भारत की समाज कल्याण योजनाएं महत्वकांक्षी हैं लेकिन काम नहीं करतीं : ऑक्सफैम प्रमुख विनी बायनयीमा

एंड्रयू कैली/रॉयटर्स
19 February, 2019

21 जनवरी को गरीबी उन्मूलन की दिशा में काम करने वाली संस्था ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने असमानता पर अपनी रिपोर्ट "प्राइवेट वेल्थ, पब्लिक गुड" जारी की. यह रिपोर्ट स्विट्जरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक मंच के आयोजन से पहले जारी की गई. रिपोर्ट में बताया गया है कि हाल के वर्षों में दुनिया भर में सबसे अमीर लोगों की संपत्ति में काफी वृद्धि हुई है जबकि सबसे गरीब अब भी संघर्षरत हैं. इस दशा के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सार्वजनिक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए धन में कटौती और अमीरों पर पर्याप्त कर नहीं लगाने को जिम्मेदार ठहराया गया है. ऑक्सफैम ने पाया कि भले ही 2018 में भारत के 1 प्रतिशत लोगों की संपत्ति में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन देश के सबसे गरीब लोगों की संपत्ति में सिर्फ 3 प्रतिशत का इजाफा हुआ है.

इस रिपोर्ट के जारी होने के बाद, दिल्ली के पत्रकार रोहित इनानी ने ऑक्सफैम की कार्यकारी निदेशक, विनी बायनयीमा से बातचीत की. पूर्व में युगांडा की राजनिति में सक्रिय रहीं बायनयीमा , मई 2013 से ऑक्सफैम का नेतृत्व कर रही हैं. उन्होंने ऑक्सफैम की कार्यप्रणाली, भारत में असमानता की स्थिति और असमानता को बढ़ावा देने वाले दुनिया के आर्थिक मॉडल पर चर्चा की. बायनयीमा ने बताया, "पिछले दो-तीन दशकों में, अमीर अपने हिस्से के कर को कम करते गए. समस्या यह है कि सरकारें अमीरों को छूट देती जा रही हैं, संपत्ति पर पर्याप्त कर नहीं लगाकर सरकारें असमानता पैदा कर रही हैं."

रोहित इनानी: भारत सरकार की विभिन्न सामाज कल्याण योजनाओं में ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना भी है. लेकिन आपकी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में असमानता तेजी से बढ़ रही है. आप क्यों ऐसा सोचती हैं?

विनी बायनयीमा : भारत में असमानता उसकी खराब नीति का परिणाम है. सरकार बजट का 5 प्रतिशत से कम स्वास्थ्य और 6 प्रतिशत (से कम) सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर खर्च करती है. अन्य उभरते देश जैसे ब्राजील या चीन इससे कहीं अधिक इन योजनाओं पर खर्च करते हैं. सरकार अक्सर निजी क्षेत्रों को सब्सिडी देती है. इसका मतलब है कि गरीबी में रहने वाले लोगों पर इन योजनाओं का बहुत सीमित प्रभाव पड़ता है.

दूसरी ओर सरकार ऊपरी तबके को संपत्ति संचय की सुविधा प्रदान कर रही है. भारत की कर प्रणाली कागज पर यथोचित रूप से प्रगतिशील है लेकिन संपत्ति कर संकलित नहीं हो पाता. गौरतलब है कि भारत के अरबपतियों की एक बड़ी संख्या रियल एस्टेट, बुनियादी सुविधाओं, खनन, दूरसंचार, सीमेंट और मीडिया जैसे क्षेत्रों से है जो प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े हुए हैं या लाइसेंस के लिए राज्य पर निर्भर हैं. यह राजनीतिक वर्ग के साथ घनिष्ठ संबंध से लाभान्वित होने वाले सेक्टर हैं. और ऐसे संसाधनों की दोहन प्रक्रिया में होने वाले भ्रष्टाचार को रोक कर असमानता को दूर किया जा सकता है. यह बहुत बड़ी समस्या है.

