कोरोना खर्च के लिए राज्यों ने बढ़ाया पेट्रोलियम टेक्स लेकिन केंद्र को जा रहा बड़ा हिस्सा

आयातित कच्चे तेल की कीमत 21 फरवरी के दाम 3961 रुपए प्रति बैरल से घटकर 1 मई को 1523 रुपए हो गई. प्रशांत विश्वनाथन / ब्लूमबर्ग / गैटी इमेजिस
06 May, 2020

21 अप्रैल को असम ने पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले टेक्स को बढ़ा दिया. राज्य ने अधिसूचना जारी कर तत्काल प्रभाव से पेट्रोल की कीमत 71.61 रुपए प्रति लीटर से बढ़कर 77.46 रुपए प्रति लीटर और डीजल की कीमत 65.07 रुपए प्रति लीटर से बढ़कर 70.50 रुपए प्रति लीटर कर दी. लॉकडाउन के चलते राज्य में आर्थिक गतिविधियों के थम जाने से, राज्य को सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने और कोविड-19 से लड़ने में आ रहे स्वास्थ्य खर्च को जुटाने के लिए टेक्स में बढ़ोतरी करनी पड़ी है. असम के वित्त विभाग के एक अधिकारी ने मुझसे कहा, "राज्य काफी हद तक पेट्रोलियम से मिलने वाले करों पर निर्भर है और वृद्धि इसलिए की गई है कि लॉकडाउन खुलने के बाद भी राजस्व के अन्य स्रोत नहीं होंगे."

असम पेट्रोलियम से दो प्रकार का राजस्व प्राप्त करता है. राज्य में तेल क्षेत्र हैं. उन अधिकारी के अनुसार, असम में तेल की रॉयल्टी से प्रति वर्ष राज्य के राजस्व में लगभग 2500 करोड़ रुपए का योगदान होता है, लेकिन जब से कच्चे तेल की कीमतों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कमी आई है और कोविड-19 के प्रकोप के बाद जिसमें तेजी से कमी आई है, जिसके चलते राजस्व में गिरावट आई है. दूसरा तरीका है पेट्रोल और डीजल की बिक्री पर मूल्य संवर्धन कर या वैट लगाना, जिसके बारे में अधिकारी ने कहा कि यह राज्य के कोष में 3000 करोड़ रुपए का योगदान करता है. लॉकडाउन के चलते राजस्व स्रोत्र लगभग सूख-सा गया है.

असम के कर राजस्व में बिक्री कर- जिसका एक बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम पर लगाने वाले कर से बनता है - का हिस्सा 23 प्रतिशत है. अपने कर आधार के लगभग एक चौथाई हिस्से का इस तरह सूख जाना राज्य के खजाने के लिए विनाशकारी हो सकता है. इस मामले में असम कोई अकेला राज्य नहीं है. कोविड-19 लॉकडाउन के कारण भारतीय संघ के सभी राज्यों में कर राजस्व में समान गिरावट आई है. ठीक इसी दौरान राज्यों को अचानक चिकित्सा अवसंरचना पर खर्च करना पड़ा है.

भारत में पेट्रोलियम मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया ऐसी है कि पेट्रोलियम से हासिल होने वाले राजस्व का एक बड़ा हिस्सा केंद्र को जाता है. भारत में तेल का आयात मूल्य दो अंतर्राष्ट्रीय मानकों से तय होता है- दुबई-ओमान और ब्रेंट क्रूड. दुबई-ओमान मध्य पूर्व में तेल मानक है. ब्रेंट क्रूड उत्तरी सागर में निकाले जाने वाले तेल का मानक है. ब्रेंट क्रूड की कीमतें 10 फरवरी की 50 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 3 मई को 26 डॉलर के पास आ गई हैं. नतीजतन, भारत में कच्चे तेल की कीमत भी 21 फरवरी को 3961 रुपए प्रति बैरल से घटकर 1 मई को 1523 रुपए हो गई.

फिर भी आयात की कीमतों में गिरावट से खुदरा कीमतों में गिरावट नहीं हुई है. सीमा शुल्क और केंद्रीय उत्पाद शुल्क से संबंधित नीति तैयार करने वाली एजेंसी केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष सुमित दत्त मजूमदार ने मुझसे कहा, ''हालांकि वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में कमी आई है लेकिन भारतीय उपभोक्ता को इसका लाभ नहीं दिया जा रहा है. पेट्रोलियम के मूल्य निर्धारण के लिए एक तंत्र है जिसके माध्यम से कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा केंद्र सरकार को जाता है. वैश्विक कच्चे तेल की कीमतें कम हैं जबकि भारतीय खुदरा कीमतें अधिक हैं और बहुत सारा मार्जिन केंद्र सरकार को जाता है.”

