21 अप्रैल को एक मलयालम अखबार, मध्यमम ने "विश्वविद्यालयों में फलते-फूलते आरक्षण विरोधी माफिया” शीर्षक से एक विचार स्तंभ प्रकाशित किया. स्तंभ के लेखकों- कालीकट विश्वविद्यालय में अतिथि प्राध्यापक पीके पोकर और उसी विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में सह प्राध्यापक केएस माधवन ने इसमें लिखा कि केरल के विश्वविद्यालयों में आरक्षण का कार्यान्वयन निराशाजनक है. उन्होंने ऐसा विशेष रूप से शिक्षकों के पदों की भर्ती को ध्यान में रखते हुए लिखा. 29 अप्रैल को कालीकट विश्वविद्यालय ने माधवन को विश्वविद्यालय की छवि खराब करने के मामले में ज्ञापन भेजते हुए उनसे लिखित स्पष्टीकरण की मांग की और इस वरिष्ठ शिक्षाविद पर केरल सरकार के कर्मचारी आचरण नियमों की विभिन्न धाराओं का उल्लंघन करने का आरोप लगाया, जिसके अनुसार कर्मचारी न तो सार्वजनिक रूप से किसी भी सरकारी नीति की आलोचना कर सकते हैं और न ही मीडिया से इस बारे में बातचीत कर सकते हैं. नियम के अनुसार, ऐसा करने से सरकार और जनता के बीच संबंध खराब होने के साथ-साथ सरकार को शर्मिंदगी भी उठानी पड़ सकती है.
मध्यमम में छपे लेख में कालीकट विश्वविद्यालय का केवल एक बार जिक्र किया गया है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने "आरक्षण पर अनियमितताओं" के मामले पर विश्वविद्यालय से रिपोर्ट मांगी है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल में आयोग ने विश्वविद्यालय को सूक्ष्म विज्ञान, प्रौद्योगिकी और भौतिकी विभागों में सहायक प्राध्यापकों की भर्ती से संबंधित जानकारी प्रदान करने के लिए एक नोटिस जारी किया था. यह नोटिस मद्रास स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में पोस्ट-डॉक्टरल फेलो और अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्य प्रमोद के, के द्वारा दायर शिकायत पर आधारित था. उन्होंने कालीकट विश्वविद्यालय में एक रिक्त पद के लिए साक्षात्कार दिया था और बाद में चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं होने पर शिकायत दर्ज कराई थी. हालांकि मध्यमम में छपा लेख दोनों ने मिलकर लिखा था, लेकिन कालीकट विश्वविद्यालय ने केवल माधवन को ही नोटिस जारी किया, उनका मानना है कि एक दलित होने की वजह से उन्हें प्रशासनिक कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है. कारवां में रिपोर्टिंग फेलो आतिरा कोनिककारा के साथ एक साक्षात्कार में इतिहासकार ने उच्च शिक्षा में समावेशी नीतियों के लिए आवाज उठाने की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया. उन्होंने कहा, "शिक्षा व्यवस्था में ऐसे शिक्षाविद, प्रशासक, कुलपति और अन्य अधिकारी होने चाहिए जिनके पास समावेशी शिक्षा को लेकर एक बड़ा दृष्टिकोण हो और जो सामाजिक न्याय की प्रासंगिकता को समझते हों. उन्हें ही विश्वविद्यालयों के नेतृत्व की जिम्मेदारी मिलनी चाहिए."
आतिरा कोनिक्कारा : आपके लेख में कालीकट विश्वविद्यालय का केवल सरसरी तौर पर जिक्र करते हुए बताया गया है कि अनुसूचित जाति आयोग ने विश्वविद्यालय को नोटिस जारी किया है.
