पहले से धीमी पड़ी देश की अर्थव्यवस्था को और कमजोर करेगा कोरोना लॉकडाउन

सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार बेरोजगारी दर जो 22 मार्च को 8.41 प्रतिशत थी 5 अप्रैल तक बढ़कर 23.38 प्रतिशत हो गई है. अनुश्री फडणवीस/रॉयटर्स

24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित 21 दिनों का देशव्यापी लॉकडाउन भारतीय अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढ़ा रहा है. इससे भारत में आर्थिक गतिविधियों के लगभग पूरी तरह बंद हो जाने के चलते देशभर में हजारों दिहाड़ी मजदूरों का भविष्य अनिश्चित हो गया है और रोजगार और नौकरी की सुरक्षा के लिए उनके रास्ते मंद पड़ गए हैं.

कई क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी विकास दर के अपने अनुमानों में संशोधन किया है. मूडीज को उम्मीद है कि वर्ष 2020 में भारत की जीडीपी दर 2.5 प्रतिशत रह सकती है. एक अन्य रेटिंग एजेंसी फिच रेटिंग्स ने कहा है कि वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए भारत की जीडीपी विकास दर 2 प्रतिशत रहने की संभावना है. यह दर पिछले 30 वर्षों की सबसे कम दर है. क्रिसिल रेटिंग ने वित्त वर्ष 2021 के लिए भारत की जीडीपी विकास दर को पहले के 5.2 प्रतिशत के अनुमास से घटाकर 3.5 प्रतिशत कर दिया है. केयर रेटिंग्स के अनुमान के मुताबिक, 21 दिन की लॉकडाउन अवधि के दौरान सभी उत्पादन गतिविधि का 80 प्रतिशत बंद रहने से अर्थव्यवस्था को दैनिक रूप से 35000 से 40000 करोड़ रुपए का नुकसान होगा. कुल मिलाकर यह नुकसान 6.3 लाख करोड़ से 7.2 लाख करोड़ रुपए के बीच होगा.

ताजा निवेश पर भी इसका बहुत बुरा असर हुआ है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर 2019 में समाप्त होने वाली तिमाही की तुलना में मार्च 2020 में समाप्त तिमाही में नया निजी और सार्वजनिक निवेश 41 प्रतिशत घटकर 2.91 लाख करोड़ रह गया है. सीएमआईई के आंकड़ों से यह भी संकेत मिलता है कि इसी तिमाही में ठप पड़े निवेश का कुल मूल्य 13.9 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया है जो 1995 के बाद से सबसे अधिक है. इस बीच, मजदूरों और श्रमिकों के लिए स्थिति निराशाजनक लगती है. सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, मार्च 2020 तक बेरोजगारी बढ़कर 8.7 प्रतिशत हो गई है जो पिछले 43 महीनों में सबसे अधिक बेरोजगारी दर है.

इस सप्ताह जारी कुछ आंकड़ों में सीएमआईई ने 22 मार्च से 5 अप्रैल तक की बेरोजगारी दर की गणना की है - इस अवधि में श्रम बल पर लॉकडाउन का बड़ा प्रभाव देखा गया है. आंकड़ों से पता चलता है कि बेरोजगारी दर जो 22 मार्च को 8.41 प्रतिशत थी 5 अप्रैल तक बढ़कर 23.38 प्रतिशत हो गई.

भारतीय अर्थव्यवस्था पर लॉकडाउन के प्रभाव को समझने के लिए, मैंने वित्त मंत्रालय के शोध संस्थान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी या एनआईपीएफपी में फेलो राधिका पांडे से बात की. "भारतीय अर्थव्यवस्था पहले ही मंदी से गुजर रही थी और कोविड-19 के चलते पूर्ण लॉकडाउन के बाद तो निकट भविष्य में तीव्र रिकवरी की कोई भी संभावना नजर नहीं आती." उन्होंने कहा, "नोवेल कोरोनोवायरस के प्रभाव को शुरू में चीन से आयात में आए व्यवधान के कारण आपूर्ति के झटके के रूप में देखा जा रहा था लेकिन अब लॉकडाउन और सामाजिक दूरी के कारण यह झटका एक व्यापक-आधार वाली मांग तक विस्तारित हो गया है. लॉकडाउन की रोशनी में गैर-आवश्यक वस्तुओं की खपत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. अनौपचारिक क्षेत्र इससे प्रभावित होगा और बहुत कम मार्जिन पर काम करने वाला एमएसएमई (मध्यम और लघु और सूक्ष्म उद्यम) क्षेत्र मांग में जबरदस्त कमी महसूस करेगा." उन्होंने कहा कि कोई भी इस "झटके के फैलाव" के बारे में नहीं जानता और जो विश्लेषण फिलहाल हो रहा है वह "बेवक्त" है. पांडे ने आगे कहा, “तकनीकी भाषा में कहें तो मंदी का अर्थ है नकारात्मक वृद्धि की दो तिमाहियां. हालांकि हम विकास में कमी देखेंगे. हालांकि जब लॉकडाउन खत्म होगा, तो संभावना है कि मांग वापस उछाल मारे. फिर भी, कोविड से पहले की स्थिति की तुलना में यह अधिक कठिन और अनिश्चित होगा."