आरआई: भारत में रोजगार विहीन वृद्धि देखी जा रही है. बेरोजगारी की दर चार दशक में सबसे उच्च स्तर पर है. लेकिन अफ्रेशिया बैंक की जून 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 119 अरबपति हैं और अगले दशक के अंत तक उनकी संख्या में 3 गुना वृद्धि होने की उम्मीद है.

डब्ल्यूबी: भारत में स्थिति गंभीर है. चीन के साथ तुलना कर इसे समझा जा सकता है. चीन में तीव्र आर्थिक विकास को व्यापक बनाया गया और करोड़ों चीनी लोगों का ऐसा विशाल मध्यम वर्ग बना जिसने खुद घरेलू मांग को बढ़ावा दिया और नौकरियां पैदा की. भारत में आर्थिक विकास बहुत असमान रही है, एक छोटे समूह को छोड़, सामान्य भारतीय नागरिकों का जीवन जैसे का तैसा रहा. लंबी अवधि में ऐसा विकास मॉडल पूरी तरह अस्थिर होता है.

आरआई: अपनी रिपोर्ट में आपने भारत में "अश्लील असमानता" की चेतावनी दी है और बताया है कि इससे "सामाजिक पतन हो सकता है." क्या आपको लगता है कि उच्च आय और धन का अंतर भारत में लोकतंत्र के लिए सीधे तौर पर खतरा है?

डब्ल्यूबी: लोग मूर्ख नहीं होते. वे अपनी और दूसरों की स्थिति को देखते हैं. ज्यादा मेहनत करने के बावजूद उनकी स्थिति खराब ही रहती है. लेकिन कुछ लोगों को जरूरत से ज्यादा मिल रहा है. अत्यधिक धन होना उन्हें न्याय प्रक्रिया से ऊपर रखता है और वे सरकार और संसद में लॉबिंग करते हैं. मीडिया को खरीद कर और उसे अपने प्रभाव में लेकर, वे अपने धन का उपयोग जनता की आवाज को खामोश करने के लिए करते हैं. इसलिए लोग निराश महसूस करते हैं और उस हताशा में वे अपना गुस्सा व्यक्त करते हैं.

आरआई: हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने घोषणा की है कि अगर वह सत्ता में आई तो हर गरीब नागरिक के लिए न्यूनतम आय की गारंटी करेगी. क्या आपको लगता है कि इस तरह की योजना भारत में आय असमानता की खाई को पाट सकती है?

डब्ल्यूबी: यदि अच्छी तरह से लागू किया जाता है तो यह (यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम) योजना गरीबी और असमानता के खिलाफ लड़ाई में शक्तिशाली औजार बन सकती है. हालांकि, इसे असरदार होने के लिए सार्वभौमिक और पर्याप्त उदार होना होगा. भारत का इतिहास उन योजनाओं से भरा पड़ा है जो महत्त्वाकांक्षी हैं लेकिन ये पर्याप्त रूप से वित्त पोषित और वितरित नहीं की जातीं.

यह भी जरूरी है कि यूबीआई को अन्य अच्छी तरह से वित्त पोषित सार्वजनिक योजनाओं के विकल्प की तरह नहीं देखा जाए. एक समतामूलक और समृद्ध समाज निर्माण में उनकी भूमिका है. इसे समाज कल्याण के अतिरिक्त उपाय की तरह देखा जाना चाहिए. इस योजना को डीसेंट वेज और रोजगार सुनिश्चित करने वाली योजनाओं के साथ लागू किया जाना चाहिए. साथ ही गुणस्तरीय शिक्षा, स्वास्थ और अन्य सार्वजनिक सेवाओं को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक धन को यूबीआई से अलग रखा जाना चाहिए. अन्य प्रगतिशील योजनाओं के साथ यूबीआई को लागू करने से भारत के ऐसे आर्थिक मॉडल बनने का रास्ता खुलेगा जो अधिक समतामूलक, न्यायसंगत और मानवीय है.

आरआई: 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों से पहले, भारत में राज्य सार्वजनिक वस्तुओं को नियंत्रित करता था लेकिन यह वितरण व्यवस्था विफल रही. आज राज्य बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा देने में पिछड़ गया है और बड़ी संख्या में गरीब लोगों के लिए बुनियादी ढांचे का अभाव है. अन्य उभरते देशों का भी यही सच है. इसलिए जनता तक सुविधाओं को पहुंचाने के लिए एक असक्षम राज्य पर कैसे भरोसा किया जा सकता है?

