27 सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस के अवसर पर पारले-जी बिस्कुट ने अपने इंस्टाग्राम पेज पर एक अभियान चलाया जिसमें कई पोस्टें थीं और प्रत्येक में किसी एक भारतीय राज्य को चित्रित किया गया था. पारले-जी गर्ल को प्रत्येक पोस्ट में राज्य विशेष की पृष्ठभूमि के साथ उस राज्य की पारंपरिक पोशाक पर दिखाया गया. लेकिन "असम" वाले चित्रण में कई पूर्वोत्तर भारतीय राज्यों की पहचानों की मिलावट थी. पारले-जी गर्ल ने क्रमशः एक काजेंग्ली और एक कवचरी पहना था जो मणिपुरी हेडड्रेस और टॉप है लेकिन पृष्ठभूमि मेघालय से मिलती-जुलती थी.
पोस्ट 27 सितंबर को अपलोड किया गया था. इन राज्यों के कई लोगों ने जब कमेंट बॉक्स में पारले-जी की आलोचना शुरू की तो पोस्ट को हटा दिया गया. उसके स्थान पर 28 सितंबर को पारले-जी ने असम, मणिपुर और मिजोरम को दर्शाते हुए तीन फोटो अपलोड किए. लेकिन पिछली पोस्ट के लिए माफी नहीं मांगी.
दिल्ली विधानसभा अनुसंधान केंद्र में शोध सहयोगी चिचबनेनी किथन कहना है, “पूर्वोत्तर के बाहर के लोगों में हमारे बारे में सीमित समझ और सभी समुदायों को एक ही मानने वाली प्रवृत्ति है.” किथन नागा समुदाय से हैं. पूर्वोत्तर राज्यों के कई लोगों ने मुझे बताया कि कैसे शेष भारत के लोग अक्सर उनकी पारंपरिक पोशाक को गलत ढंग से प्रस्तुत करते हैं और ऐसा करने को सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त मानते हैं. उन्होंने मुझे इस साल के कुछ ऐसे मामलों के बारे में बताया जो न सिर्फ अपमानजनक हैं बल्कि पारंपरिक बुनकरों की आजीविका के लिए भी खतरा बन सकती हैं.
एक घटना एक अमेरिकी वस्त्र कंपनी लेवी स्ट्रॉस एंड कंपनी से संबंधित है जिसने मिजोरमवासियों के बीच सनसनी पैदा कर दी थी. 11 सितंबर को एक फेसबुक यूजर ने तीन लाख से अधिक सदस्यों वाले एक फेसबुक ग्रुप मिजो स्पेशल रिपोर्ट पर लेवी की एक शर्ट की तस्वीर पोस्ट की. उपयोगकर्ता ने बताया कि शर्ट में एक पैटर्न था जो कि सिर पर बांधे जाने वाले मिजोरम के एक पारंपरिक वस्त्र थंगछुआ दियार पर इस्तेमाल किया जाता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के आईडीसी स्कूल ऑफ डिजाइन के रिसर्च स्कॉलर फेलनुमांवी ने कहा, "यह हमारी पहचान चुराने के जैसा है. मेरा मानना है कि अगर यह मिजो थंगछुआ पैटर्न की नकल नहीं भी है तो यह उससे प्रेरित जरूर है जो सांस्कृतिक कब्जेदारी का मामला है."
फेलनुनमावी और मिजो भाषा में मास्टर और लेखक त्सा खुपचोंग ने मुझे स्थानीय मिजो लोगों के पैटर्न के महत्व के बारे में बताया. “थंगछुआ दियार गरिमा का प्रतीक था. पुरुष जब एक तय संख्या में जनवरों का शिकार कर लेते थे तब वे इसे पहनने का सम्मान अर्जित करते थे," फेलुनमुमावी ने कहा. उन्होंने कहा, “यह सम्मान उन्हें सामाज में ऊंचा स्थान दिलाता था. इस सम्मान के साथ सामाजिक व्यवस्था और शौर्य तथा 'तलावमंगैहना’ यानी दूसरों या समाज के लिए निस्वार्थ सेवा जैसी आचार संहिता को बनाए रखने का कर्तव्य भी आया. यह परंपरा कब शुरू हुई स्पष्ट नहीं है लेकिन खूपचोंग के अनुसार, यह धीरे-धीरे औपनिवेशिक काल के दौरान मर गई. उन्होंने कहा, "जब हम ईसाई बन गए तब हमारी मान्यताएं बदल गईं और थंगछुआ और खंगचवी जैसी परंपराएं धीरे-धीरे खत्म हो गईं." हाल के वर्षों में राज्य में ही इस तरह की शर्ट बनने लगीं और मिजो पुरुषों के बीच यह एक जरूरी पोशाक सी हो गई.
