वह डर को हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे : धुंध में लिपटा पंजाब के पूर्व डीजीपी सुमेध सैनी का करियर

पंजाब के पुलिस महानिदेशक सुमेध सिंह सैनी 27 जुलाई 2015 को दीनानगर में एक पुलिस स्टेशन पर हुए हमले के स्थल पर. सैनी उन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों में से एक थे जिन्होंने 1990 के दशक में राज्य में उग्रवाद पर अंकुश लगाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी लेकिन उनका कार्यकाल मानव अधिकारों के उल्लंघन और गैर-न्यायिक हत्याओं के व्यापक आरोपों से घिरा हुआ है. समीर सहगल / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी इमेजिस
05 June, 2020

नोवेल कोरोनवायरस महामारी का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बीच 6 मई 2020 को सुमेध सिंह सैनी पर, जिन्होंने 36 साल से भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी के रूप में नौकरी की, 29 साल पहले के एक मामले में दर्ज किया गया. सैनी ने 2012 से 2015 के बीच तीन साल तक पंजाब के पुलिस महानिदेशक के रूप में कार्य किया. सैनी के खिलाफ पलविंदर सिंह मुल्तानी ने मोहाली के मत्तोर पुलिस स्टेशन में दिसंबर 1991 में अपने भाई बलवंत सिंह मुल्तानी के कथित अपहरण और लापता होने के संबंध में प्राथमिकी दायर कराई थी. सैनी पर भारतीय दंड संहिता की छह धाराओं के तहत आरोप दर्ज किए गए थे जो अपहरण या हत्या के इरादे से अपहरण करने, अपराध के सबूत गायब करने, दस या अधिक दिनों तक गलत ढंग से कारावास में रखने, जबरदस्ती अपराध कबूल कराने के लिए स्वेच्छा से चोट पहुंचाने, एक लोक सेवक का कानून के विपरीत जाकर जो न्यायिक कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी रिपोर्ट, आदेश, फैसले या निर्णय को भ्रष्ट या दुर्भावनापूर्ण ढंग से सुनाना और आपराधिक साजिश से संबंधित हैं.

इस मामले में छह अन्य लोगों पर भी मामला दर्ज किया गया है. इन लोगों में पूर्व पुलिस उपाधीक्षक बलदेव सिंह सैनी, तत्कालीन इंस्पेक्टर सतबीर सिंह, तत्कालीन सब-इंस्पेक्टर हरसहाय शर्मा, जगीर सिंह और अनूप सिंह और सहायक सब-इंस्पेक्टर कुलदीप सिंह शामिल हैं. 11 मई को सैनी को एक स्थानीय अदालत ने मामले में अग्रिम जमानत दे दी थी और उस अदालत ने उन्हें सात दिनों के भीतर जांच अधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर जांच में शामिल होने का भी निर्देश दिया था. मोहाली पुलिस ने मामले के लिए एक विशेष जांच दल का गठन किया है जिसके प्रमुख पुलिस अधीक्षक हरमनदीप सिंह हंस हैं. एसआईटी ने कुछ प्रमुख गवाहों का बयान पहले ही दर्ज कर लिया है और सैनी अदालत के आदेश के अनुसार जांच में शामिल हो गए हैं.

जबकि अदालत ने सैनी पर कड़े प्रतिबंध लगाए थे अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश मोनिका गोयल, जो मामले की अध्यक्षता कर रही थीं, ने कथित अपराध के लगभग तीन दशकों बाद एफआईआर के समय और उसके पीछे की प्रेरणा पर सवाल उठाए हैं. जमानत के आदेश में गोयल ने पलविंदर के इस तर्क को खारिज कर दिया कि सैनी बहुत प्रभावशाली थे और इसलिए वह पहले शिकायत नहीं दर्ज करा पाए थे, जिसके आधार पर 6 मई को एफआईआर दर्ज की गई थी. गोयल ने कहा, "इस बात का कोई कारण नहीं बताया जा रहा है कि मौजूदा शिकायतकर्ता ने जून 2018 (जब सैनी सेवानिवृत्त हुए) के बाद से इतने लंबे समय तक क्यों चुप्पी साधे रखी और शिकायत के लिए यही वक्त क्यों चुना जब कोविड-19 के प्रकोप के चलते पूरे पंजाब राज्य में कर्फ्यू लगा हुआ है और इस दौरान 29 साल पुराने मामले में एफआईआर दर्ज कराने के लिए जालंधर से यहां आए.”

हो सकता है कि गोयल का ऐसा सोचना मुनासिब हो, लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि सैनी की प्रतिष्ठा पलविंदर के दावे का आधार है. सेैनी की बदनामी इस बात से भी थी कि अप्रैल 2013 में मानव अधिकार परिषद की रिपोर्ट में मानवाधिकारों के उल्लंघन में उनका नाम आया है.बलवंत के लापता होने के मामले में आए कई उतार-चढ़ावों और सैनी के करियर के प्रक्षेपवक्र को एक बार फिर ​पीछे मुड़कर देखें तो आईपीएस के तौर पर सैनी के करियर की बेहद जटिल और विवादास्पद प्रकृति सामने आ जाती है.

सैनी 1982 में आईपीएस में शामिल हुए और अगले 20 वर्षों में छह जिलों में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के रूप में काम किया. बलवंत के लापता होने के समय वह चंडीगढ़ में एसएसपी थे. अस्सी और नब्बे के दशक के दौरान पंजाब में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के रूप में, सैनी आतंकवाद रोधी और बाद में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में शामिल थे. कहा जाता है कि उन्होंने राज्य के एक पूर्व डीजीपी केपीएस गिल के, जिन्हें खालिस्तानी आंदोलन को बेअसर करने का श्रेय दिया जाता है, संरक्षण का लाभ लिया. गिल ने कथित तौर पर उन्हें खुली छूट दी हुई थी. दो बार पंजाब के डीजीपी रहे गिल को उग्रवाद पर अंकुश लगाने के लिए अपनाई गई रणनीति के लिए आने वाले वर्षों में गंभीर आलोचना का सामना करना पड़ा था. इन आलोचनाओं में मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन से लेकर फर्जी मुठभेड़ों और अतिरिक्त न्यायिक हत्याओं के आरोप शामिल हैं. 2012 में सैनी की पंजाब के पुलिस महानिदेशक के रूप में नियुक्ति के समय वह इस पद पर पहुंचने वाल सबसे जवान अधिकारी थे. समाचार रिपोर्टों के अनुसार, सैनी को पदोन्नती देने के लिए चार वरिष्ठ अधिकारियों को लांघा था और शिरोमणि अकाली दल तथा उसकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में बस आए ही थे.