डब्ल्यूबी: यह सही है कि कई देश सार्वजनिक सेवाओं के वितरण में असफल रहे है. सार्वजनिक वस्तुओं के वितरण का कोई शॉर्टकट नहीं है. सार्वजनिक क्षेत्र को इस काम में बढ़त बनाने की जरूरत है और सार्वजनिक खर्चों में वृद्धि कर स्वास्थ्य और शिक्षा के वितरण में सहयोग पहुंचाने की आवश्कता है. उन परिस्थितियां में, जहां सरकारें विफल रही हैं, निजी क्षेत्र का सहारा लेना कोई उपाय नहीं है- कम से कम यह तो नहीं माना जाना चाहिए कि वितरण में नाकाम सरकार, सेवाओं के विनियमन में भी खराब होगीं. भारत के लिए तो यह और भी जरूरी है क्योंकि यहां निजी क्षेत्र द्वारा गरीबों को दी जाने वाली सुविधा कम गुणवत्ता वाली और अनियमित हैं. और स्वास्थ्य जैसे मामलों में यह खतरनाक भी हैं.

यह सवाल कि क्या भारतीय राज्य पर सार्वजनिक वस्तुओं की आपूर्ति का भरोसा किया जा सकता है, हमें लगता है कि भारत में विभिन्न राज्यों का अनुभव अत्यंत शिक्षाप्रद है. आपके पास ऐसे राज्य हैं जो जनता की भलाई करने में सफल हैं और दूसरों ऐसे भी हैं जो विफल हैं. कम से कम भारत के कुछ हिस्सों में, सरकार पर जनता की भलाई करने के लिए भरोसा किया जा सकता है. और ये राज्य दूसरों को शिक्षा देते हैं. अंततः सार्वजनिक काम का कोई विकल्प नहीं है. भारत सरकार सहित अन्य सरकारों पर भी अधिक से अधिक काम करने के लिए दबाव बनाने की आवश्यकता है.

चीन और इंडोनेशिया जैसे अन्य उभरते देशों में, हम स्वास्थ्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव देख रहे हैं. कोई कारण नहीं है कि भारत समावेशी विकास के महत्वपूर्ण क्षेत्र में दुनिया के बाकी हिस्सों से पीछे रह जाए.

आरआई: आपकी रिपोर्ट के अनुसार, पृथ्वी पर मौजूद 26 सबसे अमीर लोगों के पास उतनी ही संपत्ति है, जितनी आधी आबादी के पास. भारतीय और विदेशी प्रेस ने ऑक्सफैम की रिपोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि यह संपत्ति की असमानता है, आय की नहीं और आय की असमानता गंभीर रूप में नहीं है. (संपत्ति की असमानता एक व्यक्ति के स्वामित्व में संपत्ति के भंडार को दिखाता है और आय, वेतन और मजदूरी जैसे रूपों में धन के प्रवाह से संबंधित है.)

डब्ल्यूबी: यह सच है कि आय असमानता, संपत्ति असमानता की तरह व्यापक नहीं है, लेकिन इसे व्यापक ही माना जाएगा. यह देखना कठिन नहीं है कि विश्व स्तर पर, श्रमिक की मजदूरी क्यों स्थिर है और शेयरधारकों और अधिकारियों सहित शीर्ष के लोग अधिकतम हासिल कर रहे हैं. आय असमानता बढ़ रही है तो भी संपत्ति-असमानता अधिक खतरनाक है. मैं रिपोर्ट के लिए अपनाए गए तरीके की आलोचना से वाकिफ हूं लेकिन संपत्ति में भयावह असमानता मौजूद है.

आरआई: ऑक्सफैम ने अपनी रिपोर्ट में जिन समाधानों का प्रस्ताव किया है, उनमें से एक है कि अमीर और गरीब के बीच की खाई को कम करने के लिए शीर्ष 1 प्रतिशत पर अधिक कर लगाए जाए.

