35ए से नहीं, सार्वजनिक निवेश की कमी से कश्मीर में निजी उद्योग कम

कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष शेख आशिक के मुताबिक लॉकडाउन के पहले 49-50 दिनों के दौरान हमें 8000 से 10000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है. मुखतार खान/एपी
08 November, 2019

Thanks for reading The Caravan. If you find our work valuable, consider subscribing or contributing to The Caravan.

5 अगस्त को संसद में दिए अपने भाषण में गृह मंत्री अमित शाह ने संविधान के अनुच्छेद 35ए को निरस्त करने और अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जे को खत्म करने के फैसले के पीछे कई कारण गिनवाए. इनमें आर्थिक विकास का वादा सबसे प्रमुख था. शाह ने तर्क दिया कि धारा 370 और 35ए ने कश्मीर को गरीब बना रखा है और इसके विकास को रोका है. उन्होंने दावा किया कि निजी उद्योग कश्मीर में इसलिए निवेश नहीं करते क्योंकि अनुच्छेद 35ए उन्हें जमीन खरीदने से रोकता है.

लेकिन शाह कश्मीर में निजी उद्योग की गैरमौजूदगी के एक महत्वपूर्ण कारक का उल्लेख करना भूल गए. उन्होंने नहीं बताया कि इस पूर्ववर्ती राज्य में सार्वजनिक निवेश भी निराशाजनक ही रहा है. केंद्र और राज्य सरकार का जम्मू-कश्मीर में निवेश करने और निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए आवश्यक सार्वजनिक अवसंरचना निर्माण का पिछला रिकॉर्ड बहुत खराब है.

अर्थशास्त्री और जम्मू-कश्मीर के पूर्व वित्त मंत्री हसीब द्राबू के अनुसार, निजी निवेश अक्सर सार्वजनिक निवेश के पीछे-पीछे चलता है. उन्होंने मुझे बताया कि 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद भारत ने राज्य के निजी निवेश में चालबाजियां करनी शुरू कर दी थी. इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है कि कश्मीर में उग्रवाद के कारण नब्बे के दशक में निजी निवेश कश्मीर में दाखिल नहीं हुआ लेकिन, उन्होंने पूछा, "मैं पूछ रहा हूं कि 1947 और 1991 के बीच क्या हुआ? '' द्राबू ने कहा, ''आखिर सार्वजनिक निवेश क्यों नहीं हुआ? जैसा कि हम बोलते हैं सार्वजनिक निवेश को किसी भी भूमि प्रतिबंध का सामना नहीं करना पड़ता. साढ़े चार लाख से अधिक कनाल भूमि पर केंद्र सरकार ने कब्जा कर लिया था. फिर भी केंद्र ने निवेश क्यों नहीं किया?" कश्मीर में कनाल माप की एक इकाई है, जो लगभग एक एकड़ का आठवां हिस्सा होती है.

द्राबू ने कहा कि औद्योगिक रूप से विकसित कई राज्यों में, सरकार ने ही निजी क्षेत्र के प्रवेश के लिए बुनियादी ढांचे और अनुकूल स्थिति तैयार की. उन्होंने कहा, "महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक या पंजाब का उदाहरण लें. जब कश्मीर में कोई सार्वजनिक निवेश नहीं हुआ है तब आप निजी क्षेत्र के यहां आने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?"

द्राबू ने शाह के तर्क पर भी सवाल उठाया कि भूमि खरीद पर प्रतिबंध ने निजी निवेश को बाधित किया है. "यहां तक कि 1927 के मूल प्रावधान में एक धारा थी, जो राज्य को निवेश के उद्देश्यों के लिए कारपोरेट को भूमि देने की अनुमति देती थी. भूमि को पट्टे के साथ-साथ अनुदान के रूप में भी दिया जा सकता है और पट्टे को 99 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है जो स्वामित्व की तरह ही है. इसलिए भूमि प्रतिबंध का तर्क पूरी तरह से बकवास और बेतुका है.”

