फरवरी 2023 में बजट सत्र के दौरान कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने संसद में कहा कि ''देश में कोयले की कोई कमी नहीं है.'' जोशी ने कहा कि 2022-23 में कोयले का उत्पादन 16 प्रतिशत बढ़कर करीब सात करोड़ टन पहुंच गया. इसके एक महीने बाद जोशी ने घोषणा की कि भारत 2025-26 तक कोयले का निर्यात शुरू कर देगा और थर्मल कोयले का आयात बंद कर देगा. कोयला मंत्रालय के इस आश्वासन के बाद, शायद भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद, या आईसीएफआरई, छत्तीसगढ़ में पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील हसदेव अरंड क्षेत्र में कोयला खनन के लिए और अधिक क्षेत्र खोलने की अपनी सिफारिश की फिर से जांच कर सकता है, जाहिर तौर पर देश में कोयले की कमी को पूरा करने के लिए. हसदेव अरंड कोलफील्ड या एचएसीएफ में खनन क्षेत्र के विस्तार से मुख्य रूप से अडानी समूह को लाभ होगा, जो राजस्थान सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड के साथ एक संयुक्त उद्यम है.
पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले आईसीएफआरई ने 2021 में क्षेत्र में कोयला खनन पर एक संयुक्त अध्ययन में एचएसीएफ में और खनन की सिफारिश की. इसे राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के आदेश पर आयोजित किया गया था. पर्यावरण मंत्रालय के तहत एक अन्य अनुसंधान और प्रशिक्षण निकाय, भारतीय वन्यजीव संस्थान या डब्ल्यूआईआई इस संयुक्त अध्ययन का एक हिस्सा था, जो हसदेव अरंड के घने जंगलों में खनन परियोजनाओं के पारिस्थितिक प्रभाव को देखने वाला था. डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट एचएसीएफ में खनन के लिए और अधिक क्षेत्रों को खोलने के खिलाफ सिफारिश करती है. डब्ल्यूआईआई और आईसीएफआरई दोनों ने पाया कि खनन के लिए अधिक क्षेत्र खोलने से क्षेत्र में रहने वाले लोगों की जैव विविधता संरक्षण और आजीविका की अनिवार्यता से समझौता होगा.
लेकिन आईसीएफआरई के उप महानिदेशक सुधीर कुमार के नेतृत्व में यह अध्ययन अपने मुख्तारनामे से परे चला गया, इसने कोयले की उपलब्धता के मुद्दों का पता लगाया, चुनिंदा आंकड़ों के आधार पर दावा किया कि कोयले की कमी थी और एचएसीएफ में खनन क्षेत्र के विस्तार की वकालत करने के लिए इसका इस्तेमाल किया. भारतीय वन सेवा के एक अधिकारी, अरुण सिंह रावत की अध्यक्षता वाली आईसीएफआरई ने इसी अध्ययन से सामने अए गंभीर पर्यावरणीय नुकसानों पर चिंताओं को पीछे छोड़ते हुए मानवशास्त्रीय कारणों की अनुमति दी. इसके बाद, आईसीएफआरई के अध्ययन का हवाला देते हुए, केंद्र सरकार और छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकारें हसदेव अरंड में खनन परियोजनाओं के लिए और अधिक क्षेत्रों को खोलने के लिए आगे बढ़ रही हैं.
आईसीएफआरई ने चार कोयला ब्लॉकों में और खनन की अनुमति देने की सिफारिश की क्योंकि वे "पहले से ही चालू हैं या वैधानिक मंजूरी प्राप्त करने के उन्नत चरण में हैं." ये चार ब्लॉक हैं- परसा पूर्व और कांता बसन या पीईकेबी, परसा, केंटे एक्सटेंशन और तारा. पीईकेबी, केंटे एक्सटेंशन और परसा को क्रमशः 2007, 2013 और 2017 में राजस्थान विद्युत वितरण निगम लिमिटेड को आवंटित किया गया था. वर्तमान में, पीईकेबी और चोटिया, जहां बाल्को द्वारा खनन किया जा रहा है और जो वेदांता समूह की सहायक कंपनी है, एचएसीएफ में दो परिचालन खदानें हैं. आईसीएफआरई की सिफारिश के आधार पर तारा ब्लॉक को इस साल मार्च में नीलामी के लिए रखा गया था.
इन खानों के लिए गए नीतिगत फैसले और दी गई परियोजना की मंजूरी सार्वजनिक हितों और प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर ऊर्जा और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में अडानी समूह सहित कॉरपोरेटों को बेहद फायदा पहुंचाने की नीति पर चलती है. 2014 के अंत में कोलगेट घोटाले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद आरआरवीयूएनएल के साथ अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड के जेवी द्वारा इन तीन कोयला ब्लॉक आवंटन और खनन कार्यों को बंद कर दिया जाना चाहिए था. कारवां ने 2018 में रिपोर्ट दी थी कि आरआरवीयूएनएल और एईएल ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन किया, अब तक बिना किसी परिणाम के खनन जारी रखा है. कारवां की रिपोर्ट के मुताबिक, एक मोटा-मोटी अनुमान के तहत अडानी समूह को 30 साल की लीज अवधि में सात हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का फायदा हुआ.
