दिल्ली के निजी स्कूलों में दाखिले की धुंधली दुनिया

27 September, 2022

करण कलुचा 9 फरवरी की सुबह जल्दी उठे और कुछ ऐसा किया जो वे शायद ही कभी करते हैं, उन्होंने प्रार्थना की. उनके बेटे का भविष्य दांव पर लगा था. लोधी एस्टेट में कलुचा के ‘‘टारगेट स्कूल’’ सरदार पटेल विद्यालय (एसपीवी) में दाखिले के लिए लॉटरी सुबह 9 बजे तय की गई थी. कलुचा एक घंटा पहले से स्कूल के सभागार में बैठे थे. उससे लगभग बहुत पहले, जब तीन सौ भावी छात्रों के माता-पिता की उत्सुकता के साथ कमरा गुनगुना रहा था, सभी अपने बच्चों की तकदीर का फैसला देखने का इंतजार कर रहे थे. कुछ चेहरों पर उम्मीदें थी बाकियों में नहीं. न होने की वाजिब वजहें थीं. एसपीवी में दाखिले के लिए अर्जी देने वाले 1,844 बच्चों में से 63 को दाखिला दिया गया था जबकि बाकी 310 को लॉटरी के लिए चुना गया था. इनमें से लॉटरी के जरिए 34 को रखा जाना था और उनमें से केवल 11 को ही दाखिला मिलने वाला था. अगर आप उन अभिभावनकों में से हैं जिन्होंने एसपीवी के लिए अर्जी दी थी, तो उम्मीद बहुत कम थी, लगभग पच्चीस में एक.

दोपहर 1 बजे तक फैसला आ गया. कलुचा के बेटे का दाखिला नहीं हुआ. कलुचा निराश थे, लेकिन ऐसा नहीं था कि उन्होंने इस बात का अंदाजा नहीं लगाया था और इसके लिए भी योजना नहीं बनाई थी. नहीं तो वे शहर भर के और 19 स्कूलों में क्यों अर्जी देते? उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘सच कहें तो दिल्ली जैसी जगह में, आपके पास अपनी पसंद चुनने का सौभाग्य तब तक नहीं होता जब तक कि आप पूर्व छात्र न हों या निश्चित क्रेडेंशियल्स यानी साख न हो. इसलिए हर कोई यही रणनीति अपनाता है कि ज्यादा से ज्यादा स्कूलों में आवेदन करें, इस बात को अच्छी तरह से जानते हुए भी कि कम अंक होने के कारण कुछ स्कूलों में उनका नाम आ ही नहीं सकता. लेकिन वे फिर भी आवेदन करते हैं, वे मौका आजमाते हैं.’’ कलुचा के बेटे को चार स्कूलों ने चुना था: दिल्ली पब्लिक स्कूल, मथुरा रोड, ग्रेटर कैलाश में केआर मंगलम वर्ल्ड स्कूल, साकेत में एमिटी इंटरनेशनल स्कूल और बिरला विद्या निकेतन, पुष्प विहार. कालुचा ने आखिरकार डीपीएस मथुरा रोड में दाखिला कराने का फैसला किया. अपने घर से महज दो किलोमीटर दूर, सबसे करीब होने के अलावा डीपीएस कलुचा का पुराना स्कूल था इसका अलग से फायदा मिला. कलुचा ने कहा कि इन दोनों ‘‘क्रेडेंशियल्स’’ के चलते उनके बेटे ने दिल्ली की अंक-आधारित प्रवेश प्रणाली में 100 में से 85 अंक हासिल किए, जिससे उनकी ‘‘उम्मीदवारी बहुत मजबूत’’ बन गई.

दिल्ली के कुलीन निजी स्कूल एक धुंधला क्षेत्र हो सकते हैं और इसमें प्रवेश ईर्ष्यापूर्ण रूप से सुरक्षित है. और इस प्रक्रिया को पारदर्शी माना जाता है: यह एक ऐसी प्रणाली को अपनाती है जो सरकार द्वारा अनुमोदित प्रवेश मानदंडों के आधार पर आवेदकों को अंक आवंटित करती है. सबसे ज्यादा वेटेज आमतौर पर निकटता को दिया जाता है. आप स्कूल के जितना ज्यादा करीब रहते हैं उतने ज्यादा अंक आपको मिलते हैं. इसके बाद बोनस अंक दिए जाते हैं अगर आपके माता-पिता में से कोई एक या दोनों स्कूल के पूर्व छात्र रहे हों या अगर आपके भाई-बहन पहले से ही वहां पढ़ रहे हैं. कुछ स्कूल लड़कियों, गोद लिए गए बच्चों, कर्मचारियों के रिश्तेदारों, क्षेत्रीय अल्पसंख्यकों और एकल माता-पिता के बच्चों को अतिरिक्त अंक भी देते हैं. लॉटरी के जरिए फिर दाखिला दिया जाता है.

यह काफी सीधा लगता है, लेकिन चीजें अक्सर इतनी आसानी से काम नहीं करती हैं. बच्चों को उनके घर से एक घंटे की दूरी पर स्कूलों में दाखिला दिया जाता है, लेकिन उन्हें सड़क के उस पार के लिए शॉर्टलिस्ट नहीं किया जाता है. लॉटरी के नतीजे हमेशा सम्मानित नहीं होते हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा बेजा, बेसबब और धुंधले समझे जाने वाले प्रवेश मानदंड जैसे माता-पिता का पेशा, चाहे फिर उन्होंने राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हों और वे परिवहन की क्या व्यवस्था कर सकते हैं, अभी भी चालू हैं. प्रबंधन कोटा के रहस्य का एक तत्व अभी भी बरकरार है. कुछ सीटें ऐसी होती हैं जिन्हें प्रबंधन अपने मनमुताबिक भरता है. जबकि कुछ स्कूल कथित तौर पर दाखिले के बदले दान मांगते रहते हैं.

दूसरी तरफ अभिभावकों के लिए इस गूढ़ प्रणाली में दांव ऊंचे और बेहद निजी होते हैं. इस पर भरमा जाना आसान है कि दाखिले का असली उम्मीदवार कौन है: बच्चा या उनके माता-पिता. आखिरकार, यह अक्सर बच्चे के बारे में कम और उसके माता-पिता के बारे में ज्यादा कहता है. ज्यादातर, यह दिल्ली के समाज में माता-पिता की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हैसियत को साफ तौर पर दिखला रहा होता है.

अभिभावक उन्मादी रोष के साथ खुद को इस प्रक्रिया में झोंक देते हैं. जो इस दुनिया में जितनी गहराई तक जाता है, वह उतना ही विचित्र लगता है. यहां ड्रेस कोड और सामाजिक संकेत हैं, सही और गलत पेशे हैं. मां-बाप एक्सेल शीट बनाते हैं, घर बदलते हैं और इंटरव्यू के दौरान क्या उम्मीद होती है, इस बारे में जानकारी साझा करते हुए ‘‘प्रिंसिपल प्रीपे’’ यानी तैयारी बैठकें आयोजित करते हैं. वे दिल्ली जैसे हैसियत वाले समाज में स्कूली शिक्षा के महत्व से अनजान नहीं हैं. वे जानते हैं कि जब कोई आपसे पूछता है कि आप किस स्कूल में गए हैं तो वे आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछ रहा होता है. जैसा कि एक अभिभावक ने कहा, ‘‘यह सिर्फ एक स्कूल नहीं है, यह एक जीवन शैली है.’’

एक कॉर्पाेरेट वकील ने मुझे बताया कि 2020 तक वह और उनके पति पश्चिमी दिल्ली जनकपुरी इलाके में रहते थे. अपनी बेटी के तीसरे जन्मदिन से कुछ समय पहले, उन्होंने अपना पूरा घर बार समेटा और उत्तर प्रदेश में यमुना के पार नोएडा चले गए. ‘‘मुख्य वजहों में से एक स्कूल भी थी,’’ उन्होंने मुझे नाम न छापने की शर्त पर बताया. ‘‘मैं कभी नहीं चाहती थी कि मेरी बेटी पश्चिमी दिल्ली के स्थानीय स्कूल में जाए.’’ दिल्ली की अंक-आधारित प्रवेश प्रणाली के चलते उन्हें डर था कि उनकी बेटी ‘‘किसी भी ऐरे-गेरे स्कूल’’ में चली जाएगी.

