मुकेश त्यागी उत्तर भारत कपड़ा मिल एसोसिएशन के वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं. यह छोटे, मझोले और बड़े कपड़ा उद्योगों का संगठन है. संगठन के मुताबिक सदस्यों का कुल सालाना व्यापार 50 हजार करोड़ रुपए से अधिक है. 20 अगस्त को समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस में संगठन ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था: भारतीय कपड़ा उद्योग पर सबसे बड़ा संकट, बड़ी संख्या में नौकरियां हो रहीं खत्म.
विज्ञापन के अनुसार जारी संकट के कारण भारत के एक तिहाई कपड़ा उद्योग बंद हो गए हैं और भारी मात्रा में नकदी घाटा हो रहा है. विज्ञापन में दावा है कि इस बार की कपास फसल के दौरान यह उद्योग 80 करोड़ रुपए का कपास नहीं खरीद सकेगा. संगठन ने जो तथ्यांक जारी किया, उसके मुताबिक इस साल अप्रैल और जून के बीच सूत का निर्यात पिछले साल की इसी अवधि से 35 प्रतिशत कम हो गया है. विज्ञापन कहता है कि भारतीय कपड़ा उद्योग में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से 10 करोड़ से अधिक लोग जुड़े हैं और इसे सरकार के अविलंब हस्तक्षेप की दरकार है ताकि रोजगार में हो रही कमी से बचा जा सके और इस उद्योग को गैर-निष्पादित परिसंपत्ति या नॉन परफोर्मिंग असेट हो जाने से बचाया जा सके.
27 अगस्त को कारवां के स्टाफ राइटर सागर ने दिल्ली में त्यागी से बातचीत की. त्यागी ने कपड़ा उद्योग में जारी संकट के कारण और सरकार से अपेक्षित उपायों के बारे में बताया. उनका कहना था कि “नकदी का संकट नोटबंदी के चलते भी है. नोटबंदी से कपड़ा उद्योग में नकद का प्रवेश बंद हो गया.”
सागर : क्या आप कपड़ा उद्योग में जारी संकट के बारे में बताएंगे जिसका विज्ञापन आपने समाचार पत्र में प्रकाशित किया था?
मुकेश त्यागी : कच्चा माल खरीदने में समस्या हो रही है. इस उद्योग का मुख्य कच्चा माल कपास है. भारत में कपड़ा उत्पादन में 50 से 60 फीसदी कपास का प्रयोग होता है. हमारे देश की गिनती दुनिया के सबसे बड़े कपास उत्पादक देशों में होती है. क्योंकि कपास एक कृषि वस्तु है इसलिए इसकी बिकवाली में सरकार की भूमिका है. हमारे संकट का मुख्य कारण कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 25 से 28 फीसदी की वृद्धि होना है. इससे पहले इतनी बड़ी वृद्धि एक बार में कभी नहीं की गई थी. यह उद्योग इस वृद्धि को वहन नहीं कर सकता. हमारी यह चिंता पिछले साल भी थी लेकिन हमें उम्मीद थी कि वैश्विक बाजार में कपास की कीमत में बढ़ोतरी होगी लेकिन पिछले चार से छह महीनों में वैश्विक बाजार में कीमतें बहुत गिरी हैं. इसलिए हमारे कपड़े का उत्पादन मूल्य बढ़ गया है और कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार के अनुरूप नहीं हैं.
इसलिए चीन का सूत उद्योग जो हमारा 40 फीसदी आयात करता था वह हमसे नहीं खरीद रहा. वहां के कताई करने वाले अपने देश का सूत खरीद रहे हैं जो भारत से सस्ता पड़ता है. चीन में वियतनाम जैसे भारत के प्रतिस्पर्धी देशों पर 3.5 फीसदी आयात शुल्क भी नहीं लगता.
सागर : क्या आपको नहीं लगता कि कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य को घटा देने से किसानों को नुकसान होगा?
त्यागी : चीन जैसे देशों में कृषि सामग्री पूरी तरह से बाजार पर आश्रित है. सरकार की कोई भी संस्था बाजार से कृषि उत्पाद नहीं खरीदती. सभी प्रकार के कृषि उत्पाद बाजार मूल्य पर बेचे जाते हैं और यदि वहां के किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पैसे में कपास बेचना पड़ता है तो वहां की सरकार किसानों के बैंक खातों में इस अंतर को प्रत्यक्ष हस्तांतरण कर देती है. हमने सरकार से अपील की थी कि ऐसी ही व्यवस्था भारत में लागू की जाए. हम न्यूनतम समर्थन मूल्य की बढ़ोतरी के खिलाफ नहीं हैं.
सागर : जुलाई में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में आपके संगठन ने कहा था कि सूत के मूल्य में बढ़ोतरी ढांचागत कारणों से है. क्या आप इस बारे में विस्तार से बताएंगे?
त्यागी : पहले हमारे सूत पर कर नहीं लगता था लेकिन अब हमें 5 फीसदी माल एवं सेवा कर (जीएसटी) देना पड़ता है. जीएसटी ने अन्य करों को खत्म नहीं किया है. मिसाल के तौर पर हमें 2.5 प्रतिशत मंडी कर वापस नहीं मिलता. यह कर कपास के मंडी पहुंचने पर लगता है. बिजली शुल्क जो 50 पैसे से एक रुपया प्रति यूनिट है वह भी जीएसटी के दायरे में नहीं आता.
