यूनिवर्सल बेसिक इन्कम योजना को लागू करना मुमकिन है- अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी कांग्रेस को अपनी प्रस्तावित “न्यूनतम आय गारंटी योजना” की व्यवहार्यता पर सलाह दे रहे हैं. सौम्या खंडेलवाल/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

28 जनवरी को कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की कि उनकी पार्टी की सरकार बनने पर “गरीबी ओर भूख” का अंत करने के लिए गरीबों के लिए “न्यूनतम आय गारंटी योजना " लागू की जाएगी. उनकी यह घोषणा भारतीय जनता पार्टी नी​त सरकार के अं​तरिम बजट से कुछ दिन पहले आई थी. इस योजना के तहत भारतीय आबादी के एक हिस्से को नगद हस्तांतरण की गारंटी दी जाएगी. यह योजना यूनिवर्सल बेसिक इन्कम (यूबीआई) की तर्ज पर होगी. आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार “यूबीआई काम की आवश्यकता के बिना समय समय पर व्यक्तिगत आधार पर बिना शर्त नगद भुगतान है.”

2016—2017 के आर्थिक सर्वेक्षण में पहली बार पूर्व प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रामण्यम ने इस विचार को पेश किया था. इसके बाद ओडिशा और तेलंगाना जैसे राज्यों ने थोड़े बदलाव के साथ गरीब किसानों के लिए ऐसी योजनाओं की घोषणा की और​ सिक्किम ने साल 2022 तक यूनीवर्सल बेसिक इन्कम गारंटी का प्रस्ताव दिया है. इस साल फरवरी में केन्द्र सरकार ने सीमांत और गरीब किसानों के लिए तीन किस्तों में सालाना 6000 रुपए की योजना की घोषणा की.

हाल में फ्रांस के अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने पुष्टि की कि वे और एमआईटी में अर्थशास्त्र के फोर्ड फाउंडेशन प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी इस योजना पर कांग्रेस पार्टी को सलाह देंगे. बनर्जी और पिकेटी विश्व असमानता डाटाबेस या डब्ल्यूआईडी में सहयोगी हैं. यह आय और सम्पत्ति के वितरण की ऐतिहासिक विकास का डाटाबेस है.

दिल्ली के पत्रकार रोहित इनानी ने बनर्जी से बातचीत की. दोनों ने न्यूनतम आय गांरटी योजना की भारत में संभावना और इसकी चुनौतियों पर चर्चा की. बनर्जी का कहना है, ''हमें बैंकों में पूंजी डालनी होगी ताकि वे खत्म न हो जाएं और अपना काम करने लगें.''

रोहित इनानी : आप और थॉमस पिकेटी न्यूनतम आय गारंटी योजना पर कांग्रेस को सलाह दे रहे हैं. यह कैसे हुआ और आप इस पर पार्टी से कितना तक जुड़े हैं?

अभिजीत बनर्जी : राहुल गांधी ने जिस दिन इस योजना की घोषणा की थी, उस दिन मुझे प्रवीण चक्रवर्ती ने यह कहते हुए ईमेल किया कि “देखो यह घोषणा की गई है. क्या आप इस घोषणा की संपूर्णता में समझने में हमारी मदद कर सकते हैं. हम लोग कांग्रेस के साथ इसकी प्लानिंग में शामिल नहीं थे. डब्ल्यूआईडी की स्थापना भी इसी मकसद से की गई थी यानी मांगने वालों को गैर बराबरी गरीबी के संबंध में जानकारी देने के लिए. थॉमस पिकेटी और मैं डब्ल्यूआईडी से जुड़े हुए हैं. हम लोग संख्या के संबंध में अपनी राय देते हैं. कांग्रेस इस विचार को गंभीरता से ले रही है और इसकी संभावना आदि के बारे में सवाल पूछ रही है.

इनानी : अरविंद सुब्रमण्यम ने यूनिवर्सल बेसिक इनकम का प्रस्ताव दिया था जो 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को 7207 रुपए प्रति वर्ष आय गारंटी करेगी. क्या आपने भी कांग्रेस को यही संख्या बताई है.

बनर्जी : हमारी संख्या इस पर आधारित नहीं है. हम कांग्रेस की संख्या देख कर जीडीपी का कितना हिस्सा इसके लिए आवश्यक होगा बता रहे हैं.