पिछले कुछ सालों में अपने घर के पतों को बदलने का रणनीतिक अभियान तेजी से सामान्य घटना बन गया है. मां-बाप अपने बच्चों को नोएडा और गुरुग्राम में ‘‘अच्छे स्कूलों’’ में भेजने के लिए, आने-जाने में एक-एक घंटा खर्च करना पसंद करते हैं या वकील की तरह पूरी तरह से दिल्ली से बाहर ही चले जाते हैं. इसकी वजह बेहद आसान है: राजधानी में स्कूलों का असमान वितरण. सबसे अच्छे निजी स्कूल दक्षिणी और मध्य दिल्ली में हैं, बाकी शहर भर में मां-बाप के पास चुनने के लिए विकल्प ही बहुत कम हैं. अपने पड़ोस की स्कूली शिक्षा की सबसे बड़ी खामियों में से एक यह है कि यह विभिन्न इलाकों के बच्चों के आपस में मिलने को हतोत्साहित करती है और यह प्रक्रिया बस्तीकरण (गेटोआइजेशन) को बढ़ावा देती है.

पड़ोसी राज्यों उत्तर प्रदेश और हरियाणा में इस तरह के बाध्यकारी प्रतिबंध नहीं हैं. नोएडा और गुरुग्राम के स्कूल संभावित छात्रों और उनके माता-पिता का इंटरव्यू भर करते हैं. हालांकि दोनों राज्यों की सरकारों ने हाल के सालों में दिल्ली की प्रवेश नीति के पहलुओं को दोहराने की कुछ कोशिशें की हैं, साथ ही राजधानी के बच्चों को सैटेलाइट शहरों में स्कूलों में शामिल होने से रोकने के लिए नए नियम शायद ही कभी लागू होते हैं.

वकील को नोएडा के एक प्रमुख स्कूल ने एक खास सामुहिक चर्चा के लिए चुना था. ‘‘मुझे लगता है कि वे माता-पिता की शिक्षा और जेब टटोलते हैं,’’ उन्होंने मुझसे कहा. (स्कूल की कुल सालाना फीस 2 लाख रुपए से ज्यादा है.) उनके पति एक फिल्म निर्माता हैं. ‘‘शायद इसमें उनकी दिलचस्पी रही हो,’’ उन्होंने अनुमान लगाया. ‘‘स्कूल आजकल फिल्म निर्माण जैसे रचनात्मक पेशों को ज्यादा तवज्जो देते हैं.’’

नोएडा कीे एक अन्य स्कूल से जुड़ी एक प्रशासनिक सहायक ने अपने नियोक्ताओं की प्रतिक्रिया के डर से नाम न छापने की मांग रखते हुए इस विचार को पुष्ट किया. उन्होंने मुझे बताया, ‘‘ये स्कूल सबसे पहले मां-बाप के प्रोफाइल को देखते हैं, यह देखने के लिए कि वे इतनी फीस दे भी पाएंगे.’’ (स्कूल की सालाना फीस लगभग 3 लाख रुपए है.) ‘‘दूसरी बात, वे ऐसे माता-पिता की तलाश करते हैं जो शिक्षित हैं और उच्च सेवा वर्गों से हैं और फिर वे माता-पिता जो व्यवसायिक परिवारों से हैं. वे यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके स्कूल में सही तरह के लोग आ रहे हैं.’’

माता-पिता के पेशे बटवारे की इस प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन स्कूल उनके द्वारा पहने जाने वाले कपड़े, अंग्रेजी में उनकी दक्षता और क्या वे बातचीत कर सकते हैं, इस पर भी ध्यान देते हैं. प्रशासनिक सहायक ने कहा ‘‘हमारे यहां यूपी से आने वाले छात्र भी हैं, जो जमींदार तरह की पृष्ठभूमि से हैं, इन परिवारों ने बहुत पैसा कमाया है और वे अपने बच्चों को बेहतरीन स्कूलों में भेजना चाहते हैं,’’ लेकिन उनके ‘‘बच्चे आमतौर पर बहुत देसी और गंवर होते हैं और अगर ऐसे बच्चे यहां आने लगे, तो वे सबको खराब कर देंगे.’’ उन्होंने कहा कि इसके बजाए, स्कूल उन माता-पिता का चयन करते हैं जिनके साथ वे सहज होते हैं. समझिए न, हमें अगले चौदह सालों तक उस माता-पिता से निपटना होगा.’’

दिल्ली और इसके आस-पास के शहरों में प्रवेश प्रक्रियाओं के बीच का अंतर एक मौलिक दोष रेखा को दर्शाता है, जो स्कूली शिक्षा की अवधारणा के लिए दो बहुत ही भिन्न नजरियों को चिह्नित करता है. दोनों का लंबा वैध इतिहास रहा है, जिन्होंने अक्सर राष्ट्रीय राजधानी की अदालतों में लड़ाई लड़ी है.

पहला नजरिया शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में महत्व देता है. यह इस अधिकार को सुनिश्चित करने का दायित्व राज्य पर डालता है, जिसे हर बच्चे को समान अवसर देना चाहिए. इसके लिए निश्चित मानदंड की जरूरत होती है कि किसे चुना जाना है. पारदर्शिता और निष्पक्षता बेहद जरूरी है. दिल्ली अपनी अंक.आधारित प्रणाली के साथ इस नजरिए को लागू करती है. नोएडा, गुरुग्राम और ज्यादातर दूसरे शहरों में इस्तेमाल किया जाने वाला दूसरा नजरिया इस बात पर जोर देता है कि स्कूल और माता-पिता दोनों को एक स्वतंत्र विकल्प का अधिकार है कि स्कूल उन माता-पिता को चुन सकते हैं जो उनके मूल्यों के साथ सबसे अच्छी तरह से मेल खाते हैं और माता-पिता उन स्कूलों को चुन सकते हैं जो उनकी जरूरत के मुताबिक सबसे अच्छी सेवा देते हैं. इस नजरिए के हिमायतियों का तर्क है कि यह एकमात्र तरीका है जिससे दोनों अपनी स्वायत्तता को बनाए रख सकते हैं.

दिल्ली और इसके उपग्रह शहरों में प्रवेश प्रक्रिया स्कूली शिक्षा की अवधारणा के लिए दो बहुत ही भिन्न दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती है. दोनों का लंबा वैध इतिहास रहा है जिन्होंने अक्सर राष्ट्रीय राजधानी की अदालतों में लड़ाई लड़ी है.

दोनों पक्षों के बीच मौजूदा तनातनी का पता दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक आदेश से लगाया जा सकता है. 2006 में कई अभिभावकों द्वारा कथित रूप से अनुचित और कभी-कभी, भेदभावपूर्ण- चयन प्रथाओं के बारे में शिकायत करने के बाद, अदालत ने फैसला सुनाया कि राजधानी के निजी स्कूलों में तीन बुनियादी सिद्धांतों के आधार पर एक सामान्य प्रवेश प्रक्रिया होनी चाहिए: पारदर्शिता सुनिश्चित करना, इंटरव्यू को बंद करना और स्कूल प्रबंधन के विवेकाधिकार को कम करना. इसने मामले को देखने के लिए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष अशोक गांगुली की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया. गांगुली समिति ने कुछ छात्रों के मनमाने ढंग से चयन को रोकने के लिए इंटरव्यू को पूरी तरह से खत्म करने की सिफारिश की. इसके बजाए, स्कूलों को एक अंक-आधारित प्रणाली पर निर्भर करना था.

दिसंबर 2013 में दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग ने एक आदेश पारित किया जिसमें कहा गया था कि ‘‘दिल्ली के किसी भी निजी गैर मान्यता प्राप्त स्कूल में दाखिले में कोई प्रबंधन कोटा नहीं होगा.’’ आदेश में आगे कहा गया है कि स्कूल अपनी उपलब्ध सीटों को चार श्रेणियों में विभाजित करते हैं. एक चौथाई आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग और वंचित समूहों के लिए आरक्षित की जाएगी . जैसा कि बच्चों के निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम, 2009 द्वारा अनिवार्य है. पांच फीसद सीटें खासकर के लड़कियों को दी जानी थीं और बाकी पांच फीसद स्कूल कर्मचारियों के बच्चों के लिए थीं.’ बाकी सीटों को पॉइंट सिस्टम (अंक आधारित प्रणाली) से भरा जाएगा.

