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भारत में जन शिक्षा का मतलब क्या है? इस सवाल का जवाब देने से पहले यह समझना होगा कि जनता क्या है. भारत में जनता को परिभाषित करना बेहद जरूरी है क्योंकि भारतीय समाज अपनी प्रकृति में दमनकारी और विभेदकारी है. यह ऐसा समाज है जो जन्म के आधार पर लोगों में अंतर करता है, जहां सामाजिक भेदभाव और आर्थिक वंचना है. भेदभाव और बहिष्कार जाति व्यवस्था के परिणामस्वरूप हैं जो आज भी व्यापक है, इसलिए सार्वजनिक शिक्षा पर होने वाली किसी भी बहस में संरचनागत अन्याय पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो पृथ्कीकरण करने वाली व्यवस्था में पैदा होती है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जारी छात्रों के प्रदर्शन, भारत में जातीय भेदभाव के मामले और शिक्षा के निजीकरण से होने वाले इसके व्यवसायीकरण से जुड़े हैं जो सीमांत समुदायों को और ज्यादा पृथक कर देगा. हालांकि छात्रों का आंदोलन विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा फीस वृद्धि के खिलाफ शुरू हुआ था लेकिन इसका उद्देश्य सार्वजनिक विश्वविद्यालय के विचार को बचाना है. आंदोलन को जाति और व्यावसायीकरण के संदर्भ में समझने के लिए भारत में सार्वजनिक शिक्षा की शुरुआत को समझना जरूरी है.
ऐतिहासिक तौर पर शिक्षा और ज्ञान पर द्विजों का कब्जा था. विशेष तौर पर इस पर ब्राह्मणों का नियंत्रण रहा. ब्राह्मणवादी दर्शन के अनुसार, अलग-अलग समुदाय के लिए अलग-अलग कर्तव्य और अधिकार तय हैं. इससे यह हुआ कि शूद्र समुदाय को शिक्षा से वंचित रखा गया, जो वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान में आते हैं. चार स्तर वाली इस व्यवस्था के बाहर अतिशूद्र और महिलाएं हैं. मनुस्मृति में इन समुदायों के शिक्षा ग्रहण करने पर कठोर दंड का प्रावधान है.
सार्वजनिक शिक्षा संरचना पर ब्राह्मणों और ऊंची जातियों के समुदायों का एकाधिकार रहा. ज्ञान पर इनका एकाधिकार इन्हें सम्मान, शक्ति और आर्थिक हैसियत देता है. आजादी के बाद बने संविधान ने इस पुरानी व्यवस्था को निर्णायक चोट दी. चाहे यह चोट व्यापारिक न भी रही हो तो भी प्रतीकात्मक तो थी ही. सभी लोगों के लिए शिक्षा का अधिकार संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में उल्लेखित है जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने जीवन के मौलिक अधिकार के रूप में परिभाषित किया. इस संबंध में दो लोगों ज्योतिराव फुले और बीआर आंबेडकर की भूमिका महत्वपूर्ण है.
फुले और आंबेडकर को ब्रिटिश भारत के ईसाई मिशनरी स्कूलों की शिक्षा का लाभ मिला जो ब्राह्मणों के एकाधिकार से बाहर थे. ईसाई स्कूलों ने सभी के लिए मूलभूत शिक्षा की व्यवस्था की जिसने आंबेडकर, ज्योतिराव, और सावित्रीबाई फुले को शिक्षा के लिए आंदोलन संगठित करने का अवसर दिया. ज्योतिराव की बदौलत महाराष्ट्र की दमित जातियों और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खुले. शिक्षा के उनका दर्शन के मुताबिक शिक्षा सीमांत समुदायों के ब्राह्मणवादी उत्पीड़न और गैर-बराबरी के खिलाफ क्रांतिकारी हथियार थी. नौकरशाही में अंग्रेज-ब्राह्मण गठजोड़ की आलोचना करने वाली उनकी किताब शेटकर्याको असुद 1881 में प्रकाशित हुई. इस किताब में ज्योतिराव ने लिखा था, “शिक्षा के बिना विवेक खत्म हो जाता है, विवेक के बिना नैतिकता नहीं रहती, नैतिकता के बिना विकास नहीं होता, विकास के बिना संपत्ति नहीं आती, संपत्ति के बिना शूद्र बर्बाद हो जाते हैं. इतना सब कुछ होता है शिक्षा के अभाव में.”