घाटी में लॉकडाउन के बाद व्हाट्सएप पर कश्मीर में सस्ती बिकाऊ जमीन के नकली संदेश खूब भेजे गए. घाटी के लोगों को डर था कि उनकी जमीन बाहरी लोगों को बेच दी जाएगी. सितंबर में जम्मू-कश्मीर के सरपंचों और फल उत्पादकों के प्रतिनिधियों के साथ बैठक में शाह ने उन्हें भरोसा दिया कि "किसी की जमीन नहीं ली जाएगी." उन्होंने आश्वस्त किया, "सरकारी भूमि का उपयोग उद्योगों, अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के लिए किया जाएगा."

हालांकि सरकार के पास हमेशा से ही इस भूमि का उपयोग करने और बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए संसाधनों का उपयोग करने का विकल्प था. अनुच्छेद 35ए ने सरकार को ऐसा करने से नहीं रोके रखा था. लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि जम्मू-कश्मीर में निवेश करने में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने कोई खासी इच्छा नहीं दिखाई जिसके चलते यह क्षेत्र कई सार्वजनिक बुनियादी ढांचों में पिछड़ गया.

राज्य में सरकार के निवेश का आंकलन करने का एक तरीका केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (सीपीएसई) के कामकाज को देखना है. सीपीएसई ऐसी कंपनियां होती हैं जिनमें केंद्र सरकार या अन्य सीपीएसई की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी 51 प्रतिशत या उससे अधिक है. वित्तीय वर्ष 2017-2018 में, पूरे भारत में 339 सीपीएसई परिचालन में थीं. सीपीएसई में केंद्र सरकार का वित्तीय निवेश - ऋण और अन्य उपकरणों के माध्यम से 1373412 करोड़ रुपए था. मार्च 2018 तक इन 339 सीपीएसई में से जम्मू-कश्मीर में मात्र तीन हैं, जिसमें कुल 21 लोग कार्यरत हैं. इसमें निवेश की गई पूंजी 112 करोड़ रुपए है. इसके अलावा इन कंपनियों की कुल संपत्ति में से जम्मू-कश्मीर का हिस्सा महज 1.03 प्रतिशत है यानी 1984619 करोड़ रुपए में से सिर्फ 20398 करोड़ रुपए.

सांख्यिकी मंत्रालय द्वारा किए गए वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017 में जम्मू-कश्मीर में देश के कुल कारखानों का केवल 0.4 प्रतिशत है. क्रेडिट रेटिंग एजेंसी केयर रेटिंग्स की जम्मू-कश्मीर की 2019 की प्रोफाइल इस क्षेत्र में सार्वजनिक बुनियादी ढांचे की विस्तृत स्थिति को पेश करती है. इसने नोट किया कि पूर्ववर्ती राज्य का सड़क घनत्व 28.5 किलोमीटर है, जबकि राष्ट्रीय औसत 152 किलोमीटर है. सड़क घनत्व भारत के कुल भूमि क्षेत्र के प्रति  100 वर्ग किलोमीटर में भारत की कुल सड़क नेटवर्क की लंबाई है. इस मामले में एक अन्य पहाड़ी राज्य, हिमाचल प्रदेश का प्रदर्शन 112.8 प्रति 100 वर्ग किलोमीटर है. जो जम्मू-कश्मीर से बेहतर है. इस क्षेत्र का रेल घनत्व 1.3 प्रति 1000 वर्ग किलोमीटर है जबकि राष्ट्रीय औसत 20.5 प्रति 1000 वर्ग किलोमीटर है. हिमाचल प्रदेश यहां भी 5.3 किलोमीटर के रेल घनत्व के साथ बेहतर स्थिति में है. पूर्व राज्य जम्मू-कश्मीर में बिजली की भारी कमी है. राष्ट्रीय औसत 0.7 प्रतिशत और हिमाचल प्रदेश के औसत 0.6 की तुलना में जम्मू-कश्मीर में वित्तीय वर्ष 2018 में 20 प्रतिशत कम बिजली थी.

