भारत में हर कुछ दशकों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) तैयार की जाती है. भारत में पहली शिक्षा नीति 1968 में बनाई गई थी, दूसरी 1986 में और तीसरी पिछले साल ही 29 जुलाई को मंजूर को. नई नीति भारत में शिक्षा व्यवस्था को न केवल अभी बल्कि आने वाले दशकों में भी दिशा देगी.
एनईपी में कुछ व्यापक बदलाव किए गए हैं. इसमें स्कूली शिक्षा में अब तक चली आ रही 10+2 संरचना से बदल कर 5+3+3+4 मॉडल करने की योजना, प्री-स्कूली शिक्षा को औपचारिक स्कूली शिक्षा के दायरे में समेटा गया है. इसमें विषयों के लचीलेपन और सीखने के तरीके में तालमेल को ध्यान में रखते हुए शैक्षणिक और पाठ्यक्रम से जुड़े सुधार और मूल्यांकन प्रणाली में बदलाव की बात है. इसका उद्देश्य बच्चों में एक से अधिक भाषा का ज्ञान बढ़ाना और स्थानिय भाषाओं में शिक्षा देना है. इन प्रस्तावित परिवर्तनों में सरकारी और निजी स्कूलों के प्रबंधन, मूल्यांकन और प्रायोजन के तरीके को पुनर्गठित करने के साथ-साथ शिक्षा प्रणाली को कैसे संचालित करना है उसके तरीके भी शामिल हैं. नई नीति में शिक्षा विभागों की कायापलट और सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की बात भी शामिल है. भारत में शिक्षा पर चल रहा कार्यक्रम ‘समग्र शिक्षा’ को भी एनईपी प्रावधानों के अनुरूप पुनर्गठित किया जा रहा है.
इस साल फरवरी में शिक्षा मंत्रालय ने नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन की निगरानी करने और इसके लक्ष्यों को प्राप्त करने की गति का आकलन करने के लिए एक समीक्षा समिति का गठन किया. तब से केंद्र और राज्य सरकारों ने विचार-विमर्श की एक पूरी श्रृंखला आयोजित की है. विभिन्न विषयों के लिए राज्य स्तरीय विशेषज्ञ समितियों का गठन किया गया है. एनईपी को क्रियान्वित करने के लिए एक मसौदा योजना तेयार कर इसे उन राज्यों के पास भेज दिया गया है जहां इसे लागू किए जाने की संभावना है. हरियाण सरकार ने मुझसे भी मसौदा योजना पर सुझाव मांगे थे.
एनईपी 2020 में एक ओर तो कई ऐसे पहलू हैं जो सराहनीय हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ कई बिंदू चिंताजनक हैं. इनमें भविष्य में शिक्षा का व्यावसायीकरण, अनौपचारिककरण, प्रौद्योगिकी के उपयोग पर अतार्किक अत्याधिक जोर, भेदभाव जैसी समस्याओं पर पर्याप्त रूप से ध्यान न देना और नीति के कार्यान्वयन के लिए जरूरी वित्तपोषण सुनिश्चित करने की आवश्यकता शामिल हैं.
एनईपी स्वीकार करती है कि वर्तमान नियामक व्यवस्था निजी स्कूलों द्वारा अभिभावकों के शोषण रोकने में असफल रही है. लेकिन इसके बावजूद कार्य योजना के मसौदे में राज्यों को शिक्षा में “निजी परोपकार” को प्रोत्साहन देने की बात है. साथ ही एनईपी राज्यों को सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देने वाली नीतियों को विकसित करने और इसके लिए नियामक ढांचे को सहज करने की सिफारिश करती है. इसलिए, जब समस्या को स्वीकार कर लिया गया है ऐसे में सुझाए गए ये उपाय स्थिति को और खराब करने वाले लगते हैं. निजी स्कूलों की निगरानी के लिए और इनके द्वारा किए गए उल्लंघन के मामलों में शिकायत निवारण के लिए एक अधिक मजबूत तंत्र की तत्काल आवश्यकता है. यह योजना निजी और परोपकारी निजी स्कूलों के बीच अंतर करती है. यह खतरनाक बात है क्योंकि यह शिक्षा को लाभार्जन की वस्तु बनाती है. हाल ही में ऑक्सफैम इंडिया द्वारा किए एक अध्ययन में पाया गया कि महामारी के कारण सामने आईं ढ़ेरों कठिनाई के बावजूद देश के 40 प्रतिशत निजी स्कूलों ने अपनी फीस में बढ़ोतरी की है, जो सीधे तौर पर सरकारी आदेशों का उल्लंघन है.
कमेंट