केएस माधवन : हां. लेकिन यह विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को कैसे कम करता है? मैं आपको विस्तार से बाताता हूं. मैं एक संस्थागत अकादमिक और सार्वजनिक बुद्धिजीवी दोनों हूं. पिछले 10-20 सालों से मैं सामाजिक और संस्थागत बहिष्कार की व्यवस्था पर अपनी बात रख रहा हूं. मैं शैक्षिणिक संस्थानों को लेकर चिंतित हूं. संरचनात्मक पदानुक्रम मेरी शैक्षिणिक विशेषज्ञता है कि किस तरह प्रणालीगत संस्थागत संरचनाओं के माध्यम से लोगों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है. पीएचडी में मेरा शोध भी पहली शताब्दी ईसवी से 14वीं शताब्दी ईसवी तक केरल में जाति और सामाजिक बहिष्करण प्रक्रिया पर आधारित था. वर्तमान समय में राज्य सरकारों को उच्च शिक्षा प्रणाली में सामाजिक बहिष्कार की समस्या को हल करने के लिए कुछ कार्य शुरू करने चाहिए. संवैधानिक रूप से चलने वाली हमारी राज्य प्रणाली में हमने, हमारी प्राथमिकताएं समावेशी विकास प्रक्रिया के माध्यम से तय की थीं. इसी विकास प्रतिमान के हिस्से के रूप में ज्ञान और शिक्षा को बढ़ाने के लिए राज्य विश्वविद्यालयों, केंद्रीय विश्वविद्यालयों, क्षेत्रीय सार्वजनिक विश्वविद्यालयों, आईआईटी, आईआईएम की स्थापना की गई थी. यह प्रतिमान भारत की विविधता, इसके संरचनात्मक पदानुक्रम और लैंगिक असमानता का सामना करने के लिए तैयार किया गया है. अगर विकास करना है, तो एक उच्च शिक्षा प्रणाली का होना जरूरी है जो इन मुद्दों से निपट सके. आधुनिक लोकतांत्रिक शैक्षिणिक प्रक्रिया में समावेशिता ही मूल स्तंभ है. दुनिया भर में इसका सामना करने के लिए कईं मजबूत नीतियां शुरू की गई हैं. उदाहरण के लिए, महिलाओं, पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों, कश्मीर और उत्तर पूर्वी जैसे क्षेत्रों के लोगों को दिया गया आरक्षण वितरणात्मक न्याय सुनिश्चित करने का एक तरीका है. संवैधानिक नैतिकता का उद्देश्य संरचनात्मक असमानता के प्रश्न को हल करना है. डॉ. पोकर और मेरे द्वारा लिखे लेख में एक संदर्भ यह भी था. और दूसरा संदर्भ था नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, जो एक अत्यधिक केंद्रीकृत सत्तावादी सरकार को दर्शाती है और भारत में अभी तक बढ़ाई जा रही धर्मनिरपेक्ष, समावेशी शिक्षा प्रणाली को नकार देती है. वे धीरे-धीरे शिक्षा में समावेशन का समर्थन करने वाले सहायक तंत्रों को हटा रहे हैं. यही सब हमारे लेख का संदर्भ था.
इन विश्वविद्यालयों में होने वाली तुच्छ राजनीति से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन हमने सार्वजनिक रूप से केरल के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति के मामले में आरक्षण नीति को लागू करने की आवश्यकता के बारे में बताया है. हाल ही में गलत तरीके से आरक्षण के कार्यान्वयन के कारण ही केरल विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों की नियुक्ति को रद्द कर दिया गया था. केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि आरक्षण के कार्यान्वयन की प्रक्रिया गलत थी और इसे ठीक से लागू करना होगा. जिसके लिए रोस्टर सिस्टम प्रकाशित किया जाना चाहिए. (रोस्टर में आरक्षित पदों के साथ-साथ प्रत्येक विभाग में विभिन्न श्रेणियों में रिक्त स्टाफ पदों को दर्शाया जाता है.) यूजीसी के आदेश के अनुसार, विश्वविद्यालयों को पारदर्शिता के लिए समुदायवार नियुक्तियों के लिए रोटेशन चार्ट प्रकाशित करने चाहिए.