अक्टूबर 2015 में पंजाब के एक पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी गुरमीत सिंह, जिन्हें आमतौर पर पिंकी के रूप में जाना जाता है, ने आउटलुक पत्रिका को एक साक्षात्कार दिया. पिंकी, जिन्हें "एनकाउंटर स्पेशलिस्ट" के रूप में जाना जाता था, ने सैनी को जबरन गायब कर देने के, यातना देने और अतिरिक्त न्यायिक हत्या के कई मामलों में लिप्त बताया था जिनमें बलवंत भी शामिल थे, जिसके बारे में पिंकी ने कहा था कि पुलिस हिरासत में उसे यातना दी गई और उसकी हत्या कर दी गई थी. पिंकी को पलविंदर की एफआईआर में एक गवाह के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. सैनी वर्तमान में 6 मई की प्राथमिकी जैसे कई अन्य आरोपों में फंसे हुए हैं. पंजाब पुलिस की निष्पक्षता पर काम करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन इंसाफ ने सैनी को जबरन गायब करने और गैरकानूनी हत्याओं के कम से कम 150 मामलों के लिए जिम्मेदार ठहराया है. इंसाफ के सह-संस्थापकों में से एक, सुखमन धामी ने मुझसे कहा, "निस्संदेह, सुमेध सैनी पंजाब में व्यापक और व्यवस्थित रूप से गायब होने, असाधारण हत्याओं और यातनाओं के मुख्य कर्ताधर्ताओं में से एक हैं."

इंसाफ की स्थापना 2004 में हुई थी और 2009 में इसने पंजाब में लापता होने वालों और नकली मुठभेड़ों की जांचों को दस्तावेजीकरण करना शुरू किया था. "तब से हमने अपनी साइट पर 5200 से अधिक मामले जारी किए हैं," धामी ने कहा. उन्होंने बताया कि उनके डेटाबेस पर ''संयुक्त राष्ट्र और संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य विभाग द्वारा भरोसा जताया गया है.” साइट में एक अलग अपराधी-प्रोफाइल पेज है जिसमें सैनी और उसके तत्कालीन अधीनस्थों के प्रोफाइल शामिल हैं. धामी ने कहा कि उनका "डेटा दर्शाता है कि जहां भी सैनी को तैनात किया गया था, वहां जबरन गायब, गैर न्यायिक हत्याएं और अत्याचार किए गए ... और ये घटनाएं समंदर में तैरते हिमशैल की महज चोटी को ही दिखाती हैं." वेबसाइट के एक पेज पर बलवंत का मामला भी दर्ज है.

चंडीगढ़ इंडस्ट्रियल एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन में जूनियर इंजीनियर के रूप में काम करने वाले बलवंत की उम्र 28 साल थी, जब उन्हें दिसंबर 1991 में चंडीगढ़ पुलिस ने उठाया था. हालांकि उनके लापता होने की घटनाओं का क्रम 29 अगस्त 1991 से शुरू हुआ. उस दिन सैनी, जो चंडीगढ़ के तत्कालीन एसएसपी थे, एक पुलिस एस्कॉर्ट के साथ घर जा रहे थे जब उनकी हत्या के प्रयास में एक शक्तिशाली कार बम विस्फोट हुआ. सैनी के कार चालक, अमीन चंद, लाल राम, एक एएसआई और पीआर रेड्डी की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि सैनी और एक अन्य एएसआई रमेश लाल घायल हो गए. उसी दिन सैनी की कार पर हमले की जांच के लिए भारतीय दंड संहिता, विस्फोटक पदार्थ अधिनियम 1908 और आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (टाडा) की विभिन्न धाराओं के तहत सेक्टर 17 पुलिस स्टेशन में एफआईआर नंबर 334 दर्ज की गई. इन धाराओं में हत्या का प्रयास, जीवन को खतरे में डालना वाला विस्फोट करना, अनधिकृत आग्नेयास्त्र रखना और आतंकवादी कार्रवाई में संलिप्त होने से संबंधित धाराएं शामिल हैं.

अदालती दस्तावेजों के अनुसार, विस्फोट के सिलसिले में 8 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया था- प्रताप सिंह मान, गुरशरण कौर मान, दविंदर पाल सिंह भुल्लर, मनमोहनजीत सिंह, मनजीत सिंह, नवनीत सिंह, गुरजंत सिंह बुधसिंह वाला और बलवंत. अगले तीन वर्षों के दौरान, नवनीत, मनजीत, मनमोहनजीत, और बलवंत सभी के घोषित अपराधी होने का दावा किया गया. जबकि 30 जुलाई 1992 को गुरजंत की मृत्यु हो गई थी. 25 मई 2006 को देवेंद्र, प्रताप सिंह मान और गुरशरण कौर पर अन्य मामलों के साथ हत्या का आरोप इस आधार पर आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत दर्ज किया गया, इन ​तीनों ने नवनीत, मनजीत, मनमोहनजीत, गुरजंत और बलवंत के साथ मिलकर सैनी पर हमला करने की साजिश रची थी. देविंदर, जो सैनी के खिलाफ हमले के प्रमुख आरोपियों में से एक था, पहले से ही जेल में था. अगस्त 2001 में, एक अन्य विवादास्पद मामले में उसे दोषी ठहराया गया था और 1993 में दिल्ली में हुए एक कार बम विस्फोट के मास्टरमाइंड के रूप में मौत की सजा सुनाई गई थी. यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि मनजीत देविंदर का मामा था और जांच के दौरान, पुलिस ने देविंदर के परिवार के कई सदस्यों को हिरासत में लिया था.

अगस्त 2007 में पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय में दायर एक हलफनामे के अनुसार, चंडीगढ़ के तत्कालीन एसएसपी दिनेश भट्ट ने 13 दिसंबर 1991 को बलवंत को गिरफ्तार किया और आईपीसी की विभिन्न धाराओं, शस्त्र अधिनियम और टाडा के तहत आरोप दर्ज किए. प्राथमिकी चंडीगढ़ के सेक्टर 17 पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई थी. हलफनामे के अनुसार, 18 दिसंबर को बलवंत को अपने सह-आरोपी नवनीत की तलाश के लिए गुरदासपुर जिले के कादियान पुलिस स्टेशन ले जाया गया था. पुलिस रिकॉर्ड में कहा गया है कि बलवंत को पुलिस थाने में बंद कर दिया गया था लेकिन वह अगले दिन 19 दिसंबर को भाग निकला. उस दिन, बलवंत के खिलाफ कादियान स्टेशन पर एक और प्राथमिकी दर्ज की गई थी और उस पर बाधा डालने और गिरफ्तारी से भागने का आरोप लगाया गया था. बाद में बलवंत के घोषित अपराधी होने का दावा कर दिया गया- वह व्यक्ति जो 7 जुलाई 1993 को कोर्ट ऑफ लॉ के सभी वारंटों से फरार हो गया और आज तक उसका पता नहीं चला.

