे थे." यह एक बड़ी आपदा हो सकती थी, हम सभी के टुकड़े-टुकड़े हो जाते. करीब आधा किलो पाउडर था.
2003 में, हमारे पास मोबाइल फोन नहीं था इसलिए हम अपने परिवारों से संपर्क नहीं कर सके. ... हम पास के एक जंगल में गए और वहां (बमों का) परीक्षण किया. हमारे लिए पूरा रिजॉर्ट बुक था. प्रशिक्षण ऊपर की मंजिलों पर हुआ और हम भूतल पर रहते थे. ऊपर क्या चल रहा है इसे देखने की इजाजत किसी को नहीं थी.
सागर : क्या हिमांशु भी वहां थे? क्या वह भी ट्रेनिंग के लिए गोवा गए थे?
शिंदे : वह वहां थे लेकिन यह झूठ है कि वह प्रशिक्षण के लिए गोवा गए थे. गोवा में जो हुआ वह दो साल का प्रशिक्षण नहीं था. वह वहां विहिप के लिए काम कर रहे थे. विहिप धार्मिक कार्य करता है और इसका उद्देश्य लोगों की एकता के लिए इसका उपयोग करना है. इसमें कोई प्रशिक्षण शामिल नहीं था. ये सब बातें झूठ हैं.
सागर : क्या आप मुझे "मिथुन चक्रवर्ती'' के बारे में बता सकते हैं? जिसका असली नाम आप रवि देव बताते हैं?
शिंदे : पैंनी नाक और सांवले रंग के ... कद 5 फुट 4 इंच शायद. वह मुझसे लंबे नहीं थे. ... उस समय उनकी उम्र बासठ या छियासठ थी, वह अब सत्तर या अस्सी के होंगे. ... वह उत्तर भारत से थे और शुद्ध हिंदी बोलते थे. ... उनके साथ मेरी बातचीत प्रशिक्षण तक ही सीमित थी. ... एक बार उन्होंने मुझे डांटा. उन्होंने मुझे सिर पर मारा, जबकि मेरी गलती भी नहीं थी. मैं जवाबी कार्रवाई करना चाहता था लेकिन मैंने इससे परहेज किया. यह प्रशिक्षण का समय था.
सागर : रवि देव को अपनी पहचान क्यों छिपानी पड़ी? वह केवल संगठन के थे, है न?
शिंदे : वह नहीं चाहते थे कि लोग उनका असली नाम जानें, इसलिए वह छद्म नाम लेकर घूमते रहे. प्रशिक्षण की जिम्मेदारी उन्हीं की थी. वह बजरंग दल के राष्ट्रीय सह-संयोजक थे, उस समय. इसलिए जब चार साल बाद फिरोजा मेंशन में मुझसे मिले तो वह डर गए. पहले तो उन्होंने मुझे पहचाना नहीं . फिर मैंने उन्हें पुकारा, " रविजी ." उन्होंने आकर कहा, "क्या तुम मुझे जानते हो?" जब मैंने उन्हें बताया, तो उनका चेहरा पीला पड़ गया. फिर, जब मैं नीचे गया, तो मैंने उन्हें मिलिंद परांडे के कान में फुसफुसाते हुए देखा और वे दोनों मुझे देख रहे थे. ... मुझे पता था कि उन्होंने किस ऊंचाई तक योजना बनाई होगी.
सागर : ट्रेनिंग में और कौन था? राहुल पांडे, जो नांदेड़ मामले की चार्जशीट में है?
शिंदे : नहीं, नहीं, वह नांदेड़ में था. ... संजय चौधरी (नांदेड़ विस्फोट मामले का एक अन्य आरोपी) नांदेड़ में था.
सागर : मामले में अन्य आरोपियों की क्या स्थिति है? मारुति वाघ, योगेश, गुरुराज, मिलिंदो एकताते?
शिंदे : मुझे यह नाम याद नहीं हैं. अगर मैं उनके चेहरों को देखूं तो मुझे याद आ सकता है. औरंगाबाद, जालना, पूर्णा और परभणी से काफी संख्या में लोग नांदेड़ आए.
सागर : ट्रेनिंग खत्म होने पर क्या हुआ?
शिंदे : आखिरी रात को उन्होंने (धवड़े) सभी को एक कलम और कागज लेने और जो सीखा है, प्रशिक्षण का क्या उपयोग करेंगे, कहां करेंगे, इसे लिखित रूप में जमा करने के लिए कहा. मैंने उन्हें बहुत डांटा और कहा कि उन्होंने हमें सड़क से यूं ही नहीं उठाया है. कोई लिखित में ऐसा कुछ नहीं देगा. कागज पर ऐसा कुछ नहीं होता. मैंने उनसे पूछा कि यह पूछने वाले वह हैं कौन. सब चुप थे. किसी ने लिखित में कुछ नहीं दिया.
