मार्च 2018 में कर्नाटक के विख्यात शहर हम्पी में स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय ने गोंडी भाषा के पहले मानकीकृत शब्दकोष को प्रकाशित किया. गोंडी, गोंड कहे जाने वाले आदिवासी समुदाय की भाषा है. भारतीय प्रायद्वीप में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों के लिए आदिवासी शब्द इस्तेमाल किया जाता है, वहीं ट्राइबल शब्द उत्तर-पूर्व भारत की अनुसूचित जनजातियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. मध्य भारत के आदिवासी समूहों के दमन के इतिहास और उत्तरोत्तर होने वाले हाशियाकरण को ध्यान में रखा जाए तो गोंड शब्द बाहर से थोपा गया लगता है. एक करोड़ से अधिक आबादी वाला और देश का दूसरे सबसे बड़ा आदिवासी समूह अपने आप को ‘कोइतुर’ कहता है जिसका मोटे तौर पर अर्थ ‘लोग’ निकलता है.
गोंडी शब्दकोष इस समुदाय के अपनी मातृभाषा को पुर्नजीवित करने के ऐतिहासिक कदम का नतीजा था जो भारतीय राज्य की नीतियों में जान-बूझकर अलग-थलग और नदारद कर दी गई थी. यह शब्दकोष साल 2014 से 2017 के बीच हुईं सात कार्यशालाओं के बाद तैयार हुआ जिसमें कोइतुर समूहों की पैतृक मातृभूमि रहे सात राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और कर्नाटक से आने वाले गोंडी भाषा के सैकड़ों विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने भाग लिया.
नवंबर 2015 में मैंने महाराष्ट्र के चंद्रपुर में हुई छठी कार्यशाला में कार्यकर्ता के रूप में हिस्सा लिया. जैसे ही मैंने आयोजन स्थल में प्रवेश किया, सभागार सेवा जोहार, लिंगो और पेरसा पेन से गूंज रहा था. “सेवा” और “सेवा जोहर” शब्द का इस्तेमाल स्वागत या प्रकृति और पुरखों को आभार व्यक्त करने के लिय भी करते हैं जबकि पेरसा पेन या फड़ापेन, गोंडी के सर्वोच्च देवता के लिए इस्तेमाल किया जाता है. पहांदी पारी कुपार लिंगो या लिंगो, गोंडी समुदाय के पूर्वज हैं जिन्हें देवता भी माना जाता है और उन्होंने ही कोइतुर समाज और धर्म की रचना की. उन्होंने ही कोया पुनेम की मौजूदा कबीलाई व्यवस्था की स्थापना की जिसे कोइतुर समुदाय का धर्म भी माना जाता है.
इस व्यवस्था के तहत, कोइतुर लोगों को 12 समूहों में बांटा गया है जिसमें से प्रत्येक समूह में 750 कबीले होते हैं. हर समूह के कबीले आपस में रक्त संबंध से जुड़े होते हैं. जैसे ही इन शब्दों की गूंज थमी, सभागार में जमा लोगों ने इस साल के आरम्भ में गुजरे गोंडी भाषा के विद्वान और समकालीन समय के सर्वाधिक प्रभावशाली कोइतुर विद्वानों में से एक मोतीरावण कंगाली को श्रद्धांजलि दी. कोइतुर समुदाय के ऐतिहासिक चरित्रों जैसे 1704 से 1719 तक चंद्रपुर राज्य की महारानी रहीं रानी हिराई, 500 कोइतुरों के साथ साल 1857 में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह छेड़ने वाले मध्य भारत के पहले व्यक्ति बाबूराव शेडमाके और लिंगो की तस्वीरें मंच पर सबसे आगे रखी थीं.
भाषा के सूत्रीकरण के अलावा, ये कार्यशालाएं देश भर से आए कोइतुर समुदाय के लोगों के लिए सामाजिक और राजनीतिक संवाद की और कोइतुर संस्कृति का जश्न मनाने की जगहें भी बन गई थीं. चंद्रपुर की कार्यशाला पेन ठाना की यात्रा के साथ खत्म हुई. पेन ठाना- चंद्रपुर के जंगलों में काफी अन्दर स्थित यह एक पवित्र स्थान है जहां पूर्वजों की आत्माएं निवास करती हैं. इसमें गोल घेरे के आकार के पत्थर रखे हैं जिसमें प्रत्येक पत्थर प्रतीकात्मक रूप से पूर्वज की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है. शाम तक ये स्थान “जात्रा” सा प्रतीत होने लगा. जात्रा में कोइतुर समुदाय के लोग अपने रीति-रिवाजों और नाच-गाने आदि से देवताओं से प्रार्थना करते हैं और आशीर्वाद मांगते हैं. महिलाएं और पुरुष एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते और आम तौर पर जात्रा के अवसर पर गाए जाने वाले गाने रेला पाटा को सूरज ढलने तक गाते रहे.
कमेंट