मुख्य बात यह है कि हमें छोटी संख्या से शुरू करना चाहिए और फिर इसे बढ़ाना चाहिए. सबसे पहले हमें एक विश्वसनीय डिलीवरी व्यवस्था स्थापित करनी होगी और यदि वह प्रभावकारी तरीके से काम करती है तो धीरे-धीरे महंगी और बिगड़ी हुई सब्सिडी को खत्म कर देना होगा. हमारा लक्ष्य, कई योजनाओं को खत्म करना और उन्हें एक प्रभावकारी व्यवस्था से बदल देना है. मेरे निजी विचार में लोगों के पास पर्याप्त मात्रा में धन होना चाहिए. यह 1200 या 1500 रुपए प्रतिमाह या 1800 रुपए प्रति माह भी हो सकता है.

इनानी : यूबीआई के विचार को सिलिकॉन वैली और यूरोप के समाजवादी भी समर्थन देते हैं. लेकिन इसे भारत में प्रस्तावित स्तर में किसी भी विकासशील देश में लागू नहीं किया गया है. हमारे पास इसकी प्रभावकारिता के बहुत कम सबूत हैं.

बनर्जी : मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं. आपको प्रोग्रेसा (मेक्सिको की एक योजना) को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि भारत में यह इसी स्तर पर लागू होगा. और आपको ब्राजील के बोलसा फैमिलिया (गरीबों को प्रत्यक्ष नगद हस्तांतरण योजना) को भी देखना चाहिए. ये दोनों बाशर्त नगद हस्तांतरण योजनाएं हैं जिनमें पात्रता की शर्तें और प्राथमिक शिक्षा की शर्ते हैं लेकिन यह शर्तें बड़ी गलतियां नहीं हैं, बहुत मामूली गलतियां हैं. कांग्रेस जिस योजना की बात कर रही है वह एक गरीबों को लक्षित न्यूनतम आय गारंटी योजना है. जो कई अफ्रीकी देशों सहित अन्य देशों में अलग-अलग रूप में सुचारू रूप से चल रही हैं. तो ऐसी बात नहीं है कि हम लोग बड़े स्तर पर गरीबों को आय हस्तांतरण को लागू करने वाले पहले देश है.

इनानी - कांग्रेस के प्रस्ताव के अलावा बीजेपी ने जो अंतरिम बजट पेश किया है उसमें गरीबों को नगद हस्तांतरण उपलब्ध कराने की व्यवस्था है. हमारे पास जो साक्ष्य प्राप्त हैं, जो अभी तक अप्रमाणित हैं, उनके मद्देनजर लक्षित योजना क्या सुब्रमण्यम स्वामी की यूबीआई जितनी प्रभावकारी हो सकती है.

बनर्जी : ये योजनाएं एक जैसी नहीं हैं. अरविंद वैश्विक योजना की बात कर रहे हैं जो बिल्कुल अलग है. वह कह रहे हैं कि लक्षित मत करिए, यह जानने की कोशिश मत करिए कि कौन महीने में 1000 से कम कमा रहा है या किसके पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है. यह जटिल नापतोल के मामले हैं और यहां लेन-देन हो सकता है. आप या तो कम लोगों को ज्यादा पैसा देंगे या ज्यादा लोगों को पैसा देंगे. अरविंद का प्रस्ताव- अधिक लोगों को कम पैसे देने का है.

यूनिवर्सल बेसिक इनकम लक्षित और ज्यादा से ज्यादा लैंगिक हो सकती है. हमारे पास शोध आधारित साक्ष्य हैं जो बताते हैं कि लक्षित करना अक्सर प्रभावकारी नहीं होता है. इस प्रक्रिया में अक्सर आप बहुत सारे गरीब लोगों को छोड़ देते हैं और जो गरीब नहीं है उन्हें शामिल कर लेते हैं. मैंने इस मामले में अरविंद से भी बात की है. आर्थिक सर्वेक्षण ने जो बताया उसमें से एक बात यह भी थी कि लक्षित करने की चिंता नहीं करनी चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या लक्षित करना इतना खराब है कि हमें इसकी बात करना छोड़ देना चाहिए.