एनआरएफपी के प्रोफेसर एनआर भानुमूर्ति ने मुझे बताया कि लॉकडाउन "अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा झटका है" लेकिन साथ ही उन्होंने आगाह भी किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था यहां से कहां तक ​​जाएगी यह कोरोवायरस संकट से निपटने पर निर्भर करेगा.

"अब अगर कोरोनावायरस से संक्रमण में कोई कमी आती है तो आप आर्थिक गतिविधि में तेज सुधार देख सकते हैं," उन्होंने बताया. “यह इस बात पर निर्भर करता है कि यह वायरस कब और कैसे रुकेगा. इस चरण में यह कहना मुश्किल है कि भारत मंदी के दौर में जाएगा या नहीं लेकिन किसी को भी अब इसे 'व्यापार-सामान्य' स्थिति के रूप में नहीं समझना चाहिए. यह सभी गतिविधियों के लिए एक बड़ा झटका होगा और निश्चित रूप से कुछ क्षेत्रों की नकारात्मक विकास दर हो सकती है.”

पांडे ने कहा कि अर्थव्यवस्था के संगठित और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों में कर्मचारियों और श्रमिकों में भारी गिरावट को देखा जा सकता है. "प्रमुख रोजगार सृजन क्षेत्रों जैसे निर्माण, रियल एस्टेट, हॉस्पिटेलिटी, पर्यटन में कमी बेरोजगारी की ओर धकेल रही है." उन्होंने कहा, ''सबसे ज्यादा नुकसान छोटी कंपनियों और उनके कर्मचारियों को हुआ है. संगठित क्षेत्र में भी सरकार ने उद्यमों को मजदूरों का वेतन न काटने और उन्हें नौकरी से न निकालने के लिए एडवाइजरी जारी की है लेकिन कठिन परिस्थितियों को देखते हुए उन्हें अपने कर्मचारियों की छंटनी करनी पड़ सकती है.”

क्षति-नियंत्रण के उपाय के रूप में 26 मार्च को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उन लोगों के लिए एक वित्तीय राहत पैकेज की घोषणा की जिनकी जिंदगी को लॉकडाउन ने गंभीर रूप से प्रभावित किया है. योजना के लिए कुल परिव्यय 1.7 लाख करोड़ रुपए है. इसका उद्देश्य प्रवासी श्रमिकों, स्वच्छता श्रमिकों, मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं या आशा कार्यकर्ताओं और साथ ही शहरी और ग्रामीण गरीबों को सीधे उनके बैंक खातों में लाभ हस्तांतरण करना और राशन सुविधा का विस्तार करना है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर रवि श्रीवास्तव ने मुझे बताया कि जब लाभार्थियों को राहत के उपाय पहुंचाने की बात आती है तो 1.7 लाख करोड़ रुपए की योजना में कई बाधाएं हैं. श्रीवास्तव ने कहा कि इस योजना के तहत स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए प्रदान किए गए 50 लाख रुपए के बीमा कवर की भाषा बहुत अस्पष्ट है और इस भाषा की गूढ़ता को समझना मुश्किल है.

उन्होंने कहा, "इस योजना में बहुत सारे किंतु-पंरतु हैं. उन्होंने एक विशेष स्वास्थ्य-बीमा योजना की घोषणा की है. अगर आप प्रेस नोटिफिकेशन में नियम-शर्तों को पढ़ें तो यह किसी दुर्घटना बीमा योजना की तरह लगता है. इसमें कहा गया है कि अगर किसी स्वास्थ्यकर्मी को कोविड रोगी का इलाज करते समय किसी 'दुर्घटना’ का सामना करना पड़ता है, तो बीमा इसमें लागू होता है. मैं इस भाषा को नहीं समझता. विशिष्ट कवरेज क्या है जो वे प्रदान करने की कोशिश कर रहे हैं? इसका कोई विवरण नहीं है.”