अगले दिन जब हमारी क्लास खत्म हुई और हम जा रहे थे तो वह बाइक पर बैठे थे और हम गाड़ी में थे. उन्होंने हमें " संभलचा" कहा, जिसका अर्थ है ध्यान से जाना. … यह थे राकेश धावड़े. और "मिथुन चक्रवर्ती " उनके पीछे बाइक पर बैठे थे. ... जैसे की कह रहे हों, "हम तुम्हें मार डालेंगे." उनका स्वर कुछ इस तरह था. ... मैंने झट से जवाब दिया, "आप सब भी जाओ और बाइक पर सावधानी से जाना." मैंने उनकी बात को बैठने नहीं दिया. मैंने तुरंत जवाब दिया.
सागर : जब आपने उन्हें न कहा तो क्या आपको किसी दबाव का सामना करना पड़ा? प्रशिक्षण के बाद क्या हुआ?
शिंदे : नहीं. किसी ने मुझ पर दबाव नहीं डाला और न ही किसी ने इस पर चर्चा की. उनको (मिलिंदो परांडे) हिमांशु और कुछ अन्य लोग मिले. हिमांशु उनके प्रभाव में आ गए थे. मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की. मैं दो बार नांदेड़ भी गया था. जब वह मुंबई आते, तो मैं उन्हें समझाता कि उनकी नीति गलत है, कि वे उनके जैसे लोगों का इस्तेमाल कर रहे थे, कि वे बीजेपी के चुनाव के लिए संघ के कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल कर रहे थे. वह हां कहते थे लेकिन साथ ही मेरी पीठ पीछे काम करते थे. नांदेड़ में उनकी हत्या कर दी गई. (5 अप्रैल 2006 को राजकोंडावर में अपने साथी नरेश के घर पर आकस्मिक बम विस्फोट में पांसे की मौत हो गई.) वह एक हत्या थी. मैं कहता हूं कि उन्होंने अपने ही कार्यकर्ताओं की हत्या की है.
सागर : आपने लिखा है कि वे उसके जैसे लोगों पर कुछ दबाव डाल रहे थे? आपको कैसे लगता है कि उस पर दबाव डाला गया था?
शिंदे : उस पर दबाव नहीं था. वह अपनी भावनाओं से अभिभूत था. और उन्होंने इसका इस्तेमाल किया. क्या होता है, कभी-कभी, आप पर कर्तव्य का एक अलग प्रभाव पड़ता है. मैं (संघ की दृष्टि) के प्रचार के जीवन से एक कदम पीछे हट गया था. मेरा और कोई काम नहीं था. इसलिए मेरे शब्दों का प्रभाव सीमित था. जो लोग संगठन में पदों पर थे, उनके शब्दों का प्रभाव, उनके पास जो पैसा था, वह सब मायने रखता था. फिर मेरे जैसे की राय कौन पूछता है? फिर कौन सच पूछता है?
सागर : जब आप नांदेड़ गए थे तब आपने हिमांशु से क्या कहा था?
शिंदे : उन्होंने जालना, पूर्णा, परभणी, औरंगाबाद और नांदेड़ में बम धमाके की योजना बनाई. (21 नवंबर 2003 को, मोटरसाइकिल पर सवार चार लोगों ने परभणी में एक मस्जिद पर बम फेंके, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और 35 घायल हो गए. 27 अगस्त 2004 को जालना और पूर्णा में भी इसी तरह के हमले किए गए, जिसमें 18 लोग घायल हो गए. पांसे और नरेश राजकोंडावर 4-5 अप्रैल 2006 की दरमियानी रात को नांदेड़ में कथित तौर पर औरंगाबाद में इस्तेमाल होने वाले बमों को इकट्ठा करते समय एक विस्फोट में मारे गए थे.) … हिमांशु का घर बहुत बड़ा नहीं था. एक मंजिला, लगभग एक हजार वर्ग फुट का. उनके पिता एक इंजीनियर थे, मुझे लगता है. मैं उनके घर गया और दो-तीन बार रुका. नरेश कोंडावर भी उससे बात करने के लिए उसके घर चला गया. हम नरेश के घर भी गए और चीजों पर चर्चा की.