इंडियन एक्सप्रेस, स्क्रॉल और आर्टिकल 14 की कई रिपोर्टों ने इस तथ्य का हवाला दिया है कि डब्ल्यूआईआई रिपोर्ट ने परसा पूर्व और कांता बसन खदान के विकास के खिलाफ सिफारिश की थी. स्क्रॉल द्वारा दिसंबर 2022 में प्रकाशित एक लेख में आरआरवीयूएनएल के साथ अडानी समूह के बहुसंख्यक स्वामित्व वाले संयुक्त उद्यम पारसा कांटे कोलियरीज लिमिटेड के बारे में भी सवाल उठाए गए हैं, जिसमें अडानी समूह के स्वामित्व वाले तीन बिजली संयंत्रों में उपयोग के लिए पीईकेबी से लाखों टन कोयले को बहुत सस्ती दरों पर बेचा जाता है.
आईसीएफआरई की सिफारिश पर निर्भरता अडानी समूह के पक्ष में नीतिगत निर्णयों को मोड़ने की एक और कवायद जान पड़ती है. डब्ल्यूआईआई ने सिफारिश की थी कि पहले से ही चालू खानों को जारी रखने की अनुमति दी जा सकती है लेकिन एचएसीएफ और आसपास के इलाकों में "अपूरणीय, समृद्ध जैव-विविधता और सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों" को देखते हुए नए क्षेत्रों में विस्तार नहीं किया जाना चाहिए. ऐसा लगता है कि आईसीएफआरई ने 2017 से 2019 तक मांग और आपूर्ति के आंकड़ों पर ध्यान केंद्रित किया है ताकि इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके कि कोयले की कमी को दूर करने के लिए एचएसीएफ में नई खदानें खोलना अपरिहार्य है. केंद्र सरकार ने अपने सातवें दौर की कोयला-खदान नीलामी में तारा ब्लॉक को पहले ही सूचीबद्ध कर लिया है- जिनमें से 80 प्रतिशत से अधिक में बहुत घने जंगल हैं. आईसीएफआरई द्वारा किए गए अध्ययन के आधार पर कोयला मंत्रालय ने यह कहकर इसे सही ठहराया कि "तारा खदान को ओपन कास्ट माइनिंग के लिए मंजूरी दे दी गई थी."
जनवरी 2023 में, छत्तीसगढ़ के एक वकील और एक्टिविस्ट सुदीप श्रीवास्तव ने आईसीएफआरई की सिफारिश और केंद्र सरकार और राजस्थान पीएसयू के हसदेव अरंड में और खनन की अनुमति देने के हलफनामों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपनी प्रस्तुति में तर्क दिया कि आईसीएफआरई और डब्ल्यूआईआई की रिपोर्टों के बीच कोई विरोधाभास नहीं है. हालांकि यह सच है कि दोनों रिपोर्टों ने पहले से ही व्यापक नुकसान का दस्तावेजीकरण किया और आगे खनन के अनुमानित पारिस्थितिक प्रभाव का दस्तावेजीकरण किया. लेकिन अपनी सिफारिशों में आईसीएफआरई चार ब्लॉकों में और खनन की सिफारिश करने के लिए अपने खुद के निष्कर्षों के खिलाफ जाता है.
उत्तर-मध्य छत्तीसगढ़ में स्थित एचएसीएफ में 23 कोयला ब्लॉक शामिल हैं जो सरगुजा, सूरजपुर और कोरबा जिलों में 1,900 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं. हसदेव अरंड देश का सबसे बड़ा अखंडित वन क्षेत्र है, जिसमें प्राचीन साल और सागौन के जंगल हैं. लगभग अस्सी प्रतिशत कोयला भंडार वन भूमि के अंतर्गत आता है जो आधिकारिक संरक्षित प्रणाली से बाहर है. डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट बताती है कि पीईकेबी ब्लॉक के 1.6 से 10 किलोमीटर के दायरे में स्थित संरक्षित वनों की श्रेणी में 17 वन ब्लॉक हैं. एचएसीएफ का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा महानदी की सहायक नदी हसदेव नदी के जलक्षेत्र में पड़ता है. 23 कोयला ब्लॉकों में से, पीईकेबी, परसा, कांटे एक्सटेंशन और चोटिया को खनन के लिए आवंटित किया गया है और 80 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र को कवर किया गया है.
वर्तमान स्थिति 2009 के निर्णयों की एक श्रृंखला का नतीजा है. उस वर्ष, पर्यावरण मंत्रालय और कोयला मंत्रालय के एक संयुक्त अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि एचएसीएफ को "नो-गो एरिया" के रूप में पहचाना जाना चाहिए - यानी इसे खनन के लिए नहीं खोला जाना चाहिए. इसके बाद जून 2011 में, पर्यावरण मंत्रालय के एक निकाय वन सलाहकार समिति ने जो वन मंजूरी पर निर्णय लेती है, पीईकेबी में लगभग उन्नीस सौ हेक्टेयर वन भूमि परिवर्तन के लिए वन मंजूरी के प्रस्ताव को खारिज कर दिया. हालांकि, मार्च 2012 में जयराम रमेश के नेतृत्व वाले पर्यावरण मंत्रालय और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने एफएसी की अस्वीकृति के बावजूद पीईकेबी में वन भूमि के परिवर्तन के लिए अंतिम मंजूरी दे दी. उस साल बाद में मनमोहन सिंह सरकार ने संयुक्त अध्ययन के निष्कर्षों को अलग कर दिया और नो-गो क्षेत्रों के वर्गीकरण को समाप्त कर दिया. डब्ल्यूआईआई ने 2021 की रिपोर्ट में कहा कि 2009 का अध्ययन अभी भी "पारिस्थितिक रूप से संतुलित सतत विकास के लिए पर्याप्त महत्व रखता है" और एचएसीएफ में नो-गो क्षेत्रों की मांग को दोहराया.
