मार्च 2018 में कर्नाटक के विख्यात शहर हम्पी में स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय ने गोंडी भाषा के पहले मानकीकृत शब्दकोष को प्रकाशित किया. गोंडी, गोंड कहे जाने वाले आदिवासी समुदाय की भाषा है. भारतीय प्रायद्वीप में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों के लिए आदिवासी शब्द इस्तेमाल किया जाता है, वहीं ट्राइबल शब्द उत्तर-पूर्व भारत की अनुसूचित जनजातियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. मध्य भारत के आदिवासी समूहों के दमन के इतिहास और उत्तरोत्तर होने वाले हाशियाकरण को ध्यान में रखा जाए तो गोंड शब्द बाहर से थोपा गया लगता है. एक करोड़ से अधिक आबादी वाला और देश का दूसरे सबसे बड़ा आदिवासी समूह अपने आप को ‘कोइतुर’ कहता है जिसका मोटे तौर पर अर्थ ‘लोग’ निकलता है.
गोंडी शब्दकोष इस समुदाय के अपनी मातृभाषा को पुर्नजीवित करने के ऐतिहासिक कदम का नतीजा था जो भारतीय राज्य की नीतियों में जान-बूझकर अलग-थलग और नदारद कर दी गई थी. यह शब्दकोष साल 2014 से 2017 के बीच हुईं सात कार्यशालाओं के बाद तैयार हुआ जिसमें कोइतुर समूहों की पैतृक मातृभूमि रहे सात राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और कर्नाटक से आने वाले गोंडी भाषा के सैकड़ों विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने भाग लिया.
नवंबर 2015 में मैंने महाराष्ट्र के चंद्रपुर में हुई छठी कार्यशाला में कार्यकर्ता के रूप में हिस्सा लिया. जैसे ही मैंने आयोजन स्थल में प्रवेश किया, सभागार सेवा जोहार, लिंगो और पेरसा पेन से गूंज रहा था. “सेवा” और “सेवा जोहर” शब्द का इस्तेमाल स्वागत या प्रकृति और पुरखों को आभार व्यक्त करने के लिय भी करते हैं जबकि पेरसा पेन या फड़ापेन, गोंडी के सर्वोच्च देवता के लिए इस्तेमाल किया जाता है. पहांदी पारी कुपार लिंगो या लिंगो, गोंडी समुदाय के पूर्वज हैं जिन्हें देवता भी माना जाता है और उन्होंने ही कोइतुर समाज और धर्म की रचना की. उन्होंने ही कोया पुनेम की मौजूदा कबीलाई व्यवस्था की स्थापना की जिसे कोइतुर समुदाय का धर्म भी माना जाता है.
इस व्यवस्था के तहत, कोइतुर लोगों को 12 समूहों में बांटा गया है जिसमें से प्रत्येक समूह में 750 कबीले होते हैं. हर समूह के कबीले आपस में रक्त संबंध से जुड़े होते हैं. जैसे ही इन शब्दों की गूंज थमी, सभागार में जमा लोगों ने इस साल के आरम्भ में गुजरे गोंडी भाषा के विद्वान और समकालीन समय के सर्वाधिक प्रभावशाली कोइतुर विद्वानों में से एक मोतीरावण कंगाली को श्रद्धांजलि दी. कोइतुर समुदाय के ऐतिहासिक चरित्रों जैसे 1704 से 1719 तक चंद्रपुर राज्य की महारानी रहीं रानी हिराई, 500 कोइतुरों के साथ साल 1857 में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह छेड़ने वाले मध्य भारत के पहले व्यक्ति बाबूराव शेडमाके और लिंगो की तस्वीरें मंच पर सबसे आगे रखी थीं.
भाषा के सूत्रीकरण के अलावा, ये कार्यशालाएं देश भर से आए कोइतुर समुदाय के लोगों के लिए सामाजिक और राजनीतिक संवाद की और कोइतुर संस्कृति का जश्न मनाने की जगहें भी बन गई थीं. चंद्रपुर की कार्यशाला पेन ठाना की यात्रा के साथ खत्म हुई. पेन ठाना- चंद्रपुर के जंगलों में काफी अन्दर स्थित यह एक पवित्र स्थान है जहां पूर्वजों की आत्माएं निवास करती हैं. इसमें गोल घेरे के आकार के पत्थर रखे हैं जिसमें प्रत्येक पत्थर प्रतीकात्मक रूप से पूर्वज की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है. शाम तक ये स्थान “जात्रा” सा प्रतीत होने लगा. जात्रा में कोइतुर समुदाय के लोग अपने रीति-रिवाजों और नाच-गाने आदि से देवताओं से प्रार्थना करते हैं और आशीर्वाद मांगते हैं. महिलाएं और पुरुष एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते और आम तौर पर जात्रा के अवसर पर गाए जाने वाले गाने रेला पाटा को सूरज ढलने तक गाते रहे.