दिसंबर 1991 में, बलवंत के पिता और भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी दर्शन सिंह मुल्तानी ने उच्च न्यायालय में एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की जिसमें कहा गया कि उनके बेटे बलवंत को अदालत में पेश किया जाए. अदालत ने राज्य के इस दावे के आधार पर याचिका को खारिज कर दिया कि बलवंत पुलिस हिरासत से भाग गया था और उसके ठिकाने के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.

अगले कुछ वर्षों में नवनीत, मनजीत, मनमोहनजीत सभी के अपराधी होने का दावा किया गया, जबकि गुरजंत की 1992 में मृत्यु हो गई थी. 2 मार्च 1993 को नवनीत और मनजीत दोनों के अपराधी होने का दावा किया गया और भट्ट के हलफनामे के अनुसार, 26 फरवरी 1995 को जयपुर में राजस्थान पुलिस के साथ मुठभेड़ में नवनीत मारा गया. दिसंबर 1991 में चंडीगढ़ पुलिस द्वारा उठाया गया मनजीत भी लापता हो गया और अब तक उसका पता नहीं चला है. अदालत के रिकॉर्ड बताते हैं कि मनमोहनजीत नब्बे के दशक की शुरुआत में संयुक्त राज्य अमेरिका चला गया था और तब से वहीं रह रह है. 1994 में, देविंदर जर्मनी भाग गया और वहां राजनीतिक शरण मांगी. हालांकि, 1995 में उन्हें भारत वापस लाया गया था. नतीजतन, 2006 तक बलवंत के लापता होने के बाद, मूल आठ अभियुक्तों में से केवल तीन-देविंदर, प्रताप सिंह मान और गुरशरण कौर पर ही मुकदमा चलाया गया.

1 दिसंबर 2006 को मामले की अध्यक्षता कर रहे एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, आरएस बसवाना ने तीनों को संदेह का लाभ दिया और उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया. इसके बाद 25 जनवरी 2007 को चंडीगढ़ के केंद्र शासित प्रदेश के अतिरिक्त सरकारी वकील आरएस राय ने पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की जिसमें इस फैसले के खिलाफ अपील की गई थी.

11 मई 2007 को उच्च न्यायालय ने राज्य की अपील को खारिज कर दिया. अदालत ने फिर एक कदम आगे बढ़ाया और 30 मई को एक और आदेश जारी किया जिसमें राज्य को निर्देश दिया गया कि वह ट्रायल के दौरान घोषित अभियुक्तों की उपस्थिति सुनिश्चित करे. फिर उस वर्ष अगस्त में उच्च न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो को इस मामले में एक पक्ष बनाया ताकि अदालत की सहायता की जा सके. 22 अगस्त को, उच्च न्यायालय ने सीबीआई को घोषित अपराधियों के बारे में एक स्थिति रिपोर्ट दायर करने का निर्देश दिया और एजेंसी ने 19 सितंबर को यह रिपोर्ट दायर की.

उसी दिन, बलवंत के पिता दर्शन ने उच्च न्यायालय में एक हलफनामा दायर किया, जिसमें कहा गया था कि उनके बेटे को "पुलिस द्वारा वर्ष 1991 में प्रताड़ित किए जाने के बाद मार दिया गया था." दर्शन की चर्चा करते हुए सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में भी कहा गया है, “उन्होंने यह भी दावा किया है कि गवाह उपलब्ध हैं जिन्होंने उनके बेटे बलवंत सिंह मुल्तानी को हिरासत में देखा था, लेकिन जब तक उनकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जाती है, तब तक उनके नाम का खुलासा जांच एजेंसी के समक्ष नहीं किया जाएगा."

5 अक्टूबर को उच्च न्यायालय ने एक और आदेश जारी किया जिसमें कहा गया था, ''अपने बेटे की हत्या कर दिए जाने के आरोपों/अभियोगों के बारे में दर्शन सिंह मुल्तानी (सेवानिवृत्त आईएएस) के हलफनामे को देखना हमारे लिए मुश्किल है. हलफनामें को खारिज किए जाने के इस पहलू पर गौर किया जाना चाहिए. अदालत ने तब सीबीआई को जांच करने का आदेश दिया था कि क्या बलवंत, नवनीत और मनजीत को "फर्जी मुठभेड़ों में मार दिया गया था और यदि ऐसा है, तो इसके लिए कौन पुलिस अधिकारी जिम्मेदार थे/हैं, ताकि उन्हें न्याय दिलाया जाए."

नतीजतन, सीबीआई ने 23 अक्टूबर 2007 को एक प्रारंभिक जांच शुरू की. और यह तब है जब पूरे मामले पर पुलिस का बयान सामने आ चुका था. गुरशरण कौर, जिसने राज्य पुलिस द्वारा बनाए गए मामले में आरोपी के रूप में वर्षों बिताए थे, सीबीआई जांच के दौरान एक प्रमुख गवाह के रूप में उभरी. पलविंदर द्वारा दायर ताजा मामले में उन्हें बतौर गवाह शामिल किया गया है. पेशे से वकील, गुरशरण ने  तीन दशक पहले एक लंबी बातचीत में अपने और अपने परिवार के मुसीबत भरे दिनों और सैनी द्वारा बलवंत के साथ किए गए रूह कंपा देने वाले बर्ताव के बारे में बताया था. 2007 में सीबीआई को भी उन्होंने यही बयान दिया था. उन्होंने मुझे बताया कि सैनी "लोगों को खत्म करने के लिए" अतिरिक्त-न्यायिक साधनों का उपयोग करने के लिए कुख्यात थे. उन्होंने कहा कि सैनी पर हुए हमले के बाद, सैनी ने बलवंत सिंह मुल्तानी के निवास पर दो से तीन महीने तक कब्जा कर रखा था. कौर के मुताबिक, उनके घर पर निगरानी बढ़ा दी गई थी क्योंकि बलवंत "मेरे पति के साथ एक ही इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ते थे." उन्होंने कहा कि वह, उनके पति प्रताप सिंह और बलवंत 1991 में पांच-छह साल के बाद मिले थे. “पुराने सहपाठी होने के नाते, एक-दूसरे का पता लिया. फिर, एक या दो बार मुल्तानी अपने आफिस से घर लौटते वक्त मिला और हमारे साथ एक कप चाय पी. हम भी एक बार उनके घर गए. हमारे साथ उनका कुलमिलाकर यही परिचय था.