निजी स्कूलों में गुस्सा था. जिस चीज ने उन्हें सबसे ज्यादा परेशान किया, वह था प्रबंधन कोटा को खत्म किया जाना, जो कमाई का एक आकर्षक जरिया था. उन्होंने जंग के आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की, जिसमें तर्क दिया गया कि यह सीखने के स्वायत्त संस्थानों के रूप में कार्य करने की उनकी क्षमता को पूरी तरह से समाप्त कर देता है. नवंबर 2014 में एक एकल न्यायाधीश पीठ ने इस आदेश को यह फैसला देते हुए खारिज कर दिया कि यह ‘‘स्कूल प्रबंधन के रोजमर्रे के काम में अधिकतम स्वायत्तता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसमें छात्रों का दाखिला का अधिकार के साथ-साथ अपने माता-पिता के जरिए स्कूल चुनने का बच्चों का मौलिक अधिकार भी शामिल हैं.’’ संयोग से, न्यायाधीशए मनमोहन, मॉडर्न स्कूल, बाराखंभा रोड के पूर्व छात्र थे. यह उन दो सहयोगी स्कूलों में से एक है जिन्होंने याचिका दायर की थी.

ऐसा लग रहा था कि निजी स्कूलों की जीत हो गई है. लेकिन, 2016 में दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय ने एक और आदेश जारी किया. इसकी शुरुआत मनमोहन के फैसले के हवाले से हुई, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि हालांकि निजी स्कूलों को अपने खुद के प्रवेश मानदंड तैयार करने का अधिकार था, ये स्पष्ट, अच्छी तरह से परिभाषित, न्यायसंगत, गैर-भेदभावपूर्ण, साफ और पारदर्शी होने चाहिए. आदेश में कहा गया है कि कई स्कूल ऐसे मानदंडों पर निर्भर थे जो उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के विपरीत थे, जैसे कि बच्चे की आर्थिक और सामाजिक स्थिति, संगीत या खेल में उनकी दक्षता, उनकी परिवार इकाई का आकार, माता-पिता धूम्रपान, शराब, मांस खाते-पीते हैं या नहीं और क्या माता-पिता बच्चे को स्कूल से लेने आने में सक्षम हैं या नहीं. इसमें इसी तरह के 62 मानदंड सूचीबद्ध हैं जिन्हें हटाया जाना चाहिए.

एक बार फिर स्कूलों ने हाई कोर्ट से प्रबंधन कोटा समेत 62 मापदंडों में से 11 को बहाल करने को कहा. कोर्ट ने फिर से उनके पक्ष में फैसला सुनाया .

तब जाकर यह यथास्थिति है. निजी स्कूलों को अपने खुद के प्रवेश मानदंड तय करने की स्वतंत्रता है, जब तक कि वे शिक्षा निदेशालय द्वारा प्रतिबंधित 51 मापदंडों से दूर रहते हैं.

2002 में जब भावना सबरवाल ने अपनी तीन साल की बेटी महिमा का दाखिला डीपीएसए वसंत विहार में कराने के लिए आवेदन किया था, दिल्ली के निजी स्कूलों की दुनिया बहुत अलग थी. आज नोएडा और गुरुग्राम के अपने समकक्षों की तरह, वे भी बच्चों और उनके माता-पिता के साथ इंटरव्यू पर निर्भर थे. भावना ने इंटरव्यू की तैयारी में कई दिन बिताए. कई अभिभावकों ने उन्हें चेताया था, उन्होंने मुझे बताया कि यह बेहद जरूरी था कि खुद को कैसे पेश किया जाए ‘‘क्योंकि वे माता-पिता और खासकर मां को ही देखते हैं. मां बच्चों के साथ कैसे बातचीत कर रही है, सामान्य तौर पर उसका रवैया कैसा है.’’

इंटरव्यू के दिन महिमा को एक अलग कमरे में ले जाया गया, जबकि भावना और उनके पति विवेक प्रिंसिपल शोभा बनर्जी से मिलने गए. भावना ने याद किया, ‘‘जब हम अंदर गए, हमने इधर-उधर की बात की, श्रीमती बनर्जी ने, जो मैंने पहना था उसकी सराहना की. उन्होंने सामान्य ढंग से कहा, ‘कहां से लिया?’. उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या कर रही हूं, मेरे पति क्या कर रहे हैं. जैसे मेरे दोस्तों ने मुझे चेताया था, उन्होंने विवेक से ज्यादा मुझसे बात की. आखिरकार महिमा को कमरे में लाया गया. ‘‘फिर उन्होंने महिमा से कुछ सवाल पूछे, ‘आप कहां रहते हैं?, आपको कौन सी मिठाई पसंद है?’ उसने कहा रसगुल्ला. और फिर उन्होंने उससे पूछा, ‘क्या रंग है?’ मुझे लगता है कि वह रसगुल्ला और गुलाब जामुन के बीच भ्रमित हो गई और उसने कहा नारंगी. वे हंस पड़ी.’’

भावना ने सोचा कि इंटरव्यू अच्छा रहा. रास्ते में, वह अपनी भतीजी से मिली, जो स्कूल की मनोवैज्ञानिक थी. ‘‘मेरी भतीजी ने देखा और बोली ओह यह तुम्हारी बेटी है?’’ और फिर उसने मुझसे कहा कि हां, बच्चों को एक समूह में रखकर देखा जाता है. वे तीन-चार बच्चों को एक साथ रखते हैं और देखते हैं कि वे कैसा व्यवहार करते हैं. महिमा बहुत अच्छी थी, काफी कॉन्फिडेंट थीं.’’ उनकी भतीजी ने उन्हें चिंता न करने के लिए कहा. कुछ दिनों बाद, सबरवाल को महिमा के दाखिला हो जाने पर एक बधाई पत्र मिला. ‘‘हम खुश थे,’’ भावना ने कहा. ‘‘हर कोई हमसे पूछ रहा था, अरे, आपको दाखिला कैसे मिला? क्या आप किसी को जानते हैं?’’

वी मोहना को भी ऐसा ही अनुभव हुआ था जब उन्होंने अपने बेटे कार्तिक को मॉडर्न स्कूल, बाराखंभा रोड की प्राथमिक शाखा रघुबीर सिंह जूनियर मॉडर्न स्कूल में दाखिले के लिए आवेदन किया था. मोहना सुप्रीम कोर्ट में एक वरिष्ठ वकील हैं और 1991 में शादी करने के बाद दिल्ली चली गईं. जब उन्हें आरएसजेएमएस में इंटरव्यू के लिए बुलाया गया, तो उन्हें नहीं पता था कि क्या उम्मीद की जाए. उनके पति काम के सिलसिले में शहर से बाहर थे, इसलिए वह कार्तिक को अकेले ले गईं. अधिकांश माता-पिता की तरह, उन्हें अभी भी उस प्रिंसिपल का नाम याद है जिन्होंने इंटरव्यू लिया था: श्रीमती गीता दुदेजा. दुदेजा ने उनसे पूछा कि उन्होंने क्या किया है, वह एक कामकाजी मां बतौर कार्तिक को कैसे समय दे पाती हैं और क्या उन्होंने एक पूर्णकालिक हाउस हैल्प को काम पर रखा है. इसके अलावा, मोहना ने याद किया, उन्होंने बस एक ‘‘अनौपचारिक बातचीत’’ की थी. बस इतना ही था. परिवार सर्दियों की छुट्टियों के लिए दक्षिण गया था. जब वे लौटे तो आरएसजेएमएस का एक कार्ड उनका इंतजार कर रहा था, जिसमें बताया गया था कि कार्तिक को चुन लिया गया है.

लेकिन, मोहना के लिए बात यहीं खत्म नहीं हुई. उनका शक अभी खत्म नहीं हुआ था. ‘‘हम तमिलनाडु से आते हैं, एक बहुत ही अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से,’’ उन्होंने मुझे बताया. ‘‘और मैंने मॉडर्न स्कूल के बारे में जो सुना वह यह था कि यह एक बहुत बड़े समाज की तरह का स्कूल है, वहां बहुत सारे हाई-प्रोफाइल लोग पढ़ते हैं. मैं इसे लेकर थोड़ा परेशान थी.’’ उनके दोस्तों ने उनके शक को दूर करते हुए कहा कि वह ‘‘ज्यादा सोचने की वजह से पगला रही हैं.’’ फिर भी, उन्होंने स्कूल की फीस भरने के आखिरी दिन तक इंतजार किया. और फिर जाकर उन्हें चैन पड़ा. यह चलता रहा जब तक कि छह साल बाद कार्तिक ने मॉडर्न स्कूल छोड़ने का फैसला नहीं कर लिया.

