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जैसे-जैसे भारत 2019 के आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है, यह खुद को एक चौराहे पर खड़ा पा रहा है. पिछले 5 सालों में एक धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी लोकतंत्र के भारत के विचार को नरेंद्र मोदी की सत्तावादी सरकार ने बेहद कठिन चुनौती दी है. इसमें संघ परिवार का समर्थन शामिल है, क्योंकि संघ उग्रवादी हिंदू राष्ट्रवाद की तलवार लिए चलता है.
विकास के बावजूद बेरोजगारी 4 दशक पीछे चली गई है, ऐसे में अब यह साफ हो रहा है कि मोदी सरकार आर्थिक विकास के अपने वादे को निभाने में नाकाम रही है. लेकिन क्या इससे बीजेपी को अभी मिल रहे बहुसंख्यकों के समर्थन में कमी आएगी, यह देखना अभी बाकी है. कार्यकर्ता और फिल्मकार आनंद पटवर्धन की पिछली डॉक्यूमेंट्री “विवेक” देखने से पता चलता है कि अगर बीजेपी चुनाव हार भी जाती है तो भी हिंदुत्व का जुलूस थमने वाला नहीं है.
लगभग आधा दशक के समय में विवेक आठ भागों की भूमिका निभाता है. इसके सहारे हाल में हुए हिंदुत्व के उदय और उस खून के निशान को भी दिखाया गया है, जो इस उदय के दौरान खिंचा चला आया. फिल्म में नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पनसारे जैसे तर्कवादियों की हत्या को भी दिखाया गया है. वहीं, यह भी दिखाया गया है कि कैसे ये हत्याएं उग्रवादी हिंदू संगठन सनातन संस्था से जुड़ी थीं. गोरक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों पर हुए हिंसक हमलों को भी दिखाया गया है और जाति आधारित भेदभाव की वजह से आत्महत्या का कदम उठाने वाले रोहित वेमुला के मामले को भी दिखाया गया है. इनके अलावा हिंसा की कई छोटी-बड़ी घटनाओं को दिखाया गया है जो वर्तमान के उथल-पुथल भरे माहौल से जुड़ी हैं.
जैसा कि फिल्म उन जख्मों को तलाशती है जो इस हिंसा ने भारत से सामूहिक चैतन्य पर छोड़ा है, इसमें एक ऐसा नागरिक और समाज समाने आता है जिसमें हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद गहरे जाकर बैठा है. ऐसे में यह सोचना मुश्किल है कि इस विचारधारा को एक चुनाव भर में समाप्त किया जा सकता है. मार्च के अंत में मैंने पटवर्धन से फिल्म और इसकी थीम के बारे में बात की थी. उन्होंने कहा, “मैं उम्मीद करता हूं कि अगर आप में थोड़ी भी मानवता है तो यह आपको झंकझोर देगी. ऐसा इसलिए नहीं कि यह महान फिल्म है बल्कि जिस बारे में यह बात करती है वह सच और दुखी करने वाला है.”
विस्वाक: फिल्म आठ भागों में हैं जिनमें कई सारी बातें हैं- इनमें हत्याएं, गाय के नाम पर हिंसा, हिंदू आतंकवाद और दलितों पर आत्याचार जैसी बातें शामिल हैं. यहां तक कि यह हिंदू दक्षिणपंथ के शिवाजी और वीडी सावरकर जैसे आदर्शों की विरासत का भी विश्लेषण करती है. भगवा से जुड़े इस विशाल कैनवास में क्या थीसिस समाया है?
आनंद पटवर्धन: विवेक आज के सांप्रदायिक बंटवारे की जड़ को अंग्रेजों की “बांटों और राज करो” की नीति में जाकर तलाशता है. आजादी के बाद शाही ब्रिटिश ताकत की जगह एक और महाशक्ति अमेरिका ने ले ली. इसने सोवियत यूनियन के अफगानिस्तान में बढ़ते प्रभाव को समाप्त करने के लिए हमारी सीमा पर बसे देशों में इस्लामिक जिहाद को जन्म दिया. हालांकि, फिल्म इसकी सतह को छूकर निकलती है, भारत-पाकिस्तान, हिंदू-मुसलमान उस एजेंडे का शिकार बन गए जो कहीं और बनाया गया था. फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि आज जो हो रहा है उसके लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं, ऐसे में फिल्म का मुख्य केंद्र बिंदू भारत में फासीवाद का उदय और इसके साथ मानवतावादियों और तर्कवादियों की जारी जंग है.