गुरशरण ने जो घटना तिथि क्रम बताया वह राज्य पुलिस के बयान से अलग है. उन्होंने सैनी के कंधों पर बलवंत के लापता होने की पूरी जिम्मेदारी रखी. कौर ने कहा कि उन्होंने 12 दिसंबर 1991 को बलवंत को घायल अवस्था में सेक्टर 17 पुलिस स्टेशन में देखा था. एक दिन पहले पुलिस ने उसे गिरफ्तार करने का दावा किया था. “मुझे, मेरे पति और हमारे दो साल के बेटे को 11 दिसंबर की रात को सेक्टर 11 पुलिस स्टेशन ले जाया गया और मेरे पति, जो कुछ भी नहीं जानते थे, उन्हें मेरे और हमारे बच्चे के सामने बहुत यातना दी गई. सैनी वहां एक डीएसपी और एक एसएचओ और कई अन्य पुलिसकर्मियों के साथ बैठे थे.” उन्होंने कहा, "अगले दिन, 12 दिसंबर को हमें सेक्टर 17 पुलिस स्टेशन ले जाया गया और वहां मुल्तानी भी मौजूद थे, जो बहुत ही खराब हालत में थे, उन्हें बर्बर यातना दी गई थी. मैं उनकी हालत का बयान नहीं कर सकती.” उन्होंने कहा कि 13 दिसंबर की रात को, “सुमेध सैनी आया और उसने मुल्तानी को लात मारी, और उसने और उसके लोगों ने उसे बुरी तरह से प्रताड़ित किया. वह जमीन पर पड़ा था, खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. मुल्तानी सैनी के सामने माफी के लिए गिड़गिड़ा रहे थे और वहां पर दर्द से बिलख रहे थे और रो रहे थे ... सुबह बरामदे में, वह बहुत बुरी हालत में पड़े थे ... उनकी आंख बाहर की ओर निकली हुई थी और वहां बहुत ज्यादा खून बह रहा था. "गुरशरण के अनुसार, उस दिन, बलवंत को सेक्टर 17 पुलिस स्टेशन से स्थानांतरित किया गया था और “हमें नहीं पता था कि वे उन्हें कहां ले गए थे. शुरू में, हमें अधिकारियों ने कहा था कि सैनी को पता चल गया है कि हम निर्दोष हैं और हमें छोड़ दिया जाएगा.”

हालांकि, उन्हें और उनके पति को 17 दिसंबर को अदालत में पेश किया गया था. “मुझे जमानत पर रिहा कर दिया गया और मेरे पति को जेल भेज दिया गया. मेरे पति को दो-तीन महीने बाद जमानत दे दी गई. हम उन्हें बुरैल जेल से लाने गए. हालांकि, पहले से ही एक पुलिस जिप्सी वहां खड़ी थी.” गुरशरण ने कहा कि उन्हें और उनके पति को सेक्टर 9 में सैनी के कार्यालय में ले जाया गया.” उन्होंने मेरे पति से पूछा कि वह कैसे बाहर आने में कामयाब रहे और कहा कि वह उन्हें मार देंगे. उसने मेरे पति से पूछा कि क्या वह जानता है कि उसने बाकी लोगों को पहले ही निपटा दिया है. ”

गुरशरण के अनुसार, सैनी ने तब उन्हें बताया कि उसने बलवंत की हत्या कर दी थी. उसने कहा कि सैनी ने उसके पति को धमकी दी और कहा, "मैंने उसके (बलवंत के) पिता और चाचा के आईएएस अधिकारी होने के बावजूद उसे मार डाला. क्या तुम भी मरना चाहते हो? ” गुरशरण ने कहा कि उनके पति को एक अन्य मामले में फंसाया गया और वह चार महीने जेल में रहे. उन्होंने कहा कि सुरेश अरोड़ा के एसएसपी के रूप में तबादले के बाद ही उनके पति को जमानत मिली. हालांकि, गुरुशरण के अनुसार, 1993 में, सैनी ने दंपति को अपने निवास स्थान पर बुलाया, "यहां तक ​​कि सुरेश अरोड़ा भी मौजूद थे और हमें बताया कि हमें मुल्तानी से हमारे निवास पर एक पत्र प्राप्त होगा और हमें उस पत्र को मुल्तानी के पिता के पास ले जाना होगा और उन्हें बताना होगा कि वह पत्र मुल्तानी ने हमें लिखा था और कहा था कि वह जिंदा है और उसके पिता को उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए.” दोनों पति-पत्नी मुल्तानी घर गए थे, लेकिन "हम उस दिन किसी को भी पत्र सौंपे बिना वापस आ गए."

गुरशरण ने कहा कि 2006 में उनके बरी होने के बाद भी, “सैनी ने हमें आतंकित रखा और मेरे पति अवसाद में चले गए. अवसाद इसलिए भी था क्योंकि अगर सैनी ने उनको नहीं छोड़ा जिनके पिता आईएएस थे, तो हम तो उसके सामने कुछ भी नहीं.” उन्होंने बताया, “सैनी के खिलाफ नवीनतम प्राथमिकी में मेरे बयान को दर्ज करने के अलावा, मैंने सीबीआई को भी अपने बयान दिए थे कि मुल्तानी यातना के कारण न तो चल ही सकते थे या खड़े ही हो सकते. तो, वह पुलिस की गिरफ्त से भाग कैसे सकते थे?” उन्होंने कहा, “जब वह राज्य के पुलिस महानिदेशक के रूप में पदोन्नत हुए तो और लोगों की तरह हमारा भी दिल टूट गया था. राज्य का नेतृत्व करने के दौरान कोई भी उनके खिलाफ शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर सकता था.”

गुरशरण के बयान के अनुरूप, सीबीआई की जांच ने भी पुलिस की कहानी को झूठा साबित कर दिया. इसके अलावा, जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, हाई कोर्ट द्वारा निर्दिष्ट तीन लोगों- बलवंत, नवनीत और मनजीत के अलावा - सीबीआई देवेंद्र के पिता, बलविंदर पाल सिंह भुल्लर के गायब हो जाने का मामला देखने लगी जिन्हें दिसंबर 1991 में चंडीगढ़ पुलिस ने उठा लिया था. सीबीआई की एक साल की जांच में 2008 में, पंजाब राज्य ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और मामले में एजेंसी की भागीदारी के खिलाफ अपील की और जांच को रद्द कर दिया गया. हालांकि, उच्च न्यायालय और उसके बाद शीर्ष अदालत को दी गई एजेंसी की रिपोर्ट एक ऐसे अधिकारी को बचाने के लिए राज्य के उत्साह पर सवाल उठाती है, जिसके खिलाफ जांच चल रही है.