हालांकि मार्च 2014 में, एनजीटी ने एचएसीएफ में पीईकेबी ब्लॉक को दी गई वन मंजूरी को रद्द कर दिया. यह श्रीवास्तव द्वारा दायर एक याचिका के जवाब में आया है. अपने फैसले में एनजीटी ने कहा कि रमेश के नेतृत्व वाले पर्यावरण मंत्रालय ने ब्लॉक में खनन की अनुमति देने में महत्वपूर्ण पर्यावरणीय कारकों की अनदेखी की थी. फैसले में कहा गया है कि "काफी हद तक मानवकेंद्रित कारणों से आगे निकल गए" वन मंत्रालय ने "प्रासंगिक पर्यावरण-केंद्रित मुद्दों" को नजरअंदाज कर दिया था. इसके बाद एनजीटी ने वन मंत्रालय को एक और अध्ययन करने का निर्देश दिया. यह अध्ययन पीईकेबी ब्लॉक को जैव विविधता, स्थानिक या लुप्तप्राय वनस्पतियों और जीवों, प्रवासी मार्गों और जंगली जानवरों के गलियारों के संदर्भ में देखने वाला था, और साथ ही इस संदर्भ में भी देखने वाला था कि क्या संरक्षण रणनीतियों के साथ भी ब्लॉक को "कोयला खनन के लिए समझौता नहीं किया जा सकता".
इसके तुरंत बाद, 2014 में आरआरवीयूएनएल ने एनजीटी के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. शीर्ष अदालत ने आंशिक रूप से एनजीटी के आदेश पर रोक लगा दी और पीईकेबी में खनन जारी रखने के लिए चार शर्तें जारी कीं. शर्तों में से एक यह थी कि पर्यावरण मंत्रालय को एनजीटी द्वारा आदेशित अध्ययन का संचालन करना था. हालांकि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक अध्ययन नहीं कराया. इसके बजाए अप्रैल 2018 में पर्यावरण मंत्रालय के वन संरक्षण प्रभाग ने छत्तीसगढ़ के वन विभाग के प्रमुख सचिव को एक पत्र लिखा और पीईकेबी में वनों के परिवर्तन के प्रस्ताव को "निष्पन्न कार्य" के रूप में संदर्भित किया जिसे बदला नहीं जा सकता.
इस बीच, पर्यावरण मंत्रालय ने कई मंजूरी दी जैसे पीईकेबी की क्षमता का विस्तार करने के लिए और प्रति वर्ष 5 मिलियन टन कोयले के खनन के लिए परसा कोयला ब्लॉक के लिए 840 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि का परिवर्तन करने की. मंत्रालय ने कांटे एक्सटेंशन ब्लॉक के लिए 1,745 हेक्टेयर वन भूमि में कोयले की संभावना की भी अनुमति दी. भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार भी मंजूरी के साथ आगे बढ़ी और आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने और आगे खनन रोकने के अपने चुनावी वादे से पीछे हट गई. जनवरी 2019 में पर्यावरण मंत्रालय के बजाए छत्तीसगढ़ सरकार ने आईसीएफआरई और डब्ल्यूआईआई द्वारा संयुक्त अध्ययन का आदेश दिया. एनजीटी के आदेश के छह साल बाद, जिस अवधि के दौरान खनन चलता रहा, संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि खनन से अपूरणीय क्षति होगी और पहले से ही हो चुकी क्षति को कम करने के लिए कई उपाय किए जाने चाहिए.
डब्ल्यूआईआई के अध्ययन में कहा गया है कि खनन परियोजनाओं से जुड़े प्रमुख पर्यावरणीय प्रभाव भूमि अधिग्रहण से शुरू होते हैं, जिसके चलते भूमि और आवास का नुकसान होता है; भूमि की सफाई, जिसके कारण वनों की कटाई, मिट्टी का कटाव, स्थलाकृति और हाइड्रोलॉजिकल स्थिति में गड़बड़ी; जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण; पौधों और वन्य जीव विविधता में कमी और निवासियों की आजीविका का नुकसान इसमें शामिल है. इसमें कहा गया कि "ये प्रभाव अपरिहार्य हैं और अंततः भूमि के क्षरण की ओर ले जाते हैं जो परियोजना क्षेत्रों के आसपास के क्षेत्र में समग्र बायोमास उत्पादकता और मानव जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करता है."
डब्ल्यूआईआई के अनुसार, एचएसीएफ का अस्सी प्रतिशत से अधिक और इसके आसपास का इलाका घने जंगलों से घिरा है और स्तनधारियों की 25 से अधिक प्रजातियों का वास है, जिनमें से कुछ को लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है. 92 दर्ज पक्षी प्रजातियों में से नौ को लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है. डब्ल्यूआईआई के अनुसार, पीईकेबी में कोल वाशरी सहित कुल क्षेत्रफल लगभग 2,700 हेक्टेयर क्षेत्र को कवर करता है और इसके चलते लगभग 1,870 हेक्टेयर विभिन्न आवासों का नुकसान होगा.