गोंडी भाषा का वर्गीकरण प्रोटो दक्षिण-केन्द्र द्रविड़ भाषा के रूप में किया गया है और इसका संबंध व्यापक रूप से द्रविड़ भाषा परिवार से है. यह तेलुगु, कन्नड़, तमिल जैसी अन्य द्रविड़ भाषाओं से काफी मिलती-जुलती है. कोइतुर समुदाय की एक पुरानी वाचिक कहानी में गोंडी के उद्भव के बारे में बताया गया है जिसके अनुसार, लिंगो, बांसुरी और ड्रम जैसे संगीत के अनेक उपकरणों के विद्वान थे. सबसे पहले इस भाषा के ध्वनि-शास्त्र को डमरू की आवाजें सुनकर उन्होंने ही विकसित किया गया और उसके बाद यही कोइतुर समुदाय की मानक भाषा बन गई. गोंडी भाषा के विद्वान कंगाली ने अपने कुछ अग्रणी शोधों में से एक में कहा है कि सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि को कोइतुर समुदाय के कुलचिन्हों से समझा जा सकता है जो काफी मिलती-जुलती है. कंगाली के इस दावे को इस बात से भी समर्थन मिलता है कि बलूचिस्तान क्षेत्र की एक स्थानीय भाषा ब्रहुई, गोंडी और प्रायद्वीपीय भारत की अन्य द्रविड़ भाषाओं से काफी मिलती-जुलती है. अस्को पार्पोला जैसे इंडोलोजिस्ट भी मानते हैं कि इस बात के मजबूत प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी सभ्यता का मूल द्रविड़ सभ्यता थी.
भाषाओं को स्थानीय अस्मिता की सबसे महत्वपूर्ण निशानी के रूप में समझा जाता है क्योंकि ये भाषाएं अपने भीतर समृद्ध इतिहास, स्थानीय ज्ञान तंत्र, साहित्य और धार्मिक विश्वासों को समाहित किए रहती हैं.. भारत में जो भाषाएं विलुप्त हो गई हैं उनमें सबसे ज्यादा संख्या में आदिवासी भाषाएं ही आती हैं. साल 2014 में मानव संसाधन मंत्रालय ने ऐसी 42 विलुप्त भाषाओं की पहचान की थी- ये ऐसी भाषाएं थीं जिनको 10000 से भी कम लोग बोलते थे. इन 42 में लगभग सभी भाषाएं आदिवासी समुदायों की ही थीं.
भारत में जनजाति इतिहास और आदिवासी भाषाओं का इतिहास एक तरह से सांस्कृतिक नरसंहार का इतिहास रहा है. 18 वीं शताब्दी में आखिरी कोइतुर साम्राज्य के पतन के बाद यहां के शासन करने वाले शासकों ने वर्चस्वशाली समुदायों की भाषा थोपी और कोइतुर समुदाय के लोगों की मातृभाषा की जान-बूझकर उपेक्षा की. साल 1941 की जनगणना के वक्त जनजाति और आदिवासी समुदायों की 176 भाषाएं थीं और इनमें से केवल बोडो और संथाली को भारतीय राज्य ने मान्यता दी और वह भी साल 2004 में जाकर.
स्थानीय भाषाओं का सुव्यवस्थित ढंग से अलग-थलग पड़ना भी एक कारण रहा है जिसके चलते आदिवासियों को अपनी भूमि और संसाधनों पर अधिकार नहीं मिल सके हैं. इसका कारण ये है कि राज्य के प्रशासन की आधिकारिक भाषा और सैकड़ों स्थानीय समुदायों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में बहुत भिन्नता है. गोंडी भाषा में गीतों और कहानियों के जरिए आख्यानों को बताने की वाचिक परंपरा है जिनमें कोइतुर समुदाय के धार्मिक विश्वासों, सामाजिक मान्यताओं और मूल्यों का खजाना छिपा है. इनसे हमारे मूल और पूर्वजों के इतिहास के बारे में पता चलता है. इसलिए हमारे लिए भाषा को खोने का अर्थ अपनी संस्कृति, धर्म और पहचान की जड़ों को खो देना है. भारतीय राज्य द्वारा गोंडी भाषा के प्रति जान-बूझकर की जाने वाली लापरवाही और उसकी उपेक्षा का संबंध इस बात से है कि गोंडी की भाषाई राजनीति गोंडवाना राज्य की मांग से बहुत गहरे से जुड़ी हुई है. यह मांग सबसे पहले साल 1940 के दशक में की गई थी जब कोमाराम भीम जैसे कोइतुर समुदाय के जुझारू नेताओं ने गोंडवाना राज्य की मांग की. गोंडवाना क्षेत्र में मौजूदा समय छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र आते हैं.