एजेंसी के अनुसार, बलवंत के खिलाफ 13 दिसंबर को दर्ज एफआईआर एक झूठी एफआईआर थी. नवंबर 2008 में सीबीआई द्वारा सुप्रीम कोर्ट को सौंपे गए हलफनामे में, एजेंसी ने कहा कि बलवंत को चंडीगढ़ पुलिस पार्टी ने 11 दिसंबर 1991 को बलदेव सिंह सैनी के नेतृत्व में उठाया था, जो तत्कालीन डिप्टी सुपरिटेंडेंट थे. एजेंसी के मुताबिक, बलवंत को 13 दिसंबर तक अवैध हिरासत में रखा गया था और फिर एक झूठी एफआईआर (संख्या 440) में फंसाया गया था - जिसमें कहा गया था कि उसे उसी दिन ही गिरफ्तार किया गया था. हलफनामे में आगे कहा गया है कि अन्य आरोपी अधिकारियों द्वारा सैनी की मौजूदगी और आदेशों पर बलवंत को यातनाएं दी गई थीं - वे देविंदर के ठिकाने की जानकारी चाहते थे. हलफनामे में कहा गया है कि बलवंत को 17 दिसंबर को सेक्टर 17 पुलिस स्टेशन में बुरी हालत में पाया गया था और अगले दिन कादियान ले जाया गया था.

इसके अलावा, सीबीआई ने बताया कि एफआईआर के अनुसार, बलवंत ने सैनी पर हमले में अपनी संलिप्तता स्वीकार की थी "लेकिन बम विस्फोट मामले में उससे कभी पूछताछ नहीं की गई थी." सीबीआई की जांच में यह भी कहा गया है कि बलवंत को "चंडीगढ़ पुलिस द्वारा हिरासत में बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया था और चंडीगढ़ पुलिस के संबंधित पुलिस अधिकारियों के साथ-साथ पीएस कादियान के बयानों में गंभीर विसंगतियों के कारण हिरासत से उनका बचना भी संदिग्ध है." सीबीआई ने यह भी कहा कि यह भी सही नहीं था कि बलवंत कई मामलों में एक घोषित अपराधी था.

इसके अलावा, एजेंसी की जांच ने पुष्टि की कि देविंदर के पिता बलविंदर सिंह भुल्लर और मनजीत को चंडीगढ़ पुलिस ने बम विस्फोट मामले की जांच के दौरान उठाया था और वे तब से लापता थे. हैरानी की बात है कि ना तो पंजाब राज्य और न ही चंडीगढ़ पुलिस ने कभी उनके लापता होने की शिकायत दर्ज की.

जांच के नौ महीने बाद, 2 जुलाई 2008 को सीबीआई ने सुमेध सिंह सैनी और चंडीगढ़ पुलिस के अन्य पुलिसकर्मियों के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज की थी - बलदेव सिंह सैनी, गायब होने के समय चंडीगढ़ के पुलिस उपाधीक्षक थे और हर सहाय शर्मा और जगीर सिंह, दोनों उस समय सब-इंस्पेक्टर थे. सीबीआई ने बलवंत और देविंदर के पिता बलवंत सिंह भुल्लर के अपहरण और हत्या का आरोप लगाया. एफआईआर की विषय वस्तु सीबीआई की जांच पर आधारित है जिसने लगभग सत्तर गवाहों के बयान दर्ज किए हैं.

सीबीआई की प्राथमिकी में कहा गया है कि 12 दिसंबर 1991 को चंडीगढ़ पुलिस की एक पार्टी ने आरोपियों में से एक के नेतृत्व में बलवंत सिंह भुल्लर को उनके गांव से उठाया था. उन्हें देविंदर पाल सिंह भुल्लर के ठिकाने का पता करने के लिए सुमेध सिंह सैनी के आदेशों और मौजूदगी में यातनाएं दी गईं. यातना के कारण बलवंत सिंह भुल्लर अपना मानसिक संतुलन खो बैठे और उन्हें दूसरों से अलग कर दिया गया और उन्हें ले जाया गया जिसके बाद उनके बारे में कुछ पता नहीं चला. ” बलवंत सिंह भुल्लर तब से लापता हैं. सीबीआई ने कहा कि एक गवाह ने उन्हें सूचित किया कि सैनी ने गवाह को बताया कि बलवंत सिंह भुल्लर की मौत प्राकृतिक कारणों से हो गई थी और उनके बेटे देविंदर ने सैनी की हत्या करने की कोशिश की थी.

सीबीआई ने 4 जुलाई 2008 को अपनी अंतिम स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत की. एजेंसी की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए, उच्च न्यायालय ने सीबीआई के इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि नवनीत को राजस्थान पुलिस के साथ एक "वास्तविक मुठभेड़" में मार दिया गया था और नवजीत और मनजीत के ठिकाने की जांच को बंद माना जा सकता है. हालांकि, अदालत ने सीबीआई को यह जांच करने का भी निर्देश दिया कि क्या दोनों बलवंतों को "फर्जी मुठभेड़ों में मार दिया गया था."

यह इस आदेश के खिलाफ था कि पंजाब की तत्कालीन एसएडी सरकार ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. अपनी अपील में, राज्य ने दावा किया कि उसे अपने अधिकारियों के की मदद करनी थी, जिन्होंने नब्बे के दशक की शुरुआत में परेशानी के दौर में "आतंकवाद के खिलाफ युद्ध" लड़ा और "खुद को खतरे में डाल दिया". राज्य ने सैनी को अपने सबसे सुशोभित अधिकारियों में से एक माना, जो ईमानदार और मेहनती थे और जिन्होंने राज्य में आतंकवाद को रोकने के लिए कठोर कदम उठाए थे. शीर्ष अदालत में राज्य का तर्क यह था कि उच्च न्यायालय ने सीबीआई को तीन अभियुक्तों के बरी होने के खिलाफ प्रशासन की अपील पर जांच करने के लिए कहा था. राज्य ने दावा किया कि अदालत की कार्रवाई "कानूनी रूप से अक्षम्य" और "अस्थिर" थी.

7 दिसंबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की अपील को मंजूरी दी और उच्च न्यायालय के आदेशों को अवैध घोषित कर दिया. परिणामस्वरूप, सैनी और अन्य पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सीबीआई की प्राथमिकी को रद्द कर दिया गया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि, "यह उन आवेदकों के लिए खुला है जिन्होंने याचिका दायर की थी ...अगर कानून इसकी इजाजत देता है तो दुबारा से ताजा कार्यवाही हो सकती है," यह एक प्रावधान था जिसे इस साल हटा दिया गया था और इसके परिणामस्वरूप मई में सैनी ने एक नई प्राथमिकी दर्ज की थी.