वी: फिल्म में आपने ढेर सारे गुस्सैले युवकों का साक्षात्कार किया है. इसका कथाकार खुद को “तूफानी सैनिक” बताते हैं जो कि उसी तबके से आते हैं जिसे ब्राह्मणवाद ने बेरोजगार बना दिया. एक औसत “तूफानी सैनिक” कौन होता है? आप उनकी आकांक्षाओं और प्रेरणाओं से क्या समझ पाए?
एपी: असली लाइन है, “आज का ब्राह्मणवाद तिंरगे में लिपटा हुआ है, इसके तूफानी सैनिक उस तबके से आते हैं जिसे इन्होंने नकारा बनाकर बेरोजगार कर दिया.”
फिल्म में पहले कॉमरेड (गोविंद) पनसारे-तर्कवादियों में से एक जिन पर यह फिल्म बनी है- ने ब्राह्मण जाति में जन्में लोगों और ब्राह्मणवाद की विचारधारा के बीच फर्क किया था. एक तरफ जहां ब्राह्मण जाति में जन्मा व्यक्ति इससे बाहर आ सकता है, ब्राह्मणवाद की विचारधार प्रधानता एक नशीली बीमारी है जिसे पनसारे संक्रामक बताते थे.
इसमें, कमेंट्री लाइन एबीवीपी के युवा के साथ चलती (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, आरएसएस का छात्रसंघ) है जो हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के दलित और वामपंथी युवाओं को हिंदुत्व की जहरीली गालियां दे रहा होता है. दलित और वामपंथी रोहित वेमुला की उत्प्रेरित आत्महत्या के बाद इकट्ठा हुए थे. यह दक्षिणपंथी तूफानी दस्ते के सैनिक सच में तिरंगे में लिपटे हुए होते हैं- हालांकि, आरएसएस ने 1947 में तिरंगे के खिलाफ पुरजोर लड़ाई लड़ी थी. उनकी मांग थी कि भारत को भगवा “हिंदू” झंडा अपनाना चाहिए. उनके साथ आगे की बातचीत में पता चलता है कि उन्हें गांधी की हत्या की कोई तथ्यात्मक जानकारी नहीं है और इससे दिमाग की वह सफाई सामने आती है जो आज के दौर में हर जगह दिख जाती है. हमारी शिक्षा प्रणाली ठीक से बंटी हुई है और इससे निकलकर भारी संख्या में उम्मीद से लबरेज आकांक्षी कामकाजी जातियों के युवा आते हैं. उनकी इकलौती आकांक्षा नौकरी पाना होती है ताकि वे खुद की उपभोक्तावादी जीवन शैली को संतुष्ट कर सकें, चाहे यह किसी और की कीमत पर हो.
तर्क, मानवता और बेहतर दुनिया के लिए ऐसे अन्य आदर्शों की हमारी शिक्षा व्यवस्था में कोई जगह नहीं है. किसी कीमत पर सफलता अहम है. हमारे युवाओं का सपना कैंपस से मिलने वाली नौकरी से लेकर ऑफिस के कोने तक सीमित है और हमारे आदर्श धीरूभाई अंबानी हैं- कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवानी और मेधा पाटेकर (कार्यकर्ता) जैसे नेता नहीं. लेकिन क्योंकि सोच और निर्णायक्ता से कोई लेना देना नहीं और कोई सहानुभूति नहीं, सिस्टम से शिक्षित युवा तो निकलते हैं लेकिन वे मानसिक रूप से बांझ, लक्ष्यहीन और बेरोजगार होने के अलावा अंदर से दुखी होते हैं, अपनी भविष्य को लेकर क्षुब्ध और गुस्से में होते हैं. वे तूफानी दस्ते के सच्चे सैनिक होते हैं.