समाचार पत्र द स्टेट्समैन के मुताबिक 2015 में, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने विकासात्मक पूंजीगत व्यय में लगातार गिरावट के लिए राज्य सरकार की आलोचना करते हुए एक रिपोर्ट पेश की जिसमें संकेत दिया था कि विकास कार्यों पर अपर्याप्त संसाधन खर्च किए जा रहे हैं. पूंजीगत व्यय में शैक्षिक संस्थानों, अस्पतालों, सड़कों, बंदरगाहों, पुलों और रेलवे उपलब्धता जैसी दीर्घकालिक परिसंपत्तियों के अधिग्रहण या निर्माण पर खर्च की गई राशि शामिल है. ये संपत्तियां आर्थिक विकास के लिए प्रोत्साहन के रूप में कार्य करती हैं. विकासात्मक पूंजीगत व्यय का प्रतिशत, कुल व्यय के अनुपात के रूप में, वित्तीय वर्ष 2010 में 27.7 प्रतिशत से गिरकर वित्तीय वर्ष 2014 में 12.18 प्रतिशत हो गया. इसी रिपोर्ट में 267 विकासात्मक परियोजनाओं को नियत समय में पूरा न करने के लिए कैग ने राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया था.

इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने कश्मीर में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है. वित्तीय वर्ष 2017 के अंत तक, राज्य सरकार के विभागों के तहत 19 सार्वजनिक उपक्रमों में से 12 नुकसान दर्ज कर रहे थे और उनके वेतन बिलों को पूरा करने के लिए बजटीय सहायता प्रदान की जा रही थी. जम्मू-कश्मीर के 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, इन "इकाइयों को निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करनी है, लेकिन पूंजी के साथ-साथ श्रम की उत्पादकता कम है." सर्वेक्षण में कहा गया है, "नई प्रौद्योगिकी के लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता होती है जो आसानी से नहीं मिलता हैं. इन परिस्थितियों में सार्वजनिक क्षेत्र के सुधारों को तेज गति से आगे बढ़ाना आवश्यक हो गया है. ”

इकोनॉमिक टाइम्स के मार्च 2018 के एक लेख में बताया गया है कि राज्य सरकार के तत्वावधान में 18 सार्वजनिक उपक्रमों को 191 करोड़ रुपए का संचयी नुकसान हुआ है. स्थिति इस हद तक बिगड़ गई थी कि असंतुष्ट कर्मचारियों के वेतन का भुगतान करने के लिए राज्य सरकार को अतिरिक्त वित्तीय सहायता लेनी पड़ी. जाहिर है, कश्मीर में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम व्यापक, संरचनात्मक सुधारों की कमी को झेलते रहे हैं. अनुच्छेद 35ए और भूमि-स्वामित्व प्रतिबंधों में ढील का सार्वजनिक उपक्रमों के बेहतर प्रदर्शन के साथ बहुत कम संबंध है, जिससे इस क्षेत्र में निजी निवेश के रास्ते खुल सकते हैं.

क्षेत्र में सेब की खेती से लेकर कालीन की बुनाई तक के व्यापार में ठहराव आया है. एसोसिएटेड प्रेस के अनुसार, 2017 में सेब के निर्यात से 1.6 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ था जो कश्मीर की अर्थव्यवस्था का लगभग पांचवां हिस्सा है और 33 लाख लोगों को आजीविका प्रदान करता है. इस वर्ष अक्टूबर के प्रारंभ तक इन सेबों का महज दस प्रतिशत ही निर्यात हुआ था.