गोंडी भाषी क्षेत्र, कोइतुर समुदाय के पूर्वजों की मातृभूमि गोंडवाना तक फैला है जिस पर पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर अट्ठरहवीं शताब्दी के बीच लगभग तीन सौ सालों तक चार स्वतंत्र गोंड साम्राज्यों- गढ़ मंडला, देवगढ़, चांदा, और खेरला का शासन रहा. कोइतुर विद्वान, लेखक और कवि उषा किरण आत्राम के अनुसार, गोंडी, गोंड साम्राज्य की आधिकारिक भाषा थी और सभी कानूनी, प्रशासकीय संवाद इसी भाषा में होता था. जब गोंड साम्राज्य ने इस क्षेत्र में अपनी सत्ता खोई तो गोंड भाषा और कोइतुर लोगों के इतिहास को जान-बूझकर गायब कर दिया गया.
गोंडवाना साम्राज्य के विघटन के बाद सरगुजा क्षेत्र- जो मौजूदा छत्तीसगढ़ के उत्तर में है- पर लगभग एक शताब्दी से अधिक तक बिहार के हिंदी भाषी रक्सेल राजपूतों का शासन हो गया. रक्सेल मानते हैं कि उन्होंने उस क्षेत्र पर लगभग सौ पीढ़ियों तक शासन किया लेकिन कोइतुर लोगों का वाचिक इतिहास और औपनिवेशिक दस्तावेज इस बात को प्रमाणित करते हैं कि उनके मुखिया ने इस क्षेत्र पर साल 1818 में हुए अंग्रेज-मराठा युद्ध के बाद ही शासन किया था. हिन्दू धर्म के प्रसार के साथ ही रक्सेलों ने क्षेत्र के गांवों के नाम गोंडी से बदलकर हिंदी में रख दिए और इस तरह आदिवासियों की पूर्वजों की धरती के इतिहास को गायब कर दिया. इतिहासकार भांग्या भूख्या ने अपनी किताब रूट्स ऑफ दि पेरीफेरी में लिखा है कि ब्रिटिश शासकों ने भारत के इन आदिवासी क्षेत्रों और उनके संसाधनों पर बड़े स्तर पर गैर-आदिवासी लोगों और हिन्दू समुदायों को इन क्षेत्रों में बसाने की औपनिवेशिक नीति के माध्यम से नियंत्रण स्थापित किया. ब्रिटिश औपनिवेशक नीति और बाद में भारतीय राज्य द्वारा हिंदी भाषा के थोपने से गोंडी भाषा और संस्कृति का आने वाले दशकों में और तेजी से क्षरण हुआ.
आज पूरे गोंड समुदाय में केवल 30 लाख लोग ही गोंडी बोलते हैं. सरगुजा का स्थानीय होने के नाते, मैं इस वास्तविकता को जानता हूं कि इस क्षेत्र में यह सबसे कम बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है. सरगुजा में बड़े होते हुए हम इस बात से परिचित भी नहीं थे कि गोंडी भाषा का कोई अस्तित्व है क्योंकि यह हमारे घरों में नहीं बोली जाती थी. सरगुजा में भी इस भाषा के केवल अवशेष ही बचे हैं. सरगुजा छत्तीसगढ़ी की बोली है जो इंडो-आर्यन भाषा है और जिसमें गोंडी और कुरुख दोनों के शब्द शामिल हैं. गोंडी और कुरुख क्षेत्र के दो आदिवासी बहुल समुदायों-कोइतुर और उरांव की भाषा है. यहां तक कि इस क्षेत्र में सरगुजा बोलना भी देहाती समझा जाता था जबकि हिंदी को सभ्य लोगों की भाषा माना जाता था. इसके चलते हमारी पीढ़ी के आदिवासी अपनी मातृभाषा से जुड़ी बची-खुची गोंडी को भी भूल गए और हिंदी बोलने की इच्छा करने लगे. जब तक मैं कॉलेज नहीं पहुंचा और मैंने किताबों और कोइतुर समुदाय के अपने बुजुर्गों से अपने समुदाय के इतिहास के बारे में नहीं जाना तब तक गोंडी मेरे लिए भी अपरिचित ही थी, इस तरह गोंडी शब्दकोष से जुड़ी कार्यशाला अपनी मातृभाषा को समझने की ओर मेरा पहला प्रयास था. इस अनुभव ने मुझे अपनी कोइतुर आदिवासी अस्मिता को भी गर्व से स्वीकारने में मदद की.