वी: हिंदुत्व पर आपकी पहली फिल्म “राम के नाम” 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने से ठीक पहले आई थी. आपके पहली बार इस पर काम करने से लेकर हिंदुत्व की मुहिम कैसे आगे बढ़ी है?
एपी: राम के नाम भारत के लोगों और तब की भारत सरकार के लिए एक चेतावनी थी. चेतावनी इस बात की कि हिंदू चरमपंथ बढ़ रहा था और अगर इसे धर्मनिरपेक्ष संस्कृति द्वारा रोका नहीं गया तो यह आपे से बाहर हो जाएंगे. चेतावनी पर ध्यान देने के बजाए, इसके बाद आई “धर्मनिरपेक्ष” सरकारों ने फिल्म के दूरदर्शन पर चलने से रोक लगा दी. फिर 5 साल बाद मैं कोर्ट केस जीत गया और प्राइम टाइम में इसे दूरदर्शन पर चलाए जाने पर मजबूर किया. असल में हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकारों ने राम के नाम दिखाने के बजाए टीवी पर बिना रुके रामायण दिखाई वह भी तब तक जब तक यह देश के हर नुक्कड़ पर नहीं पहुंच गया.
1990 में जो शुरू हुआ वह सिर्फ संयोग से आर्थिक उदारीकरण के उदय के साथ नहीं चला. सार्वजनिक और निजी उद्यमिता के नेहरूवादी अर्थशास्त्र ने पूरे तौर से बाजार आधारित अर्थव्यवस्था को जगह देना शुरू किया. इसने अपने दांत भारत के मांस में गड़ा दिया है. कोई शक नहीं कि आज का भारत अल्पसंख्यकों के खिलाफ आजादी के बाद के शुरुआती दौर वाले भारत की तुलना में ज्यादा नफरता पाले हुए है. आप सिर्फ बॉलीवुड को देखिए और आप बीतते दशकों के साथ आए बदलाव को समझ जाएंगे.
वी: कट्टर हिंदूवादी समूह सनातन संस्था को पनसारे, दाभोलकर और लेखक गौरी लंकेश की हत्या से जोड़ा गया है. बीजेपी इससे अपना कोई संबंध नहीं मानती और सनातन वाले भी हत्यारों के साथ जोड़े जाने को स्वीकार नहीं करते. इनका कहना है कि हत्यारे किसी और हिंदुवादी संस्था के थे. विचारधारा के स्तर पर इन सबका जुड़ाव साफ है. आएसएस, यानी जहां से यह विचारधारा आती है उनकी जवाबदेही शून्य है.
एपी: कई सनातनियों को पकड़ा गया लेकिन बाद में छोड़ दिया गया, शुक्रिया उन हिंदुत्ववादी वकीलों का जो उनके बचाव में दौड़े चले आए. 2002 से 2008 के बीच हुए बम धमाकों के आरोपियों का सच भी यही है. राजनीति वर्ग में यह दम नहीं दिखता कि हिंदुत्ववादी आतंकियों को कैद में रख पाएं. कहीं न कहीं अदंर से वे इसे मानना नहीं चाहते हैं. बावजूद इसके की सबूत उनकी आंखों में झांक रहा है, जैसे कि रिकॉर्ड की गई बातचीत. इन संगठनों और आरएसएस के बीच के विचारधारा से जुड़े लिंक भी बिल्कुल साफ हैं. यह तथ्य कि कुछ भी करने के बावजूद इन समूहों को बैन नहीं किया जाता दिखाता है कि इन्हें किस तरह का संरक्षण प्राप्त है.