शिक्षा का उनका विचार बहिष्कार करने वाला या सांप्रदायिक नहीं था. उन्होंने सभी के लिए वैश्विक और अनिवार्य शिक्षा की वकालत की. 1848 में फुले दंपत्ति ने लड़कियों के लिए स्कूल खोला और ब्राह्मणवादी ज्ञान संरचना को चुनौती दी. सात साल बाद ज्योतिराव ने मराठी नाटक तृतीय रत्न लिखा. यह नाटक एक किसान और उसकी गर्भवती पत्नी पर आधारित था जिनका एक ब्राह्मण पुजारी शोषण करता है. नाटक सीख देता है कि शोषण से बचने का एकमात्र उपाय शिक्षा है. ज्योतिराव ने ज्ञान को तीसरी आंख बताया है जो दमित समुदायों की मुक्ति के लिए आवश्यक है.
अपने भाषणों में भी ज्योतिराव ने जनता को शिक्षित करने पर जोर दिया. ज्योतिराव फुले की संकलित रचना में शिक्षा आयोग के सामने उनका वक्तव्य प्रकाशित है. ब्रिटिश शासन ने 1981 में इस आयोग का गठन प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के स्तर की समीक्षा के लिए बनाया था. उस वक्तव्य में उन्होंने लिखा है :
लिखकर खाने-कमाने वाले ब्राह्मण और प्रभुओं जैसे ऊंचे और धनी वर्गों ने शिक्षा का स्वाद चखा है और जहां तक इन वर्गों का संबंध है शासकीय सहायता क्रमशः हटाई जा सकती है. लेकिन मध्य और निचले वर्गों में, जिनमें उच्च शिक्षा का विस्तार बहुत हद तक सीमित है, सहायता को हटाया जाना बहुत खराब बात होगी. ऐसे हालात में लड़कों को सक्षम और सांप्रदायिक स्कूलों में अपनी मर्जी के खिलाफ दाखिला लेना पड़ेगा जिससे शिक्षा के उद्देश्य को क्षति होगी. ऐसी शिक्षा निजी हाथों में नहीं सौंपी जा सकती. एक लंबी अवधि तक सभी तरह की शिक्षा, कार्यकारी और सेवा संबंधी, सरकार के हाथों में होनी चाहिए. उच्च और प्राथमिक शिक्षा को विकसित और उस पर ध्यान देने की दरकार है जो सरकार कर सकती है.
उपरोक्त बातों में देखा जा सकता है कि खुद शिक्षा संस्थानों का विकास करने के साथ ही ज्योतिराव सरकार से निशुल्क सार्वजनिक शिक्षा उपलब्ध कराने की मांग भी कर रहे हैं.
ज्योतिराव की विरासत आंबेडकर में देखी जा सकती हैं. भारत के सार्वजनिक विमर्श में आंबेडकर के दखल ने जाति विरोधी विमर्श को क्रांतिकारी रूप से प्रभावित किया. 1924 में आंबेडकर ने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य उत्पीड़ित समुदायों को गोलबंद करना और उनकी शिकायतों का निवारण करना था. इस संगठन का नारा था, जो आज बहुत प्रचलित है- शिक्षित बनो, आंदोलन करो और संगठित हो. सभा के जरिए आंबेडकर ने दलितों के लिए हॉस्टल, पुस्तकालय और स्टडी सर्किल जैसी शैक्षिक गतिविधियां आरंभ कीं. बॉम्बे विधानसभा परिषद को दिए ज्ञापन में आंबेडकर ने प्रस्ताव दिया कि डिप्रेस्ड क्लास में शैक्षिक के विकास की आवश्यकता है. 1927 में वह स्वयं परिषद के सदस्य बन गए.