आतिरा कोनिक्कारा : विश्वविद्यालय द्वारा जारी किए गए ज्ञापन में कहा गया है कि यह लेख लिखकर आपने केरल सरकार के कर्मचारी आचरण नियमों का उल्लंघन किया है. क्या शिक्षाविदों की आवाज को दबाने के लिए विश्वविद्यालयों द्वारा कर्मचारी आचरण नियमों का अक्सर दुरुपयोग किया जाता है?
केएस माधवन : मेरे द्वारा उठाए गए शैक्षिणिक मुद्दे पर शर्मनाक रूप से मनमानी करने का मतलब सामाजिक हाशिए पर स्थित समुदायों के सामाजिक रूप से समावेश करने वाली शैक्षिणिक समझ के विस्तार को दबाने जैसा है. संस्थागत आचारों और शैक्षिक संवेदनशीलता से रहित प्रशासनिक विचार का किया गया किसी भी तरह का हस्तक्षेप ऐसी संरचनात्मक संस्थागत हिंसा है जो एक शिक्षक को सामाजिक रूप से खत्म कर देती है.
आतिरा कोनिक्कारा : क्या आपने यूनिवर्सिटी के ज्ञापन का कोई जवाब भेजा?
केएस माधवन : हां, मैंने विश्वविद्यालय को जवाब भेजा कि मैंने विश्वविद्यालय की छवि को खराब नहीं किया है. वास्तव में, मैंने आरक्षण नीति को उचित प्रकार से लागू करने और समावेशी शिक्षा की आवश्यक्ता पर बल देकर संविधान का बचाव किया. यह मेरे और मेरे सह-लेखक द्वारा किया जा रहा एक सामूहिक शोध है. मेरा यह मानना है कि सामाजिक समावेशिता शिक्षण से जुड़ा वैश्विक मुद्दा है जिसे काफी हद तक संवैधानिक नैतिकता का समर्थन प्राप्त है.
आतिरा कोनिक्कारा : आपके अनुसार ऐसा क्या कारण है कि केवल आपको ही नोटिस दिया गया और डॉ. पोकर को नहीं? आपको क्यों लगता है कि इस मामले में आप अकेले रह गए थे?
केएस माधवन : संस्थागत विचारों की संरचनात्मक अवहेलना की अपनी चयनात्मकता है. इसे संस्थागत और सामाजिक पूर्वाग्रहों से संचालित किया जा रहा है. मेरे मामले में, समावेशी नीति को आगे बढ़ाने वाले व्यक्ति को ही संस्थागत रूप से बाहर रखा गया है. मैं खुद भी संस्थागत बहिष्कार का शिकार बन गया हूं, इसमें मेरी सामाजिक स्थिति को लेकर एक तरह का संस्थागत पूर्वाग्रह शामिल है. व्यवस्थागत विचार, उसकी कार्य प्रणाली और स्वभाव ने विरासत में मिली सामाजिक मानसिकता को बनाए रखा है कि केएस माधवन दलित हैं, इसलिए उनके साथ भेदभाव करने पर कोई कुछ नहीं कहेगा. यह संस्थागत शैक्षणिक व्यवस्था को लेकर सामाजिक मानसिकता और पूर्वाग्रह है.
यह व्यव्स्था के संरचनात्मक अनुक्रम की प्रकृति है. यह ज्ञापन जारी नहीं किया जाता अगर मेरी जगह कोई विशेषाधिकार प्राप्त समुदाय का व्यक्ति होता. जब हम किसी लोकप्रिय माध्यम में लेख लिखते हैं, तो हम सिर्फ टिप्पणी प्रकाशित नहीं कर सकते. ऐसी कई रिपोर्टें हैं जिनमें बताया गया है कि भारत में केंद्रीय और क्षेत्रीय राज्य विश्वविद्यालयों में सामाजिक समावेश की कमी है और समावेशी नीतियों सहित आरक्षण को भी ठीक से लागू नहीं करते हैं.
आतिरा कोनिक्कारा : क्या आपको भेजे गए ज्ञापन को लेकर शैक्षिणिक हलकों में चर्चा की जा रही रही है?