वी: फिल्म में एक धमाकेदार हिस्सा है जो मुंबई के आतंक-विरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे के निधन को दिखाता है. उनकी मौत 2008 के आतंकी हमले के दौरान हुई थी. यह हिस्सा मजबूती से यह एहसास कराने की कोशिश करता है कि 26 नवंबर को हुई गोलीबारी में उनकी मौत संभवत: किसी ऐसे षडयंत्र का हिस्सा हो सकता है जो उन्हें रास्ते से हटाने के लिए रचा गया था. ऐसा इसलिए क्योंकि देश भर में कई आतंकी हमलों में शामिल हिंदुवादी संगठनों से जुड़ी उनकी जांच के तहत अहम नतीजे आना शुरू हो गए थे. विडंबना है कि फिल्म का सबसे धमाकेदार हिस्सा वह है जिस पर सबसे कम रिपोर्टिंग हुई है. क्या आप इसे समझा सकते है? इस पर आपका क्या कहना है कि ऐसे दावों पर मीडिया ने रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया?
एपी: मुझे लगता है कि मैं उन साक्ष्यों के पहाड़ संग न्याय नहीं कर सकता जो विडंबना से ठीक उन्हीं कोर्ट की कार्यवाइयों से निकली है जिनके बूते उस पर पर्दा डाला गया जो कि संभवत: करकरे की हत्या के लिए बिछाया गया जाल था. कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय किताबों में इसके बारें लिखा गया है. इनमें से सबसे ज़्यादा परिश्रम कर एसएम मुशरिफ ने किताब लिखी है. वह एक पूर्व आला पुलिस अधिकारी हैं जो सर्वोत्तम ईमानदारी के साथ सेवानिवृत्त हुए. (मुशरिफ दो किताबों के लेखक हैं. इनके नाम- करकरे को किसने मारा?: भारत में आतंकवाद का असली चेहरा और 26/11: न्यायालय भी कैसे असफल रहा.) मैं सिर्फ चाहता हूं कि दर्शक का दिमाग खुला रहे. देश में अजीब और आश्चर्यजनक चीजें हो रही हैं. विदेशी ताकतें घरेलू आतंकी समूहों के साथ आ रही हैं ताकि वे उस एजेंडे को पूरा कर सकें जिसका भारतीय नागरिक के भरे और सुरक्षा से कोई लेना-देना नहीं है.
वी: फिल्म में उना में हुए हमले और वेमुला की मौत के बाद दलितों की दृढ़ता और गुस्से को भी दिखाया गया है. वे चंद क्षण है जो कि पूरे हिस्से में किसी उम्मीद की गुंजाईश को दिखाते हैं. लेकिन क्या फिल्म में विश्वास के खिलाफ तार्किकता का जो ताना बाना बुना गया है वह इस तथ्य को अनदेखा नहीं करता कि दलितो की दृढता धर्मनिरपेक्ष सवर्ण अफसाने के खिलाफ है?
एपी: यह शिकायत की धर्मनिरपेक्ष, सवर्ण अफसाने अक्सर दलितों के गुस्से को हड़प लेते हैं, सही है. लेकिन जिस चीज में अंतर किया जाना है, वे बातें करने वालों और उनकी नियत के बीच फर्क का है. हर गैर दलित आलोचक को हड़पने वाले के रंग में रंग देना एकजुटता के विचार पर हमला है. पहचान की सारी धाराओं के चारों ओर बिना एकजुटता के सामाजिक और राजनीतिक कदम को निजी हित तक सीमित कर दिया जाएगा. हर कोई अपनी जन्म की पहचान के लिए ही लड़ेगा, बिना इसकी परवाह के कि इंसान इससे बहुत ज्यादा करने में सक्षम हैं. ऐसे में हम कभी भी जाति का जड़ से कैसे खात्मा करेंगे? ऐसे में गोली का शिकार बने जिन तर्कवादियों और मानतावादियों को विवेक में दिखाया गया है वे सवर्ण हैं. उनकी मौत ब्राह्मणवादी हिंदुत्व से लड़ते हुए हुई.
मैं उनकी तारिफ कर सकता हूं जिन्हें मेरे काम को लेकर गलतफहमी है. हां, मैं एक जाति विशेष में मर्द के तौर पर पैदा हुआ था. क्या इस वजह से मुझे जाति और लिंग आधारित हिंसा पर सवाल करने का हक नहीं है? असली परीक्षा यह है: क्या कोई काम जिन लोगों के लिए किया है उनके लिए उपयोगी है और सामूहिक रूप से समाज के लिए भी, बिना इसके सोचे कि यह काम किसने किया है?