आंबेडकर ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से परिमार्जित कर दिया. 1927 में परिषद में हुई बॉम्बे यूनिवर्सिटी बिल बहस पर बोलते हुए आंबेडकर ने तर्क दिया, “बैकवर्ड क्लास को यह समझ में आ गया है कि उनके लिए सबसे लाभकारी चीज शिक्षा है और इसके लिए वह लड़ सकते हैं. हम लोग भौतिक सुविधाओं को तो छोड़ सकते हैं लेकिन हम लोग उच्च शिक्षा से प्राप्त अधिकार और अवसरों से मिलने वाले फायदे को नहीं छोड़ सकते.”
आंबेडकर को इस बात में कोई शक नहीं था कि शिक्षा राज्य प्रायोजित होनी चाहिए ताकि वह सभी की पहुंच में हो. इसके साथ, उन्होंने इसके व्यवसायीकरण का विरोध भी किया. जिस साल वह परिषद के सदस्य बने उस साल सार्वजनिक शिक्षा के लिए अनुदान पर हुई बहस के दौरान उन्होंने कहा था,
मुझे पता चला है कि कला महाविद्यालयों में होने वाले कुल व्यय का 36 प्रतिशत फीस के माध्यम से आता है, उच्च स्कूलों के खर्च का 31 प्रतिशत फीस से प्राप्त होता है, माध्यमिक स्कूलों के व्यय का 26 प्रतिशत फीस के माध्यम से प्राप्त होता है. सर, मैं यह कहना चाहता हूं कि यह शिक्षा का व्यवसायीकरण है. शिक्षा ऐसी चीज है जो सभी की पहुंच में होनी चाहिए. शिक्षा विभाग ऐसा विभाग नहीं है जो लेन-देन से चलना चाहिए. शिक्षा को सभी संभावित तरीकों से सस्ता किया जाना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा सस्ता किया जाना चाहिए.
सार्वजनिक शिक्षा के लिए आंबेडकर की मांगों में डिप्रेस्ड क्लास के लिए विशेष प्रावधानों की बात भी थी. उनका विश्वास था कि डिप्रेस्ड क्लास को विशेष सुविधाएं दिए बिना सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा की बात करना “मजाक” है. उन्होंने कहा, जरूरी है कि डिप्रेस्ड क्लास के लोगों के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाए ताकि उनके भीतर आत्मविश्वास विकसित हो और हीनभावना खत्म हो. आंबेडकर उच्च शिक्षा के विस्तार को सामाजिक बुराइयों का उपचार मानते थे.
1945 में आंबेडकर ने अनुसूचित जाति परिसंघ की ओर से राज्य और अल्पसंख्यक किताब लिखी. यह संगठन उन्होंने कुछ साल पहले बनाया था. परिसंघ ने आंबेडकर से अनुसूचित जातियों के संरक्षण के लिए कानूनी उपायों के बारे में लिखने को कहा था लेकिन यह किताब अपने आप में एक संविधान ही है. किताब के एक अध्याय “नागरिकों के मौलिक अधिकार” में आंबेडकर लिखते हैं, “जो भी व्यक्ति किसी व्यक्ति को आवास, सुविधा, अवसर, होटलों में प्रवेश, शैक्षिक संस्थान, सड़क से वंचित करता है उसके कार्य को अपराध माना जाना चाहिए.” 1950 में जब भारतीय संविधान लागू हुआ, शिक्षा को संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में रखा गया जो न्यायिक स्तर पर बाध्यकारी नहीं है. लेकिन 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा के अधिकार को जीवन और स्वतंत्रता के संविधान के अनुच्छेद 21 के साथ रखा.