तथ्य यह है कि लेवी की शर्ट पर डिजाइन थंगछुआ के समान दिखता है. फेलनुनमावी ने बताया कि यह लेवी की वेबसाइट और मिंत्रा और फ्लिपकार्ट जैसे ई-कॉमर्स मार्केटप्लेस पर उपलब्ध है. "एक दोस्त ने मिंत्रा से शर्ट खरीदी क्योंकि उसे लगा कि यह हमारे पारंपरिक पोशाक की तरह लग रहा है और उन्हें कार्यालय में होने वाले समारोहों के लिए इसकी आवश्यकता थी. हम उम्मीद करते हैं कि अगर यह अनजाने में भी हुआ हो तो लेवी गलती को स्वीकार करेगा और डिजाइन के पीछे की प्रेरणा को स्वीकार करें."
फेलनुनमावी के अनुसार, यह राज्य में बुनकरों की आजीविका को संभावित रूप से प्रभावित कर सकता है. अखिल भारतीय हथकरघा जनगणना 2019-2020 के अनुसार, मिजोरम में 27402 हथकरघा-श्रमिक परिवार हैं. इनमें से 13086 परिवार प्रति माह 5000 रुपए से कम कमाते हैं. “पूर्वोत्तर राज्यों और देश भर के कई अन्य राज्यों में पारंपरिक पोशाकें हथकरघा में बनती हैं. जब ब्रांड इन डिजाइनों का व्यवसायीकरण करते हैं और इस क्षेत्र का जिक्र तक नहीं करते हैं तो वे न केवल हमारी पहचान को छीनते हैं बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं. मिजोरम के कला और संस्कृति विभाग के निदेशक आर हिमिंगथनजौला ने इस बात को दोहराया और कहा कि इसका "हथकरघा और हस्तशिल्प क्षेत्र पर और इस क्षेत्र में शामिल लोगों की आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है."
हिमिंगथनजौला ने मुझे बताया कि निदेशालय की योजना भौगोलिक पहचान टैग के लिए थंगछुआ पैटर्न सहित स्थानीय मिजो उत्पादों को पंजीकृत करने की है. भौगोलिक संकेतक माल (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत, एक जीआई एक विशेष क्षेत्र में बनाए गए किसी विशेष उत्पाद को दी गई मान्यता का एक रूप है जिसके विशिष्ट गुणों को इसके मूल स्थान की स्थितियों के लिए जिम्मेदार माना जाता है या जिनकी प्रतिष्ठा इसके साथ जुड़ी हुई है. हिमिंगथनजौला ने बताया कि अगस्त 2019 में मिजोरम से पांच पैटर्न को जीआई टैग मिला लेकिन पंजीकरण की प्रक्रिया में समय लगता है. "मैं लेवी की कंपनी से यह समझने की अपील करती हूं कि थांगछुआ कावर इस तरह का डिजाइन है जो मिजो का मूल है और भले ही हमने इसके जीआई टैग के लिए प्रक्रिया शुरू नहीं की है लेकिन अगर वे लोग इस पैटर्न व्यापक स्तर पर बनाते हैं तो यह सही नहीं होगा. यह हमारी बेशकीमती सांस्कृतिक संपत्ति है. ”
इसी तरह मणिपुर सरकार भी इस साल अप्रैल में घटी घटना के मद्देनजर राज्य के पारंपरिक कपड़े "लिरुम फे" के लिए जीआई टैग का आवेदन करने की योजना बना रही है. 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नोवेल कोरोनोवायरस के प्रसार को रोकने के लिए जारी देशव्यापी तालाबंदी की अवधि को बढ़ा दिया. मोदी ने एक गमछा पहना हुआ था जो कि छोटे आकार का लिरुम फे था और अपने भाषण में मुंह ढंकने के लिए भी उन्होंने इसका इस्तेमाल किया था. इसे 200 मिलियन से अधिक दर्शक देख रहे थे.