मैंने कहा कि यह सिर्फ चुनाव के लिए है लेकिन वह नहीं माने. … हिमांशु पांसे ने मुझे बताया कि मिलिंदो परांडेजी कह रहे हैं कि यह करना ही होगा. मैंने उन्हें शुरुआत में ही ट्रेनिंग से पहले ही कह दिया था कि इन लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, इसलिए सतर्क रहें. लेकिन, उसके बाद मुझे ट्रेनिंग का ऑफर मिला और फिर मेरे और हिमांशु के बीच चर्चा होने लगी. मुझे दूसरों से ऑफर मिले, उनके जरिए नहीं. जब मुझे कई लोगों के प्रस्ताव मिले तो मुझे लगा कि अब चुनाव आ गए हैं.
सागर : क्या परांडे ने बम धमाकों की पूरी प्लानिंग की थी? क्या कोई सबूत है?
शिंदे : यह एक बड़ी साजिश थी- इसमें शामिल होने वाले वह अकेले नेता नहीं थे. संघ और बीजेपी के कई लोग हैं जो इस तरह से साजिश कर रहे थे. इन्हीं चुने हुए लोगों में से एक थे मिलिंदो परांडे. अगर एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी, जिसने मालेगांव और समझौता बम विस्फोटों की जांच की) मिलिंद परांडे को गिरफ्तार कर लेती है तो पूरी योजना का पर्दाफाश हो जाएगा.
करीब तीन-चार महीने पहले अंबानी के घर के बाहर जिलेटिन की कुछ छड़ें मिली थीं. कुछ और भी था या जो गैरजरूरी है. (फरवरी 2021 में अरबपति मुकेश अंबानी के मुंबई के घर के बाहर खड़ी एक कार में 20 जिलेटिन की छड़ें मिलीं थी.) एनआईए ने राजनीतिक कारणों से, सिर्फ सरकार को खुश करने के लिए इतनी अच्छी तरह से जांच की. और इधर, एनआईए, एटीएस (एंटी टेररिज्म स्क्वॉड) के लोग चुपचाप गंभीर राष्ट्रविरोधी घटनाओं को अंजाम देने वाले आरोपियों को बचाने के लिए चुपचाप काम करने लगे. पूछताछ में मिलिंद परांडे का नाम आया. संतकुमार भाटे ने नांदेड़ में हुई हत्या की जांच के दौरान बयान दिया. (मर्चेंट नेवी के पूर्व कप्तान भाटे से महाराष्ट्र एटीएस ने नांदेड़ विस्फोट के संबंध में पूछताछ की और खुलासा किया कि परांडे ने उन्हें कई लोगों को जिलेटिन की छड़ें विस्फोटक के रूप में इस्तेमाल कर प्रशिक्षित करने के लिए कहा था.) इसके बावजूद उसे कुछ नहीं हुआ. उन्होंने मामले को पूरी तरह से खारिज कर दिया.
(महाराष्ट्र पुलिस के पूर्व महानिरीक्षक एस.एम. मुश्रीफ ने अपनी किताब हू किल्ड करकरे में महाराष्ट्र एटीएस द्वारा नांदेड़ बम विस्फोट की जांच का वर्णन किया है. एटीएस की चार्जशीट और भाटे से पूछताछ के आधार पर, उनका दावा है कि 2000 में, परांडे ने भाटे को नागपुर में भोंसाला मिलिट्री स्कूल में आरएसएस और बजरंग दल के चालीस दिवसीय शिविर में भाग लेने के लिए कहा था. शिविर में, भाटे ने कथित तौर पर आरएसएस और बजरंग दल के 115 कार्यकर्ताओं को जिलेटिन की छड़ियों का इस्तेमाल करने में प्रशिक्षित किया, जिनमें से तीन सौ परांडे ने मुहैया कराईं. मुश्रीफ का दावा है कि भाटे ने कहा कि भारतीय सेना के पूर्व कर्मियों के साथ-साथ खुफिया ब्यूरो के एक पूर्व अधिकारी ने भी शिविर में उपस्थित लोगों को प्रशिक्षित किया. अपनी किताब में मुश्रीफ कहते हैं कि भाटे को कोल्हापुर जिले के गदाहिंगलाज कस्बे में बजरंग दल के एक और शिविर में आमंत्रित किया गया था, जो शंकर वैद्य नाम के बजरंग दल के नेता ने आयोजित किया था.)
सागर : चार्जशीट में हिमांशु को मुख्य खलनायक के रूप में चित्रित किया गया है. उसका नाम हर जगह है. एक भोंसाला मिलिट्री स्कूल का भी जिक्र है, क्या वो भी वहां थे? यह चालीस दिवसीय शिविर था?
शिंदे : नागपुर में?
सागर : हां, नागपुर वाला. जहां संतकुमारी भाटे ने प्रशिक्षण दिया.
