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बहुत कम समय में मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले का बक्सवाहा जंगल सोशल मीडिया के जरिए न केवल देशव्यापी मुद्दा बन गया बल्कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया का भी ध्यान अपनी तरफ खींचा है. कोरोना की भयावह त्रासदी के दौर में ऑक्सीजन, पेड़ों, जंगलों और कुल मिलाकर स्वस्थ और समृद्ध पर्यावरण की अहमियत लोगों को समझ में आई है. विशेष रूप से युवाओं की चेतना और सरोकारों में यह मुद्दा जुड़ गया है. सेव बक्सवाहा फॉरेस्ट अभियान में युवाओं की सक्रिय भागीदारी उल्लेखनीय है. इस अभियान की शुरुआत करने वाले युवाओं में से एक संकल्प जैन जो नजदीक के एक कस्बे बड़ामलहरा में रहते हैं और सागर केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र हैं, बताते हैं, “हमने देखा कि कोरोना की दूसरी लहर में मरीजों को ऑक्सीजन की भारी किल्लत हुई. हमें इस दौरान ऑक्सीजन की अहमियत समझ में आई. ऐसे में ऑक्सीजन के मुख्य स्रोत पेड़ों की इतनी बड़ी तादात में कटाई ने हमें प्रेरित किया कि इन्हें बचाया जाना चाहिए”.
हालांकि यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि पेड़ों से प्राप्त होने वाली ऑक्सीजन और मरीजों को दी जाने वाली कृत्रिम ऑक्सीजन के बीच कोई सीधा ताल्लुक नहीं है लेकिन कोरोना की दूसरी लहर में बनी परिस्थितियों ने पेड़ों और पर्यावरण को लेकर आम लोगों में जागरूकता और चेतना तो बढ़ी है और इससे कई पुराने मुद्दे फिर से सतह पर आए हैं.
बक्सवाहा में हीरे के भंडार की खोज 2004 में आस्ट्रेलियाई हीरा कंपनी रियो टिंटों ने की थी. कंपनी ने 2002 से 2017 तक आवीक्षण और पूर्वेक्षण पट्टों के तौर पर आधिकारिक रूप से काम किया था. 2014 से इस कंपनी ने खनन लीज के लिए आवेदन किया था लेकिन औपचारिकताएं पूरी न हो पाने के कारण अंतत: 2017 में रियो टिंटों ने यह डायमंड ब्लॉक मध्य प्रदेश सरकार के सुपुर्द कर दिया था.
हीरा उत्पादन के क्षेत्र में दुनिया की शीर्ष कंपनियों में शुमार आस्ट्रेलियाई कंपनी रियो टिंटों जैसी बड़ी कंपनी का इस तरह बैरंग लौटना हालांकि सामान्य बात नहीं थी. इसके पीछे के कारणों को लेकर पुख्ता और प्रामाणिक जानकारियां अभी भी सार्वजनिक नहीं हैं. लेकिन यह आम चर्चा है कि रियो टिंटों को महज औपचारिक स्वीकृतियां हासिल नहीं कर पाने के कारण बक्सवाहा में नियमित खनन लीज नहीं मिल सकी बल्कि कई जटिल पहलू इसके पीछे हैं. इस दौरान चर्चा में आईं कई खबरों से यह भी सामने आया कि रियो टिंटों ने हीरा खनन के लिए लगभग 991 वर्ग हेक्टेयर के जंगल की लीज चाही थी. चूंकि यह जंगल वन्य जीवों के परिवास के लिए आरक्षित पन्ना टाइगर रिजर्व और नौरदेही अभयारण्य के बीच एक प्रकृतिक बफर जोन है इसलिए इतने बड़े क्षेत्रफल को लीज पर देने से वन्य जीवों पर प्रतिकूल असर होते. इस दौरान वन्य जीव संरक्षणवादियों ने भी रियो टिंटों के इरादों के खिलाफ प्रतिक्रियाएं दीं. लेकिन एक बड़ी वजह यह भी मानी जाती है कि रियो टिंटों और मध्य प्रदेश सरकार के बीच की समझदारी न बन पाने की वजह से कई गतिरोध पैदा हुए.