प्रदीप विर्क ने कहा कि हालांकि तकनीकी कारणों से सीबीआई की एफआईआर को खारिज कर दिया गया था, लेकिन सीबीआई द्वारा सौंपी गई जांच और हलफनामा अक्षर-अक्षर सच था और 9 महीनों तक चली प्राथमिक पड़तालों पर आधारित था जिनकी परिणति जुलाई 2008 में एक एफआईआर दर्ज करने में हुई." उन्होंने मुझे बताया कि सीबीआई ने उच्च न्यायालय में तीन स्थिति रिपोर्ट दायर की थी. “इस मामले की संवेदनशीलता के कारण इन रिपोर्टों को सीलबंद लिफाफे में प्रस्तुत किया गया था. इसलिए हम सिर्फ 70 के इस अभूतपूर्व आंकड़े के कुछ गवाहों को जानते हैं और ये वही हैं स्वेच्छा से आगे आए हैं,” विर्क ने कहा. उन्होंने यह भी कहा कि देविंदर के पिता, बलवंत सिंह भुल्लर और चाचा मनजीत, दोनों ही राजपत्रित अधिकारी थे और उनके खिलाफ कहीं भी किसी भी मामले का कोई इतिहास नहीं था.

6 मई को दर्ज की गई नई प्राथमिकी में दिसंबर 1991 में जो कुछ हुआ उसका विस्तृत विवरण शामिल है और सीबीआई की जांच के समान ही दावा किया गया है कि बलवंत को चंडीगढ़ पुलिस की एक टीम ने 11 दिसंबर को सैनी के आदेश पर उठाया था. शिकायत के अनुसार, उस रात लगभग 4 बजे पुलिस ने बलवंत का मोहाली में उनके निवास से बिना कोई दस्तावेज या कारण बताए जबरन अपहरण कर लिया और उन्हें चंडीगढ़ के सेक्टर 17 में पुलिस स्टेशन ले गई. इसके बाद सैनी के आदेश पर पुलिस ने बलवंत को मोहाली में एक अन्य पते पर छापेमारी करते हुए साथ ले लिया. शिकायत में कहा गया कि पुलिस ने उनके परिवार की मौजूदगी में जसप्रीत इंद्रजीत सिंह और उनके पिता मनजीत, देविंदर के चाचा को उठाया. शिकायत के अनुसार, मनजीत और जसप्रीत को बलदेव सिंह सैनी सहित अन्य अधिकारियों ने देविंदर के ठिकाने का पता बताने के लिए प्रताड़ित किया था.

बलवंत की गतिविधियों को दर्शाते हुए शिकायत में आगे कहा गया है कि 12 दिसंबर को सुबह करीब 2 बजे बलवंत, मनजीत और जसप्रीत को बलदेव सिंह सैनी के नेतृत्व में एक पुलिस पार्टी द्वारा पास के एक गांव द्यलपुरा भिका ले जाया गया और बलवंत सिंह भुल्लर को उठा लिया गया. फिर वही पुलिस टीम दूसरे गांव रामपुरा चली गई और कुलतार सिंह को हिरासत में ले लिया. कुलतार देविंदर का ससुर था. शिकायत में आगे सूचीबद्ध किया गया है कि कैसे सभी पुरुष- बलवंत, मनजीत, जसप्रीत, बलवंत सिंह भुल्लर और कुलतार को सेक्टर 17 पुलिस स्टेशन ले जाया गया और बर्बर यातनाएं दी गईं. शिकायत के अनुसार, 13 दिसंबर की रात किसी समय, सैनी खुद पुलिस स्टेशन गए और हिरासत में लिए गए पांच लोगों को उनके सामने पेश किया गया और उनकी मौजूदगी और निर्देश पर यातनाएं दी गईं. 

यह बताती है कि, "सैनी ने अपनी मौजूदगी में, उनके भाई (बालवंत) के मलाशय में एक लकड़ी की छड़ी डाल दी. खुद सुमेध सिंह सैनी ने भी उनके अंडकोष पर बिजली के झटके दिए थे." ये विवरण पिंकी के साक्षात्कार पर आधारित थे. शिकायत में कहा गया है कि बलवंत निरंतर दी जा रही यातना का सामना नहीं कर सका. पिंकी के अनुसार, बलवंत ने 17 दिसंबर को दम तोड़ दिया. शिकायत में बलवंत के भागने के पुलिसिया बयान पर भी सवाल उठाए गए थे. कादियान में जिस स्थान पर बलवंत का कथित रूप से अपहरण किया गया था, उसकी निगरानी चंडीगढ़ पुलिस, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और पंजाब पुलिस के अधिकारियों की एक टीम ने की थी.

पलविंदर की शिकायत में कहा गया है कि उसके "पिता और परिवार ने भाई की रिहाई के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने अपनी मृत्यु तक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी, लेकिन सुमेध सिंह सैनी के प्रभाव और शक्ति के कारण उन्हें न्याय नहीं मिला और उन्होंने कानून-व्यवस्था और न्यायपालिका से पूरी तरह विश्वास खो दिया.”

पलविंदर के वकील प्रदीप विर्क ने मुझे बताया कि आउटलुक साक्षात्कार में किए गए खुलासे और खासकर बलवंत द्वारा दिए गए अत्याचार के डारवने विवरण ने परिवार को हिला कर रख दिया. "उन्हें उम्मीद थी कि पंजाब और चंडीगढ़ की कानून व्यवस्था इसका संज्ञान लेगी, लेकिन सुमेध सिंह सैनी की गलतियों और प्रभाव के कारण कुछ नहीं हुआ और कोई कार्रवाई नहीं हुई." विर्क के अनुसार, "सुमेध सिंह सैनी के सेवानिवृत्त होने के बाद, उनके परिवार को फिर से न्याय के लिए लड़ने के अपने प्रयासों को फिर से शुरू करने का कुछ साहस मिला." विर्क ने कहा कि एक बार सैनी के सेवानिवृत्त होने के बाद, पलविंदर ने विभिन्न लोगों से संपर्क किया, जो उस वक्त उनके भाई के साथ पीड़ित थे और जो नया मामला दर्ज करने के लिए संबंधित तथ्यों पर बातचीत कर रहे थे.