भारत में पेट्रोलियम पर केंद्र और राज्यों दोनों द्वारा कर लगाया जाता है. केंद्र सीमा शुल्क और केंद्रीय उत्पाद शुल्क के माध्यम से पेट्रोलियम के आयात, प्रसंस्करण और निर्माण पर कर लगाता है, जबकि राज्य सरकारें बिक्री कर या वैट के माध्यम से पेट्रोलियम की बिक्री पर कर लगाती हैं. केंद्रीय कर समान हैं और राज्य कर अलग-अलग हैं. पेट्रोलियम मंत्रालय के तहत आने वाले पेट्रोलियम नियोजन और विश्लेषण सेल (पीपीएसी) के आंकड़ों के अनुसार, केंद्र पेट्रोल पर तीन तरह के सीमा शुल्क लगाता है- 2.5 प्रतिशत का मूल सीमा शुल्क, 12.98 रुपए प्रति लीटर का प्रतिकारी सीमा शुल्क और 10 रुपए प्रति लीटर का अतिरिक्त सीमा शुल्क. वह तीन प्रकार के केंद्रीय उत्पाद शुल्क भी वसूलता है जो 22.98 रुपए प्रति लीटर है. डीजल पर सीमा शुल्क की दर 2.5 प्रतिशत, 8.83 रुपए प्रति लीटर और 10 रुपए प्रति लीटर और केंद्रीय उत्पाद शुल्क 18.83 रुपए प्रति लीटर है.

इसके अलावा अलग-अलग राज्यों में पेट्रोल पर लगने वाला कर अलग-अलग है. जैसे अरुणाचल प्रदेश में 16.20 प्रतिशत वैट, ओडिशा में 26 प्रतिशत वैट, दिल्ली में 27 प्रतिशत वैट. डीजल पर राज्य कर इसी तरह भिन्न होते हैं. इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों के मुताबिक, 1 मई तक दिल्ली में डीलरों को पेट्रोल सीमा शुल्क और माल भाड़े के बाद 28.27 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से बेचा गया था. 22.98 रुपए का केंद्रीय उत्पाद शुल्क 14.79 रुपए का वैट और 3.55 रुपए का डीलर कमीशन जोड़कर इसका खुदरा मूल्य 69.59 रुपए पर पहुंच गया.

भारतीय संसद के कामकाज पर नजर रखने वाली शोध संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने 2018 में पेट्रोलियम की कीमतों के विश्लेषण में नोट किया था कि 2013 और 2018 के बीच वैश्विक कच्चे तेल की कीमत में 42 प्रतिशत की गिरावट आई थी और इस दौरान भारत में पेट्रोल का खुदरा मूल्य 8 प्रतिशत और डीजल का 33 प्रतिशत बढ़ गया था. "अतीत में जब वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि हुई है शुल्कों में कटौती की गई है," लेख में इसका उल्लेख किया गया है. “2014 के बाद से जैसा कि वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आई है, उत्पाद शुल्क में वृद्धि की गई है. शुल्कों में वृद्धि के चलते 2013-14 और 2016-17 के बीच केंद्र सरकार का राजस्व सालाना 46 फीसदी की दर से बढ़ गया. इसी अवधि के दौरान, राज्यों (पेट्रोल और डीजल से) के कुल बिक्री कर संग्रह में सालाना 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई.”

भारत के कर राजस्व में पेट्रोलियम क्षेत्र के योगदान पर एक चार्ट बताता है कि 2014-15 में केंद्रीय खजाने को कर राजस्व का 52 प्रतिशत मिला जबकि राज्यों को 48 प्रतिशत मिला. 2016-17 में, केंद्र को 64 प्रतिशत मिला, जबकि राज्यों को 36 प्रतिशत प्राप्त हुआ. 2018-19 में यह विभाजन केंद्र के लिए 60 प्रतिशत और राज्यों के लिए 40 प्रतिशत था. भारतीय रिजर्व बैंक ने राज्य के वित्त पर अध्ययन में पाया कि राज्य के कर राजस्व में पेट्रोलियम का योगदान 2016-17 में 15.4 प्रतिशत से घटकर 2018-19 में 12.2 प्रतिशत हो गया.

2017 में लागू किए गए माल एवं सेवा कर (जीएसटी) ने भारत के कर ढांचे में बदलाव किया. चूंकि पेट्रोलियम राज्य सरकारों के लिए राजस्व कमाने वाले सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक था इसलिए वे इसे जीएसटी में शामिल करने और इसे स्वतंत्र रूप से कर देने की अपनी-अपनी शक्ति को हाथ से जाने देने के खिलाफ थे. नतीजतन, पांच पेट्रोलियम उत्पादों- कच्चे तेल, पेट्रोल, डीजल, विमानन टरबाइन ईंधन और प्राकृतिक गैस-को जीएसटी से बाहर रखा गया जबकि अन्य उत्पादों, जैसे द्रवित पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) और मिट्टी के तेल को इसमें शामिल किया गया था. तर्क यह था कि राज्यों को गैर-जीएसटी पेट्रोलियम उत्पादों से कर राजस्व प्राप्त होता रहेगा. हालांकि, जीएसटी के डिजाइन की तकनीकी ने वास्तव में कुछ कर प्रवाह को कम कर दिया.