केएस माधवन : भारत जैसे पूर्वाग्रह से ग्रस्त समाज में मुझे नहीं लगता कि शैक्षिणिक समुदाय में जल्द ही इस पर विवेकपूर्ण ढंग से चर्चा की जाएगी. लेकिन हमें इस चर्चा को सामाजिक समावेश और विभिन्न शैक्षणिक दृष्टिकोणों के मामलों पर उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रमुखों, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों के बीच वास्तविक संचार की एक उचित आंतरिक व्यवस्था बनाने के लिए शैक्षिणिक और नैतिक रूप से जारी रखना होगा. शैक्षिणिक समुदाय व्यापक रूप से मेरा समर्थन कर रहा है. इसलिए उन्होंने, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेवामुक्त प्रोफेसर सुखदेव थोराट जैसे शिक्षाविदों के साथ मिलकर एकजुटता दर्शाने के लिए एक बयान जारी किया है. इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और शिक्षकों के एक शैक्षिणिक निकाय, केरल इतिहास कांग्रेस ने लेख में मेरे शैक्षणिक विचारों का समर्थन किया.
अनेक सार्वजनिक बुद्धिजीवियों, लोक और नागरिक समाज संगठनों और आंदोलनों ने बड़े पैमाने पर मेरा समर्थन किया. उनका मानना है कि उच्च शिक्षा में सामाजिक बहिष्कार और समावेशी नीतियां संस्थाओं से जुड़ा एक वैश्विक प्रश्न बन गया है और एक लोकतांत्रिक समाज इसको लेकर किए दृढ़ संकल्प पर ही निर्भर करता है. एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी और शिक्षक होने के नाते मैं शैक्षिणिक संवेदनशीलता के साथ इन मुद्दों को नैतिक रूप से हल करने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से वचनबद्धता और सहयोग की आशा करता हूं. हालांकि, दुर्भावनापूर्ण विशेषाधिकार से जुड़ी दुष्ट मानसिकता रखने वाले कुछ निहित पक्षपातपूर्ण हित समूह सामाजिक समावेशन पर मेरे आलोचनात्मक और प्रतिक्रियात्मक शैक्षिणिक काम को लेकर बैर की भावना रखते हैं. मुझे ऐसा लगता है कि संस्थानों में शैक्षणिक अस्पृश्यता का एक आधुनिक रूप विकसित हो रहा है जिसे एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद् होने के कारण मुझ पर बलपूर्वक थोपा जा रहा है.
आतिरा कोनिक्कारा : अपने इस लेख में आपने यह भी लिखा कि लंबे समय से कुछ ऐसे समूह रहे हैं जिन्होंने आरक्षण लागू करने का विरोध किया है. आपका इशारा किन समूहों की ओर था?
केएस माधवन : नहीं, मैंने कभी किसी समूह या संगठन विशेष का नाम नहीं लिया. यह मूल रूप से एक सर्वांगी विषय है. इसे शैक्षिणिक पद पर रहते हुए नहीं बता सकता कि क्यों संरचनात्मक अनुक्रम से व्यवस्था का संचालन हो रहा हैं और वह कौन सी प्रक्रिया है जो कुछ समुदायों को बाहर कर देती है. दलितों, बहुजनों, महिलाओं और मुसलमानों के पास छात्रों, शोधकर्ताओं और शिक्षकों के रूप में उच्च शिक्षा प्रणाली में दाखिल होने की सुगमता होनी चाहिए.
इन समुदायों को ज्ञान बांटने वाला समुदाय बनना चाहिए. विश्वविद्यालयों में प्रवेश करने वाले जनजातीय समुदायों के लोग इस देश में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक मुद्दों के अनुसंधान में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने जैसा बड़ा लक्ष्य रखते है. ज्ञान की रचना में उनका उचित हिस्सा होना चाहिए. जो समाज में परिवर्तन लाने और उसके लोकतांत्रीकरण का काम करेगा. शोधकर्ताओं के रूप में वे इस बात पर भी अध्ययन करेंगे कि इस संरचनात्मक प्रणाली ने उन्हें कैसे प्रभावित किया, कैसे वे समाज से अलग-थलग थे और कैसे आधुनिक व्यवस्था ने उन्हें हाशिए पर ला दिया. इस व्यवस्था के शिकार हो जाने के नाते, उन्हें शैक्षिणिक रूप से समस्या को हल करना और ज्ञान का विकास करना चाहिए.
