नए भारत में पनपते अंधविश्वास आधारित अपराध

बनारस में पूजा-पाठ करता एक पंडित. फ्रेंकोइस ले डायस्कॉर्न / गामा-राफो / गेटी इमेजिस

“हमे नहीं पता कि क्या हुआ है!”

आदिवासी कार्यकर्ता और पेशे से डॉक्टर अभय ओहरी रतलाम, मध्य प्रदेश में जय आदिवासी युवा शक्ति नाम का एक आदिवासी युवा संगठन चलाते हैं. एक दिन उन्हें संगठन के एक कार्यकर्ता का फोन आया, जिसने घबराई हुई आवाज में उन्हें जल्द से जल्द रतलाम जिला अस्पताल पहुंचने के लिए कहा. उन्हें बताया गया कि “राजाराम खादरी का शव यहां है. वो मर चुका है. उस पर कुछ तंत्र-मंत्र किया गया है.”   

ओहरी कुछ समझ नहीं पा रहे थे. 20 फरवरी 2021 की सुबह जब उन्हें यह फोन आया, तब वह नींद से जगे ही थे. हड़बड़ी में अस्पताल पहुंचने के दौरान उनके दिमाग में केवल 27 वर्षीय राजाराम खादरी से जुड़ी बातें घूम रही थीं. ओहरी के बाद राजाराम ही वह शख्स थे, जो समूचे आदिवासी गांव में डॉक्टर बन पाए थे. कुछ दिन पहले ही राजाराम ने ओहरी को बताया था कि वर्षों की निजी प्रैक्टिस के बाद उन्हें सरकारी आयुर्वेदिक डॉक्टर के रूप में नियुक्ति मिल गई है. दोनों सहकर्मी आखिरी बार राजाराम के दो वर्षीय बेटे आदर्श के जन्मदिन के मौके पर मिले थे. 2021 की गर्मियों में जब मैं ओहरी से उनके क्लिनिक में मिली, तो उन्होंने अपनी और राजाराम की आखिरी मुलाकात के बारे में मुझे बताया जो मौत से बस दो महीने पहले हुई थी.

अंग्रेजी हुकूमत के समय में निर्मित अस्पताल के पुराने सफेद भवन में पहुंचने पर ओहरी ने राजाराम का शव देखा. पूरा शरीर कुमकुम से सना हुआ था. शरीर पर कई जगह पीले रंग के लच्छे भी बंधे हुए थे. ओहरी कहते हैं, “मैं एक डॉक्टर हूं. मैंने हजारों लाशों का निरीक्षण किया है. पर फिर भी मैं राजाराम को देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.” राजाराम के हाथ-पांव पर निशान थे, जो इशारा कर रहे थे कि उसे बंधक बनाया गया था. साथ ही पूरे शरीर पर धारधार वस्तुओं से की गई चोटों के भी कई निशान थे. मृत्यु के पश्चात भी शव से खून का बहना बंद नहीं हुआ था.           

ओहरी के अस्पताल पहुंचने से पहले वहां के स्टाफ को राजाराम की जेब में एक पहचान-पत्र मिला था, जो उसकी 28 वर्षीय पत्नी सीमा कटारा का था. स्टाफ सदस्यों को यह समझते देर नहीं लगी कि यह वही सीमा है, जो उनके अस्पताल में नर्स का काम करती थी. उन्होंने उसे फोन लगाया, पर उसका नंबर बंद था. उसके परिवार में भी कोई फोन का जवाब नहीं दे रहा था. ओहरी कहते हैं, “मुझे महसूस हुआ कि कुछ बहुत भयावह घटा है. मैंने तुरंत ही पुलिस को उनके घर की तलाशी के लिए सूचना दी.”  

शुरुआती जानकारी मिलने के बाद पास के शिवगढ़ स्थित पुलिस थाने से कुछ पुलिस अधिकारी सुबह के तकरीबन 8 बजे राजाराम के गांव ठिकरिया पहुंचे. वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा कि सड़क के दोनों ओर खड़ी दो नीली इमारतों वाले राजाराम के पुश्तैनी घर के बीचोबीच तकरीबन नौ महिलाएं झूमते हुए “जय हो” चिल्ला रही थी. ये सभी महिलाएं राजाराम की रिश्तेदार थी.          

राजाराम की मां थ्वारी बाई और पिता कन्हैया लाल खादरी की कुल आठ बेटियां और दो बेटे थे. राजाराम के छोटे भाई का नाम विक्रम है. उसकी उम्र 26 वर्ष है. संतोष सभी भाई-बहनों में सबसे बड़ी है लेकिन परिवार में सबसे अधिक दबदबा 40 वर्षीय मंझली बहन तुलसी पलासिया का है. तुलसी के पति का नाम राधेश्याम है और उनका परिवार ठिकरिया से 35 किलोमीटर दूर धराड़ में रहता है. पुलिस के अनुसार तुलसी पिछले तीन से चार वर्षों से भोपा का काम करती है, जिन्हें स्थानीय स्तर पर चुड़ैल और भूतप्रेत से जुड़ी समस्याओं का उपचार करने वाला माना जाता है. तुलसी का मानना है कि उसके 17 वर्षीय बेटे के पास अलौकिक शक्तियां है और वह शेषनाग का अवतार है. पौराणिक कथाओं में शेषनाग को सभी नागों का राजा माना जाता है. हिंदू भगवान विष्णु को अक्सर शेषनाग पर आराम करते हुए चित्रित किया जाता है. तुलसी, उसकी बेटी माया, एक और नाबालिग पुत्र, राहुल और उसके जीजा के बेटे समेत पूरा परिवार तंत्र-मंत्र से जुड़ी विधियों में शामिल रहते थे.   

पारंपरिक तौर पर भोपाओं को भील आदिवासी समुदाय में पुजारी-गायक का दर्जा हासिल है. वे ‘फड़’ को पूजते हैं, जो उनके लिए एक प्रकार से मंदिर की भूमिका निभाता है. फड़ एक लंबे कपड़े का बना होता है, जिस पर स्थानीय देवी-देवताओं से जुड़े बहुधा मंत्र और लोक कथाएं लिखी हुई होती हैं. बीमारी या किसी भी संकट की घड़ी में गांव के लोगों द्वारा बुलाए जाने  पर भोपा ऐसे ही एक ‘फड़’ के माध्यम से तमाम विधियों को अंजाम देते हैं.        

राजाराम के घर पहुंची पुलिस ने जब वहां मौजूद महिलाओं को अलग हटने के लिए कहा, तो उन्होंने खुद को हिंदू देवी दुर्गा का अवतार बताते हुए अधिकारियों को अनाप-शनाप कहना शुरू कर दिया. उस दिन पुलिस दल का हिस्सा रहीं कांस्टेबल शीना खान ने मुझे बताया कि पुलिस भी कुछ समझ नहीं पा रही थी. इसलिए उन्होंने अधिक बल आने तक इंतजार करने का निर्णय किया. तब तक घटना स्थल पर भीड़ जुटने लगी थी. दस मिनट के बाद भीतर से किसी ने कुछ देर के लिए एक खिड़की खोली. शीना ने देखा कि अंदर दो बच्चे रो रहे थे. पुलिस को भी अंदर से लगातार चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. शीना कहती हैं, “जब हमने देखा कि अंदर बच्चे भी हैं, तो हमें उनकी चिंता होने लगी. अल्लाह जाने उस कमरे में क्या चल रहा था.” पुलिस ने और देर न करते हुए दरवाजा तोड़कर भीतर प्रवेश करने का फैसला किया. 

शीना याद करती हैं, “मैंने वहां जो देखा, उसे मैं कभी भूल नहीं सकती.” पूरा कमरा अगरबत्तियों के धुएं में इस कदर लिपटा हुआ था कि अंदर कुछ नजर नहीं आ रहा था. हर जगह खून, टूटे हुए नारियल, नींबू, कुमकुम, कई किलो जली हुई अगरबत्तियां और लकड़ियां बिखरी हुई थी. तुलसी की बेटी माया सीमा और राजाराम के दो साल के बेटे आदर्श के पेट के ऊपर बैठी हुई थी. माया के एक हाथ में तलवार थी और दूसरे हाथ की उंगलियां आदर्श के मुंह के अंदर थी. आदर्श की मौत हो चुकी थी. दूसरे कोने में तुलसी थ्वारी बाई के पेट के ऊपर बैठकर उनका गला दबाते हुए बाल खींच रही थी. थ्वारी के शरीर से तलवार के घावों के कारण बेतहाशा खून बह रहा था. तीसरे कोने में विक्रम के घायल बच्चे खौफ से चीख रहे थे और परिवार के अन्य सदस्यों ने उन्हें पकड़ा हुआ था. पुलिस के अंदर आने के बाद भी माया और तुलसी ने आदर्श और थ्वारी बाई के शरीर को इतना कस कर जकड़े रखा कि उन्हें अलग करने के लिए पुलिस दल के तीन से पांच सदस्यों को जमकर मशक्कत करनी पड़ी.      

शीना कहती हैं, “वे सब अपनी किसी अलग ही दुनिया में थे. पहले उन्होंने हमारी ओर कोई ध्यान नहीं दिया. बाद में वे हमसे गाली-गलौज करने लगे.” वह याद करती हैं कि किस तरह वहां मौजूद महिलाएं चिल्ला रही थीं कि सीमा एक डायन और चुड़ैल है. उनका कहना था कि सीमा ने राजाराम को अपने वश में कर लिया था और और अगर वे चुड़ैल को मार देंगी, तो राजाराम फिर से जीवित हो उठेगा.  यह सब सुनते ही पुलिस ने सीमा की तलाश जारी कर दी. थोड़ी देर में वह उन्हें सड़क के दूसरी ओर मवेशियों के लिए बनी जगह से सटे एक कमरे में मिली. सीमा के शरीर से खून बह रहा था. वह घायल थी और बेहोश थी. पर जिंदा थी. तब तक वहां पहुंच चुके उसके माता-पिता तुरंत ही उसे अस्पताल ले गए. उसके गले में दो रुपए का एक सिक्का अटका हुआ मिला, जिसके कारण वह बोल नहीं पा रही थी.    

तुलसी, उसकी बेटी माया और उसका बेटा, जिसे वह शेषनाग का अवतार मानती थी, को हिरासत में लेकर उन पर हत्या का मुकदमा दायर किया गया. साथ ही राहुल और राजाराम के छोटे भाई-बहन विक्रम और सागर को भी हिरासत में लिया गया. शिवगढ़ पुलिस थाने के हेड कांस्टेबल हेमंत परमार कहते हैं, “वे कुछ भी अनाप-शनाप बके जा रहे थे. मैं नहीं जानता कि वे किसी देवी-देवता के वश में थे या नाटक कर रहे थे. पर 21 और 22 फरवरी के दोनों दिन हिरासत में उनका व्यवहार ऐसा ही रहा.” इस दौरान तुलसी और माया दावा करते रहे कि सीमा के अंदर चैनपुरा का वास था. ठिकरिया से तकरीबन 15 किलोमीटर दूरी पर स्थित चैनपुरा गांव बहुत से आदिवासी देवी-देवताओं के मंदिरों का गढ़ है. ओहरी बताते हैं कि पूरे क्षेत्र में चैनपुरा को एक आत्मा के रूप में जाना जाता है. तुलसी और माया ने पुलिस को बताया कि शेषनाग के कहने पर ही वे दोनों चैनपुरा की आत्मा से अपने परिवार की रक्षा करने की कोशिश कर रही थी.   

पुलिस जांच में सामने आया कि पूरे कर्मकांड में तुलसी और उसका परिवार इसी आत्मा को मारने का प्रयास कर रहे थे. उनका मानना था कि आत्मा ने सीमा को अपने वश में कर लिया था. सीमा के बेहोश होने पर उन्हें लगा कि आत्मा राजाराम के शरीर में प्रवेश कर गई है. राजाराम की मौत के बाद उन्हें लगा कि आत्मा आदर्श के शरीर में चली गई थी. जब आदर्श की भी मौत हो गई, तो उन्हें लगा कि आत्मा ने थ्वारी बाई के शरीर के अंदर प्रवेश कर लिया था.  

इस वारदात के आठ दिन बीत जाने पर सीमा को उसके पति और बच्चे की मृत्यु की खबर दी गई. गले में फंसे सिक्के को निकालने के लिए उसे अस्पताल में कई तरह की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ा. वो एक महीने तक बेज़ुबान रही, पर अपनी आपबीती बयां करने के लिए मौत को धता बता आई. मैं जुलाई में सीमा से मिलने जिला अस्पताल पहुंची. तब तक वह नर्स के रूप में अपने काम पर लौट चुकी थी. कभी राजाराम के साथ खरीदे गए घर में अब वो अकेली अपने माता-पिता के साथ रहती है. सीमा बताती है, “वो तांत्रिक विधि थी. पर वो उसे ढंग से पूरा नहीं कर पाए.” उसका कहना है कि उसकी आर्थिक स्वतंत्रता के चलते ये पूरी विधि उसके परिवार को नुकसान पहुंचाने के लिए रची गई थी.   

अपने दो वर्षिय बेटे आदर्श के साथ सीमा और राजाराम. सीमा और आदर्श की मृत्यु परिवार द्वारा अंधविश्वास में आकर किए गए अनुष्ठान में हुई थी. राकेश पोरवाल रतलाम

सीमा ने कई मायनों में अपने जीवन में परंपरागत रुढ़ियों को तोड़ा है. वो अपनी ससुराल में ऐसी पहली महिला थी जो शिक्षित भी थी और नौकरी भी करती थी. वो कहती है, “मेरे पिताजी हेडमास्टर थे. इसलिए वे चाहते थे कि उनकी बेटियां भी शिक्षित बनें. वरना हमारे परिवार में कोई भी लड़की शिक्षित नहीं है.” पितृसत्तात्मक ढर्रे से अलग चलते हुए उसने शादी के बाद अपना उपनाम नहीं बदला. सीमा और राजाराम का विवाह चार वर्ष पहले हुआ था. पिछले साल से ही दोनों रतलाम स्थित अपने नए घर में रह रहे थे. घर खरीदने के लिए लिया गया लोन सीमा के नाम पर था. दोनों का दांपत्य जीवन एकदम खुशहाल था. 2020 में ही उन्होंने अपने बेटे आदर्श का दूसरा जन्मदिन मनाया था.  