सरगुजा जैसे क्षेत्रों में गोंडी भाषा के विलुप्त होने का मुख्य कारण भारत के निर्माण के बाद गोंडवाना के पूर्व साम्राज्य का कई राज्यों में विघटन होना था. साल 1940 में आदिवासी समुदाय के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन आदिवासी महासभा का पहला सम्मलेन पूर्व बिहार के आदिवासी प्रतिनिधि जयपाल मुंडा के नेतृत्व में आयोजित हुआ. इस सम्मलेन में भारतीय राज्य द्वारा आदिवासी भाषाओं और संस्कृति को मान्यता देने के लिए प्रस्ताव पारित किया गया. 14 सितम्बर 1949 में संविधान सभा की बहसों के दौरान मुंडा ने मुंडारी, गोंडी और उरांव को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव रखा. आठवीं अनुसूची में राज्य द्वारा आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाओँ को रखा जाना था. मुंडारी को मुख्य रूप से झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में मुंडा लोगों द्वारा बोला जाता है, गोंडी का प्रभाव मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में है जबकि उरांव या कुरुख मुख्य रूप से झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में उरांव या कुरुख लोगों द्वारा बोली जाती है.
मुंडा का तर्क था कि मुंडारी को 42 लाख, कुरुख को 11 लाख और गोंडी को 32 लाख लोग बोलते हैं और इन भाषाओं को मान्यता देने से आदिवासियों के प्राचीन इतिहास से काफी कुछ सीखने को मिलेगा. मुंडा ने यह तर्क भी दिया कि एक तरफ तो आदिवासी भाषाओं को मान्यता नहीं दी गई है वहीं दूसरी तरफ बाहरी भाषाओं को उन पर थोप दिया गया है. उन्होंने कहा, “क्या किसी बिहारी ने संथाली सीखने की कोशिश की जबकि आदिवासियों से बाकी भाषाएं सीखने को कहा जाता है?” उन्होंने जोड़ा, “क्या (पिछले मध्य प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री) पंडित रवि शंकर शुक्ल ने सेंट्रल प्रॉविन्स में 32 लाख लोगों के गोंड बोलने के बावजूद गोंडी भाषा सीखने की कोशिश की?”
मुंडा के प्रस्ताव के बावज़ूद इन तीन भाषाओं में से किसी को भी आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया- ये भाषाएं अब भी इस अनुसूची से बाहर हैं. इस अस्वीकृति का प्रत्यक्ष परिणाम ये हुआ कि जब 1950 के दशक में भारत अपने राज्य की सीमाओं का भाषाई आधार पर पुर्नगठन कर रहा था तो आदिवासी अपना राज्य मांगने की स्थिति में ही नहीं थे क्योंकि उनकी भाषा को मान्यता ही नहीं दी गई थी. साल 1956 में गोंड राज परिवार के वंशज और तब के सांसद राजा लाल श्याम शाह ने एक औपचारिक दलील दी थी लेकिन राज्य पुर्नगठन आयोग ने उनकी दलील ठुकरा दी. साल 2015 में एक इंटरव्यू के दौरान कांगली ने मुझे यह बताया, “उनकी दलील को इस आधार पर खारिज किया गया कि गोंडवाना क्षेत्र के पास ऐसी कोई लिपि या भाषा नहीं जो इस क्षेत्र को एकीकृत कर सके. इस बात का कोई तर्क नहीं था क्योंकि मध्य प्रदेश के पास भी अपनी कोई भाषा नहीं थी”.
उन्होंने यह भी महसूस किया कि गोंडी के मानकीकरण के प्रयासों से अलग गोंडवाना राज्य की दीर्घकालिक मांग को भी बल मिलेगा. साल 1992 में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी या जीजीपी की स्थापना के साथ अलग राज्य की यह मुहिम पुर्नजीवित हुई. हालांकि यह मुहिम आज तीन दशकों के बाद काफी बिखरी हुई है, लेकिन इसके बावजूद भौगोलिक स्वायत्तता की इच्छा समुदाय के भीतर अब भी जिंदा है. अलग गोंडवाना राज्य की इन जिंदा इच्छाओं की झलक गोंडी के गानों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जो कोइतुर अस्मिता, इतिहास और संस्कृति के दावेदारी का प्रभावी माध्यम बन गए हैं.
