नोवेल कोरोनवायरस महामारी का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बीच 6 मई 2020 को सुमेध सिंह सैनी पर, जिन्होंने 36 साल से भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी के रूप में नौकरी की, 29 साल पहले के एक मामले में दर्ज किया गया. सैनी ने 2012 से 2015 के बीच तीन साल तक पंजाब के पुलिस महानिदेशक के रूप में कार्य किया. सैनी के खिलाफ पलविंदर सिंह मुल्तानी ने मोहाली के मत्तोर पुलिस स्टेशन में दिसंबर 1991 में अपने भाई बलवंत सिंह मुल्तानी के कथित अपहरण और लापता होने के संबंध में प्राथमिकी दायर कराई थी. सैनी पर भारतीय दंड संहिता की छह धाराओं के तहत आरोप दर्ज किए गए थे जो अपहरण या हत्या के इरादे से अपहरण करने, अपराध के सबूत गायब करने, दस या अधिक दिनों तक गलत ढंग से कारावास में रखने, जबरदस्ती अपराध कबूल कराने के लिए स्वेच्छा से चोट पहुंचाने, एक लोक सेवक का कानून के विपरीत जाकर जो न्यायिक कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी रिपोर्ट, आदेश, फैसले या निर्णय को भ्रष्ट या दुर्भावनापूर्ण ढंग से सुनाना और आपराधिक साजिश से संबंधित हैं.
इस मामले में छह अन्य लोगों पर भी मामला दर्ज किया गया है. इन लोगों में पूर्व पुलिस उपाधीक्षक बलदेव सिंह सैनी, तत्कालीन इंस्पेक्टर सतबीर सिंह, तत्कालीन सब-इंस्पेक्टर हरसहाय शर्मा, जगीर सिंह और अनूप सिंह और सहायक सब-इंस्पेक्टर कुलदीप सिंह शामिल हैं. 11 मई को सैनी को एक स्थानीय अदालत ने मामले में अग्रिम जमानत दे दी थी और उस अदालत ने उन्हें सात दिनों के भीतर जांच अधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर जांच में शामिल होने का भी निर्देश दिया था. मोहाली पुलिस ने मामले के लिए एक विशेष जांच दल का गठन किया है जिसके प्रमुख पुलिस अधीक्षक हरमनदीप सिंह हंस हैं. एसआईटी ने कुछ प्रमुख गवाहों का बयान पहले ही दर्ज कर लिया है और सैनी अदालत के आदेश के अनुसार जांच में शामिल हो गए हैं.
जबकि अदालत ने सैनी पर कड़े प्रतिबंध लगाए थे अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश मोनिका गोयल, जो मामले की अध्यक्षता कर रही थीं, ने कथित अपराध के लगभग तीन दशकों बाद एफआईआर के समय और उसके पीछे की प्रेरणा पर सवाल उठाए हैं. जमानत के आदेश में गोयल ने पलविंदर के इस तर्क को खारिज कर दिया कि सैनी बहुत प्रभावशाली थे और इसलिए वह पहले शिकायत नहीं दर्ज करा पाए थे, जिसके आधार पर 6 मई को एफआईआर दर्ज की गई थी. गोयल ने कहा, "इस बात का कोई कारण नहीं बताया जा रहा है कि मौजूदा शिकायतकर्ता ने जून 2018 (जब सैनी सेवानिवृत्त हुए) के बाद से इतने लंबे समय तक क्यों चुप्पी साधे रखी और शिकायत के लिए यही वक्त क्यों चुना जब कोविड-19 के प्रकोप के चलते पूरे पंजाब राज्य में कर्फ्यू लगा हुआ है और इस दौरान 29 साल पुराने मामले में एफआईआर दर्ज कराने के लिए जालंधर से यहां आए.”
हो सकता है कि गोयल का ऐसा सोचना मुनासिब हो, लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि सैनी की प्रतिष्ठा पलविंदर के दावे का आधार है. सेैनी की बदनामी इस बात से भी थी कि अप्रैल 2013 में मानव अधिकार परिषद की रिपोर्ट में मानवाधिकारों के उल्लंघन में उनका नाम आया है.बलवंत के लापता होने के मामले में आए कई उतार-चढ़ावों और सैनी के करियर के प्रक्षेपवक्र को एक बार फिर पीछे मुड़कर देखें तो आईपीएस के तौर पर सैनी के करियर की बेहद जटिल और विवादास्पद प्रकृति सामने आ जाती है.
सैनी 1982 में आईपीएस में शामिल हुए और अगले 20 वर्षों में छह जिलों में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के रूप में काम किया. बलवंत के लापता होने के समय वह चंडीगढ़ में एसएसपी थे. अस्सी और नब्बे के दशक के दौरान पंजाब में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के रूप में, सैनी आतंकवाद रोधी और बाद में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में शामिल थे. कहा जाता है कि उन्होंने राज्य के एक पूर्व डीजीपी केपीएस गिल के, जिन्हें खालिस्तानी आंदोलन को बेअसर करने का श्रेय दिया जाता है, संरक्षण का लाभ लिया. गिल ने कथित तौर पर उन्हें खुली छूट दी हुई थी. दो बार पंजाब के डीजीपी रहे गिल को उग्रवाद पर अंकुश लगाने के लिए अपनाई गई रणनीति के लिए आने वाले वर्षों में गंभीर आलोचना का सामना करना पड़ा था. इन आलोचनाओं में मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन से लेकर फर्जी मुठभेड़ों और अतिरिक्त न्यायिक हत्याओं के आरोप शामिल हैं. 2012 में सैनी की पंजाब के पुलिस महानिदेशक के रूप में नियुक्ति के समय वह इस पद पर पहुंचने वाल सबसे जवान अधिकारी थे. समाचार रिपोर्टों के अनुसार, सैनी को पदोन्नती देने के लिए चार वरिष्ठ अधिकारियों को लांघा था और शिरोमणि अकाली दल तथा उसकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में बस आए ही थे.
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