कार्तिक ने मुझसे कहा, ‘‘मैं अपने सभी दोस्तों को सबसे शानदार गैजेट्स लिए हुए देखता. मैं पोकेमॉन कार्ड से भरी हुई उनकी एल्बम देखता, बेहतरीन खिलौने, बेहतरीन बैग, बेहतरीन पानी की बोतलें, जूते देखता. और जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मुझे अपने साथ पढ़ने वालों और अपने बीच इस्तेमाल की जाने वाली चीजों में साफ फर्क देखने लगा. और इसने मुझे बहुत परेशान किया, किसी समय, मैंने भी अपने माता-पिता से ये सभी चीज़ें मांगी होंगी.’’ वह जानते थे कि उनके माता-पिता अपेक्षाकृत कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं और मॉडर्न स्कूल में पढ़ाई जारी रखने से, वह उन पर अनुचित बोझ डालेंगे. ‘‘तो मुझे एहसास हुआ कि यह जगह मेरे लिए नहीं है.’’

मोहना और उनके पति अवाक रह गए. वे समझ नहीं पा रहे थे कि ऐसा क्या हुआ कि कार्तिक अचानक स्कूल शिफ्ट करना चाहते हैं. ‘‘वह प्रीफेक्ट (मॉनिटर) था, वह बहुत अच्छा कर रहा था,’’ मोहना ने कहा. ‘‘हमें स्कूल से कोई शिकायत नहीं थी.’’ लेकिन कार्तिक ने अपना मन बना लिया था और छठी कक्षा में उनका एसपीवी में तबादला हो गया.

इस तरह की कहानियां असामान्य नहीं हैं. दिल्ली के कुछ सबसे खास निजी स्कूलों में पढ़ने वाले कई छात्रों ने ऐसे ही अनुभव साझा किए जो उनके स्नातक होने के बाद भी उनके साथ रहे. ‘‘श्री राम में प्रवेश करते समय मुझसे पहला सवाल पूछा गया था, ‘‘कितनी कारें हैं आपके पास?’’ हरीश साईं, जिन्होंने 2015 में गुरुग्राम के श्री राम स्कूल से स्नातक किया था, ने मुझे बताया. ‘‘मैं अंदर चला गया, नए बच्चे की तरह. सबसे पहले उन्होंने मुझसे मेरा नाम नहीं पूछा, लेकिन ‘आपके पास कितनी कारें हैं?’ पूछा.’’

अंकिता नंदा ने 2010 में संस्कृति स्कूल, चाणक्यपुरी में दाखिला लिया था. तब वह नौवीं कक्षा में थीं. उनके पिता सेना में थे और पिछले दो साल उन्होंने राजस्थान में बिताए थे. संस्कृति एक बड़ा सांस्कृतिक आघात था. जब छात्रों से उन्हें अपना परिचय देने के लिए कहा, तो उन्होंने बताया कि वह बीकानेर से आई हैं. ‘‘यह काफी बड़ा शहर है, कोई अनजान जगह नहीं है,’’ उन्होंने मुझसे कहा. ‘‘लेकिन मेरी नौवीं और दसवीं कक्षा में वे मुझे देहाती कहते थे.’’

हालांकि आकांक्षा जाधव को हमेशा से वसंत वैली स्कूल की वर्दी से नफरत थी- एक ढीला ढाला सलवार और कमीज. वह जानती थी कि यह एक खास दर्शन का प्रतिनिधित्व करती है. वर्दी के पीछे का विचार यह था कि छात्रों को उनकी बुद्धि के आधार पर आंका जाना चाहिए न कि उनके रूप से. लेकिन जाधव संशय में थी. इस बात से इनकार करना मुश्किल था कि वसंत वैली राजधानी के सबसे कुलीन स्कूलों में एक था जिसकी स्थापना 1990 में इंडिया टुडे के संस्थापक और संपादक अरुण पुरी और उनकी पत्नी रेखा की थी. (इसकी सालाना फीस में 2 लाख रुपए से ज्यादा है.) जाधव ने मुझे बताया, ‘‘निश्चित रूप से इसमें बहुत सारे उद्योगपतियों के बच्चे थे. मेरी परवरिश एक खास माहौल में हुई थी. मेरे दोस्त बहुत खास सामाजिक आर्थिक वर्ग से थे. जो लोग मुझसे अलग थे, अलग भाषा बोलते थे, उनके साथ वहां बातचीत नहीं थी. मेरे सभी दोस्त उत्तर भारतीय थे. मेरा कोई मुस्लिम दोस्त नहीं था और कोई ‘कोटा’ दोस्त भी नहीं था.’’

अनंत शाह 2010 में श्री राम स्कूल से एसपीवी में चले गए. जबकि श्री राम में सभी केवल अंग्रेजी ही बोलते थे. उन्होंने याद करते हुए कहा कि यहां तक कि हिंदी शिक्षक, छात्रों को अंग्रेजी में निर्देश देते. एसपीवी में हिंदी सामान्य भाषा थी. शाह ने मुझसे कहा, ‘‘मेरा पहला दिन था. उन्होंने मुझसे कहा, ‘चलिए, सब अपनी भूगोल की किताब निकलिए. और मैं ऐसा था कि मुझे नहीं पता कि भूगोल क्या होता है.’’’ स्कूलों के दर्शन में भी मतभेद थे. जहां श्री राम ने जीत के महत्व पर जोर दिया, वहीं एसपीवी को प्रतिस्पर्धा की धारणा से घृणा थी. शाह ने बताया कि, यहां तक कि खेल दिवस पर भी कोई पुरस्कार नहीं दिया जाता था. दौड़ के दौरान, उन्हें दौड़ पूरी करने का समय दिया जाता था और ऐसा करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक प्रमाण पत्र से सम्मानित किया जाता था.

लेकिन उन्होंने जल्द ही देखा कि दोनों स्कूलों में असमानता से ज्यादा समानताएं थी. ‘‘आखिरकार, दोनों स्कूलों में पर्याप्त अमीर और प्रभावशाली बच्चे हैं,’’ उन्होंने मुझे बताया. उन्होंने कहा कि उन्होंने श्री राम में कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा के बच्चों के साथ पढ़ाई की थी और एसवीपी में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की नेता स्मृति ईरानी के बच्चों के साथ पढ़ाई की. ‘‘दिल्ली के निजी स्कूलों में यही बात है: हर जगह एक जैसे लोग हैं.’’

जब इशिता गुप्ता मॉडर्न स्कूल में एक युवा छात्रा थी, तो उन्होंने महसूस किया कि उनके स्कूल के सारे दोस्त उनके पारिवारिक मित्र थे. ‘‘लेकिन ऐसा नहीं है कि वे मेरे पारिवारिक मित्र इसलिए हैं क्योंकि हम स्कूल में दोस्त बन गए,’’ उन्होंने मुझसे कहा. ‘‘ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे माता-पिता दोस्त हैं, हमारे दादा-दादी दोस्त हैं. यह छंटनी का अजीब तरीका है. यह आपको जीवन भर उसी सामाजिक दायरे में रखता है.’’ उनके पिता सिविल लाइंस में रहते थे और उनका एक कारोबार था, उनके ज्यादातर सहपाठियों के पिता भी सिविल लाइंस में रहते थे और कारोबारी थे. ‘‘जरा सोचिए, आप ऐसी दुनिया के बारे में नहीं जानते जहां लोगों के पास खुद का कारोबार नहीं है.’’

गुप्ता ने कहा कि ये नेटवर्क समय के साथ और मजबूत होते गए. उन्होंने मॉडर्न स्कूल ओल्ड स्टूडेंट्स एसोसिएशन का उदाहरण दिया, जो देश के सबसे पुराने और सबसे मजबूत पूर्व छात्रों के नेटवर्क में से एक है. उन्होंने नौकरी के लिए इंटरव्यू के दौरान इस नेटवर्क के असर को देखा था. अगर भर्ती देने वाला मॉर्डन स्कूल का कोई साथी निकला, तो फौरन एक रिश्ता जुड़ जाता है. ‘‘मॉडर्न जैसे स्कूल बहुत थोड़े हैं,’’ उन्होंने कहा. पूर्व छात्र ‘‘एक-दूसरे के लिए पूरी वफादारी रखते हैं.’’