सार्वजनिक निवेश की कमी के अलावा एक और कारक है जिसने कश्मीर में निजी निवेश को प्रभावित किया है. यह कारक है उग्रवाद. उदाहरण के लिए, वर्ष 2016 स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए एक आपदा की तरह था, हिजबुल उग्रवादी बुरहान वानी की मौत पर असंतोष सड़कों पर फैल गया और इसके चलते व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए और कर्फ्यू लगा दिया गया जो पचास से अधिक दिनों तक चला. जुलाई और नवंबर 2016 के बीच, कश्मीर में औद्योगिक उत्पादन में भारी गिरावट आई और लगातार आर्थिक गतिविधियों में रुकावट बनी रही. 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण में इस अवधि में 16000 करोड़ रुपए से अधिक के नुकसान का अनुमान है.

जबकि केंद्र सरकार ने जोर देकर कहा है कि धारा 370 को हटाने और अनुच्छेद 35ए को निरस्त करने से निजी उद्योग को बढ़ावा मिलेगा, द्राबू ने एक अलग दृष्टिकोण सामने रखा. "निजी निवेश राजनीति से प्रेरित नहीं होता है, ये मुनाफे से प्रेरित होता है," द्राबू ने मुझे बताया. “अब जब भी निजी निवेश कश्मीर में आएगा तो इसे बड़े राजनीतिक कदम के रूप में देखा जाएगा. इसमें बहुत सारी राजनीति जुड़ी होगी." उन्होंने कहा कि संभवत: निवेश की घोषणाएं की जाएंगी. उन्होंने आगे कहा," मुझे नहीं पता कि उनमें से कितनी सफल होंगी लेकिन यह सच है कि घोषणाएं राजनीति से प्रेरित हैं न कि लाभ से. और यही बात इसे बहुत घातक बनाती है.”

द्राबू ने आगे कहा कि जिस तरह से कश्मीर में लॉकडाउन और संचार ठप्प है, उसने मौजूदा व्यापार नेटवर्क को स्थगित कर दिया था. "एक देश में राज्य या उप-राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का तानाबाना महज संवैधानिक प्रावधानों से नहीं बनता बल्कि व्यापारिक गतिविधियों और नेटवर्क से भी जुड़ा होता हैं," उन्होंने कहा. “जम्मू-कश्मीर से दूसरे राज्यों में माल पहुंचाने वाले हर ट्रक ने एक निश्चित विश्वास और व्यापार को मूर्त रूप दिया और अब जब वे बंद हो गए हैं तो आपने कश्मीर को एक ऐसी अर्थव्यवस्था बना दिया गया है जिससे लोग जुड़ना नहीं चाहते. जिन नेटवर्कों को बनाने में 70 साल का वक्त लगा था उन्हें 70 दिनों में खत्म कर दिया गया. इस हालत को ठीक होने में उम्र लग जाएगी. ”

कश्मीर के बारे में उठाया गया सरकार का यह कदम क्षेत्र में नए निवेश को गति दे चाहे न दे, लेकिन लॉकडाउन ने मौजूदा स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डाला है. 5 अगस्त की घोषणाओं की आर्थिक गतिविधि पर पड़ने वाले प्रभाव की गुंजाइश और गहराई को समझने के लिए मैंने कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष शेख आशिक से बात की.

आशिक ने मुझे बताया कि उन्हें और उनके संगठन को व्यापारिक क्षेत्रों और राज्य की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में आंकड़े एकत्र करने में पूरी तरह से असफलता हाथ लगी है. उन्होंने कहा कि कई लोग उनसे संपर्क कर रहे हैं जो अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान और व्यवसायों को होने वाले नुकसान का आंकलन करने के लिए कह रहे हैं. उन्होंने कहा, "मुझे उन सभी लोगों से जो मुझसे ये सवाल पूछ रहे हैं यही कहना ​है कि जब भूकंप आता है तो किसी को भी उसके परिणामों के बारे में कोई अंदाजा नहीं होता है. भूकंप लगातार चल रहा है. यह बंद नहीं हुआ है, यह अभी भी जारी है. एक बार जब यह स्थिति सामान्य हो जाएगी तब हम इस बात पर विचार करेंगे कि नुकसान क्या हुआ है. लेकिन अभी के लिए हम केवल इतना कह सकते हैं कि लॉकडाउन के पहले 49-50 दिनों के दौरान हमें 8000 से 10000 करोड़ रुपए के करीब का नुकसान हुआ है.”