एक गैर-लाभकारी संस्था, पंजाब मानवाधिकार संगठन, से जुड़े वकील आरएस बैंस ने मुझे बताया कि "मेरे द्वारा प्रदान किए गए कुछ दस्तावेज भी इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा रिकॉर्ड में लिए गए थे." सेवानिवृत्त न्यायाधीश अजीत सिंह बैंस की अध्यक्षता वाले संगठन ने पंजाब में फर्जी मुठभेड़ों को सामने लाने और पंजाब पुलिस के दोषी अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने के काम को अंजाम दिया है. बैंस ने बलवंत के लापता होने में सैनी के शामिल होने का दावा किया. “एक तरफ, सैनी द्वारा यह दावा किया जाता है कि मुल्तानी को 13 दिसंबर को गिरफ्तार किया गया था और फिर 19 दिसंबर को गुरदासपुर के पुलिस स्टेशन कादियान से पुलिस हिरासत से भाग गया और बाद में वर्ष 1993 में उसके अदालत द्वारा घोषित अपराधी होने का दावा कर दिया गया. लेकिन दूसरी ओर, अगले 27 वर्षों में उसे पकड़ने या दबोचने का कोई प्रयास नहीं किया गया. हालांकि सैनी राज्य के पुलिस प्रमुख के पद पर बने रहे, लेकिन उन्होंने उन्हें ट्रेस करने या गिरफ्तार करने का कोई प्रयास नहीं किया. "उन पर जानलेवा हमला करने और हमले में जान गंवाने या घायल होने वाले लोगों के लिए इतना कुछ." उन्होंने कहा कि बलवंत के लिए कभी भी कोई लुकआउट नोटिस जारी नहीं किया गया था और न ही मुल्तानी की संपत्ति अटैच की गई थी जो पीओ, घोषित अपराधी, के लिए निर्धारित प्रक्रिया है. “यह संकेत देने के लिए पर्याप्त है कि पुलिस और सैनी जानते थे कि मुल्तानी जिंदा नहीं है. यहां यह उल्लेख करना उचित है कि सैनी बम विस्फोट मामले के मुख्य आरोपी देविंदर पाल भुल्लर का प्रत्यर्पण किया गया था और मुल्तानी के ठिकाने के बारे में उससे कोई सवाल नहीं किया गया था.”

मानवाधिकार वकील और पीएचआरओ के प्रधान जांचकर्ता सरबजीत सिंह वेरका ने कहा कि कुछ मामलों में, पंजाब में युवाओं की योजनाबद्ध गैर न्यायिक हत्याओं के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को दोषी ठहराया गया है, सीबीआई कोर्ट मोहाली में ऐसे लगभग तीन दर्जन मामले लंबित हैं. वेरका ने कहा, "जबरन गायब करने और गैर न्यायिक हत्याओं के हजारों मामले हैं." उन्होंने दावा किया कि "मुल्तानी के मामले में भी, सीबीआई जांच को चिह्नित करने वाले उच्च न्यायालय के आदेशों को खारिज करने के लिए भारी भुगतान किया गया था."

सैनी से जुड़ा एक और ऐसा मामला व्यवसायी विनोद कुमार का है, जो मार्च 1994 में दो अन्य लोगों के साथ लापता हो गए थे. समाचार रिपोर्टों के अनुसार, विनोद, सैनी मोटर्स का एक फाइनेंसर था. सैनी मोटर्स लुधियाना सैनी के रिश्तेदारों द्वारा चलाया जाने वाला एक उद्यम था. सैनी की अपने रिश्तेदारों से कुढ़न थी और उसने विनोद से मदद मांगी, जिसे उसने अस्वीकार कर दिया. विनोद और उनके ड्राइवर, मुख्तियार को राज्य पुलिस ने 15 मार्च 1994 को पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय की पार्किंग से उठाया था और उसी दिन, एक अन्य पुलिस पार्टी ने विनोद के साले अशोक कुमार को लुधियाना से उठाया था. उस समय, सैनी लुधियाना के एसएसपी थे और उन पर तीन लोगों के अपहरण और लापता होने का आरोप लगाया गया था. दिसंबर 2017 में विनोद की मां अमर कौर, 103 वर्ष की आयु में अपने बेटे के लिए न्याय की प्रतीक्षा करते हुए मर गई. अपने अंतिम दिनों तक, कौर व्हीलचेयर में, सीबीआई की अदालत में तीस हजारी विशेष सीबीआई अदालत में आयोजित मामले की सुनवाई में शामिल होती थीं.

इस मामले को देख रही वकील शेल्ली शर्मा ने कहा कि वर्तमान में यह मामला "अभियोजन पक्ष के गवाह के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग के सतर्कता आयुक्त शरद कुमार के साक्ष्य'' के लिए निर्धारित है. उन्होंने कहा कि "सुमेध सिंह सैनी की देरी करने की चालबाजी की वजह से ट्रायल घोंघे की गति से चल रहा है." शर्मा ने मुझे बताया कि सैनी के वकील ने शिकायतकर्ता, विनोद के भाई आशीष कुमार वालिया की "लगभग अस्सी सुनवाई के तीन सौ से अधिक पन्नों की'' दुबारा जांच की. शर्मा ने कहा कि सैनी इस मामले में शायद ही कभी व्यक्तिगत रूप से पेश हुए हैं क्योंकि उन्हें अपने जीवन के लिए खतरे के आधार पर स्थायी छूट दी गई थी. उन्होंने कहा कि उनके वकील ने "जानबूझकर मुकदमे को लम्बा खींचने के लिए अप्रासंगिक जांच की."

शर्मा ने आरोप लगाया कि सैनी इतने प्रभावशाली थे कि उनके मामलों की सुनवाई करने वाले न्यायाधीशों को भी धमकी दी गई थी. उन्होंने विनोद के मामले की अध्यक्षता कर रहे न्यायाधीश वी. झांजी के मामले का हवाला दिया. 22 दिसंबर 1995 को झांजी ने अदालत के आदेश में कई ऐसे उदाहरण दर्ज किए. झांजी ने कहा, "इस दौरान मुझे इस मामले से हाथ खींच लेने की धमकी देने वाले गुमनाम टेलीफोन कॉल भी आ रहे थे और ऐसा एक फोन करने वाले ने कहा था कि मुझे उठा दिया जाएगा और भट्टी में फेंक दिया जाएगा. जैसा की तीनों को उनकी कार और स्कूटर के साथ फेंक दिया गया था. मैं अपने साथी न्यायाधीशों की उपस्थिति में इन सभी तथ्यों को मुख्या न्यायाधीश के संज्ञान में लाया था.” झांजी ने यह कहकर अपनी बात खत्म की कि सैनी की "कार्य-प्रणाली एक भय मनोविकार पैदा करने" की रही है, यहां तक कि न्यायपालिका के साथ भी.

पलविंदर द्वारा दायर मामले में सैनी की जमानत याचिका के वकील एपीएस देओल ने हालांकि, पंजाब सरकार पर आरोप लगाया कि वह बदला लेने का रवैया अपनाते हुए सैनी को झूठे मामलों में उसे फंसा कर उन्हें नुकसान पहुंचाना चाहती है. देओल द्वारा दायर की गई अग्रिम जमानत याचिका में कहा गया है कि सैनी कांग्रेस के नेता और वर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार, पंजाब विधानसभा के रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ करने, अवैध संपत्ति अर्जित करने के साथ ही अन्य आरोपों में एफआईआर दर्ज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे. जमानत याचिका के अनुसार, डीएसपी के पद पर भर्ती किए गए चहल के बेटे के साथ भाई-भतीजावाद के मामले में सैनी ने मुख्यमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार भरत इंदर सिंह चहल को भी निशाना बनाया था. वकील ने कहा कि सैनी को तब भी उनके भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के लिए निशाना बनाया जा रहा था, जब वह राज्य के सतर्कता ब्यूरो के प्रमुख थे.