इनानी - क्या आप ने कांग्रेस से ऐसी लक्षित नगद हस्तांतरण योजना की संभावित कमियों के बारे में बात की है.

बनर्जी : मैंने उनसे कहा है लक्षित करना समस्या पैदा करेगा. इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह समझता हूं कि इसे लागू करना असंभव है. मुझे लगता है कि उन्होंने अपना चयन कर लिया है जो इस विचार पर आधारित है कि कम लोगों को अधिक पैसा दिया जाए.

राजनीतिक व्यवस्था को इस सवाल का जवाब देना होगा कि आप कुछ गरीब लोगों को छोड़ देना चाहते हैं या आप कुछ गरीब लोगों को ज्यादा पैसा देना चाहते हैं. यह निर्णय योजना के खर्च पर आधारित होगी. यह राजनीतिक फैसला होगा. आपको दोनों में से बेहतर विकल्प का चयन करना होगा.

इनानी - यदि यह वैश्विक या लक्षित आय योजना है भी तो लंबी अवधि में यह कैसे प्रभावकारी होगी? कई विशेषज्ञों का मानना है कि लंबी अवधि में यह श्रम बाजार को क्षति पहुंचाएगी.

बनर्जी : हमने छह देशों में सरकार की नगद हस्तांतरण योजनाओं का ट्रायल करके देखा है. हमने लोगों को पैसे दिए यह जानने के लिए कि क्या पैसे देने के बाद लोग काम करना बंद कर देते हैं. हमने “आलसी कल्याणकारी लाभार्थियों” के मिथक पर अपनी फाइंडिंग्स प्रकाशित की है. ऐसे व्यवहार का कोई साक्ष्य हमें नहीं मिला.

सामान्यतः भारत के लोग आकांक्षा वाले होते हैं. आप उन लोगों का उदाहरण देख सकते हैं जो आजीविका के लिए मैला ढोने का काम करते हैं. मैं चाहूंगा कि सरकार मैला साफ करने वाली मशीनें लगाए. यह ऐसा काम करने से होने वाले अपमान से बेहतर है. मैं इस प्रकार से बाजार में आने वाले श्रम परिवर्तन को ठीक ही मानता हूं. लेकिन इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि इससे बाजार से बड़ी मात्रा में श्रम की उपलब्धता में कमी आएगी.

इनानी : अपने पेपर में आप ने यह भी दावा किया है कि दीर्घ अवधि में यूबीआई विकास समर्थक नीति के रूप में विकसित हो सकती है. क्या आपको लगता है कि यह संभव है?

बनर्जी : हम (गैर सरकारी संस्था गिवडायरेक्टिली) लोग केन्या में बड़े स्तर में एक ट्रायल कर रहे हैं जिसके आरंभिक परिणाम कुछ महीनों में सामने आएंगे. फिलहाल मुझे नहीं लगता कि यूबीआई के वृहद सकारात्मक प्रभाव के बारे में किसी के पास जवाब है. मेरे अनुसार इस बात का कोई सबूत नहीं है कि आय नीचे जाएगी. लेकिन क्या यह आय बढ़ेगी. इसके जवाब के लिए इंतजार करना होगा.

अल्प अवधि के लिए मिश्रित परिणाम दिखाई दिए हैं. 10 अध्ययनों में सकारात्मक परिणाम दिखाई दिया है और छह में नकारात्मक. मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि “एकसमान परिभाषित” कुछ भी नहीं है. फिलहाल परिणाम अलग अलग हैं. उदाहरण के लिए घाना में बिक्री से प्राप्त होने वाले राजस्व में 15 प्रतिशत प्रति माह वृद्धि की बात है.

इनानी : ऐसी योजना के लिए वित्त कहां से प्राप्त होगा जबकि वित्त घाटा काफी है. क्या लक्षित नगद हस्तांतरण के लिए पीडीएस और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून से हटाना होगा.