डब्ल्यूबी: हां, हम शीर्ष आय समूह पर अधिक कर लगाने का प्रस्ताव कर रहे हैं. हम लोगों को याद दिलाते हैं कि 1970 में कर की दर 62 प्रतिशत के आसपास थी, लेकिन अब यह 38 प्रतिशत है, और कुछ स्थानों पर और भी कम है. भारत में, भले ही यह कागज पर 34.6 प्रतिशत हो, प्रभावी कॉर्पोरेट कर की दर लगभग 23 प्रतिशत है.

हम कह रहे हैं कि विकास को नुकसान पहुंचाए बिना अधिक कराधान के लिए जगह है. साथ ही, हम सरकारों से कर परिहार में खामियों को बंद करने का आग्रह कर रहे हैं, जो अकेले विकासशील देशों के लिए 170 बिलियन डॉलर है.

आरआई: 2018 ऑक्सफैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में असमानता 1950 और 1980 के बीच घटी थी (विकास के ठहराव और उत्पादन के राष्ट्रीयकरण के समय). इसके अलावा, 1991 में अपनी अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद, असमानता कई गुना बढ़ गई. इससे एक सवाल उठती है- क्या ऑक्सफैम उत्पादन के साधनों पर राज्य के अधिक नियंत्रण की वकालत कर रहा है और उदारीकरण से जुड़े सुधारों के पक्ष में नहीं था?

डब्ल्यूबी: भारत एक उदाहरण है जो विकास की उच्च दर प्राप्त कर रहा है लेकिन विकास पर कुछ शीर्ष लोगों ने कब्जा कर लिया है. लोगों को राजनीति से मुक्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा देने के बजाय, भारत एक वाणिज्यिक स्वास्थ्य क्षेत्र को सशक्त बनाना जारी रख रहा है. परिणाम क्या आया? यहां दुनिया में सबसे अधिक शिशु मृत्यु दर है. तीन बच्चे हर मिनट स्वच्छता, पानी, पोषण की कमी से मरते हैं.

ऑक्सफैम सुझाव नहीं दे रहा है कि सरकार अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में ले और चलाए. हम एक ऐसी अर्थव्यवस्था चाहते हैं जो कुछ के लिए नहीं बल्कि बहुमत के लाभ के लिए प्रतिबद्ध हो. यह कहना गलत नहीं कि अमीरों को उचित कर चुकाना चाहिए. यह साम्यवाद नहीं है. यह राज्य का नियंत्रण नहीं है. यह निष्पक्ष कराधान है- सामान्य ज्ञान के साथ वैश्वीकरण है.

आरआई: आपने अपनी रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि "हमारी अर्थव्यवस्था टूटी हुई है, जिसमें करोड़ों लोग अत्यधिक गरीबी में जी रहे हैं." क्या आपको लगता है कि वैश्वीकरण दुनिया के अधिकांश लोगों को नुकसान पहुंचा रहा है?

डब्ल्यूबी: इस आर्थिक मॉडल के साथ समस्या यह है कि यह पूंजी मालिकों को पुरस्कृत करता है और बाकियों को वंचित. जो कड़ी मेहनत कर रहे हैं या पूंजी का उत्पादन कर रहे हैं वे पीछे छूट रहे हैं. पिछले साल, शीर्ष अरबपतियों की संपत्ति प्रति दिन 2.5 बिलियन डॉलर बढ़ी, जबकि मानवता के निचले आधे हिस्से की संपत्ति एक दिन में 500 मिलियन डॉलर डूब गई. पिछले दो-तीन दशकों में, अमीरों ने अपने धन पर कर का भुगतान कम करवा लिया और हमारे निष्कर्षों के अनुसार, डॉलर में केवल चार सेंट (राजस्व के संदर्भ में) कर संपत्ति से प्राप्त होता है. सरकारें पर्याप्त संपत्ति कर नहीं लगाकर असमानता बढ़ा रही हैं.