स्वायत्त गोंडवाना राज्य की अस्वीकृति और इसके नए भारतीय भू-भागों में विघटन से भारतीय राज्य के साम्राज्यवादी रुख की भी पुष्टि होती है जिसका नियंत्रण व्यापक रूप से उच्च-जाति के हिन्दुओं के हाथ में है. गोंडवाना के समृद्ध इतिहास से लेकर मध्य भारत के बहुत से हिस्सों में विद्रोह को कुचलने के लिए की जा रही कार्रवाइयों से पैदा होने वाली मौजूदा हिंसा और आदिवासियों पर सुरक्षा बलों द्वारा किये जाने वाले गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों में इस बात की झलक दिखाई पड़ती है कि कैसे भारतीय राज्य ने कोइतुर के पूर्वजों की धरती पर कब्जा किया है. भारतीय राज्य ने ही क्षेत्र के एक-दूसरे से अपरिचित राज्यों में टुकड़े-टुकड़े कर दिए और जात्रा तथा त्योहारों के आने-जाने और उनके मनाने के तरीके भी अवरुद्ध कर दिए. अंत में भारतीय राज्य ने ही देश की सबसे समृद्ध और प्राचीन स्थानीय समुदायों में से एक रहे कोइतुर समुदाय को मध्य भारत के सबसे कमजोर समुदाय में तब्दील कर दिया.
औपनिवेशिक काल के दौरान विभिन्न नृतत्वशास्त्री, प्रशासकों और मिशनरियों ने गोंडी भाषा और व्याकरण के दस्तावेजीकरण पर काम किया. हालांकि कोइतुर समुदाय को गोंडी भाषा और संस्कृति के संरक्षण और उसे बढ़ावा देने की प्रेरणा तब मिली जब पूरे गोंडवाना क्षेत्र के कोइतुर समुदाय के बौद्धिक वर्ग ने संगठित होकर साल 1916 में गोंडवाना महासभा की स्थापना की. इसे साल 1930 में अखिल भारतीय गोंडवाना महासभा के रूप में पुर्नसंगठित किया गया. साल 1928 में मध्य प्रदेश के बालाघाट क्षेत्र से आने वाले गोंडी भाषा के कोइतुर विद्वान मुंशी मंगल सिंह मसराम ने इस भाषा की लिपि विकसित करने के साथ इसको पुर्नजीवित करने के लिए एक आंदोलन का नेतृत्व किया. उनके नाम पर ही इस लिपि का नाम मसराम लिपि पड़ा. इस लिपि के साथ-साथ उन्होंने गोंडी के व्याकरण को भी सूत्रबद्ध करने का काम किया. उनकी मौत के बाद उनके बेटे भावशिव मसराम ने उनके सारे बौद्धिक कार्यों पर फिर से नजर दौड़ाई और उसे साल 1957 में चार खण्डों में आदिवासी गोंडी लिपि बोध के शीर्षक से प्रकाशित करवाया. इस किताब में यह भी प्रस्ताव रखा गया था कि गोंड क्षेत्र में शिक्षा का माध्यम गोंडी होना चाहिए.
फरवरी 1931 में चंद्रपुर में गोंडी पुनेम सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें आंध्र प्रदेश, विदर्भ, कांकेर, बस्तर और ओडिशा के कोइतुर समुदाय के लोगों ने भाग लिया. इस सम्मेलन का नेतृत्व चंद्रपुर साम्राज्य के आखिरी राजा और गोंडी भाषा के संरक्षण और उसको पुर्नजीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले यादवशाहा आत्राम ने किया. इस सम्मलेन के दौरान, गोंडी भाषा और संस्कृति के संरक्षण के लिए गोंडी भाषा में बहुत से प्रस्ताव पास किए गए. इनमें से एक प्रस्ताव में कहा गया था, “गोंडी (कोया) हमारी मातृभाषा है. अगर हम इसे खोते हैं तो हम अपनी पहचान खो देंगे.” इस पूरी मुहिम को 1980 के दशक में सुन्हेर सिंह ताराम द्वारा साल 1985 में स्थापित मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘गोंडवाना दर्शन’ के प्रकाशन के साथ आगे बढ़ाया गया.