बनर्जी : हम लोग हाई स्पीड रेल जैसी दिखावे वाली योजनाओं, अमीरों को कर में छूट, कर्ज माफी आदि के लिए वित्त का प्रबंधन कर लेते हैं. 7 प्रतिशत की दर से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था को तीन साल तक 1 प्रतिशत जीडीपी अच्छी योजनाओं पर खर्च करना चाहिए. हमें कर में सुधार करना चाहिए और करोड़पतियों की बढ़ती तादाद को देखते हुए हम धनियों पर अधिक कर लगा सकते हैं. मुझे ऐसा लगाता है कि हमें ऐसा करना चाहिए मगर सिर्फ उस स्थिति में जब हम यह सुनिश्चित कर लें कि जो हम वादा कर रहे हैं उसे पूरा कर पाएंगे.

राजनीतिक रूप से प्रभावकारी विकल्प के बिना लोगों से लेना यथार्थवादी नहीं होगा. इसलिए जीडीपी के 1-1.5 प्रतिशत से शुरुआत करना समझदारी होगी.

इनानी : तो क्या इस योजना के लिए चरणबद्ध तरीके से कई राजकीय सब्सिडी को हटाना होगा?

बनर्जी : यह सही है. पहले हमें यह स्थापित करना होगा कि आप क्या काम कर रहे हैं. उसके बाद आप आगे बढ़ने के लिए बेहतर स्थिति में होंगे. उदाहरण के लिए, आप किसानों को बता सकते हैं कि उर्वरकों पर सब्सिडी देने के बजाय आपको यह दिया जा रहा है या ऋण छूट के स्थान पर, आपको इसकी पेशकश की जा रही है. एक बड़ी आबादी तक पहुंचाने के लिए एक बिना गड़बड़ियों वाले स्पष्ट तंत्र की स्थापना करना, सब्सिडियों के जटिल जाल से बाहर आने के लिए बेहद मूल्यवान और महत्वपूर्ण है.

इनानी : कांग्रेस ने हाल ही में छत्तीसगढ़ में कृषि ऋणों को माफ कर दिया और अन्य राज्यों में भी इसी तरह के चुनावी वादे किए हैं. वह आय गारंटी योजना लागू करने की कोशिश करने के साथ ऋण में भारी माफी भी की है. दोनों में संतुलन कैसे बनेगा? क्या आपने इस बारे में कांग्रेस के साथ कोई चर्चा की है?

बनर्जी : ऋण माफी के बारे में किसी राजनीतिक दल से मेरी चर्चा नहीं हुई है. मैं पाती हूं कि ऋण माफी इस लिए हो रही है क्योंकि जमीनी स्तर पर बहुत कष्ट हैं और कर्ज माफी, असमान और अक्षम होने के बावजूद, इसका फौरी इलाज है. यही कारण है कि हमें हस्तांतरण के लिए एक कुशल पाइपलाइन की आवश्यकता है. आदर्श स्थित में एक डेटाबेस होना चाहिए जो हमें बताए कि कौन किसान है, किसके पास कितनी जमीन है, वगैरह. कुछ समय से हम सांख्यिकीय और सूचनात्मक बुनियादी ढांचे में निवेश कम कर रहे हैं क्योंकि हमें यह पसंद नहीं है कि डेटा क्या दिखाता है, यही कारण है कि हम ऋण छूट की तुलना में बेहतर हस्तांतरण कार्यक्रमों को डिजाइन नहीं कर सकते हैं.

इनानी : नीति निर्माताओं के बीच एक और डर यह है कि अगर हम पैन-इंडिया आधार पर कैश-ट्रांसफर स्कीम को लागू करते हैं और यह विफल हो जाती है, तो भविष्य में इसे बंद करना मुश्किल होगा.

बनर्जी : जब तक कि विकास की गति कम न हो जाए - यह हो सकता है, लेकिन यह संभावना नहीं है, वित्तीय दबाव को मध्यम स्तर पर नियंत्रित किया जा सकता है. हम अभी 7 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं और अगर हम योजना पर जीडीपी का 3 प्रतिशत भी खर्च करते हैं तो दस वर्षों में यह जीडीपी का सिर्फ 1.5 प्रतिशत होगा.