समय के साथ, गुप्ता को कुछ सच्चाइयों का एहसास हो गया था. ‘‘दिल्ली में, यह बेहद तय किस्म का है,’’ उसने कहा. ‘‘हर स्कूल दर्शाता है कि आप किस पारिवारिक पृष्ठभूमि से हैं और यह बहुत साफ है. इसलिए, अगर आप एक उच्च.वर्गीय कारोबारी खानदान से हैं, तो आप मॉडर्न में जाएंगे. अगर आप किसी नौकरशाह और राजनयिक परिवार से हैं, तो आप संस्कृति में जाएंगे. अगर आप कारोबारी वर्ग के परिवार से हैं और कुछ माता-पिता कॉर्पाेरेट क्षेत्र में काम करते हैं, तो आप वसंत घाटी या श्री राम में जाते हैं. तो यह वैसा ही हो गया है और यह काफी लंबे समय से ऐसा ही है.’’

जो इन स्तरीकृत हलकों से संबंधित नहीं हैं, उनके लिए कुलीन स्कूली जीवन काफी अलग-थलग पड़ सकता है. डीपीएस के आरके पुरम एक पूर्व छात्र ने मुझे दसवीं कक्षा से शुरू हुई अलगाव की एक प्रणाली के बारे में बताया. पूर्व छात्र ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘‘कक्षा 10 में एक परीक्षा के कजिर कुछ बच्चे कैम्पस के हॉस्टल में ही रहते थे. उन्हें ‘बोर्डर्स’ कहा जाता था. इनमें से बहुत से बोर्डर दिल्ली के नहीं थे. अगर आप दिल्ली के होते तो आप परिसर में नहीं ठहरते. ये छोटे शहरों के लोग थे. तो हमेशा इस तरह की बात होती, ‘ओह, वे बाहरी हैं.’’ पूर्व छात्र ने कहा कि ‘‘आंतरिक’’ और ‘‘बाहरी’’ का शायद ही कभी मेल जोल होता है. ‘‘आमतौर पर एक एक राय तो थी, हम बेहतर हैं क्योंकि हम यहां पहले से थे. बोली जाने वाली अंग्रेजी के स्तर में भी फर्क था. इसलिए इस तरह की चीजें लोगों के एक दूसरे के साथ बर्ताव के तरीके में तब्दील हो जाती थीं.’’

उज्जवला प्रसाद ने खुद कई बातें अनुभव कीं. उनके पिता स्कूल के कस्टोडियल स्टाफ का हिस्सा थे और 2001 में स्टाफ सदस्यों के बच्चों के लिए कोटा के तहत उनका दाखिला किया गया था. उन्होंने माना कि यह एक अनूठा अवसर था, कि उनके जैसे ज्यादातर बच्चे कभी भी डीपीएस जैसी जगह पर पढ़ने का जोखिम नहीं उठा सकते थे. (वर्तमान में स्कूल की सालाना फीस लगभग 2 लाख रुपए है.) लेकिन वह भाग्यशाली नहीं थी, बस अलग थी. उनके माता-पिता बिहार और झारखंड के गांवों से दिल्ली आए थे, उनके पिता केवल आठवीं कक्षा तक ही पढ़े थे, जबकि उनकी मां ने कभी किसी स्कूल में कदम तक नहीं रखा था. वे उस समय के प्रिंसिपल श्यामा छोना के लिए घरेलू कामगार के रूप में काम करते हुए मिले थे.

अपने परिवार में एक उचित शिक्षा पाने वाले पहले व्यक्ति के बतौर, प्रसाद ने अपनी पूरी कोशिश की, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि कुछ तो है, चाहे वह कुछ भी कर लें उन्हें अपने सहपाठियों से अलग करने वाली कोई खाई थी. अक्सर, यह छोटी-छोटी बातें हुआ करती जो उन्हें इस बारे में चेताती रहती थीं. उनके सहपाठियों ने अपने घरों में जन्मदिन की बड़ी पार्टियों की मेजबानी की, लेकिन वह कभी किसी को अपने यहां नहीं बुला सकीं क्योंकि उनका घर काफी बड़ा नहीं था. वह हमेशा से नृत्य करना पसंद करती थी, लेकिन जब उन्होंने स्कूल में नृत्य कक्षा में दाखिला लिया, तो उन्होंने पाया कि ज्यादातर बाकी बच्चे स्कूल के बाहर भी ये सीख रहे थे. ‘‘तो नृत्य कक्षा में एशले और श्यामको डावर जैसी लोकप्रिय और महंगी नृत्य अकादमी चलाने वाले कोरियोग्राफरों के पास जाने वाले बच्चों का दबदबा रहता, क्योंकि वे पहले से ही चीजें जानते थे,’’ उन्होंने मुझे बताया. ‘‘नृत्य प्रतियोगिताओं के दौरान, ये बच्चे कोरियोग्राफी और सभी काम अपने दम पर करते थे. और इसलिए वे हमेशा सुर्खियों में रहते थे. यह सब वास्तव में मेरे आत्मविश्वास के स्तर को प्रभावित करता था. अपने बचपन के एक बड़े हिस्से में ही मैं यह मान चुकी थी कि उनके पास ये सभी संसाधन हैं और मेरे पास नहीं है.’’

गर्मी की छुट्टियों के ठीक बाद खाई गहरी महसूस हुई. उनके अधिकांश सहपाठी विदेश जाते थे, जबकि प्रसाद अपने माता-पिता के गाँवों में जाती थीं. तीसरी कक्षा में उन्होंने एक सहपाठी के साथ अपने घर की यात्रा पर चर्चा की, जबकि वह फ्रांस में छुट्टियां बिता कर आई थी. ‘‘उस समय, मेरे मन में यह बात कभी नहीं थी कि कोई मुझे जज करे या ऐसा कुछ भी,’’ उन्होंने याद किया. ‘‘लेकिन, जब मैंने उसे गांव के बारे में बताया, तो वह इस बारे में एकदम अनजान था. वह ऐसा था कि ‘‘हुह, वह कहां है? वो क्या है?’’ तभी मुझे एहसास हुआ कि अपने जीवन के कुछ अनुभवों को इतने खुले तौर पर साझा नहीं करना ही सबसे बेहतर हो सकता है.’’ जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, उन्होंने बातों को अपने तक ही रखना शुरू कर दिया, ‘‘क्योंकि मुझे लगा कि वे समझ ही नहीं पाएंगे.’’

प्रसाद, जो अब एक स्वतंत्र चित्रकार और ग्राफिक डिजाइनर हैं, को स्कूल पूरा किए हुए काफी समय हो गया है, लेकिन वह अभी भी अपने जीवन में उस समय के बारे में बहुत सोचती हैं. ‘‘बेहतर होता अगर मैं एक ऐसे स्कूल में जाती जहां हर कोई मेरी तरह होता,’’ उन्होंने कहा. ‘‘अगर सभी की पृष्ठभूमि एक जैसी होती, तो कोई भी बहिष्कृत जैसा महसूस नहीं करता. एक बुनियादी समझ, एक बुनियादी समानता हो तभी आप बाहरी महसूस नहीं करते हैं.’’

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुसार, दिल्ली के निजी स्कूलों को अपनी सीटों का एक चौथाई हिस्सा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (1 लाख रुपए से कम वार्षिक आय वाले परिवार) और वंचित समूहों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग सहित) के छात्रों के लिए आरक्षित करना होगा. इन्हें एक केंद्रीकृत प्रणाली के माध्यम से भरा जाता है, जिसमें छात्र दिल्ली सरकार की वेबसाइट पर आवेदन करते हैं और कम्प्यूटरीकृत लॉटरी के माध्यम से सीटों का आवंटन किया जाता है. छात्रों के ट्यूशन का भुगतान सरकार द्वारा किया जाता है, जबकि स्कूल उन्हें मुफ्त वर्दी, किताबें और स्टेशनरी प्रदान करते हैं. पिछले कुछ सालों में, हजारों अभिभावकों ने सरकार से इस बात की शिकायत की है कि स्कूल अपना वादा पूरा नहीं कर रहे हैं. दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में किए गए फील्डवर्क पर आधारित 2016 के एक अध्ययन में पाया गया कि ईडब्ल्यूएस/डीजी छात्रों के माता-पिता ने प्रति वर्ष औसतन तेरह हजार रुपए से अधिक का खर्च किया.