शिंदे : भाटे से नांदेड़ मामले में भी पूछताछ की गई है और उनका बयान लिया गया है. उन्होंने मिलिंदो परांडे का भी उल्लेख किया. नहीं, मुझे नहीं लगता कि इससे पहले हिमांशु को ट्रेनिंग दी गई थी. अगर ऐसा होता तो 2003 में वह मेरे साथ नहीं होते.... परांडे ने मुझे इस ट्रेनिंग में शामिल किया क्योंकि अगर मैं होता तो पूरे देश में बम विस्फोट हो सकते थे. कई राज्यों में—आठ, दस या सत्रह राज्यों में. यह विनाशकारी होता. मैंने हलफनामे में पांच सौ-छह सौ विस्फोट लिखे थे लेकिन ये और भी ज्यादा होता. लोग इसे पचा नहीं पा रहे थे. मैं महाराष्ट्र में ही पांच सौ-छह सौ विस्फोट कर सकता हूं. यह सब प्रबंधन का मामला है. यह बस कहने की नहीं है, "तुम जाओ और करो." आपको इसका इंतजाम करना होता है, यही महत्वपूर्ण है.
सागर : चार्जशीट से अंदाजा लगाया जा सकता है कि 2000 से 2003 के बीच कई प्रशिक्षण शिविर लगाए गए थे.
शिंदे : हां.
सागर : क्या आप इसके बारे में जानते हैं कि संगठन के अन्य लोगों को भी प्रशिक्षित किया जा रहा था?
शिंदे : नहीं, 2003 से पहले मुझे इसकी जानकारी नहीं थी. 2003 के बाद भी मुझे नहीं पता था कि वे ट्रेनिंग कर रहे हैं. लेकिन मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि वे कुछ कर सकते हैं, वे करेंगे ही. मुझे राकेश धावड़े को अपना स्टैंड समझाना पड़ा. वह इसके लिए बहुत उत्साहित थे और मैं इसका हिस्सा नहीं बनने वाला था. …हो सकता है उन्होंने उसके बाद कुछ सोचा हो और इसमें और लोगों को शामिल करके उन्हें ट्रेनिंग के लिए भेजना शुरू कर दिया हो.
सागर : आपने कहा था कि आपने कई लोगों को बम विस्फोटों के बारे में चेतावनी दी थी. वे कौन थे? आपने उन्हें क्या बताया?
शिंदे : मैंने इस बारे में मोहन भागवत से सीधे बात नहीं की. मैंने श्रीकांत जोशी से कहलवाने की बहुत कोशिश की. श्रीकांत जोशी ने मोहन भागवत से भी बात की . …मैंने श्रीकांत जी से कहा कि बीजेपी के लोग ये घोटाले करना चाहते हैं और इस तरह वे हमारे कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल कर रहे हैं. जब श्रीकांत जी ने मोहन भागवत को बताया तो उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया. मैंने वेंकटेश अब्देव सर से भी बात की, जो विहिप के केंद्रीय अधिकारी थे. वह अपनी ही लय में थे, यानी उन्होंने कहा कि यह मेरा कर्तव्य नहीं है. मतलब वह बीजेपी के नशे में धुत थे. इस तरह उन्होंने बात की. मैं उन्हें 1999 से जानता था. मैं उन लोगों को जानता था. उन्होंने कहा, "तुम्हारी पूरी जिंदगी जेल में ही गुजर जाएगी, इस विषय पर बात करना बंद करो." (अब्देव का जून 2019 में निधन हो गया.)
इस विषय पर मैंने सुनील देवधर से भी बात की. सुनील देवधर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के करीबी हैं. 2014 में, उन्होंने लोक सभा के लिए मोदी की सीट का प्रबंधन किया. अब वह कुछ राज्यों के प्रभारी भी हैं. (देवधर बीजेपी आंध्र प्रदेश राज्य इकाइयों के प्रभारी हैं. वह पहले पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के प्रभारी थे.) मैंने उन्हें भी यह बताया. …अब वह खुश हैं. अपने ख्याल में वह एक राजनेता होने के नाते भाषण दे रहे हैं. जब मैंने उनसे बात की, तो उन्होंने कहा, "मी पान बाग्टो, मि भातो विचारुन. काई झाला तुम? " (मैं देखूंगा, मुझे सोचने दो.) इसके अलावा उन्होंने कुछ नहीं कहा. …
सुनील (1991 में) मेघालय में संघ के प्रचारक थे. उन्होंने माई होम इंडिया संगठन की स्थापना की और बाद में बीजेपी में शामिल हो गए. वह मोहन भागवत के करीबी हैं. उन्होंने मेरा नाम सुना था और मुझसे मिलना चाहते थे और फिर हम मिले. ... मैं उनसे पहली बार तब मिला था जब वह मुंबई में प्रचारक थे. यह 2003 से पहले की बात है. उन्होंने लोगों को कश्मीर के बारे में बताने के लिए शिरडी में मेरे लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया. मुझे साल याद नहीं. लेकिन मैं उन्हें तब से जानता हूं जब उन्होंने माई होम इंडिया नामक संगठन की स्थापना की थी. … मैंने उन्हें 2007 या 2008 में हुए बम विस्फोट के बारे में बताया… मैं उनसे अंधेरी, अंधेरी पूर्व में उनके पुराने घर में मिला था. मैंने उन्हें वहीं बताया था.