हमें बैंकों में फिर से पूंजी डालनी होगी ताकि वे मिट न जाए और अपना काम करना शुरू कर सकें. जीडीपी का 7 से 8 प्रतिशत भी अंततः खर्च हो सकता है, और हमें इसे जल्दी करना होगा अन्यथा विकास नहीं कर पाएंगे. इसके लिए कुछ कठोर राजकोषीय विकल्प बनाने की आवश्यकता होगी क्योंकि वह पैसा है जो हमारे पास नहीं होगा यदि हम साथ में एफआरबीएम लक्ष्यों को पूरा करना चाहते हैं. (2003 की राजकोषीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन अधिनियम वित्तीय अनुशासन और व्यापक आर्थिक प्रबंधन के लिए उपायों की रूपरेखा प्रस्तुत करता है.) यही कारण है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने समस्या को बढ़ने दिया. लेकिन इसे जारी रखना शायद अच्छा विचार नहीं है.

एक समय बाद हमें इसका भुगतान करना ही होगा. इसका मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था को अल्प अवधि के लिए राजकोषीय तनाव का सामना करना पड़ेगा और सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत जोड़ना एक चुनौती है. यदि हम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की इक्विटी का एक समूह बेचने के लिए तैयार हैं तो यह शायद उनके कामकाज में सुधार करेगा और राजकोषीय दबाव को कम करेगा. हालांकि आईसीआईसीआई बैंक ने काफी गड़बड़ कर दी है.

इनानी : इस बात की आलोचना है कि गरीबों को लक्षित नकद हस्तांतरण से राज्य को सभी के लिए बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं को वापस लेने का आधार मिल जाएगा. आप इस बारे में क्या कहते हैं?

बनर्जी : तथ्य यह है कि कोई भी सरकारी स्कूलों में नहीं जाना चाहता. हर साल निजी स्कूलों में जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. हमें बस इस पर कड़ी नजर रखनी होगी. 2014 में जब मौजूदा एनडीए सरकार सत्ता में आई, तो उन्होंने शिक्षा क्षेत्र में थोक सुधार का वादा किया, लेकिन रिपोर्ट संसद में पेश नहीं की गई. इसलिए, सार्वजनिक क्षेत्र में प्राथमिक शिक्षा उदासीन स्थिति में है. कुछ हद तक यह निजी क्षेत्र में भी है. यह सोचने का कोई मतलब नहीं है कि सरकार बहुत मूल्यवान डिलीवरी दे रही है.

और अगर हम स्वास्थ्य सेवा की स्थिति लेते हैं, तो यह बहुत खराब है. हमें गंभीरता से विचार करना होगा कि अब सरकारी सेवाओं की ज्यादा मांग नहीं है. कारण कुछ हद तक सेवाओं की गुणवत्ता और लोगों की गुणवत्ता की गलत धारणा के साथ कुछ करना है. यह कहने के लिए कि हमें इन (मूल सार्वजनिक) सेवाओं पर अधिक पैसा खर्च करना चाहिए, इससे मुझे पूरी तरह से बात याद आ रही है.

इनानी : कई लोगों को लाभार्थी नहीं माना जाएगा क्योंकि प्रभावी लक्ष्यीकरण डिजीटल भूमि रिकॉर्ड की कमी और साल-दर-साल के आधार पर गरीबी को मापने की चुनौतियों के कारण मुश्किल होगा. क्या आपको लगता है कि इससे सामाजिक असंतोष पैदा हो सकता है?

बनर्जी : असंतोष कोई बुरी बात नहीं है. हमारी समस्या यह है कि गरीबों में बहुत कम असंतोष है. हमारा असंतोष इस बात को लेकर है कि मध्यम वर्ग और निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों ने नौकरी में आरक्षण के लिए विरोध किया. बल्कि सामाजिक सेवाओं के डिजाइन के बारे में असंतोष होना ठीक होता. शायद इससे राजनेताओं पर हस्तांतरण की दक्षता को बढ़ाने का दबाव पड़ेगा. मुझे लगता है कि कुछ असंतोष उपयोगी है. यह अच्छी राजनीतिक व्यवस्था को संचालित करता है.

इनानी : एक पेपर में, आपने दावा किया था कि नकद हस्तांतरणों का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह गरीबी से प्रेरित "संज्ञानात्मक बोझ" को कम करके मनोवैज्ञानिक रूप से अत्यंत गरीबों की भलाई करता है. आपने तमिलनाडु में नकदी संकट का सामना कर रहे गन्ना किसानों पर अपने शोध का हवाला दिया, जिन्होंने फसल के मौसम से ठीक पहले संज्ञानात्मक परिक्षणों में बुरा प्रदर्शन किया था.