मणिपुर में लिरुम फे का बड़ा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व है. ज्यादातर राज्य के स्थानीय लोगों द्वारा हस्तनिर्मित, यह प्रतिष्ठित लोगों को सम्मानित करने के लिए उपयोग किया जाता है और शादी में किसी महिला के माता-पिता द्वारा उपहार के रूप में दिया जाता है. मणिपुर के लोगों ने इसे गर्व की बात माना कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय प्रसारण पर उनके कपड़े का प्रचार किया था लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण के बाद लोग इसे "मोदी गमछा" बताने लगे जिसका उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा है.
"मणिपुर में या पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर स्थानीय समुदायों के लिए पारंपरिक कपड़े केवल कपड़े का एक टुकड़ा नहीं हैं बल्कि यह पहचान, परंपरा और इतिहास से जुड़ी बात है," इम्फाल के पत्रकार निंग्लुन हंगाल ने मुझसे कहा. उनके अनुसार, मणिपुर में अभी भी कई घरों में पारंपरिक करघे या फ्लाइंग-शटल करघे हैं. हंगाल ने कहा, "ज्यादातर व्यावसायिक उद्यम बड़े पैमाने पर नहीं किए जाते हैं क्योंकि बिजली के करघे नहीं हैं." उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि राज्य में बुनकर खुद को बनाए रखने के लिए पारंपरिक कपड़े बनाने पर निर्भर है. हथकरघा गणना के अनुसार, मणिपुर में 221855 हथकरघा श्रमिक परिवार हैं. इनमें से 96618 परिवार प्रति माह 5000 रुपए से कम कमाते हैं.
मणिपुर के हथकरघा और वस्त्र निदेशालय के निदेशक के के लामली कामे ने मुझसे कहा, "जो भी राज्य के बाहर मणिपुर में सांस्कृतिक रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले कपड़े का उत्पादन करता है, वह न केवल इसके वाणिज्यिक मूल्य बल्कि मणिपुर की सांस्कृतिक संबद्धता को भी नुकसान पहुंचाता है." निदेशालय ने केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप का अनुरोध किया है. कामे ने मुझे अक्टूबर में बताया, "हमने मणिपुर को छोड़कर देश में हर जगह उत्पादन रोकने के लिए मंत्रालय में शिकायत दर्ज कराई. मंत्रालय ने यूपी के अधिकारियों को सूचित किया है कि वे जाकर निरीक्षण करें कि उत्पादन कहां हो रहा है और वे बुनकरों से मिले. मुझे लगता है कि बाराबंकी में रिपोर्ट प्रस्तुत की गई होगी लेकिन हमें मणिपुर में रिपोर्ट नहीं मिली है. ”
कामे ने कहा कि मणिपुर में बना लिरुम फे अभी भी बेहतर है क्योंकि यह हस्तनिर्मित है. उन्होंने कहा कि जीआई टैग के लिए कपड़े के बारे में ऐतिहासिक डेटा को संकलित किया जा रहा है. "जैसा कि पांडुलिपियां बहुत पुरानी हैं, उनका अंग्रेजी में अनुवाद किया जा रहा है." यह पूछे जाने पर कि क्या निदेशालय फ्लिपकार्ट और अमेजन में मोदी गमछा की बिक्री रोकने की कोशिश करेगा, उन्होंने कहा कि जीआई पंजीकृत होने के बाद वह ऐसे मामलों से निपटेंगे.
मिंट लाउंज की फीचर लेखिका जाह्नबी बोराह ने कहा कि भोजन और कपड़े पूर्वोत्तर राज्यों में लोगों की सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े हैं. बोरहा ने पूर्वोत्तर वस्त्र पर शोध करने के लिए 2019 में असम, नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय का दौरा किया था. "इसके कुछ व्यापक उदाहरण हैं जैसे असम के बोडो लोग फर्न की तरह के पैटर्न की एक खास पारंपरिक असमिया पोशाक, मुगा मेखला-सैडर्स बनाते हैं. लाल धागे की बुनावट के प्रति असमिया औरतों का भावनात्मक लगाव है. नागालैंड में वहां के चाखेशांग समुदाय के चटख नारंगी रंग के डिजाइन और पैटर्न वाली मेखलाएं पारंपरिक रैपराउंड स्कर्ट और शॉल बेमिसाल हैं," उन्होंने बताया. बोराह ने कहा कि पूर्वोत्तर भारत की संस्कृति और परंपराओं के बारे में और अधिक लिखे जाने की जरूरत है.