देओल ने कहा कि "राज्य सरकार कोटकापुरा और बेहबलपुरा में पुलिस द्वारा हिंसा और बल प्रयोग से जुड़े मामलों में सैनी को गिरफ्तार करने के एजेंडे आगे बढ़ा रही थी." 14 अक्टूबर 2015 को पंजाब पुलिस बलों ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चला दीं, जो शांतिपूर्वक गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान का विरोध करने के लिए एकत्र हुए थे. पुलिस की कार्रवाई में दो प्रदर्शनकारी मारे गए. सैनी उस समय राज्य के डीजीपी थे. जुलाई 2018 में एक रिटायर्ड जज रंजीत सिंह की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया, जिसने सैनी को मौतों के लिए जिम्मेदार ठहराया. फिलहाल मामले की जांच एक एसआईटी द्वारा की जा रही है. देओल ने तर्क दिया कि चूंकि राज्य सरकार इन घटनाओं में सैनी को फंसाने में सफल नहीं हो पाई, इसलिए उसने पुराने मामलों को खोदना शुरू कर दिया है और पलविंदर का मामला इसका उदाहरण है.

यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि शुरू में, सिख गुरुद्वारा न्यायिक आयोग के अध्यक्ष सतनाम सिंह कलेर को सैनी की अग्रिम जमानत अर्जी के लिए कानूनी वकील के रूप में पेश किया जाना था. आयोग सिख धार्मिक स्थलों के लिए सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के गुरुद्वारों, संस्थानों और कर्मचारियों से संबंधित मामलों से संबंधित है. हालांकि, सिख संगठनों ने सैनी के बचाव में कलेर के शामिल होने की दृढ़ता से निंदा की. सिख भावनाओं को आहत करने के लिए कलेर को माफी मांगने की जल्दी थी और मामले से हट गए क्योंकि सिख समुदाय ने कई सिख युवाओं की यातना और गुम​शुदगी के लिए एक कुख्यात अधिकारी का प्रतिनिधित्व करने वाले कलेर पर अपना गुस्सा उतारा.

वास्तव में, सैनी की कुख्याति केवल राज्य तक सीमित नहीं है. अप्रैल 2013 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की एक रिपोर्ट में सैनी को मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए नाम लेकर अभियुक्त बनाया गया था. संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएचआरसी, जिसका मिशन दुनिया भर में मानवाधिकारों को बढ़ावा देना और उसकी रक्षा करना है, ने जो बताया उसे यहां अनसुना कर दिया गया. विडंबना यह है कि भारत जिनेवा स्थित यूएनएचआरसी का सदस्य है और उसने पिछले एक दशक में परिषद में तीन बार अपनी सेवा दी है. अंतिम कार्यकाल अभी भी जारी है.

 26 अप्रैल 2013 को, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति के सदस्य और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के क्षेत्र में एक विशेषज्ञ क्रिस्टोफ हेन्स ने यूएनएचआरसी की तेइसवें सत्र में अपनी "रिपोर्ट ऑफ़ द स्पेशल रैपोर्टॉरिटी ऑफ़ एक्स्ट्राजुडीरियल, समरी और आरबिटरी एक्सक्यूशन्स, मिशन टू इंडिया" प्रस्तुत की. हेन्स ने गैरकानूनी हत्या, कानून इतर और मनमानी हत्यओं के मामलों के विशेष दूत की हैसियत से 19 और 30 मार्च 2012 के बीच भारत की आधिकारिक यात्रा की. यह रिपोर्ट उनके मुख्य निष्कर्षों को प्रस्तुत करती है और भारत में जीवन के अधिकार के बेहतर संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए सिफारिशों का प्रस्ताव करती है.

रिपोर्ट में, हेन्स ने पंजाब में हालात का भयानक मामला दर्ज किया है, जहां मानवाधिकारों के उल्लंघन में शामिल सैनी जैसे अधिकारियों को जवाबदेह ठहराए जाने के बजाय पदोन्नत किया गया था. रिपोर्ट में कहा गया है, "स्थिति इस तथ्य से बढ़ी है कि जिन सुरक्षा अधिकारियों ने मानवाधिकारों का उल्लंघन किया है, जिन्हें अक्सर कानून के दायरे में लाने के बजाय लगातार पदोन्नत किया जाता है." 1990 के दशक में पंजाब में किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपी सुमेध सिंह सैनी के मामले में स्पेशल रैपॉर्टॉरिटी ने सुनवाई की, जिसे मार्च 2012 में पंजाब में पुलिस महानिदेशक के पद पर पदोन्नत किया गया था. हेन्स ने कहा कि मानवाधिकारों के उल्लंघन के अपराधियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के बजाय उन्हें पदोन्नत करना पंजाब के लिए कोई अनोखी बात नहीं है और भारत में गैर न्यायिक हत्याओं का स्तर अभी भी गंभीर विषय बना हुआ है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यायिक कार्यवाही में देरी भारत की सबसे गंभीर चुनौतियों में से एक है और जवाबदेही के लिए इसके स्पष्ट निहितार्थ हैं. ''उदाहरण के लिए, पंजाब में लंबी-चौड़ी और अप्रभावी कार्यवाही मौजूद हैं, जहां 1980 और 1990 के मध्य में बड़े पैमाने पर जबरन गुमशुदगी और सामूहिक दाह संस्कार हुए. इन गायबियों को दूर करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी एक संदर्भ में स्पष्ट है जहां जवाबदेही सुनिश्चित करने के कदम कथित तौर पर अनिर्णायक हैं. रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है कि पदोन्नति और "सुरक्षा अधिकारियों के लिए अन्य प्रकार के पुरस्कारों को तब तक नहीं प्रदान किया जाना चाहिए जब तक गैरकानूनी हत्याओं, जिसमें एनकाउंटर भी शामिल है, में लिप्त होने के संदेह में तथ्यों का उचित स्पष्टीकरण नहीं मिल जाता."

जब मैं सैनी से बलवंत के मामले के बारे में और उन पर विभिन्न आरोपों के बारे में पूछने के लिए पहुंचा, तो उन्होंने एकतरफा जवाब दिया. "यह सब - और इससे - उच्च न्यायपालिका के सामने रखा जाएगा."