बनर्जी : कुछ भी जो गरीबों को एक स्थिर और सुरक्षित न्यूनतम जीवन-स्थिति प्रदान करता है, उन्हें कम हताश करेगा. यह एक सार्वभौमिक या लक्षित योजना के बारे में इतना नहीं है. यह इस बारे में है कि क्या समाज के गरीब लोगों के लिए ठीक है.

एक पेपर में आपने कहा था कि नगद हस्तांतरण से निर्धनतम लोगों के मानसिक कल्याण को बढावा मिलता है. आपने अपने शोधपत्र में नगदी की कमी का सामना कर रहे तमिलनाडु के गन्ना किसानों का हवाला दिया था जिन लोगों ने कटाई के मौसम से पहले संज्ञानात्मक परिक्षा में खराब प्रदर्शन किया था.

इनानी : पिछले दो दशकों में हजारों किसानों ने आत्महत्या की है. यदि मुख्य रूप से कृषि अर्थव्यवस्था वाले राज्यों में यह योजना होती तो क्या आत्महत्या की दर कम होती?

बनर्जी : यह अच्छा सवाल है लेकिन मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है. यह बहुत ही दिलचस्प विचार है. हम आत्महत्या को केवल गिनती के रूप में नहीं देख सकते. हां हमारे पास इस बात के परिणाम हैं कि यदि आप निर्धनतम लोगों को सम्पत्ति देते हैं तो उनका कल्याण होता है. आत्महत्या से बचाव के लिए यह एक अच्छी व्यवस्था है. तो भी अभी हम इसे वास्तव में समझ नहीं पा रहे.

इनानी : कई विशेषज्ञों का कहना है कि यह योजना इसलिए लाई गई है क्योंकि सरकार रोजगार निर्माण और कृषि संकट का समाधान नहीं कर पाई है. कई लोगों ने इसे आगामी चुनावों के लिए “नोट के बदले वोट” कहा है. क्या आपको भी लगता है कि इस तरह अचानक ही इसकी स्वीकृति एक चुनावी खेल है?

बनर्जी : मुझे इस बात से कोई समस्या नहीं है कि सरकार छेदों वाली योजना लाती हैं. क्या मनरेगा से लोगों का भला हुआ? हां हुआ. बहुत से अध्ययनों से पता चलता है कि मनरेगा से मजदूरी बढ़ी है और साथ ही गरीबी कम हुई है. क्या पिछले 10 सालों में पीडीएस में सुधार आया है? हां आया है.

सभी पार्टियों को लग रहा है कि जनता को एहसास हो रहा है कि बहुत गैरबराबरी है. एक ही वक्त में ढेरों घोटाले हुए और साथ ही सम्पत्ति की वृद्धि भी हुई. ऐसे में लोग जानना चाहते हैं कि उनकी कमाई क्यों नहीं हो रही. हम किसी का एक लाख करोड़ रुपए माफ कर रहे हैं लेकिन अन्य को कुछ नहीं मिल रहा. मुझे लगता है ये वाजिब सवाल हैं. तो मुझे ऐसा लगता कि यह मान लेना कि यदि सरकार कोई वादा करती है तो वह जरूर स्कैम ही होगा, गलत है. यह सही नहीं है.

इनानी : क्या आपको लगता है कि कांग्रेस और बीजेपी ने आम चुनाव के मद्देनजर इन नगद हस्तांतरण योजनाओं को जल्दबाजी में आरंभ किया है?

बनर्जी : इसका जवाब हां भी है और नहीं भी. चुनाव आ रहे हैं और हमें दीर्घ अवधि में होने वाले इसके लाभ और नुकसान को देखना चाहिए. मुझे लगता है कि दोनों ही पार्टियों ने चुनाव को देखते हुए ऐसा किया है, इसलिए इस बारे में सोचने का वक्त उनके पास नहीं था.

दूसरी ओर क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि इसका वक्त आ गया है? बेशक आ गया है. एक मायने में हम लोग इस बात को मान रहे हैं कि हम एक मध्यम आय अर्थतंत्र हैं और यह विचार ठीक हैं कि कोई व्यक्ति भीषण गरीबी में फंस कर पीछे नहीं रह जाना चाहिए.