जीएसटी से पहले राज्यों ने राज्यों के बीच माल की आवाजाही पर केंद्रीय बिक्री कर या सीएसटी लगाया. हालांकि जब जीएसटी लागू किया गया था तो केंद्रीय बिक्री कर को समाप्त कर दिया गया और इसे जीएसटी के एक घटक, एकीकृत जीएसटी, या आईजीएसटी के साथ बदल दिया गया. चूंकि पांच महत्वपूर्ण पेट्रोलियम उत्पाद- जिनमें राजस्व की अधिकतम संभावनाएं थीं- जीएसटी से बाहर रखे गए थे इसलिए उन पर आईजीएसटी लागू नहीं था. राज्यों को राजस्व पर नुकसान हुआ क्योंकि वे ना तो जीएसटी प्राप्त कर रहे थे और ना ही आईजीएसटी जो सीएसटी के बदले में आया था.

शोध केंद्र नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के एसोसिएट प्रोफेसर सच्चिदानंद मुखर्जी ने कहा, "सीएसटी और एंट्री टैक्स से राजस्व की हानि ने राज्य के राजस्व को चोट पहुंचाई है." प्रवेश कर पूर्व जीएसटी अवधि में राज्यों द्वारा उनके राज्य की सीमा में प्रवेश करने वाले सभी सामानों पर लगाया जाने वाला शुल्क था. उन्होंने कहा, ''अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट को केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क में वृद्धि करके पूंजीकृत किया था. राज्यों के लिए कर को और बढ़ाना एक राजनीतिक निर्णय होगा, क्योंकि आपको इस बढ़त को उपभोक्ताओं के ऊपर डालना होगा."

पिछले साल मुखर्जी ने पेट्रोलियम क्षेत्र से कर संग्रह पर एनआईपीएफपी के लिए एक शोधपत्र लिखा था जिसमें उन्होंने तर्क दिया था कि 2010-11 के बाद से पेट्रोलियम करों का राजस्व हिस्सा केंद्र सरकार के लिए तो बढ़ गया है लेकिन राज्य सरकारों के लिए कम होता चला गया है. मुखर्जी ने कहा, यह एक लंबी अवधि की प्रवृत्ति है जो 2001 में शुरू हुई थी और बीच-बीच में इसमें राहत के कुछ क्षण आए. केंद्र द्वारा लगाए गए केंद्रीय उत्पाद शुल्क का उल्लेख करते हुए शोधपत्र में कहा गया कि “2008-15 के दौरान पेट्रोलियम करों से राजस्व संग्रह में गिरावट के लिए ज्यादातर पेट्रोलियम उत्पादों पर यूईडी में कटौती को जिम्मेदार ठहराया गया है जिसे वैश्विक वित्तीय संकट के प्रभाव को नरम करने लिए राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज के एक हिस्से के रूप में घोषित किया गया.” शोधपत्र आगे कहता है, "जुलाई 2014 के बाद से अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों में धीरे-धीरे गिरावट ने सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क में वृद्धि करने में समर्थ बनाया जिसके परिणामस्वरूप 2015-16 से उच्च कर संग्रह हुआ. पेट्रोलियम उत्पादों पर उच्च उत्पाद शुल्क लगाने से पेट्रोलियम उत्पादों की घरेलू कीमतों में गिरावट आई. दूसरे शब्दों में घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कम कीमतों के संदर्भ में कम अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमत का लाभ उपभोक्ताओं को नहीं दिया गया. पेट्रोलियम उत्पादों पर यूईडी बढ़ने का लाभ राज्यों के कर संग्रह पर समान रूप से नहीं हुआ."