22 फरवरी को राजाराम की सबसे छोटी बहन सागर और उसकी सबसे बड़ी बहन की बेटी, जिसका नाम भी सीमा ही है, दोनों का ठिकरिया में विवाह होना था. ठिकरिया में रहने वाले अधिकतर ग्रामीण भील आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. ओहरी बताते हैं, “वे अपने भील तौर-तरीकों को लेकर बेहद सख्त हैं. वे भील समुदाय के बाहर के किसी भी व्यक्ति को आसानी से गांव में बसने नहीं देते हैं. अगर कोई वहां ज़मीन लेकर रहने भी लगे, तो पूरा गांव मिलकर उसे अलग-थलग कर देता है.” सीमा बताती है कि भील समुदाय से होने के बावजूद उनके परिवार में हिंदू देवी देवताओं के प्रति आस्था थी और वह बहुत से हिंदू त्यौहार भी मनाया करते थे. 

शादी से कुछ बारह दिन पहले राजाराम 10 फरवरी को तैयारियों के लिए ठिकरिया रवाना हुआ, जबकि सीमा अपने काम के चलते रतलाम में ही रुक गई. 16 फरवरी को वो एक दिन के लिए ठिकरिया गई और फिर वापस रतलाम लौट आई. उसी दिन सागर की भी तबियत बिगड़ गई. पुलिस के अनुसार तुलसी ने अपने पूरे परिवार को विश्वास दिलाया कि सीमा ने ही सागर पर काला जादू किया था और उस से निपटने का एकमात्र रास्ता यही था कि उसके 17 वर्षीय पुत्र को बुलाकर एक विधि का आयोजन किया जाए. इसके बाद पूरे परिवार ने मिल कर तलवार, कुमकुम, नारियल, अगरबत्ती और विधि में उपयोग की जाने वाली तमाम अन्य सामग्री एकजुट की. 

18 फरवरी की शाम सीमा रतलाम से शादी समारोह में शामिल होने पहुंची थी. आधी रात के करीब एक घंटे बाद विक्रम और तुलसी के 17 वर्षीय बेटे ने उसे जगाया. इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती, वे उसे घसीटकर घर के सामने एक कमरे में ले गए. वहां राजाराम और उसका परिवार पहले से ही मौजूद था. सीमा याद करती है, “मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या हो रहा है. मंत्र पढ़ते और मुझे कोसते हुए वह मेरे शरीर से गहनों समेत सब चीज़ें उतारने लगे." सीमा को लगभग नग्न अवस्था में उस कमरे के बीच में बिठाया गया. फिर तुलसी, उसके बच्चे और विक्रम उसकी पिटाई करने लगे. सीमा बताती है, “वह मुझे मारते हुए कहते रहे कि मैं डायन हूं. उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने अपना सारा पैसा कहां रखा है. फिर उन्होंने मुझसे अलमारी की चाबियां ले ली.”

सीमा के पास अलमारी में करीब ढाई लाख रुपये थे. उसका कहना है कि पैसे लेने के बाद भी वे उसे रॉड और धारधार चीजों से पीटते रहे. उन्होंने उसके कपड़ों और श्रृंगार सहित सारा सामान छीनकर अपने घर से कुछ किलोमीटर दूर एक नाले में फेंक दिया. सीमा ने मुझे बताया कि इस दौरान राजाराम भी कमरे में मौजूद था, लेकिन न तो उसने उस पर हमला किया और न ही उसे बचाने की कोई कोशिश की. “वह कुछ दूरी पर खड़े थे और एकदम चुप थे. वहां बहुत तेज धार्मिक संगीत भी बज रहा था.” सीमा आगे बताती है, “वे पूरी रात नहीं रुके. आधी रात के आसपास उन्होंने मुझे जबरन कच्चे चावल और दाल खिलाई. उन्होंने मुझ पर कुमकुम लगाया और फिर मुझे दो रुपये का सिक्का निगलने के लिए मजबूर किया.” सिक्का निगलते ही सीमा उल्टी करने लगी. वो कहती है, “'लेकिन उन्होंने मुझे बहुत पानी पिलाया, जिससे सिक्का मेरे गले में ही फंस गया. मैं बोल नहीं पा रही थी.”

रात भर की यातना के बाद सीमा को घर के पीछे एक पुराने बरगद के पेड़ से बांध दिया गया. चूंकि वह दिन भर बेहोश थी, इसलिए उसे आगे की घटनाएं पूरी तरह याद नहीं हैं. उसे बस ये याद है कि उसने दो बार भागने की कोशिश की थी. शाम को उसे एक बार फिर घसीटकर उस कमरे में ले जाया गया, जहां एक रात पहले उसे प्रताड़ित किया गया था. इस बार उसके पति और बच्चे को भी निशाना बनाया गया. राजाराम को भी जंजीर से बांधकर उसे कच्चे चावल और दाल खिलाई गई और उसके शरीर पर कुमकुम लगा दिया गया. जब घरवालों ने उसे पीटना शुरू किया, तब सीमा को दूसरे कमरे में बंद कर दिया गया. उसके बाद क्या हुआ, यह उसे याद नहीं.

सीमा ने मुझे बताया, “हमने हाल ही में रतलाम में एक घर खरीदा था. वे जानते थे कि हमने शादी के के लिए अलमारी में नकदी रखी हुई थी. शायद उन्होंने सोचा होगा कि इस तांत्रिक विधि के माध्यम से हमें बहका कर वे हमारे सारे पैसे हड़प लेंगे.” सीमा कहती है कि इस भयावह घटना से पहले भी वह कई बार अपने ससुराल वालों के साथ असहज महसूस करती थी. वह कहती है, “मैंने कई बार उनके अंदर हमारे प्रति जलन देखी. मैं कभी अपने बच्चे को अपनी ननद के पास नहीं छोड़ती थी, क्योंकि मुझे पता था कि वे उसकी देखभाल नहीं करेंगे. हमारी तरक्की के चलते उनकी ओर से हमेशा किसी न किसी तरह का तनाव बना रहता था.”

तुलसी के पिता कन्हैया लाल, जो ठिकरिया में एक सम्मानित और समृद्ध शख्स माने जाते हैं, कभी गांव के सरपंच थे. उन्होंने कहा कि तुलसी ने खाने में कुछ नशीला पाउडर मिला दिया था, जिसके बाद सब उसका कहा करने को राजी हो गए. बाद में उन्होंने मुझे बताया कि एक हालिया चोट के कारण वह विधि के दौरान मौजूद नहीं थे. पुलिस ने इसकी पुष्टि की, लेकिन साथ ही कहा कि परिवार को किसी तरह का नशीला पदार्थ खिलाये जाने की कोई पुष्टि नहीं की गई है. फिलहाल जमानत पर बाहर 17 वर्षीय आरोपी से जब मैंने बात की, तो उसने थोड़ा अकबकाते हुए कहा कि वो शेषनाग का अवतार "था". उसने कहा कि उसके परिवार ने उसे बताया था कि उसके शरीर में शेषनाग का वास था, लेकिन अब वह वहां से जा चुके हैं. जब मैंने उससे पूछा कि उस रात क्या हुआ था, तो उसने बस यही कहा कि वो "एक तांत्रिक विधि" थी और अब उसे सब कुछ याद नहीं है.

राजाराम की मां थवारी थवारी बाई, जब पुलिस ने वहां पहंचकर अनुष्ठान रुकवाया तो उन्होंने पाया कि उनकी बेटी तुलसी आत्मा को वश में करने के लिए उनके पेट पर बैठकर गला घोंटते हुए उनके बाल खींच रही है. राकेश पोरवाल रतलाम

कन्हैया लाल के चेहरे पर पश्चाताप साफ दिखाई दे रहा था. इस घटना के कुछ दिनों बाद ही तुलसी के पति राधेश्याम ने आत्महत्या कर ली. कुछ दिनों बाद उसके ससुर की भी मृत्यु हो गई. कन्हैया लाल थ्वारी बाई के शरीर पर तलवार के गहरे ज़ख्म की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “मेरा एक बेटा मर चुका है. दूसरा जेल में है. घर की दो शादियां टल गई हैं. अंधविश्वास ने मेरे परिवार का सत्यानाश कर दिया.” राजाराम और उसके बेटे की मौत की घटना कोई दुराचार की कहानी भर नहीं है. ऐसी हत्याएं अमूमन अंधविश्वास पर आंख मूंद कर किये जाने वाले उस अथाह भरोसे से रंगी हुई होती हैं, जिसे अक्सर कानून की अदालत में नजरअंदाज कर दिया जाता है.

भारत में काले जादू और तंत्र-मंत्र से इलाज जैसी चीज़ों में लोगों की आस्था होना एक आम बात है. इस साल मुझे अपनी रिपोर्टिंग के दौरान छह महीने से अधिक समय तक कई राज्यों को कवर करते हुए बहुत सी जगहों पर शैतानों, राक्षसों, भूतों, जिन्नों और बुरी आत्माओं को निर्विवाद रूप से मानने वाली आस्था को करीब से समझने का अवसर मिला. भारतीय धार्मिक प्रथाओं पर प्यू रिसर्च सेंटर के एक हालिया सर्वेक्षण से पता चला है कि लगभग आधी भारतीय आबादी परियों और आत्माओं में विश्वास करती है. साथ ही 71 प्रतिशत गंगा द्वारा शुद्धिकरण में, 38 प्रतिशत पुनर्जन्म में, 76 प्रतिशत कर्म में और 70 प्रतिशत आबादी भाग्य में विश्वास रखती है. ऐसी मान्यताओं को हिंदू, मुस्लिम, सिख, और ईसाई  समेत सभी धार्मिक समूहों में किसी न किसी रूप में माना जाता है.

भारत के घरेलू ढांचों में अंधविश्वास की पैठ आम है, भले ही उसकी भौगोलिक दिशा, शैक्षिक दशा या धार्मिक प्रवृत्ति कुछ भी हो. इसका कई उदाहरण रोजमर्रा के जीवन में देखे जा सकते हैं. अक्सर नए घर या गाड़ी की खरीद पर पुजारियों को बुलाकर पूजन की विधि की जाती है. कई लोग सप्ताह के कुछ चुनिंदा दिनों में मांसाहारी भोजन से दूर रहते हैं. अधिकांश परिवार विवाह और नौकरी सहित जीवन के तमाम अहम पहलूओं पर कोई निर्णय लेने के लिए ज्योतिषीय भविष्यवाणियों पर निर्भर रहते हैं. ऐसा माना जाता है कि इन प्रथाओं और विधियों के माध्यम से बुराई को दूर या सौभाग्य को आमंत्रित किया जा सकता है. यह वातावरण बहुत से छद्म बाबाओं- जिनमें कई साधुओं, गुरुओं और तांत्रिकों को गिना जा सकता है- के एक तंत्र को फलने-फूलने के भरपूर अवसर प्रदान करता है.

बहुत से लोगों के लिए अंधविश्वास अनिश्चितता से निपटने का एक माध्यम होता है. यह उन्हें एहसास दिलाता है कि वे अनिश्चित घटनाओं को काबू कर सकते हैं. एक समाजवादी मराठी साप्ताहिक 'साधना' के संपादक विनोद शीर्षस्थ ने मुझे बताया कि चूंकि अंधविश्वास एक झूठी मान्यता पर आधारित होता है,  इसलिए यह व्यक्ति में या तो आत्मविश्वास जगाता है या भय को बढ़ावा देता है. उदाहरण के लिए, यह विश्वास कि "यदि मैं उस बाबा का आशीर्वाद लेता हूं तो मैं इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता हूं", आत्मविश्वास को प्रेरित करता है. पर यही विश्वास इस रूप में भय भी पैदा कर सकता है कि "यदि मैं उस बाबा का आशीर्वाद नहीं लेता, तो मैं असफल हो जाऊंगा." बहुत से बाबा ऐसी भावनाओं का भरपूर दोहन करना जानते हैं.

किसी चीज़ को अंधविश्वास से जोड़ना आम तौर पर उसकी छवि को ठेस पहुंचा सकता है. फिर भी लंबे समय से चली आ रही कई अंधविश्वासी मान्यताओं को न केवल धार्मिक आस्था का अभिन्न अंग माना जाता है, बल्कि उससे जुड़ी कई प्रकार की सुरक्षा भी प्रदान की जाती है. यह बात हिंदू धर्म के साथ-साथ ईसाई, इस्लामी और आदिवासी आस्था प्रणालियों पर भी लागू होती है. अंधविश्वास को खासकर तब और बल मिलता है, जब उसका इस्तेमाल समुदायों में पहले से मौजूद पूर्वाग्रहों को हवा देने के लिए किया जाता है. अंधविश्वासी मान्यताएं अक्सर उत्पीड़न और अन्याय को सही ठहराती हैं. इसके चलते समाज में वर्चस्व की यथास्तिथि बनी रहती है, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की आपराधिक छवि गढ़ी जाती है और लोगों को डराकर उन्हें मूक दर्शक बना कर रखा जाता है. वहीं इस मुद्दे के दूसरे छोर पर अंधविश्वास आधारित अपराध हैं, जिसमें आए दिन मानव बलि और जादू-टोने जैसे बहुधा किस्से सुनने को मिलते हैं.

ओहरी ने मुझे बताया कि उन्होंने स्वयं आदिवासी क्षेत्र में ऐसी कई अंधविश्वासी घटनाएं देखी हैं. वह कहते हैं, “जब मैं आदिवासी मालवा क्षेत्र में एक डॉक्टर के रूप में तैनात था, तो मैंने देखा कि वहां बहुत से लोग डॉक्टरों की तुलना में ऐसे भोपाओं, ओझाओं और तांत्रिकों के पास जाना अधिक पसंद करते थे. राजाराम के साथ जो हुआ, वह अपवाद नहीं है."