भोपाल की पत्रकार और सूचना अधिकार कार्यकर्ता सेहला मसूद की हत्या के पीछे भी रियो टिंटों की भूमिका संदिग्ध मानी गई और इस मामले ने भी इस कंपनी के खिलाफ राजनैतिक महौल बनाया. हालांकि जिस दौरान रियो टिंटों नियमित खनन लीज आबंटन के लिए आवेदन कर रही थी तब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कोयला खनन की आबंटन नीति पर सख्त रवैया अपनाया हुआ था और 214 कोल ब्लॉक्स रद्द कर दिए थे. बाद में भारत सरकार ने नई खनन नीति के तहत आबंटन की जगह पारदर्शी खनन नीलामी प्रक्रिया अपनाई.
हालांकि जेम एंड ज्वेलरी एक्सपोर्ट प्रोमोशन काउंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष प्रवीण शंकर पाण्ड्या ने 2017 में मुंबई में हुई वर्ल्ड डायमंड कॉन्फ्रेंस में इस सवाल के जबाव में कि रियो टिंटों खाली हाथ क्यों चली गई, कहा कि “मामला काफी जटिल है, जो दिख रहा है उससे कहीं ज्यादा”. इससे यह तो लगता है कि रियो टिंटों के खाली हाथ लौटने के पीछे कुछ और भी तथ्य हैं जो सार्वजनिक नहीं हैं.
उल्लेखनीय है कि दिसंबर 2019 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी जिसमें कमलनाथ मुख्यमंत्री थे. मार्च में मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार गिर गई और बीजेपी ने वहां सरकार बनाई और शिवराज सिंह पुन: मुख्यमंत्री बन गए.
दिसंबर 2019 में यह हीरा भंडार एनडीए सरकार द्वारा लाई गई नई खनन नीति के तहत नीलामी के लिए लाया गया. बिरला समूह की कंपनी एसेल माइनिंग एण्ड इंडस्ट्रीज लिमिटेड को यह खदान आने वाले 50 सालों के लिए हासिल हुई. समाचार पत्रों के अनुसार यह कोयला क्षेत्र के बाद प्राकृतिक संसाधनों की सबसे बड़ी और मंहगी नीलामी है जिसके लिए अडानी समूह की कंपनी चंडीपदा कोलारी और बिरला समूह की ईएमआईएल के बीच करीब 11 घंटे तक गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा चली. बिरला समूह ने अपनी बेवसाइट पर लिखा है कि 2022 के अंत तक यहां काम शुरू किया जाएगा.
हालांकि बिरला समूह को भी यह एहसास है कि नीलामी में उन्हें जरूर सफलता हासिल हुई है लेकिन तमाम जरूरी अनुमतियां और सामाजिक स्वीकृति मिलना इतना आसान नहीं है और इसलिए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में वह केविएट फाइल कर चुका है ताकि उसके पक्ष को सुने बगैर किसी भी प्रकार की याचिका पर एकपक्षीय फैसला न हो. राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण भोपाल में एक याचिकाकर्ता पुष्पराग शर्मा यह बताते हैं, “पहली ही सुनवाई में एनजीटी में बिरला समूह के प्रतिनिधियों को देखकर हमने पूछा कि हमारी शिकायत तो सरकार के खिलाफ है फिर कंपनी के प्रतिनिधि यहां क्यों हैं? जिसके जबाव में हमें बतलाया गया कि कंपनी ने पहले से ही केविएट लगाई हुई है. इस खदान से जुड़े किसी भी मामले में सुनवाई में कंपनी का पक्ष सुने बिना कोई कार्यवाही नहीं हो सकेगी”
गौरतलब है कि जब रियो टिंटों इस खनन परियोजना को आगे बढ़ा रही थी तब स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर विरोध के स्वर न के बराबर थे बल्कि स्थानीय लोगों को रोजगार की आस दिखलाई दे रही थी और वे मूक समर्थन में थे. लेकिन बिरला समूह की अतिरिक्त सतर्कता, मध्य प्रदेश में सरकार का बदलना और नीलामी प्रक्रिया में अडानी समूह के हाथों से यह ब्लॉक निकल जाना और अंत में हीरे के व्यवसाय पर गुजरात लॉबी का एकाधिकार होना कुछ ऐसे संकेत जरूर हैं जिन्हें तफसील से पढ़ा जाना चाहिए.