क्षेत्र में सेब की खेती से लेकर कालीन की बुनाई तक के व्यापार में ठहराव आया है. एसोसिएटेड प्रेस के अनुसार, 2017 में सेब के निर्यात से 1.6 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ था जो कश्मीर की अर्थव्यवस्था का लगभग पांचवां हिस्सा है और 33 लाख लोगों को आजीविका प्रदान करता है. इस वर्ष अक्टूबर के प्रारंभ तक इन सेबों का महज दस प्रतिशत ही निर्यात हुआ था.

पर्यटन उद्योग को भी करारा झटका लगा है. आशिक का मानना था कि लॉकडाउन ने 1100 होटलों, 950 पंजीकृत हाउसबोटों, कई शिकारा-प्लाई, ट्रैवल एजेंटों और कैब-सर्विस ऑपरेटरों के कारोबार को चोट पहुंचाई है. आशिक ने कहा कि वह अपने संगठन की ओर से पर्यटन उद्योग में पुनरुद्धार की पहल करेंगे.

उन्होंने कहा, "पर्यटन क्षेत्र पर्यटकों में जो यकीन बनाने में कामयाब हुआ था, वह नष्ट हो गया है. एक बार फिर, हमें शुरू से शुरू करने के लिए छोड़ दिया गया हैं. एक बार स्थिति स्थिर हो जाने पर हम फिर से व्यापार संवर्धन, पर्यटन संवर्धन की शुरुआत करेंगे. इससे पहले कि हम ऐसा करना शुरू करें, हमें अपने होटल उद्योग के विस्तृत हालत पर एक नजर डालनी होगी.”

आशिक के अनुसार, लॉकडाउन से पहले जम्मू-कश्मीर में लगभग 2000 करोड़ रुपए की विकास परियोजनाएं पूरी होने वाली थीं. अगस्त की शुरुआत में जारी एक सरकारी परामर्श के बाद श्रमिकों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था. उस परामर्श में पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और अन्य राज्यों के आगंतुकों को तुरंत कश्मीर छोड़ने के लिए कहा गया था. नतीजतन, परियोजनाएं आधी-अधूरी पड़ी हैं. आशिक ने कहा कि कश्मीर में 80 प्रतिशत कुशल श्रमिक बाहरी राज्यों से आते हैं. उन्हें कश्मीर के कई अन्य उद्यमियों के साथ मजदूरों को वापस लाने के लिए एक विश्वास-निर्माण कार्यक्रम शुरू करने की चुनौती का सामना करना हैं.

आशिक ने मुझे बताया, "इसमें कई साल लगेंगे. रोजगार के अवसरों की तलाश में मजदूरों को कश्मीर वापस आने की भरोसा दिलाना होगा. ‘कृपया वापस आ जाओ, सब कुछ ठीक है, तुम्हें कुछ नहीं होगा’, इस तरह का आग्रह करने में बहुत समय लगता है.” उन्होंने उस वक्त को याद किया जब सरकारी परामर्श जारी होने के बाद मजदूर डर गए थे. उन्होंने कहा, "उनमें से कई 10-15 साल से कश्मीर में काम कर रहे थे. जब वे चले गए तो उन्हें अपने बकाए की चिंता नहीं थी. उन्हें पता है कि उनका भुगतान हो ही जाएगा. भरोसे की कमी बिल्कुल नहीं थी. इंशाल्लाह, किसी दिन चीजें वापस पटरी पर आ जाएंगी, एक संदेश जाएगा कि सब कुछ ठीक है और काम करने वाले वापस आ जाएंगे. लेकिन अभी के लिए तो सब कुछ गर्त में है. यही आज की सच्चाई है.”


कौशल श्रॉफ स्वतंत्र पत्रकार हैं एवं कारवां के स्‍टाफ राइटर रहे हैं.