 लेकिन राजाराम के साथ जो हुआ वह वास्तव में अपवाद है या नहीं, यह जानने का कोई ठोस तरीका नहीं है. भारत में अंधविश्वास से संबंधित अपराधों पर लगातार डाटा संकलित नहीं किया जाता है. इसके खिलाफ कोई राष्ट्रव्यापी कानून भी नहीं है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने 2013 में हत्या के मकसद के रूप में मानव बलि और डायन प्रथा पर डाटा एकत्र करना शुरू किया था, लेकिन इसे दो साल के भीतर बंद कर दिया गया. इस अवधि के दौरान भी ऐसे हजारों अपराध दर्ज किए गए थे. यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि अंधविश्वास आधारित अपराध कहां तक और कितनी तेज़ी से फैल रहे हैं. लेकिन कहे-सुने साक्ष्य और स्थानीय समाचार पत्रों में इस तरह के मामलों की बढ़ती ख़बरों के अनुसार ऐसे अपराध धड़ल्ले से फल-फूल रहे हैं. बहुत से छद्म बाबा, जिनमें से कई काले जादू में विश्वास करते हैं और अंधविश्वासी कर्मकांडों का अभ्यास करते हैं, पहले से अधिक संगठित होकर जनता में अपनी पैठ मज़बूत कर रहे हैं.

जहां अंधविश्वास होता है, वहां उसके खिलाफ विद्रोह भी पनपता है. भारत में जहां एक ओर तर्कवादियों का लंबा इतिहास रहा है, तो वहीं हालिया समय में अंधविश्वास के खिलाफ मुखर नामों की हत्याएं दर्शाती हैं कि ऐसे चिंतकों पर खतरा बढ़ता जा रहा है. कड़े अंधविश्वास विरोधी कानूनों की मांग करने वाले तर्कवादियों में शामिल नरेंद्र दाभोलकर की 2014 के आम चुनावों से कुछ महीने पहले हत्या कर दी गई थी. इन चुनावों में हिंदू राष्ट्रवादी नेता नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री चुना गया था. मोदी के पदभार ग्रहण करने के एक साल के भीतर ही दो अन्य तर्कवादियों , महाराष्ट्र के  गोविंद पानसरे और कर्नाटक के एमएम कलबुर्गी, की भी हत्या कर दी गई. एक पुलिस जांच में पाया गया कि अंधविश्वास विरोधी विधेयक पर चर्चा के दौरान कलबुर्गी के कुछ बयानों को "हिंदू विरोधी" माना गया था और यही आगे चलकर उन पर हुए हमले की वजह भी बना.

दाभोलकर की हत्या के तुरंत बाद कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के गठबंधन वाली महाराष्ट्र सरकार ने 2013 में मानव बलिदान और अन्य अमानवीय, हानिकारक और अघोरी प्रथा व काला जादू रोकथाम और उन्मूलन अधिनियम को पारित किया. यह अपने किस्म का पहला राज्य-स्तरीय अंधविश्वास विरोधी कानून था. लेकिन कई लोग मानते हैं कि यह आनन-फानन में लिया गया निर्णय था और आज भी यह दाभोलकर की असल मांगों का महज़ एक हल्का प्रारूप भर है. इस कानून का घोषित उद्देश्य है, "समाज में सामाजिक जागृति और जागरूकता लाना", "अज्ञानता पर पनप रही हानिकारक और भयावह प्रथाओं के खिलाफ समाज में आम लोगों की रक्षा के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित सामाजिक वातावरण बनाना" और "तथाकथित अलौकिक या जादुई शक्तियों या आमतौर पर बुरी आत्माओं के बहाने काले जादू के रूप में की जाने वाली प्रचारित कुरीतियों" को मिटाना. लेकिन इतना सब कुछ कहने के बाद भी यह कानून अंधविश्वास को परिभाषित करने में विफल रहता है.

रंजना गावंडे ने मुझे बताया, “हमें महाराष्ट्र में पूरे अठारह साल के संघर्ष के बाद कई खामियों से भरा एक अंधविश्वास विरोधी कानून मिल पाया है. ऐसे में हम एक केंद्रीय कानून की उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं?" गावंडे दाभोलकर द्वारा स्थापित महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की एक जमीनी कार्यकर्ता हैं और बीस वर्षों से अंधविश्वास से जुड़ी कुप्रथाओं के खिलाफ लामबंद हैं. वह कहती हैं, “एक केंद्रीय कानून मिल पाना तो अभी दूर के सपने जैसा है.” 2017 में कर्नाटक ने राज्य में एक अंधविश्वास विरोधी कानून पारित किया था, जिस पर अभी भी बहुत काम किए जाने की दरकार है.

किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट में भारतीय राजनीति और समाजशास्त्र के प्रोफेसर क्रिस्तोफ जाफ्रलो का मत है कि हिंदुत्व के उदय से अंधविश्वास के माहौल में इजाफा हुआ है. उन्होंने मुझे बताया, "संघ परिवार और बाबा रामदेव सहित उनके तमाम साथियों द्वारा अंधविश्वासी मानसिकता को बढ़ावा दिए जाने के कारण आम लोगों में भी अवैज्ञानिक आचार-विचार के प्रति अधिक झुकाव देखा जा सकता है. तमाम हिंदुत्व प्रचारक लोगों को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि मोदी कोई दूत हैं या उनके पास जादुई शक्तियां हैं. उनके बारे में ऐसी कई कहानियां फैलाई जाती हैं कि कैसे गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान वह जहर खाकर भी जीवित बच गए थे, या कैसे वो बचपन में मगरमच्छों के साथ तैर चुके हैं."

मोदी के कार्यकाल में अंधविश्वासी प्रथाओं ने अपनी वैधता को और मजबूत किया है. विशेष रूप से कोरोना महामारी के दौरान अंधविश्वास और झूठे इलाजों के बाजार को बेरोकटोक चलने दिया गया, जिसमें हास्यास्पद से लेकर कई खतरनाक सुझाव शामिल थे. उदाहरण के लिए सरकार के एक मंत्री लोगों को कोरोना वायरस से बचने के लिए “गो कोरोना गो” का जाप करने के लिए उकसाते दिखे, तो कई नामी चेहरे गोमूत्र को कोरोना का रोग निरोधक या इलाज ठहराते रहे. स्वयं मोदी ने कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई में एकजुटता दिखाने के लिए देशवासियों से रात नौ बजकर नौ मिनट पर बर्तन बजाने या दीया जलाने का आह्वान किया. इन गतिविधियों ने बहुत से मनगढ़ंत वैज्ञानिक सिद्धांतों से जुड़ी फर्जी अफवाहों को जन्म दिया, जिन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से दूर-दूर तक फैलाया गया. कोविड-19 संकट में सरकार के कुप्रबंधन, प्रचलित सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं और जागरूकता की कमी के चलते बहुत से लोगों ने डॉक्टरों की जगह आस्था और तंत्र-मंत्र से जुड़े उपचारों के तौर-तरीकों को तरजीह दी.

स्वघोषित संत चंद्रास्वामी 2011 में दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की इक्क्यानवी जयंती के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए. एक समय पर चंद्रास्वामी पर नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाने के लिए यज्ञ करने के इल्जाम लगाए गए थे. इंडियन एक्सप्रेस अभिलेखागार

ऐसा नहीं है कि अंधविश्वास सिर्फ बीजेपी तक ही सीमित है. कांग्रेस से नाता रखने वाले दो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव समेत बीते समय के कई नेताओं को समय-समय पर किसी न किसी कर्मकांड में शामिल होने के लिए जाना जाता है. इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बाद अपने बेटे संजय की रक्षा के लिए “निजी तौर पर” झांसी के काली मंदिर में लक्षचंडी पथ की विधि में हिस्सा लिया था, जिसमें देवी चंडी का आह्वान करने के लिए एक लाख श्लोकों का पाठ किया जाता है. यह पूरा अनुष्ठान गुप्त रूप से 1979 से 1983 तक जारी रहा. पीवी नरसिम्हा राव स्वयंभू संत चंद्रास्वामी के प्रबल अनुयायी थे. जैकब कोपमैन और आया इकेगेम की किताब 'द गुरु इन साउथ एशिया' के अनुसार, चंद्रास्वामी "कमोबेश राजनेताओं के 'गुप्त' सलाहकार" बन गए थे और राजीव गांधी की हत्या में उनकी भी भूमिका थी. चंद्रास्वामी ने राव को प्रधानमंत्री बनाने के लिए बलि पूजा करने के आरोपों का खंडन किया था. जाफ्रलो ने मुझे बताया कि इस तरह के कर्मकांडों का सार्वजनिक ज्ञान के बिना गुपचुप रूप से चलना इस बात का संकेत है, कि भारतीय राजनेता वास्तव में इनमें गहरी आस्था रखते हैं. वे कहते हैं, “राजनेता जानते हैं कि सार्वजनिक रूप से तंत्र-मंत्र का अभ्यास करना लोगों में उनकी छवि को प्रभावित कर सकता है. इसके बावजूद अब इस तरह की गतिविधियों ने तेज़ी पकड़ी है.”

जाफ्रलो ने मुझे बताया कि राजनेताओं को अक्सर लगता है कि उन्हें आध्यात्मिक शक्ति के नैतिक समर्थन की जरूरत है. वह मानते हैं कि अलौकिक शक्तियां उन्हें अपने राजनीतिक विरोधियों पर काबू पाने में मदद कर सकती हैं. जाफ्रलो कहते हैं, “यह असल में तांत्रिकों और राजनेताओं के बीच पनपने वाली लेन-देन की एक दिलचस्प नीति है. यह आपसी समर्थन का एक आज़माया हुआ नुस्खा है. तांत्रिकों को राजनीतिक संरक्षण की जरूरत होती है और राजनेताओं को अपने विरोधियों और बुरी नजर को बेअसर करने के लिए तांत्रिक शक्ति की जरूरत पड़ती है. जरूरत पड़ने पर दोनों ही एक दूसरे के बचाव के लिए खड़े नज़र आते हैं.” ऐसे कई संबंध सार्वजनिक दृष्टि से छिपे रहते हैं. जाफ्रलो आगे कहते हैं, “हिंदू धर्म की मुख्यधारा और महान परंपरा के अनुकूल बने रहने के लिए ऐसी प्रक्रियाओं में शामिल 'चमत्कार' के अंश को अक्सर दबा के रखा जाता है क्योंकि यह लोकप्रिय धर्म के मुख्य पहलू से बहुत अलग है. राजनेता अच्छी तरह समझते हैं कि दोनों पहलूओं में टकराव नहीं होना चाहिए.”

बिहार में 2015 के राज्य चुनावों से पहले एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें राज्य के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के प्रमुख नीतीश कुमार को एक तांत्रिक के साथ दिखाया गया था. इसमें तांत्रिक को कुमार के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद यादव के खिलाफ बोलते हुए देखा जा सकता है. वीडियो के सामने आने के तुरंत बाद इंडियन एक्सप्रेस के लिए लिखे गए एक लेख में जाफ्रलो ने तर्क दिया कि इस घटना पर हुए राजनीतिक कटाक्ष के बावजूद कुमार ने अपनी ओर से किसी प्रकार का खेद व्यक्त नहीं किया. उन्होंने लिखा, “इस से पता चलता है कि अब ऐसी प्रथाओं की स्वीकार्यता बढ़ रही है जिन्हें अब तक गुप्त रखा जाता था. 2009 के आम चुनावों से ठीक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एल.के. आडवाणी पर सत्ता पाने के लिए काले जादू और तांत्रिकों का सहारा लेने का आरोप लगाया था. तब बीजेपी नेता ने इस से साफ मुंह मोड़ते हुए इसका खंडन किया था. लेकिन अब समय बदल रहा है और तर्कसंगत मानसिकता राजनीतिक आचार-विचार की मुख्यधारा से बाहर होती जा रही है.”

पानसरे और कलबुर्गी की हत्याओं के कुछ साल बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि नए भारत में छद्म बाबा और उनके कर्मकांड अब चारदीवारी तक सीमित नहीं रह गए थे. 2018 में बीजेपी ने दिल्ली के लाल किले के भव्य लॉन में एक सप्ताह लंबे राष्ट्रीय रक्षा महायज्ञ नाम के एक महा हवन का आयोजन किया था. गौरतलब है कि हर स्वतंत्रता दिवस पर देश के प्रधानमंत्री लाल किले से ही झंडा फहराते हैं और भाषण देते हैं. बीजेपी के पूर्व सांसद महेश गिरी, जो कार्यक्रम के मुख्य आयोजक भी थे, के अनुसार 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर ही इस यज्ञ का आयोजन किया गया था, ताकि “देशविरोधी ताकतों द्वारा रची गई साजिशों को बेअसर किया जा सके.” गिरी ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, “ऐसी कई बाहरी और आंतरिक ताकतें हैं जो हमारे देश के हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं. हम इस तरह के प्रयासों को विफल करने और 'नया भारत' बनाने का संकल्प लेने के लिए अपनी प्राचीन परंपराओं का पालन करते हुए यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं.”

हिंदू नव वर्ष की तिथियों के अनुसार आयोजित किये गए असाधारण स्तर के इस कार्यक्रम में 1,111 पुजारी और 108 हवनकुंड शामिल थे. गिरि का दावा था कि ग्यारह सौ साल बाद इस तरह के यज्ञ का आयोजन किया गया था. हवन अग्नि के लिए दो जगहों से मिट्टी और पानी लाये गए था. इनमें पहली जगह थी डोकलाम, जहां उस समय भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच गतिरोध चल रहा था. दूसरी जगह थी सीमा रेखा के पास स्थित क्षेत्र पूंछ. इन्हें राजनाथ सिंह, जो उस समय गृह मंत्री थे, के द्वारा झंडी दिखाकर रथ यात्रा में रवाना किया गया था. चार प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थलों से भी हवन के लिए मिट्टी लाई गई थी : बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी और रामेश्वरम. जनसत्ता की एक रिपोर्ट में कहा गया कि महायज्ञ में दस तांत्रिक महाविद्याओं में से एक देवता बगलामुखी का आह्वान किया गया था. रिपोर्ट में कहा गया है, “ऐसा माना जाता है कि दुश्मनों को हराने और नष्ट करने के लिए बगलामुखी की पूजा की जाती है.”