इस क्षेत्र में विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक जड़ों का सम्मान करने का महत्व जुलाई में भी सामने आया, जब काकू फैन्सी ड्रेस नाम की दिल्ली की एक कंपनी ने फ्लिपकार्ट और अमेजन पर एक आदिवासी नागा पोशाक की नुमाइश की. वह पोशाक लाल बेल्ट और लाल रंग के हेडवियर के साथ तेंदुए की प्रिंट वाली थी. नागा स्टूडेंट्स यूनियन के गुजरात चैप्टर के सूचना एवं प्रकाशन सचिव निटो जस्टिन किन्नी ने कहा, "नागाओं के लिए पारंपरिक पोशाक पवित्र होती हैं और विभिन्न आदिवासियों या जनजाति के लोगों के लिए भी ऐसा ही है. वे महज व्यापार और लाभ के लिए हमारी पारंपरिक पोशाक को गलत ढंग से पेश करें यह सही नहीं है."
नागालैंड के समाचार पत्र मोरंग एक्सप्रेस के अनुसार, इस साल जुलाई में अमेजन और फ्लिपकार्ट के खिलाफ काकू फैंसी ड्रेस मामले के बारे में शिकायत दर्ज की गई थी. शिकायतकर्ता चुनथाइलु गोनमे ने मुझे बताया कि शिकायतकर्ताओं ने अमेजन और फ्लिपकार्ट को सीधे नोटिस दिए और दोनों कंपनियों को भेजे ईमेल दिखाए. मैंने उन्हें ईमेल किया और फ्लिपकार्ट ने कोई जवाब नहीं दिया. अमेजन का प्रतिनिधित्व करने वाली एक पीआर कंपनी के प्रतिनिधि लिनेट लॉयाल ने मेरे द्वारा भेजे गए ईमेल का जवाब दिया. लॉयाल ने मुझे एक फोन कॉल पर बताया कि वह सीधे कोई टिप्पणी नहीं कर सकती क्योंकि वह सीधे अमेजन से नहीं हैं और यह भी कहा कि इस मामले को देख रही हैं. पोशाक अभी भी इन प्लेटफार्मों पर "काकू फैंसी ड्रेस ट्राइबल डांस कॉस्ट्यूम फॉर किड्स" के नाम से उपलब्ध है. गोनमे ने कहा कि इस तरह की गलत बयानी के दूरगामी परिणाम होते हैं. "यह आदिवासी या नागा लोगों की 'जंगली' के रूप में स्टीरियोटाइप छवि को पुष्ट करता है, जो गैस संस्कारी, जंगली और अजीब हैं." उन्होंने कहा कि "असली पारंपरिक नागा वेशभूषा को देखने के लिए" कोई प्रयास नहीं किया गया.
रिसर्च फेलो किथन ने बताया कि यह उनके गृह राज्य में पारंपरिक पोशाक बनाने वाले लोगों के लिए क्यों निराशाजनक था. “मैंने अपनी मां और मौसी को कई हफ्तों तक श्रमसाध्य रूप से काम करते हुए देखा है जो कि एक ही रैपअराउंड या शॉल का जटिल डिजाइन बनाने का काम करती हैं, जो लिंग, आयु और जनजाति विशिष्ट हैं. रंग और डिजाइन आदिवासी संदर्भ में किसी व्यक्ति के जीवन के विभिन्न अवसरों और चरणों को दर्शाते हैं. किथन ने कहा, “अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसे प्लेटफॉर्म को अपने विक्रेताओं द्वारा उपलब्ध कराए गए क्रॉस-चेकिंग तथ्यों की जिम्मेदारी लेनी चाहिए. वे महज यह कह कर नहीं बच सकते कि उनके विक्रेता क्या बेच रहे हैं उन्हें नहीं पता है. "
किथन ने कहा कि पूर्वोत्तर भारत का सीमित ज्ञान समस्या की जड़ है. "एक दिन मैं और मेरे साथी खाने की आदतों पर चर्चा कर रहे थे और मेरे एक साथी ने कहा, 'नॉर्थ ईस्ट में लोग चाउमीन खाते हैं.' वह यह नहीं समझते हैं कि सभी आठ राज्य में सैकड़ों समुदायों और समूहों के लोग बसे हुए हैं जिनकी अपनी खास बोलियां, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खाने की आदतें और धार्मिक प्रथाएं हैं."