2021-22 के प्रवेश चक्र में, शिक्षा निदेशालय को दो हजार से अधिक स्कूलों में लगभग तैंतीस हजार ईडब्ल्यूएस/डीजी सीटों के लिए 126,061 आवेदन प्राप्त हुए. उनमें से केवल 21,699 सीटें ही भरी गईं. इस अप्रैल में दिल्ली सरकार ने कोटा पूरा नहीं करने पर सौ से ज्यादा स्कूलों की मान्यता रद्द करने की धमकी दी. इसने उच्च न्यायालय को बताया कि ईडब्ल्यूएस/डीजी दाखिले की अपेक्षित संख्या की गणना के लिए स्कूल विज्ञापित सीटों की कुल संख्या के बजाय भरी गई अनारक्षित सीटों की संख्या का इस्तेमाल कर रहे थे. इससे खाली सीटों का एक बड़ा बैकलॉग बन गया है. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने जून में नोट किया कि निजी स्कूलों को पिछले दो प्रवेश चक्रों में लगभग अठारह हजार अतिरिक्त ईडब्ल्यूएस/डीजी छात्रों को प्रवेश देना चाहिए था.

‘‘पिछले आठ महीनों से निजी स्कूल और सरकार इस पर लड़ रहे हैं,’’ निजी स्कूलों के लिए जिम्मेदार दिल्ली सरकार के शिक्षा उप निदेशक योगेश पाल सिंह ने मुझे जून में बताया था. जब माता-पिता दिल्ली के निजी स्कूलों की बात करते हैं, तो उन्होंने कहा, वे आमतौर पर राजधानी के शीर्ष 25 स्कूलों का जिक्र करते हैं. “तो बाकी स्कूलों का क्या? उनकी सीटें साल-दर-साल खाली होती जाती हैं और यह महामारी के बाद से बदतर होती गई है. अभी हाई कोर्ट में यही मामला चल रहा है, जहां निजी स्कूल कह रहे हैं कि ‘‘हम अपनी मौजूदा सीटें नहीं भर पा रहे हैं,’’ और सरकार कह रही है कि, ‘‘26 मई को, अदालत ने सरकार को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया कि स्कूल अनिवार्य अन्य दाखिलों की परवाह किए बिना, 25 प्रतिशत कोटा के अलावा अगले पांच सालों में ईडब्ल्यूएस/डीजी सीटों का बैकलॉग भर दें.” दो महीने बाद, कई स्कूलों ने अपील की कि इस फैसले से उनकी स्वायत्तता कम हो गई है, सुप्रीम कोर्ट ने स्टे ऑर्डर जारी कर दिया.

 सिंह ने इस बात की सराहना की कि निजी स्कूलों को ईडब्ल्यूएस और डीजी छात्रों को प्रवेश देना मुश्किल हो रहा था, जब उनकी अनारक्षित सीटें, जिससे उनकी ज्यादातर कमाई होती हैं, खाली पड़ी हैं. उन्होंने कहा कि सरकार ने निजी स्कूलों के लिए विज्ञापन भी निकाले हैं. ‘‘हम और क्या कर सकते हैं?’’ उन्होंने पूछा. जून में, मॉडर्न स्कूल ने कथित तौर पर ईडब्ल्यूएस/डीजी छात्रों को ग्यारहवीं कक्षा में नामांकित रहने के लिए लगभग सत्तर हजार रुपए फीस का भुगतान करने के लिए कहा था. प्रभावित माता-पिता की ओर से स्कूल को कानूनी नोटिस भेजने वाले एक कार्यकर्ता ने इस कदम को ‘‘अवैध, मनमाना, अन्यायपूर्ण, अनैतिक, भेदभावपूर्ण, असंवैधानिक और दिल्ली उच्च न्यायालय की अवमानना के समान’’ बताया.

ईडब्ल्यूएस/डीजी चयन प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे हैं. 2015 में दिल्ली पुलिस ने पाया कि सैकड़ों छात्रों ने जाली आय प्रमाण पत्र का इस्तेमाल करके आवेदन किया था, जो 5 लाख तक की आमदनी पर बनता है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ऐसा ही एक ‘‘ईडब्ल्यूएस छात्र, जगुआर में स्कूल गया, जबकि अन्य उद्योगपतियों और अंतरराष्ट्रीय कारोबारियों के बच्चे थे. शिक्षा अधिकार एनजीओ मिशन तालीम के माध्यम से ईडब्ल्यूएस/डीजी छात्रों के साथ काम करने वाले करियर काउंसलर अतहर इलाही खान ने मुझे बताया कि इस तरह की चीजें होती रहती हैं. उन्होंने कहा कि पिछले साल, किसी अभिभावक ने उन्हें बताया कि एक दलाल ने उनसे संपर्क कर 1 लाख रुपए में उनके बच्चे को ईडब्ल्यूएस में शामिल करने की पेशकश की थी. ‘‘और, क्योंकि इसका मतलब है कि माता-पिता को अगले बारह सालों तक मुफ्त शिक्षा मिलेगी, वे खुशी-खुशी भुगतान करते हैं,’’ उन्होंने कहा. ‘‘बारह साल के लिए यह बहुत छोटी कीमत है.’’

जो लोग इस त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया से गुजरते हैं, वे अक्सर उज्ज्वला प्रसाद की तरह पाते हैं कि निजी स्कूल सामाजिक-आर्थिक विभाजन के मनोवैज्ञानिक प्रभाव को कम करने के बजाए बढ़ा देते हैं. 2015 के एक अध्ययन में पाया गया कि अधिकांश स्कूल प्रशासकों का मानना था कि ईडब्ल्यूएस/डीजी छात्र ‘‘स्कूल की मांगों को पूरा करने में विफल रहे’’ और इनमें से कई छात्रों को कक्षा में भेदभाव का सामना करना पड़ा. अन्य छात्रों ने उनके साथ अपना लंच उनके साथ नहीं बांटा और उन्हें अक्सर धमकाया जाता था और भद्दी टिप्पणियां की जाती थी. ‘‘कई बार, इससे इन बच्चों में हीन भावना पैदा हो जाती है,’’ खान ने मुझे बताया. ‘‘उनका उत्थान करने के बजाए ये स्कूल उन्हें और भी अधिक वश में करते हैं. यह स्कूलों के व्यवसाय के रूप में संचालन और उनकी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियों की अनदेखी करने का नतीजा था. समाधान ईडब्ल्यूएस कोटा खत्म करना नहीं है. लोगों की सोच को बदलकर ही इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता है. जब तक लोग यह नहीं देखेंगे कि हर बच्चा समान है, तब तक कुछ नहीं बदलेगा.’’

गांगुली समिति की सिफारिशों का मकसद विशेषाधिकार और बहिष्कार की इस यथास्थिति को खत्म करना था. इंटरव्यू को हटाकर और दाखिले के लिए पारदर्शी और समान मानदंड पर जोर देकर, वे स्कूलों को अपनी विशिष्टता की रक्षा करने और शिक्षा प्रणाली को अधिक लोकतांत्रिक बनाने से रोकने वाले थे. सुमित वोहरा को लगता है कि यह खत्म नहीं हुआ है.

वोहरा स्कूल में दाखिले की जटिल प्रक्रियाओं को दिशानिर्देश करने वाले माता-पिता के लिए एक ऑनलाइन सहायता समूह, प्रवेश नर्सरी चलाते हैं. उन्होंने 2009 में समूह शुरू किया था और अब इसके एक लाख से अधिक सदस्य हैं. 2017 में आई फिल्म हिंदी मीडियम, जो दक्षिणी दिल्ली के कुलीन निजी स्कूलों को लेकर है, के निर्देशक साकेत चौधरी दो साल तक मंच का हिस्सा रहे. उन्होंने वहां जो कहानियां सुनीं, साथ ही वोहरा की किताब 7/11 - जो उनकी बेटी को 11 में से सात स्कूलों में दाखिला दिलाने के उनके अनुभवों का वर्णन करती है- ने चौधरी को फिल्म के कई कथानक दिए.