2018 में इंडिया गेट पर “जल मिट्टी यात्रा” को हरी झंडी दिखाकर रवाना करते हुए तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह. यह यात्रा लाल किले पर आयोजित हुए राष्ट्र रक्षा महायज्ञ के लिए चार प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थलों से मिट्टी और पानी लेकर आने के लिए शुरू की गई थी. पीटीआई

देखा जाए तो देश की राजनीति में कर्मकांडों और धार्मिक समारोहों का प्रयोग अब पहले से कहीं अधिक आम हो चला है. राजनाथ सिंह, जो अब रक्षा मंत्री हैं, ने 2019 में फ्रांस से लाए गए नए राफेल लड़ाकू जेट की “शस्त्र पूजा” की थी. उन्होंने विमान के ऊपर एक नारियल और उसके नीचे नींबू रखे थे. बीजेपी नेता और गुजरात सरकार में मंत्री प्रदीप परमार ने तब ट्वीट किया था, “नए भारत में परंपरा और शक्ति साथ-साथ चलते हैं.” सार्वजनिक क्षेत्र में इस तरह के कर्मकांडों की बढ़ती स्वीकार्यता नए भारत में अंधविश्वासों के पैर पसारने के लिए नित नए द्वार खोल रही है. जैसा कि मैंने अपनी रिपोर्टिंग के दौरान पाया, ऐसे अंधविश्वास न केवल कर्मकांडों को बढ़ावा देते हैं, बल्कि जघन्य अपराधों को भी प्रेरित कर सकते हैं.

उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में हर जून में गंगा दशहरा का त्यौहार मनाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि गंगा नदी की ही एक अवतार गंगा देवी ज्येष्ठ के महीने के दसवें दिन स्वर्ग से उतरती हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ साल का तीसरा महीना होता है, जिसमें मई और जून के महीने शामिल होते हैं. 2019 में गंगा दशहरा 12 जून को मनाया गया था. हिंदू ज्योतिषियों का दावा है कि यह एक दिव्य तिथि थी, जो पूरे 75 साल बाद आई थी. क्षेत्रीय समाचार पत्रों ने प्रचार किया कि जो लोग इस दिन गंगा में मंत्र का जाप करते हुए डुबकी लगायेंगे, उनके जीवन में किये गए दस पाप मिट जायेंगे.

उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ के पास गंगा के तट पर संकरा नाम का एक गांव स्थित है. यहां यादवों का वर्चस्व है, जिन्हें राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया गया है. 12 जून 2019 की शाम को सैकड़ों की संख्या में लोग गांव के घाट पर नदी में स्नान करने पहुंचे. पुलिस अधिकारियों ने मुझे बताया कि ठीक उसी दिन पचास वर्षीय मानपाल यादव नामक एक स्थानीय पुरुष ने अपनी 32 वर्षीय पत्नी रजनी यादव को नदी में डुबोकर मार डाला. रजनी का भाई राजेश उसकी हत्या का गवाह है. वह गंगा दशहरा मनाने के लिए पास के रत्रोई से अपने चचेरे भाइयों के साथ संकरा जा रहा था. शाम को जैसे ही वह रजनी के घर पहुंचा, वह उसे अपने कमरे में ले गई. “वह परेशान थी,” राजेश ने मुझे बताया.

राजेश ने याद करते हुए कहा कि रजनी ने अजीब तरह से बातचीत शुरू की. उसने कहा कि वह राजेश को कुछ ऐसा बताना चाहती है जो शायद उसे किसी से नहीं कहना चाहिए. लेकिन साथ ही उसने कहा कि उसके पास अब सब बताने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है. उसने कहा कि उसका पति उसे संत दास झारखंडी नामक एक साधु के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर कर रहा था. बदले में झारखंडी ने मानपाल को अमीर बनाने का वादा किया था. रजनी ने राजेश को बताया कि बात न मानने पर मानपाल ने उसे जान से मारने की धमकी दी थी.

रजनी से यह बात पता चलते ही राजेश ने तुरंत मानपाल को टोका. उसने मानपाल से पूछा कि कोई आदमी कैसे अपनी पत्नी को किसी और के साथ सोने के लिए कह सकता है? लेकिन मानपाल ने उसकी एक नहीं सुनी और कहा कि वह वही करेगा जो उसके गुरु ने उसे कहा था. उसने अपनी बात दोहराते हुए राजेश से कहा कि अगर रजनी ने उसकी बात नहीं मानी, तो वह उसे मार डालेगा. इतना कहकर मानपाल दरवाजा पटक कर चला गया, जबकि राजेश रोती हुई रजनी को सांत्वना देने की कोशिश करता रहा. राजेश ने रजनी से कहा कि वह तुरंत अपना सामान बांधे और उसके साथ रत्रोई वापस चले. इस बीच वह अपने चचेरे भाइयों के साथ गंगा स्नान करने चला गया. राजेश कहता है, “किसने सोचा था कि मेरे घर से बाहर निकलते ही मानपाल उसे मार डालेगा? चंद ही मिनटों में सब कुछ हो गया.”

राजेश नदी में नहा रहा था जब उसने मानपाल को रजनी को बालों से घसीटते देखा. उसने बताया, “वह चिल्ला रही थी, मदद के लिए पुकार रही थी.” वह याद करता है कि किस तरह नदी के पास के हरे खेतों के सामने रजनी की लाल साड़ी चमकती नजर आ रही थी. “हम उससे लगभग तीन सौ मीटर दूर थे. जब तक मैं नदी के उस छोर पर पहुंचा, तब तक वह पानी की धार के साथ बह चुकी थी. मैंने मानपाल को नदी के उस पार तैरते हुए देखा.अगले दिन राजेश ने अलीगढ़ के दादों थाने में शिकायत दर्ज कराई. उसने एफआईआर में कहा कि मानपाल ने उसकी बहन को इसलिए मार डाला क्योंकि उसने झारखंडी के साथ यौन संबंध बनाने से इनकार कर दिया था. इसके तुरंत बाद मानपाल और झारखंडी को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर हत्या और स्वेच्छा से हानि पहुंचाने के साथ-साथ आपराधिक साजिश और सबूतों को नष्ट करने का मुकदमा दायर किया गया.

रजनी यादव के कत्ल का आरोपी युवा पुजारी झारखंडी. उनपर रजनी के पति मानपाल की मदद से यौन संबंध बनाने का आरोप लगाया गया था. सीके विजयकुमार\ कारवां

जब मैं रत्रोई में रजनी के माता-पिता से मिली तो उन्होंने मुझे बताया कि वे हमेशा से मानपाल की हिंसक प्रवृत्ति को लेकर चिंतित रहते थे. उन्होंने बताया कि मानपाल ने सबसे पहले रजनी को उनकी बड़ी बेटी के घर में देखा था. मानपाल ने मुझे बताया कि वह विश्व हिंदू परिषद की युवा शाखा बजरंग दल का सदस्य है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई संगठनों में से एक है. बजरंग दल के एक अभियान के तहत पड़ोसी गांवों के दौरे पर उसने रजनी को देखा था. मानपाल रजनी की ओर आकर्षित हुआ और तय किया कि वह उससे शादी करेगा. कुछ ही दिनों में दोनों का विवाह संपन्न हो गया था.

रजनी के माता-पिता कहते हैं कि उन्हें जल्दबाजी में लिए गए अपने फैसले पर पछतावा है. रजनी की मां रामसखी कहती हैं, “रजनी की शादी के बाद हमें पता चला कि मानपाल पहले से शादीशुदा है और उसके दो बच्चे हैं.” वह आरोप लगाती हैं कि मानपाल ने अपनी पहली पत्नी की भी हत्या की थी. रजनी के पिता भूप सिंह कहते हैं, “लोगों ने हमें बताया कि वह गर्भवती थी. लेकिन इसके बावजूद मानपाल उसके साथ मारपीट करता था. एक बार उसने उसके गर्भाशय पर इतनी जोर से लात मारी कि वह मर गई.” हमारी मुलाकात के दौरान मानपाल ने इन आरोपों का खंडन किया. उसका दावा है कि उसकी पहली पत्नी की मृत्यु एक दुर्घटना में हुई थी.

रजनी के माता-पिता ने बताया कि वे अपनी बेटी की हत्या के कई महीनों पहले से ही उसकी गृहस्थी में झारखंडी की भूमिका से अवगत थे. वह बताते हैं कि मानपाल और झारखंडी सारा समय एक साथ बिताते थे. भूप सिंह कहते हैं कि वे दोनों भांग पिए रहते थे. रामसखी कहती हैं, “रजनी उसकी नशे की लत से बहुत परेशान थी. लेकिन जब भी वह शिकायत करती, तो वह उसके साथ मारपीट करता. वह इतना क्रूर था कि वह उसे उसके बच्चों के सामने भी मारता था.” मानपाल ने मुझे बताया कि उसने अपने गुरु के लिए अपने खेतों के पास दो कमरों का घर बनाने के लिए दो साल तक चंदा इकट्ठा किया था. इससे पहले बाबा नदी के किनारे एक श्मशान स्थल पर रहता था.

जांच में शामिल पुलिस के एक सब-इंस्पेक्टर शैलेंद्र यादव का भी मानपाल और झारखंडी के बीच के “करीबी” संबंधों पर ध्यान गया. वह गिरफ्तारी के बाद थाने का दृश्य याद करते हुए कहते हैं, “पहले मानपाल को गिरफ्तार किया गया था और फिर थोड़ी देर बाद उसके तांत्रिक को हिरासत में लिया गया. झारखंडी को हिरासत में देख मानपाल मीडिया और वरिष्ठ अधिकारियों के सामने ही रोने लगा. उसने हमसे पूछा कि हमने उनके गुरुजी को क्यों गिरफ्तार किया? वह कहता रहा कि हम उसके गुरु को छोड़ दें और बस उसे ही हिरासत में रखें.” दोनों ही आरोपियों का बीजेपी से गहरा नाता है. मानपाल का कहना है कि पार्टी तांत्रिकों, साधुओं और बाबाओं को आश्रय देती है. वहीं झारखंडी तेरह भाई त्यागियों का शिष्य है, जो एक वैष्णव मठवासी समूह है. झारखंडी के गुरु ने गर्व से मुझे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ अपने संबंधों के विषय में बताया. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मानपाल और झारखंडी, दोनों को महीनों के भीतर जमानत दे दी थी. तब से अब तक तीन वर्षों में यह मुकदमा कछुए की चाल से आगे बढ़ा है. दोनों आरोपियों का मुकदमा सुभाष चंद्र शर्मा नामक वकील लड़ रहे हैं, जो झारखंडी के कट्टर अनुयायी भी हैं. मानपाल ने मुझे बताया कि रजनी गंगा के भारी प्रवाह के कारण डूब गई और झारखंडी ने दावा किया कि उसने कभी उसका चेहरा तक नहीं देखा था. दोनों ने आरोप लगाया कि उनके खिलाफ लगे आरोप ऐसे लोगों की बड़ी साजिश का हिस्सा हैं, जो हिंदुओं और उनके पवित्र कार्यों को बदनाम करना चाहते हैं.

 

बजरंग दल का सदस्य मानपाल यादव ने अपनी पत्नी के भाई राजेश यादव को गुरुजी का कहा नहीं मानन पर जान स मारने की धमकी दी थी. शाहिद तांत्रे

तकरीबन तीस वर्षीय झारखंडी एक युवा धर्मगुरु है. वह खुद को महात्मा कहता है. उसकी उलझी हुई दाढ़ी बहुत लंबी नहीं है, और उसके जटाधारी बाल उसके कंधों से केवल थोड़ा नीचे तक ही पहुंचते हैं. वह युवा दिखाई देता है. अपनी उम्र का आभास कराने के लिए उसने मुझे बताया कि उसे महज छह साल पहले 2015 में नासिक कुंभ मेले में तेरा भाई त्यागी साधु के रूप में दीक्षा दी गई थी. मथुरा के एक पत्रकार अमित शर्मा ने मुझे बताया कि झारखंडी के गुरु को क्षेत्र के सबसे वरिष्ठ साधुओं में से एक माना जाता है. क्षेत्रीय राजनीति में उनके दबदबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आदित्यनाथ भी उनकी बात सुनते हैं. शर्मा कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में साधु-संत सत्तारूढ़ व्यवस्था का अभिन्न अंग हैं. वह समझाते हैं, “मुख्यमंत्री खुद एक पुजारी हैं. प्रत्येक साधु के दो हजार से बीस हजार अनुयायी होते हैं. अगर वह साधु किसी खास उम्मीदवार को वोट देने के लिए कहता है, तो इससे क्षेत्रीय राजनीति में खासा फर्क पड़ता है. इस बात को सरकार भी भली-भांति समझती है.” समाचार रिपोर्टों के अनुसार, तेरह भाई त्यागियों ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए 1.11 करोड़ रुपए का योगदान दिया है.

मैं गुरु पूर्णिमा के दिन झारखंडी के गुरु से उनके मथुरा स्थित आश्रम में मिली. गुरु-शिष्य संबंधों के उपलक्ष्य में मनायी जाने वाली गुरु पूर्णिमा एक हिंदू त्योहार है. उम्र के साठवें पड़ाव में चल रहे भगवा वस्त्रधारी महंत राम स्वरूप दास मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्हें आमतौर पर ब्रह्मचारीजी महाराज के रूप में जाना जाता है और उन्हें महामंडलेश्वर की उपाधि हासिल है, जिसका अर्थ है एक मठवासी समूह के प्रमुख. जमानत पर बाहर मानपाल भी वहां मौजूद था. उसके वकील भी झारखंडी और स्वरूप दास का आशीर्वाद लेने के लिए अलीगढ़ से मथुरा आये हुए थे. जैसे ही मैंने स्वरूप दास से उनके वातानुकूलित कमरे में बात शुरू की, उनके कई अनुयायी वहीं बैठ कर हमारी बातचीत सुनने लगे. उनमें से कुछ बीच-बीच में उन्हें मिठाई, फल और धनराशि की भेंट भी अर्पित करते रहे.