इसे दो कारपोरेटों के बीच कि लड़ाई के तौर पर जरूर देखा जाना चाहिए लेकिन इसके सबसे बुनियादी पहलू पर तवज्जो दिया जाना जरूरी है कि ऐसे में जब तमाम ऐतिहासिक और कानूनी प्रमाण यह साबित करते हैं कि ये जंगल और जमीनें अभी भी सामुदायिक स्वामित्व में हैं, क्या इस जंगल और इन जमीनों की वैधानिक स्थिति क्या राज्य अथवा केंद्र सरकार को नीलामी करने के अधिकार देती है?
जिस जंगल को हीरा खदान के लिए नीलाम किया गया है वह छोटे-बड़े झाड़ का जंगल का है जो जंगल की गुणवत्ता के आधार पर मानक वर्गीकरण या श्रेणी है. यह जंगल दो वन्य जीव पर्यावासों (हैबिटेट्स) के बीच एक नैसर्गिक बफर जोन है. यह जंगल पन्ना टाइगर रिजर्व और नौरादेही अभयारण्य के बीच अवस्थित है. इसमें शाकाहारी जानवर जैसे हिरण, सांभर, बारहसिंघा, नील गाय और छोटे जानवरों मसलन लोमड़ी, सियार, खरगोश आदि के वजूद के लिए बेहद जरूरी है. जब टाइगर रिजर्व या नौरदेही अभयारण्य बना कर सरकारी और कृत्रिम सरहदों में टाइगर जैसे लुप्तप्राय जानवरों को महदूद नहीं किया गया होगा तब वे जरूर इस जंगल में शिकार के लिए आवा-जाही करते थे. लेकिन जब से एक-एक टाइगर बेहद कीमती हो गया है और उनकी निगहवानी अद्यतन यंत्रों के माध्यम से दिन रात की जा रही है तब से यहां कई सालों में स्थानीय लोगों ने टाइगर को नहीं देखा है.
इस जंगल का भी एक समृद्ध और प्राकृतिक फ्लोरा फौना है और अभी भी इसके प्राकृतिक जंगल होने के कई लक्षण मौजूद हैं लेकिन कई दशकों से यहां प्लांटेशन किया जाता रहा है और जिससे इसकी प्राकृतिक जैव विविधतता को स्थायी रूप से नुकसान हुआ है.
इस जंगल को राज्य सरकार के वन विभाग द्वारा ‘संरक्षित वन’ बताया जाता है. लेकिन इस विषय के प्रखर अध्येयता एडवोकेट अनिल गर्ग इस दावे को प्रामाणिक रूप से खारिज ही नहीं करते हैं बल्कि इसके कानूनी स्टेटस को लेकर ऐतिहासिक प्रमाणों का हवाल देकर बताते हैं कि क्यों यह जंगल न तो मध्य प्रदेश सरकार का है और न ही वन विभाग का? एडवोकेट गर्ग के अनुसार यहां सबसे अहम सवाल यह उठता है कि जब यह जंगल सरकार या वन विभाग के स्वामित्व में नहीं है तो इसकी नीलामी ही कैसे की जा सकती है?
अनिल गर्ग कहते हैं, “इस जंगल पर सरकार के सांपत्तिक यानी प्रोप्राइटरी अधिकार हैं न कि संपत्ति यानी प्रॉपर्टी अधिकार”. इस मूल बात को समझाते हुए वह बताते हैं कि “सरकार के पास इस जंगल का अधिकार है क्योंकि राज्य अंतत: स्वामी है लेकिन यह सामुदायिक अधिकारों, समाज के निस्तार और उनके उपयोग के लिए आरक्षित है. इसलिए सरकार समुदाय के अधिकारों के लिए ही इसका उपयोग कर सकती है. इसके इतर अगर इस जंगल का सामुदायिक उपयोग नहीं होता और अब तक के अभिलेखों में दर्ज न होता तो वह सरकार की संपत्ति होती और वह इसे किसी और उद्देश्य के लिए नीलाम कर सकती थी”.
इस जंगल से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों व प्रमाणों और इस जंगल पर चले आ रहे ऐतिहासिक विवादों पर अनिल गर्ग द्वारा प्रदान की गईं जानकारियां प्रमाणों और विश्लेषण को अगर एक मुकम्मल आधार मानें तो मामला केवल मध्य प्रदेश की इसी एक परियोजना या नीलामी का नहीं है बल्कि संयुक्त मध्य प्रदेश यानी मौजूदा छत्तीसगढ़ के मामले में भी पूरी तरह प्रासंगिक है.
उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विवादित जमीनों का इतिहास बहुत पुराना है. हालांकि पूरे देश में ही कमोबेश यही सूरते हाल हैं लेकिन अविभाजित मध्य प्रदेश में 1950 के बाद से ही जमीनों को लेकर कई विवाद लंबित हैं. अगर बाक्सवाहा की बात करें तो अनिल गर्ग बताते हैं, “हमने अपनी एक पुस्तक ‘रीवा राजदरबार और भारतीय प्रजातंत्र’ में इस मामले पर विस्तार से लिखा है. यह वही जंगल है जो 1950 में जमींदारी उन्मूलन कानून, 1950 के तहत राज्य सरकार ने ‘प्रोप्राइटरी राइट्स’ पर सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों के लिए तत्कालीन भू-अभिलेखों में दर्ज जमीनों को तत्कालीन जमींदार, जागीरदार, महल, दुमालों से अर्जित किया था.”
हालांकि जिन जमीनों की बात हो रही है वे जमीनें 6-7 फरवरी 1937 को जारी रीवा राजदरबार के एक आदेश से वन विभाग को अर्जित हुई थीं जिन्हें आजाद भारत में 1950 के जमींदारी उन्मूलन कानून के तहत राजपत्र में भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 29 के तहत संरक्षित (प्रोटेक्टेड) वन बिना किसी अधिसूचना के ही संरक्षित वन सर्वे एवं डिमार्केशन में शामिल कर लिया गया.
इन अर्जित जमीनों में से जिन्हें 1950 से ही बिना अधिसूचना के ही संरक्षित वन सर्वे एवं डिमार्केशन में शामिल कर लिया गया था उनमें से भी वानिकी के लिए उपयुक्त जमीनों को चिन्हित कर भारतीय वन कानून 1927 की धारा 4 में अधिसूचित कर आरक्षित वन बनाने के लिए प्रस्तावित कर धारा 5 से लेकर 19 तक की जांच और बंदोबस्त की आवश्यक प्रक्रिया के लिए वन व्यवस्थापन अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया. 1988 में यानी 48 सालों बाद इस जांच को संशोधित अधिसूचना के प्रकाशन करके अनुविभागीय अधिकारी छतरपुर के समक्ष भी प्रस्तुत किया. इन दोनों ही अधिसूचनाओं की जांच आज की तारीख तक लंबित है और जमीन का कानूनी स्टेटस अभी भी वही है जो रीवा राज दरबार के आदेश में था.
इस जंगल और जमीन पर कार्यवाहियों का सिलसिला रुका नहीं बल्कि कालक्रम में यह तमाम विसंगतियों के साथ आगे बढ़ता रहा. 1965 से लेकर 1975 के बीच मध्य प्रदेश के वन विभाग ने इन जमीनों को भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 34 (अ) के तहत अधिसूचित किया और राजपत्रों में इनका प्रकाशन भी किया. इस कार्यवाही के बाद छतरपुर जिले के 1177 गांवों की 437466 एकड़ से अधिक जमीन के लिए प्रकाशित इन अधिसूचनाओं को बाद में डि-नोटिफाई भी किया गया. लेकिन आज की तारीख तक इस डिनोटिफिकेशन की कार्यवाही को वन विभाग व राजस्व विभाग ने अपने अभिलेखों में अद्यतन नहीं किया. यह विसंगति अभी भी बनी हुई है. इसकी पुष्टि हाल ही 6 फरवरी 2020 को इसी मुद्दे को समझने के लिए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा गठित एक कार्यबल की रिपोर्ट करती है.
1950 के बाद वन विभाग द्वारा संरक्षित वन सर्वे में शामिल की गई जमीनों को विंध्य विधानसभा (मध्य प्रदेश के गठन से पहले) द्वारा विंध्य प्रदेश भू-राजस्व एवं कृषकाधिकार अधिनियम, 1953 में राजस्व भूमि बताया गया और कानूनी प्रावधान किए गए. जिसे 1956 में मध्य प्रदेश के पुनर्गठन के बाद मध्य प्रदेश विधानसभा द्वारा पारित मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1959 के अध्याय 18 में दखल रहित भूमि मानकर कानूनी प्रावधान कर दिए गए. मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता की धारा 237(1) में इन्हीं जमीनों को सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों के लिए आरक्षित किया गया. यह व्यवस्था आज तक वैधानिक रूप से लागू है.