वी: आम भावना में जिग्नेश मेवानी और कन्हैया कुमार जैसे युवा नेताओं को भारत के वर्तमान नेताओं के फलस के वैकल्पिक पौध के तौर पर पेश किया जाता है. राजनीति में उनका शुरुआती कदम ताकतों के साथ जुड़ने का रहा है, चाहे कुमार का कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ना हो या मेवानी का कांग्रेस के साथ काम करना हो. आपको उनकी राजनीति के बारे में क्या लगता है?
एपी: कन्हैया सीपीआई के साथ हैं. मेवानी स्वतंत्र हैं जिन्होंने फौरी तौर पर कांग्रेस का साथ दिया था. फिल्म में अन्य लोग भी हैं जिनमें इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की ऋचा सिंह जो कि अब समाजवादी पार्टी के साथ हैं; शेहला राशिद जो अब कश्मीर में एक स्वतंत्र पार्टी के साथ हैं; और अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएसन वाले रोहित वेमुला के दोस्त भी हैं. ये युवा मुझे उम्मीद से भर देते हैं. वे मौजूदा पार्टियों से जुड़ सकते हैं लेकिन मेरे विचार से वे अपने धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण भारत के विचारों के प्रति दृढ़ रहेंगे.
वी: फिल्म में एक क्षण है, प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान सनातन संस्ता का प्रवक्ता जब मीडिया से कहता है कि आनंद पटवर्धन की हड्डियां तोड़ दी जानी चाहिए. बाद में पता चलता है कि आप कमरे में थे और आपसे जब उसका सामना होता है तो कैमरा आपकी तरफ घूमता है. कई अन्य ऐसे मौके भी हैं जिनमें आप जिन लोगों पर फिल्म बना रहे हैं उनसे आपका सामना होता है. इसकी पीछे क्या सोचा थी जिसे लेकर आपने कवर उठा दिया? क्या आपको डर है कि किसी मोड़ पर आप भी निशाना हो सकते हैं?
एपी: मैं खतरे को निजी नहीं बनाता. जैसा कि हम फासीवाद के उदय को देख रहे हैं, हम सब या तो मानसिक या शारीरिक खतरे में है. बोलने से हमारे शरीर को खतरा हो सकता है और नहीं भी. लेकिन चुप रहने से हमारी आत्मा मर जरूर जाएगी.
वी: विवेक 4 घंटे की फिल्म है और इसे देखना काफी मुश्किल है. अगर देखने वाला “तर्क” के साथ है तो वह विचलित हो जाएगा और अगर वह “विश्वास” की ओर है तो आहत हो जाएगा. इस फिल्म के लिए आपने किसे दर्शक माना है? दक्षिणपंथ का मुकाबला करने के गलियारे से होते हुए क्या आप औसत भारतीय तक पहुंचना चाहते हैं या यह सिर्फ भविष्य की पीढ़ी के लिए एक दस्तावेज का काम करेगी?
एपी: मैं उम्मीद करता हूं कि अगर आपमें रत्ती भर भी मानवता है, तो यह (फिल्म) आपको झंकझोर कर रख देगी. ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि यह कोई महान फिल्म है बल्कि ऐसा इसलिए कि यह जो बताती है वह सच के साथ और दुखी करने वाला है. लेकिन यह एक ऐसी त्रासदी है जिसे रोका जा सकता है. यह तात्कालिकता में देखा जाना चाहिए वरना ऐसा हो सकता है कि भविष्य की पीढ़ियां ही न हों और सिर्फ ऐसे तिलचट्टे हों जो कि परमाणु हमले से उत्पन्न विकिरण को झेलने के बाद बच गए हों. सच में, अगर हम परमाणु युद्ध टालने में सफल रहते हैं तो भी क्या वह दुनिया जिसे अमित शाह, नरेन्द्र मोदी, अजीत डोभाल, मसूद अजहर और हाफिज सईद जैसे लोग चलाते हैं रहने लायक होगी?