यह मॉडल त्रुटिपूर्ण है. यहां तक ​​कि विश्व बैंक बता रहा है कि गरीबी कम करने वाली दर घटी है. अगर हम 2030 तक इस चरम असमानता को कम नहीं करते हैं, तो पूर्ण गरीबी में रहने वालों की संख्या 200 मिलियन होगी. आधी मानवता सिर्फ 1 चिकित्सा बिल चुकाते ही गरीब हो जाने के कगार पर है. तथ्य यह है कि लगभग (3.4 बिलियन) लोग प्रति दिन 5.5 डॉलर से कम पर रहते हैं. वहां मध्यम वर्ग का विचार नहीं है, और अगर है भी तो यह नहीं होगा क्योंकि अधिकांश लोग इतने कमजोर हैं.

यह सच है कि हमने पिछले 30 वर्षों में अविश्वसनीय संख्या में लोगों को गरीबी से ऊपर उठते देखा है और उनके जीवन स्तर में सुधार आया है. लेकिन चीन और भारत का रास्ता जापान और दक्षिण कोरिया जैसा नहीं है. इन देशों ने एक-एक ऐसा मॉडल दिया जिसने उच्च आय असमानता के बिना उच्च आर्थिक विकास हासिल की. 1980 के दशक में चीन में असमानता की दर बहुत अधिक थी. चीनी सरकार ने हाल ही में महसूस किया कि अकेले विकास से गरीबी और असमानता की समस्या को दूर नहीं कर सकता है. उन्होंने ग्रामीण विकास और सार्वजनिक सेवाओं में निवेश करना शुरू किया है. इसलिए वहां से सीखा जा सकता है.

आरआई: 2015 मे अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले विजेता एंगस डेटन ने कहा है कि "दुनिया में सबसे बड़ी असमानताएं महान सफलताओं के कारण पैदा हुई हैं. 250 साल पहले की औद्योगिक क्रांति से लेकर आज की नवाचार और नए आविष्कारों के कारण."

डब्ल्यूबी: हां, समाज में असमानता अपरिहार्य है. जो लोग अधिक उद्यमी हैं, जिनके पास अधिक प्रतिभा है वे अधिक सफल होंगे ही. लेकिन अत्यधिक असमानता अपरिहार्य नहीं है. वास्तव में, यह अस्वीकार्य है. यह लाखों लोगों को गरीबी में फंसाती है और उन्हें अवसरों से वंचित करती है. मैं आपको एक उदाहरण देती हूं, मेरे गांव में ऐसी लड़कियां हैं जो बकरियां पालती हैं. ये रॉकेट वैज्ञानिक बन सकती हैं. जबकि कुछ ऐसी भी हैं जो बिना कुछ किए ही सब कुछ हासिल कर रही हैं. यह सही नहीं है.

आरआई: एंगस डेटन ने भी कहा है कि विकासशील दुनिया में "असमानता अक्सर प्रगति का परिणाम होती है”. ऐसे में वह सवाल उठता है जिससे नीति निर्माता परेशान हैं. यानी बेहतर क्या है? असमानता के साथ विकास या विकास के बिना समानता?

डब्ल्यूबी : अब यह सवाल रह ही नहीं गया है. यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष भी, जो वर्षों तक कहता रहा कि पहले विकास और फिर समानता प्राप्त करने के लिए पुनर्वितरण, अब कह रहा है कि चरम असमानता से दीर्घकालीन नुकसान होता है. यहां तक ​​कि विश्व बैंक ने भी कहा है कि अत्यधिक असमानता गरीबी कम करने की दर को कम करती है. इसलिए यह बहस अब बंद हो गई है.

लेकिन मैं आपको यह बता दूं कि एंगस डेटन की भाषा एक अर्थशास्त्री की भाषा है, और मेरी एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की भाषा है. मैं जीवन के अधिकारों की बात करती हूं. मैं ऐसे नहीं मानती कि वैश्वीकरण के अनिवार्य परिणाम के रूप में लोगों को मर जाना चाहिए. मैं कहती हूं कि उनकी मृत्यु अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करने में सरकार की विफलता का अस्वीकार्य परिणाम है. हम उच्च और न्यायपूर्ण कराधान के लिए तर्क देते हुए यह मानते हैं कि हम इतिहास के सही पक्ष के साथ खड़े हैं.