आंबेडकर के लिए संविधान और राज्य ऐसे दस्तावेज और संस्थान हैं जो जनहित में हैं. उनका विश्वास था कि शिक्षा संवैधानिक अधिकार होनी चाहिए और यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराएं. “राज्य और अल्पसंख्यक” के अनुसूचित जातियों की स्थिति में सुधार के लिए विशेष दायित्व वाले भाग में आंबेडकर ने लिखा है, “सरकारें- केंद्र और राज्य- को अनुसूचित जातियों की उच्च शिक्षा की वित्तीय जिम्मेदारी लेनी होगी और बजट में इसके लिए उचित प्रावधान करने होंगे. केंद्रीय और राज्य सरकार के बजट में शिक्षा बजट सबसे ऊपर होगा.”
यह समझना जरूरी है कि आंबेडकर ने “राज्य और अल्पसंख्यक” में जो प्रस्ताव किए थे और जिसे संविधान के जरिए हासिल किया गया, शिक्षा को सार्वजनिक वस्तु के रूप में बदल कर उस पर उच्च जाति के नियंत्रण को चुनौती दी. शिक्षा के बारे में आंबेडकर के विचार सार्वजनिक वित्तपोषण तक सीमित नहीं था यह इससे आगे तक जाता था. उनके अनुसार, शिक्षा एक मूल्य है, एक साधन है सामाजिक बदलाव का. 1956 में “भारत में लोकतंत्र के भविष्य” विषय पर एक चर्चा के दौरान उन्होंने कहा था,
यदि आप भारतीय समाज के केवल उस हिस्से को शिक्षा देंगे जिसका हित जाति व्यवस्था को बरकरार रखने में है तो इससे मिलने वाले लाभ से जाति व्यवस्था को मजबूती मिलेगी. दूसरी ओर यदि भारतीय समाज के नीचे के हिस्से को शिक्षा देंगे जिसका हित जाति व्यवस्था को खत्म करने में है तो जाति व्यवस्था खत्म हो जाएगी. जिस तरह अमीर को और अमीर बनाना और गरीब को और गरीब बनाने से गरीबी खत्म नहीं हो जाती वही बात जातीय व्यवस्था को खत्म करने में शिक्षा को माध्यम की तरह इस्तेमाल करने के बारे में भी लागू होती है. जाति व्यवस्था को बरकरार रखने की चाहत रखने वाले लोगों को शिक्षा देना भारत में लोकतंत्र की संभावना में सुधार नहीं लाता बल्कि यह हमारे लोकतंत्र को बड़े खतरे में डालता है.
आंबेडकर के सार्वजनिक शिक्षा के विचार के दो पहलू थे : यह राज्य द्वारा वित्त पोषित होनी चाहिए और उच्च जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने वाली होनी चाहिए ताकि आलोचनात्मक चेतना पैदा कर यह सामाजिक रूपांतरण का साधन बन सके. इससे मुक्ति विमर्श में ज्यादा लोगों को शामिल किया जा सकता है. उनका मानना था कि शिक्षा लोकतंत्र का एक स्तंभ है. फुले और आंबेडकर दोनों ने शिक्षा के जरिए प्राप्त ज्ञान को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शक्ति के साधन के रूप में देखा. ऐसा केवल सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के माध्यम से ही संभव हो सकता है.
भारत में जनता का अर्थ समाज के कुलीन और उच्च वर्गों के नजरिए से विकसित हुआ. मानक रूप से ही सही पर भारतीय नीति में सामाजिक न्याय के सबसे आगे रहने के बावजूद सामाजिक संस्थानों में उच्च-जाति की उपस्थिति गैर-अनुपातिक ढंग से उत्पीड़ित समुदायों की तुलना में अधिक है. सत्तर वर्षों के भारतीय लोकतंत्र में, कांग्रेस ने पचास से अधिक वर्षों तक शासन किया और गांधीवादी विमर्श, जो जाति पर बहुत कम ध्यान देता है, इस पूरे दौरान हावी रहा. इसी तरह, मार्क्सवादी विमर्श का वर्गीय दृष्टिकोण मुख्यधारा के अकादमिक जगत तक सीमित रहा और परिणामस्वरूप, जन भागेदारी और बहस का दायरा-भले ही जीवंत रहा लेकिन जाति के सवालों की बड़े पैमाने पर उपेक्षा की जाती रही.