स्वरूप दास ने मुझे अपनी उपलब्धियां गिनानी शुरू की. उन्होंने बताया कि वह उस तेरह भाई त्यागी अखाड़े के शीर्ष साधु थे, जिसमें नरेन्द्र मोदी के गुरु अभिराम दास त्यागी सहित सैकड़ों साधु और तांत्रिक शामिल रहे हैं. स्वरूप दास का कहना है कि युवावस्था में घर छोड़ने के बाद मोदी ने अभिराम दास के आश्रम में कई दिन बिताए और उनसे मिलने के बाद ही वहां से प्रस्थान किया. कुछ स्थानीय समाचार रिपोर्टों में भी इसका उल्लेख मिलता है. स्वरूप दास कहते हैं, “आज भी मोदी, उनकी मां हीराबेन और उनके छोटे भाई पंकज गुरुजी का अनुसरण करते हैं. उनके घर में अभिराम दास जी की फोटो भी है.” कुछ स्थानीय अखबारों में उल्लेख मिलता है कि 2019 के आम चुनावों से पहले पंकज मोदी गुरु से मिलने गए थे और दोनों के बीच “एकांत में लंबी बातचीत” हुई थी.

अपने भक्तों में ब्रह्मचारीजी महाराज के नाम से पहचाने जाने वाले महंत राम स्वरूप दास उत्तर प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण दबदबे वाले सबसे प्रमुख साधुओं में से एक माने जाते हैं. सीके विजयकुमार\ कारवां

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आश्रम का दौरा कर रहे एक स्थानीय बीजेपी नेता आदित्य मिश्रा ने मुझे बताया कि स्वरूप दास की राजनीतिक पकड़ बहुत मजबूत है. वह कहते हैं, “जब वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री थीं, तब उन्होंने एक बड़े हवन का आयोजन किया था जहां महाराज जी पुजारी थे. उनके और महाराज जी के बीच एक गहरा गुरु-भाव का संबंध है और वे लंबे समय से उनकी अनुयायी रही हैं.” मिश्रा कहते हैं कि इस साल वृंदावन में अर्ध-कुंभ की तैयारियों के समय स्वरूप दास उन दो संतों में से एक थे, जिन्हें आदित्यनाथ से पूछताछ करने की अनुमति दी गई थी.

जब मैंने स्वरूप दास से बीजेपी और आरएसएस नेताओं के साथ उनके घनिष्ठ संबंधों के बारे में पूछा, तो उन्होंने मुझे बताया कि वह उन्हें केवल अपने औपचारिक कर्तव्यों के कारण जानते हैं. उन्होंने बताया कि राजे के साथ उनका रिश्ता सालों पुराना है और उनकी मां भी उनका बहुत सम्मान करती थी. उन्होंने बताया कि मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान राजे ने उन्हें कोटा के पास बूंदी में उनके आश्रम में एक मंदिर बनाने के लिए अनुदान दिया था. साथ ही यह सुनिश्चित किया गया था कि मंदिर का निर्माण पूरा हो. वह कहते हैं, “मां और बेटी दोनों का ही संतों और महात्माओं के प्रति गहरा समर्पण है.” मैंने आदित्यनाथ और राजे, दोनों को स्वरूप दास के साथ उनके संबंधों से जुड़े सवाल भेजे, जिनका कोई जवाब नहीं मिला.

झारखंडी का दावा है कि अपने गुरु की पहुंच के बावजूद उसने अपने मुकदमे के लिए कभी भी स्वरूप दास से मदद नहीं मांगी. उसने मुझे बताया, “जब मुझे रजनी की हत्या के मामले में फंसाया गया तो उन्हें निश्चित तौर पर दुख हुआ था. आखिरकार, एक गुरु और शिष्य के बीच का रिश्ता किसी बेटे और पिता से कम नहीं होता है. मुझे गिरफ्तार किए जाने के महीनों बाद उन्हें इस बारे में पता चला. मुझे जमानत मिलने के बाद उन्होंने मुझे अपने साथ आश्रम में रहने के लिए कहा और मैंने उसके निर्देशों का पालन किया.” मानपाल ने पहले मुझे बताया कि मुकदमे से जुड़े सभी कानूनी खर्चे झारखंडी ने उठाए थे. लेकिन बाद में उसने कहा कि यह खर्चा उसके बड़े भाई ने उठाया था. उनके वकील ने मुझे बताया कि उसने उनसे कोई शुल्क लिया ही नहीं. “वे साधु लोग हैं. मैं उनसे पैसे कैसे ले सकता हूं?” झारखंडी ने मुझे बताया कि उसकी बहन ने कानूनी खर्च का भुगतान किया है.

स्वरूप दास झारखंडी पर लगे हत्या के आरोपों पर चर्चा करने के इच्छुक नहीं थे. उन्होंने कहा, “हम तेरह भाई त्यागी त्याग में विश्वास रखते हैं.'” उन्होंने ध्यान की उन कठिन प्रक्रियाओं का वर्णन किया, जिनसे एक तेरह भाई त्यागी संत को गुजरना होता है. उनका दावा है कि ऐसी ही एक प्रक्रिया में उन्हें गाय के गोबर के जलते उपलों के बीच रहना पड़ता है. उनके अनुसार किसी ने पवित्र हिंदू पुजारियों को बदनाम करने के इरादे से उनके शिष्य को फंसाया था. वह कहते हैं, “यह सब एक बड़ी साजिश है. भला सदा भगवान का नाम जपने वाला इंसान ऐसा कुछ करने में कैसे सक्षम हो सकता है?”

जुलाई 2021 में मैं रतलाम के पास जावरा शहर में हुसैन टेकरी की दरगाह पर पहुंची. वहां मैंने पुरुषों और महिलाओं को खंभों से बंधे हुए चिल्लाते, हंसते और रोते हुए देखा. कोई जंजीरें तोड़ने की कोशिश कर रहा था, तो कोई किसी का नाम जप रहा था. उनके आसपास के रिश्तेदारों और परिचितों का कहना ​​था कि उनके शरीर में आत्माओं का वास है. इलाज के नाम पर कुछ लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा था. कई लोगों को बिजली के झटके दिए गए थे. महिलाओं के बाल खींचे गए थे और पुरुषों को पीटा गया था.

जावरा के उन्नीसवीं सदी के नवाब मोहम्मद इफ्तिखार अली खान बहादुर को उसी कब्रिस्तान में दफनाया गया है, जहां हुसैन टेकरी की दो सौ साल पुरानी दरगाह है. देश भर से हजारों लोग हुसैन टेकरी की छह दरगाहों में आते हैं, जिसे हाजरी विधि से “इंसानी” बीमारियों को ठीक करने के लिए जाना जाता है. आज भी यह धारणा कायम है कि दरगाह की अलौकिक शक्तियों के संपर्क में आते ही बुरी आत्माएं शरीर से बाहर निकल जाती हैं. पीड़ित के शरीर से आत्मा के निकल जाने का पता 'फैसला' नाम की एक विधि के माध्यम से लगाया जाता है. इसमें मंदिर में एक ठूंठ के तने पर नींबू लटकाया जाता है. यह नींबू धागे और कपड़े के एक लाल या काले टुकड़े से बंधा होता है. कपड़े का रंग आत्मा के प्रकार पर निर्भर करता है. 'फैसला' के दौरान पीड़ित स्वयं यह बताता है कि आत्मा ने उसके शरीर को छोड़ दिया है या नहीं.

टेकरी में जिन लोगों से मैं मिली, उन्हें पेट दर्द, सिरदर्द और पीठ दर्द जैसी सामान्य शारीरिक बीमारियां थीं. कुछ लोग मानसिक रोगों से पीड़ित थे. अस्पताल में अपना इलाज करवाने की जगह दूर-दराज के राज्यों से लोग सुकून की तलाश में मध्य प्रदेश की इस दरगाह पर पहुंचते हैं. हैरानी की बात यह है कि दरगाह पर आने वालों में ज्यादातर लोग हिंदू और जैन थे. विभिन्न शोध अध्ययनों ने दिखाया है कि भारत में “बीमारी का भाईचारा” समावेशी है. 2011 के एक अध्ययन में पाया गया कि बीमारी के इलाज के लिए अपनी परंपराओं के बावजूद बहुत से “हिंदू दरगाहों में मुस्लिम तौर-तरीकों को अपनाते हैं.” इस तरह के तंत्र-मंत्र से जुड़े उपचारों में विश्वास रखने वालों का मानना है कि इनके माध्यम से बीमारी और विकलांगता तक को ठीक किया जा सकता है. इस उपचार प्रक्रिया में प्रार्थना, कर्मकांड या कहीं-कहीं यातना और मानव बलि जैसे तरीके तक शामिल होते हैं.

हुसैन टेकरी का दरगाह उन्नीसवीं शताब्दी में जावरा के नवाब मोहम्मद इफ्तिखार अली खान बहादुर द्वारा बनवाया गया था. मानव बीमारियों को दूर करने के लिए हाजरी अनुष्ठानों के लिए पहचानी जाने वाली छह दरगाहों में भारत भर से लोग जाते हैं. फ्रेंकोइस-ओलिवियर डोमरग्यूज / अलामी फोटो

महामारी के बावजूद हजारों लोग अभी भी ऐसी मजारों, मंदिरों, दरगाहों, बाबाओं और तांत्रिकों के पास पहुंचते हैं. भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य के रख-रखाव पर अपने बजट का एक बहुत छोटा सा हिस्सा खर्च करता है. उस छोटे से हिस्से में भी मानसिक स्वास्थ्य पर किये जाने वाला खर्च सबसे निचले पायदान पर आता है. अक्सर सरकार भी लोगों को "आध्यात्मिक" उपचार की मदद लेने के लिए प्रोत्साहित करती है. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर उल्लेख किया है कि “हाल के शोध से पता चला है कि धार्मिक अभ्यास शारीरिक और मानसिक बीमारियों को ठीक करने और रोकने में सहायक हो सकते हैं.” इसमें आगे कहा गया है, “जब चिकित्सीय इलाज महंगा, व्यर्थ और किसी काम का नहीं रह जाता, तब आध्यात्मिक देखभाल एक व्यावहारिक और तार्किक समाधान है.”

हुसैन टेकरी से लगभग पैंतालीस किलोमीटर की दूरी पर नयापुरा में अनवर शाह का बैठक-हॉल है. नयापुरा मुस्लिम बहुल इलाका है. शाह मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में “चुम्मा बाबा” के रूप में प्रसिद्ध थे. लोग उनके पास झाड़-फूंक करवाने के लिए जाया करते थे. उनके अनुयायियों का मानना ​​​​था कि वह विकलांगता, बीमारियों और बुरी किस्मत को ठीक कर सकते थे. वह इलाज के लिए आये लोगों के सामने कुरान की आयतें पढ़ते, फिर उन आयतों को केसर से बनी स्याही से कागज के दो अलग-अलग टुकड़ों पर लिखते. एक कागज को पानी में घोलकर उस पानी को मरीज को पिलाया जाता और दूसरे कागज को ताबीज में बांध कर मरीज़ को दे दिया जाता. अंत में बाबा मरीज़ का हाथ पकड़कर उन्हें चूमते और आशीर्वाद देने के लिए उनके सिर पर हाथ रख देते.

मैं ऐसे कई लोगों से मिली जिनका दावा है कि उन्हें शाह ने ठीक किया. मोमिनपुरा निवासी 50 वर्षीय मोहम्मद असलम बाबा के पास बवासीर का इलाज कराने आए थे. उन्होंने मुझे बताया, “बवासीर के इलाज के लिए मेरे पहले ही कई ऑपरेशन हो चुके थे, लेकिन यह बीमारी ठीक नहीं हो रही थी. डॉक्टर ने मुझे बताया था कि अभी चार या पांच ऑपरेशन की जरूरत और पड़ेगी. जब मैं चुम्मा बाबा से दुआ मांगने गया तो मेरी हालत बहुत खराब थी.” शाह ने अपना काम किया और असलम को एक ताबीज दे दी. असलम का पूरा अनुभव एक ऐसे उपचार की कहानी है जो वास्तविक लगता है, पर होता नहीं. अंग्रेजी में इसे अमूमन ‘प्लेसिबो इफेक्ट’ के नाम से जाना जाता है. “मुझे अंदर से एक शांति महसूस हुई. मेरे शरीर में रोंगटे खड़े हो गए थे. मुझे सिफत का एहसास हुआ. जब मैं डॉक्टर के पास गया तो उसने मुझसे कहा- तुम्हें अब ऑपरेशन की जरूरत नहीं है. कुछ बीमारियों का इलाज डॉक्टर के हाथ में नहीं होता.”

हुसैन टेकरी में पैर बांधकर लेटी एक महिला. लोगों का मानना है कि पूजा-पाठ,अनुष्ठान या बलि के माध्यम से बीमारी और अक्षमता का इलाज हो सकता है. राकेश पोरवाल रतलाम

मानसिक-स्वास्थ्य संबंधित सेवाएं प्रदान करने वाले एक गैर सरकारी संगठन 'द बनयान' के निदेशक और पेशे से एक मनोचिकित्सक किशोर कुमार ने मुझे बताया, “भारत में पारंपरिक और तंत्र-मंत्र से जुड़े उपचारों की मदद लेना बहुत आम है. किसी भी तरह के संकट से गुजर रहे लोग तुरंत इस तरह के उपचारों को तलाशते हैं. उन्हें लगता है कि उनकी मुसीबतों का कारण किसी देवी-देवता का गुस्सा या श्राप, किसी आत्मा का वास या बुरी नजर है. भूत-प्रेत, काला जादू, पिछले जन्म के पाप, अधूरी कसमें, ज्योतिष, पूर्वज, सितारों में दोष या आत्माओं का क्रोध जैसी कई अंधविश्वासी व्याख्याएं उनकी निजी मान्यताओं का हिस्सा होती हैं. ऐसे में यदि उपचार करने वाला इस प्रकार की कोई वजह गिना दे, तो इस से रोगी के पूर्वाभासों को बल मिल जाता है. वे मंदिर, दरगाह आदि जगहों की यात्रा करने जैसे समाधानों के लिए तुरंत राज़ी हो जाते हैं. भले ही इसमें इलाज के नाम पर यातना झेलना ही क्यों न शामिल हो.”