आतिरा कोनिक्कारा : मैं एक अर्थशास्त्री और मराठी अनुसूचित जनजाति समुदाय के सदस्य रंजीत आर का हालिया उदाहरण बताती हूं, जो रांची में भारतीय प्रबंधन संस्थान में सहायक प्रोफेसर नियुक्त किए जाने के समय चर्चा में आए थे. उन्होंने बताया कि उन्होंने कालीकट विश्वविद्यालय में एक शिक्षक के पद के लिए अपनी योग्यता सिद्ध कर दी थी लेकिन पद खाली होने के बावजूद भी उन्हें वह नहीं मिला. एक पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए क्या उपाय किए जा सकता है?
केएस माधवन : विश्वविद्यालय प्रशासन को समुदायों पर आधारित आरक्षण नीति का पालन करते समय सबसे योग्य और निपुण उम्मीदवारों का चयन सुनिश्चित करना चाहिए. वहां समावेशी शिक्षा का व्यापक दृष्टिकोण और सामाजिक न्याय की प्रासंगिकता को समझने वाले शिक्षाविद, प्रशासक, कुलपति और अन्य अधिकारी होने चाहिए. उन्हें ही भविष्य में विश्वविद्यालयों का नेतृत्व करना चाहिए. सार्वजनिक विश्वविद्यालय की गुणवत्ता को बचाए रखने के लिए पक्षपातपूर्ण राजनीति समाप्त होनी चाहिए. एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी होने के नाते जो मैं कर सकता हूं, वह है इसे हल करने के लिए जनता के बीच जागरूकता बढ़ाना. यही हमारी संस्थागत प्रतिबद्धता है. इसलिए मैंने प्रख्यात जन बुद्धिजीवी डॉक्टर पीके पोकर के साथ मिलकर एक लेख लिखा. हम केरल और पूरे देश के समक्ष विश्वविद्यालय का उपयोगी और आदर्श तरीके से प्रतिनिधित्व करते हैं. तो क्या विश्वविद्यालय को इस तरह की जवाबी कार्रवाई करनी चाहिए थी?
आतिरा कोनिक्कारा : दाखिले के लिए बनी मौजूदा प्रक्रिया में क्या खामियां हैं? यहां जाति से जुड़े पूर्वाग्रह कैसे काम करते है?
केएस माधवन : स्नातकोत्तर (पीजी) स्तर और एमफिल स्तर पर आरक्षण के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए एक व्यवस्था है. ऐसा शोध के लिए होने वाले दाखिलों में होता है कि नियम का पालन नहीं किया जाता. जिसको लेकर ऐसी बहुत सी शिकायतें आई हैं कि आरक्षित समुदाय के प्रवेश के लिए नियमों का पालन नहीं किया गया है. पिछले साल जैविक विज्ञान के लिए आवेदन करने वाले एक छात्र ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में एक शिकायत दर्ज कराई थी. एससी, एसटी छात्रों के मामले में उनकी अगुआई की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता है. यदि उनके नाम सूची में शामिल होते हैं, तो भी उनके मार्गदर्शन के लिए कोई नियम नहीं है. गाइड की तलाश में छात्रों को इधर-उधर भागना पड़ रहा है. गोरी चमड़ी वाले एक नायर छात्र या उच्च जाति समुदाय के किसी व्यक्ति को वरीयता दी जाएगी. तो यह प्रक्रिया ऐसी है कि भले ही एससी, एसटी छात्रों के नाम सूची में शामिल हों, लेकिन वे बाहरी ही रहते हैं क्योंकि उन्हें किसी का मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हो सका. यह संरचनात्मक बहिष्करण का एक उदाहरण है.