राहत पैकेज के एक हिस्से के रूप में, सीतारमण ने घोषणा की कि तीन महीने तक अनुग्रहपूर्वक उन महिलाओं के बैंक खातों में 500 रुपए डाले जाएंगे जिनके पास जन ​​धन खाते हैं. श्रीवास्तव ने कहा कि यह राशि बहुत कम है.

पांडे ने कहा कि 1.7 लाख करोड़ रुपए का पैकेज एक अच्छी शुरुआत है जो किसानों, मजदूरों, महिलाओं और समाज के अन्य कमजोर वर्गों जैसे पेंशनरों और दिव्यांग जनों द्वारा सामना की जाने वाली कठिनाइयों को कुछ सुलझा सकती है. हालांकि, उन्होंने यह भी बताया कि राहत उपायों से केवल वही लोग लाभांवित होंगे जिनके पास जन धन खाते हैं या जो सरकारी योजनाओं के तहत पंजीकृत हैं. इस राहत पैकेज से अनौपचारिक श्रमशक्ति का बड़ा हिस्सा बाहर रहेगा.

"भारत में श्रमशक्ति का बड़ा हिस्सा अनौपचारिक है. हो सकता है इनके पास ऐसे खाते न हों. ऐसे लोगों तक पहुंचना एक चुनौती है. नकदी हस्तांतरण की घोषणा को एक ऐसे तंत्र द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पैसा बिना किसी अव्यवस्था के जरूरतमंदों तक पहुंच जाए. सबसे बड़ी प्राथमिकता खरीद और वितरण के माध्यम से आपूर्ति श्रृंखलाओं को बढ़ाना है ताकि आवश्यक आपूर्ति निर्बाध रूप से पहुंच सके.”

नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था ने कई झटके झेले हैं. नोटबंदी से लेकर माल और सेवा कर जैसे फैसलों ने बड़ी संख्या में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की फर्मों को व्यापार से बाहर धकेल दिया है. सितंबर 2019 में समाप्त तिमाही में जीडीपी की विकास दर छह साल की निम्नतर 4.5 प्रतिशत दर्ज की गई, जिसके बाद व्यापक रूप से क्षेत्रीय मंदी आई. इस कमी के चलते छह तिमाहियों से जीडीपी में लगातार गिरावट आई है. अगली तिमाही में विकास दर में 4.7 प्रतिशत की मामूली वृद्धि दर्ज की गई.

30 मार्च 2020 को केयर रेटिंग्स ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें बताया गया है कि लॉकडाउन से पहले ही अर्थव्यवस्था धीमी हो रही थी. रेटिंग की रिपोर्ट में बताया गया है कि सकल स्थिर पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) वित्त वर्ष 2019-20 में दो दशक के निचले स्तर तक गिर गया है. रिपोर्ट में कहा गया है, "पिछले 17 वर्षों में पहली बार जीएफसीएफ को -0.6 प्रतिशत तक सिकुड़ने का अनुमान है."

रिपोर्ट में बैंक क्रेडिट अपटेक को भी देखा गया है (यह एक संकेतक है जो बाजारों में बैंक क्रेडिट की मांग के मौजूदा स्तरों को दर्शाता है). रिपोर्ट में कहा गया है, ''13 मार्च, 2020 तक बैंक क्रेडिट में साल की वृद्धि दर 6.1 फीसदी थी, जो एक साल पहले की इसी अवधि में 14.5 फीसदी थी.''

वित्तीय वर्ष 2020 में अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है, “भारतीय अर्थव्यवस्था वित्त वर्ष 2020 में अनुमानित आर्थिक विकास के साथ मंदी का दौर देख रही है. इसके एक दशक में अपने सबसे निचले स्तर पर होने का अनुमान है. यानी 2008-09 के वित्तीय संकट के बाद से अब तक के सबसे निचले स्तर पर." इसमें कहा गया है, ''इसके दो कारण हैं : निवेश में गिरावट और उपभोगता मांग में कमी. निवेश और उपभोग आपस में जुड़े हुए हैं. निवेश नौकरियां पैदा करता है जो लोगों को आय प्रदान करती हैं और खपत में वृद्धि आती है. निवेश कम होने से देश में रोजगार सृजन की गति कम होती है. यह स्थिति लोगों को उपभोग करने से रोकती है. परिणामस्वरूप आर्थिक विकास कमजोर बना रहता है. इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए निवेश को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है.”