4 जून 2020 को शाह की कोविड-19 से मृत्यु हो गई. एक दिन पहले खांसी और बुखार की शिकायत के बाद वह जांच में कोरोना पोजिटिव पाए गए थे. कुछ दिनों के भीतर संपर्क-सूची तैयार करने और क्वारंटाइन के लिए जिम्मेदार स्थानीय अधिकारियों ने अनुमान लगाया कि शाह के संपर्क में आने वाले 50 में से 23 लोग कोरोना पोजिटिव हुए थे. चिकित्सा दल ने दावा किया कि इनमें से अधिकांश लोग उपचार की तलाश में शाह के पास आए थे. नयापुरा के पूरे क्षेत्र को एक कन्टेनमेंट ज़ोन घोषित कर दिया गया. रतलाम में कोविड-19 से मरने वाले लोगों की आधिकारिक सूची में शाह तीसरे व्यक्ति थे.

शाह की मृत्यु और उसके बाद उनसे जुड़े काले जादू की कहानियों ने राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरी. यह उस समय की घटना है जब कई बीजेपी नेता और पूरा दक्षिणपंथी मीडिया देश में सभी मुसलमानों को खलनायक बताते हुए उन्हें कोविड-19 के मामलों में हुई बढ़ोतरी के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे थे. इस आरोप की पृष्ठभूमि में तब्लीगी जमात का एक कार्यक्रम था, जो एक 'स्प्रेडर' के रूप में पहले ही चर्चा में आ चुका था. विभिन्न मीडिया रिपोर्टों ने अनवर को “असलम” बताते हुए मुस्लिम समुदाय के खिलाफ खूब अफवाहों भरी खबरें चलाई.  

2021 में कोविड-19 की दूसरी लहर के कुछ हफ्तों के भीतर मैंने बकरीद से चंद दिन पहले नयापुरा का दौरा किया. कोविड की दूसरी लहर के दौरान रतलाम सबसे अधिक प्रभावित जिलों में से एक था. लेकिन नयापुरा पहुंचने पर मैंने देखा कि वहां चारों ओर भारी भीड़ थी और तमाम लोग ऐसे मिलजुल और हंसबोल रहे थे, जैसे कि महामारी जैसा कुछ कभी हुआ ही न हो. मैं उस घर में पहुंची जहां शाह रहते थे और लोगों का इलाज किया करते थे. शाह ने घर में एक मुसल्ला बना रखा था जहां प्रार्थना की जाती थी. इस कमरे को उन्होंने सालों से इकठ्ठा की हुई तरह-तरह की आध्यात्मिक कलाकृतियों से सजाया हुआ था. कमरे के बीच में एक कसा, सनद और कुब्दी-आशीर्वाद लेने के लिए एक प्रकार का पतीला, एक हार और वृद्धों को चलने का सहारा देने वाली एक छड़ी-जो उनके परिवार में पीढ़ियों से थी, रखे हुए थे. कमरे में कुछ हिंदू धार्मिक कलाकृतियां भी थी.

शाह के परिवार ने मुझे बताया कि शाह को अपने उपचार आधारित काम से कभी कुछ खास आमदनी नहीं हुई. फिर भी उनका घर पड़ोस के कई घरों की तुलना में बेहतर दिखाई देता है. उनके बेटे जावेद ने बताया, “उनके अधिकांश अनुयाई रतलाम के प्रमुख व्यवसाय संभालने वाले जैन और हिंदू थे.” रतलाम के रामगढ़ के रहने वाले 36 वर्षीय कंप्यूटर तकनीशियन जितेन परिहार, जो एक हिंदू हैं, पिछले पांच वर्षों से अधिक से शाह को अपने “भगवान” के रूप में पूजा करते थे. उन्होंने मुझे बताया, “मैं महीने में कम से कम दो या तीन बार बाबा के पास जाता था. वह भी हमें आशीर्वाद देने हमारे घर आये थे. उन्हीं की वजह से मेरा कंप्यूटर से जुड़ा कारोबार फल-फूल पाया. आज मैं जो कुछ भी हूं, उन्ही की वजह से हूं.” जब मैंने परिहार से पूछा कि हिंदू होने के बावजूद वह एक मुस्लिम गुरु का अनुसरण क्यों करते हैं, तो उन्होंने कहा, “यह मेरी आस्था है. और आस्था में सवाल नहीं किए जाते. इससे भला क्या फर्क पड़ता है कि मैं हिंदू हूं?”

परिहार को जब शाह की मौत की खबर मिली तब वह रतलाम में मौजूद नहीं थे. यातायात सेवाओं के ठप्प होने के कारण वह शाह के अंतिम संस्कार में नहीं पहुंच सके. वह कहते हैं, “मैंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया और घंटों रोता रहा. मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि वह नहीं रहे. ऐसा कैसे हो सकता है?” शाह की मृत्यु को एक साल से अधिक समय बीत चुका है लेकिन परिहार अभी भी नियमित रूप से उनकी कब्र और बैठक में जाते हैं. वह कहते हैं, “कोरोनावायरस के कारण कोई भी उन्हें अलविदा नहीं कह सका. क्या पता शायद वह अभी भी जीवित हों? मैं उनकी मौजूदगी को महसूस कर सकता हूं.”

विज्ञान और अंधविश्वास की मुठभेड़ अक्सर प्रतिरोध और क्रोध को जन्म देती है. शाह की मौत के बाद जब पुलिस और डॉक्टरों ने रतलाम में उनके भक्तों की कोविड जांच कर उन्हें क्वारंटाइन करने की कोशिश की, तो उन्हें भी ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा. कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग टीम के सदस्य विक्की सांगला ने मुझे बताया, “ज्यादातर लोगों ने हमसे झूठ बोला. कोई भी यह नहीं बताना चाहता था कि वह अनवर शाह के संपर्क में आए थे या नहीं. कई तो जांच के डर से नयापुरा छोड़ कर ही भाग गए. हर दिन जब मैं अपनी टीम के साथ लौटता तो देखता कि कई लोग घर में छिपे हुए होते थे. आप लोगों की खिलाफत का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि एक परिवार ने तो अपने बच्चों को दो दिनों तक छत पर पानी की टंकी में छिपाए रखा था.”

कोविड-19 और इसकी जानेलवा क्षमता के विषय में फैली भ्रांतियों से शाह का परिवार भी अछूता नहीं है. उनकी विधवा महरूल ने नम आंखों के साथ मुझसे कहा, “मैं नहीं मानती कि मेरे पति की मृत्यु कोरोना वायरस के कारण हुई. ये बीमारी बस एक कोरी गप्प है.” रंजना गावंडे कहती हैं, “दुनिया भर में कोविड-19 से हाहाकार मचे हुए दो साल बीत चुके हैं. इसके बावजूद कई लोग अभी भी इसे बस एक मिथक मानते हैं. पर यह आश्चर्य की बात नहीं है. यह एक ऐसा घातक रोग है जिसमें कोई स्थापित इलाज, दवा या शोध मौजूद नहीं है. इसलिए यह अंधविश्वास के पनपने के लिहाज से एकदम माकूल बीमारी है.”

इस साल 24 जनवरी को आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के एक शहर मदनपल्ले में एक शिक्षक दंपत्ति वी पद्मजा और उनके पति वी पुरुषोत्तम नायडू ने अपनी बेटियों की यह सोचकर हत्या कर दी, कि वे वापस लौट आएंगी. मौके पर पहुंची पुलिस को परिवार के प्रार्थना कक्ष में बड़ी बेटी अलेख्या मिली, जिसका सिर डंबल से लहूलुहान किया गया था. उसके बाल जल चुके थे और उसके मुंह में कोई धातुनमा चीज़ ठुंसी हुई थी. छोटी बेटी साई दिव्या की हत्या त्रिशूल से की गई थी. उसके सिर को भी डंबल से लहूलुहान किया गया था.

दोनों लड़कियों की नग्न लाशें खून से लथपथ पड़ी थी. जब पुलिस उन्हें लेने भीतर बढ़ी तो पद्मजा ने उनका विरोध किया. उसने पुलिस से कहा कि वह “सिर्फ एक दिन के लिए” लाशों को जस का तस रहने दें. पुलिस के जोर देने पर वह उन पर चिल्लाने लगी. वह कहने लगी कि पूरे घर में “भगवान” है. ऐसे में उन्होंने पुलिस को घर में जूते पहन कर प्रवेश करने और अपनी बेटियों की लाशों को नग्न अवस्था में उठाने के लिए जमकर खरी खोटी सुनाई. वह पुलिस से लगातार “ऐसा मत करो” कहती रही. जब पुलिस ने माता-पिता से पूरे मामले की जानकारी मांगी, तो दोनों ने जोर देकर कहा कि उनकी बेटियां सूर्योदय के बाद फिर से जीवित हो जायेंगी. उन्होंने कहा कि सूर्योदय के बाद कलियुग समाप्त होगा और सत्य युग शुरू हो जाएगा. कलियुग को हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान में मानव इतिहास का वर्तमान युग माना जाता है, जो संघर्ष और बुराइयों से भरा हुआ है. ऐसा माना जाता है कि कलियुग के बाद सत्य युग आएगा, जिसमें मानवता की बागडोर देवताओं के हाथों में होगी.

शिक्षक दंपत्ति को गिरफ्तार कर उन पर हत्या का मुक़दमा दायर किया गया. दोनों की बातों में कोई तुक ढूंढ पाना मुश्किल था. कोविड-19 की जांच के दौरान पद्मजा ने अस्पताल के कर्मचारियों को बताया कि कोरोना वायरस की उत्पत्ति चीन में नहीं हुई थी. उसने कहा कि यह बीमारी हिंदू देवता शिव से जन्मी है और दावा किया कि, “मैं ही शिव हूं और मार्च तक कोरोना ख़त्म हो जाएगा.” मानसिक रूप से अस्वस्थ्य होने की बात कबूलने के बाद यह दंपत्ति फिलहाल जमानत पर बाहर है. कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि यह परिवार “साझा भ्रम विकार” नामक एक दुर्लभ मानसिक स्थिति से पीड़ित था, जो महामारी में महीनों के लॉकडाउन के कारण और अधिक गंभीर होती गई. इस विकार को साझा मनोविकृति या “कई लोगों द्वारा साझा किया गया पागलपन” भी कहा जाता है. यह अक्सर परिवारों के भीतर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भ्रमपूर्ण विश्वास और मतिभ्रम के रूप में फैलता है.

अपने कबूलनामे में माता-पिता ने पुलिस को बताया कि दिव्या एक हफ्ते से बीमार थी, जिसके बाद उसके मन में यह डर घर कर गया था कि वह जल्द ही मर जाएगी. जिले के पुलिस अधीक्षक ने मुझे बताया कि हत्या से ठीक एक दिन पहले माता-पिता एक पुजारी से मिले थे. पुजारी ने एक छोटी सी विधि की और लड़की के हाथ में एक धागा बांध दिया. शिव में अथाह आस्था रखने वाली अलेख्या ने इलाज से इनकार कर दिया था.

2018 में जम्मू-कश्मीर के कठुआ में एक आठ साल की बच्ची के अपहरण, सामूहिक बलात्कार और हत्या की जघन्य घटना ने देश को झकझोर कर रख दिया था. चार्जशीट के अनुसार बच्ची को 10 जनवरी को अगवा कर देवीस्थान नामक एक पुश्तैनी रूप से पवित्र माने जाने वाली हॉल नुमा जगह में दरियों से ढकी एक मेज के नीचे छिपाया गया था. उसे मनार भांग खिलाई गई, जिसे स्थानीय स्तर पर शिव का प्रसाद माना जाता है. बच्ची को पांच दिनों तक देवीस्थान में ही रखा गया. इस दौरान आरोपी नियमित रूप से देवीस्थान में पूजा और अनुष्ठान करने आते थे. 13 जनवरी को लोहड़ी के दिन उन्होंने उसके साथ कई बार बलात्कार किया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गई. चूंकि अगले ही दिन देवीस्थान में फंदा नामक झाड़-फूंक की एक विधि का आयोजन किया जाना था इसलिए बच्ची की लाश को एक जंगल में फेंक दिया गया.

इस प्रकरण में एक और चौंकाने वाली बात हुई. यह देखा गया कि मामले में गिरफ्तार आरोपियों को खुला जन समर्थन मिला. कहा गया कि यह घटना वास्तव में हिंदुओं को बदनाम करने की एक साजिश थी. इसके साथ ही स्थानीय बीजेपी नेताओं ने भी खुलकर आरोपियों का बचाव किया. उनका कहना था कि आरोपियों की गिरफ्तारी “देश का बंटवारा चाहने वाले राजनीतिक हितों” से प्रेरित थी. जंगल में बच्ची का मृत शरीर मिलने के दो महीने बाद राज्य सरकार में बीजेपी के मंत्री रहे चौधरी लाल सिंह और चंद्र प्रकाश गंगा ने आरोपियों के समर्थन में एक रैली निकली.

जुलाई 2020 में मैं कठुआ के पच्चीस घरों से भी कम आबादी वाले रसाना गांव में पहुंची, जहां यह घटना घटी थी. रसाना में रहने वाले सभी परिवार अपनी ब्राह्मण पहचान पर विशेष रूप से गर्व करते हैं. अधिकांश ग्रामीण खुद को जंगोत्रा ​​ब्राह्मण बताते हैं, जिन्हें खजुरिया और शर्मा के नाम से भी जाना जाता है. घटना में शामिल बच्ची गुर्जर बकरवाल नामक एक सुन्नी मुस्लिम घुमंतू जनजाति की थी.

मैंने पीड़ित और आरोपियों के परिवारों के साथ-साथ पड़ोसियों, पुजारियों और पुलिस अधिकारियों सहित लगभग दो दर्जन लोगों के साक्षात्कार किए. जांच और कानूनी कार्यवाही से इतर सभी लोगों की बातचीत ने पूरे प्रकरण के एक ऐसे पहलू की ओर इशारा किया, जिस पर शायद बहुत ध्यान नहीं दिया गया था: बच्ची के बलात्कार और हत्या में कर्मकांड की भूमिका.

12 जनवरी 2018 को बच्ची के पिता ने हीरानगर थाने में अपनी बेटी के दो दिनों से लापता होने की शिकायत दर्ज करवाई थी. उसे आखिरी बार दूसरे बकरवाल बच्चों के साथ घोड़ों को चराने ले जाते हुए देखा गया था. शाम तक घोड़े वापस आ गए थे लेकिन बच्ची घर नहीं लौटी. परेशान परिजनों को लगा कि कहीं वह किसी जंगली जानवर के हमले का शिकार न हो गई हो, और उन्होंने जंगल में उसकी तलाश शुरू कर दी. उन्होंने दूसरे बकरवाल परिवारों के तंबूओं में भी पूछताछ की लेकिन उसका कोई पता न चल सका.