डब्ल्यूआईआई ने आगे कहा कि वन्य जीवन पर प्रभाव को कम करना, विशेष रूप से हाथियों जैसे बड़े घरेलू रेंज वाले जानवरों पर प्रभाव को कम करना संभव नहीं था. वन विभाग ने 2018 और 2020 के बीच, 647 वन खंड में से 148 में हाथियों की उपस्थिति की सूचना दी थी. वन खंड एचएसीएफ और आसपास के क्षेत्रों में प्रबंधन के उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाने वाली वन क्षेत्र की सबसे छोटी इकाई है. डब्ल्यूआईआई के अनुसार, कम से कम पचास हाथी साल भर में अलग-अलग समय पर क्षेत्र का उपयोग करते हैं. अध्ययन ने बताया कि राज्य में मानव-हाथी संघर्ष पहले से ही तीव्र था और इससे आदिवासी समुदायों को भारी सामाजिक-आर्थिक क्षति हुई. वन विभाग के अनुसार, छत्तीसगढ़ में 2018 और 2022 के बीच मानव-पशु संघर्ष में 296 लोगों और 77 हाथियों की मौत हुई थी.
डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि क्षेत्र के निवासी, जो मुख्य रूप से गोंड, मझवार, उरांव, पांडो और कंवर समुदायों से संबंधित हैं, ने खनन और जंगल के परिणामी नुकसान को "आजीविका के लिए सीधे खतरे के रूप में" माना. रिपोर्ट में कहा गया है कि वन-आधारित संसाधन न केवल इन परिवारों की "खाद्य सुरक्षा और समग्र कल्याण" के लिए महत्वपूर्ण थे, बल्कि उनकी वार्षिक आय के लगभग साठ से सत्तर प्रतिशत के स्रोत भी थे. डब्ल्यूआईआई ने आगे सिफारिश की कि छत्तीसगढ़ वन विभाग को 1972 के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के अनुसार, एचएसीएफ के भीतर और आसपास के क्षेत्रों की पहचान कर उन्हें एक संरक्षण आरक्षित घोषित करने के लिए स्थानीय समुदायों से परामर्श करना चाहिए और उन्हें शामिल करना चाहिए.
डब्ल्यूआईआई-आईसीएफआरई के अध्ययन के अनुसार, एचएसीएफ 11 वाटरशेड के अंतर्गत आता है जो महानदी और गंगा की जल निकासी व्यवस्था का हिस्सा हैं. एचएसीएफ का एक बड़ा हिस्सा महानदी की सहायक नदी हसदेव नदी द्वारा निकाला जाता है. आईसीएफआरई ने सिफारिश की कि 337 वन खंड, जिसमें चर्नोई वाटरशेड में 938 वर्ग किलोमीटर और टोन-टेटी वाटरशेड में 330 वर्ग किलोमीटर के 140 वन खंड शामिल हैं, को जैव विविधता संरक्षण क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया जाना चाहिए. आईसीएफआरई की रिपोर्ट में कहा गया है कि पीईकेबी सहित सभी प्रस्तावित ब्लॉक तीन वाटरशेड, गेज-झिंक, चर्नोई और टोन-टेटी की सीमा के साथ आते हैं, और "इन कोयला ब्लॉकों के तहत युगों में परिकल्पित संचयी प्रभाव बहुत चिंता का विषय हैं.” यह सबसे अधिक संभावना है कि धाराओं के जल प्रवाह में कमी, कटाव में वृद्धि, नदी के तल पर तलछट के जमाव में वृद्धि और अन्य संबंधित पर्यावरणीय मुद्दे सामने आएंगे.
परसा कोयला ब्लॉक में आने वाले दो वन खंडों को बीसीए से छूट दी गई है. श्रीवास्तव की याचिका में तर्क दिया गया है कि बिना किसी वैज्ञानिक कारण के अध्ययन के निष्कर्षों के विपरीत ये छूटें दी गईं. याचिका में यह भी कहा गया है कि आईसीएफआरई ने गलत तरीके से केटे एक्सटेंशन ब्लॉक को दूसरे वाटरशेड में दिखाया, जबकि यह चर्नोई नदी वाटरशेड में पड़ता है, जिसे आईसीएफआरई ने जैव संरक्षण क्षेत्र के रूप में चिह्नित करने का सुझाव दिया था.
इसके अलावा, प्रस्तावित विस्तार के लिए 2016 की पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट के अनुसार प्रति दिन लगभग 6,880 क्यूबिक मीटर पानी की आवश्यकता है और कड़े शमन उपायों के अभाव में इसका अटेम नदी पर "प्रपाती प्रभाव" होगा, जो हसदेव नदी में शामिल होने के लिए सभी पांच कोयला ब्लॉकों को बहाती है. अटेम नदी पर खनन के प्रभाव का दस्तावेजीकरण करते हुए, आईसीएफआरई की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि "प्राथमिक/द्वितीयक सहायक धाराएं कभी कोयला ब्लॉक (पीईकेबी) के मुख्य क्षेत्र में मौजूद थीं, जो केंटे, बासेन, घाटबर्रा आदि तक के क्षेत्र को सूखा देती थीं. चल रहे खनन/डंपिंग और भूमि उपयोग भूमि कवर पैटर्न में परिणामी परिवर्तनों के कारण संशोधित/विपथित कर दिया गया है." इसने आगे कहा कि साल्ही नाला के, जो अटेम की प्राथमिक सहायक नदी है, केंटे एक्सटेंशन, परसा और तारा में आगे खनन से "सबसे अधिक प्रभावित होने की संभावना होगी". रिपोर्ट में कहा गया है कि खनन क्षेत्रों से सटे अटेम नदी की जलीय जैव विविधता और जैविक जल की गुणवत्ता पहले से ही "परिवेश की गुणवत्ता के भीतर नहीं" थी.