अब अगर दोनों विभागों यानी वन विभाग और राजस्व विभाग की तमाम कार्यवाहियों के आधार पर इस जमीन का वैधानिक स्थिति को समझने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि छतरपुर जिले में मौजूद समस्त राजस्व ग्रामों की पटवारी मानचित्र एवं अन्य राजस्व अभिलेखों में दर्ज गैर-निजी भूमि एक तरफ वन विभाग द्वारा भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 4 एवं धारा 34 अ के तहत अधिसूचित वन भूमि है और दूसरी तरफ यही जमीनें मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 237(1) के अनुसार सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों के लिए आरक्षित भी हैं. यानी ये जमीनें वन विभाग के पास अमानत के तौर पर हैं लेकिन राजस्व विभाग के द्वारा सामुदायिक उपयोग के लिए आरक्षित हैं.
इन जमीनों की इस उलझी, असपष्ट और विवादित वैधानिक स्थिति का संज्ञान 1956 के बाद से विधानसभा में विभिन्न सरकारों ने दिए गए जवाबों में स्वीकार किया है. समय-समय पर इन्हें सुधार किए जाने के संबंध में कार्यकारी आदेश निकलते रहे और हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा गठित एक कार्यबल (समिति) ने ऐतिहासिक रूप से चली आ रही इन्हीं विसंगतियों की पड़ताल करके 6 फरवरी 2020 को अपनी विस्तृत रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंपी. इस रिपोर्ट में भी इस कार्यबल में शामिल वन विभाग के जिम्मेदार अफसरों ने इन विसंगतियों का होना स्वीकार किया. इस कार्यबल का नेतृत्व अतिरिक्त मुख्य सचिव (वन) ए. पी. श्रीवास्तव ने किया और इस कार्यबल में दो गैर सरकारी सदस्यों सहित कुल दस सदस्य थे. एक साल बीत जाने के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने अपने ही अधीन गठित किए गए एक कार्यबल की सिफारिशों की दिशा में कोई कदम नहीं उठाए हैं.
एक ताजा घटनाक्रम में किसान परिवार कल्याण संगठन के राष्ट्रीय संयोजक बाबू सिंह राजपूत ने प्रदेश में 1937 से ही वन विभाग द्वारा संरक्षित वन मान ली गईं जमीनों और भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 4 में अधिसूचित करके वन विभाग द्वारा अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर ली गई जमीनों के मामले में तभी से लंबित पड़ी धारा 5 से लेकर 19 तक की कार्यवाहियों की शिकायत भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से की. इस शिकायत का संज्ञान लेते हुए मंत्रालय ने फाइल क्रमांक 8-86/2020 एफपी में जांच शुरू की है. 17 नवंबर 2020 को प्रधान मुख्य वन संरक्षक, सतपुड़ा भवन भोपाल से इस मामले में विस्तृत रिपोर्ट तलब की है. इसी क्रम में 17 नवंबर 2020, 9 दिसंबर 2020, 3 मार्च 2021 और फिर 9 मार्च 2021 को मंत्रालय द्वारा निरंतर स्मरण पत्र भेजे जा रहे हैं. हालांकि अभी भी मध्य प्रदेश के वन विभाग की ओर से इस मामले पर कोई रिपोर्ट वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार को नहीं भेजी गई है.
ऐतिहासिक रूप से चली आ रही विसंगतियों और भूमि से जुड़े कायदे कानूनों में तमाम अस्पष्टताओं के बावजूद मौजूदा स्वरूप में भी इन जमीनों पर पहला और अंतिम हक स्थानीय समुदायों का है. अगर यह राजस्व की जमीन है तब भी और यदि यह वन भूमि है तब भी. राजस्व की जमीन होने की स्थिति में इस जमीन और इन गांवों में संविधान की 11वीं अनुसूची और 73वें संविधान संशोधन के तहत ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र में जिसे प्राकृतिक संसाधनों पर समस्त अधिकार दिए गए हैं. अगर भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 4 के तहत ये जमीनें अधिसूचित हैं जिन्हें संरक्षित वन कहा जा रहा है तब ये समस्त जमीनें वनभूमि मानी जाएंगीं और इन जमीनों पर अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी कानून, 2006 जो ‘वन अधिकार कानून’ के नाम से प्रचलित है, उसकी धारा 3(1) ख के तहत ये समस्त जमीनें समाज, समुदायों और ग्राम सभाओं को प्रदान की जा चुकी हैं. दावा करने की औपचारिक प्रक्रिया लंबित है जो कुछ गांवों में हुई है.