सागर : आपने वेंकटेश जी और श्रीकांत जी को सचेत किया था, लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया. तो आप कैसे साबित करेंगे कि मोहन भागवत को पता था?
शिंदे : देखिए, यह संभव नहीं है कि मोहन भागवत को पता न हो. सबसे पहले संस्था का नाम और मिलिंदो परांडे का नाम कई जगह आया. और ऐसे व्यक्ति को फिर से पदोन्नत किया गया और राष्ट्रीय मंच पर पहुंचा दिया गया. ... इंद्रेशजी उस समय राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बहुत ही उच्च पद पर थे. मिलिंद परांडे राज्य इकाई में थे, और उनका पालन-पोषण अशोक सिंघलजी ने किया था. (सिंघल विहिप के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष थे और राम जन्मभूमि आंदोलन में एक प्रमुख व्यक्ति थे. 2015 में उनकी मृत्यु हो गई.) अशोक सिंघलजी इस व्यक्ति को पूर्णकालिक के रूप में लाए. वह (परांडे) इंग्लैंड या अमेरिका में काम करते थे.
सागर : मिलिंद परांडे को लाने के पीछे अशोक जी की क्या मंशा थी?
शिंदे : वह (परांडे) अमरीका या इंग्लैंड में कहीं काम कर रहे थे. उन्होंने वापस आने के लिए अपनी सत्तर हजार रुपए की नौकरी छोड़ दी, और मैं 1990 के दशक में एक हजार या दो हजार रुपए कमाता था. उन दिनों विहिप को काफी चंदा मिलता था. ... पैसा इकट्ठा किया जाता है, है न? विहिप की टीम में ज्यादातर कारोबारी शामिल होते हैं. जिन लोगों के पास पैसा होता है वे ही शीर्ष पदों पर काबिज होते हैं ताकि जरूरत पड़ने पर वे धन मुहैया करा सकें. …
पैसा कहां गया मैं नहीं कह सकता. इससे बहुत से लोगों ने अपनी जेबें भरी होंगी. यह सब प्रांत की टीम के नाम पर होता है. यह सब एक साथ फिर दिल्ली जाता है. यहां तक कि कश्मीर के नाम पर वसूला गया .
सागर : जब आप नेताओं से बम ब्लास्ट के बारे में ये सवाल पूछ रहे थे तो क्या उन्हें नहीं लगा कि आप खतरनाक हो सकते हैं?
शिंदे : नहीं, नहीं. उन्होंने यह नहीं सोचा. इसलिए मैं अभी भी जीवित हूं. (हंसते हैं) उन्होंने सुनील जोशी की हत्या की. (जोशी इंदौर में आरएसएस के पूर्व जिला नेता थे. जांच एजेंसियों ने प्रस्तावित किया कि 2006 के मालेगांव बम विस्फोटों को समझौता एक्सप्रेस विस्फोट, अजमेर शरीफ विस्फोट और 2007 के मक्का मस्जिद विस्फोट से जोड़ने वाला वह एकमात्र सूत्र था. जोशी की दिसंबर 2007 में हत्या कर दी गई थी. मामले की एनआईए की जांच में पाया गया कि हत्या के पीछे प्रज्ञा सिंह ठाकुर और दो साथी थे. ठाकुर 2017 में बरी हो गई थी और अब सांसद हैं.)
अगर उन्हें (सुनील जोशी) गिरफ्तार कर लिया गया होता, तो श्रृंखला में ऊपर की कड़ियां दिखाई देने लगतीं, जिससे पता चलता कि कौन शीर्ष पर है. प्रज्ञा वहां थी, इसलिए वह पकड़ा नहीं गया. उन्होंने उसे मार डाला. वह हिंदुओं द्वारा मारा गया था. प्रज्ञा ने ही उसे मारा था.
सागर : आप तपन घोष से भी मिले?