वोहरा ने मुझे बताया, ‘‘स्कूल मूल रूप से ठग होते हैं. पूरी मनमानी करते हैं. ‘मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सभी स्कूल ऐसे हैं, लेकिन नब्बे प्रतिशत स्कूल अभी भी कुछ न कुछ शरारत करते हैं.’’

मयूर विहार की रहने वाली एक औरत ने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया. वह कभी भी ‘‘एक्सेल शीट मॉम’’ नहीं थी. उन्होंने मुझे बताया, ये उस प्रकार की माएं हैं जो दाखिले के लिए समय सीमा, मानदंड और रणनीतियों के साथ बीस सर्वश्रेष्ठ स्कूलों की एक व्यापक स्प्रेडशीट बनाती हैं. इसके बजाए उन्होंने अपने बेटे के लिए केवल तीन स्कूलों में आवेदन किया. इनमें से एक उनके घर से सौ मीटर की दूरी पर स्थित था. उन्हें यकीन था कि उनके बेटे के पास चुने जाने के लिए काफी गुंजाइश होगी. ‘‘लेकिन यहां अजीब बात है: हम कट ऑफ तक भी नहीं पहुंच पाए,’’ उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया. ‘‘दूसरी ओर, अपने घर से लगभग पच्चीस मिनट की दूरी पर, दूसरे स्कूल के अगले दौर में हम पहुंच गए.’’

जब बिंदेश पांडे ने 2014 में अपने बेटे के दाखिले के लिए आवेदन किया, तो उन्होंने देखा कि अलग-अलग स्कूलों ने निकटता को अलग-अलग मापा. कुछ ने हवाई दूरी का इस्तेमाल किया, जबकि अन्य ने गूगल मैप्स का इस्तेमाल किया. सभी में एकरूपता का अभाव था. फिर उन्होंने कुछ ऐसा अनुभव किया जिसने व्यवस्था में उनके विश्वास को पूरी तरह से हिला दिया.

पांडे और उनके सबसे करीबी दोस्तों में से एक ने द्वारका के इंद्रप्रस्थ इंटरनेशनल स्कूल में आवेदन किया था. उन्होंने मुझे बताया, ‘‘हम दोनों ने यह व्यवस्था की थी कि कुछ स्कूलों में मैं ड्रॉ के लिए गया था, कुछ स्कूलों में वह गया था.’’ जब इंद्रप्रस्थ में लॉटरी का समय आया, तो पांडे की बारी थी. उन्होंने याद किया कि कार्यवाही वीडियो पर दर्ज की गई थी. 2016 से, शिक्षा निदेशालय ने सभी निजी स्कूलों को अपनी लॉटरी रिकॉर्ड करने का निर्देश दिया है, अगर कोई अभिभावक शिकायत करता है, तो निदेशालय स्कूल से रिकॉर्डिंग की एक प्रति मांग सकता है. दोस्त के बच्चे के नाम की घोषणा हुई, पांडे ने कहा, लेकिन, जब दोस्त स्कूल गया, ‘‘उन्होंने उससे कहा, ‘नहीं जी, आपके बच्चे का नाम तो आया ही नहीं.’’ दोस्त ने जोर देकर कहा कि पांडे ड्रॉ में मौजूद थे, लेकिन स्कूल प्रबंधन नहीं माना. इसने वीडियो फुटेज की समीक्षा करने से भी इनकार कर दिया. (प्रबंधन ने टिप्पणी के लिए मेरे अनुरोध या मेरे द्वारा भेजी गई प्रश्नावली का जवाब नहीं दिया.) ‘‘तो यह ऐसा ही है,’’ पांडे ने कहा. ‘‘उन्होंने इन मानदंडों को बहुत सरल बना दिया है, लेकिन वे हमेशा उनका पालन नहीं करते हैं.’’ उनके दोस्त ने स्कूल पर मुकदमा करने के बारे में सोचा लेकिन आखिरकार उन्होंने इस विचार को छोड़ दिया.

वोहरा को लंबे समय से लॉटरी सिस्टम को लेकर शिकायतें मिल रही हैं. कई माता-पिता ने उन्हें सिस्टम को धोखा देने वाले स्कूलों के बारे में बताया है. उन्होंने कहा. ‘‘वे करते क्या हैं किे रात में चिटों को फ्रिज में रख देते हैं. अगले दिन, वे जानते हैं कि कटोरे से कौन सी चिट लेनी है,.’’ उन्होंने कहा कि एक और युक्ति के बारे में उन्होंने सुना था, जिसमें छिद्रित कागज पर पसंदीदा उम्मीदवारों के नाम लिखे जा रहे थे.

योगेश पाल सिंह ने कहा कि ऐसी शिकायतें पुरानी हैं. ‘‘यह दस-पंद्रह साल पहले हुआ करता था,’’ उन्होंने मुझे बताया. ‘‘लेकिन अब, हर माता-पिता इस कोल्ड चिट, छिद्रित चिट ट्रिक के बारे में जानते हैं. तो इसे कौन होने देगा?’’ उन्होंने कहा कि निदेशालय ज्यादा से ज्यादा जो कर सकता था, वह यह सुनिश्चित करना था कि लॉटरी के वक्त बहुत से माता-पिता मौजूद हों.’’ इस तरह, यह एक प्रकार की ऑटो-मॉनिटरिंग बन जाती है. अगर माता-पिता को संदेह है, तो वे स्कूलों से फिर से चिट लेने के लिए कह सकते हैं या स्वयं चिट लेने के लिए कह सकते हैं. और अगर स्कूल फिर भी नहीं माने तो निदेशालय हस्तक्षेप कर सकता है.’’

दिसंबर से फरवरी, दाखिले का आधिकारिक मौसम, वोहरा के लिए चरम समय होता है, जो दिल्ली सरकार द्वारा प्रतिबंधित मानकों में से एक या दूसरे का इस्तेमाल करने वाले स्कूलों के बारे में माता-पिता से शिकायतें प्राप्त करता रहता है. 2022-23 का समय अलग नहीं था. कुछ अभिभावकों ने शिकायत की कि अहल्कोन पब्लिक स्कूल 20 प्रतिशत प्रबंधन कोटे से ज्यादा स्टाफ सदस्यों के लिए पांच प्रतिशत सीटें आरक्षित कर रहा था. अन्य लोगों ने उन्हें बताया कि टैगोर इंटरनेशनल स्कूल ने स्कूल के बस मार्गों के साथ रहने वाले बच्चों के लिए 50 अंक निर्धारित किए थे. जो उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए निषिद्ध मानदंडों में से एक था. एक अन्य अभिभावक ने शिकायत की कि सेंट मार्क्स सीनियर सेकेंडरी पब्लिक स्कूल और केआर मंगलम वर्ल्ड स्कूल चंदा मांग रहे थे. (सेंट मार्क के एक प्रतिनिधि ने मुझे बताया कि स्कूल शिक्षा निदेशालय द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन करता है और उसने ‘किसी भी माता-पिता से प्रवेश सुरक्षित करने के लिए दान नहीं मांगा है.’ किसी अन्य स्कूल ने साक्षात्कार के अनुरोधों या प्रश्नावली का जवाब नहीं दिया.) वोहरा ने शिक्षा निदेशालय तक अपनी यह चिंताएं पहुंचाई, ‘‘हमने अपनी शिकायतों में सब कुछ हाइलाइट किया, यहां तक कि सबूत के तौर पर स्क्रीनशॉट भी भेजे,’’ उन्होंने मुझे बताया. ‘‘लेकिन किसी भी स्कूल के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई.’’

सिंह ने कहा, ‘‘अगर कोई अभिभावक हमारे पास यह कहते हुए आता है कि इस स्कूल ने दान मांगा है या उस स्कूल ने दान मांगा है तो हमें कार्रवाई करने के लिए सबूत चाहिए.’’ उन्होंने कहा, ‘‘बिना सबूत के हम कुछ नहीं कर सकते. हम पूरा सबूत भी नहीं मांगते. अगर माता-पिता के पास हल्का सा भी सबूत है हम कार्रवाई करने को तैयार हैं.’’ 2015 में, सरकार ने सभी निजी स्कूलों को प्रवेश प्रक्रिया के दौरान माता-पिता को अपने मोबाइल फोन ले जाने की अनुमति देने का आदेश दियाए ताकि वे कदाचार की किसी भी घटना को रिकॉर्ड कर सकें.