कठुआ कांड में पीड़ित बच्ची को उसके माता-पिता ने एक वर्ष की उम्र में गोद लिया था. इससे पहले वह एक दुखद दुर्घटना में अपनी दो बेटियों को गंवा चुके थे. बच्ची इस दंपत्ति के इकलौते जीवित बेटे के साथ उनके घुमंतू परिवार में ही पली-बढ़ी थी. ऐसे ही कई परिवार और उनके मवेशी- भेड़, बकरी, घोड़े और गाय- सर्दियों के दौरान कठुआ के मैदानी इलाकों में रहते हैं. गर्मियां आते ही वे लद्दाख में शपतनाला के दूरस्थ हिमालय पर्वतों की ओर चले जाते हैं. प्रत्येक बकरवाल समूह अपने मवेशियों के लिए उपयुक्त चरागाह को मद्देनजर रखते हुए बरसों से चले आ रहे रास्तों पर अपना सफर तय करते हैं. पीड़ित बच्ची का परिवार कई वर्षों से इस रास्ते पर सफर करता आया था.

उसके पिता ने मुझे बताया कि वह नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे भी यह कठोर जीवन जिएं. वह उन्हें शिक्षित करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने अस्थायी रूप से कठुआ में बसने का विचार किया. उन्होंने 2004 में रसाना में जमीन खरीदी और 2008 तक वहां एक घर बना लिया था. वह कहते हैं, “मैंने सोचा था कि बच्चे आराम से वहां पढ़ेंगे और हम भी अपने मवेशियों को चरा सकेंगे.” अधिकांश बकरवालों ने हाल के वर्षों में कुछ ऐसा ही किया है. लेकिन ब्राह्मणों की बस्ती में घर केवल पीड़ित बच्ची का परिवार ही बना पाया था. इस क्षेत्र के अन्य बकरवाल मौसमी तंबूओं या ऊपरी इलाकों के गांवों में ही रहते हैं.

रसाना की एक महिला ने बच्ची को आखिरी बार उस तालाब के आसपास देखा था, जहां बकरवाल आमतौर पर अपने जानवरों को पानी पिलाने के लिए लाते थे. यह तालाब ग्रामीणों के पुश्तैनी देवता बाबा कालीवीर के देवीस्थान से कुछ ही मीटर की दूरी पर स्थित है. पूरे जम्मू में कालीवीर को शेषनाग के अवतार के रूप में पूजा जाता है.

लड़की के लापता होने के एक दिन बाद उसकी मां देवीस्थान गई थी. वह हताश थी और उसने सुना था कि सांझी राम लोगों का भविष्य बता सकता है. वह कहती है, “जैसे ही मैंने देवीस्थान का दरवाजा खुला देखा, मैं अनजाने में अपने जूते पहन कर ही अंदर चली गई.” वह बताती है कि यह देख कर सांझी राम चौंक उठा और उस पर बिगड़ने लगा. “मेरी बात सुने बिना ही वह कहने लगे कि उनके पास हमारे घोड़े नहीं हैं और मैं वहां से चली जाऊं. मैंने उनसे कहा कि मैं घोड़ों की नहीं बल्कि अपनी बेटी की तलाश में हूं. उस समय देवीस्थान में दो महिलाएं बैठी थी, जो सांझी राम से अपनी समस्याओं के लिए दैवीय मार्गदर्शन ले रही थी. मैं भी उन्हीं के बगल में बैठ गई.”

वह आगे बताती है, “उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं देवीस्थान क्यों आई हूं? मैंने उनसे कहा कि मुझे पता है कि वह लोगों का 'हिसाब' देखते हैं और भविष्य बता सकते हैं.” यहां हिसाब का तात्पर्य कुंडली से था. उसने सांझी राम से पूछा कि वह बताए कि उनकी बेटी कहां है. वह कहती हैं, “जैसे ही मैंने उनसे अपनी बेटी के बारे में पूछा, वह चुप हो गए और चंद मिनटों के बाद वहां मौजूद दो अन्य महिलाओं को जाने के लिए कहा. उनके जाते ही उन्होंने मेरी आंखों में देखा और कहा कि मेरी बेटी किसी के घर में है. वह सकुशल खा-पीकर आराम कर रही है. उन्होंने मुझे चिंता न करने और अपने घर लौटने के लिए कहा.” इसके बाद सांझी राम ने मंत्र जपना और दीये जलाना शुरू किया और बच्ची की मां वहां से चली गई. पुलिस चार्जशीट के अनुसार 17 जनवरी को बच्ची का शव मिला और फिर उसे पोस्टमार्टम के लिए बरामद कर लिया गया. आगे की तफ्तीश में पाया गया कि सांझी राम ही पूरी घटना का सरगना था. उसने ही एक अन्य आरोपी को “बच्ची की अपहरण की योजना को अंजाम देने, उसे नशीला पदार्थ खिलाने और उसके बाद उसे देवीस्थान में बंधी बनाने के निर्देश दिए थे.”

चार्जशीट में कहा गया है कि सबसे पहले लोहड़ी की सुबह सांझी राम ने दूसरे आरोपियों के साथ कुछ विधियां निभाई. इसके बाद वह “किसी विधि को पूरा करने के लिए पीछे के दरवाजे से देवीस्थान से निकला और दीपक खजुरिया से मिला.” इस बीच देवीस्थान के अंदर ही बच्ची के साथ कई बार बलात्कार किया गया. उस शाम एक अन्य आरोपी ने सांझी राम को बताया कि उसने और कुछ अन्य पुरुषों ने मिलकर देवीस्थान के अंदर बच्ची के साथ बलात्कार किया है. चार्जशीट में कहा गया है कि “आरोपी सांझी राम ने जेसीएल को निर्देश दिया कि लड़की को मारने का समय आ गया है, ताकि उनके बीच रची गई आपराधिक साजिश के अंतिम लक्ष्य को हासिल किया जा सके.”

चार्जशीट में आगे दर्ज किया गया है कि उस रात लड़की को देवीस्थान के सामने एक पुलिया पर ले जाया गया. सभी आदमियों ने बच्ची की हत्या करने से पहले उसके साथ एक बार फिर बलात्कार किया. फिर खजुरिया ने “लड़की की गर्दन को अपनी बाईं जांघ पर रखा और उसे मारने के लिए अपने हाथों से उसकी गर्दन को दबाना शुरू कर दिया.” इसके बाद एक अन्य आरोपी ने दुपट्टे से उसका गला घोंट दिया. बच्ची के सिर पर दो बार पत्थर से भी वार किया गया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह मर चुकी है. चार्जशीट में यह भी कहा गया है कि 15 जनवरी को सांझी राम ने “शव को जंगल में फेंकने के निर्देश दिए क्योंकि अब इसे देवीस्थान के अंदर रखना सुरक्षित नहीं था. देवीस्थान में अगले दिन फंदा की रस्म के लिए लोगों के आने की संभावना थी, जिसे स्वयं आरोपी सांझी राम द्वारा पूरा किया जाना था.”

कठुआ में जिस देवीस्थान में आठ साल की बच्ची का नशीला पदार्थ देकर बलात्कार किया गया था उसकी दीवारों को अब रंग दिया गया है. स्थानीय लोगों का मानना है कि यह देवीस्थान जिसमें कालीवीर की पूजा की जाती है एक पवित्र पैतृक स्थान है जो केवल रसान के जंगोत्र ब्राह्मणों के लिए ही है. सृष्टि जस्वाल

मैंने डिप्टी सुपरिंटेंडेंट और जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा गठित छह सदस्यीय विशेष जांच दल में अकेली महिला कर्मी श्वेतांबरी शर्मा से पूछा कि फंदा का असल मतलब क्या है? उन्होंने कहा कि यह “लोगों द्वारा आमतौर पर किया जाने वाला झाड़-फूंक है.” मैंने उनसे इस झाड़-फूंक की प्रक्रिया के बारे में जानना चाहा. उनका कहना था कि चूंकि मामले में किए गए फैसले को अदालत में चुनौती दी जा रही है, इसलिए वह इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर सकती.

कठुआ की घटना के समय राज्य में बीजेपी और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के गठबंधन की सरकार थी. पीडीपी नेता और उस समय की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने तब यह संकेत दिए थे कि अगर बीजेपी ने उन्हें बच्ची के परिवार को न्याय देने से रोका, तो वह गठबंधन खत्म करने के लिए बाध्य होंगी. बदले में आरोपियों के समर्थन में रैली करने वाले मंत्री चौधरी लाल सिंह और चंद्र प्रकाश गंगा को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था. गंगा ने आरोप लगाया कि बीजेपी ने ही दोनों मंत्रियों को रैली में शामिल होने के लिए कहा था और साथ ही अपने इस्तीफे को बीजेपी की छवि बचाने के लिए “बलिदान” करार दिया.

चौधरी ने मुझे बताया कि इस पूरे विवाद में देवीस्थान को घसीटा जाना हिंदू धर्म का अपमान था. उन्होंने तर्क दिया कि लड़की के साथ बलात्कार नहीं किया गया था और केवल उसकी हत्या की गई थी. उन्होंने कहा कि “केवल सीबीआई की जांच से ही पता लगाया जा सकता है कि हत्यारे कौन थे.” 

पर मुफ्ती इस बात पर अडिग थी कि मामले की जांच राज्य पुलिस को ही सौंपी जाए और न कि सीबीआई को, जो केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को रिपोर्ट करती है. इस घटना के कुछ महीनों बाद जून में बीजेपी ने पीडीपी से गठबंधन तोड़ दिया था. अधिकारिक तौर पर उनका कहना था कि गठबंधन में मुफ्ती सरकार “अपनी जिम्मेदारी में विफल रही,” “घाटी में हिंसा बढ़ी” और “मौलिक अधिकार खतरे में हैं.” इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि दोनों दलों के बीच दरार की मुख्य वजह कठुआ बलात्कार की घटना ही थी, पर इससे निश्चित ही दोनों के बीच राजनीतिक संबंधों में खटास आ चुकी थी.

कई लोगों का मानना था कि कठुआ मामले में बीजेपी नेताओं ने जिस हद तक आरोपियों का बचाव किया, उससे संकेत मिलता है कि वह बहुत कुछ छिपाना चाहते थे. चौधरी ने मुझे बताया कि मोदी के करीबी माने जाने वाले प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह इस मामले को सीबीआई को स्थानांतरित करने के विमर्श में शामिल थे. कई ऐसे स्थानीय लोग जो मामले की जांच को सीबीआई को थमाए जाने के पक्षधर थे, कहते है कि सिंह मामले से जुड़ी राजनीतिक बातचीत का हिस्सा थे. इनमें से कई लोगों ने इस बाबत अपनी निराशा भी जताई कि सिंह मामले को स्थानांतरित करने में विफल रहे. जब मैंने सिंह की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया.

हिंदू राष्ट्रवादी समूहों द्वारा बढ़ते विरोध के बीच सुप्रीम कोर्ट ने बच्ची के वकील और माता-पिता पर बढ़ते खतरे को संज्ञान में लिया और मई 2018 में मामले को कठुआ से जम्मू की सीमा से सटे पंजाब के जिले पठानकोट में स्थानांतरित कर दिया गया. इससे एक महीने पहले ही कठुआ कोर्ट परिसर में वकीलों ने गुट बनाकर पुलिस को चार्जशीट दाखिल करने से रोकने का प्रयास किया था.

जून 2019 में पठानकोट की एक जिला अदालत ने सौ से अधिक गवाहों की जांच के बाद सांझी राम और पांच अन्य लोगों को अपहरण, यातना, बलात्कार और हत्या का दोषी ठहराया. अदालत ने सांझी राम, दीपक खजुरिया नाम के पूर्व पुलिस अधिकारी और परवेश कुमार नाम के रसाना के एक मूल निवासी को हत्या के लिए उम्रकैद और बलात्कार के लिए 25 साल कारावास की सजा सुनाई. सांझी के बेटे विशाल जंगोत्रा ​​को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया. उसके नाबालिग भतीजे के खिलाफ किशोर न्यायालय में मुकदमा चल रहा है. अन्य तीन पूर्व पुलिस अधिकारियों, आनंद दत्ता, सुरिंदर कुमार और तिलक राज को महत्वपूर्ण सबूतों को नष्ट करने के लिए पांच साल के कारावास की सजा सुनाई गई. जांच में कहा गया कि सांझी ने बच्ची का बलात्कार नहीं किया था लेकिन उसे पूरी घटना का “मास्टरमाइंड” होने का दोषी ठहराया जाता है. जांच में निष्कर्ष निकाला गया कि बच्ची के अपहरण की मुख्य वजह मुस्लिम बकरवालों को कठुआ के हिंदू बहुल इलाके से बेदखल करने की मंशा थी.

स्थानीय लोगों ने मुझे बताया कि देवीस्थान कोई मंदिर नहीं बल्कि रसाना के जंगोत्रा ​​ब्राह्मणों का एक पुश्तैनी पवित्र स्थल है. पूरे क्षेत्र के कई गांवों में पारंपरिक हिंदू मंदिरों के अलावा ऐसे कई देवीस्थान हैं. ये देवीस्थान वर्ण-विशिष्ट होने के साथ-साथ जाति-विशिष्ट भी हैं. उदाहरण के लिए कायस्थ वर्ण की महाजन जाति और राजपूत वर्ण की डोगरा जाति के अपने-अपने देवीस्थान हैं. प्रत्येक जाति के अपने कुलदेवता, ख़ास रस्में, पवित्र दिन और मान्यताएं भी होती हैं. जम्मू के एक पुजारी ने मुझे बताया कि कालीवीर को ऐसी 12 जातियों का कुलदेवता माना जाता है.