शिंदे : हां, मैंने उन्हें भी सचेत किया क्योंकि यह जरूरी है कि हर कोई साजिश को समझे. मैं स्वाभाविक रूप से समझ गया था इसलिए मैंने बहुत से लोगों को सचेत किया. तपनजी के साथ मेरे अच्छे संबंध थे. उनका मेरे प्रति बहुत प्रेम था. वह मुझसे बीस साल से अधिक बड़े थे. कोरोनावायरस के समय में उन्हें गुजरे एक साल हो गया है. ( घोष का 2020 में निधन हो गया.)
सागर : क्या आपने श्री राम सेना के प्रमोद मुतालिक को भी सचेत किया?
शिंदे : मैंने खुद उन्हें नहीं बताया. मैंने तपनजी के माध्यम से उन्हें बताया .
सागर : क्या आप साबित कर सकते हैं कि आपने वेंकटेश, श्रीकांत, भागवत और देवधर को कहा था? क्या आपके पास कोई फोटो या पत्र है?
शिंदे : ये बातें लिखित में नहीं रखी जाती हैं. ... देखिए, देखिए, मेरे सामने मिलिंद परांडे, राकेश धावड़े और रवि देव जैसे लोगों को दोषी ठहराया गया था. भाटेजी ने ये नाम लिए थे. फिर भी, न तो भाटे को गवाह बनाया गया और न ही मिलिंद को (नांदेड़ मामले में) आरोपी बनाया गया. मालेगांव की घटना 2006 में हुई, फिर 2008 में हुई. जब करकरे ने जांच की तो प्रज्ञा सहित सभी को पकड़ लिया गया. प्रज्ञा और सभी को गिरफ्तार करने के बाद, जालना, पूर्णा और समझौता मामलों में शामिल संघ के सभी लोगों को गिरफ्तार किया गया था.
सागर : तो, आपने उन सभी लोगों को चेतावनी दी जो आप कर सकते थे?
शिंदे : मैं जो कुछ भी कर पाया हूं, चुपचाप लोगों को स्थिति से अवगत कराकर किया है. मैं संगठन की रक्षा करने की कोशिश कर रहा था. नहीं तो वे सुनील जोशी की तरह मुझे भी मार देते. ... यह मेरा विचार था, लोगों को चेतावनी देना. राज्य में मेरा नेटवर्क बहुत बड़ा है और कई क्षेत्रों में है. अगर मैं रहूं तो पूरे देश में इसे बहुत बड़ा बना सकता हूं. वे मेरी आंतरिक आग के बारे में जानते थे. आज भी जीवित है. वे इससे लाभ कमाना चाहते थे. लेकिन उन्हें लगा कि सब बेवकूफ हैं. वे यह मानकर चलते थे कि दूसरों को कभी पता नहीं चलेगा कि हमारे दिमाग और हमारी जुबान में क्या है. उन्होंने यही सोचा था.
सागर : आपने कहा था कि इन बम धमाकों ने 2014 तक उनकी मदद की?
शिंदे : हां, ध्यान से देखिए. यह समाचारों में दिखाई देता रहेगा और वे इसका लाभ उठाते रहेंगे. 2019 में उन्होंने भोपाल में प्रज्ञा को टिकट दिया था. (ठाकुर जमानत मिलने के बाद भोपाल से बीजेपी सांसद चुनी गई. वह बम धमाकों के मामलों में एक आरोपी बनी हुई है.) हिंदू मतदाता को संतुष्ट करने के लिए यह सब पहले से ही तय किया गया था.
सागर : आपको पहली बार कब लगा कि राजनीतिक स्वार्थ के लिए आपका इस्तेमाल किया जा रहा है, आपके बलिदान का लाभ बीजेपी को जा रहा है?
शिंदे : जब मैं रियासी (जम्मू में 1990 के दशक में) में प्रचारक के रूप में काम कर रहा था, मैंने चीजों पर ध्यान देना शुरू कर दिया. वहां संगठन का काम, काम करने का तरीका, पदधारी, उनकी मानसिकता, उनकी नीति गलत तरीके से काम कर रही थी. संघ के नजरिए से देखने पर पता चला कि कौन संगठन की छवि को नुकसान पहुंचा सकता है. बहुत से लोगों ने अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों की दिशा में काम किया और संघ का नाम खराब किया. उन्हें माफ किया जा रहा था, लेकिन मैं उन्हें माफ नहीं कर सका. मेरा उनसे झगड़ा होता और फिर उन्होंने मुझे राजौरी ट्रांसफर कर दिया. …
अगरतला की घटना से मुझे भी निराशा हुई. इन लोगों का (आडवाणी का जिक्र करते हुए) संगठन में कद बढ़ गया लेकिन सत्ता में रहने के बावजूद संगठन के लोगों की रक्षा नहीं कर सके. फिर ये लोग किस लायक हैं? ये लोग अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों के लिए संगठन का उपयोग कर रहे हैं. वे सत्ता हासिल करने के लिए देश की विचारधारा हिंदुत्व का इस्तेमाल कर रहे हैं.