साल 2018 में ताराम की मौत से पहले तक ताराम और उनकी पत्नी उषा किरण इस पत्रिका के संपादक थे. आत्राम ने मुझे बताया, “ताराम मुंशी मसराम द्वारा क्षेत्र में चलाए गए गोंडी के भाषाई और धार्मिक आंदोलन से बहुत गहराई से प्रभावित थे और उनकी नजर पत्रिका के जरिए भाषा को प्रचारित करने पर थी.” ‘गोंडवाना दर्शन’ अब लगभग चालीस वर्षों से प्रकाशित हो रही है और यह क्षेत्र में सबसे लम्बे समय से प्रकाशित हो रही आदिवासी पत्रिकाओं में से एक है. यह कोइतुर समुदाय के अपने पूर्वजों की धरती गोंडवाना, अपनी भाषा गोंडी और कोया पुनेम पर आधारित अपने धर्म को मान्यता दिलाने के लगभग एक शताब्दी पुराने आंदोलन को जिंदा रखने का आधार भी बन गई है. आत्राम ने मुझे गर्व के साथ बताया, “यह पत्रिका उभरते हुए विचारकों और लेखकों के लिए मंच बन गई है. मोतीरावण कंगाली इन विचारकों में से एक थे जिन्होंने अपने कामों को इस पत्रिका में प्रकाशित करवाना शुरू किया और जो बाद में जाकर गोंड समुदाय का साहित्यिक आइकन बन गए.” कंगाली एक प्रशिक्षित भाषाविद भी थे जिन्होंने कोइतुर के इतिहास, संस्कृति, धर्म, भाषा आदि पर काफी लिखा और इन विषयों पर उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं.
आत्राम ने यह भी बताया, “गोंडी भाषा के मानकीकरण की आरंभिक आधारशिला साल 2014 की गर्मियों में रखी गई जब मध्य भारत के गोंड बहुल क्षेत्रों में काम करने वाले सामुदायिक-मीडिया अभियान ‘सीजीनेट स्वरा’ ने महाराष्ट्र के गोंदिया में गोंडी भाषा पर एक दस दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया.” सीजीनेट स्वरा के पूर्व सदस्य रमेश कासा के अनुसार , “कार्यशाला के दौरान उन्होंने पाया कि अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाले और गोंडी भाषा बोलने वाले एक-दूसरे को समझ नहीं पा रहे थे.” उन्होंने पाया कि अपनी मातृभूमि से शताब्दियों से अलग-थलग कर दिए और क्षेत्रीय भाषाओं को थोप दिए जाने के कारण उनकी मूल भाषा विकृत हो गई थी. तीन दशकों से भी अधिक समय तक ‘गोंडवाना दर्शन’ पत्रिका के संपादक रहे ताराम, जो इस कार्यशाला का भी हिस्सा थे, इन कमियों से अवगत थे. उन्हें मालूम था कि विभिन्न राज्यों के गोंडी बोलने वाले लोगों में कायम इस भाषाई अंतर को पाटना जरूरी है.
ताराम की बेटी शताली ने मुझे बताया, “चर्चा के दौरान ताराम ने सुझाव दिया कि गोंडी के मानकीकरण के लिए एक सामूहिक प्रयास शुरू किया जाना चाहिए जो समुदाय के साथ-साथ सीजीनेट को भी मदद करेगा.” शब्दकोष तैयार करने में शताली की मुख्य भूमिका रही है. ताराम ने ही मानकीकरण की प्राविधि या तरीके का आधार निर्धारित किया. प्रस्तावित शब्दकोष ने तीन हजार शब्दों वाले गोंडी के एक दूसरे शब्दकोष को आधार बनाया. इस आरंभिक शब्दकोष का संग्रहण आस्ट्रेलियाई भाषाविदों मार्क और जोहाना पेनी तथा गोंड समुदाय के पेंदुर दुर्नाथ राव ने साल 2004 में किया था. इसे आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले की इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी ने प्रकाशित किया था.
गोंड शब्दकोशों के कई क्षेत्रीय संस्करण भी मौजूद हैं. जीजीपी के पूर्व सदस्य और कार्यशालाओं में भाग लेने वाले गोंडी-भाषा के विशेषज्ञ गुलजार मरकाम ने कहा, “इस शब्दकोष को समुदाय द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में विकसित किया गया था. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना के पास अपना क्षेत्रीय शब्दकोष था.” उन्होंने जोड़ा, “इन शब्दकोशों में सबसे बड़ी कमी ये थी कि मराठी, हिंदी, तेलुगु जैसे राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं के प्रभाव में गोंडी के बहुत से शब्द विकृत हो गए थे और बाकी लोग नहीं समझ सकते थे.”