ऐसे में सवाल यह है कि क्या ये जमीनें जिनकी नीलामी भारत सरकार ने की है, उन जमीनों पर सरकार के प्रॉपर्टी राइट्स तय हो चुके हैं या अभी भी ये समस्त जमीनें सरकार के पास बतौर प्रोपराइटरी ही हैं जो इजमेंट यानी सामुदायिक निस्तार के लिए आरक्षित हैं? ऐसे में जब ये जमीनें 1950 से ही सामुदायिक निस्तार के प्रयोजन के लिए आरक्षित हैं तब क्या इन जमीनों को एक ऐसी परियोजना के लिए नीलाम या बेचा जा सकता है जिस परियोजना का मुख्य उद्देश्य व्यावसायिक मुनाफा हो?
चलते चलते एक बार दोनों विभागों की कार्यवाहियों को ध्यान में रखते हुए यह देखने का भी प्रयास किया जाए कि कैसे ये जमीनें दोनों ही विभागों के पास बतौर प्रोपराइटरी ही हैं और ये उनकी प्रॉपर्टी नहीं हैं. अगर मान लें कि ये जमीनें वन विभाग द्वारा भारतीय वन कानून, 1927 के तहत धारा 4 में अधिसूचित हैं तो यह अभी भी आरक्षित वन की श्रेणी में कानूनी तौर पर नहीं हैं क्योंकि इसके लिए जरूरी धारा 5 से लेकर 19 तक की जांच और बंदोबस्त की प्रक्रिया लंबित है तो यह यह वन विभाग की प्रॉपर्टी नहीं साबित होतीं.
दूसरी तरफ अगर ये जमीनें राजस्व के अधीन हैं और मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1959 के अध्याय 18 धारा 237 में शामिल हैं तथा भारतीय वन कानून, 1927 के अध्याय 2 धारा 12 के अनुसार ये जमीनें केवल तभी नीलाम की जा सकतीं हैं जब इन जमीनों पर ऐतिहासिक रूप से भू-अभिलेखों में दर्ज सामाजिक, सामुदायिक अधिकारों को समाप्त मान लिया जाए. सामुदायिक अधिकारों को समाप्त मान लिए जाने की शक्ति राज्य सरकार के पास नहीं है. सार्वजनिक प्रयोजन के लिए ऐसी जमीन अधिग्रहण किए जाने की घटनाएं मौजूद हैं जो भी सवालों से परे नहीं हैं. उन मामलों में लेकिन समुदाय के अधिकारों को स्वीकार करते हुए वैकल्पिक व्यवस्था की गई है. अत: यह तो स्पष्ट है कि सामुदायिक अधिकारों को समाधान किए बगैर जमीनों की नीलामी या उनका अधिग्रहण कानून सम्मत नहीं है.
इसके साथ ही संविधान की 11वीं अनुसूची का समग्रता में पालन नहीं होना और वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 के तहत दावा प्रक्रिया का सम्पूर्ण न होना किसी भी वनभूमि के गैर-वानिकी मकसद से जमीन का डायवर्जन नहीं किया जा सकता. ऐसे में लगता है कि इस भूखंड को इसके ऐतिहासिक और कानूनी संदर्भों में समझे बगैर भारत सरकार और राज्य सरकार ने नीलाम कर दिया.
मध्य प्रदेश में विवादित जमीनों और एक ही जमीन दो विभागों द्वारा बार-बार की गई समानान्तर कार्यवाहियों की पड़ताल के बाद यह समझ में आता है कि सरकार के कारिंदों में बुनियादी समझ का अभाव है या वे जान-बूझकर ऐतिहासिक गलतियों को दुरुस्त करने के बजाय गलतियों के इतिहास की गति को बढ़ाने का काम पूरे होशोहवास में कर रहे हैं.
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