इसके अलावा आबकारी शुल्क और वैट जो पेट्रोलियम उत्पादों पर लगता है वह भी जीएसटी के आने से खत्म नहीं हुआ है. हम कच्चे माल की ढुलाई में बहुत खर्च करते हैं. इसलिए कुल मिलाकर हमारी लागत में 5 फीसदी कर जुड़ जाता है. इसलिए हम चाहते हैं कि सरकार यह सभी कर आरओसीएसटीएल ( सरकार की केन्द्र एवं राज्य करों एवं लेवियों में छूट योजना) के अंतर्गत हमें लौटाए.
सागर : आपको समस्या सार्वजनिक करने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा?
त्यागी : हम सरकार से लगातार बातचीत कर रहे हैं. हमारी शिकायत मीडिया के खिलाफ है. आज अगर आप टीवी या प्रिंट मीडिया को देखते हैं तो पाते हैं कि इसमें सिर्फ ऑटो और रियल एस्टेट जगत में मंदी की बात हो रही है. मीडिया सिर्फ इन उद्योगों की बात करता है क्योंकि इनका असर शेयर बाजार पर पड़ता है. कपड़ा उद्योग में यदि किसानों को शामिल किया जाए तो इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से 10 करोड़ लोग काम करते हैं. लेकिन जब मीडिया नौकरियों में कटौती की बात करता है तो वह हमारे उद्योग को कवर नहीं करता.
सागर : लेकिन अपको सरकार से मदद मांगनी चाहिए न कि मीडिया से.
त्यागी : बिल्कुल. लेकिन आप यदि समस्या को सार्वजनिक मंच पर रखते हैं तो समाधान तीव्र होता है क्योंकि मीडिया ऑटो जगत की समस्या को लगातार उठा रहा है इसलिए 23 अगस्त को दिल्ली में एक प्रेस वार्ता में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इसके बारे में विशेष उपायों की घोषणा की. यदि हमारी समस्या लगातार समाचार पत्रों में प्रकाशित होती है तो हो सकता है कि इस पर भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में बात हो.
सागर : यानी आपका कहना है कि सरकार आपकी समस्या को सुन रही है लेकिन मीडिया नहीं.
त्यागी : जी हां, लेकिन कपड़ा उद्योग से संबंधित समस्या को केवल कपड़ा मंत्रालय हल नहीं कर सकता. इससे संबंधित मामले वित्त मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय और कृषि मंत्रालय से संबंधित है और इसलिए फैसला लेने में देरी होती है.
सागर : आपके संगठन ने यह भी कहा था कि नकदी की समस्या का सामना कपड़ा उद्योग कर रहा है. इस बारे में कुछ बताएंगे?
त्यागी : नकदी की समस्या का एक कारण नोटबंदी भी थी. जब यह की गई तो कपड़ा बाजार में नकदी का प्रवेश रुक गया. जीएसटी भी लागू हुआ. इससे पहले फैब्रिक में कोई टैक्स नहीं था. बहुत से विकेन्द्रित क्षेत्र नई टैक्स व्यवस्था का सामना कर रहे हैं. इसके अतिरिक्त इन्हें अन्य नियमों का पालन करना पड़ता है. कपड़ा जगत इसे समझने के लिए तैयार नहीं था. हमारे उद्योग में ऐसे बहुत से लोग हैं जो शिक्षित नहीं हैं. कई लोगों की शिक्षा न्यूनतम स्तर की है. जीएसटी को लागू हुए डेढ़ साल हो चुका है और कई लोग इसे अब तक समझने की कोशिश कर रहे हैं. इसके अलावा बहुत सा पैसा जीएसटी वापसी में अटका पड़ा है. लेकिन मुझे लगता है कि जीएसटी अच्छा कदम था. इसके बावजूद मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि नोटबंदी सफल नहीं रही. बाजार में नोटबंदी से पहले जितना पैसा परिचालन में था उतना बैंकों में लौट आया. मुझे लगता है कि लक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हुआ.
सागर : दक्षिण एशिया के कपास उत्पादक देश, भारत की कपास व्यवस्था पर कैसा असर डाल रहे हैं?
त्यागी : बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों के साथ हमने दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौता किया है. इस रास्ते से चीन का सस्ता फैब्रिक भारत में प्रवेश कर रहा है. हमने सरकार को प्रस्ताव दिया है कि उनका उत्पाद कुछ शर्तों के साथ भारत में लाया जाए, जैसे कि वे भारत का कच्चा माल इस्तेमाल करें. इन उत्पादों में हमारा सूत और फैब्रिक होना चाहिए.
हमारा आंतरिक कपड़ा उद्योग बांग्लादेश से रेडीमेड वस्त्र की खरीदी कर रहा है और यहां बेच रहा है. हम इससे भी चिंतित हैं. हम चाहते हैं कि सरकार चीन से समझौता करे और भारतीय कपास पर लगने वाला 3.5 फीसदी कर खत्म करवाए. दोनों देशों के बीच इस बारे में कई सालों से वार्ता हो रही है लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया है.