अगस्त 2019 में, छत्तीसगढ़ सरकार ने लेमरू हाथी रिजर्व के लिए लगभग दो हजार वर्ग किलोमीटर वन भूमि का सीमांकन किया. कोयला ब्लॉकों में हाथियों की मौजूदगी की रिपोर्ट के बावजूद - जिसे डब्ल्यूआईआई-आईसीएफआरई अध्ययन के हिस्से के रूप में किए गए कैमरा ट्रैपिंग में दोहराया गया- सभी कोयला ब्लॉकों को आरक्षित के तहत लाए गए क्षेत्र से बाहर रखा गया था. यह आगे दिखाता है कि कैसे केंद्र और राज्य सरकारें अडानी की खनन परियोजनाओं के पक्ष में फैसले ले रही हैं और निवासियों और पर्यावरण के सामने आने वाले परिणामों की उपेक्षा कर रही हैं.
इसके बावजूद, आईसीएफआरई आगे कहता है कि "उपयुक्त संरक्षण उपायों" के साथ चार कोयला ब्लॉकों में खनन की अनुमति दी जा सकती है. "सघन धारा चैनलों द्वारा प्रतिच्छेदित अपेक्षाकृत घने नम-शुष्क पर्णपाती साल वर्चस्व वाले वन पथों के संरक्षण में बढ़ती मांग को देखते हुए" यह ध्यान में रखते हुए कि यह चर्नोई बेसिन में खनन की सिफारिश नहीं करता है आईसीएफआरई की रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि केंटे एक्सटेंशन चर्नोई जलग्रहण क्षेत्र का हिस्सा है, "इस कोयला ब्लॉक में खनन की अनुमति दी जा सकती है क्योंकि यह खनन शुरू होने के उन्नत चरण में है." हालांकि, केंटे एक्सटेंशन ब्लॉक को कोयले की संभावना के लिए अभी-अभी लाइसेंस दिया गया है, जो किसी भी तरह से खनन शुरू होने का उन्नत चरण नहीं है.
खनन से प्रभावित गांवों के निवासी पिछले एक दशक से ज्यादा समय से इन परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं. 2016 में, रमन सिंह सरकार ने पीईकेबी और परसा कोयला खदानों में खनन की सुविधा के लिए 811 हेक्टेयर वन भूमि पर घाटबर्रा गांव के निवासियों के सामुदायिक अधिकारों को रद्द कर दिया था. इसे चुनौती देने वाली घाटबर्रा की वन अधिकार समिति की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. परसा ब्लॉक में खनन कार्यों के लिए भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को चुनौती देने वाली हसदेव अरंण बचाओ संघर्ष समिति, जिसमें कोयला परियोजनाओं से प्रभावित गांवों के लोग शामिल हैं, की एक अन्य याचिका सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है.
अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड ने कारवां को दिए अपने जवाब में अपनी ओर से किसी भी गलत काम के होने से इनकार किया. समूह के एक प्रवक्ता ने दावा किया कि खनन के प्रभाव की भरपाई के लिए, पीकेसीएल और आरआरवीयूएनएल ने पीईकेबी ब्लॉक में विभिन्न प्रजातियों के करीब पांच मिलियन पेड़ लगाए थे. जवाब में कहा गया है कि आरआरवीयूएनएल ने "9,030 पेड़ों को काटने के बजाए सफलतापूर्वक स्थानांतरित करने के लिए ट्री ट्रांसप्लांटर का इस्तेमाल किया था." हालांकि, डब्ल्यूडब्ल्यूआई और आईसीएफआरई दोनों रिपोर्टों ने पीईकेबी में किए गए वनीकरण के साथ कई मुद्दों को उठाया था और इनसे निपटने के लिए शमन उपायों का सुझाव दिया था. आईसीएफआरई के अनुसार, स्थानान्तरित पेड़ की प्रभावकारिता का आकलन करने के लिए डेटा को बनाए नहीं रखा गया था.
यहां यह ध्यान रखना उचित है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने नो-गो श्रेणी के तहत वर्गीकृत कोयला ब्लॉकों को खोलने पर विचार करते हुए कहा था कि "वनीकरण और सुधार में सर्वोत्तम प्रयासों के बाद भी, उनके जैव विविधता की जटिल जैविक विशेषताओं को पुनः प्राप्त करना संभव नहीं होगा. पीईकेबी ब्लॉक में वृक्षारोपण के कई हिस्सों में, जिनमें से अधिकांश 2012 और 2019 के बीच लगाए गए थे, डब्ल्यूडब्ल्यूआई ने नोट किया कि एकल प्रजाति मोनोकल्चर और कुछ विदेशी प्रजातियां प्रचलित थीं. यह प्रतिपूरक वनीकरण सिद्धांतों के खिलाफ है जो बताता है कि देशी पेड़ों की बहु-प्रजातियों के साथ वृक्षारोपण विकसित करना महत्वपूर्ण है. एईएल के प्रवक्ता ने उद्धृत प्रत्यारोपण पहल में मामला और भी खराब लगता है. आईसीएफआरई की रिपोर्ट के अनुसार, लगाए गए 80 प्रतिशत से अधिक पेड़ या तो मृत थे, गायब थे या खराब स्थिति में थे. उदाहरण के लिए, स्थानांतरित किए गए 1,166 महुआ के पेड़ों में से केवल 252 बच पाए थे और स्थानांतरित किए गए 6,721 साल के पेड़ों में से केवल 2,083 बच पाए थे. आरआरवीयूएनएल, आईसीएफआरई और पर्यावरण मंत्रालय ने विस्तृत प्रश्नावली का जवाब नहीं दिया.