रसाना की जंगोत्रा ​​आबादी में कालीवीर की पहचान “काले घोड़े वाले बाबा” के रूप में है. स्थानीय लोग कहते हैं कि यह देवता अपने क्रोध के लिए जाने जाते हैं और परिपूर्ण सम्मान की मांग करते हैं. देवता के सेवक के रूप में लोग अपनी जुबान से उनका नाम नहीं ले सकते. इन देवीस्थानों में कोई पुजारी नहीं होता. इसके बजाय स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि देवता अपनी इच्छानुसार किसी व्यक्ति को अपना “चेला” या “सेवक” नियुक्त करते हैं जो देवता के संदेशवाहक के रूप में काम करता है. पुजारियों के समान कर्तव्यों का पालन करने के अलावा 'चेले' तंत्र-मंत्र से जुड़े उपचार भी करते हैं. कई ग्रामीणों का मानना ​​है कि चेले चमत्कार और भविष्यवाणी भी कर सकते हैं. इसलिए अक्सर विवाह, जन्म और मृत्यु से संबंधित मामलों में उनकी सलाह ली जाती है. किसी भी इच्छा की पूर्ति के बाद चेलों के माध्यम से ही देवताओं को पशु बलि चढ़ाई जाती है. कालीवीर के चेले को उनका काला घोड़ा कहा जाता है.

सांझी राम कालीवीर देवता का चेला था. उसकी 33 वर्षीय बेटी मधुबाला ने मुझे बताया कि वह पच्चीस साल से अधिक समय से इस भूमिका को निभा रहा था. कालीवीर पीढ़ियों से उनके कुलदेवता थे लेकिन केवल उसके पिता और एक दूर के रिश्तेदार को ही देवता से जुड़ी ये विशेष शक्तियां हासिल थी. मधुबाला कहती है कि देवता ने उसके पिता को “चुना” था.

2017 में ग्राम मुनीम के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद सांझी राम ने स्वयं को पूरी तरह से देवीस्थान के लिए समर्पित कर दिया था. मधु ने मुझे बताया कि वह अपना दिन, सुबह और शाम वहीं बिताया करता था. वहां वह देवताओं की मूर्तियों को स्नान कराने से लेकर उनके कपड़े बदलने और दीया जलाने से लेकर भक्तों से बात करने तक सभी बातों का ध्यान रखता था. कालीवीर की पूजा के लिए शुभ माने जाने वाले रविवार का दिन सांझी देवीस्थान में ही बिताता था. पवित्र माने जाने वाले हॉल की चाबी भी उसी के पास रहती थी. इस कमरे की चार दीवारों में से तीन में धातु के दरवाजे और खिड़कियां हैं. मुकदमे के दौरान यह तर्क दिया गया कि अन्य ग्रामीणों के पास भी दरवाजों की चाबियां थीं. किंतु अभियोजन दल ने मुझे बताया कि कोई भी सबूत के तौर पर एक भी चाबी पेश नहीं कर सका.

एक सुबह जब मैं देवीस्थान पहुंची तो वह बंद था और आसपास कोई नहीं था. यह घने जंगल से घिरे बंजर भूमि के एक टुकड़े के दूसरे छोर पर स्थित है. देवीस्थान से एक छोटा सा रास्ता सीधे जंगल से होते हुए सांझी राम के घर तक जाता है. पुलिस को इसी रास्ते के बीच में बच्ची का शव मिला था. देवीस्थान की दीवारों पर नए सिरे से सफेदी की गई थी. उस पर काली स्याही से बड़े-बड़े अक्षरों में “जय बाबा कालीवीर” लिखा हुआ था.

उस शाम मैं फिर से देवीस्थान गई. इस बार यह खुला हुआ था. हॉल में दो महिलाएं थीं लेकिन दोनों ने ही बलात्कार की घटना के बारे में कुछ भी जानने से इनकार किया. हॉल अधिकांश रूप से खाली था. एक छोर पर मंच था जहां पांच देवताओं की धातु की मूर्तियां रखी हुई थी. मधु ने मुझे बताया कि कालीवीर के अलावा देवीस्थान में चार और देवी-देवताओं को पूजा जाता है : मल माता, राजा मंडली, नाग देवता और पीर बाबा. उन्होंने कहा कि कालीवीर के चेले के रूप में सांझी राम अन्य देवी-देवताओं की सेवा के लिए भी बाध्य था. कई लोक कथाओं के अनुसार कालीवीर को कलियुग में जम्मू के शासक के रूप में प्रख्यात मंडली के सबसे चतुर मंत्रियों में से एक माना जाता है. दोनों की अक्सर एक साथ ही पूजा की जाती है. लोक कथाएं बताती हैं कि कैसे कालीवीर ने मंडली को मुसलमानों पर आक्रमण करने के लिए राजी किया था, क्योंकि उन्होंने जम्मू से कपिला गाय का अपहरण कर लिया था.

जम्मू के आम समाज का एक वर्ग अक्सर हर राजनीतिक उतार-चढ़ाव के साथ कालीवीर के नाम को जोड़ता है जिसमें अमूमन मुफ्ती और पीडीपी से बदला लेने के नारों में देवता का आह्वान शामिल होता है. अगस्त 2019 में जब मोदी सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा वापस लेने के साथ-साथ देश के एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य को भंग किया तो कई ट्वीट्स ने इस कदम का श्रेय कालीवीर को दिया. इक्कजुट जम्मू नामक हाल ही में गठित एक हिंदू राष्ट्रवादी समूह के अध्यक्ष अंकुर शर्मा सांझी राम और अन्य आरोपियों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रमुख वकील थे. वह कालीवीर को श्रद्धांजलि देने के लिए नियमित रूप से देवीस्थान जाते हैं. पिछले दो साल से वह रसाना में लोहड़ी भंडारे का आयोजन भी करते हैं.

देवीस्थान के संरक्षक और कठुआ में आठ वर्षिय लड़की के साथ बलात्कार और हत्या के आरोपी सांझी राम को गिरफ्तार कर ले जाते पुलिसकर्मी. एएफपी / गैटी इमेजिस

बकरवालों और ब्राह्मणों के बीच हमेशा से कटु संबंध रहे हैं. मामले के कई दोषियों में से एक प्रवेश जंगोत्रा ​​की मां त्रिशला देवी ने मुझे बताया कि कई बकरवाल देवीस्थान में देवताओं को चढ़ाए गए सिक्कों की चोरी करते थे और अक्सर वहां लगे एक हैंडपंप के पानी में अपने कपड़े धोते थे. कई स्थानीय लोगों का मानना है कि देवीस्थान ​​​​केवल शुद्ध ब्राह्मणों की जगह है और बकरवालों ने इस जगह के पास रहकर देवताओं का अपमान किया है. यहां कोई दलित भी पूजा करने आये तो ब्राह्मण परिसर से दूर हो जाते हैं. मुसलमानों को और भी निम्न दर्जे का माना जाता है. बच्ची के भाई ने मुझे बताया कि चूंकि सांझी राम देवीस्थान के पास उनकी मौजूदगी को लेकर खासा नाराज रहता था इसलिए बकरवालों ने झगड़े के डर से देवीस्थान के पास जाना ही बंद कर दिया था.

मधु ने मुझे बताया कि अक्सर सांझी राम के शरीर में कालीवीर की आत्मा आती थी. सांझी के जरिए कालीवीर अपने अनुयायियों से बात कर अपने फैसले सुनाते थे. वह बताती है कि जब भी “जोगी बिरादरी” से कोई व्यक्ति ढोल पर देवता के पवित्र लोक गीत कारका बजाया करता, तो सांझी के शरीर में आत्मा प्रवेश कर जाती थी. यह जोगी डोगरा राजपूत होते हैं, जिन्हें शिव का वंशज माना जाता है. जम्मू में स्थित एक परंपरागत नाथ जोगी राजकुमार जोगी ने मुझे बताया कि जोगियों के पास देवताओं को चेलों के शरीर में बुलाने की शक्ति होती है. इस प्रक्रिया को चोंकी कहा जाता है.

सबसे पहले चेला देवता को तैयार करता है और फिर देवीस्थान में अपनी जगह ले लेता है. प्रत्येक देवता को एक-एक करके बुलाने के बाद वह जोगी को कारका शुरू करने का संकेत देता है. जोगी के ढोल की थाप पर चेले के शरीर में कंपन शुरू हो जाती है. थाप के बढ़ने के साथ ही शरीर की प्रतिक्रिया भी तीव्र होती जाती है. कुछ देर बाद चेला जोगी को रुकने का इशारा करता है. ठीक इसी समय कालीवीर चेले के शरीर के माध्यम से बोलने लगता है. सबसे पहले वह 33 करोड़ हिंदू देवी देवताओं का अभिवादन करता है. फिर वह खुद को बुलाये जाने का कारण पूछता है और लोग उससे बात करते हैं. अक्सर कालीवीर अपने अनुयायियों से बलिदान की मांग करता है. आमतौर पर लोग कालीवीर को बकरे की बलि चढ़ाते हैं. राजकुमार ने मुझे बताया कि पुराने समय में कालीवीर अपने भक्तों के सबसे बड़े बच्चे की बलि की मांग करता था.

जम्मू के एक अन्य गांव में कालीवीर के ही दूसरे चेले ने मुझे बताया कि बलि की प्रक्रिया के दौरान देवीस्थान में बकरे को तब तक कालीवीर के सामने रखा जाता है जब तक कि वह कांपने न लगे. वह कहते हैं, “उसके न कांपने का मतलब है कि कालीवीर बलिदान को स्वीकार नहीं करेंगे. इसीलिए कुछ लोग बकरे को घंटों देवीस्थान में रखते हैं.” इस प्रक्रिया को जम्मू में “बिजना” कहा जाता है. मधु ने मुझे बताया कि जंगोत्रा ब्राह्मण लोहड़ी और मकर संक्रांति को कालीवीर के प्रमुख त्योहारों के रूप में मनाते हैं. लोहड़ी के एक दिन बाद मकर संक्रांति मनाई जाती है. दोनों ही त्योहार ग्रामीणों के लिए ख़ास महत्व रखते हैं. इस दौरान सांझी राम चोंकी की रस्म निभाता था और फिर लोहड़ी के सबसे निकट पड़ने वाले रविवार को भंडारा-भोज का आयोजन किया जाता था.

यह निश्चित नहीं है कि 2018 में ये भंडारा आयोजित किया गया था या नहीं. सांझी राम के परिवार का दावा है कि उन्होंने भंडारा किया था. उसके वकीलों ने मुकदमे के दौरान इस तर्क को बचाव के एक बिंदु के रूप में पेश किया था. उनका कहना था कि एक बड़े भंडारे के बीच बच्ची देवीस्थान में कैसे छिपी हो सकती थी? किंतु अभियोजकों के अनुसार उनके गवाह इस दलील के सबूत के तौर पर कोई बिल या तस्वीरें पेश नहीं कर सके.

जब मैंने मामले की जांच करने वाले अपराध शाखा के अधिकारियों से बात की, तो उन्होंने न तो इस दावे को स्वीकार किया और न ही इनकार किया कि यह मुमकिन है कि आरोपियों ने किसी कर्मकांड के तहत ही बच्ची के साथ बर्बरता की हो. उपराज्यपाल दफ्तर से कार्रवाई के डर से उनमें से कोई भी रिकॉर्ड पर बोलने के लिए तैयार नहीं था. गौरतलब है कि एक केंद्र शासित प्रदेश के रूप में जम्मू और कश्मीर के उपराज्यपाल की बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के प्रति जवाबदेही रहती है. अधिकारियों ने मुझे बताया कि उन्होंने मामले में कर्मकांडी प्रथाओं की संभावित भूमिका की जांच नहीं की क्योंकि उन्हें लगा कि यह जांच के लिए प्रासंगिक नहीं है. जांच दल के एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया कि दल के ज्यादातर अधिकारी मुसलमान थे, जो न तो इन प्रथाओं को समझते थे और आस्था से जुड़ा मामला होने के चलते इससे दूर ही रहना चाहते थे.

पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया कि देवीस्थान में जांचकर्ताओं की पड़ताल के दौरान किसी भी मुस्लिम पुलिस अधिकारी ने पुश्तैनी हॉल में प्रवेश नहीं किया. उन्होंने बताया कि इसके बजाए हॉल की जांच के लिए एक ब्राह्मण महिला पुलिस अधिकारी को नियुक्त किया गया था. उन्होंने देवीस्थान के एक कोने से कई बाल बरामद किए, जिनके फोरेंसिक विश्लेषण से पता चला कि उनमें से एक नमूना पीड़ित बच्ची के बालों का था. पुलिस अधिकारियों ने मुझे यह भी बताया कि इस मामले में उन पर काफी दबाव था. इससे पहले कि वे पूछताछ के लिए किसी गवाह को बुलाते, उन्हें एक वरिष्ठ राजनेता का फोन आ चुका था.

इस जघन्य हत्या ने देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया था. लेकिन हर बार की तरह इस बार भी धर्मांधता और जघन्य कृत्यों को बढ़ावा देने में कर्मकांडों और अंधविश्वासों की भूमिका पर एक राष्ट्रीय बहस को गोल कर दिया गया. जब अपराधी आस्था के नाम पर किसी इंसान को डायन, यौन वस्तु या बलि के मेमने जैसी पहचान देते हैं, तब वह हर शख्स को समाज के पतन में अपना जोड़ीदार बना बैठते हैं. ऐसे अपराध अमूमन लोगों और समुदायों को उनकी हैसियत या जगह बताने की मंशा से किए जाते हैं. मध्य प्रदेश में बर्बरता की एक क्रूर रात से बच निकली सीमा कटारा को अपनी आजादी और पितृसत्तात्मक रूढ़ियों को तोड़ने के लिए दंडित किया गया. अपनी मर्जी के खिलाफ एक साधु के साथ शारीरिक संबंध बनाने से इंकार करने की हिम्मत दिखाने वाली रजनी यादव को गंगा में डुबो दिया गया. और कठुआ में वयस्क पुरुषों द्वारा एक बकरवाल बच्ची का बलात्कार और हत्या कर दी गई, जिसकी पूरी वजह हम अभी भी नहीं जान पाए हैं.

(पुलित्जर सेंटर के साथ साझेदारी में की गई कारवां अंग्रेजी के अक्टूबर 2021 अंक की इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद कुमार उन्नयन ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)




सृष्टि जसवाल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह भारत में खोजी पत्रकारों के समूह द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की सदस्य हैं. वह इंटरन्यूज और किसा लैब्स के साथ 2020 मोजो फेलो थीं. उन्हें नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया का अनुदान भी मिला है.