सागर : आपने चंद्रकांत शर्मा का जिक्र किया था.
शिंदे : जो हमारे साथ जम्मू में हथियार प्रशिक्षण के लिए गए थे, उनमें से एक को 2019 में किश्तवाड़ में आतंकवादियों ने मार गिराया था. वह थे चंद्रकांत शर्मा. अब चार-पांच साल हो चुके हैं जब आतंकियों ने उन्हें मारा. (शर्मा की 2019 में मृत्यु हो गई. ऐसा लगता है कि शिंदे को शर्मा की मृत्यु के बाद के सालों की संख्या याद नहीं है.) वह बहुत समर्पित और देशभक्त थे. उनके बारे में सोचकर भी दुख होता है. मैं कर भी क्या सकता हूँ? …
मेरा उनसे परिचय 1995 में हुआ... वह डोडा जिले के रहने वाले थे. वह एक सरकारी कर्मचारी थे, एक अस्पताल में. … चंद्रकांत शर्मा ने आतंकवाद से लड़ने में सेना की मदद की, इसलिए ऐसे संबंध होना स्वाभाविक था. हालांकि, न तो सेना ने और न ही संघ ने उनका इस्तेमाल किया हालांकि उन्होंने कभी उन्हें महत्व भी नहीं दिया. चंद्रकांत के पास वह सुरक्षा नहीं थी जिसकी उन्हें जरूरत थी और वे पर्याप्त सावधानी नहीं बरत रहे थे. यह दुखद है कि उनके जैसे सच्चे देशभक्त की हत्या कर दी गई. वह इतने निपुण व्यक्ति थे और मैं उनका दर्द समझ सकता हूं. जहां कभी वह थे वहां अब एक खालीपन है. …
वह आतंकियों की हिट लिस्ट में थे. … मैंने उनसे आखिरी बार 2016 में बात की थी. मैं किश्तवाड़ भी गया था. लेकिन चंद्रकांत वहां नहीं थे. वह जम्मू में थे. अनिल परिहार मौजूद थे. मैं उनसे मिला. वो अब नहीं रहे. चंद्रकांत के आठ महीने पहले अनिल परिहार की हत्या कर दी गई थी. (नवंबर 2018 में परिहार की मृत्यु हो गई.) उन्होंने मुझे कुछ समय के लिए अपने साथ रहने के लिए कहा था, लेकिन मेरे लिए यह संभव नहीं था, इसलिए मैं चला गया. फिर हमने फोन पर बात करना जारी रखा. मैं उन्हें व्हाट्सएप पर मैसेज करता था और वह मुझे वहां के माहौल और आतंकवादियों के ठिकाने के बारे में बताते थे.
सागर : उन्हें नहीं पता था कि उनकी जान को खतरा है?
शिंदे : निःसंदेह खतरा था- इसलिए उन्हें पुलिस सुरक्षा मिली हुई थी. अंगरक्षक को भी गोली लगी. जब भी मैं किश्तवाड़ में उनके घर जाता था, मैंने उन्हें अपने बगल में एक एसएलआर राइफल के साथ सोते हुए देखा. कल्पना कीजिए, ऐसे हालात की. उन्होंने इसलिए नहीं छोड़ा क्योंकि उनका भी यह विश्वास था कि यह करो या मरो की स्थिति है. वहां सबकी मानसिकता एक जैसी है.
सागर : क्या बाद में संघ ने उनके परिवार की मदद की?
शिंदे : उन्होंने इसका राजनीतिकरण किया. जब कोई आदमी मरता है, तो वे उसका राजनीतिक फायदा उठाते हैं. यह ऐसा ही है. … परिवार के लिए, वे कोई सहयोग नहीं देते हैं. कुछ भी तो नहीं.
सागर : आपने कहा कि वे संगठनों का भी समर्थन नहीं करते हैं?
शिंदे : अनेक स्थानों पर कठोर परिश्रम करने वाले लोगों द्वारा ऐसे संगठन स्थापित किए गए. उन्हें स्थापित किया गया था लेकिन बाद में नष्ट कर दिया गया था. उन्हें बढ़ने नहीं दिया गया. उदाहरण के लिए, असम में हिंदू युबा छात्र परिषद. उन्हें बाधाओं का सामना करना पड़ता और इसलिए उन्हें बंद कर दिया गया. (हिंदू युबा छात्र परिषद अभी भी सक्रिय है लेकिन इसका प्रभाव काफी कम हो गया है.) जम्मू-कश्मीर में हिंदू रक्षा समिति समाप्त हो गई. महाराष्ट्र में गर्जना .