डब्ल्यूडब्ल्यूआई के निष्कर्षों की अनदेखी करते हुए, एचएसीएफ में खनन के विस्तार को सही ठहराने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने आईसीएफआरई की सिफारिशों पर बहुत भरोसा किया है. लेकिन आईसीएफआरई की रिपोर्ट पर एक नजर कई अन्य विषमताओं की ओर भी इशारा करती है. अध्ययन में पाया गया था कि अगर खनन की अनुमति मिलती है तो हसदेव अरंड वन में को अपूरणीय क्षति होगी, लेकिन आईसीएफआरई ने तर्क दिया कि "कोयले की मांग और इस तरह, विचाराधीन क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक और औद्योगिक विकास" के कारण, इन चार ब्लॉकों में खनन की अनुमति दी जा सकती है. शुरू करने के लिए, आईसीएफआरई अपने दायरे से परे चला गया है- कोयले की आपूर्ति या इसकी उपलब्धता आईसीएफआरई और डब्ल्यूआईआई द्वारा रिपोर्ट में सूचीबद्ध अध्ययन के उद्देश्य के दायरे में नहीं आती है.
आईसीएफआरई की रिपोर्ट ने खनन के विस्तार को सही ठहराने के लिए देश में कोयले की कमी का इस्तेमाल किया है. ऐसा करने के लिए, आईसीएफआरई ने चुनिंदा आंकड़ों का उपयोग किया है, और कोयला मंत्रालय के मौजूदा आंकड़ों की अनदेखी की है, जो स्पष्ट रूप से बताता है कि कोयले की कमी चिंता का विषय नहीं है. पिछले साल से, संसद के अंदर और बाहर कई मौकों पर, जोशी ने दावा किया है कि अप्रैल, मई और जून के महीनों में कोयले के उत्पादन में भारी वृद्धि देखी गई है, भारत ने पिछले साल 156 मिलियन टन कोयले का घरेलू उत्पादन दर्ज किया था. “इस साल, इन महीनों के लिए उत्पादन बढ़कर 204.9 मिलियन टन हो गया है. यह 31 प्रतिशत की वृद्धि है,” जोशी ने जुलाई 2022 में लोक सभा को बताया. उन्होंने कहा कि "उत्पादन बढ़ रहा है," और घरेलू कोयले का उत्पादन 2014 में 577 मिलियन टन से बढ़कर 820 मिलियन टन हो गया था. सर्वोच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ़ में पीईकेबी कोयला ब्लॉक के विस्तार हेतु तर्क देने के लिए कोयले की कमी का हवाला देते हुए आईसीएफआरई के अध्ययन पर भरोसा किया.
खनन के इस विस्तार का भी कोई आधार नहीं दिखता. दो अलग-अलग अध्ययनों में, एक कोल इंडिया लिमिटेड द्वारा, जो केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रम और दुनिया में सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है और दूसरा भारतीय केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा, पहले ही स्थापित कर दिया था कि देश में नई कोयला खदानें खोलने की कोई आवश्यकता नहीं है. 2017 में सीआईएल द्वारा प्रकाशित विजन डॉक्यूमेंट के अनुसार, 2030 तक, भारत में थर्मल कोयले की मांग 8 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि को देखते हुए प्रति वर्ष 1,150 से 1,750 मिलियन टन होने का अनुमान है. 2017 तक, अकेले सीआईएल और उसकी सहायक कंपनियों ने प्रति वर्ष 1,500 मिलियन टन का उत्पादन किया. सीईए की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2029-30 में कोयला बिजली संयंत्रों से बिजली उत्पादन 1,358 बिलियन यूनिट होगा, जिसके लिए 892 मिलियन टन कोयले की आवश्यकता होगी.
दो रिपोर्टों का विश्लेषण करने के बाद, एक गैर-लाभकारी शोध संगठन, सेंटर फॉर रिसर्च फॉर एनर्जी एंड क्लीन एयर की 2020 की एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि “पहले से आवंटित ब्लॉकों की खनन योग्य क्षमता 2030 में अपेक्षित मांग से लगभग 15-20 प्रतिशत अधिक है. रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार के अपने अनुमानों और मौजूदा कोयला खदानों की संचयी क्षमता के अनुसार, भारत को नई कोयला खदानों की जरूरत नहीं है. जोशी ने कहा है कि सीआईएल 2025-26 में एक अरब का लक्ष्य हासिल कर लेगी. सीआरईए की रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे "2025 तक 100-200 मिलियन टन कोयले की भारी आपूर्ति होगी, भले ही राज्य के सार्वजनिक उपक्रमों और अन्य निजी कोयला खदानों से उत्पादन समान रहे." सीआरईए ने यह भी कहा कि हालांकि कोयले के आयात को कम करना और आत्मनिर्भरता बढ़ाना एक अच्छा उद्देश्य है, इन उद्देश्यों को हजारों हेक्टेयर वन भूमि का त्याग किए बिना और लोगों के विस्थापन के बिना हासिल किया जा सकता है.