इस तरह जुलाई 2014 में औपचारिक रूप से मानकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई जब दिल्ली में गांधी स्मृति और दर्शन समिति में पहली गोंडी शब्दकोष कार्यशाला का आयोजन हुआ. इसका आयोजन सीजीनेट के संस्थापक सुभ्रांशु चौधरी और संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से किया गया. बाकी कार्यशालाओं का आयोजन मैसूर, अमरकंटक, आदिलाबाद, भद्र्चालम, चंद्रपुर और हम्पी में कोइतुर समुदाय के संगठनों द्वारा किया गया. इन कार्यशालाओं में, हर राज्य के प्रतिनिधियों की टीम ने अपने क्षेत्र में शब्दों के चलन के तरीकों की जानकारी प्रदान की- उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के तीन विभिन्न क्षेत्रों से गोंडी के तीन अलग-अलग शब्दों को दस्तावेजीकृत किया गया और इन्हें M1, M2 और M3 नाम दिया गया. इस तरह पूरी प्रक्रिया में इन राज्यों में एक गोंडी शब्द के छह से सात संस्करणों को रिकॉर्ड किया गया. इस पूरी प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य गोंडी शब्दों के मूल का पता लगाना था जिनका अर्थ शताब्दियों की उथल-पुथल में बदल गया था. अंततः इसका नतीजा यह हुआ कि जो कोइतुर गोंडी विशेषज्ञ दिल्ली में हुई पहली कार्यशाला में एक-दूसरे को नहीं समझ पा रहे थे, उन्होंने चंद्रपुर में हुई छठी कार्यशाला तक एक-दूसरे को समझना और एक-दूसरे से बोलना शुरू कर दिया था.
पूरी मानकीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ में नेतृत्व ताराम के सुझावों पर कंगाली ने किया था. लेकिन साल 2015 में कंगाली की एकाएक मौत के बाद हम्पी-कन्नड़ विश्वविद्यालय के आदिवासी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर के एम मैत्री ने इस जिम्मेदारी को संभाला और शब्दकोश का संपादन किया. यह प्रकाशित शब्दकोष अब एंड्रायड एप्स पर भी उपलब्ध है. इस शब्दकोष की भूमिका में मैत्री लिखते हैं कि गोंडी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाना इस शब्दकोष को तैयार करने के मुख्य उद्देश्यों में से एक है. मरकाम ने मुझे बताया, “गोंड समुदाय के विभिन्न क्षेत्रों से यह मांग बीते कई दशकों से उठती रही है. हालांकि इस शब्दकोश के प्रकाशन और दिल्ली में इसके अनावरण के बाद साल 2018 में पहली बार राष्ट्रपति को पत्र लिखकर यह मांग संगठित ढंग से की गई.”
इसके अलावा गोंडी धर्म और भाषाओं की दावेदारी बीते एक दशक में काफी बढ़ गई है और इसके परिणामस्वरूप कोइतुर संगठनों के बहुत से हिस्सों में गोंडी भाषा सिखाने की लिए कक्षाएं ली जा रही हैं. इन हिस्सों में रोजमर्रा के जीवन से अब यह भाषा गायब हो चुकी है. छत्तीसगढ़ के बस्तर में गोंडी भाषा के अध्यापक और कवि विष्णु पद्दा कुछ उन बुजुर्गों में शामिल थे जिन्होंने शब्दकोष के लिए आयोजित कार्यशालाओं में भाग लिया. पद्दा अभी बस्तर के दो जिलों में जांगो राइतार कल्याण समिति द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में गोंडी पढ़ाते हैं- इस संगठन का नाम कोइतुर समुदाय के बीच लैंगिक समानता के लिए लड़ने वाले उनके क्रांतिकारी पूर्वज के नाम पर रखा गया है. पद्दा गोंड समुदाय द्वारा उत्तरी छत्तीसगढ़ में चलाए जा रहे एक स्कूल में भी पढ़ाते हैं, यह ऐसा क्षेत्र है जहां शायद ही गोंडी भाषा में बोलने वाला कोई बचा हो. ठीक इसी तरह सामुदायिक संगठनों द्वारा छत्तीसगढ़ के बस्तर और सरगुजा और मध्य प्रदेश में मंडला और बालाघाट के इलाकों में भी गोंडी भाषा सिखाने के लिए कक्षाएं चलाई जा रही हैं.
मानकीकृत गोंडी शब्दकोष तैयार करने का एक अन्य मुख्य उद्देश्य इस भाषा का शैक्षणिक संस्थाओं में प्रचार करना था. मध्य प्रदेश के स्कूलों में गोंडी भाषा में शिक्षा का प्रस्ताव रखने में मरकाम की भूमिका अग्रणी रही है. उन्होंने मुझे बताया, “हमनें कांग्रेस पार्टी पर दबाव बनाया और यह सुनिश्चित किया कि हमारी मांग पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल हो. इस साल मार्च में कांग्रेस की नवनिर्वाचित राज्य सरकार ने राज्य के आदिवासी-बहुल जिलों में प्राथमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में गोंडी को शामिल करने की घोषणा की.”