राज्य सरकारें शिकायत करती रही हैं कि केंद्र कोविड-19 से लड़ने के लिए संसाधनों को उनके पास नहीं भेज रहा है. 23 अप्रैल को पंजाब के वित्त मंत्री मनप्रीत बादल ने कहा कि उनके राज्य को कोविड-19 का मुकाबला करने के लिए केंद्र से केवल 71 करोड़ रुपए मिले. 22 अप्रैल को द वायर के एक साक्षात्कार में, पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा ने कहा कि उन्होंने केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को आर्थिक मदद की मांग करते हुए 8 पत्र लिखे थे लेकिन उन्हें अभी तक किसी का जवाब नहीं मिला. पश्चिम बंगाल सरकार ने जो अनुरोध किए थे उनमें से एक ऋण और ब्याज चुकाने पर 9 महीने की रोक के लिए था. एक अन्य पत्र में कंपनियों को अपने कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व खर्च के तहत मुख्यमंत्री राहत कोष या किसी भी कोविड-19 समर्पित निधि में योगदान करने की अनुमति दी जाए. मित्रा ने कहा कि राज्य के कई प्रमुख अनुरोधों में से केवल एक छोटे से हिस्से पर सहमति व्यक्त की गई.

सार्वजनिक वित्त अर्थशास्त्री और चौदहवें वित्त आयोग के सदस्य गोविंदा राव ने मुझे बताया कि "केंद्र और राज्यों द्वारा पेट्रोलियम करों पर भारी निर्भरता रही है जिसके परिणामस्वरूप उपभोक्ता उचित मूल्य से बहुत अधिक भुगतान करता है." चौदहवें वित्त आयोग ने सिफारिश की थी कि भारत के कर विभाज्य पूल से कर राजस्व केंद्र और राज्यों के बीच 58 प्रतिशत से 42 प्रतिशत के अनुपात में साझा किया जाएगा. इसे 2015 में शुरू किया गया. राव ने कहा, ''केंद्र सरकार ने चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार राज्यों को पेट्रोलियम लेवी सहित कर से प्राप्त धन को राज्यों को सौंपा है. सीमा शुल्क और केंद्रीय उत्पाद शुल्क भी राज्यों के साथ साझा किया जाता है.”

राव ने आगे कहा, "चौदहवें वित्त आयोग ने सिफारिश की थी कि करों के 42 प्रतिशत विभाज्य पूल को राज्यों को जाना चाहिए. केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए विवेकाधीन उपायों के संदर्भ में केंद्र ने उपकर वसूलना शुरू कर दिया है और इसे राज्यों के साथ साझा नहीं करती है. उपकर और अधिभार केंद्र द्वारा लगाए गए कर हैं जिन्हें राज्यों के साथ साझा नहीं किया जाता है. 2018-19 के बजट में, केंद्र सरकार ने सड़क और बुनियादी ढांचे के उपकर के साथ उत्पाद शुल्क के एक हिस्से को बदल दिया जिसका प्रभाव राज्यों को राजस्व से वंचित करना होगा. राव ने कहा, “2014 के बाद हुई चीजों में से एक कच्चे तेल की कीमत में भारी कमी थी और जब ऐसा हुआ तो केंद्र ने करों में वृद्धि की और करों को बढ़ाने में यह उपकर और अधिभार में वृद्धि हुई. केंद्र को जाने वाले कर राजस्व का बढ़ता अनुपात सड़क और बुनियादी ढांचे के उपकर के कारण है जो केंद्र वसूलता है."

भारतीय रिजर्व बैंक की सितंबर 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, "संघ द्वारा उपकर और अधिभार की छूट, जो कि विभाज्य पूल के बाहर है, क्रमिक वित्त आयोगों द्वारा अनुशंसित कर विचलन में वृद्धि को बेअसर करती है. उपकर और अधिभारों की आय, जो 1980-81 में केंद्र के सकल कर राजस्व का केवल 2.3 प्रतिशत थी हाल के वर्षों में बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई है.” पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च द्वारा राज्य के वित्त पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि इसके परिणामस्वरूप "राज्यों का 42 प्रतिशत हिस्सा विभाज्य पूल में है ... जो 2019-20 में केंद्र की कर प्राप्तियों से प्रभावी रूप से गिरकर 35.7 प्रतिशत तक जाता है."

इस बीच अन्य राज्य भी असम की तरह के पेट्रोलियम कर लगा रहे हैं. 30 अप्रैल को नागालैंड ने पेट्रोल पर छह रुपए प्रति लीटर और डीजल पर पांच रुपए प्रति लीटर "कोविड-19 उपकर" लगाया. मेघालय ने भी पेट्रोल की कीमत 68 रुपए से बढ़ाकर 72 रुपए प्रति लीटर और डीजल की कीमत 61 रुपए से बढ़ाकर 66 रुपए प्रति लीटर कर दी है. 30 अप्रैल को हरियाणा कैबिनेट ने भी पेट्रोल और डीजल पर वैट बढ़ा दिया है. राव ने कहा, "कुछ राज्यों ने पेट्रोलियम करों में वृद्धि करना शुरू कर दिया है क्योंकि वे जीएसटी नहीं बढ़ा सकते और इस समय कोई संपत्ति पंजीकरण नहीं हो रहा है. वे केवल पेट्रोलियम करों में वृद्धि ही कर सकते हैं."