पीईकेबी में खनन का बचाव करते हुए अपनी याचिका में, आरआरवीयूएनएल ने तर्क दिया कि बिजली संयंत्रों के लिए ब्लॉक से कोयला आवश्यक है जो राजस्थान राज्य में उत्पादित बिजली का एक बड़ा हिस्सा पैदा करता है और इसके बिना बिजली संयंत्र बंद हो जाएंगे. लेकिन श्रीवास्तव का कहना है कि समृद्ध जैव विविधता वाले घने जंगलों वाले क्षेत्रों में खनन की अनुमति देने का कोई मतलब नहीं है, जब कोयले के भंडार बहुतायत में कहीं और उपलब्ध हैं. श्रीवास्तव ने जवाब में कहा, "अगर हसदेव अरण्य में कोयला खनन बंद कर दिया जाता है, तो कोई भी बिजली संयंत्र [हसदेव अरंड में कोयला ब्लॉक से जुड़ा] कोयले की कमी के कारण बंद नहीं होगा."
इसके अलावा, श्रीवास्तव के अनुसार, केंद्र सरकार और आरआरवीयूएनएल ने उनके सामने उपलब्ध विकल्पों पर विचार नहीं किया था, जैसे कि उनके बिजली संयंत्रों के करीब पड़ी अनाबंटित खदानें जो परिवहन लागत को बचाएंगी और सीआईएल और उसकी सहायक कंपनियों द्वारा उपलब्ध कोयले और आपूर्ति से जुड़े विकल्पों की पेशकश. मध्य प्रदेश, जो छत्तीसगढ़ और राजस्थान के बीच स्थित है, में लगभग 28,800 मिलियन टन कोयले का भंडार है. श्रीवास्तव के हलफनामे का तर्क है कि सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट के आंकड़ों के आधार पर- जिस पर आईसीएफआरई का अध्ययन निर्भर करता है- अगर हसदेव अरंड ब्लॉक आरआरवीयूएनएल से वापस ले लिए जाते हैं, तो मध्य प्रदेश के शोआगपुर, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में पड़ने वाले सिंगरौली और छत्तीसगढ़ के मदनरायगढ़ कोलफील्ड्स में पर्याप्त भंडार के साथ सुलभ कोयला ब्लॉक उपलब्ध हैं. ये कोयला क्षेत्र अनावंटित हैं और पर्यावरण मंत्रालय की 2009 की रिपोर्ट की "गो श्रेणी" के अंतर्गत आते हैं- खनन से इन क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप से कम पर्यावरणीय हानि होगी. श्रीवास्तव ने तर्क दिया, "आरआरवीयूएनएल के मामले में, मध्य प्रदेश के कोयले के भंडार के चलते अतिरिक्त 400 रुपए प्रति टन की माल ढुलाई की बचत होगी."
आईसीएफआरई ने इसके बजाए पास के मदनरायगढ़ कोयला क्षेत्र को नजरअंदाज कर दिया और एचएसीएफ की तुलना कोरबा कोयला क्षेत्र से की और गलत तर्क दिया कि एचएसीएफ में खनन सस्ता होगा. छत्तीसगढ़ में भी उसने यही किया. इसके अलावा, पिछले 10 वर्षों में कैप्टिव कोयला ब्लॉकों -ब्लॉक जो संबंद्ध बिजली संयंत्रों को कोयले की आपूर्ति करते हैं- से कोयला उत्पादन पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार, कैप्टिव ब्लॉकों से उत्पादन की कमी को सीआईएल और एक अन्य सरकारी स्वामित्व वाली फर्म सिंगरेनी कोलियरीज कंपनी लिमिटेड से कोयले की आपूर्ति से पूरा किया गया था. 2014 में जब सुप्रीम कोर्ट ने 42 चालू कोयला खदानों का आवंटन रद्द किया तो पंजाब और आंध्र प्रदेश के राज्य के सार्वजनिक उपक्रमों ने यही किया.
आईसीएफआरई तर्क देने के लिए कि कोयले की कमी थी एक और आंकड़े का उपयोग करता है- कि भारत ने 2017-18 में 23 प्रतिशत और 2018-19 में 24 प्रतिशत कोयले का आयात किया. "वे यहां गलत हैं," श्रीवास्तव ने मुझसे कहा. "तथाकथित कोयले की कमी हमेशा रसद संबंधी मुद्दों के कारण होती थी क्योंकि कोयले की आपूर्ति में रेलवे की गंभीर बाधाएं होती हैं." उन्होंने कहा कि 2017 और 2019 के बीच, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमत सस्ती थी, और "तट के किनारे स्थित सभी बिजली संयंत्रों ने आर्थिक लाभ के लिए आयातित कोयले का विकल्प चुना." उन्होंने कहा कि जब 2020 में आयातित कोयले की कीमत बढ़ी, “उन्होंने बिजली मंत्रालय से संपर्क किया और घरेलू कोयले की मांग की. जब यह हुआ, तो 2021 में आपूर्ति का मुद्दा था.” पिछले दस वर्षों में कैप्टिव ब्लॉकों से कोयला उत्पादन पर कोयला मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोयला ब्लॉकों के आवंटन को रद्द करने और 2019-20 तक पुनर्प्राप्त करने के बाद उत्पादन में गिरावट आई है. 2015-2019 की अवधि के दौरान, सीआईएल द्वारा उत्पादन बढ़ाकर कमी को पूरा किया गया. कोयला मंत्रालय ने भी 2017 से 2019 के बीच कई बयान दिए , जिसमें कहा गया कि कोयले की कोई कमी नहीं है. इसके अलावा, सीआईएल ने पिछले साल की तुलना में अप्रैल 2023 में उत्पादन में 7.7 प्रतिशत की वृद्धि देखी, जो 67 मिलियन टन से अधिक हो गया, जबकि कोयले की आपूर्ति में 8.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
अप्रैल 2023 में बिजली सचिव आलोक कुमार ने ऊर्जा पर संसदीय स्थाई समिति को बताया कि, "देश में कोयले की कोई समस्या नहीं है, जहां कोयले की उपलब्धता है, वहां रेलवे रसद की कमी है." सीआईएल ने भी कहा कि कोयले की कोई कमी नहीं है, "लेकिन रसद की समस्या है."