तेलंगाना में साल 1940 के दशक में ब्रिटेन के नृतत्वशास्त्री क्रिस्टोफ वान फरेर-हेम्नडोर्फ ने गोंडी के पहले स्कूल की स्थापना की थी. उन्होंने भारत में अपने जीवन का बड़ा हिस्सा कोइतुर समाज के लोगों के बीच जिया. साल 2005 में आंध्र प्रदेश सरकार ने मार्क पेनी की मदद से राज्य के स्कूलों में गोंडी अध्यापन लागू करने के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया था. मरकाम ने मुझे बताया, ”अब गोंडी ओडिशा के आदिवासी बहुल इलाकों के प्राथमिक स्कूलों का भी हिस्सा है.”
हालांकि मसराम लिपि को समुदाय के भीतर अपेक्षाकृत रूप से व्यापक मान्यता मिल गई है, इसके बावजूद साल 2006 में आंध्र प्रदेश गवर्मेंट ओरिएंटल मनुस्क्रिप्ट्स लाइब्रेरी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधार्थियों ने संस्थान के निदेशक जयाधिर तृणमूल राव के नेतृत्व में एक और लिपि “गुंजाला गोंडी” की खोज की. राव की टीम को पहले के चंद्रपुर राज में स्थित तेलंगाना के अदीलाबाद जिले गुंजाला गांव से गोंडी की पांडुलिपि मिली लेकिन शुरुआत में वे इसे समझ नहीं सके. वर्तमान में हैदराबाद विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर दलित एंड आदिवासी स्टडीज में विजटिंग फैकल्टी के रूप में कार्यरत राव ने तेलंगाना राज्य सरकार की इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलेपमेंट आथरिटी के सहयोग से इस लिपि को समझने और अनुदित करने की प्रक्रिया शुरू की. इससे अंततः साल 2014 में गुंजाला गोंडी बोली के फॉन्ट का विकास हुआ. शोधार्थियों का यह भी मानना था कि ये पांडुलिपियां 1750 ईस्वी की हैं. ये पांडुलिपियां चंद्रपुर के गोंड राजाओं और उनके प्रधान आदिवासी से संबंधों का दस्तावीजेकृत रूप हैं. प्रधान आदिवासी कोइतुर समुदाय का ही हिस्सा है. ये पारंपरिक भाट थे जिन्होंने गाने और कहानियों के माध्यम से कोइतुर समुदाय का वाचिक इतिहास बताया. दिलचस्प यह है कि इन पांडुलिपियों से गोंड राजाओं के बर्मा यानी मौजूदा म्यांमार के साथ संबंधों का भी पता चलता है. इन पांडुलिपियों के अनुसार, इन संबंधों का नेतृत्व प्रधान लोगों ने छठी और सातवीं शताब्दी में किया.
दुर्भाग्यपूर्ण, इस प्रगति के बावजूद भी गोंडी भाषा और गोंडवाना राज का भविष्य अनिश्चित दिखाई पड़ता है. मरकाम ने मुझे बताया, “हमारा अगला कदम बाकी बचे हजारों शब्दों को दस्तावेजीकृत करना है. इसकी प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है और हम अगले कुछ सालों में शब्दकोष को विस्तार देने की योजना बना रहे हैं. इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की रणनीति पर बात करते हुए मरकाम ने कहा, “चूंकि यह भाषा पहले ही तीन-चार राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है इसलिए हम इन राज्य की विधान सभाओं में इसे आठवीं अनुसूची में लाने का दबाव बनाएंगे और उसके बाद केन्द्र सरकार से सामूहिक मांग भी की जाएगी.”
मरकाम का विश्वास है कि यह भाषा कोइतुर समुदाय के एकीकरण का मुख्य कारण है. “आठवीं अनुसूची में शामिल ऐसी कितनी भाषाएं हैं जो इन सात राज्यों में बोली जाती हैं?” उन्होंने जोड़ा, “यह दुर्भाग्पूर्ण है कि सात राज्यों के लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को संविधान में मान्यता नहीं दी गई है जबकि बहुत छोटी आबादी द्वारा बोली जाने वाली क्षेत्रीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है.” भारतीय राज्य की ब्राह्मणवादी प्रकृति इस बात से पता चलती है कि महज 24000 लोगों द्वारा बोली जाने वाली ब्राह्मण समुदाय की भाषा संस्कृत आठवीं अनुसूची में शामिल है और सरकार उसका प्रचार भी करती है जबकि 30 लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली कोइतुर समुदाय की भाषा अब भी संवैधानिक मान्यता प्राप्त करने का इंतजार ही कर रही है.