शामली के 16 कलाकरों वाले हीरा बैंड के मालिक 28 साल के गुलशेर अहमद को उनके पिता मास्टर सकील अहमद अक्सर बताते हैं कि उनके दादा-परदादा मुगलों की सेना में ढोल बजाया करते थे और पीढ़ी दर पीढ़ी हम लोग इसी काम को करते आए हैं. “मेरे दादा ने यही काम किया, मेरे पिता मास्टर सकील अहमद ने यही किया है और अब मैं भी यही कर रहा हूं.”
अहमद ने बताया कि उनके बैंड में 16 कलाकार काम करते हैं. “इन कलाकारों से एक साल का कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) करना पड़ता है जो हर साल अगस्त में होता है और 31 जुलाई तक लागू रहता है. कलाकारों को आधा पैसा कॉन्ट्रैक्ट के समय ही देना होता है और बाकी का पैसा काम के दिनों में दिया जाता है.”
उन्होंने बताया कि पिछले साल नवंबर में उन्होंने कलाकरों को 2.5 लाख रुपए चुकाए थे और मार्च और जून में 2.5 लाख और देने के बाद उनके पास इतनी ही रकम बचने की उम्मीद थी. “इस रकम से हम साल भर का घर खर्च चलते,” उन्होंने बताया.
लेकिन इस साल यह सिलसिला टूट गया.
अहमद ने कहा, “इस सीजन में मेरे पास 15 बारातों की बुकिंग थी. हम चार भाई हैं और वे तीनों भी मेरे साथ काम करते हैं. घर में अम्मी है और मेरी शादी पिछले साल हुई थी लेकिन अब स्थिति यह है पत्नी के जेवर बेच कर खर्च चलाना पड़ रहा है.”
गुलशेर अहमद की तरह मेरठ के ए-वन बैंड के 54 साल के गुलाब अहमद ने भी बताया कि उन्होंने भी अपने सभी कलाकारों का भुगतान एडवांस में कर दिया था लेकिन काम नहीं कर पाए. उन्होंने कहा, “मेरे बैंड में 15 कलाकार और 6 मजदूर काम करते हैं. अगर हम एडवांस नहीं देंगे तो कलाकार दूसरे के यहां चले जाएंगे.” उन्होंने बताया कि एडवांस देने के लिए उन्होंने कर्ज लिया था. उन्होंने बैंड कारोबार का अर्थशास्त्र समझाते हुए कहा, “जैसे ही सीजन में काम शुरू होता है तो कर्जदार का कर्ज वापस कर दिया जाता है. 16 अप्रैल से जून तक मेरे पास करीब 25 बारातें थीं लेकिन हमको क्या पता था इस महामारी में सब बर्बाद हो जाएगा.”
गुलशेर ने बताया कि परिवार में दो बेटे सहित कुल 9 लोग हैं और मेरठ शहर में 100 से ज्यादा बैंड होंगे जिनसे हजारों लोगों की रोजी-रोजी चलती है. उन्होंने कहा, “सरकार हमलोगों की कोई मदद नहीं करती और बैंकों से लोन लेने जाओ, तो वह भी नहीं मिलता हमारे काम पर. इस बार हमलोग सब कर्ज में डूबे हुए हैं. यह सीजन तो बर्बाद हुआ ही, नया काम कब शुरू होगा यह भी पता नहीं.”
शर्मा बैंड के सुशील कुमार लोधी ने बताया, “मेरठ बैंडों की बजाई (पेशकश) सबसे अच्छी मानी जाती है इसलिए इनकी खूब मांग रहती है. हम लोग जुलूस, झांकी, दशहरा, महावीर जयंती सहित विभिन्न जयंतियों और शोभायात्राओं में बैंड बजाते हैं.”
शर्मा ने बताया कि उनके पिता ने 1980 में शर्मा बैंड की स्थापना की थी और उनके बाद “मैं ही इसको देखता हूं.” शर्मा के बैंड में 22 कलाकार काम करते हैं और मजदूर और खुला स्टाफ मिलाकर यह संख्या 40 हो जाती है. उन्होंने बताया, “मार्च का महीना हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. इस महीने में हमारी आमदनी नहीं होती पर सभी बैंड वाले अपना प्रचार-प्रसार खूब करते हैं. सभी बैंड वाले नवरात्रों में शोभायात्रा निकालते हैं, लेकिन इस बार लॉकडाउन में वह नहीं हो पाया. 16 अप्रैल से 19 जून तक मेरे पास 60 बारातें थीं, जिसके बाद शादी का सीजन खत्म हो जाता है.”
शर्मा ने बताया कि हर साल भौंपू (बैंड) लगी रेडी खराब हो जाती है और उसे बनवाने में कम से कम 60 हजार रुपए लग जाते हैं. “हम तीन भाई हैं और तीनों शादीशुदा हैं. घर में इस समय 12 लोग हैं और सब इसी काम पर निर्भर हैं. हमारी रोजी-रोटी यही है.”
फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि यह काम जल्द गति पकड़ लेगा. मेरठ में वाद्य यंत्र सप्लाई करने वाली कंपनी नासिर अली एंड को. के अध्यक्ष हाजी उवैस ने बताया, “यह सीजन का पीक टाइम था. हमारे वाद्य यंत्र इसी सीजन में सबसे ज्यादा बिकते थे. अब कम से कम दो साल तक काम नहीं चलेगा. इस बीच भीड़भाड़ वाले सारे कामों पर रोक लगी हुई है तो विवाह, जलसे और जुलूस होंगे नहीं और बैंड की आवश्यकता ही नहीं होगी.” उवैस ने बताया कि देशभर में उनकी कंपनी सालाना 80 करोड़ रुपए का करोबार करती है और यूरोप समेत विदेश में 500 करोड़ रुपए के आस-पास का कारोबार होता है. उनकी कंपनी में 150 लोग काम करते हैं.
सहारनपुर के अशोक बैंड के मालिक आशु शेख भी मेरठ के अपने भाइयों की तरह ही परेशान हैं. उनकी मुसीबत बढ़ गई है क्योंकि इस कारोबार में वह नए हैं. उन्होंने बताया, “मैं अभी इस काम में नया हूं. पहले मेरे पिता इस काम को करते थे लेकिन पिछले साल 12 दिसंबर को एक बारात में एक कार वाले ने उनको टक्कर मार दी और उनका इंतकाल हो गया.” आशु ने बताया कि उनके बैंड में 55 लोग काम करते हैं और जब दिन और रात में बारातें होती हैं तो काम करने वालों की संख्या 200 तक पहुंच जाती है. “मेरे पास मार्च, अप्रैल और मई के लिए 100 बारातें थीं.” आशु ने आगे कहा, “पिताजी के जाने के बाद हम लोग लाचार हो गए हैं और मुझे समझ नहीं आ रहा कि लॉकडाउन का सामना कैसे करूं.” उनकी तीन बहनें हैं जिनकी शादी को लेकर “अम्मी परेशान रहती हैं.”
बैंडों के मालिक ही नहीं इनसे जुड़े कलाकरों की हालत भी बेहद खराब है. 38 साल के मोहम्मद शाहनवाज बैंडो में ढोल बजाते हैं. उन्होंने बताया, “हमारे पिता, दादा, भाई और रिश्तेदार सभी यही काम करते हैं. लेकिन जब से यह बंद (लॉकडाउन) हुआ है, हम सबकी हालत बहुत खराब है. हम लोग पूरे परिवार के साथ सहारनपुर में किराए पर रहते हैं. हम लोग छह साल पहले मुजफ्फरनगर जिले के नगला बिसोई गांव से यहां आए थे.”
शामली के सोनू ढोल ग्रुप के 28 साल के शादाब शेख ने बताया, “ढोल बजाने वालों की हालत इस बार बहुत खराब है. मुझे 40 बारातों में बजाने का आर्डर मिला था लेकिन सब कैंसिल हो गईं.”
शेख ढफलची समुदाय पर बहुत कम शोध हुआ है. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई (टिस) में शोध कर रहे उस्मान महेंदी ने 2013 में मुजफ्फरनगर हिंसा के बाद जिले में मुसलमानों की स्थिति पर शोध करते वक्त इस समुदाय पर भी काम किया था. उन्होंने मुझे बताया, “जब मैं मुजफ्फनगर में काम कर रहा था तो उस समय इनकी हालत ऐसी थी कि अपने ऊपर हुए अत्याचारों की एफआईआर भी नहीं लिखा पा रहे थे. हिंसा के बाद इन लोगों ने पेशा बदल लिया और शहरों की ओर पलायन कर गए.”
बैंड कारोबार से जुड़ा एक महत्वपूर्ण काम है घोड़ा-बग्गी का. बारातों में घोड़ा-बग्गी चलाने वाले रवि प्रजापति ने मुझे बताया, “मेरे पास अप्रैल और मई के लिए 22 बारातें थीं जिसका 40 हजार रुपए आया था लेकिन सब कैंसिल हो गईं और लोगों ने पैसे भी वापस ले लिए.”
पहले रवि ने पास चार घोड़िया थीं लेकिन चारा अपर्याप्त होने के कारण एक की मौत 12 अप्रैल हो गई. “वह घोड़ी करीब 80 हजार रुपए की थी. इस लॉकडाउन में हमारे यहां गेहूं देर से कटा जिसके चलते भूसा नहीं मिल पाया और इससे चारे की बड़ी दिक्कत हो गई है.” रवि ने बताया, “मेरे पास इस लॉकडाउन में कोई काम नहीं रहा, तो मैं सब्जी बेचने लगा हूं लेकिन कोरोना का डर इतना है कि लोग सब्जी नहीं खरीद रहे.”
रवि की तरह ही मोहम्मद ने मुझे बताया था कि बैंड बजाने वाले नया काम तलाशने लगे हैं. मई में उन्होंने बताया था, “कई बैंड वाले सब्जी बेचने लगे हैं” लेकिन हाल में मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा, “ज्यादातर लोग दिहाड़ी कर रहे हैं, रिक्शा चला रहे हैं या सब्जी बेच रहे हैं. क्या करें बैंड बजाने का काम तो मिल नहीं रहा.”
भूल सुधार : रिपोर्ट में एक जगह गलती से छप गया था कि मास्टर सकील अहमद का इंतकाल हो गया है. यह बात गलत है. वह अभी जिंदा हैं और अपने पेशे में सक्रिय हैं. कारवां को अपनी गलती का खेद है.