जब मैंने सिंह से उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिबंधित मानदंडों का उपयोग करने वाले स्कूलों के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि ये चीजें कभी भी ब्लैक एंड व्हाइट नहीं होती हैं. ‘‘देखिए, कोर्ट ने यह नहीं कहा है कि ये मानदंड होने चाहिए और सभी स्कूलों को इनका पालन करना होगा. स्कूलों को अपने मानदंड निर्धारित करने की अनुमति है. केवल शर्त यह है कि ये मानदंड एक समान, पारदर्शी और उचित होने चाहिए. हां, अदालत ने विशेष मापदंडों पर प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन इसमें बहुत अस्पष्टता है कि कौन से मानदंड वास्तव में अदालत के निर्देशों का उल्लंघन करते हैं.’’

लागू करने की चिंताओं से परे, दिल्ली की अंक-आधारित प्रणाली में अधिक मूलभूत समस्याएं हैं. कई मायनों में, यह उन्हीं विशेषाधिकारों को कायम रखती है जैसे पुरानी व्यवस्था ने किया था. निकटता सबसे महत्वपूर्ण मानदंडों में से एक है. यह सुनिश्चित करने के लिए है कि बच्चे अपने ही इलाके में स्कूल जाएं. लेकिन, जैसा कि राजधानी में रहने वाला कोई भी व्यक्ति जानता है, दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में विशिष्ट जनसांख्यिकीय संरचनाएं हैं. गांगुली समिति ने सिफारिश की कि निकटता मानदंड लचीला होना चाहिए, जो स्कूल से दस किलोमीटर दूर रहने वाले आवेदकों को अंक प्रदान करे. बाद की एक रिपोर्ट में, इसने निकटता के लिए महत्व को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाने के प्रति आगाह किया, क्योंकि यह ‘‘विभिन्न सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों के अंतर्संबंध को हतोत्साहित कर सकता है. यह विविधता और विषमांगता के सिद्धांतों के खिलाफ होगा.”

दरियागंज का पड़ोस का इलाका शाहजहानाबाद का चारदीवारी शहर और अंग्रेजों द्वारा निर्मित शाही राजधानी से घिरा हुआ है. विभाजन के बाद से, नई दिल्ली में दरियागंज के हिस्से में पर्याप्त जैन आबादी रही है. हाल के दशकों में, उनमें से कई राजधानी के अन्य हिस्सों में चले गए हैं, पुराने शहर से कई मुसलमान चले गए हैं. एक जैन निवासी ने मुझे बताया कि, हालांकि उनके पति ने पास के हैप्पी स्कूल में पढ़ाई की थी, लेकिन उन्होंने अपने बेटे को नोएडा के एक स्कूल में भेजना पसंद किया. ‘‘आप देखिए, हैप्पी स्कूल में एक बड़ी मुस्लिम आबादी है,’’ उन्होंने मुझसे कहा. ‘‘तो भाषा, तरीका, लहजा, हम जो पसंद करते हैं उससे सब कुछ अलग है. वहां के लोग भी एक खास आर्थिक तबके से आते हैं.’’ उन्होंने कहा कि हैप्पी स्कूल के शिक्षकों ने भी उनसे अपने बच्चे को कहीं और नाम लिखाने के लिए कहा.

उनका फैसला पड़ोस की बदलती जनसांख्यिकी को लेकर चिंता को दर्शाता है. यह सिर्फ एक धार्मिक प्रवाह होता है,’’ उन्होंने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा, ताकि उनके बेटे को अपने वर्तमान स्कूल में नतीजों का सामना न करना पड़े. “नई आदतें आ रही हैं, मांसाहारी भोजन है. मैं यह नहीं कह रहा कि यह सही है या गलत. यह अलग है, यही वजह है कि यहां के बच्चे जिस तरह की पृष्ठभूमि से आते हैं, वह उससे अलग है, जिसमें हम अपने बेटे को घिरे रहना पसंद करेंगे.”

इस तरह के पूर्वाग्रह राजधानी के मुसलमानों के लिए एक सामान्य अनुभव है, जिन्हें अक्सर अच्छे निजी स्कूलों के पड़ोस में घर नहीं दिया जाता है. हालांकि 2011 की जनगणना में मुस्लिम बच्चे दिल्ली की पांच साल से कम उम्र की आबादी का लगभग छठा हिस्सा थे, लेकिन हाल के एक अध्ययन में पाया गया कि 2018-19 में 28 निजी स्कूलों में केवल 2.7 फीसदी का दाखिला हुआ. लेखक, जन्नत फातिमा फारूकी और सुकन्या सेन ने लिखा, ‘‘इस डेटा का मतलब यह हो सकता है कि दिल्ली में ‘गुणवत्ता वाली’ निजी स्कूली शिक्षा केवल सामाजिक पूंजी वाले कुलीन, विशेषाधिकार प्राप्त घरानों के लिए ही एक विकल्प है.’’

अंक-आधारित प्रणाली के साथ एक और समस्या पूर्व छात्र होने की कसौटी है, जिसके तहत आवेदकों को अतिरिक्त अंक आवंटित किए जाते हैं अगर उनके माता-पिता उस स्कूल के हुए तो. ‘‘अब, अगर मैं डीपीएस या बाल भारती नहीं जाता तो मैंने अपने बच्चे के इन स्कूलों में जाने की संभावना को वहीं कम कर देता हूं,’’ बिंदेश पांडे ने कहा. ‘‘यह एक राजवंश की तरह है, है ना? तुम वहीं पढ़े तो तुम्हारा बच्चा भी वहीं पढ़ेगा. एक अन्य अभिभावक, जिनके बेटे को पूर्व छात्र होने के अंक से लाभ हुआ था, ने मुझे बताया, ‘‘मेरी एक दोस्त जो उस स्कूल में नहीं गई थी और जो राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता नहीं है, अपने बच्चे का दाखिला क्यों नहीं करवा सकती?’ यह अनुचित है.’’

हालांकि, अपनी खामियों के बावजूद, अंक-आधारित प्रणाली पिछली व्यवस्था में सुधार किया गया है. ज्यादातर अभिभावक आसानी से स्वीकार करते हैं कि यह एक मानकीकरण तंत्र है जो सभी को आजमाइश का मौका देता है, बशर्ते कि वे स्कूल की फीस दे सकते हैं. एक अभिभावक जिसने 2022-23 के प्रवेश चक्र को नेविगेट किया, ने नाम न छापने की शर्त पर मुझसे कहा, ‘‘मान लीजिए कोई अंक न हो और ड्रॉ में भी न आए तो मैं अपने बच्चे को कहां भेजूंगा? कम से कम कहीं तो जाना होगा. अगर आप इसे पीआर और रसूख के स्तर पर छोड़ देते हैं, तो दिल्ली में पर्याप्त और ज्यादा अमीर लोग हैं जो सीटें हड़प लेंगे.’’

अशोक गांगुली ने माना कि व्यवस्था सही नहीं है. उन्होंने मुझे बताया कि नर्सरी में दाखिले, एक बहुत बड़ा मुद्दा है. और जब भी किसी चीज का दांव बड़ा होता है, तो कुछ लुके-छिपे तरीके और निहित स्वार्थ वाले लोग जरूर होते हैं. उन्होंने कहा कि दीर्घकालिक समाधान उत्कृष्टता को सार्वभौमिक बनाना है. ‘‘हमने उत्कृष्टता के द्वीप बनाए हैं. इसने एक समस्या पैदा कर दी है जहां माता-पिता सोचते हैं कि, उन्होंने कहा, ‘‘ओह, यह एक बेहतरीन स्कूल है. मैं अपने बच्चे को कहीं और नहीं भेजूंगा. वे इस स्कूल के बगल में एक नया घर तक ले लेते हैं. यह एक समस्या है, जब तक हम सभी स्कूलों को एक समान स्तर पर नहीं लाते- चाहे वे सार्वजनिक हों, निजी हों या केंद्रीय विद्यालय हों- जब तक हम सभी स्कूलों के लिए गुणवत्ता ढांचे को सार्वभौमिक नहीं बनाते, यह स्थिति बनी रहेगी.’’