भारत के स्तर पर, ये राज्य स्तर के छोटे संगठन हैं, बजरंग दल या विहिप की तरह नहीं है. वे धर्म का झंडा नहीं फहराना चाहते क्योंकि अगर ऐसा करेंगे, तो यह बीजेपी को भी प्रभावित कर सकता है. संघ के काम में धर्म का झंडा फहराना शामिल है, लेकिन अब इससे ऊंचे पदों पर बैठे चोरों और बदमाशों को दर्द होगा, इसलिए यह चुप है. इस गणना के कारण वे इन छोटे संगठनों को बढ़ने नहीं देते. कश्मीर के नाम पर बेशुमार धन इकट्ठा किया जा रहा था लेकिन वह बर्बाद हो गया. अगर इसका इस्तेमाल होता तो मुझे इस काम को करने में कोई दिक्कत नहीं होती.
सागर : आपने यह कैसे सुनिश्चित किया कि आपका इस्तेमाल उन्हीं उद्देश्यों के लिए नहीं किया गया?
शिंदे : मैं हर समय सतर्क रहता था. इस तरह मैंने यह सुनिश्चित किया कि कोई मेरा इस्तेमाल न कर पाए. कहीं भी नहीं. सुई की नोक पर भी नहीं. लेकिन संघ के कारण लाखों लोगों ने देश के लिए अपने परिवारों को त्याग दिया. इतने लोगों ने तो कभी अपना घर तक नहीं देखा. इन लोगों का इस्तेमाल करके उन्होंने भयानक पाप किए हैं. वे इन लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं.
सागर : अगर यह सब सच है, तो आपने यह सब जाहिर करते हुए एक बहुत बड़ा जोखिम उठाया है. आप नतीजों से कैसे निपटेंगे?
शिंदे : देश की आबोहवा इस स्तर पर पहुंच गई है. मेरी खबर विदेशों में भी फैल गई है. इतना सब होने के बाद भी संघ में मेरे बारे में कोई टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं है. मैं कहता रहता हूं, उन्हें मेरे सामने आने दो. मैं खुद देख लूंगा.
हाल ही में मुंबई में दो लोग मेरे पास पहुंचे. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं किसी से बात करना चाहता हूं क्योंकि संघ नुकसान में है. मैंने उनसे कहा कि वे खुद संघ को नुकसान पहुंचा रहे हैं. वे संघ से ही थे. जो लोग मुझे अच्छी तरह से जानते हैं, वे यहां आए. मैंने उनसे कहा कि मैं शुद्धिकरण के मार्ग पर हूं. उन्होंने कहा, "क्या आप इंद्रेशजी से बात करना चाहते हैं? क्या आप मोहनजी से बात करना चाहते हो?" मैंने उनसे कहा, “आप ही बताओ, अब उनकी कौन सुनता है? बीजेपी उनकी नहीं सुनती. अगर आपको लगता है कि वह सुनती है, तो दो लोगों को निकाल दो, हरे नारायण, अगर आप में हिम्मत है." हरे नारायण से मेरा मतलब मोदी और अमित शाह से था. मराठी में नारायण का मतलब गुंडे होता है. फिर वे चुप हो गए, जैसे कि बीजेपी कार्यकर्ता इन दोनों की सेवा करते हैं.
सागर : ऐसा लगता है कि आपके दिल में इंद्रेशजी के लिए बहुत प्यार और सम्मान है. इन सभी आरोपों को सार्वजनिक करने के बाद क्या आपने कभी उनसे मिलने की कोशिश की?
शिंदे : मेरे मन में अब भी उतना ही प्यार है जितना अर्जुन का भीष्म पितामह के लिए था. लेकिन यह युद्ध है, धर्म युद्ध. यहां कर्तव्य प्राथमिक है. मुझे संघ, देश और इसके लिए काम करने वाले लोगों की रक्षा करनी है. इस युद्ध में, मैं नरम नहीं हो सकता और सोचता हूं कि हर कोई मेरे लिए पिता तुल्य है. मैं अब और समय बर्बाद नहीं कर सकता.
सागर : क्या आप सोचते हैं कि आप अकेले ही सारे संघ को बचा सकते हैं?
शिंदे : मैं इसे बचा सकता हूं. कहीं न कहीं, किसी को पहला कदम उठाना चाहिए. उसके लिए आपको घाव सहने पड़ते हैं. आपको एक सामान्य नागरिक के रूप में स में अपने जीवन को छोड़ना होगा.