पिछले तीन दशकों में निजी शिक्षा क्षेत्र के विस्तार के लिए कई कारक जिम्मेदार रहे हैं. 1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद सबसे पहले निजीकरण की शुरुआत हुई, जिसने व्यावसायिक शिक्षा के लिए रास्ता तैयार किया और सामाजिक न्याय की अनदेखी की. लगभग उसी समय, मंडल आयोग ने सरकार द्वारा वित्त पोषित शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव रखा. इसने निजी उद्योग को स्कूल खोलने के लिए प्रेरित किया जहां यह नीति लागू नहीं होती.
साल 2000 में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने प्रधानमंत्री की व्यापार और सलाहकार परिषद ने शैक्षिक सुधारों हेतु नीतिगत ढांचा तैयार करने के लिए दो सदस्यीय समिति का गठन किया. इसमें उद्योगपति मुकेश अंबानी और कुमारमंगलम बिड़ला शामिल थे. समिति ने शिक्षा पर सरकार के कम खर्च को एक मुख्य चिंता के रूप में चिन्हित किया और "शिक्षा में वित्त पोषण की कुछ समस्याओं को दूर करने के लिए" तीन उपाय सुझाए. पहला उपाय था "उच्च शिक्षा की सार्वजनिक लागत को वसूल करना" और प्राथमिक शिक्षा के लिए धन का पुनर्आवंटन. दूसरा, "शिक्षा के लिए एक ऋण बाजार विकसित करना" और तीसरा "सार्वजनिक शिक्षा के प्रबंधन को विकेंद्रीकृत करना और निजी और सामुदायिक स्कूलों के विस्तार को प्रोत्साहित करना."
नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में, संस्थागत रूप में सार्वजनिक शिक्षा और उत्पीड़ित समुदायों के छात्रों और शिक्षकों दोनों बार-बार हमले के शिकार हुए हैं. इसकी शुरुआत मई 2015 में मद्रास के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल की मान्यता रद्द करने के साथ हुई थी. इसके तुरंत बाद, जनवरी 2016 में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय द्वारा संस्थागत जातिगत भेदभाव के कारण शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद देश भर में दलित समूहों ने विरोध प्रदर्शन किए. उस वर्ष, केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा वित्त पोषण एजेंसी स्थापित करने की घोषणा की, जिसके तहत "सरकार परिसर और प्रयोगशाला के विकास के लिए 10 वर्षों की ऋण सुविधा उपलब्ध करेगी," जिसे शुल्क सहित "आंतरिक स्रोतों" के माध्यम से चुकाया जाएगा. यह देखना कठिन नहीं है कि इस पहल का एक स्वाभाविक परिणाम यह निकलता है कि शुल्क वृद्धि की शुरुआत करके प्रभावी ढंग से उन संस्थाओं को ऋण सुविधा से वंचित किया जा सकता, जो इसका भुगतान नहीं कर सकते. सूची लंबी और बढ़ती ही जा रही है, लेकिन दो पहलू लगातार बने हुए हैं - शिक्षा के क्षेत्र से उत्पीड़ित समुदायों के ब्राह्मणवादी बहिष्कार का व्यवस्थित प्रयास और सार्वजनिक विश्वविद्यालयों का बढ़ता व्यावसायीकरण.