आतिरा कोनिक्कारा : एक अन्य प्रमुख मुद्दा ढेरों आरक्षित पदों का रिक्त रहना है, जिसपर वर्षों से ध्यान नहीं दिया गया है.
केएस माधवन : हां, इन ढेरों रिक्त पदों पर काम करने की जरूरत है. कालीकट विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद से प्रत्येक विभाग में कितने पदों को भरा गया और कितनों में सामुदायिक आरक्षण मानदंडों का पालन किया है? आरक्षित समुदाय के लिए भर्ती शुरू न करने के कारण कईं सारे पद रिक्त पड़े हैं. विश्वविद्यालय को इन्हें भरने के लिए विशेष अधिसूचना जारी करनी चाहिए. नई भर्तियां शुरू करने से पहले कई समय से रिक्त ढ़ेरों पदों को भरा जाना चाहिए. इन ढ़ेरों रिक्त पदों की संख्या पता लगाने के लिए, सामुदायिक आरक्षण से जुड़ी विश्वविद्यालय की रोस्टर प्रणाली को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. कईं आरटीआई दायर करने के बावजूद इसे सार्वजनिक नहीं किया जा रहा है. यह एक सार्वजनिक दस्तावेज है. आरक्षण एक राज्य की नीति से जुड़ा विषय है. और इस नीति पर आधारित कोई दस्तावेज गुप्त दस्तावेज कैसे हो सकता है? यही यहां की मूल समस्या है. पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए रोस्टर प्रणाली सार्वजनक की जानी चाहिए. इसलिए लोग शिकायतें कर रहे हैं. ऐसे में कोई विश्वविद्यालय कैसे कह सकता है कि उसे बदनाम किया जा रहा है?
आतिरा कोनिक्कारा : इस मामले को लेकर राज्य सरकार क्या कदम उठा सकती है?
केएस माधवन : केरल राज्य उच्च शिक्षा परिषद उन संस्थाओं में से एक है जो आरक्षण नीति को पारदर्शी तरीके से लागू करने के तरीकों पर निर्देश जारी करने और देख-रेख का काम सकती है. राज्य सरकार की एक महत्वपूर्ण संस्था होने के नाते उच्च शिक्षा परिषद को मामले में जरूर दखल देना चाहिए क्योंकि यह विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ समन्वय स्थापित कर सकती है. समर्थनात्मक नीतियों के संवैधानिक सिद्धांत को सुनिश्चित करने के लिए उच्च शिक्षा परिषद के लिए उच्च शिक्षा में सामाजिक समावेश एक गंभीर मुद्दा होना चाहिए.
आतिरा कोनिक्कारा : विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियम के अनुसार किसी एससी या एसटी उम्मीदवार का साक्षात्कार लेते समय, साक्षात्कार बोर्ड में एससी या एसटी समुदाय के एक सदस्य का शामिल होना जरूरी है. क्या इस नियम का पालन किया जा रहा है?
केएस माधवन : मुझे नहीं मालूम कि इसका पालन किया जाता है या नहीं. लेकिन उस व्यक्ति की समुदाय के प्रति सामाजिक प्रतिबद्धता जरूर होनी चाहिए. मेरा सुझाव है कि सामाजिक बहिष्कार को समझने वाला और समावेशी नीतियों के लिए वचनबद्ध किसी प्रतिनिधि को इस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए. यह अनिवार्य होना चाहिए. इसकी भलाई के लिए इससे कम किसी भी व्यक्ति को जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए. मैं कहूंगा कि यह संरचनात्मक असमानताओं और समावेशी शिक्षा की गहरी समझ रखने वाला, संवैधानिक सिद्धांतों, बड़े पैमाने पर समुदायों और आरक्षण के हितधारकों के प्रति प्रतिबद्धता रखने वाला कोई सामाजिक वैज्ञानिक होना चाहिए. अन्यथा, ऐसे कई लोग मौजूद हैं जो विश्वविद्यालय प्रशासन के कहे अनुसार काम करेंगे.