फिर बिजली उत्पादन का मुद्दा है. सीईए का कहना है कि 1 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए जी12 ग्रेड -विद्युत संयंत्रों में प्रयुक्त औसत ग्रेड- कोयले के 5,160 मीट्रिक टन की आवश्यकता होगी, जो 85 प्रतिशत के उच्च संयंत्र भार कारक को मानते हैं. प्लांट लोड फैक्टर, प्लांट द्वारा उत्पन्न औसत बिजली और दिए गए समय में उत्पन्न की जा सकने वाली अधिकतम शक्ति का अनुपात है. इसके अनुसार, 2.38 लाख मेगावाट कोयले से बिजली की अनुमानित क्षमता के आधार पर, 2026-27 तक कोयले की आवश्यकता 1,229 मिलियन टन प्रति वर्ष होगी.
सीईए के अनुमान के अनुसार 2029-30 तक कोयला आधारित बिजली उत्पादन का हिस्सा घटकर 33 प्रतिशत रह जाएगा. याचिका में अनुमान लगाया गया है कि भले ही हम सीईए के 2029-30 में उत्पादित बिजली की इकाइयों के अनुमान के आधार पर कोयला आधारित बिजली की हिस्सेदारी 65 प्रतिशत मानते हैं, कोयले की अधिकतम आवश्यकता लगभग 1,045 मिलियन टन होगी. कोयला मंत्रालय के अनुमान के अनुसार अकेले सीआईएल अगले तीन वर्षों में इसे पार कर लेगी. श्रीवास्तव की याचिका में तर्क दिया गया है कि हसदेव अरंड के घने जंगलों में बिना खनन के इस लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है.
आरआरवीयूएनएल की 4,340 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता एचएसीएफ कोयला ब्लॉकों से जुड़ी है. इसमें से एचएसीएफ से संबंद्ध छाबड़ा थर्मल पावर प्लांट की कुल क्षमता 1,820 मेगावाट, कालीसिंध की 1,200 मेगावाट और सूरतगढ़ की 1,320 मेगावाट है. सीईए के अनुसार, 100 मेगावाट यूनिट से 660 मेगावाट यूनिट की क्षमता वाले बिजली संयंत्रों की स्टेशन ताप दर के आधार पर कोयले की खपत 2,600 से 2,250 किलो कैलोरी प्रति किलोवाट-घंटे आंकी गई है. इसके आधार पर, पीईकेबी से खनन किए गए कोयले के ग्रेड पर, जो कि जी11 है और 85 प्रतिशत के उच्चतम प्लांट लोड फैक्टर पर, कोयले की आवश्यकता प्रति वर्ष 21 मिलियन टन से कम होगी.
पिछले महीने, कोयला खनन परियोजनाओं के पर्यावरण मूल्यांकन के लिए विशेषज्ञ समिति ने पीईकेबी की खनन क्षमता को वर्तमान में 15 मिलियन टन कोयले से बढ़ाकर 21 मिलियन टन करने के आरआरवीयूएनएल के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी, जिसका अर्थ है कि इसकी 4,340 मेगावाट की आवश्यकता अकेले इस कोल ब्लॉक से पूरी हो जाएगी. पर्यावरण मंत्रालय ने आरआरवीयूएनएल को पीईकेबी का विस्तार करने की अनुमति देने के लिए आलोचना की है, भले ही उसने सीमांकित क्षेत्र में उपलब्ध कोयले की पूरी तरह से खोज न करके खनन योजना का उल्लंघन किया हो. "अगर पीईकेबी खदान अकेले 21 एमटीपीए का उत्पादन करने जा रही है, तो परसा और केंटे एक्सटेंशन में खनन का क्या औचित्य है?" श्रीवास्तव ने कहा.
मार्च 2023 में, हसदेव अरंड में अडानी की खनन परियोजनाओं का विरोध कर रहे कार्यकर्ताओं पर आयकर विभाग द्वारा विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम के कथित उल्लंघन का आरोप लगाया गया था. 27 अप्रैल को, केंद्रीय जांच ब्यूरो ने कथित एफसीआरए उल्लंघनों के लिए एक प्रसिद्ध पर्यावरण वकील और एनजीओ, लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट के सह-संस्थापक रित्विक दत्ता पर मामला दर्ज किया. दत्ता पर "कोयला परियोजनाओं को रोकने" का आरोप लगाने वाली पहली सूचना रिपोर्ट में अडानी समूह द्वारा शुरू की गई खनन परियोजनाओं के प्रभाव के खिलाफ दत्ता की कानूनी सक्रियता के कई संदर्भ हैं.