जेएनयू सार्वजनिक शिक्षा के लिए जारी इस युद्ध का केंद्र रहा है. बीजेपी सरकार द्वारा अपने समर्थक जगदीश कुमार को जेएनयू कुलपति बनाकर विश्वविद्यालय के बौद्धिक माहौल और इसके विद्यार्थियों के लिए किसी भी तरह के आलोचनात्मक विचार और वाद-विवाद को नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है. जेएनयू प्रशासन और सरकार द्वारा जेएनयू को निशाना बनाने के सबसे कुख्यात उदाहरण हैं, फरवरी 2016 में, अफजल गुरु की फांसी के खिलाफ छात्रों के विरोध प्रदर्शन के बाद, विश्वविद्यालय में लगातार जारी अशांति और रोजमर्रा की शैक्षणिक गतिविधियों में व्यवधान.
इस बीच प्रवेश-नीति में बदलाव भी हुआ. जैसे डेप्रिवेशन-प्वाइंट मॉडल को हटाना, पाठ्यक्रम सीटों की संख्या को कम करना और आवेदकों के मूल्यांकन की एक नई पद्धति शुरू करना. इन सभी नीतियों में एक पहलू आम था : इनसे सीमांत समुदायों के ऐसे उम्मीदवारों की संख्या काफी प्रभावित हुई जो विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने में सक्षम थे. इसके अतिरिक्त, प्रशासन ने अन्य परिवर्तन भी शुरू किए हैं जो छात्रों के दैनिक जीवन को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं, जैसे कि रोजना हाजिरी नियम को लागू करना, ड्रेस कोड लागू करना, छात्रावास के समय पर प्रतिबंध लगाना, सार्वजनिक सेमिनारों और सम्मेलनों के लिए अनुमति में कमी और विश्वविद्यालय के सार्वजनिक स्थानों पर प्रतिबंध लागू करना.
प्रशासन द्वारा किया गया हालिया नीतिगत परिवर्तन, जिसके चलते विरोध प्रदर्शन हुए, विश्वविद्यालय के छात्रावासों के लिए एक नया इंटर-हॉल प्रशासन नियमावली था, जो संशोधित शुल्क संरचना के चलते विवादास्पद था क्योंकि शुल्क में भारी वृद्धि का प्रस्ताव किया गया था. जेएनयू को क्यों निशाना बनाया गया? यह भारत में अग्रणी सार्वजनिक वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में से एक है, जो हर साल उच्च शैक्षणिक साख हासिल करता है और लगातार संस्थागत रैंकिंग में सबसे ऊपर रहता है. वास्तव में, जेएनयू अक्सर अन्य भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए विशेष रूप से सामाजिक विज्ञान विषय में एक आदर्श रहा है. फिर भी, मौजूदा सरकार एनआईटी, आईआईटी और आईआईएम पर अपने कुल बजट का पचास प्रतिशत से अधिक खर्च कर रही है. सामाजिक विज्ञान विषयों को धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों में दरकिनार किया जा रहा है.
अपनी शैक्षणिक योग्यता के अतिरिक्त, जेएनयू अपने छात्रों को कम से कम संसाधनों के साथ ज्ञान तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए रियायती लागत पर शिक्षा प्रदान करता है. आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के योग्य छात्र भी मींस-कम-मेरिट, या एमसीएम, के तौर पर 2000 रुपए प्रति माह की फेलोशिप प्राप्त करने के हकदार हैं. विश्वविद्यालय की 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, जेएनयू ने उस वर्ष कुल 1566 छात्रों को प्रवेश दिया. इनमें से 623 या 40 प्रतिशत, निम्न और मध्यम आय वर्ग के थे, जिनके माता-पिता प्रति माह 12000 रुपए से कम कमाते हैं. सामाजिक श्रेणियों के संदर्भ में, आंकड़ों से पता चला है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों और विकलांग व्यक्तियों के अलावा, जिन्होंने आरक्षित श्रेणियों के माध्यम से प्रवेश प्राप्त किया है, इन समुदायों के कुल 227 छात्र भी अनारक्षित उम्मीदवारों के रूप में विश्वविद्यालय में आए हैं. वास्तव में, भारत में जेएनयू जैसा विश्वविद्यालय मिलना दुर्लभ है, जहां वंचित वर्गों के छात्र अध्ययन करने का खर्च उठा सकते हैं. नए इंटर हॉल प्रशासन मैनुअल का कार्यान्वयन एक ऐसा प्रशासनिक निर्णय होगा जो गरीब और हाशिए के समुदायों के छात्रों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा.
जेएनयू के दलित छात्रों के अनुभवों से पता चलता है कि विश्वविद्यालय ने उन्हें कैसे लाभान्वित किया और भारत के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के भविष्य के लिए एक आदर्श ढांचा प्रदान किया. स्पैनिश प्रोग्राम में एकीकृत मास्टर्स की पढ़ाई करने वाले छात्र प्रकाश ने बताया, "इससे पहले, एमसीएम फेलोशिप 1500 रुपए थी और मुझे अभी भी महीनों तक इंतजार करना पड़ता था, ताकि मैं अपना मेस बिल भर सकूं. सेमेस्टर पंजीकरण के दौरान, आमतौर पर हम छात्रों के पास जाकर पैसा इकट्ठा करते हैं." उन्होंने कहा कि उनकी शिक्षा केवल जेएनयू की न्यूनतम शुल्क-संरचना के कारण संभव हुई.
अमरपाली ने 2016 में विश्वविद्यालय में बीए में दाखिला लिया. वह चीनी भाषा की छात्रा थीं और फिलहाल इसी विषय में एमए कर रही हैं. उनके लिए, जेएनयू का सशक्त पहलू इसकी फीस संरचना या एमसीएम फेलोशिप से संबंधित नहीं हैं, बल्कि इसके राजनीतिक माहौल से है जिसे विश्वविद्यालय ने बनाकर छात्रों को दिया है. "मैं एक दलित बस्ती में रहती थी, एक आंबेडकरवादी बौद्ध परिवार में पली-बढ़ी. मैं जाति और पितृसत्तात्मक अपमान को अच्छी तरह जानती हूं," उसने मुझे बताया. “जेएनयू में, इस तरह के व्यवहार का मजबूत प्रतिरोध है, लड़कियों के लिए ड्रेस कोड जैसा प्रतिबंध नहीं झेलना पड़ता है, समय को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं है, हम स्वतंत्र रूप से ढाबे पर बैठकर बात कर सकती हैं. जब मैं 'जय भीम’ के नारे लगाते हुए रैलियों और प्रदर्शनों में शामिल होती हूं या इस नारे को सुनती हूं तो इससे मुझे बहुत हिम्मत मिलती है.”
कुरुक्षेत्र ने 2011 में एमए प्रोग्राम में प्रवेश लिया था. उन्होंने कहा कि वे जेएनयू में प्रवेश लेना चाहते थे, लेकिन उन्हें विश्वास नहीं था कि डिप्रिवेशन-प्वाइंट सिस्टम और विकलांग व्यक्तियों के लिए आरक्षण के बिना उनका प्रवेश हो सकता है. उन्होंने तब से अपना एमफिल पूरा किया है और अभी पीएचडी कर रहे हैं. उन्होंने कहा, "एमए के दौरान मुझे हर महीने 1500 रुपए के एस्कॉर्ट भत्ते के साथ एमसीएम छात्रवृत्ति 1500 रुपए प्रति माह मिलती थी, जिसके चलते मैं पढ़ाई कर सका," उन्होंने मुझे बताया. कुरुक्षेत्र ने अन्य विश्वविद्यालयों की तुलना में जेएनयू में विकलांग छात्रों को मिलने वाले समर्थन के बारे में अंतर को बताया. “दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने एमफिल में प्रवेश लिया, अध्यापक मददगार थे, हालांकि मैंने एमफिल पूरी नहीं की. हॉस्टल के प्रभारी ने कहा, 'आपको अपने परिवार के साथ रहना चाहिए, अगर आप हॉस्टल में रहते हैं, तो आपकी मानसिक हालत खराब जाएगी.'''
कुरुक्षेत्र ने कहा, "जेएनयू में मेरे नौ साल के अनुभव में, मैं यह खुल कर कह सकता हूं कि राजनीतिक माहौल जीवंत है. हर किसी के लिए जगह है. दलित समुदाय से होने के नाते, मैं - बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (बाप्सा) की स्थापना से ही दलित आवाजों के सामने आने और उसकी शक्तिशाली अभिव्यक्ति को देख सकता हूं. मैं जेएनयू की राजनीति के बदलते स्वरूप को देख सकता था. आज, कोई भी हमारी उपस्थिति से इनकार नहीं कर सकता है. मेरी जानकारी में, भारतीय विश्वविद्यालयों या संस्थानों में से कोई भी इस तरह की सुविधा प्रदान नहीं करता है. प्रत्येक नागरिक को सार्वजनिक शिक्षा और शिक्षा के लिए सार्वजनिक धन पर गंभीर हमले के बारे में दुबारा से सोचने की आवश्यकता है. मेरे जैसे व्यक्ति सार्वजनिक वित्त पोषण के कारण पढ़ने की आकांक्षा और उसका खर्च उठा सकते हैं, जो लोकतांत्रिक जुड़ाव की गुंजाइश पैदा करता है.”
अन्य छात्रों ने विश्वविद्यालय की समावेशी प्रकृति के बारे में भी बताया. नाम न छापने की शर्त पर एमफिल के एक छात्र ने मुझे बताया, “हमारी पहचान को मजबूती देने के कई तरीके हैं, एक ही तरीका मुखर नहीं हो सकता है. मेरे विचार में, जेएनयू जैसा सार्वजनिक विश्वविद्यालय हमें अपनी चेतना को गंभीर रूप से विकसित करने का माहौल देता है, चाहे वह जातीय, वर्गीय या लैंगिक चेतना हो.” उसने आगे बताया, “जेएनयू प्रगतिशील है. यहां खुद को आंबेडकरवादी राजनीति से जोड़ना आसान है.”
जेएनयू की सबसे शक्तिशाली छात्र आवाजों में से एक जितेंद्र सूना ने मुझे बताया, "जेएनयू द्वारा दी जा रही सार्वजनिक वित्त पोषित शिक्षा प्रणाली के बिना मेरे लिए एमए, एमफिल और पीएचडी कर पाना मुश्किल होता." सूना इस साल जेएनयू छात्र संघ चुनावों में अध्यक्ष पद के लिए बाप्सा के उम्मीदवार थे. उन्होंने कहा, "मैं एमसीएम फेलोशिप के कारण अपनी पढ़ाई का प्रबंध कर सकता था, डिप्रिवेशन-प्वाइंट की मदद से मैं जेएनयू में आस सका."
छात्रों की बातों, विचारों से पता चलता है, आंबेडकरवाद में जनता का अर्थ समावेशी और लोकतांत्रिक है. दो लोकप्रिय नारे जो जेएनयू में लग रहे हैं वे उपरोक्त विचार को दर्शाते हैं : "शिक्षा पर जो खर्चा हो, बजट का दसवां हिस्सा हो" और "हम शिक्षा का अधिकार मांगते, नहीं किसी से भीख मांगते." सार्वजनिक शिक्षा पर सरकार का हमला गंभीर सवाल खड़े करता है जो केवल जेएनयू तक ही सीमित नहीं है बल्कि बड़े पैमाने पर भारतीय समाज पर असर डालता है. जातिगत भेदभाव, वर्ग असमानता और लैंगिक भेदभाव समाज और उसकी शिक्षा प्रणाली में व्याप्त है. इसका समाधान लोकतंत्र के माध्यम से महत्वपूर्ण मुक्तिकामी विचार में विकसित हो रहा है जो शिक्षा को आमूल-चूल परिवर्तन के लिए, एक निशुल्क सार्वजनिक वित्त पोषित वस्तु के रूप में देखता है और यह समाज को समतावादी और न्यायसंगत बना सकता है.